मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 55 – हौताम्य पूजन ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

  1. ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 55 – हौताम्य पूजन  ☆

 

क्रांती कारकांचे, करूनी स्मरण

हौताम्य पूजन,  लवलाही…!

 

भगतसिंगाचे, प्रेम, दिलदार

सुखदेव यार,  राजगुरु….!

 

त्रिकूट मैत्रीचे, स्वातंत्र्याचे दूत

भाग्यवान पूत,  क्रांतीकारी….!

 

भारत मातेचे, पुत्र भाग्यवंत

जाणुनिया खंत, माऊलीची

 

तोडण्या शृंखला, तव चरणाच्या,

सुखे मरणाच्या, दारी जात…..!

 

वंदे मातरम , होता जयघोष,

उडाले ते होश, जल्लादाचे.,….!

 

केले प्राणार्पण, गेलें फासावर

निष्ठा कार्यावर,  सेवाव्रती….!

 

तेवीस मार्चचा, बलिदान  दिन,

आक्रोशले जन, भारतीय …..!

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 71 – और कब तक…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “और कब तक….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 71 ☆ और कब तक…. ☆  

और कब तक

तुम रहोगे मौन साधो,

शब्द को स्वर तुम, नहीं तो

और देगा कौन साधो।

मनुजता पर हैं लगे प्रतिबंध

जिह्वा है सिली

जब करी कोशिश

कहीं संकेत करने की

उधर से

भृकुटियां टेढ़ी मिली

अन्नजल आश्रित

विवश चुपचाप बैठे

भीष्म गुरुवर द्रोण साधो।

और कब तक

आम बरगद नीम

पीपल मिट रहे

झील सरिता बावड़ी

पनघट रुआँसे,

अब तबाही के लिए

उद्यत शिकारी हाथ में

खंजर उठाए दिख रहे,

लग गया है स्वाद

जिनको खून का

वे क्यों करे दातौन साधो।

और कब तक

अब सरे बाजार

सब कुछ हो रहा

मशविरों में मस्त है

राजा पियादा

चैन की बंसी बजाते

कुंभकरणी नींद

गहरी सो रहा,

नेत्रहीन धृतराष्ट्र

सिंहासन भ्रमित है

द्रोपदी को

अब बचाए कौन साधो।

और कब तक

तुम रहोगे मौन साधो।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 22 ☆ उसूलों का जोड़ बाकी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता उसूलों का जोड़ बाकी । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 22 ☆ उसूलों का जोड़ बाकी ☆

 

खर्च हो गयी जिंदगी बेकार के असूलों को निभाने में,

उसूलों का जोड़ बाकी गुणा भाग सब अब शून्य हो गया ||

 

हिफ़ाजत से रखे थे कुछ उसूलों बुढ़ापे के लिए,

डॉक्टर ने बताया तुम्हारा जीवन अब बोनस में तब्दील हो गया ||

 

डॉक्टर ने कह दिया अब जिंदगी का हर दिन बोनस है,

जी लो जिंदगी अपनों के संग, हर दिन सुकून से बीत जाएगा ||

 

मौत करती नहीं रहम कभी पल भर का भी,

मिटा लो गिले शिकवे, दिल का बोझ दिल से उतर जाएगा ||

 

कल तक जिंदगी ठेंगा दिखाती रही मौत को,

आज मौत हंस कर बोली,आज हंस ले कल सब शून्य हो जाएगा ||

 

मौत ने कहा भगवान भी नहीं दिला सकता मुझसे निजात,

आज या कल हर कोई मेरे आगोश में आकर दुनिया छोड़ जाएगा ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 73 – गझल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 73 ☆

☆ गझल ☆

नको राग मानूस,बांधील हो तू

विसर सर्व काही ,क्षमाशील हो तू

 

इथे दाटला  फार अंधार आहे

प्रकाशास सांभाळ,कंदील हो तू

 

कुणाची कुणाला नसे आज चिंता

कशाचा तुला  घोर, गाफील हो तू

 

असा एकटा तू रहाशील कुठवर

प्रवाहात ये ,पूर्ण सामील हो तू

 

”प्रभा” कोण देतो सदा साथ येथे?

गझल तू , स्वतः एक मैफील हो तू

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 58 ☆ जी चाहता है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “जी चाहता है”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 58 ☆

☆  जी चाहता है ☆

गले सितारों को लगाने को, जी चाहता है

पास महताब के जाने को, जी चाहता है

 

बड़ी ही सिरफिरी हवाएं हैं, मचल रही हैं

उनके साथ मचल जाने को, जी चाहता है

 

सुनाई नहीं देती आहट, ख़ामोशी है बड़ी

गाने को सरगम निराली, जी चाहता है

 

रात महके जुस्तजू से, अंदाज़ हैं निराले

पास से आसमान छू जाने को, जी चाहता है

 

समाई सी लगती है परिंदों की रूह मुझमें

आज फ़लक तक उड़ जाने को, जी चाहता है

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 45 ☆ व्यंग्य संग्रह – ७५ वाली भिंडी – सुश्री नूपुर अशोक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  सुश्री नूपुर अशोक जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “७५ वाली भिंडी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 45 ☆ 

