मराठी साहित्य – विविधा ☆ !! दिवाळी !! ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

☆ विविधा ☆ !! दिवाळी !! ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ 

आकाशाचा निळा गाभारा सजला

चंदेरी चांदण्यांनी

थंडीचा अत्तर स्पर्श मऊ- मुलायम

बनवला उन्हालाही

केला दूर अंधकार केसरी- पिवळसर

प्रकाश दिव्यांनी

प्रसन्न उत्सव प्रकाशाचा

दीपावलीचा

चैतन्याच्या पहाटेचा… !!

 

काळानुरुप प्रत्येक गोष्टीत बदल होणे अपरिहार्य आहे. तसाच बदल मुंबईत साजरा होणा-या दिवाळीत झाला आहे… दिवाळी ही धनश्रीमंतांचे इमलेही उजळते व मन श्रीमंतांचे दरवाजेही उघडते..मुंबईची दिवाळी म्हणजे फटाक्यांचा दणदणाट, आतषबाजी,  चमचमीत फराळ, सुगंधी उटणे, दिव्यांची रोषणाई असे बरेच काही असते..

दिव्यांची रोषणाई म्हणजे फक्त दिवे लावून अंगण उजळणं एवढचं नाही तर या दिव्यांनी मनाचा गाभारा भरला पाहिजे उजळला पाहिजे. आज माणसांचं मन अंधारात चाचपडतयं त्याला स्वतःचा उजेड मिळेनासा झालाय त्यासाठी त्यानं स्वतःच स्वतःचा  दिवा लावायला पाहिजे. दिव्यांचे प्रतीक असलेली ही इवलीशी पणती समाजाच्या प्रत्येक घटकाला आपलसं करून समसमान प्रकाश देते ना अगदी तसच्चं…

मोबाईलच्या जमान्याने शुभेच्छा पत्र, मेसेजेस कालबाह्य झाली आणि आपली मन बँकवर्ड झालीत.

एकमेकांच्या संवादाचे सूर धुसर झालेले दिसतात. दिवाळीच्या निमित्ताने ख-या अर्थाने प्रत्यक्ष जगण्यातचं स्वतःला झोकून द्यावं . चारचौघांबरोबर, समाजाबरोबर संवादाच्या भिंती बांधाव्यात त्यामुळे जीवनात नवचैतन्य निर्माण होईल.

सामाजिक बांधिलकी जोपासण्याचाही मोठ्या प्रमाणात प्रयत्न करायला हवा तसेच या कालावधीतही वक्तृत्व स्पर्धा, प्रश्न मंजुषा, स्पर्धा, कविता पाठांतर, गायन कथा-कथन अश्या स्पर्धांचे आयोजन करावे त्यामुळे आपण एकत्र येतो व एकत्रित संवादही साधला जातो.

दिवाळी पहाट ही संकल्पना तर अतिशय सुंदर… सांस्कृतिक क्षेत्रातून केला गेलेला एक अनोखा कार्यक्रम.. दिवाळी पहाट संगीतमय व्हावी हा हेतू विविध कला असलेले कलाकार एकत्र येऊन कलेचे सादरीकरण घरघुती स्वरूपात करत होते. कालांतराने त्याचे सार्वजनिक स्वरूप झाले.आता तसे न करता ” दिवाळी पहाट ” ही घरघुती स्वरूपाचीच  असावी त्यामुळे सर्वांना अगदी सर्वांनाच त्याचा लाभ घेता येईल व आनंदही लुटता येईल.

खरी ” दिवाळी पहाट ” झाल्याचा आनंद त्यांच्या चेह-यावर दिसून येईल.

आपल्या समाजात असेही काही उपेक्षित लोक आहेत जे या सगळ्या आनंदा पासून वंचित आहेत या आनंदाला मुकले आहेत. अश्या लोकांबरोबर जर दिवाळी साजरी केली तर आपल्या बरोबरच सर्वांची दिवाळी सुखाची जाईल आणि सर्वांच्याच चेह-यावर आनंद दिसेल.

अनाथ मुले, ज्येष्ठ नागरिक अशांसाठी कामे करणा-या संस्थांना देणग्या द्याव्यात. त्यांच्या बरोबर जर आपण दिवाळी साजरी केली तर त्यांच्या चेह-यावरचे हसू आनंद आपल्या मनाला आत्मिक समाधान देऊन जातं ख-या अर्थाने दिवाळी साजरी होईल असे मी मनापासून नमूद करीन.. या सणामागचा उदात्त हेतू असा की कृतज्ञतापूर्वक माणुसकी जोपासून परोपकार करावा. सर्वांना आपल्या आनंदात सहभागी करून घ्यावे. तसेच विश्वाचं पालन करणा-या महाशक्तीलाही विसरू नये..

