English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 26 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 26 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 26) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 26☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मेरी ना सही, तो ना सही

तो आपकी  होनी चाहिए,

तमन्ना किसी एक की तो

जरूर पूरी होनी चाहिए…

 

No problem, if not mine, then

Your wish should be met,

But  the  desire  of atleast

One of us  must  be fulfilled…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

किसी ने मुझसे पूछा कि

दर्द  की  कीमत क्या है?

मैंने कहा, मुझे नहीं पता…

मुझे तो मुफ्त में ही मिला

बस कुछ लोगों पर हद से

ज्यादा  यकीन  किया था!

 

Someone  asked  me…

what is the cost of pain

I  said, I  don’t  know

since I  got  it  for free

I only believed in  some

people to  the extreme!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ये  भी कैसा अजब नशा है

किस  गजब ख़ुमार  में हूँ,

तू आ के जा भी चुका है

और मैं तेरे इंतज़ार में हूँ…

 

What type of strange

intoxication  is  this

What  an  amazing

hangover  I  am  in…

 

You have come

and  gone  also

And,  I  am  still      

waiting for you…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-2 – 

शेरू का प्यार—–
आपने पढ़ा कि शेरू मेरे परिवार में ही पल कर जवान हुआ घर के सदस्य ‌की तरह ही परिवार में घुल मिल गया था।अब पढ़ें——-

बच्चे जब उसका नाम लें बुलाते वह कहीं होता दौड़ लगाता चला आता और वहीं कहीं बैठ कर अगले पंजों के बीच सिर सटाये टुकुर टुकुर निहारा करता। बीतते समयांतराल के बाद शेरू नौजवान हो गया, उसके मांसल शरीर पर चिकने भूरे बालों वाली त्वचा, पतली कमर, चौड़ा सीना‌ ऐठी पूंछ लंबे पांव उसके ताकत तथा वफादारी की कहानीं बयां करते। उसका चाल-ढाल रूप-रंग देख लगता जैसे कोई फिल्मी पोस्टर फाड़ कोई बाहुबली हीरो निकल पड़ा हो। उसे दिन के समय जंजीर में बांध कर रखा जानें लगा था, क्यों कि वह अपरिचितों को देख आक्रामक‌ हो जाता और जब  मुझ से मिलने वाले कभी‌ हंसी मजाक में भी‌ मुझसे हाथापाई करते तो वह मरने मारने पर उतारू हो जाता तथा अपनी स्वामी भक्ति का अनोखा उदाहरण ‌प्रस्तुत करता। जब कभी ‌मैं शाम को नौकरी से छूट घर आता तो शेरू और मेरे पोते में होड़ लग जाती ‌पहले गोद में चढ़ने की।

वे दोनों ही मुझे कपड़े भी उतारने तक का अवसर देना नहीं चाहते थे। अगर कभी पहले पोते को गोद उठा लेता तो शेरू मेरी गोद में अगले पांव उठाते चढ़ने का असफल प्रयास करता। अगर पहले शेरू को गोद ले लेता तो पोता रूठ कर एड़ियां रगड़ता लेट कर रोने लगता। वे दोनों मेरे प्रेम पर अपना एकाधिकार ‌समझते। कोई भी सीमा का अतिक्रमण बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं।

इन परिस्थितियों में मैं कुर्सी‌ पर बैठ जाता। एक हाथ में पोता तथा दूसरा हाथ शेरू बाबा के सिर पर होता तभी शेरू मेरा पांव चाट अपना प्रेम प्रदर्शित करता। उन परिस्थितियों में मैं उन दोनों का प्यार पा निहाल हो जाता । मेरी खुशियां दुगुनी हो जाती, मेरा दिन भर का तनाव थकान सारी पीड़ा उन दोनों के प्यार में खो जाती। और मै उन मासूमों के साथ खेलता अपने बचपने की यादों में खो जाता,।

