हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 60 – हाइबन – नभ में छवि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “नभ में छवि। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 60 ☆

☆ नभ में छवि ☆

आठ वर्षीय समृद्धि बादलों को उमड़ती घुमड़ती आकृति को देखकर बोली, ” दादाजी ! वह देखो । कुहू और पीहू।” और उसने बादलों की ओर इशारा कर दिया।

बादलों में विभिन्न आकृतियां बन बिगड़ रही थी, ” हाँ  बेटा ! बादल है ।” दादाजी ने कहा तो वह बोली, ” नहीं दादू , वह दादी है।” उसने दूसरी आकृति की ओर इशारा किया, ”  वह पानी लाकर यहां पर बरसाएगी।”

“अच्छा !”

“हां दादाजी, ”  कहकर वह बादलों  को निहारने लगी।

नभ में छवि~

दादाजी को दिखाए

दादी का फोटो।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 59 – कुछ दोहे…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  आपके अतिसुन्दर कुछ दोहे…. । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 59 ☆

☆ एक बाल कविता – कुछ दोहे…. ☆  

 

तप्त धरा शीतल हुई, खिली खिली सुप्रभात।

जड़-चेतन,जन हर्ष मय, शुभागमन बरसात।।

 

झिरमिर झिरमिर सावनी, पावस प्रीत फुहार।

हुलस-हुलस उफना रहा, मन में संचित प्यार।।

 

निर्मल मन की वाटिका, सौरभ पवन प्रवाह।

अंतस को पावन करे, भरे उमंग उछाह।।

 

ईर्ष्यालु दंभी मनुज, रचते सदा कुचक्र।

सीधे पथ पर भी चले, सांपों जैसे वक्र।।

 

मुफ्तखोर ललचाउ के, मन में ऊंची चाह।

छल, प्रपंच, पांसे चले, पकड़े उल्टी राह।।

 

सावन के झूले कहाँ, कहाँ आम के पेड़।

बचपन बस्ते से निकल, सीधे हुआ अधेड़।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 40 – बापू के संस्मरण-14- बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ………  ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ……… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 40 – बापू के संस्मरण – 14 – बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ………

 एक समय अवधेश नाम का एक युवक वर्धा में गांधीजी के आश्रम में आया । बोला, “मैं दो-तीन रोज ठहरकर यहां सब कुछ देखना चाहता हूँ । बापूजी से मिलने की भी इच्छा है । मेरे पास खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं है । मैं यहीं भोजन करूँगा।”

गांधीजी ने उसे अपने पास बुलाया ।  पूछा, ” कहाँ के रहने वाले हो और कहाँ से आये हो?” अवधेश ने उत्तर दिया, “मैं बलिया जिले का रहने वाला हूँ । कराची कांग्रेस देखने गया था । मेरे पास पैसा नहीं है। इसलिए कभी मैंने गाड़ी में बिना टिकट सफर किया, कभी पैदल मांगता-खाता चल पड़ा । इसी प्रकार यात्रा करता हुआ आ रहा हूँ।”

यह सुनकर गांधीजी गम्भीरता से बोले,”तुम्हारे जैसे नवयुवक को ऐसा करना शोभा नहीं देता। अगर पैसा पास नहीं था तो कांग्रेस देखने की क्या जरुरत थी? उससे लाभ भी हुआ? बिना मजदूरी किये खाना और बिना टिकट गाड़ी में सफर करना, सब चोरी है और चोरी पाप है । यहाँ  भी तुमको बिना मजदूरी किये खाना नहीं मिल सकेगा।”

अवधेश देखने में उत्साही और तेजस्वी मालूम देता था । कांग्रेस का कार्यकर्ता भी था । उसने कहा “ठीक है । आप मुझे काम दीजिये । मैं करने के लिए तैयार हूँ ।” गांधीजी ने सोचा, इस युवक को काम मिलना ही चाहिए और काम के बदले में खाना भी मिलना चाहिए । समाज और राज्य दोनों का यह दायित्व है । राज्य जो आज है वह पराया है, लेकिन समाज तो अपना है । वह भी इस ओर ध्यान देता, परन्तु मेरे पास आकर जो आदमी काम मांगता है उसे मैं ना नहीं कर सकता । उन्होंने उस युवक से कहा,”अच्छा, अवधेश, तुम  यहाँ पर काम करो. मैं तुमको खाना दूँगा। जब तुम्हारे पास किराये के लायक पैसे हो जायें तब अपने घर जाना ।” अवधेश ने गांधीजी की बात स्वीकार कर ली और वह वहाँ रहकर काम करने लगा ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 39 ☆ कविता – लिख देना ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर रचना  लिख देना । श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को  इस अतिसुन्दर रचना के लिए  नमन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 39 ☆