 

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

ठाणे

9870451020

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 15 ☆ दीपावली विशेष – लक्ष्मी स्तवन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की  दीपावली पर्व पर एक  विशेष कविता  लक्ष्मी स्तवन।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 15 ☆

☆ लक्ष्मी स्तवन 

कल्याण दायिनी, धनप्रदे, माँ लक्ष्मी कमलासने

संसार को सुखप्रद बनाया, है तुम्हारे वास ने

चलती नहीं माँ जिंदगी, संसार में धन के बिना

जैसे कि आत्मा अमर होते हुये भी, तन कर बिना

निर्धन को भी निर्भय किया, माँ तुम्ही के प्रकाश ने

हर एक मन में है तुम्हारी, कृपा की मधु कामना

आशा लिये कर सक रहा, कठिनाईयों का सामना

जग को दिया आलोक हरदम, तुम्हारे विश्वास ने

संगीत सा आनन्द है, धन की मधुर खनकार में

संसार का व्यवहार सब , केंन्द्रित धन के प्यार में

सबके खुले हैं द्वार स्वागत में, तुम्हें सन्मानने

मन सदा करता रहा, मन से तुम्हारी साधना

सजी है पूजा की थाली , करने तेरी आराधना

माँ जगह हमको भी दो,अपने चरण के पास में

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 70 ☆ बेमानी रिश्ते ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख बेमानी रिश्तेयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 70 ☆

☆ बेमानी रिश्ते

 

रिश्ते जब मज़बूत होते हैं/ बिन कहे महसूस होते हैं…मात्र कपोल-कल्पना है। आधुनिक युग में रिश्तों की अहमियत रही नहीं और कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। हर रिश्ता टूटने की कग़ार पर है; मुंह चिढ़ा रहा है। रिश्ते चाहे खून के हों या दोस्ती के, प्यार,  समर्पण व त्याग का भाव इनमें से इस प्रकार नदारद हैं, जैसे चील के घोंसले से मांस। आजकल रिश्तों से  व्याप्त है…छल, कपट, अविश्वास व तक़रार और अपने भी, अपने बनकर अपनों को छल रहे हैं। यह मंज़र सबसे हृदय-विदारक होता है, जब अपने अपनों से मुख मोड़ लेते हैं या अपने दुश्मनों का साथ निभाने हित अपनों से छल-कपट करते हैं। इंसान दूसरों द्वारा किए गए प्रहार तो सहन कर लेता है, परंतु जब अपने पीठ पीछे से छुरा घोंपते हैं, तो वह पीड़ा असहनीय होती है। इन विषम व असामान्य परिस्थितियों में रिश्तों के मज़बूत होने की उम्मीद रखना बेमानी है। आजकल मानव का हृदय पाषाण हो गया है और उसके अंतर्मन में निहित दैवीय भाव लुप्त हो गए है। सो! उन्हें महसूस करने की कल्पना कैसे की जा सकती है?

चंद वर्ष पहले घर-परिवार में पति-पत्नी व अन्य संबंधियों में स्नेह-सौहार्द होता था और संयुक्त- परिवार व्यवस्था थी। एक कमाता था, दस खाते थे। घर-आंगन में दीवारें नहीं पनपती थीं। परंतु आजकल वह सब गुज़रे ज़माने की बातें हो गयी हैं। एकल- परिवार व्यवस्था के कारण परिवार पति-पत्नी तथा बच्चों तक सिमट कर रह गये हैं। भले ही विश्व ग्लोबल विलेज बनकर रह गया है, परंतु दिलों के फ़ासले निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। पति-पत्नी दोनों धन कमाने में व्यस्त हैं और बच्चे नैनी व आया की छत्र-छाया में रहने को विवश हैं। वे उनके आश्रय में पल-बढ़ रहे हैं और उनकी दुनिया टी•वी• व मोबाइल तक सिमट कर रह गई है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद हैं। संबंध-सरोकार समाप्त हो गए हैं। मामा, बुआ, दादा-दादी व नाना-नानी के रिश्तों को ग्रहण लग गया है, जिसका मूल कारण है… हम दो, हमारा एक। इसलिए हर संबंध में अजनबीपन का अहसास सिर चढ़कर बोल रहा है। पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी की भांति रहने को विवश हैं। सो! अलगाव की स्थितियां सुरसा के मुख की भांति अपने पांव पसार रही हैं। पति-पत्नी के संबंध स्वार्थ पर टिके हैं और वे दुनियादारी निभा रहे हैं। उनमें स्नेह-सौहार्द व मर्यादा का भाव रहा ही नहीं। जीवन- मूल्य दरक़ रहे हैं। उनके जीवन का मूल लक्ष्य एक-दूसरे को कोंचना, कचोटना, बुरा-भला कहना व नीचा दिखाना रह गया है और वे इसमें सुक़ून का अनुभव करते हैं।

