हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 62 – भीगे रिश्ते ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “भीगे रिश्ते।  इस सार्थक  एवं  संवेदनशील लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 62 ☆

☆ लघुकथा – भीगे रिश्ते

 विरोचनी बहुत प्यार करती थी अपने भैया से। न मां जाई और नहीं राखी का बंधन। परंतु जब से गांव से विवाह होकर आई थी, पति के खास दोस्त प्रधान से उसका भाई बहन का रिश्ता बन चुका था।

प्रधान पति देव का एक मात्र खास दोस्त पहली बार जब वह विरोचनी के घर आया।  वह अनायास ही वह देखती रह गई।

क्योंकि वही कद काठी वही मिलती-जुलती सूरत। जैसे उसका अपना भाई गांव में है। विरोचनी ने उसे भैया… कहा और बोली….. शायद सबसे दूर अपने गांव से यहां मुझे आपके रूप में  भाई मिल गया।

बहुत मित्रता थी श्रीकांत और प्रधान में। एक साथ आना – जाना। हमेशा दुख – सुख में शामिल होना। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि पति- पत्नी के झगड़ों में भी प्रधान ही निपटारा करता था।

श्रीकांत भी अपने दोहरे रिश्ते से खुश था, क्योंकि विरोचनी को बहुत प्यार करता था। उसे लगता था उसे अपने भाई के रूप में उसका दोस्त मिल गया है।

प्रधान भैया अपने पारिवारिक कारणों की वजह से विवाह नहीं किए थे। और ना ही करना चाहते थे।

दोनों दोस्तों में बहुत ज्यादा प्यार था। सप्ताह में एक दिन ऑफिस से प्रधान विरोचनी और उनके दोनों छोटे बच्चों के लिए कुछ ना कुछ जरूर लेकर आता था। कभी बारिश में भीग जाए तो श्रीकांत के कपड़े पहन कर चला जाता था। कभी जरूरत पड़े तो श्रीकांत प्रधान के घर पर ही खाना खाकर आ जाता था।

ऑफिस में कुछ दिनों से लगातार उठा-पटक चल रही थी। किसी बात को लेकर बड़े अधिकारी के बीच श्रीकांत की अच्छी खासी बहस चल पड़ी। परंतु प्रधान देखता रहा कुछ भी नहीं बोला। इस बात से श्रीकांत थोड़ा चिढ़ गया और और दोस्तों के बीच मनमुटाव हो गया।

आना-जाना बंद, बातचीत बिल्कुल बंद। विरोचनी कभी अपने पति से पूछती…. कि भैया क्यों नहीं आ रहे हैं?? वह कह देता…. आजकल ऑफिस में काम बहुत हो गया है शायद इसलिए समय नहीं निकाल पा रहा।

एक दिन अचानक अस्पताल में प्रधान और श्रीकांत – विरोचनी की मुलाकात हो गई। बहन ने भैया को देखते ही कहा…. आप घर क्यों नहीं आ रहे हैं? घर आइए मैं जल्दी में हूँ, बाकी बातें घर पर होंगी। परंतु दोस्तों के बीच कोई संवाद नहीं था।

एक दिन बहुत जोरों की बारिश हो रही थी। सर से पांव तक प्रधान भैया भीगे हुए घर आए। विरोचनी ने देखा खुश होकर दरवाजे से बोली…. अंदर आइए परंतु प्रधान ने बहाना बनाया और बोला… मैं बारिश में बहुत भीगा हुआ हूं। फर्श गीला खराब हो जायेगा। यह बच्चों का सामान और एक पॉलिथीन में कुछ खाने का पैकेट लेकर दे दिया और जाने लगे।

विरोचनी ने उसके हाव-भाव को देखकर कहा… आज सचमुच आप बारिश से भीगे हैं। अभी तक आप रिश्ते से भीगे थे।

