हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 4 ☆ यह फुर्सत के पल मिले हैं कई सालों के बाद ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  जीवन के स्वर्णिम कॉलेज में गुजरे लम्हों पर आधारित एक  समसामयिक भावपूर्ण कविता  “यह फुर्सत के पल मिले हैं कई सालों के बाद”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 4 ☆

☆  यह फुर्सत के पल मिले हैं कई सालों के बाद ☆

 

यह गुजरे जमाने  ताजा हुए हैं, कई सालों के बाद,

यह भागती दौड़ती सी जिंदगी रुक सी गई है कई सालों के बाद ।

 

अब शाम की चाय की प्याली भी टकराने लगी है,

पुरानी डायरी फिर संदूक से निकलकर होठों की मुस्कान बनने लगी है,

यह सुबह का अखबार भी शाम को पलटने लगा है,

 

यह गुजरे जमाने ताजा हुए हैं, कई सालों के बाद,

यह भागती दौड़ती सी जिंदगी रुक सी गई है कई सालों के बाद ।

 

ये अब गुजरे दिनों के किस्से भी दोहराने लगे हैं,

अब दोपहर का खाना भी साथ परोसने लगा हैं ,

ये पुरानी सी गजल भी गुनगुनाने लगे हैं ,

ये हर दिन रविवार सा लगने लगा हैं  ।

 

यह गुजरे जमाने ताजा हुए हैं, कई सालों के बाद,

यह भागती दौड़ती सी जिंदगी रुक सी गई है कई सालों के बाद ।

 

देर तक पिक्चर देखना फिर  देर से सोकर उठना,

ये बेफिक्री का आलम आराम की जिंदगी अच्छी लगना,

मौसम आएंगे और चले जाएंगे,

ये पल जाएंगे फिर ना आएंगे,

हर दिन हर पल ताजा हो जाएंगे।

आओ इन्हें जी ले, ये पल फिर ना मिल पाएंगे,

 

यह गुजरे जमाने ताजा हुए हैं, कई सालों के बाद,

यह भागती दौड़ती सी जिंदगी रुक सी गई है कई सालों के बाद ।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 43 ☆माइक्रो व्यंग्य – आ गले लग जा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  एक समसामयिक और काफी कुछ कहती एक माइक्रो व्यंग्य   “आ गले लग जा” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 43

☆ माइक्रो व्यंग्य – आ गले लग जा ☆ 

विनीत टाकीज में ‘आ गले लग जा’ फिल्म देखकर बाहर निकले थे तो दस पैसे में “आ गले लग जा” के गाने लिए थे। गाने का गुटका बेचने वाला चिल्ला चिल्ला कर परेशान हो रहा था कि ‘दस पैसे में आ गले लग जा “पर कोई इतने सस्ते में गले लगने तैयार नहीं हुआ था। पर हाय री दुनिया…….. गजब हो गया एक जमाने में गले लग जाने से करोड़ों के वारे न्यारे हो जाते हैं। संसद हाल में एक क्लीनसेव एक दाढ़ी वाले से तपाक से गले मिले थे तो सबको खूब मज़ा आया था। अब देखो कोरोना की कारस्तानी कि इंसान को इंसान से गले मिलने पर जान लेने पर उतारू हो जाता है। इस प्रकार हाथ मिलाने और गले मिलने की परम्परा खतम कर दी इस निर्जीव वायरस ने।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 44 – माझी बोली माझी कविता – सांगाल का बाई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपकी एक अत्यंत भावप्रवण कविता ” माझी बोली माझी कविता – सांगाल का बाई”।  आज वास्तविकता यह है  कि वाचन संस्कृति रही ही नहीं । न पहले जैसे पुस्तकालय रहे  न पुस्तकें और न ही पढ़ने वाले।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 44 ☆

☆ माझी बोली माझी कविता – सांगाल का बाई ☆

मिळेल का पाठी थाप?

सांगाल का वो बाई?