☆ सजल – लिख देना ☆

कलम से इस हथेली पर

समर्पण त्याग लिख देना

मिलने सेउस  हवेली पर

मेरा पैगाम  लिख देना।

 

गुजरे है कई दिन रात

हवाओं ने है समझाया

सूरज की धूप का कहर

उसने जी भर  बरसाया

दी है चाँदनी  ने दुआ

कोई  न श्राप  लिख देना ।

 

जिल्लतों की जी जिन्दगी

उफ भी नहीं किया हमने

गलत थे कभी  भी  ना हम

उठाए फिरे नाज नखरे

माला है आज  ये मौके

दर्पण  साफ लिख देना

 

निकल आया वहाँ  से जो

कभी  न जाना  होगा अब

हवेली  ने सताया है

गले गमों को लगाया है

मिला अब छुटकारा  हमें

राम  मनाया लिख  देना ।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 10 – मेरे शब्द ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मेरे शब्द।) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 10 –  मेरे शब्द 

 

आज जिन्दा हूँ तो कोई याद करता नहीं,

कल मेरी तस्वीर टंगी देखकर लोग रोने लगेंगे ||

 

माहौल बहुत गमगीन हो जाएगा,

जब मेरे बचपन की यादों में लोग मुझे ढूँढने लगेंगे ||

 

कल जब लोग मुझे अपने बीच नहीं पाएंगे,

यकीन कीजिए मेरे शब्द उनकी आंखे नम कर देंगे ||

 

जब चला जाऊँगा  लौट कर फिर ना आऊँगा,

मेरी कविताओं में लोग मुझे नम आँखों से ढूँढने लगेंगे ||

 

जो लोग मुझे कभी कोसते नहीं थकते,

मेरी कविताओं में मेरा किरदार  ढूँढने लगेंगे ||

 

मैं कल जब निःशब्द हो जाऊँगा  ,

लोग मेरी किताब के पन्ने पलट कर मुझे ढूँढने लगेंगे ||

 

जब निशब्द हो जाऊँ  परेशान ना होना,

मुझे किताबों में देख लेना, मैं हर शब्द में मिल जाऊँगा  ||

 

ढूँढतेरहोगे मुझे यादों के झरोखों में,

किताब के किसी मुड़े हुए पन्ने में तुम्हें मिल जाऊँगा ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 61 – सुपर माॅम ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  स्त्री विमर्श पर एक अतिसुन्दर काव्यात्मक अभिव्यक्ति  सुपर माॅम। आज माँ के कार्यों का  दायरा एवं दायित्व समय के साथ बढ़ गया है जिसकी सुश्री प्रभा जी ने अत्यंत सुन्दर विवेचना की है। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 61 ☆

☆ सुपर माॅम ☆

ती नसते तळ्यात मळ्यात,

ती डायरेक्ट खळ्यात…..

 

करून घेते सारी कामं फटाफट….

तिला आवडत नाही कुठलीच पळवाट….

 

सहा वाजता उठून ती जाॅगिंग करते…

सात च्या ठोक्याला स्वयंपाकीणबाई बेल वाजवते…

ती देते सूचना….चहा नाश्त्याच्या…

 

ती मुलीला हाक मारते..पाठवते

अंघोळीला…

तोवर दुसरी कामवाली आलेली असते…

 

ती करते मुलीची वेणीफणी…

 

दुस-या कामवाली ला सांगते दिवसभराची कामं…निवडणं, टिपणं…डस्टिंग…धुणी भांडी…मुलीला शाळेतून आणणं…तिचं खाणं पिणं, खेळायला पाठवणं…सारं आजीच्या देखरेखीखाली  !

तिसरी कामवाली उरलेली कामं करायला !

 

घरात सासू सास-यांना ही वागवते

सन्मानाने !

नातीला ही लळा असतो आजी आजोबांचा !