हर तकलीफ़़ से इंसान दु:खता बहुत है, परंतु सीखता भी ज़रूर है। दु:ख जीवन की पाठशाला है, जिससे हमें अनुभव प्राप्त होता है। सुख-दु:ख तो क्रमानुसार आते-जाते रहते हैं। परंतु मानव कभी भी अपने जीवन से संतुष्ट नहीं रहता। उसे और …और…और अधिक पाने की तमन्ना बनी रहती है। संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ, जो आशाओं का पेट भर सके, क्योंकि मनुष्य की आशाएं समुद्र के समान विशाल हैं, वे कभी भरती अर्थात् समाप्त नहीं होतीं। बावरा मन सदैव उनकी पूर्ति में मग्न रहता है। इसलिए वह सदैव दु:खी रहता है। गुलज़ार जी के मतानुसार ‘जीवन में कुछ नहीं बदलता। हां! उम्र के साथ बचपन की ज़िद्द समझौतों में बदल जाती है।’ जी! हां, समय के साथ हमारी सोच व व्यवहार परिवर्तित होते रहते हैं। पहले हम ठान लेते थे और उस वस्तु को प्राप्त करने के पश्चात् सुक़ून प्राप्त करते थे। परंतु उम्र के साथ-साथ हम समझौते करना सीख जाते हैं और जो मिला है, उसे नियति स्वीकार लेते हैं। इसी आधारशिला पर महफूज़ रहते हैं रिश्ते, जो अब दिखावा-मात्र रह गये हैं। हर इंसान मुखौटा धारण कर, एक-दूसरे को छल रहा है और जो जितना अधिक छल करता है, उतना ही क़ामयाब इंसान कहलाता है। आइए! नकाब उतार कर एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए, अपनी संस्कृति की ओर लौट चलें और अपने बच्चों को सुसंस्कारों से पल्लवित करें। करुणा व त्याग को अपने जीवन का मकसद बनाएं और स्नेह व सौहार्द से अपने जीवन को आप्लावित करें। सेवा व सम्मान को जीवन में स्थान दें और दूसरों के प्रति ऐसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा हम उनसे करते हैं।  दुनिया गोल है और जैसा हम करते हैं, वही लौट कर हमारे पास आता है। ‘कर भला, हो भला।’ यदि आप दूसरों की राह में कांटे बिछाओगे, तो फूल कहां से प्राप्त करोगे?

हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म हमारे भाग्य- विधाता हैं। उनकी उपेक्षा मत करो। ज़िंदगी में कुछ लोग बिना रिश्ते के रिश्ते निभाते हैं, वे दोस्त कहलाते हैं तथा वे नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं। जीवन में वाकिंग डिस्टेंस भले ही रख लें, परंतु टॉकिंग डिस्टेंस  कभी मत रखें। संवाद जीवन-रेखा है, जीवन की मात्र धुरी है। सो! संवाद की सूई व स्नेह के धागा उधड़े रिश्तों की तुरपाई कर देता है। परंतु आजकल संवादहीनता इस क़दर पांव पसार रही है कि संवेदन-

हीनता जीवन का अभिन्न अंग बन कर रह गई है, जिसके परिणाम-स्वरूप अजनबीपन का अहसास गहरे में अपनी जड़ें स्थापित कर के बैठ गया है। इसका मुख्य कारण है, संस्कृति व संस्कारों से अलगाव के कारण पनप रही दूरियां, विवाहेतर- संबंधों व लिव-इन के रूप में द्रष्टव्य है। सो! जीवन में लंबे समय तक शांत रहने व संबंधों को बनाए रखने का सर्वोत्तम उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार करें।’ विवेकानंद जी के शब्दों में ‘दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए मूल्यों का समझौता मत करो। आत्म-सम्मान बनाए रखो और चले आओ।’ दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखना   सबसे बड़ा हुनर है। जो यह हुनर सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता और उसके चाहने वालों की फेहरिस्त भी बहुत लंबी होती है। मुझे स्मरण हो रही हैं, महात्मा बुद्ध की वे पंक्तियां…’ जो तुमसे स्नेह रखते है, प्रशंसा करो; जिन्हें ज़रूरत है, सहायता करो; जो चोट पहुंचाते हैं, क्षमा करो। जो तुम्हें छोड़ गए, उन्हें भूल जाओ।’ इसलिए हमेशा शांत रहें, जीवन में खुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर ही मज़बूत रहता है। गर्म रहने पर तो उसे किसी भी आकार में ढाल लिया जाता है। अंत में मैं कहना चाहूंगी ‘अहसासों की नमी ज़रूरी है हर रिश्ते में/ रेत भी सूखी हो, तो हाथों से फिसल जाती है।’ इसलिए ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि अक्सर वै पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ दीपावली विशेष – आचार्य कुंदनलाल की अनूठी दीवाली ☆ श्री अजीत सिंह

श्री अजीत सिंह

( हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। दीपावली पर्व के विशेष अवसर पर उन्होंने  एक अनुकरणीय उदहारण ‘आचार्य कुंदनलाल की अनूठी दीवाली’ साझा किया है। सहज ही विश्वास नहीं होता कि अभी भी समाज में ऐसी वंदनीय वरिष्ठतम पीढ़ी है जिनसे हमें सीखने की आवश्यकता है। हम आपसे उनकी अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ आलेख ☆ दीपावली विशेष – आचार्य कुंदनलाल की अनूठी दीवाली ☆ 