मला बी तो गुरूर्ब्रह्मा

कधी दिसंल का नाई

 

मळले हत जरासे

हे फाटलेलं कापडं

अन् लाज झाकाया

माईने जोडलंत तुकडं।

 

येत असंल वास तरं

थोडं लांबच बसनं।

नजर टाका मायेनं

मीबी जरासं हसंन।

 

झोका बांधून झाडाला

माय राबती रानात ।

सांबाळ ग सोनुताई

गेली सांगून कानात ।

 

धाय मोकलून रडं

दुधाइना बाळ तान्हा।

गेला जळून ऊरात

मह्या मायीचा पान्हा।

 

कशी येऊ मी शाळंत

पाश मायेचं तोडून।

पोट भरंल का सांगा

समदी अक्षरे  जोडून ।

 

सुट्टी आईला मिळता

आवसे पुनवेला शाळा।

चिंध्या मनाच्याबी व्हती

नका मोडू नाक डोळा।

 

वही नसू दे बापडी

ध्यान धरून शिकणं।

बापाविन पोरं जरी

ज्ञान ज्योत मिरवीणं।

 

आठवा ना साऊ माय

वाड्या वस्तीत रमली।

म्हणूनच आबादानी

आज ज्ञानाअनं नटली।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 46 ☆ व्यंग्य – विभीषण के वंशज ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘विभीषण के वंशज’। डॉ परिहार जी ने प्रत्येक चरित्र को इतनी खूबसूरती से शब्दांकित किया है कि हमें लगने लगता  है  इन पात्रों को कहीं तो देखा है । ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 46 ☆

☆ व्यंग्य – विभीषण के वंशज ☆

 

उस दिन श्रीमती जी पड़ोस के गप-सेशन से लौटकर गद्गद स्वर में कहने लगीं, ‘देखिए न, पड़ोस वाले भाई साहब ने अपने पूरे घर में खुद पेन्ट किया है।बहुत बढ़िया रंग आया है।’

सुनकर मेरे मन की कली मुरझा गयी।जब मेरे पुरुष भाई गलत उदाहरण पेश करके और गलत परंपराएं डालकर अन्य पुरुषों के लिए काँटे बोते हैं तो फिर क्या कहा जाए।।

मेरे एक मित्र गुप्ता जी हैं, पाक-कला में निपुण, कपड़ों की कटाई-सिलाई में माहिर, घर के हर छोटे बड़े काम में दखल रखने वाले।घर में नाना प्रकार के व्यंजन बनाते हैं, अचार-मुरब्बे के बारे में विस्तृत निर्देश देते हैं और घर में कोई भी यंत्र गड़बड़ होने पर तुरन्त औज़ार लेकर दौड़ पड़ते हैं।और मैं उनकी नादानी पर कुढ़ता हूँ।सब के घरों में कैसा पलीता लगाते हैं ये।मैं पूछता हूँ अव्वल तो इन्होंने शादी क्यों की, और शादी की तो मेरे पड़ोस में रहने क्यों आये?

एक और मित्र थे।बड़े नफ़ासत वाले।बासमती चावल और बढ़िया घी के शौकीन।चाय और भोजन बनाने में माहिर।कपड़े धोयें तो ऐसा लगे कि साबुन का विज्ञापन है।घर की सफाई पर बहुत ध्यान देने वाले।भाग्य से वे दिल्ली चले गये और उनके दुर्गुणों का दुष्प्रभाव ज़्यादा नहीं फैल पाया।

कुछ नये विवाहित पति आरंभ में शेखी मारने के लिए घर के कई काम करते हैं। ‘देखो, मैं कैसी बढ़िया चाय बनाता हूँ’, ‘देखो, मैं कैसी बढ़िया सब्ज़ी बनाता हूँ।’ समझदार पत्नियाँ इस स्थिति का लाभ उठाकर अपना रास्ता चुन लेती हैं।फिर जब श्रीमान कहते हैं, ‘भई चाय बनाओ’, तब श्रीमती जी जवाब देती हैं, ‘आप ही बनाइए।आपसे अच्छी मैं नहीं बना सकती।’ परिणाम यह होता है कि शेखी में की गयी भूल के कारण कई पतियों की परिवार के रसोइया, टेलर या अन्य पदों पर स्थायी नियुक्ति हो जाती है।फिर आप उनसे मिलने जाएंगे तो अक्सर वे कंधे पर झाड़न डाले रसोईघर से प्रकट होंगे।

