हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वर्षा ऋतु ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना  – वर्षा ऋतु ।  

दो शब्द रचना कार के—-वर्षा  ऋतु का ‌आना, बूंदों का बरसना, इस धरा के‌ साथ-साथ उस पर रहने वाले समस्त जीव जगत के तन मन को भिगो जाती है। जब धूप से जलती धरती के सीने पर बरखा की‌ फुहारें पड़ती है तो ये धरा हरियाली की चादर ओढ़े रंग रंगीले परिधानों से सजी दुल्हन जैसी अपने ही निखरे रूप यौवन पर मुग्ध हो उठती है, किसान कृषि कार्यों में मगन हो जाता है। बोये गये बीजों के नवांकुरों की कोंपले, दादुर मोर पपीहे की  बोली की तान  अनायास ही जीवन में उमंग, उत्साह, उल्लास का वातावरण सृजित कर देते हैं। इन सब के बीच कजरी आल्हा के धुनों पर मानव मन थिरक उठता है, तो वहीं कहीं पर किसी बिरहिणी का मन अपने पिया की याद में आकुल हो उठता है।  यह रचना आनंद और पीड़ा के इन्ही पलों का चित्रण करती है।

——— सूबेदार पाण्डेय 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  वर्षा ऋतु 

बरखा ऋतु आई उमड़ घुमड़,

बदरा लाई कारें कारें।

तन उल्लसित है मन‌ पुलकित है,

खुशियां  छाई द्वारे द्वारे ।

तन भींगा मन भी भींगा,

भींगी धरती भींगा अंबर।

झर झर झरती बूंदों से,

धरती ने ओढ़ा धानी चूनर ।।१।।

 

वो आती अपार जलराशि ले,

धरती की प्यास बुझाने को।

नदियों संग ताल पोखरों की ,

मानों गागर भर जाने को ।

जब काले मेघा देख मयूरे,

अपना नृत्य दिखाते हैं ।

जल भरते ताल पोखरों में,

दादुर झिंगुर टर्राते हैं ।।२।।

 

पुरवा चलती  जब सनन सनन ,

घहराते बादल घनन घनन ।

गर्मी से मिलती है निजात,

चलती है शीतल सुखद पवन।

घहराते मेघों के उर में,

जब स्वर्ण रेखा खिंच जाती है।

चंचल नटखट बच्ची की तरह,

वह अगले पल छुप जाती है।।३।।

 

कभी आकर पास मचलती है,

कभी दूर दिखाई देती है।

अपना हाथ पकड़ने का,

आमंत्रण मानों देती है।

वह खेल खेलती लुका छुपी का,

दिखती चंचल बाला सी है।

घहराती है नभमंडल में,

धरती पर आती ज्वाला सी है।।४।।

 

कभी दौड़ती तीर्यक तीर्यक ,(टेढे़ मेढ़े)

दिखती है बलखाती सी।

कभी घूमती लहराती,

नर्तकी की नाच दिखाती सी।

कभी कड़कती घन मंडल में,

मन हृदय चीर जाती है।

कभी बज्र का रुप पकड़,

सब तहस नहस  कर जाती है।।५।।

 

जब बरखा ऋतु आती है

त्योहारों के मौसम लाती है।

बालिका वधू संग सब सखियां,

गीत खुशी के गाती है ।

बाग बगीचों अमराई में,

डालों पर झूले पड़ते हैं ।

ढोल नगाड़े बजते हैं,

त्योहारों के मेले सजते हैं। ।६।।

 

कजरी के गीतों से वधुएं,

कजरी तीज मनाती हैं।

जब बरखा ऋतु आती है,

बिरहिणी में बिरह जगाती हैं ।

कोयल पपीहे की बोली,

जिया में हूक उठाती है  ।

चौपालों में उठती आल्हा की धुन,

तन मन में  जोश जगाती हैं    ।।७।।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 15 ☆ मी तुझ्याच साठी आली ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण कविता “मी तुझ्याच साठी आली“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 15 ☆

☆ मी तुझ्याच साठी आली

गाली खळी तुझ्या ती, हसुनी मला म्हणाली

रे धुंद प्रेमवेड्या, मी तुझ्याच साठी आली!!