 

नव-याचा, मुलीचा आणि स्वतःचा

डबा भरून,ती बाहेर पडते….

आपली कार सफाईदारपणे बाहेर काढते…

 

मुलीला स्कूलबस मध्ये बसवून “तो” त्याच्या कार ने ऑफिस कडे रवाना…

 

त्यांनी समंजस पणे वाटून घेतलेली असतात कामे…

 

दोघं ही करिअर माईंडेड…

आपापल्या क्षेत्रात यशस्वी,कर्तृत्ववान वगैरे….

आणि कुटुंब वत्सल ही…

 

तीन तीन कामवाल्यांना सांभाळतात…सढळ हाताने पगार देऊन!

 

ती मुलीचं होमवर्क करून घेते स्वतः…तिचं नृत्य…खेळ…चित्र…वाचन..

सा-याकडे लक्ष देते जातीने!

 

रविवारी ती अगदी घरासाठी असते…

तिच्याकडे वेळच नसतो सहा दिवस….

हा एक दिवस ती बायको, आई, सून बनून राखते घराचं घरपण…

ती खरंच एक सुपर वुमन….

 

नव-याच्या खांद्याला खांदा लावून हार्डवर्क करणारी…निष्णात…नामवंत!

 

मुलगी म्हणते तिला आई…आणि बाबा विषयी ही बाळगते आपार प्रेम आणि आदर…..

 

कुठलंही अवडंबर न करता ती

जपते आपला धर्म..संस्कृती…

साजरे करते सणवार….

 

नव-याला साथ देणारी ती असते अर्धांगिनी….दक्ष आई आणि काळजी घेणारी सून  !

 

घर आणि ऑफिस चा समतोल साधणारी सुपर माॅम……

ती कधीच नसते तळ्यात मळ्यात,

डायरेक्ट खळ्यात  !!!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 47 ☆ कोरोना ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “कोरोना”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 47 ☆

कोरोना

 

लचकती डालियाँ, लहराती नदियाँ,

यही तो क़ुदरत का वरदान हैं

झूलते हुए गुल, मुस्काती कलियाँ

यही तो मेरी धरती की शान हैं

 

उड़ते परिंदे, हवाएं बल खातीं

देखते थे हम सीना तान के

झूमती तितली, लहरें बहकतीं

बसंती दिन थे वो भी शान के

 

छोड़ के वो शान, खो हम गए थे

मोबाइल कहीं, कहीं लैपटॉप है

AC का है युग, क़ुदरत नदारद

नए युग का नया सा ये शौक था

 

बढती दूरियां, कैसी मजबूरियाँ

इंसान के अंदाज़ सिमट रहे थे

कौन था जानता, किसको थी खबर

मुसीबत से हम बस लिपट रहे थे

 

कोरोना का प्रकोप, रुकी ज़िंदगी

दुनिया सारी आज परेशान है

बेकार है कार, मचा हा-हाकार

मिटटी में मिल गयी सब शान है

 

इंसान डर रहा, इंसान मर रहा,

महामारी ने कहाँ किसे छोड़ा

लडखडाये साँस, कोई नहीं पास

दिलों को जाने कितना है तोड़ा

 

मुश्किल है घड़ी, परेशानी बड़ी

हारनी नहीं है पर हमें यह जंग

मुक़ाबला है करना, नहीं डरना

जिगर में तुम फैलने दो उमंग

 

सोचना हमें है, विजयी है होना

फासला हमने अब तक तय किया

जीतेंगे हम सुनो, हम में है दम

जीतेगा एक दिन सारा इंडिया

 

जीतेगा जोश, कोरोना को हरा

हमको लेना होगा सब्र से काम

पास मत आना, नियम तुम मानना

खूबसूरत ही होगा फिर अंजाम

 

बस यह बात तुम कभी न जाना भूल

क़ुदरत को करते रहना रोज़ नमन

क़ुदरत के बिना हम तो अधूरे हैं

महकता है उसी से बस ये जीवन

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 37 ☆ व्यंग्य संग्रह – दिमाग वालों सावधान  – श्री धर्मपाल जैन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री धर्मपाल जैन जी  के  व्यंग्य -संग्रह  “दिमाग वालों सावधान ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 37 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह   – दिमाग वालों सावधान – व्यंग्यकार – श्री धर्मपाल जैन