पलट कर वापस जाने की प्रधान की हिम्मत नहीं हुई। बरसाती पहने पहने ही वह अंदर आकर कुर्सी पर बैठ गया और कह उठा… मुझे माफ करना बहन। कमरे के अंदर श्रीकांत पेपर पढ़ रहा था। आवाज सुन बाहर आ गया और बोला.. दोस्त भीगे फर्क तो अभी सूख जाएंगे।और साफ भी हो जायेगा। परंतु अभी तक जो मन सूख रहा था उसे तुमने फिर से खींचकर हरा-भरा गिला कर दिया।

विरोचनी को कुछ समझ नहीं आया। श्रीकांत ने ठहाके लगाते हुए कहा.. भैया आए हैं गरमा गरम पकोड़े और चाय का इंतजाम करो। अभी लाई.. और फिर हँसी गूँज उठी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 62 ☆ एकवार पंखावरुनी… फिरो तुझा हात ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता  “एकवार पंखावरुनी… फिरो तुझा हात ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 62 ☆

☆ एकवार पंखावरुनी… फिरो तुझा हात

(या गाण्याची समछंदी रचना…)

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

उगा तुझ्यासाठी झुरलो

उगा तुझ्यासाठी झुरलो

नाही मी माझा उरलो

नाही मी माझा उरलो

येऊन जीवनामध्ये, केला तू घात, केला तू घात

 

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

रोज माळला मी गजरा, कशा लागल्या या नजरा

रोज माळला मी गजरा, कशा लागल्या या नजरा

ठेवुनी निखारे गेली, याच ओंजळीत, याच ओंजळीत

 

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

तूच स्वप्न माझे राणी तुझ्याविना नाही कोणी,

नाही कोणी

तूच स्वप्न माझे राणी तुझ्याविना नाही कोणी,

नाही कोणी

तुझ्यापुढे माझा देह, आहे नाशवंत, आहे नाशवंत

 

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

कुठे डाव कळला काळा, माझ्याशी केली शाळा,

कुठे डाव कळला काळा, माझ्याशी केली शाळा,

आडकली नाव माझी, आहे भोवऱ्यात, आहे भोवऱ्यात

 

आजकाल सोबत त्याच्या फिरे रुबाबात

होउनी संन्यासी मी जाऊ का वनात, जाऊ का वनात

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

फूल अधर पर खिल गए, लिया तुम्हारा नाम।

मन मीरा – सा हो गया, आंख हुई घनश्याम।।

 

शब्दों के संबंध का ज्ञात किसे इतिहास ।

तृष्णा कैसे  ‘मृग ‘ बनी, दृग कैसे आकाश।।

 

गिर कर उनकी नजर से, हमको आया चेत।

डूब गए मझधार में, अपनी नाव समेत।।

 

हृदय विकल है तो रह, इसमें किसका दोष।

भिखमंगो के वास्ते, क्या राजा का कोष।।

 

देखा है जब जब तुम्हें, दिखा नया ही रूप ।

कभी दहकती चांदनी, कभी महकती धूप।।

 

पैर रखा है द्वार पर, पल्ला थामें पीठ ।

कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ।।

 

मानव मन यदि खुद सके, मिलें बहुत अवशेष ।

दरस परस छवि भंगिमा, रहती सदा अशेष।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #64 ☆ भगवद्गीता अति रमणम् ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक गीत भगवद्गीता अति रमणम्।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #64 ☆

☆ भगवद्गीता अति रमणम् ☆

 

मंदम् मंदम् अधरम् मंदम्

स्मित पराग सुवासित मंदम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

विरचित व्यासा लिखिता गणेश:

अमृतवाणी अति मधुरम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

मनसा सततम् स्मरणीयम्

वचसा सततम् वदनीयम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

अतीव सरला मधुर मंजुला

अमृतवाणी अति मधुरम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

विश्व वंदिता भगवद्गीता

नीति रीति भवतु साधकम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

सगुणाकारम् अगुणाकारम्

भक्ति ज्ञान कर्म विज्ञानम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

भजंति एते भजंतु देवम्

करतल फलमिव कुर्वाणम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 14 – गुमशुदा कोई …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “गुमशुदा  कोई ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 14 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ गुमशुदा  कोई ….☆

जून की

पीली महकती

यह सुबह

 

गंध से भीगे

करोंदों की

उमर पर

तरस खाती

सी हवा लगती

मगर पर

 

