(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। आज प्रस्तुत है एक कविता “आजमाइश”। )
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत हैं मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “कन्याभोज”। निश्चित ही धर्मकर्म और भेदभाव से ऊपर निश्छल हृदय और भावनाएं होती हैं / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक एवं भावनात्मक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 67 ☆
☆ लघुकथा – कन्याभोज ☆
कल्लो बाई एक बड़े सेठ मारवाड़ी के यहाँ घर का सारा काम करती थी। यूँ कह लीजिए कि सभी कल्लो बाई की टेर लगाते रहते थे।
सफाई, बर्तन, कपड़े और बाजार से क्या लाना है, धोबी के यहाँ कपड़े कितने गए, सभी का हिसाब कल्लो बाई के पास होता था। कभी- कभी घर में मेम साहिबाओं के सिर में तेल लगाने का भी काम बड़े प्रेम से कर दिया करती थी। बदले में कुछ ज्यादा पैसे मिल जाते थे। जिससे उसकी अपनी बिटिया का शौक पूरा करती थी।
अपनी बेटी रानी को बहुत प्यार से रखी थी। ईश्वर का रुप मानती थी। गरीबी से दूर रखना चाहती थी। पर गरीबी के कारण कुछ कर नहीं पाती थी।
छोटा सा झोपड़पट्टी का घर नशे की आदत से पति का देहांत हो चुका था।
नवरात्रि की नवमीं के दिन सेठ जी के यहां कन्या भोज का आयोजन था। कल्लो की बिटिया भी जिद्द कर उसके साथ वहाँ चली गई।
मोहल्ले में घूम-घूम कर कल्लो ने अपने सेठ जी के घर के लिए कन्याएं एकत्रित किए।
परंतु उनके घर से किसी ने भी उनकी नन्हीं सी बिटिया को नहीं देखा। किसी ने कहा भी तो घर की महिलाएं बोली… उसको गिनती में नहीं लेंगे उसको अलग से प्रसाद दे दिया जाएगा।
कन्याओं का पूजन कर भोजन कराया गया। बच्ची देखती रही और अपनी माँ से पूछा… मुझे क्यों नहीं बिठाया जा रहा। इनके साथ क्या मैं कन्या नहीं हूँ ?? क्या? मैं इन से अलग बनी हूँ । मां के पास कोई जवाब नहीं था। आंखों से अश्रु की धार बह निकली और बस इतना ही बोली… हम लोग गरीब है।
कन्या भोजन के बाद घर की महिलाओं ने बचा हुआ और थोड़ा सा प्रसाद मिलाकर बाँधकर थाली में जो कुछ छूट गया था उसकी लड़की को देकर कहा यह ले जाओ घर में खा लेना।
बच्ची ने झट पकड़ लिया। माँ काम निपटा कर अपनी बेटी को लेकर घर आई और वह प्रसाद घर के बाहर दरवाजे पर रखकर चली आई।
घर आकर साफ-सुथरा भोजन बनाकर वह अपनी बिटिया को पटे पर बिठा माँ ने पूजन कर तिलक लगा आरती उतार कहने लगी… मैं अपनी कन्या का पूजन खुद करुँगी । इतने भीड़ में मेरी कन्या का पूजन अच्छा थोड़ी होगा।
बिटिया भी समझदार थी दुर्गा की कहानियाँ हानियां टी वी से देखती सुनती और समझती थी। शक्ति का अवतार माँ भगवती दुर्गा नारी शक्ति माँ ही होती है। उसने अपनी माँ को अपने पास बुला कर बिठाया और तिलक लगाकर बोली माँ मेरी रक्षा के लिए आपकी पूजन होना बहुत जरूरी है।
दोनो माँ बेटी की इस तरह की बातों को सेठ जी के घर से उनका लड़का जो सामान देने घर आया हुआ था देख रहा था। वह अत्यन्त अत्यंत भावुक उठा और हाथ जोड़कर बोला….. सच में यही कन्या पूजन और यही शक्ति पूजन है। जाने अनजाने हमारे घर वालों से बहुत बड़ी गलती हुई हैं। मैं घर जाकर अभी सभी को बताता हूं। और भाव विभोर हो घर की ओर बढ़ चला।
माँ और बिटिया प्रसन्नता पूर्वक अपना प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। सच में आज मां शक्ति और कन्या भोज दोनों का पूजन एक साथ हो रहा था।
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “विदिशा”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है ।
आज से प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ललित लालित्य जी के प्रश्नों के उत्तर । )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 ☆
☆ आमने-सामने – 2 ☆
डॉ ललित लालित्य (दिल्ली)
1- पांडेय जी आप चुपचाप काम करने वाले व्यंग्यकार हैं जबकि आपके जूनियर कहाँ से कहाँ पहुँच गए ।
2- क्या आप मानते है कि व्यंग्यकार को ईमानदार होना चाहिए,चुगलखोर या ईर्ष्यालु नहीं ?