 

क्षितिजावरील लाली, केशरसुगंध ल्याली

गुलबक्षी पाकळ्यातुनी, गालावरी निमाली

स्पर्शातली मखमाली, लाजुन मला म्हणाली

रे धुंद प्रेमवेड्या, मी तुझ्याच साठी आली!!

 

त्या अथांग सागरातील, जणू स्निग्ध तरल लहरी

तू सुकेशिनी अशी गं, निशिगंधयुक्त कस्तुरी

केसात माळलेली, वेणी मला म्हणाली

रे धुंद प्रेमवेड्या, मी तुझ्याच साठी आली!!

 

ते अधर विलग होती, जणू पाकळ्या कळीच्या

तो गंध चंदनाचा, शब्दात सावलीच्या

काळी विशाल नयने, लाजून मला म्हणाली

रे धुंद प्रेमवेड्या, मी तुझ्याच साठी आली!!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 8 – दादा साहब फाल्के….2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….2 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 8 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….2 ☆ 

शुरू में शूटिंग दादर के एक फ़ोटो स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे।  पत्नी की सहायता से छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। आठ महीने की कठोर साधना के बाद दादासाहब के द्वारा पहली मूक फिल्म “राजा हरिश्चंन्द्र” का निर्माण हुआ। यह चलचित्र सर्वप्रथम दिसम्बर 1912 में कोरोनेशन थिएटर में प्रदर्शित किया गया। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में प्रिमीयर हुई और 3 मई 1913 शनिवार  को कोरोनेशन सिनेमा गिरगांव में पहली भारतीय फ़िल्म का प्रदर्शन हुआ।

पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, बम्बई के कला मर्मज्ञ और सिनेप्रेमी के कारण फिल्म जबरदस्त हिट रही। फालके के फिल्मनिर्मिती के प्रथम प्रयास के संघर्ष की गाथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म ‘हरिश्चंद्राची फॅक्टरी’ 2009 में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया।

इस चलचित्र के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में “भस्मासुर मोहिनी” और “सावित्री” बनाई। 1915 में अपनी इन तीन फिल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए। लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई।

उन्होंने राजा हरिश्चंद्र (१९१३) के बाद मोहिनी भास्मासुर बनाई जिसमें दुर्गा बाई कामत पार्वती और कमला बाई गोखले मोहिनी के रूप में पहली महिला अदाकारा बनीं, सत्यवान सावित्री (१९१४) भी बहुत सफल रही।

तीन फ़िल्मों की सफलता से उन्होंने सभी क़र्ज़ चुका दिए। उसके बाद भी उनकी फ़िल्मों की माँग बनी होने से उन्होंने लंदन से 30,000 रुपयों की नई मशीन लाने का विचार किया। वे 1 अगस्त 1914 को लंदन पहुँच कर बायोस्कोप सिने वीक़ली के मालिक केपबर्न से मिले। उन्होंने फाल्के की फ़िल्मों की स्क्रीनिंग की व्यवस्था कर दी। फ़िल्मों के तकनीक पक्ष की बहुत प्रसंश हुई। हेपवर्थ कम्पनी के मालिक ने उन्हें भारतीय फ़िल्मों को लंदन में फ़िल्माने का प्रस्ताव दिया, वे सभी खर्चो के साथ फाल्के को 300 पौण्ड मासिक भुगतान के साथ लाभ में 20% हिस्सा देने  को भी तैयार थे लेकिन फाल्के ने उनका प्रस्ताव नामंज़ूर करके अपने देश में ही फ़िल्म बनाना जारी रखना सही समझा। वॉर्नर ब्रदर से 200 फ़िल्म रील का प्रस्ताव स्वीकार किया तभी प्रथम विश्वयुद्ध भड़क गया और उनकी माली हालत ख़स्ता हो गई।

उस समय देश में स्वदेशी आंदोलन चल रहा था और आंदोलन के नेता फाल्के से आंदोलन से जुड़ने को कह रहे थे इसलिए अगली फ़िल्मों बनाने हेतु धन की ज़रूरत पूरी करने के लिए उन्होंने नेताओं से सम्पर्क साधा। बाल गंगाधर तिलक ने कुछ प्रयास भी किए लेकिन सफल नहीं हुए। परेशान फाल्के ने अपनी फ़िल्मों के प्रदर्शन के साथ विभिन्न रियासतों में भ्रमण शुरू किया अवध, ग्वालियर, इंदौर, मिराज और जामखंडी गए। अवध से 1000.00, इंदौर से 5,000 मिले और बतौर फ़िल्म प्रदर्शन 1,500 रुपए प्राप्त हो गए।

