हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 55 –कितना चढ़ा उधार ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  कितना चढ़ा उधार। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 55 ☆

☆  कितना चढ़ा उधार ☆  

 

एक अकेली नदी

उम्मीदें

इस पर टिकी हजार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

नहरों ने अधिकार समझ कर

आधा हिस्सा खींच लिया

स्वहित साधते उद्योगों ने

असीमित नीर उलीच लिया

दूर किनारे हुए

झांकती रेत, बीच मंझदार

 

सूरज औ’ बादल ने मिलकर

सूझबूझ से भरी तिजोरी

प्यासे कंठ धरा अकुलाती

कृषकों को भी राहत कोरी

मुरझाती फसलें,

खेतों में पड़ने लगी दरार

 

इतने हिस्से हुए नदी के

फिर भी जनहित में जिंदा है

उपकृत किए जा रही हमको

सचमुच ही हम शर्मिंदा हैं

कब उऋण होंगे

हम पर है कितना चढ़ा उधार

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

07/06/2020

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 57 – भूपतीवैभव वृत्त ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक आध्यात्मिक  एवं दार्शनिक कविता भूपतीवैभव वृत्त । सुश्री प्रभा जी की यह रचना वास्तव में  जन्म और पुनर्जन्म के मध्य विचरण करते ह्रदय की व्यथा कथा है।  पंढरपुर जाना कब संभव होगा यह तो उनके ही हाथों है किन्तु, विट्ठल की कृपा इस जीवन में सदैव बनी रहे यही अपेक्षा है। सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित  इस भावप्रवण रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 57 ☆

☆ भूपतीवैभव वृत्त  ☆

 

पाहिले कधी ना स्वप्न वेगळे काही

चौकटी  घराच्या  मुळी मोडल्या नाही

वाटले असे की एक सारिका व्हावे

पिंज-यात  राघूसंगे रुणझुण गावे

 

पण क्षणात ठिणगी चेतवून मज गेली

जगण्याला माझ्या नवी झळाळी आली

अवचितसे  आले  वाटेवरती कोणी

अन आयुष्याची झाली मंजुळ गाणी

 

नव्हताच कोणता सोस मला नटण्याचा

मी स्वतः स्वतःचा मार्ग एक जगण्याचा

मज कळले होते  नाते काय स्वतःशी

साक्षात काव्य ते होते हृदया पाशी

 

मी येथे आले या धरणीवर केव्हा

गत जन्माची मज ओळख पटली तेव्हा

ही तहान आहे युगायुगांची माझी

प्रत्येक जन्म हा एक कहाणी ताजी

 

अरे विठ्ठला  कसे यायचे पंढरपूरा

नको वाटते जिणेच सारे या घटकेला

तुझ्या कृपेची छाया राहो आयुष्यावर

नको कोणते आरोप झुटे दिन ढळल्यावर

 

पापभिरू मी सदा ईश्वरा तुलाच भ्याले

आणि विरागी वस्त्रच भगवे की पांघरले

कोणी माझे नव्हते येथे मी एकाकी

संकटकाळी तुला प्रार्थिले असेतसेही

 

अशी जराशी झुळूक आली आनंदाची

आणि वाटले जन्मभरीची हीच कमाई

भ्रमनिरास  होता व्यर्थच की सारे काही

दूर  पंढरी दूर दूर तो विठ्ठल राही

 

निष्क्रिय वाटे,नसे उत्साह का जगताना

विठुराया तुज शल्य कळेना माझे आता

भेटीस तुझ्या आतुरले मन येई नाथा

अस्तिकतेचा भरलेला घट माझा त्राता

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 36 – बापू के संस्मरण-10- मैं अछूत के चरण-रज ले लूंगा, पर… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण –  मैं अछूत के चरण-रज ले लूंगा, पर…”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 36 – बापू के संस्मरण – 10 – मैं अछूत के चरण-रज ले लूंगा, पर… ☆ 

जब गोलमेज परिषद् में भाग लेने के लिए गांधीजी इंग्लैंड गये तो देश-विदेश के अनेक संवाददाता उनके साथ थे। उनमें से बहुत-से संवाददाता जहाजी जीवन की घटनाओं पर नमक-मिर्च लगाकर प्रसारित करते थे। वे प्रार्थना के दृश्य तथा चर्खा कातने के चित्र देकर ही संतुष्ट नहीं होते थे। ऐसी-ऐसी कल्पनाएं भी करते थे! कि हंसी आ जाये।