3- क्या जीते जी व्यंग्यकार मंदिर बनवा कर पूजे जाएं यह कहाँ की भलमान्सियत है ?
जय प्रकाश पाण्डेय –
1- सर जी, लेखन में कोई जूनियर, सीनियर या वरिष्ठ, कनिष्ठ या गरिष्ठ नहीं होता, ऐसा हमारा मानना है। ईमानदारी और दिल से जितना कुछ संभव हो, वही संतुष्टि देता है। यदि कोई कहां से कहां पहुंच भी गया तो खुशी की बात है, उसकी प्रतिभा उसका अध्ययन उसे और ऊपर ले जाएगा।
2- ईमानदार और दीन-दुखी जन जन के साथ खड़ा लेखक ही असली व्यंंग्यकार कहलाने का हकदार है, जैसे आप हर दिन आम आदमी की दैनिक जीवन में आने वाली विसंगतियों और पाखंड पर रोज लिखकर आम आदमी के साथ खड़े दिखते हो। समाज की बेहतरी के लिए व्यंंग्यकार की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए, ईमानदार प्रयास ही इतिहास में दर्ज होते हैं, फोटो और बोल्ड लेटर के नाम पानी के बुलबुले हैं। भाई,व्यंंग्यकार ही तो है जो जुगलखोरी और ईर्षालुओं के विरोध में लिखकर उनके चरित्र में बदलाव की कोशिश करता है।
3- ऐसे लोगों को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए जो आत्म प्रचार और आत्ममुग्धता के नशे में जीते जी मंदिर बनवाने की कल्पना करते हैं। ऐसे लेखक के अंदर खोट होती है, वे अंदर से अपने प्रति भी ईमानदार नहीं होते, जो लोग ऐसे लोगों के मंदिर बनवाने में सहयोग देते हैं वे भी साहित्य के पापी कहलाने के हकदार हो सकते हैं।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य रचना ‘साहित्यिक किसिम के दोस्त’। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 70 ☆
☆ व्यंग्य – साहित्यिक किसिम के दोस्त ☆
सबेरे सात बजे फोन घर्राता है। आधी नींद में उठाता हूँ।
‘हेलो।’
‘हेलो नमस्कार। पहचाना?’
‘नहीं पहचाना।’
‘हाँ भई, आप भला क्यों पहचानोगे! एक हमीं हैं जो सबेरे सबेरे भगवान की जगह आपका नाम रट रहे हैं।’
‘हें, हें, माफ करें। कृपया इस मधुर वाणी के धारक का नाम बताएं।’
‘मैं धूमकेतु, दिल्ली का छोटा सा कवि। अब याद आया? सन पाँच में लखनऊ के सम्मेलन में मिले थे।’
याद तो नहीं आया,लेकिन शिष्टतावश वाणी में उत्साह भरकर बोला,’अरे, आप हैं? खू़ब याद आया। वाह वाह। कहाँ से बोल रहे हैं?’