अब शेरू जवानी की दहलीज लांघ चुका था वह मुझसे इतना घुल मिल गया था कि मेरी परछाई बन मेरे साथ रहने लगा था। जब मैं पाही पर खेत में होता तो वह मेरे साथ खेतों की रखवाली करता,वह जब नीलगायों के झुण्ड, तथा नँदी परिवारों अथवा अन्य किसी‌ जानवर को देखता तो उसे दौड़ा लेता उन्हे भगा कर ही शांत होता। मुझे आज भी ‌याद है वो दिन जब मैं फिसल कर गिर गया था मेरे दांयें पांव की हड्डी टूट गई थी।  मैं हास्पीटल जा रहा था ईलाज करानें। उस समय शेरू भी चला था मेरे पीछे अपनी स्वामीभक्ति निभाने, लेकिन अपने गांव की सीमा से आगे बढ़ ही नहीं पाया। बल्कि गांव सीमा पर ही अपने बंधु-बांधवों द्वारा घेर लिया गया और अपने बांधवों के झांव झांव कांव कांव से अजिज हताश एवम् उदास मन से वापस हो गया था।

उसे देखनें वालों को ऐसा लगा जैसे उसे अपने कर्त्तव्य विमुख होने का बड़ा क्षोभ हुआ था और उसी व्यथा में उसने  खाना पीना भी छोड़ दिया था। वह उदास उदास घर के किसी कोने में अंधेरे में पड़ा रहता।  उसकी सारी खुशियां कपूर बन कर उड़ गई थी। उस दिन शेरू की उदासी घर वालों को काफी खल रही थी। उसकी स्वामिभक्ति पर मेरी पत्नी की आंखें नम हो आईं थीं।

मेरे घर में शेरू का मान और बढ़ गया था। महीनों बाद मैं शहर से लौटा था। मेरे पांवों पर सफेद प्लास्टर चढ़ा देख शेरू मेरे पास आया मेरे पांवों को सूंघा और मेरी विवशता का एहसास कर वापस उल्टे पांव लौट पड़ा और थोड़ी दूर जा बैठ गया तथा उदास मन से मुझे एक टक निहार रहा था।
उस घड़ी मुझे एहसास हुआ जैसे वह मेरे शीघ्र स्वस्थ्य होने की विधाता से मौन प्रार्थना कर रहा हो। उसकी सारी चंचलता कहीं खो गई थी। ऐसा मे जब मैं सो रहा होता तो वह मेरे सिरहाने बैठा होता। जब किसी चीज के लिए प्रयासरत होता  तो वह चिल्ला चिल्ला आसमान सर पे उठा लेता और लोगों को घर से बाहर आने पर मजबूर कर देता।

आज भी मुझे याद है वह दिन जिस दिन मेरा प्लास्टर कटा था,उस दिन शेरू बड़ा खुश था ऐसा। लगा जैसे सारे ज़माने की खुशियां शेरू को एक साथ मिली हो। वह आकर अपनी पूंछ हिलाता मेरे पैरों से लिपट गया था। जब मैं ने पर्याय से उसका सिर थपथपाया तो उसकी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे और मैं एक जानवर का पर्याय पा उसकी संवेदनशीलता पर रो पड़ा था ।

—– क्रमशः भाग 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 26 ☆ नमन मीनाक्षी सुवाचा…. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  की एक रचना  नमन मीनाक्षी सुवाचा….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 26 ☆ 

नमन मीनाक्षी सुवाचा….☆ 

अरुण अर्णव लाल-नीला

अहम् तज मन रहे ढीला

स्वार्थ करता लाल-पीला

छंद लिखता नयन गीला

संतुलन चाबी, न ताला

बिना पेंदी का पतीला

 

नमन मीनाक्षी सुवाचा

गगन में अरविंद साँचा

मुकुल मन ने कथ्य बाँचा

कर रहा जग तीन-पाँचा

मंजरी सज्जित भुआला

 

पुनीता है शक्ति वर ले

विनीता मति भक्ति वर ले

युक्तिपूर्वक जिंदगी जी

मुक्ति कर कुछ कर्म वर ले

काल का सब जग निवाला

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 58 – रंग…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #58 ☆ 

☆ रंग…! ☆ 

आई . . . .

मी चित्र काढत असताना

तू..

माझ्या आयुष्यात भरलेले

सारेच रंग..

मी चित्रात भरण्याचा

प्रयत्न करतो… .

पण..

कितीही प्रयत्न केला..,

तरी

तू माझ्या आयुष्यात

भरलेले सारेच रंग

मला चित्रात भरणं

कधी जमलंच नाही

कारण…

तू माझ्या आयुष्यात

भरलेल्या रंगापुढे

हे रंग नेहमीच

अपुरे पडतात…!

अपुर्ण वाटतात. . . !