व्यंग्य संग्रह – ७५ वाली भिंडी

व्यंग्यकार – सुश्री नूपुर अशोक 

प्रकाशक – रचित प्रकाशन, कोलकाता  

पृष्ठ १२०

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – ७५ वाली भिंडी – व्यंग्यकार –सुश्री नूपुर अशोक ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

परसाई जी ने लिखा है “चश्मदीद वह नहीं है जो देखे, बल्कि वह है जो कहे कि मैने देखा है” नूपुर अशोक वह लेखिका हैं जो अपने लेखन से पूरी ताकत से कहती दिखती हैं कि हाँ मैंने देखा है, आप भी देखिये. उनकी कविताओ की किताब आ चुकी है. व्यंग्य में  वे पाठक को आईना दिखाती हैं, जिसमें हमारे परिवेश के चलचित्र नजर आते हैं. नूपुर जी की पुस्तक से गुजरते हुये मैंने अनुभव किया कि इसे और समझने के लिये गंभीरता से, पूरा पढ़ा जाना चाहिये.

नूपुर आकाशवाणी की नियमित लेखिका है. शायद इसीलिये उनकी  लेखनी संतुलित है. वाक्य विन्यास छोटे हैं. भाषा परिपक्व है.  वे धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्दो को देवनागरी में लिखकर हिन्दी को समृद्ध करती दिखती हैं.  बिना सीधे प्रहार किये भी वे व्यंग्य के कटाक्ष से गहरे संदेश संप्रेषित करती हैं “गांधी जी की सत्य के प्रयोग पढ़ी है न तुमने… इस प्रश्न के जबाब में भी वह सत्य नही बोल पाता.. किताब मिली तो थी हिन्दी पखवाड़े में पुरस्कार में और सोशल मीडिया में सेल्फी डाली भी थी.. गाट अ प्राइज इन हिन्दी दिवस काम्पटीशन”. लिखना न होगा कि मेरी बात रही मेरे मन में लेख में उन्होने इन शब्दो से मेरे जैसे कईयो के मन की बात सहजता से लिख डाली है.

व्यंग्य और हास्य को रेखांकित करते हुये प्रियदर्शन की टीप से मैं सहमत हूं कि नूपुर जी के व्यंग्य एक तीर से कई शिकार करते हैं. भारतीय संस्कृति के लाकडाउन में वे कोरोना, जनित अनुभवो पर लिखते हुये बेरोजगारी, डायवोर्स वगैरह वगैरह पर पैराग्राफ दर पैराग्राफ लेखनी चलाती हैं, पर मूल विषय से भटकती नहीं है. रचना एक संदेश भी देती है. रचना को आगे बढ़ाने के लिये वे कई रचनाओ में फिल्मी गीतो के मुखड़ो का सहारा लेती हैं, इससे कहा जा सकता है कि उनकी दृष्टि सजग है, वे सूक्ष्म आब्जर्वर हैं तथा मौके पर चौका लगाना जानती हैं.

कुल जमा १६ रचनायें संग्रह में हैं, प्रकाशक ने कुशलता से संबंधित व्यंग्य चित्रो के जरिये किताब के पन्नो का कलेवर पूरा कर लिया है. लेखो के शीर्षक पर नजर डालिये चुनाव का परम ज्ञान, प्रेम कवि का प्रेम, हम कंफ्यूज हैं, संडे हो या मंडे, यमराज के नाम पत्र, बेटा बनाम बकरा, पूरे पचास, किस्सा ए पति पत्नी, अथ श्री झारखण्ड व्यथा, इनके अलावा दो तीन रचनायें कोरोना काल जनित भी हैं. अपनी बात में वे बेबाकी से लिखती हैं कि अंत की ६ रचनायें अस्सी के दशक की हैं और यथावत हैं, मतलब उनकी लेखनी तब भी परिपक्व ही थी.

अस्तु, त्यौहारी माहौल में, दोपहर के कुछ घण्टे और पीडीएफ किताब पर सरसरी नजर डालकर लेखिका की व्यापक दृष्टि पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस पीढ़ी की जिन कुछ महिलाओ से व्यंग्य में व्यापक संभावना परिलक्षित होती है नूपुर अशोक उनमें महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 69 – दूजा राम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं भाई बहिन के प्यार की अनुभूति लिए एक अतिसुन्दर लघुकथा  “दूजा राम।  कई बार त्योहारों पर और कुछ विशेष अवसरों पर हम अपने रिश्ते  निभाते कुछ नए रिश्ते अपने आप बना लेते हैं। शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 69 ☆

☆ लघुकथा – दूजा राम ☆

वसुंधरा का ससुराल में पहला साल। भाई दूज का त्यौहार। अपने मम्मी-पापा के घर दीपावली के बाद भाई दूज को धूमधाम से मनाती थी। परंतु ससुराल में आने के बाद पहली दीपावली पर घर की बड़ी बहू होने के कारण दीपावली का पूजन बड़े उत्साह से अपने ससुराल परिवार वालों के साथ मनाई।