‘यहीं ठेठ आपकी नगरी से बोल रहा हूँ।’
‘कैसे पधारना हुआ?’
‘विश्वविद्यालय ने बुलाया था एक कार्यशाला में।’
‘वाह! मेरा फोन नंबर कहाँ से मिला?’
‘अब यह सब छोड़िए। जहाँ चाह वहाँ राह। हमें आपसे मुहब्बत है, इसीलिए हमने हाथ-पाँव मारकर प्राप्त कर लिया।’
‘वाह वाह! क्या बात है!तो फिर?’
‘तो फिर, भई, यहाँ तक आकर आपसे मिले बिना थोड़इ जाएंगे। आपके लिए पलकें बिछाये बैठे हैं।’
मुझे खाँसी आ गयी। गला साफ करके बोला,’कहाँ रुके हैं?’
‘यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में। कमरा नंबर 15 ।’
‘ठीक है। मैं आता हूँ।’
‘ऐसा करें। शाम को कहीं बैठ लेते हैं। शहर के चार छः साहित्यिक मित्रों को बुला लें। परिचय हो जाएगा और चर्चा भी हो जाएगी। एक दो पत्रकारों को भी बुला लें तो और बढ़िया। आकाशवाणी वाले आ जाएं तो सोने में सुहागा। इतनी व्यवस्था कर लें तो मेरा आपके नगर में आना सार्थक हो जाए। मैं शाम छः बजे के बाद आपका इंतजार करूँगा। जैसे ही आप आएंगे, मैं चल पड़ूँगा।’
मैं चिन्ता में पड़ गया। कहा,’ठीक है, मैं कोशिश करता हूँ।’
‘अजी, कोशिश क्या करना! आप फोन कर देंगे तो शहर के सारे साहित्यकार दौड़े आएंगे। आपकी कूवत को जैसे मैं जानता नहीं। आप के लिए क्या मुश्किल है? तो फिर मैं शाम को आपका इंतजार करूँगा।’
‘ठीक है।’
मैंने फोन रखकर पहले अपने संकोची स्वभाव को जी भरकर कोसा, फिर अपने दिमाग़ को दबा दबा कर उसमें से धूमकेतु जी को पैदा करने की कोशिश में लग गया। बड़ी जद्दोजहद के बाद एक झोलाधारी कवि की याद आयी जो लखनऊ सम्मेलन में सब तरफ घूमते और खास लोगों को अपना कविता-संग्रह बाँटते दिखते थे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो भारी से भारी सम्मेलन में भी अपने तक ही कैद रहते हैं—अपनी चर्चा, अपनी प्रशंसा, अपनी कविता। धूमकेतु जी भी पूरी तरह आत्मप्रचार में लगे थे। तभी उनसे संक्षिप्त परिचय हुआ था। फिर दिल्ली के अखबारों में कभी कभी उनकी कविताएँ देखी थीं।
मैं फँस गया था। आयोजन-अभिनन्दन के मामले में मैं बिलकुल फिसड्डी हूँ और शायद इसीलिए अब तक लोगों ने मुझे अभिनन्दन के लायक नहीं समझा।
लेकिन साहित्य के क्षेत्र में संभावनाओं की कमी नहीं है। बहुत से साहित्यकर्मी चन्दन-अभिनन्दन को ही असली साहित्य समझते हैं। इसलिए मैंने एक स्थानीय स्तर के साहित्यकार ज्ञानेन्द्र को इन्तज़ाम का सारा भार सौंप दिया और उन्होंने सहर्ष कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार भी कर लिया। उन्होंने एक सांध्यकालीन अखबार के प्रतिनिधि को भी खानापूरी के लिए पकड़ लिया। मैं निश्चिंत हुआ।
शाम को धूमकेतु जी की सेवा में उपस्थित हुआ तो उन्होंने दोनों बाँहें फैलाकर मुझे भींच लिया। फिर अपना बाहुपाश ढीला करके बोले, ’हमारे प्यार की कशिश देखी? हमने आपको ढूँढ़ ही निकाला। वो जो चाहनेवाले हैं तेरे सनम, तुझे ढूँढ़ ही लेंगे कहीं न कहीं।’
हमने उनके मुहब्बत के जज़्बे की दाद दी, फिर उन्हें कार्यक्रम की तैयारी की रिपोर्ट दी। वे प्रसन्न हुए, बोले, ’स्थानीय लोगों से मेल-मुलाकात न हो तो कहीं जाने का क्या फायदा?’
