(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पर्दा‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 145 ☆
☆ लघुकथा – दौड़☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘ दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं। अब ई कइसी मशीन है? ‘ उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू –पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।
अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ‘ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो? ‘
‘काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा’ – दीदी हँसते हुए बोली।
‘पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? ’ — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – ‘दीदी ! कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात- दिन दौड़त रह जात हैं। एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग —- ‘
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बिन माँगे मोती मिले…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
स्वदेश, परदेश, उपदेश का बहुत गहरा नाता है लोग चाहें या न चाहें ज्ञान बाँट देते हैं। जैसे ही पता चलता है कोई अनचाही समस्या से ग्रस्त है तो पर उपदेश कुशल बहुतेरे की कहावत को चरितार्थ करने हेतु दिग्गजों की लाइन लग जाती है। एक गया नहीं कि दूसरा हाजिर अब बेचारी घर की महिलाएँ तो चाय पानी में व्यस्त हो जातीं हैं।
दुःखी व्यक्ति सबकी सलाह सुनकर मन ही मन प्रण लेता है कि अब कुछ हो जाए किसी के सामने उदास नहीं होना वरना इतने सुझाव मिलते हैं कि कौन सा अपनाएँ यही समझ में नहीं आता। हर पल सकारात्मक रहिए, ऐसा व्यवहार कि आपसे मिलकर जो भी जाए वो मुस्कुराते हुए दिखना चाहिए। मधुर व्यवहार की कला जिसको आती है उसे सबको अपना बनाने में देर नहीं लगती है। चीजों को अपने अनुरूप करने के लिए खुले मन से
सबके विचारों का स्वागत करें, पहले जाँचे परखे फिर समाधान की ओर कदम बढ़ाइए। सुनिए सबकी करिए अपने मन की। बस बढ़े हुए कदम रुकने नहीं चाहिए।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना लॉगिन और लॉगाऊट ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 25 – लॉगिन और लॉगाऊट ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
रामस्वरूप के आंगन में पहले हमेशा चहल-पहल हुआ करती थी, लेकिन अब वह दौर भी बीत चुका था। 70 साल का रामस्वरूप, जो कभी बुद्धिजीवी कहलाता था, अब आंगन में चौकी पर बैठकर आसमान निहार रहा था। उसके पास उसका 25 साल का पोता गोपाल मोबाइल में आंखें गड़ाए बैठा था, उसकी उंगलियां तेजी से स्क्रीन पर चल रही थीं, मानो उंगलियों में ही पूरी दुनिया समा गई हो। इस बीच श्यामलाल, रामस्वरूप का पुराना दोस्त, कुर्सी खींचकर बगल में बैठ गया। दोनों दोस्त एक ही जमाने के थे, साथ-साथ जवानी बिताई और अब साथ-साथ बुढ़ापे का बोझ ढो रहे थे।
रामस्वरूप ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “अरे भाई, ये दुनिया कहां जा रही है? हमारे जमाने में आदमी काम करता था, अब तो मोबाइल सब काम कर रहा है। इंसान खत्म हो रहा है, सब कुछ डिजिटल हो गया है।” श्यामलाल हंस पड़ा और मजाकिया लहजे में बोला, “अरे यार! अब सब कुछ ‘वायरलेस’ हो गया है। अब आदमी के पास ताकत नहीं, डेटा पैक की मोल-तोल है। जितना बड़ा डेटा पैक, उतनी बड़ी जिंदगी।” रामस्वरूप उसकी बातों को गंभीरता से सुन रहा था और पास बैठे गोपाल ने मोबाइल से नजरें उठाकर बोला, “दादा, आप लोग पुराने जमाने की बातें करते हो। अब सब डिजिटल हो गया है, असली जिंदगी तो ऑनलाइन चलती है।”
