हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – # 63 ☆ मानस प्रश्नोत्तरी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  ?? मानस प्रश्नोत्तरी?? ☆

प्रश्न- श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- पहले मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।

 

प्रश्न- मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करना चाहिए।

 

प्रश्न- परपीड़ा को समानुभूति से ग्रहण करने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- परकाया प्रवेश आना चाहिए।

 

प्रश्न- परकाया प्रवेश के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- अद्वैत भाव जगाना चाहिए।

 

प्रश्न- अद्वैत भाव जगाने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- जो खुद के लिए चाहते हो, वही दूसरों को देना आना चाहिए क्योंकि तुम और वह अलग नहीं हो।

 

प्रश्न- ‘मैं’ और ‘वह’ की अवधारणा से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- सत्संग करना चाहिए। सत्संग ‘मैं’ की वासना को ‘वह’ की उपासना में बदलने का चमत्कार करता है।

 

प्रश्न- सत्संग के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर- अपने आप से संवाद करना चाहिए। हरेक का भीतर ऐसा दर्पण है जिसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों दिखते हैं। भीतर के सच्चिदानंद स्वरूप से ईमानदार संवाद पारस का स्पर्श है जो लौह को स्वर्ण में बदल सकता है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 20 ☆ कहो जीवन की जय ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता कहो जीवन की जय )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 20 ☆ 

☆ कहो जीवन की जय ☆ 

 

धरती माता विपदाओं से डरी नहीं

मुस्काती है जीत उन्हें यह मरी नहीं

आसमान ने नीली छत सिर पर तानी

तूफां-बिजली हार गये यह फटी नहीं

अग्नि पचाती भोजन, जला रही अब भी

बुझ-बुझ जलती लेकिन किंचित् थकी नहीं

पवन बह रहा, साँस भले थम जाती हो

प्रात समीरण प्राण फूँकते थमी नहीं

सलिल प्रवाहित कलकल निर्मल तृषा बुझा

नेह नर्मदा प्रवहित किंचित् रुकी नहीं

पंचतत्व निर्मित मानव भयभीत हुआ?

अमृत पुत्र के जीते जी यम जीत गया?

हार गया क्या प्रलयंकर का भक्त कहो?

भीत हुई रणचंडी पुत्री? सत्य न हो

जान हथेली पर लेकर चलनेवाले

आन हेतु हँसकर मस्तक देनेवाले

हाय! तुच्छ कोरोना के आगे हारे

स्यापा करते हाथ हाथ पर धर सारे

धीरज-धर्म परखने का है समय यही

प्राण चेतना ज्योति अगर निष्कंप रही

सच मानो मावस में दीवाली होगी

श्वास आस की रास बिरजवाली होगी

बमभोले जयकार लगाओ, डरो नहीं

हो भयभीत बिना मारे ही मरो नहीं

जीव बनो संजीव, कहो जीवन की जय

गौरैया सँग उषा वंदना कर निर्भय

प्राची पर आलोक लिये है अरुण हँसो

पुष्पा के गालों पर अर्णव लाल लखो

मृत्युंजय बन जीवन की जयकार करो

महाकाल के वंशज, जीवन ज्वाल वरो।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 – महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़-1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ 1 3 ☆

के.आसिफ़ अर्थात आसिफ़ करीम भारतीय फ़िल्म उद्योग के नामचीन निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने सर्वकालिक महान फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म बनाकर दुनिया के महान फ़िल्मकारों में स्थान पक्का कर लिया था। के.आसिफ़ का जन्म ब्रिटिश इंडिया के ज़िला इटावा में 14 जून 1922 को हुआ था, उनके पिता का नाम फ़ज़ल करीम था

वे महज आठवीं जमात तक पढ़े थे। पैदाइश से जवानी तक का वक्त गरीबी में गुजारा था। फिर उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे बड़ी, भव्य और सफल फिल्म का निर्माण किया। यह इसलिए मुमकिन हुआ, क्योंकि उन्हें सिर्फ इतना पता था कि उनकी फिल्म के लिए क्या अच्छा और महत्वपूर्ण है।

हमेशा चुटकी से सिगरेट या सिगार की राख झाड़ने वाले करीमउद्दीन आसिफ़, अभिनेता नज़ीर के भतीजे थे। शुरू में नज़ीर ने उन्हें फ़िल्मों से जोड़ने की कोशिश की लेकिन आसिफ़ का वहाँ दिल न लगा। नज़ीर ने उनके लिए दर्ज़ी की एक दुकान खुलवा दी। थोड़े दिनों में ही वो दुकान बंद करवानी पड़ी, क्योंकि ये देखा गया कि आसिफ़ का अधिकतर समय पड़ोस के एक दर्ज़ी की लड़की से रोमांस करने में बीत रहा था। नज़ीर ने तब उन्हें ज़बरदस्ती ठेल कर फ़िल्म निर्माण की तरफ़ दोबारा भेजा। बॉलीवुड के सफल फिल्म निर्माता और निर्देशकों की श्रेणी में टॉप पर रहने वाले के. आसिफ को लोग पागल फिल्म डायरेक्टर भी कहते थे।

उनकी पहली फ़िल्म फूल थी।  यह 1945 की चौथी सबसे अधिक कमाई करने वाली भारतीय फिल्म थी। इस फिल्म का निर्देशन के आसिफ ने किया था। पटकथा कमाल अमरोही ने लिखी थी। पृथ्वीराज कपूर, वीणा कुमारी, याकूब, सुरैया, दुर्गा खोटे और सितारा देवी ने मुख्य भूमिकाएँ निभाईं थीं।