इस बीच राजा हरीशचंद्र के निगेटिव यात्रा के दौरान गुम गए तो उन्होंने सत्यवादी राजा हरीशचंद्र के नाम से फिरसे फ़िल्म शूट की जिसे आर्यन सिनमा पूना में 3 अप्रेल 1917  को प्रदर्शित किया। इसके बाद उन्होंने “How movies are made” एक डॉक्युमेंटरी फ़िल्म बनाई। कांग्रेस के मई 1917  प्रांतीय अधिवेशन में फाल्के को आमंत्रित किया और तिलक जी ने उपस्थित लोगों से फाल्के जी की मदद की अपील की। तिलक जी की अपील इस व्यापक प्रभाव हुआ। फाल्के जी को अगली फ़िल्म “लंका दहन” बनाने के लिए धन मिल गया। फ़िल्म सितम्बर 1917 में आर्यन सिनमा पूना में प्रदर्शित हुई। फ़िल्म बड़े स्तर पर सफल हुई और फाल्के को 32,000 रुपयों की आमदनी हुई उन्होंने सारे क़र्ज़ उतार कर दिए साथ ही उनके दरवाजे पर पैसा लगाने वालों की भीड़ लगनी लगी।

“लंका-दहन” की भारी सफलता के पश्चात बाल गंगाधर तिलक, रतन जी टाटा और सेठ मनमोहन दास जी रामजी 3,00,000 रुपए इकट्ठे करके फाल्के फ़िल्म कम्पनी लिमिटेड बनाने का प्रस्ताव फाल्के जी के पास भेजा। वे अतिरिक्त 1,50,000 इस प्रावधान के साथ तैयार थे कि फाल्के जी को पूँजी 1,00,000 मान्य होगी और उन्हें लाभ में 75% हिस्सेदारी भी मिलेगी। फाल्के जी ने प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया।  उन्होंने बम्बई के कपड़ा व्यापारियों वामन श्रीधर आपटे, लक्ष्मण पाठक, मायाशंकर भट्ट, माधवी जेसिंघ और गोकुलदास के प्रस्ताव को स्वीकार करके 1 जनवरी 1918 को फाल्के फ़िल्म कम्पनी को हिंदुस्तान सिनेमा फ़िल्म कम्पनी में बदल कर वामन श्रीधर आपटे को मैनेजिंग पार्टनर और फाल्के जी को वर्किंग पार्टनर बनाया गया।

हिंदुस्तान सिनेमा फ़िल्म कम्पनी की पहली फ़िल्म “श्रीकृष्ण जन्म” बनाई गई जिसमें फाल्के की 6 साल की बेटी मंदाकिनी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फ़िल्म 24 अगस्त 1918 को मजेस्टिक सिनेमा बम्बई में प्रदर्शित की गई। फ़िल्म ने भारी सफलता के साथ 3,00,000 की कमाई की। उसके बाद “कालिया-मर्दन” बनाई गई।  ये दोनों फ़िल्म सफल रहीं और अच्छा व्यवसाय किया। इसके बाद कम्पनी के कारिंदों का फाल्के जी से कुछ ख़र्चों और फ़िल्म के बनाने में लगने वाले समय को लेकर विवाद हो गया। फाल्के फ़िल्म निर्माण के कलात्मक पहलू पर कोई भी दख़लंदाज़ी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे उनका मानना था कि फ़िल्म की तकनीकी गुणवत्ता हेतु कोई समझौता नहीं किया जा सकता इसलिए उन्होंने कम्पनी छोड़ने का निर्णय किया लेकिन 15 वर्षीय अनुबंध के तहत उन्हें कम्पनी छोड़ने की क्षतिपूर्ति स्वरुप कम्पनी से मिले लाभांश के 1,50,000 और 50,000 रुपए बतौर नुक़सान भरपायी कम्पनी को भुगतान करने होंगे।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 40 ☆ पत्थरों को हमने …… ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्राकृतिक पृष्टभूमि में रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “पत्थरों को हमने ……। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 40 ☆