ससुराल का परिवार भी बड़ा और बहुत ही खुशनुमा माहौल वाला। सभी की इच्छा और जरूरतों का ध्यान रखा जाता। हमउम्र ननद और देवर की तो बात ही मत कहिए। दिन भर घर में मौज-मस्ती का माहौल बना रहता।

परंतु भाई दूज के दिन सुबह से ही अपने छोटे भाई की याद में वसुंधरा का मन बहुत उदास था। दिन भर घर में भाई के साथ किए गए शैतानी और बचपन की यादों को याद कर वह मन ही मन उदास हो उसकी आँखों में आंसू भर भर जा रहे थे। क्योंकि ये पहला साल हैं जब वह अपने भाई से दूर है।

पतिदेव की बहनें और ननदें अपने भैया को दूज का टीका लगा हँसी ठिठोली कर रहीं  थी।

परंतु बस अपनी भाभी वसुंधरा के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं ला पा रहे थे। सासु माँ और पतिदेव भी परेशान हो रहे थे। आठ दस ननद देवर भाभी को थोड़ा परेशान देखकर सभी अनमने से थे।

सभी टीका लगा कर उठ रहे थे परंतु एक राम जिनका नाम था बहुत ही समझदार, नटखट और मासूम सा देवर बैठा रहा।

सभी ने कहा… “भाई क्यों बैठा है उठ प्रोग्राम खत्म हो गया।” और एक बार फिर से ठहाका लगा गया।

परंतु अचानक सब शांत हो गए राम ने अपनी भाभी की तरफ ईशारा कर कहा…. “भाभीश्री दूज का चाँद तो मैं नहीं बन पाऊंगा, आपके भाई जैसा, परंतु मुझे दूजा राम समझकर ही टीका लगाओ। तभी मैं यहाँ से उठूंगा।”

वसुंधरा भाभी के बड़े-बड़े नैनों से अश्रुधार बहने लगी।  वह दौड़ कर पूजा की थाली ले आई। दूज का टीका लगाने चल पड़ी। और अपने इस अनोखे रिश्ते को निभाने तैयार हो गई।

तिलक लगा ईश्वर से सारी दुआएं मांगी। घर में सभी बड़े ताली बजाकर आशीष देने लगे। देखते-देखते ही वसुंधरा का चेहरा खिल उठा।

उसे ससुराल में अपने देवर के रुप में भाई दूज पर अपना भाई जो मिल गया दूज का चाँद।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 72 ☆ दीप अंगणात ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 72 ☆

दीप अंगणात

दीप अंगणात जळो

सारी इडापिडा टळो

आहे सण दिवाळीचा

सुख समाधान मिळो

 

दीपावलीचा पाडवा

त्याच्या नावात गोडवा

पंख फुग्याचे बांधुनी

दीप आकाशी उडवा

 

आल्या चांदण्या या खाली

रंग लावुनी या गाली

दारूकाम हे मोहक

फुलो आकाशात वेली

 

शेत पिको हे जोमात

माल विको हातोहात

अन्नदाता बळीराजा

राहो माझा आनंदात

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दीवाली की दस्तकें, दीपक की पदचाप।

आओ खुशियां मनायें, क्यों बैठे चुपचाप।।

 

अंधियारे की शक्ल में, बैठे कई सवाल ।

कर लेना फिर सामना, पहले दीप उजाल।।

 

कष्टों का अंबार है, दुःखों का अंधियार ।

हम तुम दीपक बनें तो, फैलेगा  उजियार ।।

 

नहीं पूर्व थी सूचना,और न था संकेत ।

अकस्मात तुम चल  दिए , त्यागा नेह निकेत।।

 

भटक-भटक कर आ गया, मैं फिर तेरे द्वार।

और किसी का है नहीं, बस तेरा अधिकार ।।

 

आंख उलझ कर रह गई, रहे तरसते कान।

बस इतनी थी खैरियत, झांक गई मुस्कान।

 

अधरों पर मुस्कान वह, जैसे हो फरमान।

तिल कातिल सा देखता, बना हुआ दरबान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 24 – जीवन की गति उलझी… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “जीवन की गति उलझी…। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 24– ।। अभिनव गीत ।।

☆ जीवन की गति उलझी... ☆

साड़ी के छोर सखी

ऐसे मत बाँध री  |

लोगों के चेहरे पर

मन की सड़ाँध री ||

 

सर्पिला है परछाई

तन की द्युति शरमाई

चूल्हे का है कहना

भात नहीं राँध री ||

 

जीवन की गति उलझी

छुअन तक नहीं समझी

घूर घूर क्या ताके

तू  है क्या  आँधरी ?

 

कोमल कोमल हाथों

पिघली इन बरसातों

सबर  कर तनिक तो डर

देहरी मत फाँद री  ||

 

संध्या है घिर आई

लौट गई तरुणाई

आ उतरा  मँगरे पर

धुला धुला चाँद री ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

11-02-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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