उदाहरण के लिए एक संवाददाता ने एक ऐसी बिल्ली का आविष्कार किया था, जों प्रतिदिन गांधीजी के साथ दूध पीती थी। इन्हीं में एक संवाददाता थे श्री स्लोकोव ।

गांधीजी से अपनी यरवदा-जेल की मुलाकात का रोमांचकारी वर्णन प्रकाशित कर वह काफी प्रसिद्ध हो गये थे । इर्वनिंग स्टैडर्डं में गांधीजी की उदारता की प्रशंसा करते समय उन्होंने भी अनुभव किया कि बिना किसी स्पष्ट उदाहरण के यह विवरण अधूरा रह जायेगा। बस, उन्होंने अपनी कल्पना दौड़ाई और लिख डाला कि जब प्रिंस आँफ वेल्स भारत गये थे, तब गांधीजी ने उन्हें दंडवत किया था।

यह पढ़कर गांधीजी ने उन्हें अपने पास बुलाया, बोले. मि स्लोकोव आपसे तो मैं यह आशा करता था कि आप सही बातें जानते होंगे और सही बातें ही लिखेंगे,  परंतु आपने जो कुछ लिखा है, वह तो आपकी कल्पना-शक्ति को भी लांछित करनेवाला है। मैं भारतवर्ष के गरीब  और अछूत के सामने न केवल घुटने टेकना ही पसंद करुंगा, बल्कि उनकी चरण-रज भी ले लूंगा, क्योंकि उन्हें सदियों से पद दलित करने में मेरा भी भाग रहा हैं परंतु प्रिंस ऑफ़  आँफ वेल्स तो दूर मैं बादशाह तक को भी दंडवत नहीं करुंगा । वह एक महान सत्ता का प्रतिनिधि है।! एक हाथी भले ही मुझे कुचल दे परंतु मैं उसके सामने सिर न झुकाऊंगा परंतु अजाने में चींटी पर पैर रख देने के कारण उसको प्रणाम कर लूंगा।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 6 – रिश्तों की हवेली ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रिश्तों की हवेली

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 6 – रिश्तों की हवेली ☆

 

रिश्तों की बहुत बड़ी हवेली थी हमारी,

लोग हमेशा हमारे रिश्तों की हवेली की मिसाल दिया करते थे ||

 

बहुत गर्व था हमें हमारे रिश्तों की हवेली पर,

रोशन रहती थी हमेशा हवेली, लोग बुजुर्गों को शीश नवाते थे ||

 

वक्त गुजरता गया रिश्ते धूमिल होते गए,

नजर ऐसी लगी की एक दिन टुकड़े-टुकड़े होकर रिश्तें बिखर गए ||

 

रिश्तों की हवेली जमींदोज होते ही कुछ रिश्ते दब गए,

कुछ रिश्ते छिटके तो कुछ बिखर गए, कुछ को लोग पैरों तले रौंध गए ||

 

कुछ रिश्ते मुरझा गए तो कुछ पतझड़ में पत्तों से झड़ गए,

जन्म-मरण तक सिमट गए रिश्ते, यह सब देख रिश्ते खुद रोने लगे ||

 

रिश्ते आज भी जीवित है मगर बिखरे-बिखरे से,

महक रिश्तों की उड़ गयी, लोग मंद-मंद मुस्करा तमाशा देखते रहे ||

 

जिंदगी गुजरती गयी रिश्ते फिसलते गए, काश !

कोई तो संभाले, देखा है सब को चुपके-चुपके एक दूसरे के लिए रोते हुए ||

 

कोई तो रिश्तों को छू भर ले, बहुत मुलायम है ये रिश्ते,

कोई एक हाथ बढ़ाएगा यकीनन सब बाँहों में सिमट जायेंगे तड़पते हुए ||

 

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 35 ☆ कृष्णा के दोहे ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है शब्द आधारित कृष्णा के दोहे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 35 ☆

☆ कृष्णा के दोहे ☆

 

साधना

सत्य प्रेम की  साधना, ईश्वर को स्वीकार

प्रभु चरणों में ध्यान धर, हो जाए उद्धार

 

उत्थान

सच्चाई पर जो चले, पाए जग में मान

सत्य बिना होता नहीं, जीवन का उत्थान

 

राष्ट्रप्रेम

राष्ट्रप्रेम की भावना, हो मन में भरपूर

जियो देश हित के लिए, बनकर सच्चा शूर

 

बलिदान

वीर सपूतों ने दिया, प्राणों का बलिदान

सीमा पर लड़ते रहे, जब तक तन में जान

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य – मी सरपंच झाले – ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

अब आप सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी के साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य को प्रत्येक बुधवार आत्मसात कर सकेंगे । आज प्रस्तुत है आपकी एक  सार्थक कविता  मी सरपंच झाले .