पत्थरों को हमने ……   ☆

पत्थरों को हमने

नायाब होते देखा हैं

रंगीन, कीमती और

चमकदार बनते देखा हैं।

 

आकार इनके

अलग थलग हैं

बेशकीमती बनकर

गले में ताइत बनते देखा हैं ।

 

ये बस चमकीले हैं

इनमें जान नहीं है

पर कितनों को इन पर

जान न्योछावर करते देखा हैं ।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 47 – तुलसी गीता ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “ कला । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 47 ☆

☆ तुलसी गीता 

क्या आप जानते हैं कि हिन्दू तुलसी को देवी माँ का रूप मानते हैं। क्यों? क्योंकि इस दुनिया में कोई भी ऐसी बीमारी नहीं है जिसका अकेले तुलसी द्वारा इलाज नहीं किया जा सकता हो । इसके जीवन देने वाले गुणों के कारण तुलसी को देवी का रूप माना जाता है । इसलिए मैंने तुलसी देवी की प्रार्थना की और उससे अनुरोध किया कि कृपया मुझे अपने औषधिय गुण दें । मैं हर बार माँ तुलसी की ऐसी ही प्रार्थना करता हूँ जब भी उनसे कुछ पत्तियाँ या उनके बीज माँगता हूँ । किसी से कुछ भी प्राप्त करने का यह तरीका है ।

तब मैंने राम तुलसी या सफेद तुलसी की पाँच पत्तियों और श्यामा तुलसी या काली तुलसी की सात पत्तियों और राम तुलसी के 21 बीजों को तोड़ा । यह संयोजन महत्वपूर्ण है, और फिर पानी में उबालने के बाद मैंने आपको पीने के लिए उस समय दिया जब आपकी इड़ा नाड़ी या शीतल नाड़ी सक्रिय थी, जो गर्म पेय पीते समय सक्रीय होना स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है । तुलसी के गुण सामान्य परिस्थितियों में गर्म होते हैं । मुझे ज्ञात है कि तुलसी के पत्तों और बीजों को पानी के साथ उबालकर पीने से एक विशेष ऊर्जा निकलती है जो कफ के नकारात्मक आयनों को बेअसर कर देती हैं, क्योंकि सर्दी, ज़ुखाम के समय शरीर में कफ अधिक उत्पन्न होता है । 45 मिनट के भीतर बुखार सहित आपकी खांसी, ज़ुखाम और ठंड खत्म हो जाएगी ।

तुलसी के उपयोग के कई फायदे और उसकी कई प्रकार की उर्जाएँ हैं कुछ सकल या स्थूल अन्य सूक्ष्म हैं, जो आमतौर पर मनुष्यों के लिए सकारात्मक होती हैं । पौधों और पेड़ों के इन सकारात्मक गुणों के कारण, हम आम तौर पर पेड़ों और पौधों की प्रार्थना करते हैं । कुछ हमारे शरीर के लिए फायदेमंद हैं, दूसरे हमारे मस्तिष्क के लिए, और कुछ आध्यात्मिक प्रगति के लिए, यहाँ तक कि कुछ भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी उपयोगी है ।  क्या आप जानते हैं कि साँस लेने से हमें शरीर के लिए आवश्यक ऑक्सीजन मिलती है जो शरीर के लिए प्राण का निर्माण करती है । पीपल का वृक्ष, उन कुछ वृक्षों में से एक है जो 24 घंटे ऑक्सीजन छोड़ते हैं । अस्थमा, मधुमेह, दस्त, मिर्गी, गैस्ट्रिक समस्याओं, सूजन, संक्रमण, और यौन विकारों के इलाज के लिए पीपल के वृक्ष का उपयोग किया जा सकता है । यह पीलिया के लिए भी बहुत अच्छा है । और आप तुलसी के महत्व को जानते हैं, वह पृथ्वी पर उन कुछ पौधे में से एक है जो प्रजारक या ओजोन भी छोड़ता है ।