1951 में उन्होंने हलचल फ़िल्म बनाई। एसके ओझा द्वारा निर्देशित है। मोहम्मद शफी, सज्जाद हुसैन संगीत निर्देशक थे और साथ फ़िल्म के गीत खुमार बाराबंकवी ने लिखे थे। फिल्म में दिलीप कुमार, नरगिस, याकूब, जीवन और बलराज साहनी ने काम किया था।

के.आसिफ़ ज़िल्ले इलाही जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के निज़ाम से अभिभूत थे और हों भी क्यों न, क्योंकि अकबर ने 13 साल की आयु से 49 सालों में हिन्दोस्तान को बिखरे रजवाड़ों से एक साम्राज्य में तब्दील किया था। अकबर ने राजपूत नीति से खड़ा किया अखिल भारतीय प्रशासनिक ढाँचा 1556 से 1726 याने 170 साल अगली तीन पीढ़ी तक क़ायम रहा। अकबर शासन के तात्कालिक नियमों पर अडिग रहकर उनका सख़्ती से पालन सुनिश्चित करता था। मुग़ले आज़म सलीम-अनारकली की नहीं अपितु बादशाह अकबर की फ़िल्म है।

के.आसिफ़ ने सैयद इम्तियाज़ अली ताज के उपन्यास “अनारकली” को आधार बनाकर फ़िल्म की पटकथा लिखवाई थी। अकबर के अबुल फ़ज़ल कृत ऐतिहासिक  दस्तावेज “आइने-अकबरी” में सलीम-अनारकली के प्रेम प्रसंग से सलीम के विद्रोह और अकबर-सलीम लड़ाई का कोई ज़िक्र नहीं है। लाहौर में अनारकली नाम की कनीज़ का हवाला ज़रूर मिलता है, जिसके नाम पर अभी भी अनारकली-गली लाहौर में मौजूद है। मुग़ले आज़म के पूर्व भी अनारकली नामक फ़िल्म बन चुकी थी, जिसमें प्रदीप कुमार और बीनारॉय ने काम किया था। के.आसिफ़ ने सलीम-अनारकली की भूमिका के लिए चंद्रमोहन-नरगिस को लेने की सोचा था लेकिन चंद्रमोहन की मृत्यु हो जाने से काम रुक गया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-6 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का अंतिम भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका- 6

वो गहननिंद्रा में निमग्न हो गये, काफी‌ दिन चढ़ जाने पर ही चरवाहे बच्चों की‌ आवाजें सुन कर जागे और अगल बगल छोटे बच्चों का‌ समूह खेलते पाया था। उनकी मधुर आवाज से ही उनका मन खिलखिला उठा था और वे एक बार फिर सारी दुख चिंताये भूल कर बच्चों मे‌ बच्चा बनते दिखे। वे मेले से खरीदी रेवड़ियां और बेर फल बच्चों में बाँटते दिखे। तब से वह भग्न शिवालय ही उनका आशियाना बना।

अब वे‌ विरक्त संन्यासी का जीवन गुजार ‌रहे थे। उन्हें जिंदगी को एक नये सकारात्मक दृष्टिकोण ‌से देखने का जरिया मिल गया था। एक दिन जीवन के मस्ती भरे क्षणों के बीच उन्हीं खंडहरों में रघूकाका का पार्थिव शरीर मिला। उस दिन सहचरी ढोल सिरहाने पड़ी आँसू बहा रही थी। कलाकार मर चुका था कला सिसक रही थी।

उनके शव को चील कौवे नोच रहे थे। शायद यही उनकी आखिरी इच्छा थी  कि मृत्यु हो तो उनका शरीर उन‌ भूखे बेजुबानों के काम‌ आ जाय । वे लाख प्रयास के बाद भी उस समाज का परित्याग कर चुके थे।  जहां अपनों से नफ़रत गैरों से बेपनाह मुहब्बत मिली थी।  प्यार मुहब्बत और नफरतों का ये खेल ही उनके  दुख का कारण बना था । आज सुहानी सुबह उदास थी और चरवाहे बच्चों की आँखें नम थी।  जो कल तक रघूकाका के साथ खेलते थे। इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम सेना के‌ एक महावीर ‌योद्धा का चरित्र एक‌ किंवदंती बन कर रह गया, जिनका उल्लेख इतिहास के किताबों में नहीं मिलता। स्वतन्त्रता संग्राम के ऐसे कई अनाम और गुमनाम योद्धा इतिहास के पन्नों में भी उपलब्ध नहीं हैं।

उपसंहार – यद्यपि मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर पंच तत्व में विलीन हो जाता है। मात्र रह जाती है, जीवन मृत्यु के‌ बीच बिताए ‌पलों की कुछ खट्टी मीठी यादें जो घटनाओं के रूप धारे स्मृतियों के झरोखों से झांकती कभी कथा, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र की विधाओं में सजी पाठकों श्रोताओं के दिलो-दिमाग  को अपने इंद्रधनुषी रंगों से आलोकित एवम् स्पंदित करती नजर आती है तो कभी‌ भावुक‌ हृदय को झकझोरती भी है।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 8 ☆ राजा रघुनाथ शाह एवं शंकरशाह की बलिदान गाथा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की एक ओजस्वी कविता राजा रघुनाथ शाह एवं शंकरशाह की बलिदान गाथा। यह कविता  राजा रघुनाथ शाह एवं  शंकरशाह जी को  समर्पित है जिनका कल दिनांक 18 सितम्बर को बलिदान दिवस था।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 8☆