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मीनाक्षी साहित्य – मी सरपंच झाले – ☆

 

डोईवर  पदर,

खाली  नदर,

सही  भाद्दर,

अशी  मी  निवडून आले,

राखीव कोट्यातून सरपंच झाले.

 

तू हुबा रहायचं

हात  जोडायच,

जादा न्हाई बोलाय,

असं मला धनी म्हनाले,

अन्  मी सरपंच झाले. ।।

 

आम्ही करतो परचार ,

अजब कारभार,

तुला न्हाई  जमनार,

मालकांचे  बोल  मी आयकले

नि गुमान हुबी मी रहायले  ।।

 

खुर्चीवर मी,

शोभेची रानी,

मागे घरधनी,

हुकूम झेलत रहायले।

नि नावाची सरपंच झाले।

 

चुलीतली अक्कल,

लडवुन शक्कल,

देऊन  टक्कर,

डावपेच शिकुन घेतले

नि शेराला सव्वाशेर ठरले ।।

 

पर एके  दिवशी,

फुडल्याच वर्षी,

करून  सरशी

रावांना मागे मी सारले

नि सोताच कामाला लागले।

 

आता मी शानी ,

हुकमाची  रानी,

गावाची वयनी,

गावाला नंबरात आनले

नि आदर्श सरपंच  झाले  ।।

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372, 8806955070

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 43 ☆ मैं जुगनू बन गई हूँ  ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “मैं जुगनू बन गई हूँ ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 43 ☆

☆ मैं जुगनू बन गई हूँ  ☆

 

अपने चारों ओर रौशनी के लिए

एक दिया मैंने जलाया,

उसमें कई रात जागते हुए

तेल डाला,

हवाओं से वो बुझ न जाए

यह सोच अपने हाथों से हवाओं को रोका-

पर फिर भी

नहीं बचा पायी उसे

तेज आंधी से

और वो बुझ गया…

 

सूरज से रौशनी उधार मांगी,

पर कहाँ टिकती है उधारी की चीज़?

चाँद से कहा

वो मुझे जगमगाए

पर मुझपर अमावस छा गयी

और सितारों की रौशनी में

वो दम न था

कि मुझे रौशन कर सके…

 

जब हर तरफ से हार गयी

तो मैंने अपनी रूह को

जुगनू बना दिया

और अब मुझे कभी

रौशनी की ज़रूरत नहीं होती…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 61 ☆ आलेख – शब्द एक, भाव अनेक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर  समसामयिक एवं विचारणीय आलेख  “शब्द एक, भाव अनेक। श्री विवेक जी  इस आलेख के माध्यम से भारतीय सशस्त्र सेनाओं के जज्बे को सलाम करते हैं। इस सार्थक आलेख के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्या # 61 ☆

☆ आलेख – शब्द एक, भाव अनेक ☆

जब अलग अलग रचनाकार एक ही शब्द पर कलम चलाते हैं तो अपने अपने परिवेश, अपने अनुभवों, अपनी भाषाई क्षमता के अनुरूप सर्वथा भिन्न रचनायें उपजती हैं.व्यंग्य में तो जुगलबंदी का इतिहास लतीफ घोंघी और ईश्वर जी के नाम है, जिसमें एक ही विषय पर दोनो सुप्रसिद्ध लेखको ने व्यंग्य लिखे. फिर इस परम्परा को अनूप शुक्ल ने फेसबुक के जरिये पुनर्जीवित किया, हर हफ्ते एक ही विषय पर अनेक व्यंग्यकार लिखते थे जिन्हें समाहित कर फेसबुक पर लगाया जाता रहा. स्वाभाविक है एक ही टाइटिल होते हुये भी सभी व्यंग्य लेख बहुत भिन्न होते थे.कविता में भी अनेक ग्रुप्स व संस्थाओ में एक ही विषय पर समस्या पूर्ति की पुरानी परम्परा मिलती है. इसी तरह, एक ही भाव को अलग अलग विधा के जरिये अभिव्यक्त करने के प्रयोग भी मैने स्वयं किये हैं. उसी भाव पर अमिधा में निबंध, कविता, व्यंग्य, लघुकथा, नाटक तक लिखे.यह साहित्यिक अभिव्यक्ति का अलग आनंद है.