रामस्वरूप ने हल्की हंसी दबाते हुए कहा, “हां, अब आदमी का दिल नहीं, ‘वाइ-फाइ’ धड़कता है। पहले लोग मिलते थे, अब ‘ब्लूटूथ’ से जुड़ते हैं।” गोपाल ने सिर हिलाया, जैसे वह इन बातों को सुनकर बोर हो गया हो। तभी मालती, जो अंदर से बर्तन उठा रही थी, बातों में शामिल हो गई। उसने कहा, “रामस्वरूप, लड़के की बात समझो। अब जमाना बदल गया है। अब सब कुछ ‘इंस्टेंट’ हो गया है। पहले चिट्ठियां लिखी जाती थीं, अब ‘वॉट्सऐप’ पर बात होती है। उंगली हिलाओ, और काम हो जाता है।”
श्यामलाल ने ठहाका मारते हुए कहा, “बिल्कुल सही! अब दिल नहीं टूटते, नेटवर्क टूटते हैं। प्यार ‘डेटा पैक’ पर चलता है और रिश्ते ‘वायरलेस’ हो गए हैं।” रामस्वरूप ने सिर हिलाया और गहरी सांस लेते हुए कहा, “पहले प्यार इंतजार करता था, अब ‘ब्लॉक’ करता है। पहले लोग असलियत में मिलते थे, अब चाय पर बातें नहीं, ‘फ्री डेटा’ पर जिंदगी कटती है। आदमी के पास प्यार के लिए वक्त नहीं है, पर ‘नेटफ्लिक्स’ के लिए जरूर है।”
गोपाल ने फिर से मोबाइल से नजर हटाकर जवाब दिया, “दादा, अब लोग ‘ऑफलाइन’ ही नहीं होते। अब ‘ऑफलाइन’ होने का मतलब है कि आप दुनिया से गायब हो गए।” रामस्वरूप ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां, अब आदमी ‘ऑफलाइन’ होते ही जंगल में खो जाता है। पहले जंगल थे, अब डिजिटल जाल है, जिसमें आदमी फंसता है।” श्यामलाल ने फिर से मजाक में कहा, “सच में, अब आदमी की जिंदगी ‘लॉगइन’ और ‘लॉगआउट’ के बीच ही रह गई है।”
रामस्वरूप ने गोपाल की तरफ देखा, जो एक बार फिर मोबाइल में डूब चुका था। उसने गोपाल से मोबाइल छीनते हुए कहा, “सुन बेटा, तुम लोग डिजिटल हो गए हो, लेकिन याद रखना, जब ये डिजिटल दुनिया टूटेगी, तब असली जिंदगी का एहसास होगा। उस दिन न डेटा पैक काम आएगा, न ‘लाइक’। असली खुशी तब होगी, जब तुम असलियत में किसी को छू सकोगे, महसूस कर सकोगे।” श्यामलाल ने रामस्वरूप की बात का समर्थन करते हुए कहा, “बिल्कुल यार, अब आदमी की खुशी ‘फिल्टर’ और ‘स्पैम’ के बीच कहीं खो गई है। जिंदगी एक ‘स्क्रीनशॉट’ बनकर रह गई है, जिसे कोई देखता भी नहीं।”
रामस्वरूप और श्यामलाल हंसते रहे, जबकि गोपाल फिर से मोबाइल में खो गया। मालती चाय लेकर आई, लेकिन किसी को उसे पीने की फुर्सत नहीं थी।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी –“मित्र की सरलता”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 189 ☆
☆ कहानी- मित्र की सरलता☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
राहुल व देवांश सड़क पर खड़े बातें कर रहे थे। तभी एक मोटरसाइकिल आकर उनके पास रूकी।
“क्यों रे! अपने आप को बहुत होशियार समझता है,” जैसे ही मोटरसाइकिल पर सवार रघु ने कहा तो राहुल उसे देख कर चौंक गया।
“क..क.. क्या?” उसके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। वह डर गया था। रघुवीर उर्फ रघु उसके स्कूल का दादा था। उसकी एक गैंग थी। वह सभी पर रौब जमाता था। इसलिए सभी उससे डरते थे।
“ज्यादा होशियार बनता है क्यों?” उसने आंखें तरेर कर कहा, “यदि मैं तेरी कॉपी से जरा सा देख लेता तो तेरा बाप का क्या बिगड़ जाता? तेरी परीक्षा थोड़ी ही रुक जाती।” उसने राहुल को घुरा।
जैसे ही रघु ने यह कहा देवांश को सब माजरा समझ में आ गया। राहुल ने परीक्षा में रघु को नकल नहीं करने दी थी इस कारण वह भड़का हुआ था। उसने जब देखा राहुल कुछ नहीं बोल पा रहा है तो रघु को ओर भी तेज गुस्सा आ गया।
“अरे! बोलता क्यों नहीं? सांप सूंघ गया है क्या?”
“वो.. वो सर देख लेते!”
