हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 – महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान ☆

फिल्म निर्देशक महबूब खान का जन्म 9 सितंबर, 1907 को गुजरात में स्थित तत्कालीन बड़ौदा रियासत के गंदेवी तालुक़ा के नज़दीक बिलिमोड़ा बस्ती में हुआ था. महबूब पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे, लेकिन जीवन की पाठशाला में उन्होंने ऐसे नायाब सबक सीखे कि उनकी फिल्में तात्कालिक समाज का दर्पण और सदाबहार स्वस्थ मनोरंजन का पर्याय बन गईं। हमेशा कुछ नया करने की जिद ने उन्हें फिल्म निर्माण से जुड़े हर पक्ष पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए प्रेरित किया। यही कारण है कि उनकी मदर इंडिया, अंदाज, अनमोल घड़ी, अनोखी अदा, आन, अमर जैसी फिल्मों में एक कसावट नजर आती है।

अपनी अद्भुत कला के माध्यम से उन्होंने भारतीय सिनेमा का परिचय विदेश से करवाया. मदर इंडिया फिल्म को भला कौन भूल सकता है। इस फिल्म ने ऑस्कर तक का सफर तय किया। फिल्म अवॉर्ड लेने में तो सफल नहीं रही मगर फिल्म ने भारतीय सिनेमा के लिए चुनौती पूर्ण मापदंड तय करके  निर्माताओं को नई दिशा जरूर दिखाई। निर्देशक महबूब खान ने 30 साल के करियर में कुल 24 फिल्मों का निर्देशन किया था, मदर इंडिया इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा में रही।

बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि महबूब खान को निर्देशक नहीं बल्कि एक एक्टर बनने का शौक था. 16 साल की उम्र में वे घर से भागकर एक्टिंग करने के लिए मुंबई आ गए थे। सिनेमा के रुपहले परदे से सम्मोहित मेह्बूब ने कम उम्र में ही बंबई की राह ले ली। अपने समय के अधिकतर फिल्मकारों की तरह महबूब ने भी विभिन्न स्टूडियो में संघर्ष कर फिल्म निर्माण की कला को समझा। मगर जब उनके पिता को इस बारे में पता चला वे महबूब को वापस घर ले आए। मेह्बूब जब 23 साल के हुए तब फ़िल्म उद्योग को घोड़े प्रदान करने का कारोबार करने वाले नूर अली मुहम्मद शिपरा, उनको घोड़े की नाल लगाने और घुड़साल की देखभाल के लिए बम्बई ले आए।

दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के निर्देशक चंद्रशेखर एक दिन घोड़ों को लेकर फ़ाइटिंग दृश्य फ़िल्मा रहे थे तब मेह्बूब उनकी सहायता करते हुए घोड़ों को सम्भाल रहे थे। उन्होंने फ़ुरसत के क्षणों में महबूब से फ़िल्मों में काम करने के बारे में पूछा तो महबूब ने रूचि दिखाई। उन्होंने नूर अली मुहम्मद शिपरा की अनुमति से महबूब को ले गए। एक दिन चंद्रशेखर फ़िल्म का निर्देशन कर रहे थे, महबूब ने साथ काम करने की इच्छा जताई जिस पर उन्हें डायरेक्टर की रजामंदी भी मिल गई। मगर भूमिका बहुत छोटी थी। इसके बाद धीरे-धीर उन्हें सपोर्टिंग रोल्स ही मिले।

ये बात मूक फ़िल्मों के दौर की है। जब भारत में पहली बोलती फिल्म आलम आरा बन रही थी तो फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने मुख्य भूमिका के लिए महबूब खान को ही लिया था मगर बात कुछ खास बनी नहीं। तमाम लोगों ने अर्देशिर को कहा कि पहली सवाक् फिल्म है, इसमें ज्यादा नए कलाकार को  लेना ठीक नहीं है. इसके बाद फिल्म में विट्ठल ने वह भूमिका निभाई। उन्होंने पहले महबूब प्रडक्शन बनाया बाद में बांद्रा में महबूब स्टूडीओ स्थापित करके अनमोल घड़ी, औरत, अन्दाज़, आन और अमर फ़िल्मे बनाईं।

आन 1952 में बनी हिन्दी भाषा की फ़िल्म है। इस फ़िल्म में अन्य साथी कलाकारों के साथ हिन्दी सिनेमा के अभिनेता दिलीप कुमार ने प्रमुख भूमिका निभायी थी। उन दिनों भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म ‘आन’ की आउटडोर शूटिंग का ज्यादातर हिस्सा नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश और इसके आसपास के इलाकों में फ़िल्माया गया था। फ़िल्म सन 1949 में बननी शुरू हुई थी और सन 1952 में रिलीज़ हुई थी। इसमें नरसिंहगढ़ का क़िला, जलमंदिर, कोटरा के साथ देवगढ़, कंतोड़ा, रामगढ़ के जंगल, गऊघाटी के हिस्सों में फ़िल्म के बड़े हिस्से को शूट किया गया था। फ़िल्म को देश के पहले शोमैन महबूब ख़ान ने बनाया था। जिनकी सन 1957 में रिलीज क्लासिक फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ विश्व सिनेमा के इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। फ़िल्म में दिलीप कुमार, नादिरा, निम्मी, मुकरी, शीलाबाज, प्रेमनाथ, कुक्कू, मुराद ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 43 ☆ कोरोना अपने घर जाओ ना! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्राकृतिक पृष्टभूमि में रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “कोरोना अपने घर जाओ ना!। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 43 ☆

कोरोना अपने घर जाओ ना!

