हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 45 ☆ व्यंग्य संग्रह – ७५ वाली भिंडी – सुश्री नूपुर अशोक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  सुश्री नूपुर अशोक जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “७५ वाली भिंडी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 45 ☆ 

व्यंग्य संग्रह – ७५ वाली भिंडी

व्यंग्यकार – सुश्री नूपुर अशोक 

प्रकाशक – रचित प्रकाशन, कोलकाता  

पृष्ठ १२०

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – ७५ वाली भिंडी – व्यंग्यकार –सुश्री नूपुर अशोक ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

परसाई जी ने लिखा है “चश्मदीद वह नहीं है जो देखे, बल्कि वह है जो कहे कि मैने देखा है” नूपुर अशोक वह लेखिका हैं जो अपने लेखन से पूरी ताकत से कहती दिखती हैं कि हाँ मैंने देखा है, आप भी देखिये. उनकी कविताओ की किताब आ चुकी है. व्यंग्य में  वे पाठक को आईना दिखाती हैं, जिसमें हमारे परिवेश के चलचित्र नजर आते हैं. नूपुर जी की पुस्तक से गुजरते हुये मैंने अनुभव किया कि इसे और समझने के लिये गंभीरता से, पूरा पढ़ा जाना चाहिये.

नूपुर आकाशवाणी की नियमित लेखिका है. शायद इसीलिये उनकी  लेखनी संतुलित है. वाक्य विन्यास छोटे हैं. भाषा परिपक्व है.  वे धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्दो को देवनागरी में लिखकर हिन्दी को समृद्ध करती दिखती हैं.  बिना सीधे प्रहार किये भी वे व्यंग्य के कटाक्ष से गहरे संदेश संप्रेषित करती हैं “गांधी जी की सत्य के प्रयोग पढ़ी है न तुमने… इस प्रश्न के जबाब में भी वह सत्य नही बोल पाता.. किताब मिली तो थी हिन्दी पखवाड़े में पुरस्कार में और सोशल मीडिया में सेल्फी डाली भी थी.. गाट अ प्राइज इन हिन्दी दिवस काम्पटीशन”. लिखना न होगा कि मेरी बात रही मेरे मन में लेख में उन्होने इन शब्दो से मेरे जैसे कईयो के मन की बात सहजता से लिख डाली है.

व्यंग्य और हास्य को रेखांकित करते हुये प्रियदर्शन की टीप से मैं सहमत हूं कि नूपुर जी के व्यंग्य एक तीर से कई शिकार करते हैं. भारतीय संस्कृति के लाकडाउन में वे कोरोना, जनित अनुभवो पर लिखते हुये बेरोजगारी, डायवोर्स वगैरह वगैरह पर पैराग्राफ दर पैराग्राफ लेखनी चलाती हैं, पर मूल विषय से भटकती नहीं है. रचना एक संदेश भी देती है. रचना को आगे बढ़ाने के लिये वे कई रचनाओ में फिल्मी गीतो के मुखड़ो का सहारा लेती हैं, इससे कहा जा सकता है कि उनकी दृष्टि सजग है, वे सूक्ष्म आब्जर्वर हैं तथा मौके पर चौका लगाना जानती हैं.

कुल जमा १६ रचनायें संग्रह में हैं, प्रकाशक ने कुशलता से संबंधित व्यंग्य चित्रो के जरिये किताब के पन्नो का कलेवर पूरा कर लिया है. लेखो के शीर्षक पर नजर डालिये चुनाव का परम ज्ञान, प्रेम कवि का प्रेम, हम कंफ्यूज हैं, संडे हो या मंडे, यमराज के नाम पत्र, बेटा बनाम बकरा, पूरे पचास, किस्सा ए पति पत्नी, अथ श्री झारखण्ड व्यथा, इनके अलावा दो तीन रचनायें कोरोना काल जनित भी हैं. अपनी बात में वे बेबाकी से लिखती हैं कि अंत की ६ रचनायें अस्सी के दशक की हैं और यथावत हैं, मतलब उनकी लेखनी तब भी परिपक्व ही थी.