“सर देख लेते,” रघु ने चिढ़कर कहा, “सर की इतनी हिम्मत, मेरे सामने मैं कुछ बोलते,” कहते हुए रघु ने राहुल के सिर पर एक चपत जमा दी, “साला! साणा बनता है।”
यह देखकर देवांश को बहुत बुरा लगा। वह अपने मामाजी के यहां गांव में आया हुआ था। इसलिए वह समझ गया कि रघु की दादागिरी स्कूल के साथ-साथ बाहर भी चलती है। इसलिए उसने राहुल से कहा, “चल यार! मुझे काम है। चलते हैं,” कहने के साथ देवांश ने राहुल का हाथ पकड़ा कर खींचा।
“अबे! कहां जाता है?” रघु ने अकड़ कर कहा, “यदि कल के पेपर में देखने नहीं दिया तो ध्यान रखना हाथपैर तोड़ दूंगा।”
“जी,” राहुल ने कहा तो देवांश को एक तरकीब सुझाई दे गई। वह इस तरकीब से रघु की दादागिरी उतार सकता था, इसलिए उसने कहा, “अरे रघु भाई!”
“क्या है?” रघु ने चौंक कर पूछा, “बोल।”
“अरे रघु भाई, राहुल की इतनी हिम्मत नहीं कि वह आपको नकल करने से मना कर सकें। मगर वह क्या है..,” कह कर देवांश रुका।
रघु का पारा चढ़ा हुआ था। उसने कहा, ” वह क्या है? बोल जल्दी।”
“इसका भाई है ना वह,” कहते हुए देवांश ने खेत की ओर इशारा किया, “उसका कहना है कि तूने किसी को नकल कराई तो तेरी खैर नहीं है।”
“उसने कहा था,” रघु बोला, “वह तो साला एक नंबर का डरपोक और मरियल है।”
यह सुनकर राहुल डर गया था। उसने झट से कहा, “नहीं-नहीं, उसने नहीं बोला था।”
“अच्छा!”
“हां तो क्या हुआ?” देवांश ने रघु को उकसाया, “अगर वाकई तुम रघु दादा हो तो उसे सबक सिखा कर बताओ तो जानू?”
रघु को कोई चैलेंज करें वह कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उसने कहा, “तू रघु दादा को चैलेंज दे रहा है। इसका अंजाम जानता है?”
“हां-हां जानता हूं। ऐसे बहुत से दादा देखे हैं मैंने शहर में, हिम्मत हो तो उसे सबक सिखा कर बताओ तो जानू?”
यह सुनकर रघु का पारा चढ़ गया। वह झट से मोटरसाइकिल से उतरा,” तू यहां रुक सोनू, मैं भी उसे सबक सिखा कर आता हूं,” कहते हुए वह खेत की मुंडेर कूद कर विकास के पास पहुंच गया।
वहां जाकर उसने सीधे विकास का गिरेबान पकड़ा और कहा, ” क्यों रे डेढ़ फसली, दादा बनता है,” कहने के साथ रघु ने विकास का कालर पकड़ कर दो थप्पड़ जड़ दिए।
विकास कुछ समझ नहीं पाया। यह क्या हुआ? तभी पास ही चर रहे बैल की निगाहें रघु की हरकत पर चली गई। वह विकास को थप्पड़ मार रहा था।
तभी अचानक वह दौड़कर आया। उसने आते ही सिंग से रघु को उठाया। हवा में उछाल दिया। रघु इसके लिए तैयार नहीं था। वह हवा में उछला। पत्थर की मुंडेर पर जाकर गिरा।
यह सब अचानक हुआ था। वह बहुत तेजी से उछला था और पत्थर पर गिरा था। गिरते ही उसके हाथ की हड्डी टूट गई थी। विकास कुछ-कुछ सम्हल चुका था। वह चिल्लाकर बोला,” रामू! रुक जा!”
