मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 67 ☆ अर्थव्यवस्था (हज़ल) ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 67 ☆

☆ अर्थव्यवस्था (हज़ल)  ☆

रोज सकाळी हवा उतारा उठल्या नंतर

इलाज नाही दारुत पुरता फसल्या नंतर

 

नशा शोधली अशी कशी ही अरे माणसा

तरंगताना दिसतो दारुत बुडल्या नंतर

 

अपशब्दांची उधळण होते तोंडामधुनी

असेच घडते त्यांच्या सोबत बसल्या नंतर

 

बैठक आता कशी थांबवू तुम्हीच सांगा

ग्लास दारुचा ओठांना ह्या भिडल्या नंतर

 

हातामधला ग्लास डोलतो चढते त्याला

मी तर मानव डोलणार ना चढल्या नंतर

 

दया करावी धर्म सांगती सारे येथे

पामरास या उचलुन घ्यावे पडल्या नंतर

 

देशाची ह्या अर्थव्यवस्था माझ्यावरती

देश चालणे कठीणच दारु सुटल्या नंतर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

बेचैनी  मन की बढ़ी, व्यस्त क्षणों के बाद ।

कोलाहल को चीर कर, आई कोमल याद।।

 

बैठा हूं मैं दूर पर, यादों में प्रिय पास ।

सारी दूरी पा, मन उपजा विश्वास ।

 

बहुत दूर है आज हम, कल थे बहुत करीब।

काट रहे हैं जिंदगी, यादें बनी सलीब।।

 

वे मधुमेह पल याद है, याद मधुर संवाद ।

बहुत चाहता भूलना, आ जाती है याद ।।

 

प्रकट नहीं मुख से अगर, होती नहीं प्रतीति।

ठहरेगी कब तक भला, कालपात्र’ में प्रीति ।।

 

दहक रही है जिंदगी, ज्यों जंगल की आग ।

स्वाहा ध्वनियों से परे, कहां रहा है भाग।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 13 ☆ व्यंग्य ☆ आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 13 ☆

☆ व्यंग्य – आप तो बिलकुल हमारे जैसे हो 

नमस्ते ट्रम्प सर,

आपको हम भारतीय लोग बेहद पसंद करते हैं यह तो पता था, मगर क्यों, यह अब जाकर समझ में आया. इन्कम टैक्स की चोरी के मामले में आप तो बिलकुल हमारे जैसे निकले. सेम-टू-सेम. बल्कि हमारे भी गुरू निकले !! क्या जिगरा पाया है सर, पिछले अठारह साल में से ग्यारह साल तो धेलाभर टैक्स नहीं चुकाया. 2016 में चुकाया भी तो बस सात सौ पचास डॉलर, बोले तो मात्र पचपन हज़ार रुपये. इत्ता तो हमारे यहाँ लोअर क्लास बाबू की सेलेरी से कट जाता है. बहरहाल, खबर छपी तो आपका रिएक्शन आया ‘ये फेक न्यूज है’. सेम-टू-सेम हमारे जननायकों टाईप. लगा कि वाशिंगटन में भी हमारा अपना कोई राजनेता है जो अभी बस ट्वीट करने ही वाला है – ‘अपन तो बाबा-फ़कीर आदमी है, न इन्कम जानते हैं न टैक्स. सेवा कर रहे हैं देश की.’

बहरहाल, सोने जैसे बाल हैं आपके, सर. हम तो इन पर बहुत पहले से फ़िदा हैं मगर राज तो न्यूयार्क टाईम्स ने खोला. कंपनी खर्चे में डेबिट डाल के सत्तर हज़ार डॉलर तो आपने अपने बाल सवांरने पर खर्च किये, बोले तो पचास लाख रूपये. इत्ते में तो इंडिया में नया माथा प्लांट कर दें कॉस्मेटिक सर्जन्स. वैसे ईमानदारी से आपके सरतराश ने तो आपसे ज्यादा ही चुकाया होगा टैक्स. छोटे लोग ऐसी हिम्मत कहाँ कर पाते हैं. आदमी एक बार जमीर से गिरे तो वो अपने मातहतों के जमीर से भी नीचे गिर जाता है.