☆ राजा रघुनाथ शाह एवं शंकरशाह की बलिदान गाथा ☆

जानते इतिहास जो वे जानते यह भी सभी

राजधानी गौड राजाओ की थी त्रिुपरी कभी

 

उस समय मे गौडवाना एक समृद्ध राज्य था

था बडा भूभाग कृषि, वन क्षेत्र पर अविभाज्य था

 

सदियों तक शासन रहा कई पीढ़ियों के हाथ में

अनेको उपलब्धियाॅ भी रही जिनके साथ में

 

रायसेन, भोपाल, हटा, सिंगौरगढ मे थे किले

सीमा में थे आज के छत्तीसगढ के भी जिले

 

खंडहर नर्मदा तट मंडला मे हैं अब भी खड़े

आज भी हैं महल मंदिर रामनगर मे कई बड़े

 

कृषि की उन्नति, वन की सम्पत्ति, राज्य में धन धान्य था।

स्वाभिमानी वीर राजाओं का समुचित मान था

 

दलपति शाह की छवि-कीर्ति जब मनभायी थी

दुर्गा चंदेलोें की बेटी बहू बनकर आई थी।

 

बादशाह अकबर से भी लड़ते ना जिसका डर लगा

उसी दुर्गावती रानी- माँ की फैली यशकथा

 

एक सा रहता कहाँ है समय इस संसार में

उठती गिरती हैं बदलती लहरें हर व्यवहार में

 

आए थे अंग्रेज जो इस देश मे व्यापार को

क्या पता था बन वही बैठेंगे कल सरकार हो

 

सोने की चिड़िया था भारत आपस की पर फूट से

विवश हो पिटता रहा कई नई विदेशी लूट से

 

उनके मायाजाल से इस देश का सब खो गया

धीरे धीरे बढ़ यहाँ उनका ही शासन हो गया

 

पल हमारी रोटियों पर हमें ही लाचार कर

मिटा डाले घर हमारे, गहरे अत्याचार कर

 

जुल्म से आ तंग उनके देश में जो अशांति हुई

अठारह सौ छप्पन में उससे ही भारी क्रांति हुई

 

झांसी, लखनऊ, दिल्ली, मेरठ में जो भड़की आग थी

उसकी चिंगारी और लपटों में जगा यह भाग भी

 

तब गढा मंडला में दुर्गावती के परिवार से

दो जो आगे आए वे रघुनाथशाह शंकरशाह थे

 

बीच चैराहे में उनकी ली गई तब जान थी

क्रूरतम घटना है वह तब के ब्रिटिश इतिहास की

 

बांध उनको बारूद के मुंह से चलाई तोप थी

पर चेहरों मे दिखी न वीरों के छाया खौफ की

 

देश के हित निडर मन में दोनों अपनी जान दे

बन गए तारे चमकते अनोखे बलिदान से

 

सुन कहानी उनकी भर आता है मन, उनको नमन

प्राण से ज्यादा रहा प्यारा जिन्हें अपना वतन

 

आती है आवाज अब भी नर्मदा के नीर  से

मनोबल के धनी कम होते हैें ऐसे वीर से

 

जिनने की ये क्रूरता वे मिट गए संसार से

नमन पर करते शहीदों को सदा सब प्यार से

 

यातनाएं कुछ भी दें पर हारती है क्रूरता

विजय पाती आई है इतिहास मे नित शूरता

 

गाता है जग यश हमेशा वीरता बलिदान के

याद सब करते शहीदों को सदा सम्मान से

 

जबलपुर से जुड़ा त्रिपुरी नर्मदा का नाम है

उन शहीदों को जबलपुर का विनम्र प्रणाम है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 62 ☆ वक्त, दोस्त व रिश्ते☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख वक्त, दोस्त व रिश्ते। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 62 ☆

☆ वक्त, दोस्त व रिश्ते☆

 

‘वक्त, दोस्त व रिश्ते हमें मुफ़्त में मिलते हैं। पर इनकी कीमत का पता, हमें इनके खो जाने के पश्चात् होता है और वक्त, ख्वाहिशें और सपने हाथ में बंधी घड़ी की तरह होते हैं, जिसे उतार कर कहीं भी रख दें, तो भी चलती रहतीं है।’ दोनों स्थितियों में विरोधाभास है। वास्तव में ‘वक्त आपको परमात्मा ने दिया है और जितनी सांसें आपको मिली हैं ,उनका उपयोग-उपभोग आप स्वेच्छा से कर सकते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उन्हें व्यर्थ में खो देते हैं या हर सांस का मूल्य समझ एक भी सांस को रखते व्यर्थ नहीं जाने देते। आप जीवन का हर पल प्रभु के नाम-स्मरण में व्यतीत करते हैं और सदैव दूसरों के हित में निरंतर कार्यरत रहते हैं। यह आपके अधिकार-क्षेत्र में आता है कि आप वर्तमान में शुभ कर्म करके आगामी भविष्य को स्वर्ग-सम सुंदर बनाते हैं या बुरे कर्म करने के पश्चात् नरक के समान यातनामय बना लेते हैं। वर्तमान में कृत-कर्मों का शुभ फल, आपके आने वाले कल अर्थात् भविष्य को सुंदर व सुखद बनाता है।