अस्तु, त्यौहारी माहौल में, दोपहर के कुछ घण्टे और पीडीएफ किताब पर सरसरी नजर डालकर लेखिका की व्यापक दृष्टि पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस पीढ़ी की जिन कुछ महिलाओ से व्यंग्य में व्यापक संभावना परिलक्षित होती है नूपुर अशोक उनमें महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 69 – दूजा राम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं भाई बहिन के प्यार की अनुभूति लिए एक अतिसुन्दर लघुकथा  “दूजा राम।  कई बार त्योहारों पर और कुछ विशेष अवसरों पर हम अपने रिश्ते  निभाते कुछ नए रिश्ते अपने आप बना लेते हैं। शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 69 ☆

☆ लघुकथा – दूजा राम ☆

वसुंधरा का ससुराल में पहला साल। भाई दूज का त्यौहार। अपने मम्मी-पापा के घर दीपावली के बाद भाई दूज को धूमधाम से मनाती थी। परंतु ससुराल में आने के बाद पहली दीपावली पर घर की बड़ी बहू होने के कारण दीपावली का पूजन बड़े उत्साह से अपने ससुराल परिवार वालों के साथ मनाई।

ससुराल का परिवार भी बड़ा और बहुत ही खुशनुमा माहौल वाला। सभी की इच्छा और जरूरतों का ध्यान रखा जाता। हमउम्र ननद और देवर की तो बात ही मत कहिए। दिन भर घर में मौज-मस्ती का माहौल बना रहता।

परंतु भाई दूज के दिन सुबह से ही अपने छोटे भाई की याद में वसुंधरा का मन बहुत उदास था। दिन भर घर में भाई के साथ किए गए शैतानी और बचपन की यादों को याद कर वह मन ही मन उदास हो उसकी आँखों में आंसू भर भर जा रहे थे। क्योंकि ये पहला साल हैं जब वह अपने भाई से दूर है।

पतिदेव की बहनें और ननदें अपने भैया को दूज का टीका लगा हँसी ठिठोली कर रहीं  थी।

परंतु बस अपनी भाभी वसुंधरा के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं ला पा रहे थे। सासु माँ और पतिदेव भी परेशान हो रहे थे। आठ दस ननद देवर भाभी को थोड़ा परेशान देखकर सभी अनमने से थे।

सभी टीका लगा कर उठ रहे थे परंतु एक राम जिनका नाम था बहुत ही समझदार, नटखट और मासूम सा देवर बैठा रहा।

सभी ने कहा… “भाई क्यों बैठा है उठ प्रोग्राम खत्म हो गया।” और एक बार फिर से ठहाका लगा गया।

परंतु अचानक सब शांत हो गए राम ने अपनी भाभी की तरफ ईशारा कर कहा…. “भाभीश्री दूज का चाँद तो मैं नहीं बन पाऊंगा, आपके भाई जैसा, परंतु मुझे दूजा राम समझकर ही टीका लगाओ। तभी मैं यहाँ से उठूंगा।”

वसुंधरा भाभी के बड़े-बड़े नैनों से अश्रुधार बहने लगी।  वह दौड़ कर पूजा की थाली ले आई। दूज का टीका लगाने चल पड़ी। और अपने इस अनोखे रिश्ते को निभाने तैयार हो गई।

तिलक लगा ईश्वर से सारी दुआएं मांगी। घर में सभी बड़े ताली बजाकर आशीष देने लगे। देखते-देखते ही वसुंधरा का चेहरा खिल उठा।

उसे ससुराल में अपने देवर के रुप में भाई दूज पर अपना भाई जो मिल गया दूज का चाँद।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 72 ☆ दीप अंगणात ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 72 ☆

दीप अंगणात

दीप अंगणात जळो

सारी इडापिडा टळो

आहे सण दिवाळीचा

सुख समाधान मिळो

 

दीपावलीचा पाडवा

त्याच्या नावात गोडवा

पंख फुग्याचे बांधुनी

दीप आकाशी उडवा

 