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 67 ☆ रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 67 ☆

☆ रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं 

यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। मानव स्वतंत्र है, यह सपने देखता है और उन्हें साकार करने में अपनी संपूर्ण ऊर्जा-शक्ति को झोंक देता है। परंतु कई बार वह सफल हो जाता है और कई बार उसे असफलता का मुख देखना पड़ता है। सफल होने पर फूला नहीं सकता और असफल होने पर अकारण अवसाद में घिर जाता है। उसे यह संसार व रिश्ते- नाते मिथ्या भासने लगते हैं और निराशा रूपी गहन अंधकार में फंसा व्यक्ति, लाख चाहने पर भी उनके जंजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। अक्सर धैर्य खो देने की स्थिति में वह थक-हार कर बैठ जाता है और अपने लक्ष्य को भी भूल जाता है। अकर्मण्यता उसे घेर लेती है और निराशा की स्थिति में वह अपने लक्ष्य से किनारा कर लेता है, जो कि ग़लत है।

सफलता प्राप्ति के केवल दो मार्ग नहीं होते; तीसरा विकल्प भी होता है। सो! मानव को उस विकल्प की ओर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि ऋतु-परिवर्तन के समय वृक्ष अपनी पत्तियां बदलते, हैं जड़ें नहीं। पतझड़ के पश्चात् वसंत का आगमन अवश्यंभावी है। उसी प्रकार दु:ख के पश्चात् सुख, रात के पश्चात् दिन व अमावस के पश्चात् पूनम का आना निश्चित है। जो आया है, अवश्य जाएगा; फिर निराशा क्यों? यह संसार एक मुसाफ़िरखाना है। हर इंसान यहाँ अपना क़िरदार अदा कर चल देता है और यह सिलसिला कभी थमने का नाम नहीं लेता। संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है, जो उसे स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। ईश्वर ऑक्सीजन की तरह होता है, उसे आप देख भी नहीं सकते और उसके बिना रह भी नहीं सकते। इसलिए कहा जाता है कि यदि ज़िंदगी को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा ही जीवन। असंभव इस दुनिया में कुछ भी नहीं। हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा हैं नहीं, उसे साकार रूप प्रदान करने का सामर्थ्य भी हम में है। सो! मानव सपने देखने को स्वतंत्र है। इसलिए कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने की सीख दी है अर्थात् जो सपना आप संजोते हो, उसे पूरा करने के लिए सभी पहलुओं सोच-विचार करें और स्वयं को उसमें खपा दें, जब तक आप उसे पूरा नहीं कर पाते…तब तक निरंतर लगे रहे। अक्सर गलियों से होकर हम सही रास्ते पर आते हैं और कोई रास्ता इतना लंबा नहीं होता। यदि आपकी संगति अच्छी है, तो आप निष्कंटक मार्ग पर अबाध गति से बढ़ते चले जाते हैं। ‘ क़िरदार की अज़मत को न गिरने दिया हमने/ धोखे तो बहुत खाए, परंतु धोखा न दिया हमने।’ इसलिए सदैव सत्कर्म करें और अहं को अपने निकट न आने दें। ‘घमंड मत कर ऐ! दोस्त/ सुना ही होगा, अंगारे राख ही होते हैं ‘ के माध्यम से मानव को सचेत किया गया है। जो जन्मा है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है…यही जीवन का कटु सत्य है। धधकते अंगार अर्थात् अहंनिष्ठ व्यक्ति का अंत भी वही है। अच्छी किताबें, अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते, उन्हें पढ़ना पड़ता है। इसी प्रकार जीवन के यथार्थ को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि मानव शरीर पांच तत्वों से बना है और अंत में उसे उनमें ही मिल जाना है। एक बूंद से जन्मा शरीर, अंत में एक मुट्ठी राख में परिवर्तित हो जाता है। जो इस रहस्य को जान जाता है, उसे न कोई खौफ़ रहता है, न ही कोई अहंकार/ न ही कोई ठौर ठिकाना/ मिट्टी था मैं, मिट्टी ही हूं और फिर मिट्टी में मिल जाना है। इसलिए मानव को यह सीख दी गई है कि आप इस तरह जिएं कि आपको कल मर जाना है और इस तरह सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यह जीवन एक पाठशाला है। मानव हर दिन कुछ न कुछ नया सीखता है, क्योंकि ज्ञान अनंत है, अथाह है। जितना इंसान इसे सीखने का प्रयास करता है, डूबता चला जाता है। वास्तव में सीखने के लिए तो कई जन्म भी कम हैं।