मगर रामू बैल कहां रुकने वाला था। वह गुस्से में था। उसके मालिक को कोई हाथ लगाएं, यह उसे बर्दाश्त नहीं था। रघु ने उसे थप्पड़ जड़ दिए थे इस कारण वह बहुत तेजी से चिल्लाते हुए अपना गुस्सा उतार रहा था।
दोबारा रघु की ओर तेजी से दौड़ा। यह देखकर रघु घबरा गया। उसके सामने साक्षात मोड़ तांडव कर रही थी। मगर वह उठ नहीं पा रहा था इसलिए जोर से चिल्ला पड़ा, “अरे! मार डाला! कोई बचाओ!” कह कर वह चीखा। तभी उसका मित्र सोनू वहां आ गया।
तभी विकास ने सोनू को इशारा कर दिया। वह अंदर नहीं आए। इसी के साथ विकास तेजी से रघु के पास पहुंच गया, “नहीं रामू, इसे छोड़ दो।”
मगर रामू ने तेज गर्दन हिलाकर जोर से हुंकार भरी। जैसे वह रघु को जोरदार सबक सिखाना चाहता है।
विकास रामू का गुस्सा जानता था। वह तुरंत रामू के पास गया। उसे गले से लगाते हुए बोला, “नहीं रामू, इसे छोड़ दे।”
तभी विकास में तुरंत उसके दोस्त सोनू कहा, “सोनू! इसे ले जा। नहीं तो यह बैल इसको मार डालेगा।”
सोनू तुरंत रघु के पास गया। उसको हाथ टूट चुका था। पैर में चोट आई हुई थी। उसे पकड़ कर सोनू तुरंत खेत के बाहर ले गया। इस तरह रघु अपनी जान बचा कर भाग गया।
इस घटना के बाद से रघु ने दादागिरी लगाना छोड़ दिया। वह समझ गया था कि किसी का सरल व हृदय मित्र उसे कभी भी सबक सिखा सकता है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- खूप दिवस वाट पाहून त्या दोघांनी घरच्या विरोधाला न जुमानता नुकतंच परस्पर रजिस्टर लग्न करून टाकलं होतं. दोन्ही घरच्यांनी या लग्नाला ठाम विरोध होताच. प्रतिष्ठेचा प्रश्न बनवून या दोघांनाही त्यांनी बेदखल केलं. त्यामुळे सुजाता नेहमीच दडपणाखाली असायची. तिने नवऱ्याच्या शिक्षणाची आणि घरखर्चाची सगळी जबाबदारी स्वतःच्या शिरावर घेऊन वेगळं बि-हाड केलं आणि तिची तारेवरची कसरत सुरू झाली. मी जॉईन झालो त्याच दिवशी तिचा मॅटर्निटी लिव्हचा अर्ज माझ्या टेबलवर होता!)
हीच सुजाता बोबडे मला लवकरच येणाऱ्या त्या अतर्क्य आणि गूढ अशा अनुभवाला निमित्त ठरणार होती याची त्या क्षणी मला कल्पना कुठून असायला?)
ब्रँचचा चार्ज घेऊन झाल्यानंतर लगेचच मी महत्वपूर्ण ग्राहकांना भेटून त्यांच्याशी संवाद साधायला सुरुवात केली. घरापासून ब्रॅंचपर्यंतच्या रस्त्याला लागून थोड्याच अंतरावर असलेल्या ‘लिटिल् फ्लॉवर कॉन्व्हेंट स्कूल’ चा मी मनोमन तयार केलेल्या आमच्या महत्त्वपूर्ण ग्राहकांच्या यादीत खूप वरचा नंबर होता. मिशनऱ्यांनी चालवलेल्या या संस्थेच्या बचतखात्यांत बरीच मोठी रक्कम शिल्लक असायची. शिवाय आठवड्यातून दोन-तीनदा तरी थोड्याफार रकमेचा भरणा नियमित होत असेच.
विशेषतः सोलापूर कॅम्पसारख्या लहान ब्रॅंचसाठी खास करुन अशा ग्राहकांना सांभाळणं गरजेचं असायचं. त्या दिवशी सकाळी थोडं लवकर निघून मी मिस् डिसोझांना भेटण्यासाठी प्रथमच त्या संस्थेत गेलो. मिस् डिसोझा ‘लिटिल् फ्लॉवर कॉन्व्हेंट स्कूल’ च्या प्रिन्सिपल कम व्यवस्थापक होत्या. अतिशय शांत, हसतमुख चेहरा. प्रसन्न आणि आदबशीर वागणं. कॉन्व्हेंटमधील स्टाफ नन्सची कार्यतत्पर लगबग आणि लक्षात यावी, रहावी अशी काटेकोर शिस्त मी प्रथमच अनुभवत होतो. प्रकर्षाने जाणवणारी प्रसन्न शांतता आणि मेणबत्तीच्या प्रकाशात अधिकच तेजोमय भासणारी येशूची मूर्ती माझ्या मनावर गारुड करतेय असं मला वाटू लागलं!