वक्त निरंतर चलता रहता है, कभी थमता नहीं और आप लाख प्रयत्न करने व सारी दौलत देकर, उसके बदले में एक पल भी नहीं खरीद सकते। जीवन की अंतिम वेला में इंसान अपनी सारी धन-संपदा देकर, कुछ पल की मोह़लत पाना चाहता है, जो सर्वथा असंभव है।

इसी प्रकार दोस्त, रिश्ते व संबधी भी हमें मुफ़्त में मिलते हैं; हमें इन्हें खरीदना नहीं पड़ता। हां! अच्छे- बुरे की पहचान अवश्य करनी पड़ती है। इस संसार में सच्चे दोस्त को ढूंढना अत्यंत दुष्कर कार्य है, क्योंकि आजकल सब संबंध स्वार्थ पर टिके हैं। जहां तक रिश्तों का संबंध है, कुछ रिश्ते जन्मजात अर्थात् प्रभु-प्रदत्त होते हैं, जिन्हें आप चाह कर भी बदल नहीं सकते। वे संबंधी अच्छी व बुरी प्रकृति के हो सकते हैं और उनके साथ निर्वाह करना अनिवार्य ही नहीं, आपकी विवशता होती है। परंतु आजकल तो रिश्तों को ग्रहण लग गया है। कोई भी रिश्ता पावन नहीं रहा। खून के रिश्ते–माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी व विश्वासपात्र दोस्त का मिलना अत्यंत दुष्कर है, टेढ़ी खीर है। आधुनिक युग प्रतिस्पर्द्धात्मक युग है, जहां चारों ओर  संदेह, शक़ व अविश्वास का दबदबा कायम है। गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री व भाई-बहिन के संबंध भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। जहां समाज में अराजकता व विश्रंखलता का वातावरण व्याप्त है, वहां मासूम बच्चियों से लेकर वृद्धा तक की अस्मत सुरक्षित नहीं है। वे उपभोग व उपयोग की वस्तु-मात्र बनकर रह गयी हैं। आजकल हर रिश्ते पर प्रश्नचिन्ह लगा है और सब कटघरे में खड़े हैं।

हां! आजकल दोस्ती की परिभाषा भी बदल गई है। कोई व्यक्ति बिना स्वार्थ के, किसी से बात करना भी पसंद नहीं करता। आजकल तो ‘हैलो-हॉय’ भी पद- प्रतिष्ठा देखकर की जाती है। वैसे तो हर इंसान आत्म-मुग्ध अथवा अपने में व्यस्त है तथा उसे किसी की दरक़ार नहीं है। कृष्ण-सुदामा जैसी दोस्ती की मिसाल तो ढूंढने पर भी नहीं मिलती। आजकल तो दोस्त अथवा आपका क़रीबी ही आपसे विश्वासघात करता है…आपकी पीठ में छुरा घोंपता है, क्योंकि वह आपकी रग-रग से वाकिफ़ होता है। विश्व अब ग्लोबल-विलेज बन गया है तथा भौगोलिक दूरियां भले ही कम हो गई हैं, परंतु दिलों की दूरियां इस क़दर बढ़ गई हैं कि उन्हें पाटना असंभव हो गया है। हर इंसान कम से कम समय में अधिकाधिक धन-संग्रह करना चाहता है और उसके लिए वह घर-परिवार व दोस्ती को दाँव पर लगा देता है। इसमें शक़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। शक़ दिलों में दरारें उत्पन्न कर देता है, जिसका जन्म अनास्था व अविश्वास से होता है। विश्वास तो न जाने पंख लगा कर कहां उड़ गया है, जिसे तलाशना अत्यंत दुष्कर है। परंतु इसका मुख्य कारण है … कानों-सुनी बात पर विश्वास करना। सो! संदेह हृदय में ऐसी खाई उत्पन्न कर देता है, जिसे पाटना असंभव हो जाता है। शायद! हम कबीरदास जी को भुला बैठे है… उन्होंने आंखिन-देखी पर विश्वास करके शाश्वत साहित्य की रचना की, जो आज भी विश्व-प्रसिद्ध है। शुक्ल जी ने भी यही संदेश दिया है कि जब भी आप बात करें, धीरे से करें, क्योंकि तीसरे व्यक्ति के कानों तक वह बात नहीं पहुंचनी चाहिए। परंतु दोस्ती में संबंधों की प्रगाढ़ता होनी चाहिए; जो आस्था, निष्ठा व विश्वास से पनपती है।

यदि आप दूसरों की बातों पर विश्वास कर लेंगे, तो आपके हृदय में क्रोध-रूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाएगी… आप अपने मित्र को बुरा-भला कहने लगेंगे तथा उसके प्रति विद्वेष की भावना से भर जायेंगे। आप सबके सम्मुख उसकी निंदा करने लगेंगे और समय के साथ मैत्रीभाव शत्रुता के भाव में परिणत हो जायेगा। परंतु जब आप सत्यान्वेषण कर उसकी हक़ीक़त से रू-ब-रू होंगे… तो बहुत देर हो चुकी होगी और संबंधों में पुन: अक्षुण्ण प्रगाढ़ता नहीं आ पायेगी। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प शेष नहीं रहेगा।