आल्या चांदण्या या खाली

रंग लावुनी या गाली

दारूकाम हे मोहक

फुलो आकाशात वेली

 

शेत पिको हे जोमात

माल विको हातोहात

अन्नदाता बळीराजा

राहो माझा आनंदात

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दीवाली की दस्तकें, दीपक की पदचाप।

आओ खुशियां मनायें, क्यों बैठे चुपचाप।।

 

अंधियारे की शक्ल में, बैठे कई सवाल ।

कर लेना फिर सामना, पहले दीप उजाल।।

 

कष्टों का अंबार है, दुःखों का अंधियार ।

हम तुम दीपक बनें तो, फैलेगा  उजियार ।।

 

नहीं पूर्व थी सूचना,और न था संकेत ।

अकस्मात तुम चल  दिए , त्यागा नेह निकेत।।

 

भटक-भटक कर आ गया, मैं फिर तेरे द्वार।

और किसी का है नहीं, बस तेरा अधिकार ।।

 

आंख उलझ कर रह गई, रहे तरसते कान।

बस इतनी थी खैरियत, झांक गई मुस्कान।

 

अधरों पर मुस्कान वह, जैसे हो फरमान।

तिल कातिल सा देखता, बना हुआ दरबान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 24 – जीवन की गति उलझी… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “जीवन की गति उलझी…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 24– ।। अभिनव गीत ।।

☆ जीवन की गति उलझी... ☆

साड़ी के छोर सखी

ऐसे मत बाँध री  |

लोगों के चेहरे पर

मन की सड़ाँध री ||

 

सर्पिला है परछाई

तन की द्युति शरमाई

चूल्हे का है कहना

भात नहीं राँध री ||

 

जीवन की गति उलझी

छुअन तक नहीं समझी

घूर घूर क्या ताके

तू  है क्या  आँधरी ?

 

कोमल कोमल हाथों

पिघली इन बरसातों

सबर  कर तनिक तो डर

देहरी मत फाँद री  ||

 

संध्या है घिर आई

लौट गई तरुणाई

आ उतरा  मँगरे पर

धुला धुला चाँद री ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

11-02-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 69☆ आमने-सामने – 5 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार  डॉ सुरेश कुमार मिश्रा जी (हैदराबाद),श्री  अशोक व्यास जी (भोपाल) एवं श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी  (जबलपुर) के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 69

☆ आमने-सामने  – 5 ☆

डॉ सुरेश कुमार मिश्रा (हैदराबाद)

क्या एक सरकारी कर्मचारी सत्ता पक्ष के गलत फैसलों पर तंज कसते हुए व्यंग्य लिख सकता है? यदि हाँ तो उसके लिए क्या प्रावधान हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

सुरेश कुमार जी, जब तक ढका मुंदा है और आपके कार्यालय परिवार के लोग जीवन से तटस्थ हैं, तब तक तो कुछ नहीं होता, कार्यालय का काम और अनुशासन आपकी प्राथमिकता है और यदि लेखक के अहंकार में चूर होकर बास से खुन्नस ली तो साथ के लोग और बास आपको फांसी चढ़ाने के लिए बैठे रहते हैं। क्योंकि आप जानते हैं कि सच को उजागर करने वालों का दुनिया पक्ष कम लेती है और आपको व्यंग्य लिखने की सरकारी अनुमति मिलेगी नहीं, ऐसी दशा में लेखक को विसंगतियों पर इशारे करके लिखना होगा।

 

श्री अशोक व्यास (भोपाल) 

मेरा प्रश्न है कि आजकल जो व्यंग्य पढ़ने में आ रहे हैं उसमें  साहियकारों  पर जिसमें अधिकतर व्यंग्यकारों पर व्यंग्य किया जा रहा है । क्या विसंगतियों को अनदेखा करके दूसरे के नाम पर अपने आप को व्यंग्य का पात्र बनाने में खुजाने जैसा मजा ले रहे हैं हम ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