कसम से ट्रंप सर, कल को खुदा न ख्वास्ता आप चुनाव हार जाएँ तो घबराना मत – इंडिया में लड़ लेना. ऐसी क्वालिटी वाले नेताओं को हम सर-माथे पर बैठा के रखते हैं. हारते वे ही हैं जो ईमानदारी से टैक्स चुकाते हैं. बल्कि, आप तो सोचो मत, इंडिया आ ही जाओ सर. कुछ हम आपसे सीखेंगे, कुछ आप हमसे सीखना. माल कहाँ छुपाना है – टाईलेट की टाईल्स के पीछे, गद्दे में कॉटन के बीच, दीवार में ठुकी टोंटियों में, घर में लगी ठाकुरजी की प्रतिमा के नीचे. ट्रंप हाउस ऐसा बनवा देंगे कि इन्कम टैक्स ऑफिसर्स का बाप भी माल नहीं सूंघ पायेगा. और वैसे भी आपके घर छापा पड़ने की संभावना नहीं रहेगी. वो तो अपन के यहाँ तभी पड़ता है जब आप विपक्ष में हों और सत्तापक्ष में पाले गये दोस्तों से आपकी जुगाड़ कम हो गई हो. मंतर ये कि रहें तो सत्ता में, ना रहें तो भी सभी दलों में अपने मोहरे बिठाकर रखियेगा, तब कुछ ना बिगड़ेगा.

जब आयें तो पांच-सात एकड़ की खेती खरीद लीजियेगा. हमारे जननायक इत्ती खेती में तो करोड़ों की इन्कम दिखा लेते हैं. प्रोग्रेसिव कृषक जो ठहरे. कृषि वैज्ञानिक हैरान हैं कि बंजर जमीन में करोड़ों के सेब फल कैसे उग आते हैं. कहते हैं – ‘भाग्‍यवाले का खेत भूत जोतता है’. अपन के जननायक कमाते राजनीति में हैं, दिखाते खेती में हैं, इन्वेस्ट करते हैं शेल कंपनियों में, लांड्रिंग करते हैं शेयर बाज़ार में. उनका न कुछ बेनामी होता है और न कुछ आय से अधिक. देश सेवा का शुल्क मान कर रख लेते हैं मनी-मनी. एजेंसियां कहती हैं पनामा, सेशल्स या लिचटेंस्टीन टैक्स हेवन कंट्रीज हैं, वे गलत हैं. आदमी में थोड़ा सा रसूख और ढ़ेर सारी बेशर्मी हो तो कर बचाने का स्वर्ग अमेरिका भी है और इंडिया तो है ही.

इंडिया में इतना सब होते हुवे भी जब से आपके बारे में पढ़ा है – एक बड़ा वर्ग डिप्रेशन में चला गया है. उनको लगता है कि उनके ऊँट पहाड़ के नीचे आ गये हैं. उन्हें बचाने का उपाय ये है कि आप एक किताब लिखें – ‘रैपिडेक्स – आयकर बचाने के एक सौ एक शर्तिया नुस्खे’. बेस्ट सेलर वहाँ भी, यहाँ भी.

और अंत में, ये अपन के शर्ट की कॉलर ऊँची करके चलने के पल हैं. आखिर, अपन आप से ज्यादा इन्कम टैक्स जो चुकाते हैं ट्रंप सर. नहीं क्या ?

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

(ई-अभिव्यक्ति किसी व्यंग्य /रचना की वैधानिक जिम्मेदारी नही लेता। लेखकीय स्वतंत्रता के अंतर्गत प्रस्तुत।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 19 – कुछ शब्दचित्र ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “कुछ शब्दचित्र। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 19– ।। अभिनव गीत ।।

☆ कुछ शब्दचित्र

 

चित्र :: आमुख

 

बिखर गईं मुस्काने

होंठों की दराज से

माँगा जिनको सबने

चेहरे के समाज से

 

चित्र :: एक

 

मौसम डरा -डरा सा

बाहर को झाँका है,

मौका परदे के विचार

से भी बाँका है

 

चुपके पूछ रहा-

कपड़े क्या सस्ते हैं कुछ?