हाँ, तुलसी संयंत्र दिन में 20 घंटे ऑक्सीजन और 4 घंटे ओजोन छोड़ता है । और यह चार घंटों की ओजोन ऐसे रूप में आती है, जो पर्यावरण को साफ करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । लेकिन इसे ध्यान में रखें की रविवार को तुलसी द्वारा मुक्त की गयी ओजोन हानिकारक है । इसलिए ही ऐसा कहा जाता है कि रविवार को तुलसी के पौधे को नहीं छूना चाहिए । तुलसी के पौधे को स्वर्ग और पृथ्वी को जोड़ने वाला बिंदु माना जाता है । एक पारंपरिक प्रार्थना बताती है कि निर्माता देवता ब्रह्मा इसकी शाखाओं में रहते हैं, सभी हिंदू तीर्थ इसकी जड़ों में रहते हैं ।  गंगा इसकी जड़ों में बहती है, इसके तनों और पत्तियों में सभी देवताओं का वास माना जा सकता है । इसकी शाखाओं के ऊपरी भाग में सभी वेदों का वास माना जाता है । इसे घरेलू देवी के रूप में माना जाता है जिसे विशेष रूप से “गृह देवी” भी कहा जाता है । मंगलवार और शुक्रवार को विशेष रूप से तुलसी पूजा के लिए पवित्र माना जाता है । ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास की देव प्रबोधिनी एकादशी को तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है । इस दिन शालिग्राम और तुलसी जी का विवाह कराकर पुण्यात्मा लोग कन्या दान का फल प्राप्त करते हैं । तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया है । तुलसी की नियमित पूजा से हमें सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है । तुलसी विवाह की कहानी कुछ इस तरह से है ।

प्राचीन काल में जलंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था । वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था । उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह विजयी बना हुआ था । जलंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गए तथा रक्षा की गुहार लगाई । उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया । उन्होंने जलंधर का रूप धर कर छल से वृंदा का स्पर्श किया । वृंदा का पति जलंधर, देवताओं से पराक्रम से युद्ध कर रहा था लेकिन वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया । जैसे ही वृंदा का सतीत्व भंग हुआ, जलंधर का सिर उसके आंगन में आ गिरा । जब वृंदा ने यह देखा तो क्रोधित होकर जानना चाहा कि फिर जिसे उसने स्पर्श किया वह कौन है । सामने साक्षात भगवान विष्णु जी खड़े थे । उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, ‘जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम्हारी पत्नी का भी छलपूर्वक हरण होगा और स्त्री वियोग सहने के लिए तुम भी मृत्यु लोक में जन्म लोगे’ यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई । वृंदा के शाप से ही प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया और उन्हें माता सीता से वियोग सहना पड़ा़ । एक और शाप। जिस जगह वृंदा सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ ।

जिस घर में तुलसी होती हैं, वहाँ यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते । गंगा व नर्मदा के जल में स्नान तथा तुलसी का पूजन बराबर माना जाता है । चाहे मनुष्य कितना भी पापी क्यों न हो, मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है । जो मनुष्य तुलसी व आंवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं । वो दैत्य जालंधर की भूमि ही आज जलंधर शहर नाम से विख्यात है । सती वृंदा का मंदिर जलंधर शहर के मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है । कहते हैं इस स्थान पर एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी । सच्चे मन से 40 दिन तक सती वृंदा देवी के मंदिर में पूजा करने से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं ।

एक अन्य कथा में आरंभ यथावत है लेकिन इस कथा में वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है । अत: तुम पत्थर के बनोगे । यह पत्थर शालिग्राम कहलाया । विष्णु ने कहा, ‘हे वृंदा! मैं तुम्हारे सतीत्व का आदर करता हूँ लेकिन तुम तुलसी बनकर सदा मेरे साथ रहोगी । जो मनुष्य कार्तिक एकादशी के दिन तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी’ बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है । शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी का ही प्रतीकात्मक विवाह माना जाता है । तुलसी विवाह चार महीने की चतुर्मास काल का अंत होता है, जो मानसून का अंत है और शादी और अन्य अनुष्ठानों के लिए अशुभ माना जाता है, इसलिए इस दिन भारत में वार्षिक विवाह के मौसम का उद्घाटन हो जाता है । तुलसी पौधे की शाखाओं को उखाड़ फेंकना और कटौती करना प्रतिबंधित है । जब तुलसी का पौधा सूख जाता है तो सूखे पौधे को पानी में विसर्जित किया जाता है, क्योंकि धार्मिक संस्कारों में सूखी हुई तुलसी का उपयोग नहीं किया जाता । हालांकि हिंदू पूजा के लिए तुलसी की पत्तियाँ जरूरी हैं, इसके लिए सख्त नियम हैं । केवल एक पुरुष को ही तुलसी के पत्तों को केवल दिन के उजाले में ही तोडना चाहिए । तुलसी के पत्तों को तोड़ने से पहले माँ तुलसी से क्षमा प्रार्थना भी करनी चाहिए क्योंकि हम उनके शरीर का एक भाग ले रहे हैं ।