भाई साहब, सही पकड़े हैं। हम आसपास बिखरी विसंगतियों, विद्रूपताओं, अंधविश्वास को अनदेखा कर अपने आसपास के तथाकथित नकली व्यंंग्यकारों को गांव की भौजाई बनाकर मजा ले रहे हैं, जबकि हम सबको पता है कि इनकी मोटी खाल खुजाने से कुछ होगा नहीं, वे नाम और फोटो के लिए व्यंग्य का सहारा ले रहे हैं।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव (जबलपुर)

आप लंबे समय तक बैंकिंग सेवाओं मे थे, बैंक हिंदी पत्रिका छापते थे, आयोजन भी करते थे।

आप क्या सोचते हैं की व्यंग्य, साहित्य के विकास व संवर्धन में संस्थानों की बड़ी भूमिका हो सकती है ? होनी चाहिये ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

विवेक भाई, हम लगातार लगभग 36 साल बैंकिंग सेवा में रहे और शहर देहात, आदिवासी इलाकों के आलावा सभी स्थानों पर लोगों के सम्पर्क में रहे और अपने ओर से बेहतर सेवा देने के प्रयास किए। पर हर जगह पाया कि बेचारे दीन हीन गरीब, दलित, किसान, मजदूर दुखी है पीड़ित हैं, उनकी बेहतरी के लिए लगातार सामाजिक सेवा बैंकिंग के मार्फत उनके सम्पर्क में रहे, गरीबी रेखा से नीचे के युवक युवतियों को रोजगार की तरफ मोड़ा, दूरदराज की ग़रीब महिलाओं को स्वसहायता समूहों के मार्फत मदद की मार्गदर्शन दिया। प्रशासनिक कार्यालय में रहते हुए गृह पत्रिकाओं के मार्फत गरीबों के उन्नयन के लिए स्टाफ को उत्साहित किया, बिलासपुर से प्रतिबिंब पत्रिका, जबलपुर से नर्मदा पत्रिका, प्रशिक्षण संस्थान से प्रयास पत्रिका आदि के संपादन किए, और जो थोड़ा बहुत किया वह आदरणीय प्रभाशंकर उपाध्याय जी के उत्तर में देख सकते हैं। बैंक में रहते हुए साहित्य सेवा और सामाजिक सेवा से समाज को बेहतर बनाने की सोच में उन्नयन हुआ, दोगले चरित्र वाले पात्रों पर लिखकर उनकी सोच सुधारने का अवसर मिला। कोरोना काल में विपरीत परिस्थितियों के चलते बैंकों में अब समय खराब चल रहा है इसलिए आप जैसा सोच रहे हैं उसके अनुसार अभी परिस्थितियां विपरीत है।

क्रमशः ……..  6

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 25 ☆ दीपावली ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक कविता  “दीपावली”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 25 ☆ 

☆ दीपावली

वसुंधरा पर स्वर्ण की वर्षा सी,

निशा पर प्रभात की विजय सी,

दीपावली करती हमें आनंदित दीपों के पर्व सी I

 

दीपों की रौशनी से मिटता निशा का अंधकार सा,

द्वार की रंगोली से, भरती जीवन में नया आकार सा,

हर रूठे मन मे भरता उजाले सा,

हर अंग सजता, अलंकार सा,

हर मुखड़ा चहकता मोहक चितवन सा,

हर आँगन लगता मधुवन सा I

 

वसुंधरा पर स्वर्ण की वर्षा सी,

निशा पर प्रभात की विजय सी,

दीपावली करती हमें आनंदित दीपों के पर्व सी।

 

निधिपति का स्वागत करने का ये पर्व,

राम के लिये हर पूजा हर जतन करने का ये पर्व,

राम के वनवास से लौटने का ये पर्व,

हर आँगन में फैलता स्वर्ण लता सा ये पर्व,

मिठाईयों में मीठा रसगुल्ले सा ये पर्व,

पुष्पों में सुन्दर कमल सा ये पर्व,

वसुंधरा पर स्वर्ण की वर्षा सी,

निशा पर प्रभात की विजय सी,

दीपावली करती हमें आनंदित दीपों के पर्व सी।

 