उभर आती

है हरी

गीली सतह

 

बाँह पर रखे

हुये सिर

पड़ी कल से

ऊँघती है

स्मृति में जो

अतल -तल सी

 

स्वप्न में

कोई चुनिंदा

सी बजह

 

इधर करवट

लिये धूमिल

है निबौरी

पान की मुँह

में दबाये

सी गिलौरी

 

गुमशुदा कोई

गिलहरी

की तरह

 

© राघवेन्द्र तिवारी

22-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 61 ☆ व्यंग्य – एक रुपैया बारह आना ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का एक समसामयिक व्यंग्य एक रुपैया बारह आना। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 61

☆ व्यंग्य – एक रुपैया बारह आना ☆ 

जब से महाकोर्ट में एक रुपए जुर्माना हुआ,तब से एक रुपए इतना भाव खा रहा है कि उसके भाव ही नहीं मिलते। जिनके पास एक रुपए का नया नोट है वो नोट दिखाने में नखरे पेल रहे हैं, एक रुपए का नोट दिखाने का दस रुपए ले रहे हैं। आपको पढ़ने में आश्चर्यजनक लगेगा कि बहुत पहले एक डालर एक रुपए का होता था। पहले कोई नहीं जानता था कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी हो जाएगा। रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी हो गई होती। पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था, तभी तो हर गली मुहल्ले के रेडियो में एक ही गाना बजता रहता था। ” एक रुपैया बारह आना,”

तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजब हो गया, बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि साहब का सीना 56 इंच का हुआ, उसी दिन से टंगड़ी मार कर रुपये को गिराने का चक्कर चला दिया। डालर को पहले से पता चल जाता है कि साहब का अहंकार का मीटर उछाल पर है। जैसे ही भाषण में लटके झटके आये और हर बात पर सत्तर साल का जिक्र आया,  भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटक देता है।

बाजार में हर चीज पर एम आर पी लिख कर कीमत तय कर दी जाती है एक रुपये में कभी एम आर पी लिखा नहीं जाता, क्योंकि इसमें गवर्नर के हस्ताक्षर नहीं होते। शादी विवाह के मौके पर एकरुपए की गड्डी ब्लैक में बिकती थी तो डालर को बड़ा बुरा लगता था। हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का रूपये खाने का शौक है और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम है ,इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  चाहे जब रुपये को पटक कर चारों खाने चित्त कर देता है।और भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कहता है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

एक रुपए का जुर्माना भरने वाला बहुत परेशान है माथे पर हाथ टिकाए सोच रहा है अजीब बात है सरकार कह रही है कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ और पुरानी सरकार की लकवाग्रस्त नीतियों से रुपये की कीमत गिरी है। अब जब छै साल से विकास ही विकास हो रहा है और अच्छे दिन का डंका बज रहा है तो रुपया और तेजी से क्यों गिर रहा है और चीन चाहे जब दम दे रहा है।

रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से एक रुपए वाला नोट चिंतित रहता है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में सरकार द्वारा जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 18 ☆ विचार ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “विचार”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 18 ☆ 

☆ विचार ☆

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार ही हर पतझड़ में बहार, विचार ही हर यौवन का श्रृंगार।

विचार ही तूफ़ान में मंझधार, विचार ही करते हैं चमत्कार।

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार मिटाते हैं ‌‍अन्धकार।

विचार जलाते हैं, ज्ञान की ज्योति अपारI

 

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार करते हैं इस जीवन सागर से पार।

विचार मिटाते हैं हमारे जीवन में विकार।

विचार हर संगीत का राग मल्हार।

विचार हर मूर्ति का आकार।

विचार देता है, अँगुलीमाल को वाल्मीकि सा संस्कार ।

 

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार दिलाता है हर लड़की को लक्ष्मी बाई का साहस।

विचार कराता है लाल बहादुर से नदियाँ पार।

विचार कराता है गाँधी से बापू तक का सफर।

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार कितने ही इतिहास बदल चुका है।

 

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार कितने ही पहाड़ हिला चुका है।