मी स्वतःची ओळख करून दिली. मिस् डिसोझांनी माझं हसतमुखानं स्वागत केलं. गप्पांच्या ओघात मी चांगलं सहकार्य आणि सेवेबद्दल त्यांना आश्वस्त करून त्यांच्याकडूनही सहकार्याची अपेक्षा व्यक्त केली तेव्हा मात्र त्या थोड्या गंभीर झाल्यासारख्या वाटल्या. त्यांच्या चेहऱ्यावरचा प्रसन्नपणा लोपला. नजरेतलं हसरेपणही अलगद विरून गेलं. पण क्षणभरच. लगेचच त्यांनी स्वतःला सावरलं.
“सी मिस्टर लिमये.. ” त्या बोलू लागल्या.
आमच्या ब्रॅंचमधील सेवेबद्दल त्या फारशा समाधानी नव्हत्या. आक्रस्तळेपणा किंवा आदळआपट न करता त्यांच्या मनातली ती नाराजी त्यांनी अतिशय सौम्य पण स्पष्ट शब्दात आणि तेवढ्याच डिसेंटली माझ्यासमोर व्यक्त केली.
हाकेच्या अंतरावरच्या आमच्या ब्रॅंचमधे आठवड्यातून दोन दिवस हातातली कामं बाजूला ठेवून त्यांची स्टाफ नन् पैसे भरायला बँकेत यायची. साधारण वीस-पंचवीस हजारांची रक्कम बँकेत भरून परत जायला तिला किमान दोन तास तरी लागायचे. घाईगडबडीच्या कामांमुळे, एवढा अनावश्यक दीर्घकाळ एका स्टाफला स्पेअर करणं त्यांना शक्य नव्हतं. त्यांची तत्पर सेवेची सरळसाधी अपेक्षा होती आणि त्यात मी लक्ष घालावं अशी त्यांनी विनंती केली. ‘बँकेतला एखादा कॅशियर इथे पाठवून आठवड्यातले दोन दिवस इथून कॅश कलेक्ट करणं शक्य होईल का?’ असंही त्यांनी मला मोकळेपणानं विचारलं. यातून मार्ग काढायचं आश्वासन देऊन मी त्यांचा निरोप घेतला.
त्यांच्या विनंतीचा विचार करायचा तर दोन कॅश-काऊंटर्सपैकी एक काऊंटर थोडा वेळ बंद ठेवून तो कॅशिअर स्पेअर करणं मला प्रॅक्टिकल वाटत नव्हतं. दोघांपैकी हेडकॅशियरना या छोट्याशा कामासाठी पाठवणं योग्यही नव्हतं. रहाता राहिली सुजाता बोबडे. पण तिच्या सध्याच्या अवस्थेत तिला हे काम सांगणं रास्त नव्हतं.
‘खरंतर ब्रॅंचमधे नेहमी येणारी पेट्रोलपंपाची कॅश वगळता रिसिव्हि़ंग कॅशकाऊंटरला फारशी गर्दी नसायचीच. तरीही स्टाफ ननला बँकेत पैसे भरून बाहेर पडायला इतका उशीर का व्हावा?’ मला प्रश्न पडला.
मी सुजाताला केबिनमधे बोलावलं. ‘लिटिल् फ्लाॅवर’चा विषय काढताच ती चपापली.
“.. त्यांची कॅश.. मी नाही सर, सुहास गर्देच घेतात. “
“कां? रिसीव्हिंग काउंटरला आहात ना तुम्ही?मग तुम्ही कां घेत नाही?” माझा आवाज मलाच चढल्यासारखा वाटला.
मान खाली घालून ती गप्प उभी होती.
“कांही प्रॉब्लेम?”
तिचे डोळे भरून आले.
“ठीक आहे. तुम्ही जा. सुहासना पाठवा. मी त्यांच्याशीच बोलेन. “
ती केबिनबाहेर गेली. त्या क्षणी मला तिचा भयंकर रागही आला आणि तिची
कीवही वाटली.