हिसार शहर की अग्रसेन कॉलोनी में रह रहे हमारे पड़ोसी 83 वर्षीय आचार्य कुंदनलाल का परिवार पिछले करीबन दस दिन से दीवाली उपहार के किट तैयार करने में जुटा है। लक्ष्य 108 उपहार का है जिन्हे वे अपने पैतृक गांव डोभी की गौशाला के मजदूर परिवारों व अन्य गरीब घरों को प्रदान करेंगे। गौशाला 35 एकड़ क्षेत्र में बनी है और वहां लगभग 8500 गाएं रखी गई हैं।

हर उपहार किट में दी जा रही सामग्री भी अनुपम है।

लक्ष्मी गणेश जी की प्रतिमा -1,

बड़ा दीपक -1,

छोटे दीपक -21,

सरसों तेल बोतल -1,

रोली – 1,

मोली – 1,

चावल – 500 ग्राम

मोमबत्ती – 2,

तैरती मोमबत्ती – 2,

धूपबत्ती डब्बी – 1,

अगरबत्ती डब्बी – 1

रुई की बत्ती – 21

माचिस – 1

बिस्कुट पैकेट – 4

टॉफी – 10

फिक्की खील – 100 ग्राम

मिट्ठी खील – 250 ग्राम

इतर शीशी – 1

सूती चद्दर का सेट – 1

(उल्लेखनीय है कि किट में पटाखे, फुलझड़ी या बॉम्ब आदि बिल्कुल नहीं हैं।)

“भगवान रामचन्द्र जब बनवास से लौटे तो अयोध्यावासियों ने दीपमाला कर उनका स्वागत किया था। पटाखों व बंबों से नहीं। इनका चलन एक ग़लत प्रथा है। ये प्रदूषण फैलाते हैं जो इन दिनों एक भारी समस्या बन गई है। दिल्ली में ज्यों ज्यों प्रदूषण बढ़ा है, त्यों त्यों कोरोना महामारी के केस बढ़ते जा रहे हैं।

जो लोग पटाखे आदि चलने को धार्मिक सांस्कृतिक परंपरा मानते हैं, वे ग़लत प्रचार कर रहे हैं। किसी धर्म ग्रंथ में इसका उल्लेख नहीं है”, आचार्य जी स्पष्ट करते हैं।

कुंदनलाल जी के घर पर लगभग एक हज़ार धार्मिक पुस्तकों की लाइब्रेरी है। वे बाज़ार में गीता प्रेस की व अन्य धार्मिक पुस्तकें बेचते हैं। उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए ज़रूरी सामग्री की एक अलग दुकान भी की है।

असल में कुंदनलाल बहुत पढ़े लिखे नहीं है। वे केवल आठवीं पास हैं पर उनके जानकार उन्हे आचार्य कह कर ही संबोधित करते हैं। वे धार्मिक ग्रंथों के ज्ञाता हैं। वे धार्मिक संस्थानों में प्रवचन करते हैं। उनके जानकार इसीलिए उन्हें आचार्य जी कह कर संबोधित करते हैं।

नमन आचार्य जी की सोच व उनके प्रयास को।

 

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 22 ☆ भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य गुण-दोष ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य गुण-दोष)

☆ किसलय की कलम से # 22 ☆

☆ भारतीय शिक्षा और पाश्चात्य गुण-दोष ☆

भारतीय शिक्षा का गरिमामय इतिहास संपूर्ण विश्व के लिए अद्वितीय है। वैदिक युग से वर्तमान तक भारतीय शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं। गुरुकुल परंपरा के अंतर्गत राम और कृष्ण की शिक्षा के प्रमाण मिलते हैं। वर्तमान में नालंदा विश्वविद्यालय, काशी, उज्जयनी, गोलकी मठ जैसे शिक्षा केंद्र अस्तित्व में रहे हैं। बाल्यकाल में ही विद्यार्थियों को भाषा, राजनीति, धर्म, युद्ध, कला, शस्त्र-शास्त्रों सहित समग्र व्यवहारिक ज्ञान में पारंगत कर दिया जाता था। आज जैसे वेतनभोगी गुरुजन उन दिनों नहीं हुआ करते थे। गुरुजनों का सम्मान राजा-महाराजाओं से कहीं अधिक हुआ करता था।