ऐसे ही हर साल आये ये पर्व,

कुमार के मौसम को जगमगाये ये पर्व,

भाईचारे और एकता को जगाये ये पर्व,

हर आँगन हर मुखड़ा पटाखे की रोशिनी से चहके ये पर्व,

पकवानों की महक से हर आँगन महकाये ये पर्व,

रुढ़िवाद, भेदभाव को दूर करे ये पर्व।

 

वसुंधरा पर स्वर्ण की वर्षा सी,

निशा पर प्रभात की विजय सी,

दीपावली करती हमें आनंदित दीपों के पर्व सी।

 

सरोवर में स्वर्ण मीन सा ये पर्व,

भानु पर अग्नि सा ये पर्व,

प्रभात में रोशन और पानी में दामिनी सा ये पर्व,

भाईचारे और एकता की मिसाल पैदा करे ये पर्व।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #17 ☆ इक ज्योति जलाइए ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण एवं भावप्रवण  कविता “इक ज्योति जलाइए”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 17 ☆ 

☆ इक ज्योति जलाइए ☆ 

हर मायूस दिल में

इक ज्योति जलाइए

दीपोत्सव का उत्सव है

सब मिलकर मनाइए

माना हवाओं में

जहर बहुत है

माना तूफानों में

कहर बहुत बहुत है

घमंड, अभिमान के

मेले लग रहे हैं

बिक रहा इन्सान

और बिकते इन्सानों के

ठेले लग रहे हैं

मर्यादा पुरुषोत्तम

कशमकश में पड़े हैं

अटृहास करते

चहुं ओर रावण खड़े हैं

वध कीजिये इन दुष्टात्माओं का

सत्य को बचाइये

इक ज्योति जलाइये

 

कुछ उम्मीद लिए

आसमान में तांक रहें हैं

फिर अपनी झोपड़ी के

अंधेरे में झांक रहें हैं

चाँद सितारे

हो तुमको मुबारक

उनको तो है

बस जुगनुओं की जरूरत

कोई टूटा हुआ तारा

उनकी नजर कर देता

अरमानों से उनकी

झोली भर देता

कुछ पल जीवन में

खुशियाँ आ जाती

मिठाई की मिठास तो

सबको है भाती

बुझ गई आँखों में

रोशनी जलाइए

टूटे हुए दिलों को

धीरज बंधाइए

बाँटिए खुशियाँ

उनको गले लगाइए

इक ज्योति जलाइए

 

कब तलक एक दूसरे से

नफ़रत करोगे

इन्सान हो इन्सान से

कब मुहब्बत करोगे

जख्मों को कुरेदोगे

तो क्या फ़ायदा होगा ?

भर जाये जख्म ऐसा

क्या कोई कायदा होगा ?

मंदिर की घंटियाँ हो

या मस्जिद की हो अजान

हर जगह सर झुकाके

खड़ा है इन्सान

कुछ सौदागर यह अफीम

बाँट रहे हैं

एकता, भाईचारे की जड़ों को

काट रहे हैं

इन भटके हुए राहगीरों को

सही राह दिखाइए

इक ज्योति जलाइए

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 24 ☆ भ्रमनिरस… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 24 ☆ 

☆ भ्रमनिरस… ☆

पाऊस येणार नक्की

मनात पालवी फुटली

पालवी मनात फुटताना

गर्दी ढगाने केली…

 

ढग दाटून आले

काळोख ही पडला

कुठल्याही क्षणाला

सुरुवात होईल पावसाला…

 

मयूर नाचू लागला

पिसारा खुलून गेला

पानांची सळसळ

थंडगार वारा सुटला…

 

थंडगार वारा सुटला

त्याचा जोर वाढला

आलेले आभाळ सर्व

काढता पाय त्यांनी घेतला…

 

भ्रमनिरस जाहला

मन अशांत जाहले

न येता पाऊस काहीच

ढग निघून-विरून गेले…

 

आघात असा झाला

खूप बेकार वाटले

येणाऱ्या पावसाने

का असे भुलविले…?