मेरे एक वकील मित्र भी कुछ ऐसे ही चक्कर में फंसे हैं।एक दिन उन्होंने बड़े प्यार से पत्नी से कहा, ‘भई, ज़रा अमरूद काटो हम लोगों के लिए’, और पत्नी ने लौटती डाक से उत्तर दे दिया, ‘आप ही काटिए, आप बहुत अच्छा काटते हैं।’ मित्र का मुँह उतर गया।मैंने सोचा, ज़रूर इन्होंने कभी पत्नी के सामने अमरूद काटने का ‘दुरुस्त नमूना’ पेश किया होगा और अब उसका फल भोग रहे हैं।

हमारे एक और साथी हैं, मेरे हिसाब से आदर्श पुरुष।बैडमिन्टन खेलने के शौकीन हैं।जब उनका विवाह हुआ था तब परिवार-नियोजन का दौर-दौरा नहीं था, इसलिए परिवार भरा-पूरा है।शाम को जब वे बैडमिन्टन का रैकेट उठाते हैं तो पत्नी कहती है, ‘ज़रा छोटे बच्चे को संभालिए तो कुछ काम कर लूँ।’ वे दो चार मिनट रुकते हैं, फिर मौका मिलते ही सटक लेते हैं।मुझे बताते हैं, ‘जब लौट कर आता हूँ तब सब काम ठीक मिलता है।यह कहना बकवास है कि हमारे सहयोग के बिना घर का काम रुक जाएगा।’

एक पत्रिका में एक लेख पढ़ा था कि मूरख बने रहना ही सबसे ज़्यादा फायदेमन्द है।रास्ते में मोटर पंक्चर हो जाए तो तब तक इन्तज़ार कीजिए जब तक कोई मोटरवाला पास आकर न रुके।जब वह उतर कर आये उस वक्त पहिये पर अनाड़ीपन के दो चार हाथ मारिए और पसीना-पसीना हो जाइए।वह आकर आपको देखेगा, फिर उसका ज्ञान-गर्व जागेगा।वह आपसे कहेगा, ‘हटिए एक तरफ, आप तो बिलकुल अनाड़ी हैं।’ आप चुपचाप अलग हो जाइए और जब वह आपका पहिया बदले तब हैरत से उसके कंधे के ऊपर से झाँकते रहिए।जब वह पहिया बदल कर हाथ झाड़े तब आश्चर्य और प्रशंसा के भाव से मुँह खोले उसकी ओर देखिए, या बुदबुदाइए, ‘कमाल है!’ वह मुस्कराता हुआ अपनी कार में बैठकर रवाना हो जाएगा और आप सीटी बजाते हुए अपनी कार में प्रवेश कीजिए।वह भी खुश,आप भी खुश।

घर में कभी श्रीमती जी चाय बनाने को कहें तो ऐसी बनाइए कि उन्हें तुरन्त दूसरी चाय बनानी पड़े और अगली बार आपसे कहने से पहले छः बार सोचना पड़े।आपने अच्छी वस्तु तैयार करके दी और समझिए कि आपका बेड़ा ग़र्क हुआ।

तो भाइयो, सबसे ज़्यादा सुख और आराम भकुआ बने रहने में है।आराम से बैठे रहिए और देखिए कि संसार का काम आपके योगदान के बिना कैसे बाकायदा चलता है।इस संबंध में मेरी गुज़ारिश है कि पुरुष वर्ग में जो विभीषण बनकर मेरे जैसों की लंका ढाने की कोशिश करते हैं उन्हें सभ्य समाज से दूर किसी अलग कॉलोनी में बसाया जाए ताकि संक्रमण न फैले और मेरे जैसों की गृहस्थी की तन्दुरुस्ती सलामत रहे।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 3 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

 ☆ Anonymous Litterateur of Social  Media # 3/ सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 3☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का अंग्रेजी भावानुवाद  किया है।  इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

ज़रा सी कैद से ही

   घुटन होने  लगी…

    तुम तो पंछी पालने

      के  बड़े  शौक़ीन थे…

 

  Just a little bit of confinement

   Made you feel so suffocated

    But keeping the birds caged

      You were so very fond of…!

§

  लगता था जिन्दगी को

  बदलने में वक्त लगेगा

    पर क्या पता था बदला

      वक्त जिन्दगी बदल देगा…!

 

  Always felt, it would take

 Time  to  change  the life…

  Never knew that changed

   time would change the life…!