विचार कितने ही पत्थरों से आग निकाल चुका है।

विचार कितने लोगो को चाँद पर भेज चुका है।

विचार कितनी पीढ़ियाँ बदल चुका है और कितनी बदलेगा।

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #7 ☆ तर्पण ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक रचना  “तर्पण”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #7 ☆ 

☆ तर्पण ☆ 

पति-पत्नी ने पितृ मोक्ष अमावस्या के दिन प्रण किया

दोनों ने सामूहिक निर्णय लिया

कि पुरे विधि-विधान से

पूजा करेंगे

पूर्वजों को अन्न खिलाने

के बाद ही

मुंह में अन्न का दाना धरेंगे।

स्वर्गीय माता पिता के

छाया चित्र को माल्यार्पण किया

पंडित से पूजा करवाकर

उसे दान दिया

पंच पकवानो भरी थाली

रखी छत पर जाकर

आसमान से दो काले

कौए बैठे आकर

कौओं ने अन्न के दाने को

नहीं छुआ।

दोनों पति-पत्नी

अन्न ग्रहण करने की

मांगने लगे दुआ ।

लंबे समय के बाद भी स्थिती में

कुछ परिवर्तन ना हुआ।

कौए अड़े हुए थे

उन्होंने अन्न को नहीं छुआ।

पत्नी भूख से व्याकुल होकर बोली-

जीते जी तुम्हारे माता-पिता ने

मुझे चैन से जीने नहीं दिया

अब मरकर भी तड़पा रहे हैं।

सुबह से मैंने पानी तक नहीं पिया

तभी कौए ने मुंह खोला

कांव कांव करते हुए बोला

हम जीते जी

अन्न के दाने दाने को तरसे हैं

मरने बाद हम पर

यह पंच पकवान क्यों बरसे हैं।

दोनों आकाश में उड़ते उड़ते बोले

बेटा, जीते जी हमको कभी

तृप्ति नहीं मिली है

तो अब क्या मिलेगी ?

तुम अब कितना भी प्रपंच करलो

अब तुम्हारे हाथों

हमें कभी मुक्ति नहीं मिलेगी ?

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 13 ☆ प्रेम कविता… प्रेमाची ओढ… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी)  मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “प्रेम कविता… प्रेमाची ओढ… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 13 ☆ 

☆ प्रेम कविता… प्रेमाची ओढ… ☆

 

प्रेमाची ओढ…

निर्मळ असावी

सोज्वळ उमटावी…१

 

प्रेमाची ओढ…

तोडणारी नसावी

जोडणारी असावी…२

 

प्रेमाची ओढ…

मन एक व्हावे

मन न दुखवावे… ३

 

प्रेमाची ओढ…

वाढत वाढत जावी

मनातील घृणा मिटावी… ४

 

प्रेमाची ओढ…

असतेच हृदयस्थ

तिथे प्रेमाचेच प्रस्थ… ५

 

प्रेमाची ओढ…

न कळत होते

मग सवय बनते… ६

 

प्रेमाची ओढ…

मला पण आहे

भार मी सतत वाहे… ७

 

प्रेमाची ओढ…

सतत मी जोपासली

पुष्टी मीच मला दिली… ८

 

प्रेमाची ओढ…

जसे चविष्ट व्यंजन

मंदिरातील पवित्र भजन… ९

 

कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 63 ☆ व्यंग्य – सेतु का निर्माण फिर फिर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर समसामयिक विषय पर व्यंग्य  ‘सेतु का निर्माण फिर फि’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से हाल ही में टूटे हुए पुलों के निर्माण के लिए जिम्मेवार भ्रष्ट लोगों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है साथ ही एक आम ईमानदारआदमी की मनोदशा का सार्थक चित्रण भी किया है। इस  सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 63 ☆