भारत में हमेशा से ही धर्म, नीति और व्यवहारिक शिक्षा पर जोर दिया जाता रहा है। समय के साथ शिक्षा में बदलाव होते गए। मुगलों और अंग्रेजों के आते-आते शिक्षा के मायने ही बदलने लगे। अंग्रेजों ने शिक्षा नीति ही ऐसी बनाई जिसमें केवल ऐसी शिक्षा पर जोर दिया गया जहाँ शिक्षा प्राप्त कर केवल बाबूगिरी, मुंशीगिरी और कानून समझने वाले पैदा किए जा सकें जो अंग्रेजी प्रशासन के कुशल संचालन में मदद कर सकें। स्वतंत्रता प्राप्ति के बहुत बाद तक वही स्थिति रही, लेकिन पिछले चार दशकों में बहु-आयामी शिक्षा का प्रचार प्रसार त्वरित गति से बढ़ा। आज भाषा, राजनीति, तकनीकि, भूगोल, भूगर्भ, अंतरिक्ष, समुद्र सहित चिकित्सा एवं ब्रह्मांड संबंधी शिक्षा तक हमारी पहुँच बन चुकी है। आज हम बहुविषयक शिक्षा की बदौलत विकास के मार्ग पर गतिमान हैं। उपरोक्त ज्ञान एवं उपलब्धियों ने हमें खुशियाँ तो दी हैं परंतु हम स्वदेशी शिक्षा से इतने दूर निकल गए हैं कि अब पीछे मुड़ना संभव नहीं है। आज हम विदेशी भाषाओं विदेशी अविष्कारों एवं विदेशी परिवेश पर आधारित ज्ञान को प्राप्त कर रहे हैं। विश्व के समकक्ष खड़े होना तो ठीक है लेकिन अपनी संस्कृति, सभ्यता, परंपराएँ, परिवेश और वैदिक ज्ञान को भूलना अथवा उन से अनभिज्ञ होते जाना भी उचित नहीं है। भारतीय अद्भुत ज्ञान हमारे पूर्वजों ने यूँ ही नहीं प्राप्त किया। सदियों, सहस्राब्दियों की कठिन तपस्या और साधना के प्रतिफल को आज हम भुलाते जा रहे हैं । क्या यह भी उचित है? लेकिन हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि जो ज्ञान आज की भारी-भरकम एवं जटिल यंत्रों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, हमारे पूर्वज उसे चुटकियों में ज्ञात कर लेते थे।

भारतीय शिक्षा का वर्तमान में जो पश्चिमीकरण हुआ है उससे मूल भारतीय समाज स्वदेशी से कटकर पश्चिमोन्मुखी  होता जा रहा है। हमारे देश की परिस्थितियाँ, सभ्यता और संस्कृति शेष विश्व से अलग है। यहाँ तक कि हमारे द्वारा निर्वहन किए जाने वाले रिश्ते, मान-मर्यादा एवं व्यवहारिकता में भी बहुत अंतर है। हमारे दिलों में संवेदनशीलता पश्चिम से कहीं अधिक पाई जाती है। पश्चिमी शिक्षा का सबसे अधिक प्रभाव भारतीय परिवारों पर पड़ा है। परिवारों का बिखराव, आत्मीयता में कमी होना, मन की जगह बुद्धि का इस्तेमाल होना तथा लोगों का प्रयोगवादी होना, यह सब पश्चिम की ही देन है। पाश्चात्य गुण दोषों से भारतीय शिक्षा भी आज नए स्वरूप में दिखाई देने लगी है।

आज पाश्चात्य जगत में जिस गति से विज्ञान, तकनीकि एवं अंतरजालीय क्षेत्र में प्रगति और प्रयोग हो रहे हैं, उससे मानव पूर्णतः यांत्रिक होता जा रहा है। लिंगपरिवर्तन, वनस्पतियों की संकर फसलें तथा तरह-तरह के कृत्रिम उत्पाद प्रकृति को चुनौती देने लगे हैं। वैज्ञानिक उपकरणों और नवीनतम अविष्कारों ने भारतीय शिक्षा को हाशिए पर खड़ा कर दिया है। आज भारतीयता की पहचान किसी कोने में सिसक रही है। हमारी संतानें उच्च शिक्षा ग्रहण कर पश्चिमी देशों में चली जाती हैं और उनके माँ-बाप संतानों से दूर एकाकी और बिना संतानसुख के जीवन यापन करते हुए भगवान को प्यारे हो जाते हैं। अनेक लोगों को तो बेटों के कंधे भी नसीब नहीं होते। किसी भारतीय माँ-बाप के लिए इससे बड़ी बदनसीबी और क्या हो सकती है कि उनकी अर्थी को उनका बेटा भी कंधा न दे सके। वहीं पश्चिमी रंग-ढंग में रची बसी अधिकांश संताने माँ-बाप को जानबूझकर नजरअंदाज करती हैं अथवा उन्हें अपने पास नौकरों की तरह रखती हैं। यहाँ एक प्रश्न उठता है कि अर्थ के अतिरिक्त पाश्चात्य समाज में ऐसा क्या है जिसे महत्त्व दिया जाता हो। वहीं भारतीयता में पहला स्थान माँ-बाप का है, रिश्तों का है, फिर कहीं जाकर अर्थ की बात आती है। पाश्चात्य शिक्षा हमें उच्च पद तो दिला सकती है लेकिन रिश्ते और स्वास्थ्य नहीं। रिश्तों में आत्मीयता की कमी और समयपूर्व बी पी, मोटापा, चश्मा और हृदय रोग भी अपनी जड़े जमाने लगते हैं। इंसान के स्वास्थ्य के लिए मात्र दवाईयाँ  ही पर्याप्त नहीं होती। प्रेम, शांति और नियमितता भी आवश्यक है, जो पाश्चात्य संस्कृति अथवा उच्च शिक्षा से प्राप्त प्रभुता के कारण नहीं मिलती। पश्चिम से प्रभावित फैशन, ड्रग्स, रहन-सहन एवं खान-पान भारतीयता को कभी रास नहीं आया। रिश्तों की अस्थिरता और टूटते परिवार इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। आज हम देखते हैं कि कितने ही ऐसे सनाढ्य हैं जो अपनी शानो शौकत छोड़कर शांति की तलाश में भारत आकर भारतीय जीवन शैली अपना लेते हैं।