जिस प्रकार सुगंध के बिना पुष्प, तृप्ति  के बिना प्राप्ति, ध्येय के बिना कर्म एवं प्रसन्नता के बिना जीवन व्यर्थ है, उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में मानव जीवन भी पशु-तुल्य है। वह केवल पेट भरने के लिए उपक्रम करता है तथा अपने परिवार से इतर  कुछ भी नहीं सोचता। स्वर्ग व नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैं, परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग- नरक का निर्माण करते हैं। इसलिए कहा जाता है कि ख़्याल करने वाले सही मार्गदर्शक को ढूंढिए, क्योंकि इस्तेमाल करने वाले तो खुद ही आपको ढूंढ लेंगे। वैसे खुद को पढ़ना संसार में सबसे कठिन कार्य है, परंतु प्रयास अवश्य करना चाहिए। सो! मन को शांत रखने का हुनर सीखिए और दूसरों के दिल में जगह बनाइए। इसलिए ज़रूरत से अधिक सोचने से बेहतर है कि ज़रूरत से अधिक व्यस्त रहें। यही मानसिक तनाव से मुक्ति का मार्ग है। सो! प्रभु की इबादत कीजिए, जहां ज़रूरतों का ज़िक्र न हो अर्थात् जो मिला है, उसके प्रति आभार प्रकट करें।

इसे संदर्भ में कलाम जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। यदि आप किसी से संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो उसके बारे में जो आप जानते हैं, उस पर विश्वास कीजिए; न कि आपने जो उसके बारे में सुना है। ‘दोस्ती के मायने, कभी ख़ुदा से कम नहीं होते/ अगर ख़ुदा करिश्मा है, तो दोस्त जन्नत से कम नहीं होते।|’ वास्तव में इंसान, इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि उम्मीदें ही धोखा देती हैं, जो वह दूसरों से करता है। इसलिए ऊंचाई पर हैं जो, वे प्रतिशोध की अपेक्षा परिवर्तन की सोच रखते हैं।

सो! खुशी प्राप्त करने का पहला उपाय है कि अतीत की बातों के बारे में न सोचा जाए, क्योंकि वे हमें आज की खुशियों से महरूम कर देती हैं। इसके साथ ही मानव को खुद को बदलने की सीख दी गई है। यदि आप संसार में दूसरों से बदलने की अपेक्षा करोगे, तो आप विजयी नहीं हो सकोगे, पराजित हो जाओगे तथा जीवन में कुछ भी नहीं कर पाओगे। आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं। तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यहां मैं सरदार पटेल की उक्ति का ज़िक्र करना चाहूंगी कि |कठिन समय में कायर बहाना ढूंढते हैं और बहादुर व्यक्ति रास्ता खोजते हैं।’ इसलिए बनी-बनाई लीक पर न चलकर, अपने रास्ते का निर्माण स्वयं करो। संसार में वही व्यक्ति सफल होता है, जो अपनी नवीन राहों का निर्माण स्वयं करता है और दाना मांझी की भांति |एकला चलो रे’ में विश्वास रख, निरंतर आगे बढ़ता चला जाता है, जब तक वह अपनी मंज़िल को प्राप्त नहीं कर लेता। इसके लिए आवश्यकता है, आत्मविश्वास, कठिन परिश्रम व उस जज़्बे की, जो आपको बीच राह में थक-हार कर बैठने नहीं देता। आप अपने हृदय में यह निश्चय कर लो कि आप में यह करने की क्षमता व सामर्थ्य है, तो आप तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और वीर पुरुष ‘जो ठान लेते हैं, वही कर गुज़रते हैं।’ आप में साहस है; आप जो चाहें कर सकते हैं। इसलिए जीवन में निराशा का दामन मत थामिए, अन्य विकल्प की तलाश करें, मंज़िल आपकी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठी होगी।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 19 ☆ आज की पत्रकारिता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “आज की पत्रकारिता)

☆ किसलय की कलम से # 19 ☆

☆ आज की पत्रकारिता ☆

निज कबित्त केहि लाग न नीका

सरस होउ अथवा अति फीका

अपना काम, अपना नाम, अपना व्यवसाय किसे अच्छा नहीं लगता। वकील अपने व्यवसाय और अपनी जीत के लिए कितनी झूठी-सच्ची दलीलें देते हैं, हम सभी जानते हैं। डॉक्टर और दूकानदार अपने लाभ के लिए क्या झूठ नहीं बोलते?