“तो खरीद लूँगा मैं”

कस्बे के बजाज से

 

चित्र :: दो

 

पेड़ों के पत्तों में

हलचल बढ़ने  वाली

शाख -शाख पर फैली

केसर उड़ने वाली

 

फैल रही खुशबू अब

चारों ओर सुहानी

हवा लुटाती है अपनापन

इस लिहाज से

 

चित्र :: तीन

 

वहीं ज्योति सी प्रखर

धूप की बेटी के मुख

अंग -अंग पर, छाया

रंग से बदल गया रुख

 

दोनों हाथों से घर में

वह सगुन स्वरूपा

डाल रही सगनौती है

छत पर अनाज से

 

© राघवेन्द्र तिवारी

27-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 65 ☆ कविता – महापौर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  की एक सार्थक कविता  – महापौर। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 65

☆ कविता  – महापौर ☆ 

शहर का मुखिया,

महापौर ऐसा हो,

जब भी जहां मिले,

तो मुस्करा के मिले,

जन जन के दुःख दर्द,

खिल खिला के दूर करे,

धर्म सम्प्रदाय से उठकर,

मानव धर्म का निर्वाह करे,

तेज तर्रार आदर्श लिए,

हरियाली की बात करे,

धूल को शहर से भगा के,

चमचमाती सड़क दे,

गगनचुंबी इमारतों के पास,

झिलमिलाती रोशनी दे,

बेरोजगारों को रोजगार दे,

समस्याओं को मार दे,

वार्ड वार्ड घूमकर,

जन जन को प्यार दे,

जनहित के कार्य में,

घर -द्वार त्याग दे,

महकते गुलाब और,

आलीशान मुस्कान दे,

शहर के द्वार में,

शान शौकत प्यार दे,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 22 ☆ चाँद पाने का सफर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “चाँद पाने का सफर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 22 ☆ 

☆ चाँद पाने का सफर 

 

चांदी  की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

उसे पाने को जी भी ललचाया था कभी,

गोल-गोल चाँद से जड़ा आकाश,

आकाश में तारों के बीच में अड़ा,

सुन्दर कोमल, माँ की कटोरी से शायद बड़ा,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

छत पर खड़ी करती रहती हूँ मैं कोशिश कभी,

कैद करना चाहती हूँ आकाश के ये सुन्दर पूत को कभी,

छू लेना चाहती हूँ उस मौन प्रतीक को कभी,

क्या ये कोशिश पूरी हो पायेगी कभी,

चांदी की कटोरी से माँ ने चाँद दिखाया था कभी,

चाँद छूने की आकांक्षा को जगाया था कभी।

 

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #12 ☆ मास्क ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक भावप्रवण रचना “मास्क”।  श्री श्याम खापर्डे जी ने  इस कविता के माध्यम से  मास्क के महत्व की चर्चा की है जो विचारणीय है।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 11 ☆ 

☆ मास्क ☆ 

दुविधा में है हर व्यक्ति

मिट ना जाये उसकी हस्ती

राह कोई सूझत नाही

डूब ना जाये जीवन की कस्ती

 

टोने टोटके काम ना आयें

व्यर्थ हो गई सारी सलाहें

तीव्र गति से फैलता जायें

कैसे रोकें कोई बतायें

 

लक्षण इसके समझ ना आये

हो जाये तब उभर कर आये

फेल हो गई सारी थ्योरी

कैसे अपनी जान बचाये

 

वैक्सिन नहीं जलद आने वाली

घोषणाएं है यह सब खाली

मास्क ही है बस एक उपाय

बिना मास्क कैसे करोगे रखवाली

 

मास्क आज कितना जरूरी है

मास्क बिना हर बात अधूरी है

मास्क नहीं तो कैसा जीवन

मास्क पहनना अब मजबूरी है

 