मेरा मानना यह कदापि नहीं है कि भारतीय शिक्षा पर पश्चिमी गुण-दोषों का ही बुरा प्रभाव पड़ा है। भारतीय शिक्षा के नवीनीकरण हेतु पाश्चात्य शैक्षणिक गुणों का जितना योगदान है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। वैश्वीकरण के दौर में यदि हमने पाश्चात्य शिक्षा को न अपनाया होता तो हम आज विश्व में अलग-थलग खड़े होते। यह बात अलग है कि हमारी मौलिकता बरकरार रहती परंतु मौलिकता के संरक्षण हेतु नवीनता की अनदेखी करना कितना उचित है यह प्रबुद्ध वर्ग के चिंतन का विषय है।

मेरा तो बस इतना कहना चाहता हूँ  कि हर भारतीय छात्र को शिक्षा ग्रहण करते समय उन सभी अच्छे पाश्चात्य गुणों को आत्मसात करना चाहिए जो हमारे लिए उचित हो। जो हमारे सफल भविष्य के लिए हो। बस इतनी सतर्कता हमें पश्चिमी दोषों से बचा सकती है, इसलिए यहाँ यह कहना यथोचित होगा कि संपूर्ण विश्व में गुण और दोष एक साथ पाए जाते हैं, लेकिन जिस तरह हंस पानी छोड़ कर केवल दूध पी लेता है, उसी तरह हम और हमारे विद्यार्थी पश्चिमी दोषों को छोड़कर पाश्चात्य शिक्षा के गुणों को ग्रहण करेंगे तो कोई ऐसी ताकत नहीं है, जो आप पर बुरा प्रभाव डाल सके।

आईए, हम अपनी भारतीय शिक्षा को तो समग्र रूप से आत्मसात करें। पश्चिमी शिक्षा की सभी अच्छी बातों को भी ग्रहण करें। विश्व में स्वयं को श्रेष्ठ निरूपित करें तथा भारतीय शिक्षा को  विश्वशिखर पर पहुँचाएँ।

जय हिंदी, जय भारत

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 18 – शख़्सियत: गुरुदत्त…3 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी चारों पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…3।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 18 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…3 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

गुरुदत्त को प्रभात फ़िल्म कम्पनी ने बतौर एक कोरियोग्राफर के रूप में काम पर रखा था लेकिन उन पर जल्द ही एक अभिनेता के रूप में काम करने का दवाव डाला गया। केवल यही नहीं, एक सहायक निर्देशक के रूप में भी उनसे काम लिया गया। प्रभात में काम करते हुए उन्होंने देव आनन्द और रहमान से अपने सम्बन्ध बना लिये जो दोनों ही आगे चलकर अच्छे सितारों के रूप में मशहूर हुए। उन दोनों की दोस्ती ने गुरुदत्त को फ़िल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाने में काफी मदद की। गुरुदत्त और देवानंद ने आपस में तय किया था कि जब देवानंद फ़िल्म बनाएँगे तब गुरुदत्त उस फ़िल्म का निर्देशन करेंगे। जब गुरुदत्त फ़िल्म बनाएँगे तब देवानंद को हीरो की भूमिका में अवसर देंगे।

प्रभात के 1947 में विफल हो जाने के बाद गुरुदत्त बम्बई आ गये। वहाँ उन्होंने अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म गर्ल्स स्कूल में और ज्ञान मुखर्जी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म संग्राम में साथ काम किया। वायदा मुताबिक़ बम्बई में उन्हें देव आनन्द की पहली फ़िल्म के लिये निर्देशक के रूप में काम करने की पेशकश की और देव आनन्द ने उन्हें अपनी नई कम्पनी नवकेतन में एक निर्देशक के रूप में अवसर दिया था। इस प्रकार गुरुदत्त द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी नवकेतन के बैनर तले बनी “बाज़ी” जो 1951 में प्रदर्शित हुई। फ़िल्म की कहानी और पटकथा बलराज साहनी ने लिखी थी। फिल्म में देवानंद  के साथ गीता बाली और कल्पना कार्तिक हैं। यह एक क्राइम थ्रिलर है और इसमें एस.डी. बर्मन बहुत लोकप्रिय संगीत था। फिल्म नैतिक रूप से अस्पष्ट नायक के साथ फोर्टिस की फिल्म नॉयर हॉलीवुड के लिए एक श्रद्धांजलि है, जो जलपरी और छाया प्रकाश  के प्रयोग का कलात्मक नमूना मानी जाती है। यह बॉक्स ऑफिस पर बहुत सफल रही थी।