सैनिक शब्द पर भी खूब लिखा गया है, यह साहित्यकारो की हमारे सैनिको के साथ प्रतिबद्धता का परिचायक भी है. भारतीय सेना विश्व की श्रेष्ठतम सेनाओ में से एक है, क्योकि सेना की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई हमारे सैनिक वीरता के प्रतीक हैं. उनमें देश प्रेम के लिये आत्मोत्सर्ग का जज्बा है. उन्हें मालूम है कि उनके पीछे सारा देश खड़ा है. जब वे रात दिन अपने काम से  थककर कुछ घण्टे सोते हैं तो वे अपनी मां की, पत्नी या प्रेमिका के स्मृति आंचल में विश्राम करते हैं, यही कारण है कि हमारे सैनिको के चेहरों पर वे स्वाभाविक भाव परिलक्षित होते हैं. इसके विपरीत चीनी सैनिको के कैम्प से रबर की आदम कद गुड़िया के पुतले बरामद हुये वे इन रबर की गुड़िया से लिपटकर सोते हैं. शायद इसीलिये चीनी सैनिको के चेहरे भाव हीन, संवेदना हीन दिखते हैं. हमने देखा है कि उनकी सरकार चीन के मृत सैनिको के नाम तक नही लेती. वहां सैनिको का वह राष्ट्रीय सम्मान नही है, जो भारतीय सैनिको को प्राप्त है. मैं एक बार किसी विदेशी एयरपोर्ट पर था,  सैनिको का एक दल वहां से ट्राँजिट में था, मैने देखा कि सामान्य नागरिको ने खड़े होकर, तालियां बजाकर सैनिक दल का अभिवादन किया. वर्दी को यह सम्मान सैनिको का मनोबल बहुगुणित कर देता है.

सैनिक पर खूब रचनायें हुई है हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियां हैं जवान हिंद के अडिग रहो डटे,

न जब तलक निशान शत्रु का हटे,

हज़ार शीश एक ठौर पर कटे,

ज़मीन रक्त-रुंड-मुंड से पटे,

तजो न सूचिकाग्र भूमि-भाग भी।

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की कविता का अंश है …

तुम पर है ना आज देश को तुम पर हमें गुमान

मेरे वतन के फौजियों जांबाज नौजवान

सुनकर पुकार देश की तुम साथ चल पड़े

दुश्मन की राह रोकने तुम काल बन खड़े

तुम ने फिजा में एक नई जान डाल दी

तकदीर देश की नए सांचे में ढ़ाल दी

अनेक फिल्मो में सैनिको पर गीत सम्मलित किये गये हैं. प्रायः सभी बड़े कवियों ने कभी न कभी सैनिको पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा है. जो हिन्दी की थाथी है. हर रचना व रचनाकार अपने आप में  महत्वपूर्ण है. देश के सैनिको के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुये अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं. हमारे सैनिक  राष्ट्र की रक्षा में  अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. सैनिक होना केवल आजीविका उपार्जन नही होता. सैनिक एक संकल्प, एक समर्पण, अनुशासन के अनुष्ठान का  वर्दीधारी बिम्ब होता है. हम सब भी अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के किसी हिस्से में कही न कही किंचित भूमिका में छोटे बड़े सैनिक होते हैं. कोरोना में हमारे शरीर के रोग प्रतिरोधक  अवयव वायरस के विरुद्ध शरीर के सैनिक की भूमिका में सक्रिय हैं.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 56 – मन के द्वार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक  अतिसुन्दर भावनात्मक एवं प्रेरक लघुकथा  “मन के द्वार । लॉक डाउन एवं मन के द्वार में अद्भुत सामंजस्य बन पड़ा है। हमारे सामाजिक जीवन के साथ ही साहित्य पर भी इस महामारी एवं लॉक डाउन का प्रभाव स्वाभाविक तौर पर पड़ रहा है। इस सर्वोत्कृष्ट  शब्द शिल्प के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 56 ☆

☆ मन के द्वार

आज सुबह अजय अनमना सा उठा। उसे बार-बार अपने दोस्त वेद प्रकाश की याद आ रही थी। कुछ बातों के चलते दोनों पड़ोसियों में कहा सुनी हो जाने के कारण बातचीत बंद हो गई  थी । यहां तक कि बच्चों में भी तालमेल खत्म सा हो गया था। दोनों की पक्की दोस्ती के कारण मोहल्ले वाले उन्हें ‘अभेद’ नाम से पुकारते थे, क्योंकि दोनों ने कभी कोई बात एक दूसरे से छुपा कर नहीं रख रखी थी। इतना गहरा संबंध होने के बाद भी कहते हैं….. नजर लग गई दोस्ती को क्या करें??