§

  हालात तो कह रहे हैं

 मुलाकात नहीं मुमकिन

   पर उम्मीद कह रही है

    थोड़ा  इंतजार  कर…

 

  Circumstances are saying

    It’s not possible to meet

     But the expectation  says

       Just  wait  for a  while..!

§

अब तो तन्हाई भी

  मुझसे है कहने लगी

    मुझसे ही कर लो मोहब्बत

      मैं  तो  बेवफा नहीं…

 

  Now,  even loneliness

   has also started saying 

    Please fall in love with me

      At least I am not unfaithful…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 4 ☆  विश्व में कविता समाहित या कविता में विश्व? ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना  ”  विश्व में कविता समाहित या कविता में विश्व?”। )

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 4 ☆ 

☆  विश्व में कविता समाहित या कविता में विश्व? ☆ 

 

विश्व में कविता समाहित

या कविता में विश्व?

 

देखें कंकर में शंकर

या शंकर में प्रलयंकर

नाद ताल ध्वनि लय रस मिश्रित

शक्ति-भक्ति अभ्यंकर

अक्षर क्षर का गान करे जब

हँसें उषा सँग सविता

तभी जन्म ले कविता

 

शब्द अशब्द निशब्द हुए जब

अलंकार साकार हुए सब

बिंब प्रतीक मिथक मिल नर्तित

अर्चित चर्चित कविता हो तब

सत्-शिव का प्रतिमान रचे जब

मन मंदिर की सुषमा

शिव-सुंदर हो कविता

 

मन ही मन में मन की कहती

पीर मौन रह मन में तहती

नेह नर्मदा कलकल-कलरव

छप्-छपाक् लहरित हो बहती

गिरि-शिखरों से कूद-फलाँगे

उद्धारे जग-पतिता

युग वंदित हो कविता

 

२१-३-२०२०

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मराठी साहित्य – आलेख ☆ कवी‌ संजीव यांची जयंती…..त्या प्रित्यर्थ त्यांच्या काव्याचा घेतलेला आढावा……. भाग -2 ☆डॉ. रवींद्र वेदपाठक

डॉ. रवींद्र वेदपाठक

(प्रस्तुत है डॉ रवीन्द्र वेदपाठक जी का मराठी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार  स्व कृष्ण गंगाधर दीक्षित जो कि कवी संजीव उपनाम से  प्रसिद्ध हैं  के  व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सारगर्भित मराठी आलेख  कवी‌ संजीव यांची जयंती…..त्या प्रित्यर्थ त्यांच्या काव्याचा घेतलेला आढावा……..। आदरणीय कवी संजीव जी का जन्म 12 अप्रैल को सोलापुर के वांगी गांव में हुआ था। मराठी साहित्य के इस महत्वपूर्ण दस्तावेज की लम्बाई को देखते हुए इसे दो भागों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। आज प्रस्तुत है इस आलेख का प्रथम भाग। कृपया इसे गम्भीरतापूर्वक पढ़ें एवं आत्मसात करें। )

 

☆  कवी‌ संजीव यांची जयंती….. त्या प्रित्यर्थ त्यांच्या काव्याचा घेतलेला आढावा…….. भाग -2 ☆

१९८० च्या गझलगुलाब नंतर, कवी संजीवांनी *मराठी साहित्य विश्वात नवीन प्रयोग केला,* उर्दु साहित्यात शायरीची अक वेगळी उंची आहे,  त्या उर्दु शायरीचे उन्मत्त सौदर्य व कल्पनाविलास आपण मराठी साहित्यातही दे्वु शकतो याची प्रचीती *१९८३ साली प्रकाशित झालेल्या मराठी शायरी ने साहित्यरसिकांना दिली.*  मराठीच्या प्रकृतीला केवळ भक्तीगीते व वीरगीतेच शोभुन दिसतात अशा विधानाला छेद देण्याचे काम *शाहिर राम जोशी होनाजी बाळा याच्या बरोबरीने कवी संजीवांनी केले.*

संजीवांनी रंगबहार या संग्रहात *कुपी घेतली उर्दुकडून पण तिच्यात अत्तर भरले ते मात्र स्वताच्या ह्रदयातुन…*

कवी संजीव रंगबहार मध्ये लिहीतात……

 

*पहाटेच्या पायऱ्या ऊतरून*

*सुर्य थोडा खाली आला*

*फुलानं विचारलं रात्र कशी ?*

*सुर्य लाजुन गुलाबी झाला*

 

या कवितेच्या तारुण्याचा गंध किती नाविन्यपुर्ण आहे..  *टवटवित आहे…. जणु एखादं तलम वस्त्र..*

शायरी लिहीताना *शृंगार, प्रेम, मीलन, विरह* या निरनिराळ्या छटांचे दिग्दर्शन संजीवांनी यामध्ये साधलेले आहे.