बाजी एक तात्कालिक सफलता थी। दत्त ने इसके बाद जाल और बाज़ के साथ काम किया। न तो फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन किया, बल्कि वे गुरु दत्त की टीम को साथ लाए जिसने बाद की फिल्मों में इतना शानदार प्रदर्शन किया। उन्होंने खोज की, और सलाह दी, जॉनी वॉकर (कॉमेडियन), वी.के. मूर्ति (छायाकार), और अबरार अल्वी (लेखक-निर्देशक), अन्य लोगों के बीच। उन्हें हिंदी सिनेमा में वहीदा रहमान को पेश करने का श्रेय भी दिया जाता है। बाज़ उस दौर में उल्लेखनीय था, जिसने निर्देशन और अभिनय दोनों किया, मुख्य चरित्र के लिए उपयुक्त अभिनेता नहीं मिला।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 68 ☆ लघुकथा – प्रतिष्ठित रचनाकार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक सार्थक लघुकथा  “प्रतिष्ठित रचनाकार । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 68 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – प्रतिष्ठित रचनाकार ☆

लेखिका ख्याति प्राप्त थी। जीवन के सभी पहलुओं पर लिखी उनकी कहानियों की चर्चा हर मंच पर होती थी। आज के समाचार पत्र में उनका साक्षात्कार भी छपा। जीवन के मानवीय पक्ष से अलंकृत उनके विचार अनुकरणीय थे।

पिताजी  ने पढ़ा तो प्रभावित हुए बिना न रह पाए। बोले,  ” बिटिया,  हम  सोच रहे हैं कि इस बार अपनी संस्था के पुरस्कार वितरण समारोह  में इन्हें ही बुला लेते है। प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। आयेगीं तो कार्यक्रम की गरिमा बढ़ेगी। तुम इनसे अच्छी तरह परिचित भी हो। इसलिए तुम ही बात कर लो।”

मैंने तुरंत फोन मिला लिया। उम्मीद के अनुसार उनके  मधुर कंठ से आवाज़ आई..”बोलो बेटा कैसी हो..?”

“जी, आंटी अच्छी हूँ। प्रतिवर्ष पिताजी माँ की स्मृति में कहानी विधा पर एक पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन करते हैं। उसमें मुख्य अतिथि को भी सम्मानित करने की परम्परा है। कुछ नगद राशि भी दी जाती है। यदि इस बार आप मुख्य अतिथि बनने की स्वीकृति दे दें तो समारोह का महत्व बढ़ने के साथ ढेर सारे नए रचनाकारों को आपका मार्गदर्शन भी मिलेगा।”

“बेटा बात तो बहुत अच्छी है। लेकिन मुझे इस तरह के छोटे-मोटे समारोहों में जाना भाता नहीं है।”

इससे पहले कि मैं कुछ कह पाती, मेरा संपर्क उनसे कट गया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 59 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 59☆

☆ संतोष के दोहे ☆

अरुण रश्मियाँ नेह की, फैला रहीं प्रकाश

तिमिर सिमट कर भागता, नभ में हुआ उजास

 

हटता मन का जब तिमिर, तब आता है ज्ञान

गुरू भक्ति से दूर हो, अंतर का अभिमान

 

रोशन अब सारा शहर, झालर ज्योतिर्मान

दीप नेह के जल उठे, लक्ष्मी का सम्मान

 

बिजली बिन सूना लगे, सारा घर संसार

आदत इसकी पड़ गई, बिन बिजली लाचार

 

सूरज अपनी ताप से, देता है बरसात

जल-थल-नभचर पालता, उसकी यह सौगात

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे – दिवाळी फराळ ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ☆

?? ?? दिवाळी फराळ ?? ??

दिवाळी आली दिवाळी!

म्हणून घेतली चकली करायला!

तर जिलबी म्हणते चकलीला!

तू तर बाई तिखट तेलकट!

मी बघ कशी गोड गोजिरी सर्वांना प्यारी प्यारी !

माझ्याशिवाय नाही होत साजरी साताऱ्याची २६ जानेवारी!!

 

चकली म्हणते काय गं गाजवतेस तुझ्या गोडपणाचा तोरा ?

म्हणतात तुला खाल्ली की वाढते शुगर अन् बिघडते फिगर !

आणि काय गं तूंच तेवढी गोल गोजिरी ?

गोड गोड लाडूविना होते कां दिवाळी साजरी?

 

लाडू म्हणे मोतीचूर ..

मी तर सुबक सुंदर सोनेरी!

माझ्या चवीची तर लज्जतच लईऽऽई भारी !

पण जोडीला हवी हो चिवड्याची खमंग खुमारी !!

खाऱ्या गोड्या शंकरपाळ्यांची चहाशी मजा लऽऽई..न्यारी!!

 

पुडाच्या करंजीला फराळाच्या ताटात प्रथम मान!

कडबोळे आकाराने असतात वेगळे पण मिरवून जातात शान !!

 

शेवपापडी चिरोट्यांनी गर्दी केली थोबा !

पण रवा-बेसन लाडूशिवाय फराळाला नाही हो शोभा ?

 

असा दिवाळीचा फराळ घरच्या सर्वांनी एकत्र बसून खावा !