मैं उन्हें स्कूटर पर लेकर रवाना हुआ। कार्यक्रम-स्थल पर आठ दस भले लोग आ गये थे। हर शहर में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो हर साहित्यिक कार्यक्रम की शोभा होते हैं। कार्यक्रम के आयोजक उन्हें याद करना कभी नहीं भूलते। वे हर कार्यक्रम को संभालने वाले स्तंभ होते हैं। उड़ती हुई सूचना भी उनके लिए पर्याप्त होती है। ऐसे ही तीन चार रत्न इस कार्यक्रम में भी डट गये थे।
कार्यक्रम बढ़िया संपन्न हुआ। ज्ञानेन्द्र ने धूमकेतु जी को कोने में ले जाकर उनका बायोडाटा लिख लिया था। धूमकेतु जी ने मुहल्ला-स्तर से लेकर अपनी सारी उपलब्धियों का विस्तृत ब्यौरा लिखा दिया था। उनको गुलदस्ता भेंट करने के बाद उनका परिचय हुआ और फिर आज की कविता पर उनका वक्तव्य हुआ। फिर जनता की फरमाइश पर उन्होंने अपनी पाँच छः कविताएं सुनायीं जिन पर हमने शिष्टतावश भरपूर दाद दी। फिर कुछ श्रोताओं ने हस्बमामूल उनके कृतित्व के बारे में कुछ सवाल पूछे और इस तरह कार्यक्रम सफलतापूर्वक मुकम्मल हो गया। धूमकेतु जी गदगद थे। विदा होते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर उन्होंने इज़हारे-मुहब्बत किया। जाते वक्त हाथ हिलाकर बोले, ’स्नेह-भाव बनाये रखिएगा।’
पाँच छः माह बाद दिल्ली जाने का सुयोग बना। पहुँचकर मैंने उमंग से धूमकेतु जी को फोन लगाया। उधर से उनकी आवाज़ आयी,’हेलो।’
मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त। जबलपुर वाला।’
वे स्वर में प्रसन्नता भर कर बोले,’अच्छा,अच्छा। कहाँ से बोल रहे हैं?’
मैंने कहा, ’दिल्ली से ही। काम से आया था।’
वे बोले, ’वाह! बहुत बढ़िया! तो कब मिल रहे हैं?’
मैंने कहा, ’जब आप कहें। मैंने तो पहुँचते ही आपको फोन लगाया।’
वे जैसे कुछ उधेड़बुन में लग गये। थोड़ा रुककर बोले,’अभी तो मैं थोड़ा काम से निकल रहा हूँ। आप शाम चार बजे फोन लगाएं। मैं आपको बता दूँगा।’
मेरा उत्साह कुछ फीका पड़ गया। चार बजे फिर फोन लगाया। उधर से धूमकेतु जी की आवाज़ आयी,’हेलो।’
मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त।’
आवाज़ बोली, ’मैं धूमकेतु जी का बेटा बोल रहा हूँ। पिताजी एक साहित्यिक कार्य से अचानक बाहर चले गये हैं।’
मैंने कहा,’लेकिन यह आवाज़ तो धूमकेतु जी की है।’
जवाब मिला,’धूमकेतु जी की नहीं, धूमकेतु जी जैसी है। हम पिता पुत्र की आवाज़ एक जैसी है। कई लोग धोखा खा जाते हैं।’
मैंने पूछा,’कब तक लौटेंगे?