☆ व्यंग्य – सेतु का निर्माण फिर फिर

आठ साल में दो सौ साठ करोड़ की लागत से बना पुल उद्घाटन के उन्तीसवें दिन काल-कवलित हो गया. एक दो दिन हल्ला-गुल्ला मचा, फिर सब अपने अपने काम में लग गये. कारण? सबको पता है कि आजकल पुल गिरने के लिए ही बनते हैं. कोई लाल किला थोड़इ है जो चार सौ साल तक खड़ा रहे, या कुतुबमीनार जो सात सौ साल तक हमें मुँह चिढ़ाती रहे. अंग्रेजों के ज़माने के भी कई पुल सैकड़ों साल से बेशर्मी से खड़े हैं. हमारा पुल एक महीना चल गया, यह क्या कम फ़ख्र की बात है? कोई जन-हानि तो नहीं हुई न? इसके पहले भागलपुर का पुल तो उद्घाटन से पहले ही दम तोड़ गया था. पुराने ज़माने की टेक्नोलॉजी पिछड़ी थी, हमारी टेक्नोलॉजी एडवांस्ड है. इसीलिए ये उपलब्धियाँ हैं. लोग कहते हैं कि पुराने ज़माने में भी भ्रष्टाचार था, तो ये पुरानी इमारतें गिरती क्यों नहीं हैं भाई? हमारे कर-कमलों से निर्मित पुल ही क्यों छुई-मुई बने हुए हैं?

पुल का मुआयना करने के लिए मंत्री जी आये हैं. पेशानी पर शिकन नहीं, उन्नत माथा, तना हुआ वक्ष. उन्हें देखकर वहाँ इकट्ठी भीड़ में से कुछ शिकायत की आवाज़ें उठती हैं. मंत्री जी एक मिनट सुनते हैं, फिर हाथ ऊपर उठाते हैं. उधर सन्नाटा हो जाता है. मंत्री जी किंचित क्रोध से कहते हैं, ‘कौन अफवाह उड़ाता है कि पुल टूट गया है? वो सामने पूरा पुल खड़ा है कि नहीं? अलबत्ता ‘अप्रोच रोड’ टूट गया है तो क्या कीजिएगा? जब हजारों क्यूसेक पानी आएगा तो रोड कैसे टिकेगा? पुल और अप्रोच रोड एक ही होता है क्या?’

आगे कहते हैं, ‘रोड टूटने से हम भी दुखी हैं, लेकिन प्राकृतिक विपदा को तो झेलना ही पड़ेगा न. ये पुल बनाने वाली कंपनी के इंजीनियर खड़े हैं. बेचारे कितने दुखी हैं. कंपनी की रेपुटेशन का सवाल है. ब्लैकलिस्ट होने का डर है.

लेकिन जो लोग कहते हैं कि ढाई सौ करोड़ पानी में चला गया वे झूठे हैं. अरे भई, आठ साल काम चला तो पैसा मज़दूर को मिला, ठेकेदार इंजीनियर को मिला, ईंट पत्थर सीमेंट लोहा सप्लाई करने वालों को मिला. पानी में कैसे गया?थोड़ा सा गड़बड़ हो गया तो सुधार दिया जाएगा. जब आठ साल पुल के बिना काम चल गया तो महीना दो महीना में कौन सी मुसीबत टूटने वाली है?’

थोड़ा रुककर मंत्री जी कहते हैं, ‘आप लोग थोड़ा समझिए. सौ साल पुराने जमाने में मत रहिए.  यह ‘यूज़ एंड थ्रो’ का जमाना है. पुरानी चीज को खतम कीजिए, नयी बनाइए.  एक ही चीज से मत चिपके रहिए. तभी तरक्की होगा. पुल  टूट गया तो टूट जाने दीजिए. हम दूसरा पुल बनाएंगे. और लोगों को रोजगार मिलेगा, और चीजें बिकेंगी. यही विकास का रास्ता है. किसी के बहकावे में मत आइए. ‘

मंत्री जी अन्त में कहते हैं, ‘मैंने कॉलेज के दिनों में एक कविता पढ़ी थी ‘नीड़ का निर्माण फिर फिर’. उसकी एक पंक्ति है ‘नाश के दुख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख’. इसलिए हम अपने दुख के बावजूद निर्माण के मिशन से पीछे नहीं हटेंगे. आप अपना हौसला और हममें भरोसा बनाये रहिए. जय हिन्द. भारत माता की जय. ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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