तब पत्रकार बंधु कोई अलग दुनिया के तो हैं नहीं। इन्हें भी लाभ की आकांक्षा है, सारी दुनिया में लोग रोजी-रोटी से आगे भी कुछ चाहते हैं।

बस यही वह चाह है जो हमें ईमानदारी के मार्ग पर चलने से रोकती है। आज मैं कुछ ऐसी बातों का उल्लेख करना चाहता हूँ, जो कुछ पत्रकार बंधुओं  को अच्छी नहीं लगेंगी। दूसरी ओर ये वो बातें हैं जो समाज में  पत्रकारों के लिए आये दिन कही भी जाती हैं।

मेरा सभी बंधुओं से निवेदन है कि वे इन बातों एवं तथ्यों को व्यक्तिगत नहीं लेंगे।

आज के बदलते वक्त और परिवेश में पत्रकारिता के उद्देश्य एवं स्वरूप में जमीन-आसमान का अंतर हो गया है। अकल्पनीय परिवर्तन हो गए हैं।आईये, हम कुछ कड़वे सच और उनकी हक़ीक़त पर चिंतन करने की कोशिश करें।

सर्वप्रथम, यदि हम ब्रह्मर्षि नारद जी को पत्रकारिता का जनक कहें तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे एक स्थान पर रुकते ही नहीं थे. आशय ये हुआ कि नारद जी भेंटकर्ता एवं घुमंतू प्रवृत्ति के थे.

आज की पत्रकारिता से ये गुण लुप्तप्राय हो गये हैं. इनकी जगह दूरभाष, विज्ञप्तियाँ और एजेंसियाँ ले रहीं हैं. सारी की सारी चीज़ें प्रायोजित और व्यावसायिक धरातल पर अपने पैर जमा चुकी हैं.

आज की पत्रकारिता के गुण-धर्म और उद्देश्य पूर्णतः बदले हुए प्रतीत होने लगे हैं. आजकल पत्रकारिता, प्रचार-प्रसार और अपनी प्रतिष्ठा पर लगातार ध्यान केंद्रित रखती है.

पहले यह कहा जाता था कि सच्चे पत्रकार किसी से प्रभावित नहीं होते, चाहे सामने वाला कितना ही श्रेष्ठ या उच्च पदस्थ क्यों न हो, लेकिन अब केवल इन्हीं के इर्दगिर्द आज की पत्रकारिता फलफूल रही है.

आज हम सारे अख़बार उठाकर देख लें, सारे टी. वी. चेनल्स देख लें. हम पत्र-पत्रिकाएँ या इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री देख लें, आपको हर जगह व्यावसायिकता तथा टी. आर. पी. बढाने के फार्मूले नज़र आएँगे. हर सीधी बात को नमक-मिर्च लगाकर या तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का चलन बढ़ गया है. बोला कुछ जाता है, समाचार कुछ बनता है. घटना कुछ होती है, उसका रूप कुछ और होता है.

कुछ समाचार एवं चेनल्स तो मन माफिक समाचारों के लिए एजेंसियों की तरह काम करने लगे हैं. इससे भी बढ़कर कुछ धनाढ्य व्यक्तियों अथवा संस्थानों द्वारा बाक़ायदा अपने समाचार पत्र और टी. वी. चेनल्स संचालित किए जा रहे हैं. हमें आज ये भी सुनने को मिल जाता है कि कुछ समाचार पत्र और चेनल्स काला बाज़ारी पर उतर आते हैं.

मैं ऐसा नहीं कहता कि ये कृत्य हर स्तर पर है, लेकिन आज इस सत्यता से मुकरा भी नहीं जा सकता.

आज की पत्रकारिता कैसी हो? तो प्रतिप्रश्न ये उठता है कि पत्रकारिता कैसी होना चाहिए?

पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक घटनाओं और गतिविधियों को समाज के सामने उजागर कर जन-जन को उचित और सार्थक दिशा में अग्रसर करना है.

हमारी ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपराओं के साथ ही उनकी कार्यप्रणाली से भी अवगत कराना पत्रकारिता के कर्तव्य हैं.