आवाज़ ने पूछा,’आप कब तक रुकेंगे?’
मैंने कहा,’मैं परसों वापस जाऊँगा।’
आवाज़ ने कहा,’वे परसों के बाद ही आ पाएंगे। प्रणाम।’
उधर से फोन रख दिया गया। मैं खासा मायूस हुआ।
जबलपुर वापस पहुँचा कि दूसरे ही दिन धूमकेतु जी का फोन आ गया—‘क्यों भाई साहब! दिल्ली आये और बिना मिले लौट गये? ऐसी भी क्या बेरुखी।’
मैंने कहा,’आपसे मिलना भाग्य में नहीं था, इसीलिए तो आप बाहर चले गये थे।’
वे बोले,’चले गये थे तो आप एकाध दिन हमारी खातिर रुक नहीं सकते थे? कैसी मुहब्बत है आपकी?’
मैंने कहा,’हाँ, लगता है हमारी मुहब्बत में कुछ खोट है।’
वे दुखी स्वर में बोले,’हमने सोचा था कि आपके सम्मान में छोटी मोटी गोष्ठी कर लेते। कुछ आपकी सुनते, कुछ अपनी सुनाते।’
मैंने कहा,’क्या बताऊँ! मुझे खुद अफसोस है।’
वे बोले,’खैर छोड़िए। वादा कीजिए कि अगली बार दिल्ली आएंगे तो मिले बिना वापस नहीं जाएंगे।’
मैंने कहा,’पक्का वादा है,भाई साहब। आपसे मिले बिना नहीं लौटूँगा। आप दुखी न हों।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – देहरी☆
पुनर्पाठ-
घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर। अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।
अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीकी प्रतीति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।
इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।
स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 26 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 26) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
☆ English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media# 26☆
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन, कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-2 –☆
शेरू का प्यार—– आपने पढ़ा कि शेरू मेरे परिवार में ही पल कर जवान हुआ घर के सदस्य की तरह ही परिवार में घुल मिल गया था।अब पढ़ें——-
बच्चे जब उसका नाम लें बुलाते वह कहीं होता दौड़ लगाता चला आता और वहीं कहीं बैठ कर अगले पंजों के बीच सिर सटाये टुकुर टुकुर निहारा करता। बीतते समयांतराल के बाद शेरू नौजवान हो गया, उसके मांसल शरीर पर चिकने भूरे बालों वाली त्वचा, पतली कमर, चौड़ा सीना ऐठी पूंछ लंबे पांव उसके ताकत तथा वफादारी की कहानीं बयां करते। उसका चाल-ढाल रूप-रंग देख लगता जैसे कोई फिल्मी पोस्टर फाड़ कोई बाहुबली हीरो निकल पड़ा हो। उसे दिन के समय जंजीर में बांध कर रखा जानें लगा था, क्यों कि वह अपरिचितों को देख आक्रामक हो जाता और जब मुझ से मिलने वाले कभी हंसी मजाक में भी मुझसे हाथापाई करते तो वह मरने मारने पर उतारू हो जाता तथा अपनी स्वामी भक्ति का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करता। जब कभी मैं शाम को नौकरी से छूट घर आता तो शेरू और मेरे पोते में होड़ लग जाती पहले गोद में चढ़ने की।