परंतु वक्त, दोस्त व रिश्तों की कीमत का पता, इंसान को उनके खो जाने के पश्चात् ही होता है और गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए समय को सबसे अनमोल धन कहा गया है और उसकी कद्र करने की नसीहत दी गयी है। समय का सदुपयोग कीजिए …उसे व्यर्थ नष्ट मत कीजिए। खूब परिश्रम कीजिए तथा तब तक चैन से मत बैठिये, जब तक आपको मंज़िल नहीं मिल जाती। वक्त, ख्वाहिशें व सपने जीने का लक्ष्य होते हैं तथा उन्हें जीवित रखना ही जुनून है, ज़िंदगी जीने का सलीका है, मक़सद है। समय निरंतर नदी की भांति अपने वेग से बहता रहता है। इच्छाएं, ख्वाहिशें, आशाएं व आकांक्षाएं अनंत हैं…सुरसा के मुख की भांति फैलती चली जाती हैं। एक के पश्चात् दूसरी का जन्म स्वाभाविक है और बावरा मन इन्हें पूरा करने के निमित्त संसाधन जुटाने में अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है, परंतु इनका पेट नहीं भरता। इसी प्रकार मानव नित्य नये स्वप्न देखता है तथा उन्हें साकार करने में आजीवन संघर्षरत रहता है। मानव अक्सर दिवा-स्वप्नों के पीछे भागता रहता है।  उसके कुछ स्वप्न तो फलित हो जाते हैं और शेष उसके हृदय में कुंठा का रूप धारण कर, नासूर-सम आजीवन सालते रहते हैं। यहां अब्दुल कलाम जी की यह उक्ति सार्थक प्रतीत होती है कि ‘मानव को खुली आंखों से स्वप्न देखने चाहिएं तथा उनके पूरा होने से पहले अथवा मंज़िल को प्राप्त करने से पहले मानव को सोना अर्थात् विश्राम नहीं करना चाहिए, निरंतर संघर्षरत रहना चाहिए ।’

ख्वाहिशों व सपनों में थोड़ा अंतर है। भले ही दोनों में जुनून होता है; कुछ कर गुज़रने का …परंतु विकल्प भिन्न होते हैं। प्रथम में व्यक्ति उचित-अनुचित में भेद न स्वीकार कर, उन्हें पूरा करने के निमित्त कुछ भी कर गुज़रता है, जबकि सपनों को पूरा करने के लिए, घड़ी की सुइयों की भांति अंतिम सांस तक लगा रहता है।

सो! वक्त की क़द्र कीजिए तथा हर पल को अंतिम पल समझ उसका सदुपयोग कीजिए…जब तक आपके सपने साकार न हो सकें और आपकी इच्छाएं पूरी न हो सकें । इसके लिए अच्छे-सच्चे दोस्त तलाशिए; भूल कर भी उनकी उपेक्षा मत कीजिए, क्योंकि सच्चा दोस्त हृदय की धड़कन के समान होता है। विपत्ति के समय सबसे पहले वह ही याद आता है। सो! उसके लिए मानव को अपने प्राण तक न्योछावर करने को सदैव तत्पर रहना अपेक्षित है। इसलिए संबंधों की गहराई को अनुभव कीजिए और उन्हें जीवंत रखने का हर संभव प्रयास कीजिए …जब तक वे आपके लिए हानिकारक सिद्ध न हो जाएं, संबंधों का निर्वहन कीजिए। इसके लिए त्याग व बलिदान करने को सदैव तत्पर रहिए, क्योंकि रिश्तों की माला टूटने पर उसके मनके बिखर जाते हैं तथा उनमें दरार रूपी गांठ पड़ना स्वाभाविक है। लाख प्रयत्न करने पर भी उसका पूर्ववत् स्थिति में आ पाना असंभव हो जाता है। सो! संबंधों को सहज रूप में विकसित व पुष्पित होने दें। सदैव अपने मन की सुनें तथा दूसरों की बातें सुन कर हृदय में मनोमालिन्य को दस्तक न देने दें, ताकि संबंधों की गरिमा व गर्माहट बरक़रार रहे। यदि ऐसा संभव न हो, तो उन्हें तुरंत अथवा एक झटके में तोड़ डालें। सो! सहज भाव से ज़िंदगी बसर करें। हृदय में स्व- पर व राग-द्वेष के भावों को मत पनपने दें। अपनों का साथ कभी मत छोड़ें तथा सदैव परोपकार करें। लोगों की बातों की ओर ध्यान न दें। दोस्तों को उनके दोषों के साथ स्वीकारना उत्तम, बेहतर व श्रेयस्कर है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति पाक़-साफ़ नहीं होता। यदि आप ऐसे शख़्स की तलाश में निकलेंगे, तो नितांत अकेले रह जायेंगे। वैसे भी वस्तु व व्यक्ति के अभाव अथवा न रहने पर ही उनकी कीमत अनुभव होती है। उस स्थिति में उसे पाने का अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहता। ‘जाने वाले चाहे वे दिल से जाएं या जहान से…कभी लौट कर नहीं आते।’ सो! जो गुज़र गया, कभी लौटता नहीं… यह कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल अथवा भविष्य, जो वर्तमान बन कर आता है… वह सदैव सत्य ही होगा। इसलिये हर पल को जी लो, सत्कर्म करो तथा अपनी ज़िंदगी को सार्थक बनाओ। यह आपकी सोच व नज़रिये पर निर्भर करता है कि आप विषम परिस्थितियों में कितने सम रहते हैं। सो! सकारात्मक सोच रखिए, अच्छा सोचिए और अच्छा कीजिए… उसका परिणाम भी शुभ व मंगलमय होगा, सर्वहिताय होगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 15 ☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट)