बात पते की आज कह रहे

तुम घर वापस जाओ ना!

छह महिनों से  यहाँ टिके हो

कोरोना अपने घर जाओ ना!

 

बहुत दिनों से टिके हुए हो

काफी मिट्टी खोद चुके हो

आर्थिक सीमाओं की चट्टान

गरदन मरोड़ के तोड़ चुके हो।

 

कितना दुष्कर्म कर रहे हो

दुर्बल को ही छल रहे हो।

चुपके से गलियों में उसकी

बेवजह क्यों घूम रहे हो?

 

कैसा नरसंहार मचा रखा है?

उम्र का कोई लिहाज नहीं है

बुढ़ा- बच्चा, जवान न देखो

गर्भवती को ना छोड़ रहे हो।

 

गरीब हमारी जनता सारी

पाई पाई को मोहताज हुई है

सबके पेट में लात मारकर

छाती पर तुम मूँग दल रहे हो।

 

क्या तुम्हारी धरती तुमको

क्यों पुकार नहीं रहीं है?

जहाँ से आए हो तुम अब

वापस घर जाओ ना…

कोरोना अपने घर जाओ ना!

 

© सुजाता काळे

7/7/20

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य – सहवास…!☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी  श्री गणेश उत्सव के पर्व पर एक हृदयस्पर्शी कविता  “सहवास…!”। आप प्रत्येक शनिवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆  सुजित साहित्य  –  सहवास…! ☆ 

 

दर वर्षी मी घरी आणणा-या गणपतीच्या

मुर्तीत मला माझा बाप दिसतो

कारण…!

मी लहान असताना माझा बाप जेव्हा

गणपतीची मुर्ती घेऊन घरी यायचा

तेव्हा त्या दिवशी

गणपती सारखाच तो ही अगदी….

आनंदान भारावलेला असायचा

आणि त्या नंतरचा

दिड दिवस माझा बाप जणू काही

गणपती सोबतच बोलत बसायचा…

माझ्या बापानं केलेल्या कष्टाची आरती

आजही…

माझ्या कानातल्या पडद्यावर

रोज वाजत असते

आणि कापरा सारखी त्याची

आठवण मला आतून आतून जाळत असते

आज माझा बाप जरी माझ्या बरोबर नसला

तरी..,त्याच्या नंतर ही गणपतीची मुर्ती

मी दरवर्षी घरी आणतो

कारण.. तेवढाच काय तो

बाप्पाचा..!

आणि

बापाचा..!

दिड दिवसाचा सहवास मिळतो..!

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो. 7276282626

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 59 ☆ मैं शब्द तुम अर्थ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख मैं शब्द, तुम अर्थ । संभवतः जीवनसाथी के लिए “मैं शब्द तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ” से बेहतर परिभाषा हो ही नहीं सकती। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 59 ☆

☆ मैं शब्द, तुम अर्थ 

एक नन्ही सी परिभाषा है, जीवन साथी की ‘मैं शब्द तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ,’ परंतु आधुनिक युग में यह कल्पनातीत है। आजकल तो जीवन-साथी की परिभाषा ही बदल गई है…’जब तक आप एक-दूसरे की आकांक्षाओं पर खरा उतरें; भावनात्मक संबंध बने रहें; मौज-मस्ती से रह सकें’ उचित है, अन्यथा संबंध-निर्वहन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जीवन खुशी व आनंद से जीने का नाम है, ढोने का नाम नहीं। सो! तुरंत संबंध-विच्छेद के लिए आगे बढ़ें क्योंकि ‘तू नहीं और सही’ का आजकल सर्वाधिक प्रचलन है।

प्राचीन काल में विवाह को पति-पत्नी का सात जन्मों तक चलने वाला संबंध स्वीकारा जाता था। परंतु आजकल इसके मायने ही नहीं रहे। वैसे तो आज की युवा-पीढ़ी विवाह रूपी संस्था को नकार कर, ‘लिव-इन’ में रहना अधिक पसंद करती है। जब तक मन चाहे साथ रहो और जब मन भर जाए, अलग हो जाओ। आजकल लोग भरपूर ज़िंदगी जीने में विश्वास रखते हैं। ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ उनके जीवन का लक्ष्य है। चारवॉक दर्शन में उनकी आस्था है। वे प्रतिबंधों में जीना पसंद नहीं करते।