हर अहम घटनाओं तथा परिस्थिजन्य आकस्मिक अवसरों पर संपादकीय आलेखों के माध्यम से समाज के प्रति सचेतक की भूमिका का निर्वहन करना भी है.

एक जमाने की पत्रकारिता चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती ठंड एवं वर्षा-आँधी के बीच पहुँचकर जानकारी एकत्र कर ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत करने को कहा जाता था,

लेकिन आज की पत्रकारिता वातानुकूलित कक्ष, अंतर-जाल, सूचना-तंत्र, ए. सी. वाहनों और द्रुतगामी वायुयान-हेलिकॉप्टरों से परिपूर्ण व्यवस्थाओं के साथ की जाने लगी है, लेकिन बावज़ूद इसके लगातार पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण चिंता का विषय है.

आज आपके मोहल्ले की मूलभूत समस्याओं को न्यूज चेनल्स या समाचार पत्रों में स्थान नहीं मिलता, लेकिन निरुद्देशीय किसी नेता, अभिनेता या किसी धार्मिक मठाधीश के छोटे से क्रियाकलाप भी  प्रमुखता से छापे या दिखाये जाएँगे. ऐसा क्यों है? इसके पीछे जो कारण हैं वे निश्चित रूप से विचारणीय हैं? यहाँ पर इसका जिम्मेदार आज की  उच्च जीवन शैली, लोकप्रियता एवं महत्त्वाकांक्षा की भावना को भी माना जा सकता है.

हर छोटा आदमी, बड़ा बनाना चाहता है और बड़ा आदमी, उससे भी बड़ा.

आख़िर ये कब तक चलेगा ? क्या शांति और सुख से मिलीं घर की दो रोटियों की तुलना हम फ़ाइव स्टार होटल के खाने से कर सकते हैं?

शायद कभी नहीं.

हर वक्त एक ही चीज़ श्रेष्ठता की मानक नहीं बन सकती. यदि ऐसा होता तो आज तुलसी, कबीर, विनोबा या मदर टेरेसा को इतना महत्त्व प्राप्त नहीं होता.

जब तक हमारे जेहन में स्वांतःसुखाय से सर्वहिताय की भावना प्रस्फुटित नहीं होगी, पत्रकारिता के मूल्यों में निरंतर क्षरण होता ही रहेगा.

आज हमारे पत्रकार बन्धु निष्पाप पत्रकारिता करके देखेंगे तो उन्हें वो पूँजी प्राप्त होगी जो धन-दौलत और उच्च जीवन शैली से कहीं श्रेष्ठ होती है.

आपके अंतःकरण का सुकून, आपकी परोपकारी भावना, आपके द्वारा उठाई गई समाज के आखरी इंसान की समस्या आपको एक आदर्श इंसान के रूप में प्रतिष्ठित करेगी.

आज के पत्रकार कभी आत्मावलोकन करें कि वे पत्रकारिता धर्म का कितना निर्वहन कर रहे हैं.

कुछ प्रतिष्ठित या पहुँच वाले पत्रकार स्वयं को अति विशिष्ट श्रेणी का ही मानते हैं. ऐसे पत्रकार कभी ज़मीन से जुड़े नहीं होते, वे आर्थिक तंत्र और पहुँच तंत्र से अपने मजबूत संबंध बनाए रखते हैं.

लेकिन यह भी वास्तविकता है कि ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता कभी खोखली नहीं होती, वह कालजयी और सम्मान जनक होती है.

हम देखते हैं, आज के अधिकांश पत्रकार कब काल कवलित हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता और न ही कोई उन्हें याद रखने की आवश्यकता महसूस करता।

आज पत्रकारिता की नयी नयी विधियाँ जन्म ले चुकीं हैं. डेस्क पर बैठ कर सारी सामग्री एकत्र की जाती है, जो विभिन्न आधुनिक तकनीकि, विभिन्न एजेंसियों एवं संबंधित संस्थान के नेटवर्क द्वारा संकलित की जाती हैं. इनके द्वारा निश्चित रूप से विस्तृत सामग्री प्राप्त होती है,

लेकिन डेस्क पर बैठा पत्रकार / संपादक प्रत्यक्षदर्शी न होने के कारण समाचारों में वो जीवंतता नहीं ला पाता, समाचारों में वो भावनाएँ नहीं ला पाता, क्योंकि वो दर्द और वो खुशी समाचारों में आ ही नहीं सकती, जो एक प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार की हो सकती है.