अशी प्रत्येक गृहिणीची असते अगदी मनापासून इच्छा!

अन् सर्वांना दिवाळीच्या मनापासून गोड गोड शुभेच्छा!!!

 

दिनांक:-१२-११-२०.

©️®️ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

सातारा

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 50 ☆ लघुकथा – दिया हुआ वापस आता ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘दिया हुआ वापस आता’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 50 ☆

☆  लघुकथा – दिया हुआ वापस आता 

काकी का रोज का नियम था सुबह उठकर पक्षियों के लिए आटे की छोटी- छोटी गोलियां बनाकर छत की मुंडेर पर रखना। पक्षियों के लिए पानी तो हमेशा उनके घर की छत पर रखा ही रहता था। घर के बाहर भी  उन्होंने  सीमेंट की हौद बनवा  दी थी। सर्दी, गर्मी,बरसात कुछ भी हो वह पानी से लबालब भरी ही रहती। कई बार पडोसी टोक देते ‌- अरे बारिश में क्यों पानी भर रही हो काकी, इस मौसम में थोडे ही  प्यास लगती होगी जानवरों को। काकी हँसकर उत्तर देती -अरे! हमारी तुम्हारी तरह बोलकर माँग सकते होते  तो ना भरती पानी, पर बिचारे बेजुबान प्राणी हैं, क्या पता कब प्यास लगे।

काकी पशु –पक्षियों, इंसान सबके लिए करती ही रहती थीं। वास्तव में गीता का वाक्य ‘ कर्म करो, फल की इच्छा मत करो ‘काकी के  जीवन को देखकर मानों अपना अर्थ समझा देता था। आस – पडोस के लिए तो काकी रात –दिन कुछ ना देखती, सब मानों उनके ही परिवार के अभिन्न अंग। वह तरह – तरह के अचार डालती और छोटी छोटी कटोरियों में रख पडोसियों को दे आतीं।  आसपास के बच्चे तो उनके पीछे ही पडे रहते – काकी चूरनवाली गोली दो ना। काकी गुड, इमली, अजवाईन और सेंधा नमक मिलाकर पाचक गोली बनाकर रखतीं, बच्चे चटकारे लेकर खट्टी – मीठी गोलियां चूसते रहते।  कुल मिलाकर  काकी का घर जमावडा था आस – पडोसवालों के लिए और क्यों ना हो, काकी छोटी – मोटी बीमारियों के घरेलू नुस्खों का खजाना जो थीं। किसी को कुछ  तकलीफ हुई कि वह उनके पास पहुँच जाता फिर सरसों के तेल में हल्दी गरम करके लगाना हो या काढा बनाकर देना, वह सब कुछ बडे स्नेह से करतीं।

काकी घर में अकेले ही रहती थीं, दो लडके थे पर दूसरे शहरों  में रहते थे। उनके बहुत कहने पर भी काकी उनके साथ नहीं गईं। शहर में लोगों का अजनबीपन उन्हें रास नहीं आया, कुछ दिन रहकर वापस आ गईं। कोरोना के बारे में  काकी ने भी सुन रखा था, तरह – तरह की बातें कि कोरोना हो जाने पर घरवाले भी हाथ नहीं लगाते। आस पडोस में किसी को कोरोना हो जाए तो लोग बात करना भी छोड देते हैं। और भी ना जाने क्या- क्या –। सर्दी, जुकाम,बुखार तो मौसम बदलने पर होता ही है लेकिन कोरोना के आतंक ने इस मामूली बीमारी को भी भयावह बना दिया। काकी को भी सुबह से बदन में थोडी हरारत लग रही थी। अकेली घर में रहते हुए  रात में एक बार तो उसके मन में भी विचार आया – अगर उसे कोरोना हो गया तो ? कोई अस्पताल ले जाएगा कि नहीं ? फिर वह मुस्कुराई – देखा जाएगा जो होगा, पहले से सोचकर क्या फायदा और सो गई।

काकी की नींद खुली तो  अपने को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। उसने आसपास नजर दौडाई, सब अनजान चेहरे थे। नर्स को अपने पास बुलाकर पूछा,उसने बताया –‘ उसकी पडोसिन बीना  रात में पेट दर्द की दवा लेने काकी के घर गई जब कई बार आवाज देने पर कोई उत्तर नहीं आया तो वह घर के अंदर  गई। उसने देखा कि काकी बहुत तेज बुखार में बेहोश पडी है। पडोसियों ने उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती करवाया  और कह गए हैं कि काकी बिल्कुल चिंता ना करें। हम सब अस्पताल के बाहर ही खडे हैं,जो भी जरूरत हो हमें बताएं ‘। काकी को कुछ कहना ही नहीं पडा, खाना – पीना, दवा सब पडोसियों ने संभाल लिया था। जल्दी ही काकी के बच्चे भी आ गए। काकी को पता ही ना चला कि कोरोना कब आया और चला गया। पास खडी नर्स किसी से कह रही थी – इनका दूसरों के लिए किया हुआ ही वापस आ रहा है, वरना आज के समय में किसी के लिए कौन करता है इतना।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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