शब्द ब्रह्म है; सृष्टि का सार है। शब्द और अर्थ का शाश्वत व चिरंतन संबंध है, क्योंकि शब्द में ही उसका अर्थ निहित होता है। ‘मैं शब्द, तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ’ का जीवन में महत्व है। जिस प्रकार शब्द को अर्थ से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार  पति-पत्नी को भी एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना बेमानी थी, जिसका प्रमाण प्राचीन काल में पत्नी का पति के साथ जौहर के रूप में देखा जाता था। परंतु समय के साथ सती-प्रथा का अंत हुआ, क्योंकि पत्नी को ज़िदा जला देना सामाजिक बुराई थी। परंतु समय ने तेज़ी से करवट ली और संबंधों के रूपाकार में अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ। लोग संबंधों को वस्त्रों की भांति बदलने लगे। वे अनचाहे संबंध- निर्वाह को कैंसर के रोग की भांति स्वीकारने लगे। जिस प्रकार एक अंग के कैंसर-पीड़ित होने पर, उसे शरीर से निकाल कर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार यदि जीवन-साथी से विचार-वैषम्य हो, तो उसे जीवन से निकाल बाहर कर देना कारग़र उपाय समझा जाता है। यदि जीवन-साथी से संबंध अच्छे नहीं हैं, तो उन संबंधों को ज़बरदस्ती निभाने की क्या आवश्यकता है? तुरंत संबंध-विच्छेद उसका सर्वश्रेष्ठ व  सर्वोत्तम उपाय है; जिसका प्रमाण है… तलाक़ की संख्या में निरंतर इज़ाफा होना। पहले पति-पत्नी एक-दूसरे के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते थे। एक के अभाव में अर्थात् न रहने पर दूसरे को जीवन निष्प्रयोजन अथवा निष्फल लगता था। परंतु आजकल यदि वे एक-दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करते। यदि उनमें विचार-वैषम्य है; वे तुरंत अलग हो जाते हैं।

आधुनिक युग में अहंनिष्ठ मानव आत्मविश्लेषण करना अर्थात् अपने अंतर्मन में झांकना व गुण-दोषों का विश्लेषण करना ही नहीं चाहता; स्वीकारने की उम्मीद रखना तो बहुत दूर की बात है। उसके हृदय में यह बात घर कर जाती है कि वह तो कोई ग़लती कर ही नहीं सकता तथा वह गुणों की खान है। सारे दोष तो दूसरे व्यक्ति अर्थात् सामने वाले में हैं। इसलिए उसे नहीं, प्रतिपक्ष को अपने भीतर सुधार लाने की आवश्यकता है। यदि वह समर्पण कर देता है, तो समस्या स्वतः समाप्त हो जाती है अर्थात् यदि पत्नी-पति के अनुकूल आचरण करने लगती है; कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचने लगती है, तो दाम्पत्य संबंध सुचारू रूप से कायम रह सकता है, अन्यथा अंजाम आपके समक्ष है।

ज़िंदगी एक फिल्म की तरह है, जिसमें इंटरवल अर्थात् मध्यांतर नहीं होता; पता नहीं कब एंड अर्थात् समाप्त हो जाए। आजकल संबंध भी ऐसे ही हैं… कौन जानता है, कब अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाए। मुझे स्मरण हो रही है ऐसी ही एक घटना, जब विवाहोपरांत चंद घंटों में पति-पत्नी में संबंध- विच्छेद हो गया और पत्नी घर छोड़कर मायके चली गई। यदि आप कारण सुनेंगे, तो हैरान रह जाएंगे। प्रथम रात्रि को बार-बार फोन आने पर, पति का पत्नी से यह कहना कि ‘बहुत फोन आते हैं तुम्हारे’ और पत्नी का इसी बात पर तुनक कर पति से झगड़ा करना; उस पर संकीर्ण मानसिकता का आरोप लगा, सदैव के लिए उसे छोड़कर चले जाना … सोचने पर विवश करता है, ‘क्या वास्तव में संबंध कांच की भांति नाज़ुक नहीं हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते दरक़ जाते हैं?’ परंतु यहां तो निर्दोष पति को अपना पक्ष रखने का अवसर भी प्रदान नहीं किया गया। बरसों से महिलाएं यह सब सहन कर रही थीं। उन्हें कहां प्राप्त था…अपना पक्ष रखने का अधिकार? पत्नी को तो किसी भी पल जीवन से बे-दखल करने का अधिकार पति को प्राप्त था। महात्मा बुद्ध का यह कथन कि ‘संसार में जैसा व्यवहार आप दूसरों के साथ करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है।’ इसलिए सबसे अच्छा व्यवहार कीजिए।