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 5 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे –5 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

जेव्हा माझ्या घरी आई-बाबांना समजले की मी आता काहीच पाहू शकणार नाही, अर्थातच काही करू शकणार नाही, काय बरं वाटलं असेल त्यांना?आता ही चा काहीही उपयोग नाही, अ सा जर त्यांनी विचार केला असता,  तर माझ्यासाठी ते किती अवघड होतं. पण त्यांनी मला इतकं समजून घेतलं, इतकं तयार केलं म्हणूनच आज मी आनंदाने  वावरू शकते.

घरामध्ये मी सारखी आईच्या या मागे मागे असायची. किचन मध्ये काहीतरी लुडबुड करायची. आईला सारखं लक्ष ठेवायला लागायचं. एके दिवशी आईनं काय केलं, फुलाची परडी माझ्याकडे घेऊन आली आणि त्यात ली लाल फुलं उजवीकडे आणि पिवळी फुलं डावीकडे अशी ठेवली. माझा हात हातात घेऊन ते मला दाखवलं अर्थात स्पर्शज्ञानान मी

पाहिलं. सुई मध्ये दोरा ओवून दिला आणि एकदा उजवीकडच  एक फुल आणि एकदा डावीकडचा एक फूल अस ओवायला शिकवलं आणि झाला कि छान हार तयार. आईचा हा प्रयोग यशस्वी झाला. अर्थात हिला जमलं तर जमू दे कंपल्शन

केलं नाही. मलाही तो नाद लागला आणि  आमच्या देवाला रोज रंगीत फुलांचा मिळायला लागला. भाजी निवडायला हीआईनं मला शिकवलं. किसणीवर खोबरे किसायच,  गाजर किसायचं हेही मी शिकले. माझी आई जर त्यावेळी टी पं गाळत बसली असती तर आजची मी तुम्हाला दिसलेच नसते. घरातलं ट्रेनिंग मला आईने दिलं आणि बाहेर शाळेमध्ये अभ्यासाव्यतिरिक्त वक्तृत्वाचे धडे माझ्या बाबांनी गिरवून घेतले. खरंच या दोघांचा किती मोठा वाटा आहे माझ्या व्यक्तिमत्व घडणीमध्ये !दोन्ही महत्वाचे होते. मी स्वयंपाक करू शकणार नव्हते पण आईला इतर कामात मदत करू शकले ‘अजूनही करते आहे.

मी साधारण सातवीत असताना टेप रेकॉर्डर, टेलिफोन आमच्या घरी आला.गाणी ऐकता ऐकता तो बंद कसा करायचा ते हात फिरवून मी बघायला लागले.माझ्या भावाच्या आणि बहिणीच्या ते लक्षात आल्यावर त्यांनी मला प्ले, स्टॉप, रेकॉर्ड या सगळ्या बटनां नी माझ्या बोटांनी ओळख करून दिली. रिवाइंडिंग कसं करायचं हेही शिकवलं. त्याचा मला पुढे खूपच उपयोग झाला. एम ए चा अभ्यास करताना मॅडम जे वाचून दाखवत ते मी टेप करून घेत होते. आणि मला पाहिजे तेव्हा ऐकू शकत होते. याच प्रमाणे नवीन आलेला फोन कुतुहलाने मी हात फिरवून ओळख करून घेत होते. माझ्या भावाने हाउ टू ऑपरेट हे मला शिकवलं. रिसिव्हर हातात दिला फोनवरील बटनांची एक ते नऊ आकड्यांची ओळख करून दिली. ते कसे दाबायचे तेही शिकवलं. 22 आकडा असेल तर दोन चे बटन दोनदा दाबायचे असे सांगितले. मी तशी करत गेले आणि आणि मला अपोआप फोन नंबर रही पाठ होत गेले. मुद्दाम पाठांतर असे करायला लागले नाही.