वेद प्रकाश की बिटिया को आज लड़के वाले देखने आ रहे थे। वेद और भी परेशान हो रहा था। इस मौके पर उसे अपने दोस्त की सख्त जरूरत और याद आ रही थी। लाकडाउन की वजह से सभी का आना जाना बंद हो गया था। कोई किसी के यहां नहीं आ जा रहे थे। ऐसे में बिटिया की शादी की बात को सुनकर अजय मन ही मन खुश हो गया, और सोचने लगा मेहमान आ जाए…. और मैं अब जल्दी तैयार हो जाता हूं।  पत्नी ने भी हंस कर कहा….. मुझे भी ऐसा ही कुछ लग रहा है।

ठीक समय पर मेहमानों की गाड़ी दरवाजे पर आकर रुकी। वेद प्रकाश आवभगत में जुट  गया। दालान में आकर सभी बैठे ही थे और बिटिया सज संवर  कर चाय लेकर मेहमानों के बीच आ रही थी, ठीक उसी समय अजय सपरिवार मुंह में मास्क लगाए…. आकर दरवाजे पर खड़ा होकर बोला… माफ कीजिएगा यह लॉकडाउन भी बहुत ही परेशान कर रखा है सभी का आना जाना बंद कर दिया है। वरना हमारी बिटिया को क्या??? आप को अकेले-अकेले ले जाना होता। बस लॉकडाउन खुल जाए और हम धूमधाम से बिटिया को विदा करेंगे। इतना सुनना था कि वेद प्रकाश दौड़कर आया और जोर से बोला… लॉक डाउन खुल गया, लाकडाउन खुल गया समझो दोस्त लाकडाउन सदा सदा के लिए खुल गया। बहुत तरसा रहा था। अब नहीं होगा ऐसा कभी लाकडाउन।

कभी ना आए जीवन में ऐसा वक्त की लाकडाउन होना पड़े। दोनों एक दूसरे की बात को समझ मुस्कुरा दिए। मेहमान को लगा शायद विषम परिस्थितियों पर बात हो रही है, परंतु दोनों दोस्त हाथ तो क्या.. गले मिलकर लॉकडाउन को सदा सदा के लिए विदा कर चुके और मन के द्वार खुल चुके थे। बिटिया भी मुस्कराते हुए चाय की प्याली आगे बढ़ाने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 56 ☆ गुलामगिरी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “गुलामगिरी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 56 ☆

☆ गुलामगिरी ☆

 

वस्तीच्या ठिकाणी पोट भरत नाही म्हटल्यावर

पंखातील बळ एकवटून

लांबवर अन्न पाण्यासाठी भटकण्याची आम्हा पाखरांची सवयं

स्वतःच पोटभरून

पिल्लांसाठीचा चारा देखील हाती लागतो.

फक्त उडण्याची जिद्द हवी.

ज्यानं चोच दिली तो चारा देणारच

हा विश्वास हवा.

 

असेच एके दिवशी उडत असतांना

जवळच उष्टावलेल्या पत्रावळ्या, नजरेस पडल्या

उष्ट्या पत्रावळ्यांवर ताव मारून

तृप्त मनाने, लवकरच रानात पोहोचलो त्या दिवसापासून आमचे कष्ट संपले…

गाव सधन होतं

रोजच कुठे ना कुठे

भोजनाचे सोहळे होत होते

आम्ही उष्ट्या पत्रावळ्यांवर ताव मारत होतो

जीवन खूप मजेत चाललं होतं…

 

पण एकेवर्षी दुष्काळ पडला

अन्ना पाण्यासाठी लोक

गाव सोडून जाऊ लागले

आता आमचीही उपासमार सुरू झाली

आता पहिल्या सारखी दूरवर उडण्याची ताकद

पंखांत राहिली नव्हती

उष्ट्या पत्रावळीसाठी स्विकारलेली गुलामगिरी

आता जीवघेणी ठरत होती

आळसावलेले पंख

आकाश तोलू शकतील का ?

या शंकेनेच जीव फडफडत होता

जिद्द सोडून चालणार नाही

मेहनती पंखांत पुन्हा विश्वासाचं वारं भरावं लागेल…

आणि आकाशात उडावंच लागेल…!

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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