सो! आधुनिक युग में संविधान द्वारा महिलाओं को समानाधिकार प्राप्त हुए हैं, जो कागज़ की फाइलों में बंद हैं। परंतु कुछ महिलाएं इसका दुरुपयोग कर रही हैं, जिसका प्रमाण आप तलाक़ के बढ़ते  मुकदमों को देखकर लगा सकते हैं। आजकल जीवन लघु फिल्मों की भांति होकर रह गया है, जिसमे मध्यांतर नहीं होता, सीधा अंत हो जाता है अर्थात् समझौते अथवा विकल्प की लेशमात्र भी संभावना नहीं होती।

कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं किस्मत ही बदल देते हैं। इसलिए अच्छे दोस्तों को संभाल कर रखना चाहिए। वे हमारी अनुपस्थिति में भी हमारा पक्षधर होते हैं तथा ढाल बन कर खड़े रहते हैं। वे आप पर विश्वास करते हैं, कभी आपकी निंदा नहीं करते, न ही आपके विरुद्ध आक्षेप सुनते हैं, क्योंकि वे केवल आंखिन देखी पर विश्वास करते हैं।

चाणक्य का यह कथन ‘ रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिएं। परंतु जहां खबर न हो, निभाने भी नहीं चाहिए ‘ बहुत सार्थक संदेश देता है। वे संबंध-निर्वहन पर बल देते हुए कहते हैं कि संबंध-विच्छेद कारग़र नहीं है। परंतु जहां संबंधों की अहमियत व स्वीकार्यता ही न हो, उन्हें ढोने का क्या लाभ… उनसे मुक्ति पाना ही हितकर है। जहां ताल्लुक़ बोझ बन जाए, उसे तोड़ना अच्छा, क्योंकि वह आपको आकस्मिक आपदा में डाल सकता है। आजकल सहनशीलता तो मानव जीवन से नदारद है। कोई भी दूसरे की भावनाओं को अहमियत नहीं देना चाहता, केवल स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम समझता है। सो! समन्वय व सामंजस्यता की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जहां समझौता नहीं होगा, वहां साहचर्य व संबंध-निर्वहन कैसे संभव है? आजकल हमारा विश्वास भगवान पर रहा ही नहीं। ‘यदि भरोसा उस भगवान पर है, तो जो तक़दीर में लिखा है, वही पाओगे। यदि भरोसा खुद पर है, तो वही पाओगे, जो चाहोगे।’ आजकल मानव स्वयं को भगवान से भी ऊपर मानता है तथा मनचाहा पाना चाहता है। वह ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास कर आगे बढ़ता जाता है और जीवन में एक पल भी सुक़ून से नहीं गुज़ार पाता। सो! उसे सदैव निराशा का सामना करना पड़ता है।

असंतोष अहंनिष्ठ व्यक्ति के जीवन की पूंजी बन जाता है और भौतिक संपदा पाना वह अपने जीवन का लक्ष्य समझता है। धन से वह सुख-सुविधा की वस्तुएं तो खरीद सकता है, परंतु वे क्षणिक सुख प्रदान करती हैं। सब उसकी वाह-वाही करते हैं। परंतु वह आंतरिक सुख-शांति व सुकून से कोसों दूर रहता है। इसलिए मानव को शाश्वत संबंध-निर्वाह करने की शिक्षा दी गई है। अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! जीवन में दु:ख व चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा स्वीकार, निरंतर आगे बढ़िए। जीवन में पराजय को कभी न स्वीकारिए। साहस व धैर्य से उनका सामना कीजिए, क्योंकि समय ठहरता नहीं, निरंतर चलता रहता है। इसलिए आप भी निरंतर आगे बढ़ते रहिए। वैसे आजकल ‘रिश्ते पहाड़ियों की तरह खामोश हैं। जब तक न पुकारें, उधर से आवाज़ ही नहीं आती’ दर्शाता है कि रिश्तों में स्वार्थ के संबंध व्याप रहे हैं और अजनबीपन के अहसास के कारण चहुं ओर मौन व सन्नाटा बढ़ रहा है। इस संवेदनहीन समाज में ‘ मैं शब्द, तुम अर्थ ‘ की कल्पना करना बेमानी है, कल्पनातीत है, हास्यास्पद है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 12 ☆ पक्ष या विपक्ष नहीं, राष्ट्र हो सर्वोपरि ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  पक्ष या विपक्ष नहीं, राष्ट्र हो सर्वोपरि. )

☆ किसलय की कलम से # 12 ☆

☆ पक्ष या विपक्ष नहीं, राष्ट्र हो सर्वोपरि ☆

मित्राणि धन धान्यानि, प्रजानां सम्मतानिव।

जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी

जनसमुदाय में मित्र, धन, धान्य आदि का बहुत सम्मान है, लेकिन माँ एवं मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी उच्च है। इसी तरह श्री राम लंका विजय के उपरांत लक्ष्मण जी के पूछने पर कहते हैं कि लक्ष्मण! लंका के स्वर्णनिर्मित होने के पश्चात भी मेरी इस में कोई रुचि नहीं है क्योंकि जननी और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊँचा होता है।  हमारी मातृभूमि अयोध्या तो तीनों लोकों से कहीं अधिक सुंदर है। भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं-

“ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं’

महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती, मंगल पांडे, आजाद, भगत, सुखदेव जैसे नाम मातृभूमि अर्थात राष्ट्रप्रेम के पर्याय बन चुके हैं। ‘पुष्प की अभिलाषा’ नामक अमर कविता के रचयिता राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी सहित असंख्य कवियों की लेखनी ने भी राष्ट्र को सर्वोच्च माना है।

संपूर्ण विश्व के जनसमुदाय की प्रतिबद्धता अपने-अपने देश के प्रति होती ही है। हम इजरायल की ही बात करें तो देशहित व देश की सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ के सभी महिला-पुरुषों को आर्मी का प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता है। हमारी सेना के जवानों का जज़्बा भी बेमिसाल है। प्रत्येक जवान देश के लिए अपनी जान तक न्योछावर करने से पीछे नहीं हटता। राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने वाले जवानों ने जो हमारे दिलों में विश्वास स्थापित किया है, उसका ही परिणाम है कि हम और हमारा देश चैन की नींद सो पाता है। युगों-युगों से वर्तमान तक ऐसे असंख्य उदाहरण हैं। इजराइल जैसे देश तथा भारतीय सेना के जवानों की बात छोड़ दें तो अब न राम, कृष्ण का युग है, न राणा-लक्ष्मी-शिवा का समय और न ही माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कवियों का जमाना। जनमानस में स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती पर ही देश भक्ति और देश प्रेम की बातें होती हैं और लाउडस्पीकरों पर देश भक्ति के गाने कार्यक्रम आयोजक बजवाते हैं। आज कब शहीदों के बलिदान दिवस और जयन्तियाँ निकल जाती हैं, अधिकांश लोगों को पता ही नहीं चलता। शालाओं में भी औपचारिकताएँ ही बची हैं। जब विद्यार्थियों में ही राष्ट्रप्रेम के बीज नहीं बोये जाएँगे तब उनके दिलों में राष्ट्रभक्ति या राष्ट्रप्रेम अंकुरित कैसे होगी। हम में से कोई अपनी संतान को नेता बनाना चाहता है, कोई इंजीनियर और कोई डॉक्टर। ज्यादा हुआ तो संतानों के लिए बड़े से उद्योग शुरू करा दिए जाते हैं। बात राष्ट्रभक्ति तक पहुँच ही नहीं पाती। वैसे आज राजनीति सबसे बड़ा व्यवसाय बन गया है। यदि आपके परिवार का कोई सदस्य अथवा आपका कोई आका राजनीति में है तो सब परेशानियों का हल चुटकी में हो जाता है। जब परेशानियाँ ही नहीं होंगी तो इंजीनियरिंग, डॉक्टरी और उद्योग निर्बाध तो चलेंगे ही। उद्योग-धंधे फलेंगे-फूलेंगे ही। सामान्य इंसान तन-मन-धन लगाने के बाद भी प्रायः सफल नहीं हो पाता और यदि सफल भी होता है तो उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, लेकिन नेताओं का तरह-तरह से बचा हुआ धन उन्हें बड़े से और बड़ा बना देता है। एक बार फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतारते भारत आए। भारतीय संसद को संबोधित करने के उपरांत उन्होंने कुछ सांसदों से पूछा कि आप क्या करते हैं? आपकी आय के क्या साधन है? उन्हें जब बताया गया कि राजनीति में रहते हुए भत्ते, वेतन और पेंशन ही उनकी आय के साधन हैं तब उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह पैसा तो जनता से टैक्स के रूप में लिया जाता है जो इन्हें यूँ ही दिया जा रहा है, जबकि उनके द्वारा बताया गया कि उनकी आय का प्रमुख साधन खेती है, वह सुबह 5:00 बजे से 9:00 बजे तक खेतों पर रहते हैं। उसके पश्चात 10:00 से देश के राष्ट्रपति वाले कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हैं। और ये हैं हमारे देश के नेताओं के आय के स्रोत, मानसिकता और उनकी दिनचर्या, जिनसे प्रायः सभी पतिचित हैं। कुछेक सांसद, विधायक मंत्री व जनप्रतिनिधियों को देशप्रेम, देशप्रगति व जनसेवा के सही मायने भी अच्छे से ज्ञात नहीं होंगे। राष्ट्रभक्ति व राष्ट्रधर्म का निर्वहन करना उनकी प्राथमिकता होती ही नहीं। शासकीय नीतियों और अपने शीर्षस्थ नेताओं का समर्थन करना ही ये सबसे अच्छी राजनीति मानते हैं। यदि सारे नेताओं एवं सभी राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता देशहित को सर्वोपरि मानने की होती तो आज पाकिस्तान जब तब न अकड़ता। चीन हमारे ऊपर गिद्ध जैसा न मंडराता और न ही दोष देता। बांग्लादेश और नेपाल जैसे छोटे देश हमारे विरुद्ध न जाते। सबको पता है बंगाल, कर्नाटक और केरल की राजनीति। सब जानते हैं कट्टरपंथियों तथा वामपंथियों के कार्यकलापों को। यह भी सही है कि आज की सरकारें भी शतप्रतिशत सही नहीं होतीं। ये कोई लुकी-छिपी बातें नहीं हैं। सबकी अपनी ढपली और अपना राग है, जिसका फायदा हमेशा विदेशियों एवं हमारे दुश्मनों ने उठाया है और आज भी उठा रहे हैं। कैसी विडंबना है कि हम स्वदेशी उत्पादों की उपेक्षा और विदेशी उत्पादों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। वहीं हमने पढ़ा है कि जापानियों ने एक बार अपने देशी सेवफलों से मीठे, स्वादिष्ट और सस्ते अमेरिकन सेवफलों को केवल इसलिए नहीं खरीदा कि वे विदेशी थे। आज उनके देशप्रेम ने जापान को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। इसी तरह राष्ट्रहित में किये जाने वाले कार्य और योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए सभी के द्वारा सरकार को सहयोग किया गया होता तो आज ये हालात नहीं बनते। अधिकृत कश्मीर का मसला नहीं रहता, न ही चीन द्वारा हमारी जमीन पर कब्जे की बात होती। आज ऐसी परिस्थितियाँ हैं कि चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश व नेपाल जैसे पड़ोसियों के साथ हमारे दोस्ताना संबंध नहीं हैं। आखिर ऐसी क्या कमी है इस देश में, इस देश की सरकार में और विपक्षी दलों में, जो हमारे पड़ोसी देश हम से ही असहमत हैं। देश की सीमाओं पर शांति नहीं है, तनाव बना रहता है। कुछ शीर्षस्थ नेता हैं कुछ विपक्ष के लोग भी हैं जिन्हें देश की चिंता है, अमन-शांति की फिक्र है परंतु आग में घी डालने वालों की कमी नहीं है। काश! सभी भारतवासियों एवं जनप्रतियों में राष्ट्र के प्रति समर्पणभाव और आपसी एकता की सर्वोच्च प्रतिबद्धता होती तो विश्व का कोई भी देश हमारी ओर आँख उठाने का दुस्साहस नहीं करता। आज ऐसे उन सभी लोगों को समझना होगा कि उनकी छोटी अथवा बड़ी स्वार्थलिप्तता, देश के प्रति नकारात्मक सोच अथवा भ्रामक वक्तव्य हमारे देश को कमजोर बना सकते हैं। हमारे देश की एकता के लिए बाधक बन सकते हैं। वर्तमान में जब कोरोना जैसी महामारी से विश्व में त्राहि-त्राहि मची हुई है। हम कोई भी कार्य सामान्य रूप से नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में चीन का आँखें तरेरना, पाकिस्तान की ओछी हरकतें और अब नेपाल द्वारा भारत विरोधी रवैया अपनाना हमारे लिए कठिन चुनौती बन गई है। आज समय है देशहित को सर्वोपरि सिद्ध करने का। हमें अपनी एकता दिखाने का। राजनीति तो जीवन भर की जा सकती है, लेकिन देश पर नजर गड़ाने वालों को आज करारा जवाब देना अत्यावश्यक हो गया है।