वे दोनों ही मुझे कपड़े भी उतारने तक का अवसर देना नहीं चाहते थे। अगर कभी पहले पोते को गोद उठा लेता तो शेरू मेरी गोद में अगले पांव उठाते चढ़ने का असफल प्रयास करता। अगर पहले शेरू को गोद ले लेता तो पोता रूठ कर एड़ियां रगड़ता लेट कर रोने लगता। वे दोनों मेरे प्रेम पर अपना एकाधिकार समझते। कोई भी सीमा का अतिक्रमण बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं।
इन परिस्थितियों में मैं कुर्सी पर बैठ जाता। एक हाथ में पोता तथा दूसरा हाथ शेरू बाबा के सिर पर होता तभी शेरू मेरा पांव चाट अपना प्रेम प्रदर्शित करता। उन परिस्थितियों में मैं उन दोनों का प्यार पा निहाल हो जाता । मेरी खुशियां दुगुनी हो जाती, मेरा दिन भर का तनाव थकान सारी पीड़ा उन दोनों के प्यार में खो जाती। और मै उन मासूमों के साथ खेलता अपने बचपने की यादों में खो जाता,।
अब शेरू जवानी की दहलीज लांघ चुका था वह मुझसे इतना घुल मिल गया था कि मेरी परछाई बन मेरे साथ रहने लगा था। जब मैं पाही पर खेत में होता तो वह मेरे साथ खेतों की रखवाली करता,वह जब नीलगायों के झुण्ड, तथा नँदी परिवारों अथवा अन्य किसी जानवर को देखता तो उसे दौड़ा लेता उन्हे भगा कर ही शांत होता। मुझे आज भी याद है वो दिन जब मैं फिसल कर गिर गया था मेरे दांयें पांव की हड्डी टूट गई थी। मैं हास्पीटल जा रहा था ईलाज करानें। उस समय शेरू भी चला था मेरे पीछे अपनी स्वामीभक्ति निभाने, लेकिन अपने गांव की सीमा से आगे बढ़ ही नहीं पाया। बल्कि गांव सीमा पर ही अपने बंधु-बांधवों द्वारा घेर लिया गया और अपने बांधवों के झांव झांव कांव कांव से अजिज हताश एवम् उदास मन से वापस हो गया था।
उसे देखनें वालों को ऐसा लगा जैसे उसे अपने कर्त्तव्य विमुख होने का बड़ा क्षोभ हुआ था और उसी व्यथा में उसने खाना पीना भी छोड़ दिया था। वह उदास उदास घर के किसी कोने में अंधेरे में पड़ा रहता। उसकी सारी खुशियां कपूर बन कर उड़ गई थी। उस दिन शेरू की उदासी घर वालों को काफी खल रही थी। उसकी स्वामिभक्ति पर मेरी पत्नी की आंखें नम हो आईं थीं।
मेरे घर में शेरू का मान और बढ़ गया था। महीनों बाद मैं शहर से लौटा था। मेरे पांवों पर सफेद प्लास्टर चढ़ा देख शेरू मेरे पास आया मेरे पांवों को सूंघा और मेरी विवशता का एहसास कर वापस उल्टे पांव लौट पड़ा और थोड़ी दूर जा बैठ गया तथा उदास मन से मुझे एक टक निहार रहा था।
उस घड़ी मुझे एहसास हुआ जैसे वह मेरे शीघ्र स्वस्थ्य होने की विधाता से मौन प्रार्थना कर रहा हो। उसकी सारी चंचलता कहीं खो गई थी। ऐसा मे जब मैं सो रहा होता तो वह मेरे सिरहाने बैठा होता। जब किसी चीज के लिए प्रयासरत होता तो वह चिल्ला चिल्ला आसमान सर पे उठा लेता और लोगों को घर से बाहर आने पर मजबूर कर देता।
आज भी मुझे याद है वह दिन जिस दिन मेरा प्लास्टर कटा था,उस दिन शेरू बड़ा खुश था ऐसा। लगा जैसे सारे ज़माने की खुशियां शेरू को एक साथ मिली हो। वह आकर अपनी पूंछ हिलाता मेरे पैरों से लिपट गया था। जब मैं ने पर्याय से उसका सिर थपथपाया तो उसकी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे और मैं एक जानवर का पर्याय पा उसकी संवेदनशीलता पर रो पड़ा था ।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी की एक रचना नमन मीनाक्षी सुवाचा….। )