© श्याम खापर्डे 

09/10/2020

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 18 ☆ अभंग—शब्दगंगा… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 18 ☆ 

☆ अभंग—शब्दगंगा… ☆

शब्दांचा प्रवाह,

वाहता असावा

मनात नसावा, न्यूनगंड…०१

 

शब्द गंगा सदा

वैचारिक ठेवा

अनमोल हवा, संदेश तो…०२

 

निर्मळ, सोज्वळ

असावे प्रेमळ

साधावे सकळ, योग्यकर्म…०३

 

शब्द ज्ञान देती

शब्द भूल देती

शब्द त्रास देती, नकळत…०४

 

म्हणुनी सांगणे

सहज बोलणे

शब्दांत असणे, प्रेमळता…०५

 

कवी राज म्हणे

अलिप्त असावे

सचेत रहावे, सदोदित…०६

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 68 ☆ व्यंग्य – छगनभाई और फेसबुक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक यथार्थवादी व्यंग्य  ‘छगनभाई और फेसबुक’।  आज सोशल साइट्स ने लोगों की दुनिया ही बदल डाली।  लाइक और कमेंट की पतवार के सहारे कई लोगों की नैया सोशल साइट्स में तैर rahi है। थोड़ी सी अड़चन आई और नाव डूबे या ना डूबे मन जरूर डूब जाता है। विश्वास न हो तो यह व्यंग्य पढ़ लीजिये। इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 68 ☆

☆ व्यंग्य – छगनभाई और फेसबुक

छगनभाई फेसबुक के कीड़े हैं। दिन रात फेसबुक में डूबे रहते हैं। फेसबुक में अपनी एक अलग दुनिया बसा ली है। उसी में रमे रहते हैं। अब बाहरी दुनिया की बेरुखी की ज़्यादा परवाह नहीं रही। फेसबुक पर ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ लेते-देते रहते हैं। उसी में मगन रहते हैं।

छगनभाई साहित्य की सभी विधाओं में दखल रखते हैं। कविता, कहानी, निबंध, गज़ल, चुटकुले, कुछ भी ठोकते रहते हैं और दोस्तों की तारीफ और ‘वाह वाह’ पाकर निहाल होते रहते हैं। जो ‘लाइक’ नहीं देते उन्हें दोस्तों की लिस्ट से खारिज करते रहते हैं।

उस दिन सबेरे सबेरे छगनभाई बाहर निकले। मौसम सुहाना था। बिजली के तारों पर बैठीं चिड़ियां चहचहा रही थीं। सूरज का लाल गोला सामने उभर रहा था। छगनभाई के मन में कविता फूटी। तत्काल वापस लौट कर तख्त पर आसन जमाया और एक चौबीस लाइन की कविता ठोक दी। उसके बाद फटाफट उसे फेसबुक पर ठेल दिया और फिर चातक की तरह टकटकी लगाकर बैठ गये कि ‘लाइक’और ‘कमेंट’ की बूंदें गिरें और उनकी बेचैन आत्मा को सुकून मिले।

समय गुज़रता गया और मोबाइल चुप्पी साधे रहा। न कोई ‘लाइक’,न ‘कमेंट’। छगनभाई कोई भी टोन आने पर उम्मीद में मोबाइल में झांकते और वहां फैले वीराने को देखकर मायूस हो जाते। धीरे धीरे दोपहर हो गयी। कहीं से कोई हलचल नहीं। छगनभाई का भरोसा दुनिया से उठने लगा। दुनिया बेरौनक, बेरंग, बेवफा लगने लगी।

जब शाम तक कोई सन्देश नहीं आया तो छगनभाई का धीरज छूट गया। एक घनिष्ठ मित्र जनार्दन जी को फोन लगाया। पूछा, ‘क्या हालचाल है?’

जवाब मिला, ‘सब बढ़िया है गुरू। आप सुनाओ। ‘

छगनभाई बोले, ‘कहां हो अभी?’