पण जेव्हा सुहास गर्दे केबिनमधे आले आणि त्यांनी सर्व पार्श्वभूमी मला समजावून सांगितली तेव्हा मात्र ते ऐकून मला आश्चर्य तर वाटलंच आणि हसूही आलं. प्रश्न मी समजत होतो तेवढा गंभीर नव्हताच. गंमत म्हणजे एरवी स्ट्रिक्ट डिसिप्लिन असणाऱ्या मिशनरी सिस्टीममधल्या ‘लिटिल् फ्लॉवर’ मधील स्टाफ ननज् आणि मिस् डिसोझानाही बँकेमधे रोख रक्कम भरण्याच्या साध्या साध्या प्राथमिक नियमांचीही काहीच जाण नव्हती. रोख भरणा करायच्या रकमेतल्या नोटा कशाही उलट सुलट लावलेल्या असायच्या. शिवाय पैसे भरण्याच्या स्लिपमधे नोटांचं विवरणही, किती रुपयांच्या किती नोटा वगैरे.. , भरलेलंच नसायचं. त्यामुळे या सगळ्या दुरुस्त्या आणि त्रुटी प्रत्येकवेळी स्वतः दूर करून त्या स्टाफ ननसमोर पैसे मोजून घेण्यात खूप वेळ जायचा. तिला थांबावं तर लागायचंच शिवाय या एकाच कामात गुंतून पडल्यामुळे सुजाताच्या काऊंटरसमोर ग्राहकांची गर्दी वाढत गेली की सुजाता भांबावून जायची. आत्मविश्वास गमावून बसायची. त्यामुळे सहजसोपा आणि सोयीचा मार्ग म्हणून सुहास गर्देनी ‘लिटिल् फ्लॉवर’ची कॅश स्वीकारायचं काम स्वतःकडेच घेतलं होतं. यामुळे सुजातापुरता प्रश्न सुटला तरी ‘लिटिल् फ्लावर’ चा प्रश्न मात्र अधांतरीच राहिला होता. आता मात्र स्वतः पुढाकार घेऊन तो मलाच सोडवायला हवा होता.
खरंतर त्यांचं काय चुकतंय हे त्यांना भेटून कुणी आवर्जून समजून सांगितलेलंच नव्हतं. बँकेकडून चांगल्या आणि तत्पर सेवेची अपेक्षा करणाऱ्या त्यांना ते सांगणं मला त्याक्षणी आवश्यक वाटलं.
पूर्वनियोजित वेळ ठरवून मी पुन्हा मिस् डिसोझांची भेट घेतली. त्यांना संबंधित सगळे नियम, पध्दती व्यवस्थित समजावून सांगितल्या. त्याचं महत्त्व विशद केलं. त्या दिवशीची भरणा करायची रोख रक्कम आणि त्यांचं स्लिपबुक मागून घेतलं. त्यांनी स्टाफ-ननलाही बोलावून समोर बसवून घेतलं. हे सगळं नीट समजून शिकून घ्यायला सांगितलं. नोटा कशा अॅरेंज करायच्या, त्यांचं विवरण स्लिपमधे कसं भरायचं हे सगळं मी त्यांना समजून सांगितलं. त्याबरहुकूम स्वतःच करूनही दाखवलं.
“मी आज बॅंकेत जाताजाताच आलोय. तुमची हरकत नसेल तर आज हे स्लिपबुक आणि पैसे मी स्वतः बरोबर घेऊन जातो. वेळ मिळेल तेव्हा स्टाफ ननला स्लीपबुक घेण्यासाठी नंतर पाठवून द्या”असं सांगून मी त्यांचा निरोप घेतला. ब्रँचमधे पोचताच कॅश न् स्लीपबुक सुजाताच्या ताब्यात दिलं. थोड्या वेळानं नन् आली. स्लीपबुक घेऊन दोन मिनिटात परतही गेली. एका गंभीर बनू पहाणाऱ्या साध्या प्रश्नाचं हे सोपं उत्तर सर्वांसाठीच सोयीचं होणाराय हे लक्षात आलं आणि आठवड्यातून ठरलेले दोन दिवस बँकेत येतानाच त्यांच्याकडे जाऊन, कॅश व्यवस्थित मोजून घेऊन मी ती बँकेत घेऊन येऊ लागलो. सर्व ग्राहकांच्या बाबतीत ही अशी सेवा देणं शक्यही नसतं आणि ग्राहकांची तशी अपेक्षाही नसते. पण कधीकधी अशा अपवादात्मक प्रसंगी प्रश्न लगोलग सुटावा व महत्त्वपूर्ण ग्राहकाचं समाधान व्हावं यासाठी असे निर्णय घ्यावेच लागतात. कायदा आणि व्यवहार यांची अशी सांगड परिस्थितीनुसार घालावीच लागते.