आज देश के कोई भी राजनीतिक दल हों, पक्ष अथवा विपक्ष हो, किसी भी विचारधारा के अनुगामी ही क्यों न हों, हमें असत्य व भ्रामक वक्तव्य तथा प्रचार से बचना होगा। हमें विश्व को बताना होगा कि हम भारतवासियों के लिए राष्ट्रहित ही सर्वोपरि है। इन सभी बातों को हवा-हवाई कतई नहीं लिया जाना चाहिए। अब यह सुनिश्चित करना हम, आप व  देश के कर्णधारों का दायित्व बन गया है कि भले ही आपस में हमारे मतभेद हों लेकिन राष्ट्र की आन पर बगैर शर्त हम एक हैं। वर्तमान में आज यह महती आवश्यकता है कि हम पक्ष और विपक्ष के सभी एक सौ चालीस करोड़ देशवासी राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर देशप्रेम की ज्योति जलाने का संकल्प लें।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 58 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 58 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

रोटी

तरसें रोटी के लिए,

दीनहीन  लाचार।

रोटी उनकी जिंदगी,

तन-मन मूलाधार।।

 

अनुवाद

संबंधों का कीजिए,

मधुर सरस अनुवाद।

जीवन जीना प्रेम से,

होगा नहीं विवाद।।

 

उल्लास

दृष्टि-दृष्टि को देखकर,

जाग उठा उल्लास।

मोह लिया मन आपने,

जगी प्रेम की आस।।

 

दर्पण

दर्पण में छवि देखकर,

आई मुझको लाज।

सीरत को पहचानकर,

बजे हृदय के साज।।

 

घाव

भूले से  देना नहीं,

इतने गहरे घाव।

सहन न कर पाएँ कभी,

जिनके दुखद प्रभाव।।

 