जनार्दन जी बोले, ‘ग्वारीघाट आया था। नर्मदा जी में डुबकी लगा कर निकला हूँ। चित्त प्रसन्न हो गया। ‘

छगनभाई बोले, ‘एक कविता फेसबुक पर डाली है। देख लेना। ‘

उधर से जवाब मिला, ‘घर पहुंचकर देखूंगा भैया। मैं तो आपकी पोस्ट को बिना पढ़े ही ‘लाइक’ या ‘बढ़िया’ ठोक देता हूँ। आखिरकार दोस्त किस दिन काम आएंगे?’

छगनभाई चुप हो गये। चैन नहीं पड़ा तो एक और मित्र शीतल जी को फोन लगाया। पूछा, ‘फेसबुक पर मेरी कविता देखी क्या?’

शीतल जी दबी ज़बान से बोले, ‘अभी एक प्रवचन में बैठा हूँ। घर पहुँचकर पढ़ूँगा। ‘

छगनभाई कुढ़ गये। हताश पलंग पर लेट गये। लग रहा था दुनिया में सब व्यर्थ है, कोई आदमी भरोसे के लायक नहीं।

घर में उनके साले साहब आये हुए थे। पत्नी से छोटे। बोले, ‘जीजाजी, उठिए। सिनेमा देख आते हैं। अच्छी फिल्म लगी है। टिकट मेरे जिम्मे। ‘

छगनभाई भुनकर बोले, ‘ये फिल्म-विल्म सब फालतू लोगों के काम हैं। मुझे कोई फिल्म नहीं देखना। तुम अपनी दीदी को लेकर चले जाओ। ‘

पत्नी नाराज़ होकर बोली, ‘आपको नहीं जाना तो विक्की को क्यों डाँट रहे हैं?आपका मिजाज़ समझना बड़ा मुश्किल है। पता नहीं कब देवता चढ़ जाएं। ‘

छगनभाई में पत्नी से टकराने का साहस नहीं था। मुँह को चादर से ढक कर पड़े रहे।

तभी मोबाइल की टोन बजी। छगनभाई ने चादर हटाकर उसमें झाँका। एक फेसबुक मित्र ने उनकी कविता की भरपूर प्रशंसा की थी और उन्हें शब्दों का चितेरा और अद्भुत प्रतिभा-संपन्न बताया था। पढ़ कर छगनभाई की तबियत बाग-बाग हो गयी। सबेरे से जमकर बैठा अवसाद पल भर में छँट गया। दुनिया सुहानी और भरोसे के लायक लगने लगी।

उसके पीछे पीछे एक और पोस्ट आयी। उसमें भी छगनभाई की कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी थी और उन्हें आला दर्जे का कवि सिद्ध किया गया था।

छगनभाई चादर फेंककर पलंग से उठ बैठे। विक्की के कंधे को बाँह में लपेट कर बोले, ‘मैं तो ऐसे ही मज़ाक कर रहा था। फिल्म देखने ज़रूर चलूँगा और टिकट भी मैं ही खरीदूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 65 ☆ जीवन और टी-20 क्रिकेट ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  जीवन और टी-20 क्रिकेट ☆

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। काल की गेंदबाजी पर कर्म के बल्ले से साँसों द्वारा खेला जा रहा क्रिकेट। अंपायर की भूमिका में समय सन्नद्ध है। दुर्घटना, अवसाद, निराशा, आत्महत्या फील्डिंग कर रहे हैं। मारकेश अपनी वक्र दृष्टि लिए विकेटकीपर की भूमिका में खड़ा है। बोल्ड, कैच, रन-आऊट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू….,  ज़रा-सी गलती हुई कि मर्त्यलोक का एक और विकेट गया। अकेला जीव सब तरफ से घिरा हुआ है जीवन के संग्राम में।

महाभारत में उतरना हरेक के बस में नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के फेर में अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह समय तय करेगा। तुम रन बटोरो, खतरे उठाओ-रिस्क लो, रन-रेट नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि मैच जीतो ही पर अंतिम गेंद तक जीत के जज़्बे से खेलते रहने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, ‘स्ट्रैटिजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, विकेटकीपर और क्षेत्ररक्षक तो तैयार हैं ही।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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