☆ किसलय की कलम से # 15 ☆

☆ मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट 

दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति संपन्न नहीं हो सकता। समय एवं परिस्थितियाँ नौकर-मालिक या राजा-रंक की दशा बदल देती हैं। भले हम कहें कि श्रम व समर्पण सुपरिणाम देते हैं लेकिन कभी-कभी विपरीत परिस्थितियाँ सब उलट-पुलट कर देती हैं। इसीलिए युगों-युगों से मजदूरों का अस्तित्व रहा है और आगे भी निरंतर रहेगा। प्रत्येक मालिक व उद्योगपतियों का उद्देश्य बड़े से और बड़ा होना होता है। मजदूरों का शोषण जानबूझकर तो किया ही जाता है, अनजाने में भी होता है। दुनिया में शोषित व शोषक वर्ग सदैव से रहे हैं। समय साक्षी है कि श्रम का मूल्यांकन तथा आदर हमेशा कम ही हुआ है। हम सभी जानते हैं कि एक मजदूर का हमारा समाज कितना आदर करता है। अपनी गृहस्थी व अपने परिवार हेतु एक मजदूर अपना घर, अपने परिवार के सभी सदस्यों को छोड़कर रोजी-रोटी के लिए दर-ब-दर भटकता है। ये हजारों-हजार किलोमीटर की दूरी केवल इसलिए नाप लेते हैं ताकि उनके परिवार को दो जून की रोटी नसीब हो सके। उनके बच्चे पढ़-लिख सकें, लेकिन ऐसा होता नहीं है। मजदूर जीवन भर अपना शरीर खपाता रहता है और अंत तक मजदूर का मजदूर ही रहता है। उनकी कमजोर आर्थिक परिस्थितियाँ न ही उन्हें संपन्न बना पातीं और न ही उनकी संतानें उच्च शिक्षा ग्रहण कर पातीं।

बदलती तकनीकि व इक्कीसवीं सदी के अंधाधुंध व्यवसायीकरण की प्रक्रिया ने आज जीवन के एक-एक क्षण की आरामदेही हेतु नवीनतम यांत्रिक सुविधायें उपलब्ध करा दी हैं। श्रम, दूरी, यातायात, मनोरंजन, दूरसंचार के साधनों सहित स्वच्छता, जल, हवा, ऊर्जा, ईंधन आदि हरेक जरूरतों की पूर्ति आज चुटकी बजाते ही पूर्ण हो जाती है। पहले सिर पर मटकी से पानी लाना, पैदल या बैलगाड़ी से आवागमन, चूल्हे जलाना, संदेश वाहको से संदेश भेजना, हल और हाथों से कृषि करना आदि सभी में मानवशक्ति का ही अधिक उपयोग होता था। इस तरह सभी के पास रोजगार, उद्योग-धंधे व मजदूरी हुआ करती थी, लेकिन धीरे-धीरे हर कार्य मशीनों द्वारा अच्छा व जल्दी होने लगा। उत्पादों, साधनों एवं सेवाओं में लागत भी कम पड़ने लगी। एक तरह से धीरे-धीरे मजदूरों का कार्य मशीनें करने लगीं। यहाँ तक भी ठीक था लेकिन जब मानवशक्ति का उपयोग आधे से भी कम हुआ, तब इस मजदूर वर्ग की मुसीबतें और बढ़ना शुरू हो गईं। अब मजदूर अपने परम्परागत हुनर को विवशता में त्यागकर अन्य कार्य करने हेतु बाध्य होने लगा। घर से हजारों किलोमीटर दूर जाने हेतु भी तैयार हो गया। कुछ बचे हुए लोगों ने अपने परम्परागत रोजगार-धंधे जैसे हैंडलूम, मिट्टी एवं धातुओं के बर्तन व विभिन्न सामग्री, हस्त निर्मित फर्नीचर आदि बनाकर आगे बढ़ना चाहा लेकिन इन सब में समय व परिश्रम अधिक लगने और लागत बढ़ने के कारण लोगों की अभिरुचि मशीन निर्मित वस्तुओं की ओर ज्यादा बढ़ती गई। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि इन कारोबारियों, हस्तशिल्पियों व कुशल कारीगरों की अनदेखी एक दिन इन लोगों का अस्तित्व ही समाप्त कर सकती है। सर्वविदित है कि मानवशक्ति का अधिक से अधिक उपयोग हो, इसीलिए हमारे राष्ट्रपिता गांधी जी ने हथकरघा निर्मित खादी के वस्त्रों पर जोर दिया था।

आज हमें बस थोड़ी सी उदारता व संतोष रखकर सहृदयतापूर्वक कुछ ही अधिक मूल्य देकर इनसे सामग्री खरीदना होगी। आपके द्वारा किये गए प्रयास न जाने कितने लोगों को मजदूरी का अवसर दे सकते हैं और इस बहाने हम मजदूरों और कारीगरों की कला का सम्मान भी कर पाएँगे। यही इन लोगों के श्रम का मूल्यांकन भी होगा। आज हम देख रहे हैं कि बड़ी-पापड़ और दोना-पत्तल से लेकर कपड़ों की धुलाई, सिलाई, अनाजों की पिसाई सब कुछ मशीनों से होने लगा है। अब तक इन धंधों में लगे मजदूरों को आखिर अन्य काम तो करने ही होंगे। काम न मिलने पर ये पलायन भी करेंगे। आज ऐसी ही परिस्थितियों के चलते हर शहरों में कुछ स्थान नियत हो गए हैं जहाँ सुबह-सुबह मजदूरों का हुजूम दिखाई देता है। एक अदद मजदूर की तलाश में आए व्यक्ति के चारों ओर काम मिलने की आस में मजदूर झुण्ड के रूप में उस व्यक्ति को घेर लेते हैं। आशय यह है कि अब यह भी निश्चित नहीं है कि यहाँ एकत्र सभी मजदूरों को उस दिन काम मिल ही जाए। सीधी और स्पष्ट बात यह है कि अब मजदूरी के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं। बावजूद इसके कभी-कभी बिना मजदूरी और पैसों के खाली हाथ घर वापस भी आना पड़ता है। घर में या तो फाके की स्थिति होती है अथवा बची खुची सामग्री से घरवाली पेट भरने लायक कुछ बना देती है और यदि ऐसा ही कुछ दिन और चला तो भूखे मरने की नौबत भी आ जाती है। आज भी यह सब होता है। हो रहा है। सरकारें चाहे जितने वायदे करें, प्रमाण दें, लेकिन सच्चाई तो यही है कि कल का मजदूर आज भी उतना ही मजबूर और भूखा है।