पंछी

पंछी की पीड़ा हमें,

करती है बेचैन।

बिना नीड़ के हो गया,

जिसका कलरव चैन।।

 

पहाड़

सुंदरता है प्रकृति की,

नदियाँ  पेड़ पहाड़।

फिल्मों की शोभा बढ़ी,

लेकर इनकी आड़।।

 

प्यास

जल बिन जीवन व्यर्थ है,

सूखी नदिया मौन।

सावन अंगारा लगे,

प्यास बुझाए कौन।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 49 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 49☆

☆ संतोष के दोहे ☆

रोटी

रोटी की खातिर चले,पैदल ही मजदूर

दबकर नीचे ट्रेन के,सपने चकनाचूर

 

घाव

कोरोना ने दे दिया,दिल पर ऐसा घाव

जीवन के प्रति कम हुआ,सब का आज लगाव

 

पंछी

पंछी को उन्मुक्त गगन,आजादी की चाह

मस्त पवन के संग उड़े,करें कहाँ परवाह

 

प्यास

धन-दौलत से कब बुझी,कभी किसी की प्यास

ये वो लालच है यहाँ,जिसकी खत्म न आस

 

पहाड़

अक्सर मुश्किल में लगे,जीवन हमें पहाड़

संकट में जब शेर हो,होती मन्द दहाड़

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 3 – ते आणि मी ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 3 ☆

☆ कविता – ते आणि मी  ☆

 

ते मरतात रुळांवरती-निष्प्राण

मी लिहितो आणखी एक कविता मुर्दाडपणे

ते चालतात,पायाचे तुकडे करतात

मी घेतो वाहवा भेगाळलेल्या टाचांच्या फोटो साठी -बेशरमपणे

ते होरपळतात कच्याबच्यांसह तापल्या मातीत

मी पंख्याखाली थंड होत रहातो-शांतपणे

ते तुडवत रहातात आपल्या खोपटाची वाट

मी पहात असतो माझ्या घराच्या सावलीतून -निवांतपणे

ते शोधतात आयुष्यभर ‘भाकरीचा चंद्र

मी तपासत असतो डझनाचे बाजारभाव -कुतूहलाने

ते मरतात आणि

शेखर कविता करतो.

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 41 ☆ लघुकथा – विडम्बना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा विडंबना।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 41 ☆

☆  लघुकथा – विडंबना 

’बहू ! गैस तेज करो, तेज आँच पर ही पूरियाँ फूलती हैं’ यह कहकर सास ने गैस का बटन फुल के चिन्ह की ओर घुमा दिया। तेल में से धुआँ निकल रहा था। पूरियाँ तेजी से फूलकर सुनहरी हो रही थी और घरवाले खाकर। कढ़ाई से निकलता धुआँ पूरियाँ को सुनहरा बना रहा था और मुझे जला रहा था। मेरी छुट्टियाँ पूरी-कचौड़ी बनाने में खाक हो रही थीं। बहुत दिन बाद एक हफ्ते की छुट्टी मिली थी।  मेरे अपने कई काम दिमाग में थे, सोचा था छुट्टियों में निबटा लूंगी। एक-एक कर सातों दिन नाश्ते- खाने में हवा हो गए। दिमाग में बसे मेरे काम कागजों पर उतर ही नहीं पाए। सच कहूँ तो मुझे उसका मौका ही नहीं मिला। पति का आदेश- ‘तुम्हारी छुट्टी है अम्मा को थोड़ा आराम दो अब, बाबूजी की पसंद का खाना बनाओ’। बच्चों की फरमाइश अलग- ‘मम्मी ! छुट्टी में तो आप मेरे प्रोजेक्ट में भी मदद कर सकती हैं ना ?’

बस, बाकी सबके कामकाज चलते रहे, मेरे कामों की फाइलें बंद हो गई थीं। कॉलेज में परीक्षाएँ समाप्त हुई थीं और जाँचने के लिए कॉपियों का ढेर मेरी मेज पर पड़ा था। बंडल बंधा ही रह गया। सोचा था इस छुट्टी में किसी एक शोध छात्र की थीसिस का एक अध्याय तो देख ही लूंगी लेकिन सब धरा रह गया। घर भर मेरी छुट्टी को एन्जॉय करता रहा। ‘बहू की छुट्टी है’ का भाव सासू जी को मुक्त कर देता है। मेरे घर पर ना रहने पर पति जो काम खुद कर लेते थे अब उन छोटे-मोटे कामों के लिए भी वे मुझे आवाज लगाते।  बच्चे वे तो बच्चे ही हैं।