दिमाग वालों सावधान

व्यंग्यकार धर्मपाल जैन

किताबगंज प्रकाशन गंगापुर सिटी

ISBN 9789389352634

 

किसी भी किताब में सर्वप्रथम जो चीज पाठक को आकर्षित करती है, वह होता है उसका नाम. व्यंग्य की किताबों के लिये अनेक व्यंग्य लेखो में से एक नाम के आधार पर किताब का नाम रखना सहज परम्परा है. इसी लीक पर चलते हुये व्यंग्यकार धर्मपाल जैन जी ने अपनी नई पुस्तक का नाम दिमाग वालों सावधान रखा है. नाम ध्यान आकर्षित करता है. प्रकाशक ने बिना त्रुटि सम्यक आवरण डिजाइन करवाकर, अच्छे गेटअप में पुस्तक प्रस्तुत की है. पेपरबैक का मूल्य मात्र २५० रु है. कहने का मतलब है कि बुक स्टाल पर मुँह दिखाई में तो पाठक किताब से रिश्ता बना ही सकता है.

अब जब कृति घर आ जाये और तकिये के नीचे तक पहुंच जाये तो उसके कलेवर पर कुछ चर्चा हो जाये.

बैक कवर पर बिंदु रूप लेखक परिचय से समझ आता है कि यह लेखक की दूसरी व्यंग्य की किताब है. किसी की कोई भूमिका नही, कोई आत्मकथन नही. सीधी बात. कुल जमा ५१ सनसनाती व्यंग्य रचनायें समेटे हुये है पुस्तक.

दिमाग चाटने वालो पर है शीर्षक व्यंग्य. छोटे छोटे वाक्य, समझ आने वाली भाषा, प्रभावी शैली का अच्छा व्यंग्य है. कई व्यंग्य ऐसे हैं जिन शीर्षको से मै कई व्यंग्यकारो के लेख पढ़ चुका हूं, बल्कि कई शीर्षको पर तो स्वयं मेरे भी लेख हैं, जैसे झंडा ऊंचा रहे हमारा, अस मानुस की जात, कबिरा खड़ा बाजार में, हिन्दी डे, इन टापिक पर मैं भी व्यंग्य लिख चुका हूं. मतलब साफ है कि व्यंग्यकारों की पीड़ा समान होती है.

“एल्लो सरपंच जी क्या सांड से कम होवे हैं ” ऐसा लेखन केनेडा में बसे हुये व्यंग्यकार लिखे तो समझ लें कि वह जमीन से जुड़ा हुआ आदमी है. यूं भी विदेश में रहकर वहाँकी चकाचौंध से भ्रमित हुये बिना देश से, हिन्दी से, व्यंग्य से सरोकार बनाये रखने के चलते धर्मपाल जी  अपने रचना धर्म का पालन करते नजर आते हैं.

चंद्रयान ३ से भारत प्रधानमंत्री से संवाद शैली में मारक व्यंग्य है. किस तरह चुनाव जीतने में हर तरह की उपलब्धियों का राजनीति उपयोग करती है, यह उजागर करता व्यंग्य है. कमियो की बात करें तो इतना ही कहूंगा कि अनेक स्थानो पर अमिधा में बातें कहने की जगह प्रतीको में बात की जाने की संभावना है, अगले संग्रहों में जैन साहब से व्यंग्य को ओर उम्मीदें हैं.

सबकी हो सबरीमाला, साहित्य की सही रेसिपी, अब मेरे घर में देवता रहते हैं, बापू का आधुनिक बंदर आदि रचनायें मुझे बड़ी पसंद आई. कुल जमा किताब  पढ़े जाने के बाद तकिये के नीचे से निकलकर, बुकशैल्फ में शोभायमान करने योग्य है.