 

*खिडकी आता लावू नकोस*

*चंद्र जरी ढळला आहे*

*तोही सखे माझ्यासारखाच*

*तुझ्यासाठी जळला आहे……*

 

दुसरी शायरी….

याच्याहीपुढे जाते….

 

*बाटलीभर अत्तरासाठी*

*लाख फुलांचा जातो बळी*

*लाख शृंगार सांगुन जाते*

*गालावरची एकच खळी………*

 

शायरी,

*उर्दु शायरी पेक्षा ही मराठी कुठेही कमी वाटत नाही…….*

 

संजीवांच्या शायरीला *विनोदाची सुद्धा तितकीच सुंदर* झालर लाभली आहे….

 

*डॉ्क्टर साहेब औषध कशाला*

*मरणार नाही होईन बरा*

*माझ्या समोर एकदा तीला*

*गजरा घालुन हजर करा…,,*

 

अशा रितीने रंगबहार ची बहार कवी संजीवांच्या काव्यात दिसुन येते….

 

१९८६ साली कवी संजीवांच्या पत्नी *सौ. विमल दिक्षीत यांनी विनंती केली, नव्हे हट्ट केला असे म्हटले तरी चालेल,* आणी त्या स्त्री हट्टापुढे सपशेल शरणागती स्विकारत पत्नीच्या हट्ट पुर्ण करण्यासाठी संजीवांनी *देवाचिये द्वारी हा अभ्ंग संग्रह* प्रकाशीत केला….  या त्यांच्या अभंग संग्रहाचा प्रकाशन सोहळा त्यांच्या वयाच्या *७४ व्या वर्धापनदिनानिमीत्त प्रकाशीत करण्याचा योगायोग साधला….* या अभंग रचनेत सुद्धा कवी संजीव त्यांचे वेगळेपण जपतात आणी जनतेलाच सवाल करतात…

 

*गाथा तुकोबारायाची बुडविता वर आली*

*ओवी ज्ञानेशाची कशी सांगा अमृतात न्हाली*

*मीरा लाडकी शामाची सांगा कसे विष प्याली*

*झाला वाल्मिकी महर्षी वाल्या पापाचा तो वाली*

*याचे द्यावया उत्तर झाले किती निरुत्तर*

*युगा युगांनी मांडला जन्म मरणाचा फेर….*

 

१९८६ साली प्रकाशित झालेला *”आघात हा काव्यसंग्रह,”* माणसाच्या मनावर आघात केल्याशिवाय रहात नाही….

 

कवी सहजच आपलं दुख सांगताना मनातील *सल बोलुन जातो…..

*धुंदीत आसवांच्या  दुखास भेटलो मी*

*आरक्तली फुले ही  काट्यात फाटलो मी*

 

*जखमा खिरापतीच्या    मी वाटील्या स्वहस्ते*

*सर्वांगी विद्ध होता       शौर्यास भेटलो मी*

 

*संघर्ष यात्रीकांचा   हल्ले छुपे कुणाचे*

*शब्दास धार येता  युद्धास पेटलो मी*

 

*सारे असेच आहे  स्पर्धा अशा अडाणी*

*त्याच्या कुठे पताका ?  चिंध्यास भेटलो मी ….*

 

तर कधी कधी हा कवी *माणसाच्या मानवतेवरच आघात* करतो आणी लिहीतो…..