छुट्टी खत्म होने को आई थी , छुट्टी के पहले जो थकान थी, वह छुट्टी खत्म होने तक और बढ़ गई थी। कल सुबह से फिर वही रुटीन-सुबह की भागम-भाग, सवा सात बजे कॉलेज पहुँचना है। मन में झुंझलाहट हो रही थी , इसी तरह काम करते-करते जीवन किसी दिन खत्म हो जाएगा। यह सब बैठी सोच ही रही थी कि पति ने बड़ी सहजता से मेरी पीठ पर हाथ मारते हुए कहा- बड़ी बोर हो यार तुम? कभी तो खुश रहा करो? छुट्टियों में भी रोनी सूरत बनाए बैठी रहती हो। आराम से सोफे पर लेट कर क्रिकेट मैच देखते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की- एन्जॉय करो लाइफ को यार ! मैं अवाक् देखती रह गई।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 30 ☆ ऑफिसियल भाषा…..….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “ऑफिसियल भाषा…..। यह रचना ऑफिस या कार्यालय के कार्यप्रणाली , मनोविज्ञान  और भाषा  और  का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – ऑफिसियल भाषा# 30

समय के साथ व्यक्ति के  व्यवहार का बदलना कोई नयी बात नहीं है;  परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है ; तभी तो  दिन रात होते हैं , पतझड़ से हरियाली ;   फिर अपने  चरम उत्कर्ष पर बहारों का मौसम ये सब हमें सिखाते हैं, समय के साथ बदलना सीखो, भागना और भगाना सीखो, सुधरना और सुधारना सीखो , बैठो और बैठाना सीखो ।

अब राधे लाल जी को ही देखिए जब तक काम करते रहो तब तक वो सिर पर बैठाते हैं और जैसे ही सलाह देने की हिमाकत की तो तुरंत यू टर्न लेते हुए घर बैठो की बात पर उतर आते हैं ; जिससे सारे लोग मन ही मन उनसे खफा रहते हैं । पर  क्या किया जाय जो नेतृत्व करेगा उसे तो कठोर होना ही पड़ेगा अन्यथा सभी  ज्ञान योगी बन कर ज्ञान बाटेंगे  तो कार्य कैसे पूरे होंगे ।

एक दिन की बात है;   मीटिंग चल रही थी, लोगों का ध्यान प्रोजेक्ट पर कम इस बात पर ज्यादा था कि लंच में क्या- क्या  पकवान रखे गए हैं ।  प्रोजेक्ट हेड ने प्रश्न पूछा तो विनीता मैम  अनमने मन से कुछ और बोल गयीं जिससे वहाँ बैठे अन्य लोग हँसने लगे तो  हेड बॉस ने भड़कते हुए कहा  भागिए यहाँ से , जो भागता नहीं उसे मैं भगाना भी जानता हूँ ।

अब तो मैडम जी ने आव देखा न ताव उठकर चल  दीं ।  लोगों ने  उन्हें रोका फिर एक अन्य महिला कर्मी ने जो अपने आप को कंपनी की प्रवक्ता मानती हैं , उन्होंने समझाया दरसअल सर का उद्देश्य स्पीड से है,  आप भी समय के साथ तेजी से भागिए यदि नहीं भाग सकतीं तो सर  आपको भागना भी सिखा देंगे  और आप गलत समझ बैठी  तब विनीता जी ने भी बेमन से हाँ में हाँ मिलाते हुए हाँ ऐसा ही होगा  मैं ही न समझ हूँ  ऑफिसियल भाषा समझने में जरा कच्ची हूँ ;  वो तो भला हो आपका जो आपने मेरी नौकरी बचा ली अन्यथा घर बैठना पड़ता ।

ये तो आये दिन की बात हो गयी थी  हेड बॉस  जमकर अपशब्दों का प्रयोग करते और लोग भी मजबूरी में  काम करते रहते ,लोगों को उनके टारगेट पूरा करने के बहाने बहुत प्रताड़ित किया जाता । जब पानी सर से ऊपर जाने लगता है ; तो लोग हाथ पैर मारते ही हैं सो सभी कर्मचारियों ने एकजुट होकर एक सुर में कहा आप ऑफिसियल भाषा के नाम पर अपमान नहीं कर सकते आपको अपना व्यवहार बदलना होगा तभी हम लोग काम करेंगे अन्यथा नहीं ।

जब ये बात ऊपर तक पहुँची तो बड़े सर आये उन्होंने स्नेहिल शब्दों से सबका दिल जीत लिया ।

ये सारे ही शब्द अगर हम क्रोध के वशीभूत होकर सुनेंगे तो इनका अर्थ कुछ और ही होगा किंतु  यदि सकारात्मक  विचारधारा से युक्त परिवेश में कोई इसे सुने तो उसे इसमें सुखद संदेश दिखाई देगा ।

जैसे भागना का अर्थ केवल  जिम्मेदारी से मुख मोड़ कर चले जाना नहीं होता अपितु समय के साथ तेज चलना, दौड़ना,भागना और औरों को भी भगाना ।

सबको  प्रेरित करें कि अभी समय है सुधरने का , जब जागो  तभी सवेरा, इस मुहावरे को स्वीकार कर अपनी क्षमता अनुसार एक जगह केंद्रित हो कार्य करें तभी सफलता मिलेगी ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

 

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