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 60 – काला तिल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक  अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “काला तिल ।  एक विचारणीय लघुकथा। विवाह के सात फेरों का बंधन और स्त्री के अहं के सामने सब कुछ व्यर्थ है। यही हमें संस्कार में भी मिला है। किन्तु, कितने लोग इस गूढ़ अर्थ को समझते हैं और कितने लोग इसे अपनी नियति मान लेते हैं ?  इस सार्थक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 60 ☆

☆ लघुकथा – काला तिल

तन की सुंदरता अपार और उस पर गोरा रंग, किसी की भी निगाहें  उसे एक टक देखा करती थी।

कहीं भी आए जाए हर समय माता – पिता को अपनी बिटिया दिव्या को लेकर परेशानी होती थी।

समय गुजरता गया पुराने विचारों के कारण दिव्या की कुंडली मिलान कर एक बहुत ही होनहार युवक  से उसका विवाह तय कर दिया गया। गिरधारी अच्छी कंपनी पर नौकरी करता था। परंतु रंग तो ईश्वर का दिया हुआ था, काला रंग और नाम गिरधारी।

दोनों से आज के समय की दिव्या को कुछ नहीं जच रहा था। घरवालों की इच्छा और सभी की खुशियों के लिए उसने विवाह के लिए हाँ कर दी। विवाह उपरान्त ससुराल जाकर वह अपने और गिरधारी के रंग को लेकर बहुत परेशान हुआ करती थी।

कहते हैं सात समंदर पार पुत्री का विवाह, ठीक उसी तरह दिव्या भी बहुत दूर जा चुकी थी, अपने माता-पिता और परिवार से।

पग फेरे के लिए दिव्या को मायके आना था, उसे तो बस इसी दिन का इंतजार था कि अब वह जाएगी तो कभी भी वापस नहीं आएगी और अपनी दुनिया अलग बसा लेगी।

इस बात से गिरधारी परेशान भी था परंतु दिव्या की खुशी के लिए सब कुछ सहन कर लिया।

ट्रेन अपनी तीव्र गति से आगे बढ़ रही थी। दिव्या गिरधारी को जहां पर सीट मिली थी। वहाँपर कुछ मनचले नौजवान भी सफर कर रहे थे। हाव-भाव देकर वह समझ गए कि शायद वह अपने पति को पसंद नहीं करती।

बस फिर क्या था?? सब अपनी-अपनी शेखी  दिखाने लगे। काले रंग को लेकर छीटाकशी और सुंदरता की परख पर उतावले से चर्चा करने लगे।

दिव्या के कारण गिरधारी चुप रहा। शायद वह कुछ बोले तो दिव्या को खराब लगेगा। थोड़ी देर बाद जब हद से ज्यादा मजाक और अभद्र बातें निकलने लगी। उस समय दिव्या बड़ी ही सहज भाव से उठी और एक सुंदर गोरे नौजवान को इशारे से देख बोलने लगी सुनो…. “काले रंग-गोरे रंग पर इतना ज्यादा मत उलझो। मेरी सुंदरता मेरे पति के सुंदर काले रंग से और भी निखर रहा है। मैं तुम्हें समझाती हूं। मान लो मेरा गोरा रंग मेरे पति को लग जाएगा तो लोग उसे बिमारी और त्वचा रोग समझने लग जाएंगे।परन्तु , मेरे पति का थोड़ा सा काला रंग मुझे लग जाएगा, तो मेरे गोरे रंग पर ”काला तिल” बनकर निखर उठेगा। मेरे पति लाखों में एक है। गिरधारीअब तक चुपचाप बैठा था, उठकर दिव्या के पास खड़ा हो गया। आंखों ही आंखों में दोनों ने बातें कर ली। सब कुछ सामान्य और सहज हो गया। ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थीं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 60 ☆ जोखडाचे भय ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “जोखडाचे भय।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 60 ☆

☆ जोखडाचे भय ☆

 

पाणी डोळ्यांत घेऊन, पाणी शोधाया निघाले

नदी नाले शोधताना, होते रक्तही आटले

 

कंठी घागरीच्या दोर, जाते पाण्यासाठी खोल

गेली ठेचाळत खाली, नाही लाभलेली ओल

 

तुळशीच्या रोपालाही, नाही एक वेळ पाणी

पाने सुकाया लागली, त्यांस वाली नसे कोणी

 

अशी भेगाळली भुई, वाटे बघुनिया भीती

गाई-गुरांना न चारा, कशी जपायची नाती

 

चारा पोटात जाईना, गाय दूधही देईना

दुष्काळाच्या शृंखलेला, काही मार्ग सापडेना

 

योजनांच्या घबाडाचे, वाटेकरी हे लबाड

फळे खातात स्वतः हे, गरिबाला देती फोड

 

होई निसर्गाचा कोप, नाही राजाकडे न्याय

माणसाच्या मानेला या आज जोखडाचे भय

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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