रेडिओ लावणे मला खूप सोप्प वाटलं. खूप आवडलं सुद्धा. काही वर्षांनी याच रेडियो मधून माझा आवाज मी ऐकू शकेन असे मला वाटले सुद्धा नव्हते. सांगली आकाशवाणी वरून ऊन आणि कोल्हापूर आकाशवाणीवरून माझी मुलाखत प्रसारित झाली आहे बर का !

अर्थात मला सगळेच येते असेही नाही. बाहेर जाताना कोणाच्यातरी मदतीशिवाय मी अजूनही जाऊ शकत नाही. पूर्वी मला बाबा म्हणायचे तुला पांढरी काठी घेऊन देऊया त्याची सवय कर म्हणजे तुला चालायला सोपे जाईल. पण पण त्यावेळी मी त्यांचे ऐकले नाही. तशी मी हट्टी होते.

रेग्युलर शाळेमध्ये जात असल्यामुळे आणि बाईंनी शिकवलेले सगळे समजत असल्यामुळे ब्रेल लिपी शिकण्याचे मला महत्त्व वाटले नाही. एकदोनदा मी प्रयत्न केला होता. पण तिथल्या वातावरणामुळे मला तिकोडी लागले नाही. मी ऐकून शिकायचे, लक्षात ठेवायचे, सांगायचे यामध्ये घोडदौड सुरू ठेवली.

आई सांगते लहानपणी माझं सुसाट काम होत. जीना सुद्धा सहज धडधडत उतरायची. बघणार यालाच भीती वाटायची इतरांनाच खूप काळजी वाटायची.

माझ्या स्वतःच्या वस्तू म्हणजे कंपास, पेन्सिल पेन रबरसगळं मी व्यवस्थित ठेवायची.मात्र माझ्या भावाला बहिणीला त्यांची एखादी वस्तू सापडेना झाली की खुशाल माझ्यातली काढून घ्यायची.मला समजल्यावर मी त्यांच्यावर खूप रागवाय ची. अर्थात ते थोडाच वेळ टिकायचं.

माझ्या काकूच्या आईने मला क्रोशाचे काम शिकवल. त्यांनी मला साखळी घालणे,  खांब घालणं शिकवलं होतं. त्याचा मी रुमाल ही के ला होता. अजून मी तो जपून ठेवला आहे. आत्तासुद्धा क्वचित मला क्रोशा चं मिळण्याचा मोह होतो. मी कधीतरी करते.

घरी कोणी आले तर त्यांना पाण्याचा तांब्या पेला नेऊन देते,  आईने तयार केलेला चहा ती कप बशी मी देते.सगळ्यांना खूपच आश्चर्य वाटते.पण मी हे सगळं सरावाने   आणि आईला थोडीतरी माझी मदत व्हावी मुद्दाम शिकले आहे.

मागच्या वर्षी माझ्या बाबांना दवाखान्यात न्यायचे होते. त्यावेळी मी आधी फोन करून डॉक्टरांची अपॉईंटमेंट घेतली होती. बाबांना रिक्षातून घेऊन गेले होते. सगळ्यांना त्याच्या इतकं आश्चर्य वाटलं की काही विचारू नका.

आवाजावरून मी लोकांना बरोबर ओळखण्याचा प्रयत्न करते. त्यामध्ये यशस्वी होते. मग काय विचारता भेटणारी व्यक्ती कौतुकच कौतुक करते. पण लक्षात ठेवणे हे मी मेंदुवर इतकं बिंबवलं आहे कि त्यामुळेच मी सगळं लक्षात ठेवू शकते.

आमच्या घरी वॉशिंग मशीन आणल्यानंतर मी तेसुद्धा शिकून घेतलं आणि सध्या तर मीच ते ऑपरेट करते. आईचं तेवढच एक मोठं काम कमी होतं ना !तेवढीच आईला मदत होते, तिला विश्रांती मिळू शकते याचा मला खूप आनंद होतो.

कॉलेजचा अभ्यास, वक्तृत्व स्पर्धा, गॅदरिंग, मैत्रिणी आणि आईने शिकवलेली घरातली काम हे सगळ करण्यामध्ये माझं बी. ए.वर्ष कसं संपलं समजले सुद्धा नाही.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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