आज के कुछ प्रेस फोटोग्राफर पीड़ित, शोषित अथवा आत्मदाह कर रहे इंसान की मदद करने के बजाय फोटो या वीडियो बनाने को अपना प्रथम कर्त्तव्य मानते है और दूसरे प्रेस फोटोग्राफर्स को कॉल करके बुलाते हैं। वह दिन कब आएगा जब वे कैमरा फेंककर मदद को दौड़ेंगे? जिस दिन ऐसा हुआ वह दिन पत्रकारिता के स्वर्णिम युग की शुरुआत होगी।

मेरी धारणा है कि यदि आपने पत्रकारिता को चुना है तो समाज के प्रति उत्तरदायी भी होना एक शर्त है अन्यथा आपका जमीर और ये  पीड़ित समाज आपको निश्चिंतता की साँस नहीं लेने देगा।

हम अपने ज्ञान, अनुभव, लगन तथा परिश्रम से भी वांछित गंतव्य पर पहुँच सकते हैं, बस फर्क यही है कि आपको अनैतिकता के शॉर्टकट को छोड़कर नैतिकता का नियत मार्ग चुनना होगा। पत्रकारिता को एक बौद्धिक, मेहनती, तात्कालिक एवं कलमकारी का जवाबदारी भरा कर्त्तव्य कहें तो गलत नहीं होगा।

धन तो और भी तरह से कमाया जा सकता है, लेकिन पत्रकारीय प्रतिष्ठा का अपना अलग महत्त्व होता है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है और लोकतंत्र के इस स्तम्भ की हिफाजत करना हम सब का दायित्व है।

अंततः निष्कर्ष यह है कि पत्रकारिता यथा संभव यथार्थ के धरातल पर चले, अपनी आँखों से देखे, अपने कानों से सुने और पारदर्शी गुण अपनाते हुए समाज को आदर्शोन्मुखी बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे, आज विकृत हो रहे समाज में ऐसी ही पत्रकारिता की ज़रूरत है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 65 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 65– साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

करते हैं आराधना,

तुम ईश्वर प्रति रुप।

मन मंदिर में रचे बसे,

हो श्रद्धा स्वरूप।।

 

झर झर कर बह अब रही,

आयु वेग की धार।

संबंधों को जीत लो,

पड़े न कभी दरार।।

 

शब्द शब्द के योग से,

बढ़ा शब्द परिवार।

शब्दों की दुनिया बढ़ी,

हुआ अर्थ भंडार।।

 

झूम झूम के नाचता,

मन मयूर चहुं ओर।

पूरी होती चाह अब,

बचा न कोई छोर।।

 

जीवन में सब कुछ मिला,

मिला सकल संसार।

मन से करते अर्चना,

मिले सभी का प्यार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 57 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 57☆

☆ संतोष के दोहे ☆

जप तप अरु आराधना, करिये सतत अनित्य

नवरात्रि में कीजिए, माँ की पूजा नित्य

 

आयु फिसलती रेत-सी, रहते खाली हाथ

कौन जानता कब किधर, छूटे किसका साथ

 

सावन की काली घटा, जब छाती घनघोर

अपने मोहक नृत्य से, मन हरता है मोर

 

सिमट रहे हैं आजकल, यह अपने परिवार

साथ वक्त के बदलते, सामाजिक संस्कार

 

दुनिया सबको मोहती, मायावी संसार

माया से बच कर रहें, इसके रंग हजार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 11 – कविता ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 11 ☆

☆ कविता ☆

आपण समजतो तेवढी सोपी नसते कविता

भावनांचा उद्रेक होतो तेव्हा जन्म घेते कविता

तुम्ही नाहीयेत तिचे जन्मदाते बाबांनो

उलट तिच्यामुळे तुमचा होतो जन्म  कवी म्हणून मित्रांनो

कविता म्हणजे असतं एखाद्याचं जिवंतपणे जळणं

कविता म्हणजे काळजातला खंजीर स्वतः ओढून मरणं

कविता असते बाणासारखी रुतणारी

छातीत घुसून पाठीतून आरपार निघणारी

कविता म्हणजे पायातला न दिसणारा काटा

कविता म्हणजे भावनांना हजार लाख वाटा

कविता म्हणजे असतो काळजावरला घाव

कविता म्हणजे असतो एक मोडलेला डाव

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

17/05/20

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 49 ☆ लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक सत्य घटना पर आधारित  उनकी लघुकथा चिट्ठी लिखना बेटी ! डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 49 ☆