 

*गर्दीत माणसांच्या    माणुस सापडेना*

*लाटेत सागराच्या   जलबिंदू सापडेना*

 

*अपुल्याच पालखिचे       सारे लबाड भोई*

*बेवारशी शवाला       खांदेकरी मिळेना….,*

 

*माणुसकी न येथे      मनी हाय हाय होई*

*देशात या कुठेही    काळीज सापडेना….*

 

आघात मांडताना हा कवी मानवतेपुढे हजारो प्रश्नचिन्ह उभे करतो…..,

 

कवी संजीव यांनी *कविता-लावण्या-अभंग* याबरोबरच काही चित्रपटांसाठी गीतलेखन केले. १९५५ साली प्रदर्शित झालेल्या *‘भाऊबीज’* या चित्रपटातील बहारदार गाणी आजही सर्व अबालवृद्धांच्या ओठावर आहेत.

*‘अत्तराचा फाया तुम्ही मला आणा राया’,*

*‘असा कसा खटयाळ तुझा,*

 *‘खुलविते मेंदी माझा रंग गोरापान गं’,*

*’चाळ माझ्या पायात पाय माझे तालात नाचते मी तो-यात मोरावानी’,*

*‘पडला पदर खांदा तुझा दिसतो गं कमरेला कमरपट्टा कसतो गं बाई कसतो’,*

*‘सोनियाच्या ताटी उजळल्या ज्योती ओवाळीते भाऊराया रे’,*

 

या गीतांना स्वरांचा साज *आशा भोसले* यांनी चढवला आहे.

 

संगीताचा साज *वसंतकुमार मोहिते* यांनी दिला आहे त्याचप्रमाणे *‘थोरातांची कमला’* या चित्रपटातील *‘कधी शिवराय यायचे’, ‘झुळझुळे नदी बाई’* ही गीतेही लोकप्रिय ठरली. या गीतांना *दत्ता डावजेकर* यांनी संगीतबदद्ध केले असून *उषा मंगेशकर* यांनी ही गीते गायली आहेत.

 

तसेच *‘आवाज मुरलीचा आला’* हे भावगीतही *माणिक वर्मा* यांच्या स्वरांनी लोकप्रिय झाले. या गीताला *डी. यू. कुलकर्णी* यांनी संगीतबद्ध केले आहे.

 

कवी संजीव यांनी एकंदर ५० वर्षे सातत्याने लिखाण करून सोलापूरच्या काव्यविश्वात *कवी कुंजविहारीनंतरचे ख्यातप्राप्त कवी म्हणून सर्वश्रृत झाले.* त्यामुळे सोलापूर हीच त्यांची जन्मभूमी व कर्मभूती आहे.

 

दि. २८ फेब्रुवारी १९९५ रोजी त्यांचे वृद्धापकाळाने निधन झाले. काव्यगगनातील एक तारा निखळला. पण ते त्यांच्या बहारदार गीतातून आजही अजरामर आहेत.

 

जेथे जेथे मराठी बाणा आहे, तेथे तेथे त्यांची गीते भविष्य

काळातही गायली जातील, यात शंका नाही; पण *मराठी साहित्य परिषदेला त्यांचा विसर पडला असून त्यांची जयंती किंवा पुण्यतिथी साजरी होऊ नये,* हे दुर्दैव!

 

पुरोगामी महाराष्ट्रालाही याची आठवण होऊ नये, यात नवल ते काय?

 

*कवी संजीवांसारख्या उत्तुंग प्रतिभावान साहित्यिकांना त्यांच्या जन्मशताब्दीनिमित्त वंदन!*

 

© ® डॉ. रवींद्र वेदपाठक

कवी, लेखक, प्रकाशक

सूर्यगंध प्रकाशन, पुणे

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 7 ☆ रती ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण कविता “रती“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 7 ☆

☆ कविता – रती

 

मी मोहित झालो,लाजवंती तुजवरती

भासे जणू मज तू ,स्वर्गातील कामरती।।

मी मोहित झालो…,

 

तवा वदन सुकोमल, मंत्रमुग्ध हे हसणे

हासता खळाळून,रातराणी दरवळणे

ओल्या केसांतून,दवबिंदू कां झरती।।

मी मोहित झालो….

 

हरिणीसम भासे,मजला तव चालणे

किती मधुर मधूसम,लागे तव बोलणे

कंकणनादाच्या , स्मृती भान मम हरती ।।

मी मोहित झालो….

 

वाटते तुझा मज,सुखमय संग मिळावा

हा जीव तुझ्यावर,ओवाळूनी टाकावा

तव प्रतिक्षेत क्षण, आयुष्याचे सरती ।।

मी मोहित झालो…..