क्या कभी ऐसे आंकड़े जुटाए गए हैं कि सरकारी सहायता प्राप्त मजदूर की पाँच-दस साल बाद क्या स्थिति है। निःशुल्क आंगनवाड़ी एवं निःशुल्क शिक्षा के बावजूद मजदूरों के कितने प्रतिशत बच्चे स्नातक अथवा उच्च शिक्षित हो पाए हैं। आखिर हमारी योजनाएँ ऐसी अधूरी क्यों है? आखिर इतना सब करने के पश्चात भी हम गरीब या मजदूरों को वे सारी सुख-सुविधाएँ व शिक्षा देने में असफल क्यों हैं। सत्यता व कागजी बातों के अंतर को पाटने हेतु ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? वैसे भी हमारे देश में इस मजदूर वर्ग की हालत एक बड़ी समस्या से कम नहीं है। अधिकांश मजदूर व उनके परिवार आज भी नारकीय जीवन जीने हेतु बाध्य हैं। अभावग्रस्त मजदूर बस्तियों में आज भी बिजली-सड़क-पानी की संतोषजनक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। बस्तियाँ बजबजाती नालियों से भरी पड़ी रहती हैं। सारे वायदे व घोषणाएँ केवल चुनावी दौर में सुनाई देते हैं। फिर अगले पाँच साल तक सब कुछ वैसे का वैसा ही रहता है।

कुछ समय पूर्व तक ठीक नहीं पर काम चलाऊ तो था परंतु कोविड-19 के बढ़ते कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। किसी को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा। यह ऐसी विभीषिका है जो इसके पूर्व कभी देखी नहीं गई। विश्व के द्वितीय सबसे अधिक जनसंख्या वाले हमारे देश में अभी भी कोविड-19 महामारी लगातार बढ़ती ही जा रही है। खौफ इतना बढ़ा कि प्रायः सभी मजदूर अपने परिवार और अपने घर में ही पहुँच कर एक साथ जीना-मरना चाहते हैं। मजदूरों की घर वापसी न मालिक रोक पाए न सरकार। बिना पैसे के, बिना रुके, भूखे-प्यासे मजदूर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूरी तय कर एनकेन प्रकारेण अपने घरों तक पहुँच गए। घर की जमापूँजी घर चलाने में खर्च होने लगी। अब मजदूरी न के बराबर ही है। वापस आए मजदूर आखिर अपने गाँव अथवा समीप के शहरों में क्या और कितना करेंगे। लोगों के काम-धन्धों पर मंदी की मार पड़ रही है। निर्माण और अन्य ऐसे अन्य काम जिनमें मजदूरों की आवश्यकता होती है, लॉकडाउन के पश्चात रफ्तार नहीं पकड़ पा रहे हैं। हम उपभोग की वस्तुओं की बात करें तो जब माँग ही नहीं होगी तो उत्पादन क्यों किया जाएगा? उत्पादन अथवा काम न होने का तात्पर्य यह है कि मजदूरों के काम की छुट्टी। बिना काम किए जब मजदूरी ही नहीं मिलेगी तो क्या होगा इन बेचारों का। उद्योग, कारखाने एवं धंधे-व्यवसाय वालों ने मंदी के चलते अपने मजदूरों की छटनी शुरू कर दी है।

हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या पहले से ही है और अब कोरोना के कहर से बेरोजगारी का संकट और गहराने लगा है। यदि यही हाल रहा तो आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि बिना जमापूँजी वाले मजदूरों और उनके परिवार की क्या दशा होगी? आज मजदूरों पर बढ़ता बेरोजगारी का संकट इसी कोविड-19 जैसे हालात निर्मित न कर दे, इस पर दीर्घकालीन शासकीय योजनाएँ व नीतियों की अविलम्ब आवश्यकता है। आज मजदूर वर्ग में आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इनमें असंतोष व्याप्त नहीं है। आप मानें या न मानें कल की चिंता हर मजदूर व गरीब तबके को सता रही है। इन्हें शीघ्र अतिशीघ्र रोजगार, व्यवसाय अथवा धंधों में लगाने की महती आवश्यकता है, ताकि ये भविष्य की रोजी-रोटी के प्रति निश्चिंत हो सकें। वर्तमान में यह मजदूर वर्ग इतना टूट चुका है कि वह अपने व अपने परिवार के उदर-पोषण हेतु कुछ भी करने को आमादा हो सकता है। अनैतिक कार्यों व धंधों में संलिप्त हो सकता है। लूटमार, चोरी-डकैती जैसी वारदातें भी बढ़ सकती हैं। ऐसी कठिन व अराजक परिस्थितियाँ आने के पूर्व भविष्य की नजाकत को देखते हुए शासन का आगे आना बहुत जरूरी हो गया है, वहीं समाज के सभी सक्षम व्यक्तियों, धनाढ्य, उद्योगपतियों से भी अपेक्षा है कि वे अपने कर्मचारियों को इस विपदा की घड़ी में जितना बन पड़े अपनापन और आर्थिक सहयोग देने से पीछे न हटें। मजदूर व गरीबों के लिए जन सामान्य, संस्थाएँ व प्रशासन यथोचित मदद हेतु आगे आएँ, ताकि मानवता कलंकित होने से बच सके।