☆  लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆

बहुत दिन हो गए तुम्हारी चिट्ठी  नहीं आई बेटी ! हाँ,जानती हूँ गृहस्थी में उलझ गई हो,समय नहीं मिलता होगा। गृहस्थी के छोटे –मोटे हजारों काम, बच्चे और तुम्हारी नौकरी भी,सब समझती हूँ, फोन पर तुमसे बात तो हो जाती है, पर  मन नहीं भरता। चिट्ठी आती है तो जब चाहो खोलकर इत्मीनान से पढ लो, जितनी बार पढो,  अच्छा ही लगता है। पुरानी चिट्ठियों की तो बात ही क्या, पढते समय बीता कल मानों फिर से जी उठता है। मैंने तुम्हारी सब चिट्ठियां संभालकर रखी हैं अभी तक।

तुम कह रहीं थी कि चिट्ठी  भेजे बहुत दिन हो गये? किस तारीख को भेजी थी? अच्छा दिन तो याद होगा? आठ –दस दिन हो गए?  तब तो आती ही होगी। डाक विभाग का भी कोई ठिकाना नहीं, देर – सबेर आ ही जाती हैं चिट्ठियां। बच्चों की फोटो भेजी है ना साथ में? बहुत दिन हो गए तुम्हारे बच्चे को देखे हुए। हमारे पास कब आ पाओगी – स्वर मानों उदास होता चला गया।

और ना जाने कितनी बातें, कितनी नसीहतें, माँ की चिट्ठी में हुआ करती थीं। धीरे- धीरे चिट्ठियों की जगह फोन ने ले ली। चिट्ठी में भावों में बहकर मन की सारी बातें उडेलना, जगह कम पडे तो अंतर्देशीय पत्र के कोने – कोने में छोटे अक्षरों में लिखना, उसका अलग ही सुख था। जगह कम पड जाती लेकिन मन की बातें मानों खत्म ही नहीं होती थी। लिखनेवाला भी अपनी लिखी हुई चिट्ठी को कई बार पढ लेता था, चाहे तो चुपके – चुपके रो भी लेता और फिर चिट्ठी चिपका दी जाती। फिर कुछ याद आता – ओह! अब तो चिपका दी चिट्ठी।

कितने बच्चे हैं, बेटा है? नहीं है, बेटियां ही हैं, ( माँ की याद्दाश्त खत्म होने लगी थी ) चलो कोई बात नहीं आजकल लडकी – लडके में कोई अंतर नहीं है। ये मुए लडके कौन सा सुख दे देते हैं? बीबी आई नहीं कि मुँह फेरकर चल देते हैं। तुम चिट्ठी लिखो हमें, साथ में बच्चों की फोटो भी भेजना, तुम्हारे  बच्चों को देखा ही नहीं हमने ( बार – बार वही बातें दोहराती है )।  फोन पर बात करते समय  हर बार वह यही कहती – बेटी ! फोन से दिल नहीं भरता, चिट्ठी लिखा करो।

कई बार कोशिश की, लिखने को पेन भी उठाया लेकिन कागज पर अक्षरों की जगह माँ का चेहरा उतर आता। अल्जाइमर पेशंट माँ को अपनी सुध नहीं है, सबके बीच रहकर भी वह मानों सबसे अन्जान, आँखों में सूनापन लिए जैसे कुछ तलाश रही हो। उसके हँसते –मुस्कुराते चेहरे पर अब आशंका और असुरक्षा  के भावों ने घर कर  लिया है। फोन पर अब वह मुझे नहीं पहचानती लेकिन जताती नहीं और बार –बार कहती ऐसा करो चिट्ठी  में सब बात लिख देना – कहाँ रहती हो, बच्चे क्या करते हैं? चिट्ठी  लिखना जरूर और यह कहकर फोन रख देती। मैं सोचती हूँ कि क्या वह अनुमान लगाती है कि मेरा कोई अपना है फोन पर? या चिट्ठियों से लगाव उससे यह बुलवाता है? पता नहीं —-उसके मन में क्या चल रहा है क्या पता, उसके चेहरे पर तो सिर्फ अपनों को खोजती आँखें, बेचारगी और झुंझलाहट है।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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