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 39 – वास्तु शास्त्र एवं गीता ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं शिखाप्रद आलेख  “ज्योतिष शास्त्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 39 ☆

☆ वास्तु शास्त्र एवं गीता

आप आकाश के विज्ञान के विषय में नहीं जानते जिसे वास्तु कहा जाता है ? वास्तु शास्त्र पारंपरिक वास्तुकला का पारंपरिक हिंदू तंत्र है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘वास्तुकला का विज्ञान’। संस्कृत में कहा गया है कि… गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना । वास्तु शास्त्र घर, प्रासाद, भवन अथवा मन्दिर निर्मान करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है । दक्षिण भारत में वास्तु की नींव के लिए परंपरागत महान साधु मायन को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में विश्वकर्मा को जिम्मेदार माना जाता है । उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं । वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अतरिक्त 4 विदिशाएं हैं । आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है । इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस मानी गयी है । मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है ।

वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं । भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है । इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं । परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं । उन्नति के मार्ग में भी बाधा आती है । पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं । अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं । इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशाँत और तनावपूर्ण रहता है । धन की हानि होती है । मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है । यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वस्थ रहते हैं । इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है । अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होती है । दक्षिण दिशा के स्वामी यम देव हैं । यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होती है । इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए । दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना पड़ता है । गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होती है । दक्षिण और पश्चिम के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं । इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है । यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है । भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए । इस दिशा का स्वामी देवी निर्ऋति है। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है । इशान दिशा के स्वामी शिव होते हैं, इस दिशा में कभी भी शौचालय नहीं बनना चाहिये । नलकुप, कुआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है ।

दरअसल वास्तु संरचना के विभिन्न हिस्सों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह से खुद को जागरूक करा कर उसके साथ सामंजस्य स्थापित करने के अतरिक्त और कुछ भी नहीं है । हम आंतरिक प्राण वायुओं की पहचान कर सकते हैं क्योंकि प्राण दृष्टि की भावना के लिए जिम्मेदार है, गंध के लिए अपान, स्वाद के लिए समान, सुनने के लिए उदान और स्पर्श के लिए व्यान । इसके अतरिक्त हम सबसे सामान्य स्थिति में पर्यावरण की प्राण वायुओं को श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं उत्तर दिशा का वायु प्राण है, दक्षिण में अपान है, पूर्व में समान है, पश्चिम में यह व्यान और ऊपर की ओर उदान है ।

ब्रह्मांड में कुछ अन्य प्रकार के वायु भी हैं जो विभिन्न वायुमंडलीय गतिविधियों के लिए जिम्मेदार हैं । वे संख्या में 7 हैं :

  1. प्रवाह : यह वायु आकाश में बिजली निर्मित करता है ।
  2. अहावा : इस वायु द्वारा ही अंतरिक्ष में सितारे चमकते हैं और समुद्र का पानी जल-वाष्प के रूप में ऊपर जाता है और बारिश के रूप में नीचे आता हैं ।
  3. उधवाहा : यह वायु बादलों के बीच गति के लिए जिम्मेदार है और गर्जन पैदा करता है ।
  4. सांवाहा : यह वायु पहाड़ों को धड़काता है । सांवाहा बादलों को आकार देने और गरज का उत्पादन करने के लिए भी जिम्मेदार है ।
  5. व्यावाहा : यह वायु आकाश में पवित्र जल तैयार करने और आकाशगंगा के निर्माण के लिए जिम्मेदार है।
  6. पारिवाहा : यह वायु ध्यान में बैठने वाले व्यक्ति को ताकत देता है ।
  7. पारावहा : यह वह वायु है जिस पर आत्मा यात्रा करता है ।

© आशीष कुमार 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 33 ☆ तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “ तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!! ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 33 ☆

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!! ☆

 

तू कर प्रयास और पा सफलता

न मिले सफलता तो तू कर प्रयास

अर्जुन बन कर तू भेद चक्षु को

मत्स की ओर समर्पण कर जा

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!

 

तू भेद बाणों की वर्षा से

और खिंच प्रंत्यचा साहस से

एकलव्य बन तू भेद आकाश

जब तक लगे ना घाव वहाँ

कोई मिले ना गुरू यहाँ

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!

 

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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