‘ब्रँच मॅनेजर’ हे पद दुरून पहाताना कितीही मानाचं आणि आकर्षक वाटत असलं तरी खरं तर ते जबाबदारीचंच जास्त असतं. ग्राहक, कर्मचारी आणि वरिष्ठ या परस्परविरोधी पातळ्यांमधला महत्त्वाचा दुवा म्हणून काम करताना सन्मानाची झूल अशी बऱ्याचदा स्वतःचा आब राखून उतरवून बाजूला ठेवावी लागते. मी तेच केलं होतं!
काही दिवस हे असंच सुरळीत सुरू राहिलं. पण अचानक एक दिवस कांही घटनांना अनपेक्षितपणे वेगळं वळण लागलं आणि एका अनपेक्षित क्षणी या सगळ्या चांगल्यात मिठाचा खडा पडला आणि पुढे मला मुळापासून हादरवून सोडणारी ती एक नाट्यपूर्ण कलाटणी ठरली जी क्षणकाळापुरतं कां असेना मला हतबल करून गेली होती!
पुढे मला येऊ पहाणाऱ्या एका अतर्क्य आणि गूढ अशा अनुभवाची हीच पार्श्वभूमी ठरणार होती आणि सुरुवात सुद्धा!!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “एक कप कॉफ़ी…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #250 ☆
☆ एक कप कॉफ़ी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
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कवितापाठ के आयोजनोपरांत उपस्थित कई व्यक्तियों से माधुरी की कविताओं के लिए उसे बधाईयाँ मिलने लगी।
इन्हीं में सोशल मीडिया की सुर्खियों में रहने वाले बहुचर्चित कवि विदेह जी ने भी प्रशंसा करते हुए माधुरी से अगले एक आयोजन में शिरकत करने के बहाने फोन नंबर माँगा
अपनी प्रशंसा से अभिभूत माधुरी ने भी सहज भाव से उन्हें अपना नंबर दे दिया।
सहेली उर्मि ने फोन नंबर देने पर चिंता जताते हुए माधुरी को सचेत किया कि, “इस व्यक्ति से बच के रहना, महिलाओं के बारे में इसकी सोच ठीक नहीं है।”
अभी घर पहुँची ही थी कि, मोबाइल की घंटी बज उठी—-
“हेलो- मैं विदेह बोल रहा हूँ, माधुरी जी, क्या बताऊँ, मैं तो अभी तक आपकी कविताओं में डूबा हूँ… अद्भुत, बहुत सुंदर लिखती हैं आप, और इन्हें प्रस्तुत करने का आपका अंदाज और भी अधिक प्यारा है। सच कहूँ तो इन कविताओं जैसे ही बल्कि इनसे कहीं अधिक सुंदरता प्रभु ने आपको प्रदान की है।”
“जी, शुक्रिया विदेह जी।”
“शुक्रिया से काम नहीं चलेगा माधुरी जी, कभी हमारे साथ बैठकर एक कप कॉफ़ी पीने का सौभाग्य देना होगा आप को।”
“जी, आइए घर पर आपका स्वागत है, इसी बहाने आप मेरे परिवार से भी मिल लेंगे।”
“माधुरी जी! अब हमारे और कॉफ़ी के बीच में परिवार कहाँ से आ गया?”
“पर मेरी जानकारी के अनुसार तो आप भी चाय-काफ़ी सहित अच्छी-खासी घर गृहस्थी वाले इंसान हैं!”
“तो उससे क्या फर्क पड़ता है माधुरी जी?”
“फर्क पड़ता है आदरणीय! क्या आप ये बताएँगे कि, आपकी पत्नी घर में आपको कॉफ़ी पीने का अवसर नहीं देती या फिर, — वे सुंदर नहीं है?”
“नहीं, ऐसी बात नहीं, वो– वो ऐसा है कि”…..
“कि, अब आपको अपनी पत्नी में दूसरी स्त्रियों जैसी सुंदरता नजर नहीं आती है !”
“आप मुझे गलत समझ रही हैं, मेरा आशय यह नहीं था”
“आशय मैं अच्छी तरह से समझ रही हूँ आपका महोदय !”
” विदेह जी, जैसे आपको घर से बाहर सुंदरता दिख रही है, वैसे ही बाहर वाले यदि आपकी पत्नी में भी सुंदरता देखने लग गये तो?”
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “आदमी…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 74 ☆ आदमी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जहां में जो भी आया है …“)