इस कठिन समय में स्वार्थ, कालाबाजारी, जमाखोरी, धर्म एवं संप्रदाय से ऊपर उठकर इन मजदूरों को रोजगार देने का प्रयास करें। इनकी यथायोग्य सहायता करें। इनके रोजगार, व्यवसाय आदि में मदद करें। आपका एक छोटा सा प्रयास, आपकी सलाह, आपका परोपकार एक मजदूर ही नहीं उसके पूरे परिवार की खुशहाली के द्वार खोल सकता है। इस तरह हम सब आज मजदूरों पर बढ़ती बेरोजगारी के संकट का समाधान कुछ हद तक तो कर ही सकते हैं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 61 ☆ तुम यहीं हो ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं परम आदरणीया माँ स्व डॉ गायत्री तिवारी जी  (27 दिसंबर 1947 – 8 सितम्बर 2015)को सस्नेह समर्पित एक भावप्रवण कविता  “तुम यहीं हो। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 61 – साहित्य निकुंज ☆

☆ तुम यहीं हो ☆

तुम मेरी यादों के

झरोखे में झाँकती

मुझे तुम निहारती

मै अतीत के उन पलों

में पहुंच जाती हूँ ।

 

तुम्हारा रोज मुझसे

बात करना,अपना

मन हल्का करना।

मैं खो जाती हूँ तुम्हारे

आँचल की छाँव में

जहां मिलता था

मुझे सुकून, मुझे चैन।

 

तुम्हारा प्यार, तुम्हारा

ममत्व अक्सर

ख्वाबों में भी आराम

देता है।

नींद में भी तुम्हारे

हाथों का स्पर्श

यकीन दिला जाता है कि

तुम हो मेरे ही आस पास।

 

मन में आज भी एक

प्रश्न चिन्ह उठता है

जिंदगी पूरी जिये

बिना तुम क्यों चली गई

और जाने कितने सवाल

छोड़ गई हम सब के लिए।

जो आज भी अनसुलझे है।

 

तुम गई नहीं हो

तुम हो

तिलिस्म के साए में

ऐसी माया है जिससे वशीभूत

होकर व्यक्ति उसके मोह जाल में

फँस जाता है।

माँ

हो मेरे आसपास

मेरे अस्तित्व को मिलता है अर्थ

नहीं है कुछ भी व्यर्थ।।

तुम मेरी यादों में ……

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 52 ☆ कभी खुद से भी सवाल कर लेना ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना “कभी खुद से भी सवाल कर लेना। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 52☆

☆ कभी खुद से भी सवाल कर लेना  ☆

 

कभी खुद से भी सवाल कर लेना

जरा उसका भी ख्याल कर लेना

 

गैरों पै उँगलियाँ उठाई बहुत

चार तुम्हारी तरफ,मलाल कर लेना

 

हैं दुनिया में परेशानियाँ बहुत

मुश्किलों में दिल खुशहाल कर लेना

 

खुदा के बाद है माँ-बाप का रुतवा

दिल से उनकी संभाल कर लेना

 

माफ कर देना सभी अज़ीज़ों को

फ़राख दिली से कमाल कर लेना

 

बनाया है इंसान वा दुनिया को

कर इबादत उसे निहाल कर लेना

 

लाख दुश्वारियाँ राहों में मगर

“संतोष” का इस्तेमाल कर लेना

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – मी….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “मी….!” )

☆ विजय साहित्य – मी….! ☆

मी….!

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..

परीचितांना अपरीचित आणि

अपरिचितांना परीचित वाटतोय मी.

अविश्वासात विश्वास आणि

निस्वार्थात स्वार्थ गोवतोय मी

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

पुस्तकातले कुटुंब, समाज

त्यांच्यातच रमतोय मी.

माणूस माणूस जोडलेला

पुन्हा पुन्हा वाचतोय मी

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

गणिताची आकडेमोड

आकडेवारीत विस्तारतोय मी

माझ्याच गरजा, नी जबाबदा-या

कार्य कारण भाव निस्तरतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

चालतोय मी , थांबतोय मी

माझ्यातल्या मीला शोधतोय मी

लिहितोय मी, वाचतोय मी

विस्तारीत जगणे , आवरतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

कुणाच्या जमेत , कुणाच्या खर्चात

क्षणा क्षणाला साचतोय मी

ऊन्हातला मी, सावलीतला मी

चक्रवाढ व्याजात नाचतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

चुकतोय मी , मुकतोय मी

संसार नावेत, डुलतोय मी

कधी काट्यात , कधी वाट्यात

जीवन बाजारात , भुलतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

कधी भूतकाळात तर कधी

वर्तमानात जगतोय मी

अनुभूती वेचताना थकलो तर

तुझ्याच अंतरात वसतोय मी.

हरवतोय मी… की गवसतोय मी..!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

 

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