दुनिया में कई प्रकार के तुलसी के पौधे उत्पन्न होते हैं लेकिन छः सबसे महत्वपूर्ण हैं जो भारत में पाए जाते हैं । वे य़े हैं :

1) राम तुलसी या सफेद तुलसी : तुलसी की यह किस्म चीन, ब्राजील, पूर्वी नेपाल, साथ ही साथ बंगाल, बिहार चटगांव और भारत के दक्षिणी राज्यों में पाई जाती है । पौधे के सभी हिस्सों में से एक मजबूत सुगंध निकलती है । राम तुलसी की यह सुगंध बहुत ही सुहानी होती है । हथेलियों के बीच में इस तुलसी की पत्तियों को कुचलने से तुलसी की अन्य किस्मों की तुलना में इसमें से एक मजबूत सुगंध निकलती है । तुलसी की इस किस्म का उपयोग कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों के इलाज के लिए किया जाता है ।

2) कृष्णा तुलसी या श्यामा तुलसी : यह किस्म भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में पाई जाती है । इसका उपयोग गले के संक्रमण और श्वसन प्रणाली, खांसी, आतंरिक बुखार, नाक घाव, संक्रमित घाव, कान दर्द, मूत्र संबंधी विकार, त्वचा रोग आदि के इलाज के लिए किया जाता है ।

3) कपूर तुलसी : जहाँ इस तुलसी के पौधों के माध्यम से हवा बहती है, यह आसपास के क्षेत्रों को शुद्ध बनाती है । समृद्ध उद्यान के लिए कपूर तुलसी सबसे अच्छी और पवित्र है । इस तुलसी को समशीतोष्ण मौसम में आत्म-बीज के लिए भी जाना जाता है, जो तुलसी के लिए काफी असामान्य है । यह अनुकूलजन, प्रतिरक्षक क्षमता बढ़ाने वाली, कवक विरोधी और जीवाणु विरोधी है । इस तुलसी का रोजाना एक ताजा पत्ता खाएं, या पत्तियों और फूलों को चुनें और उन्हें सूखाएं और चाय बनाएं ।

4) वन तुलसी : वन तुलसी हिमालय में और भारत के मैदानी इलाकों में पायी जाती हैं, जहाँ यह प्राकृतिक पौधे के रूप में बढ़ती है । वन तुलसी की खेती भी की जाती है और यह पूरे एशिया और अफ्रीका के जंगलों में अपने आप ही बढ़ती रहती है ।

5) नींबू तुलसी : इसमें नींबू की तरह सुगंध आती है ।

6) पुदीना तुलसी : इसमें से पुदीना की तरह सुगंध आती है ।

सामान्य लोगों को इन छह प्रकार के तुलसी के विषय में पता है, लेकिन एक बहुत ही दुर्लभ तुलसी भी होती हैं, जिनके विषय में बहुत ही कम लोग जानते हैं । जिसे ‘लक्ष्मी तुलसी’ कहा जाता है।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 37 –सानेगुरुजी पुण्यतिथी निमित्त – सहनशीलतेचा सागर माझी आई  ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  दिनांक 11 जून  को आदरणीय स्व सदाशिव पांडुरंग साने जी  जो कि आदरणीय साने  गुरूजी के नाम से प्रसिद्ध हैं,  उनकी पुण्यतिथि  के अवसर पर आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी की रचना  “ सहनशीलतेचा सागर माझी आई ”।  श्रीमती उर्मिला जी के शब्दों में – “सानेगुरुजी पुण्यतिथी निमित्त लिहिलेली माझ्या आईबाबचा लेख आहे “. उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 37 ☆

☆ सहनशीलतेचा सागर माझी आई  ☆ 
 
‘ आई ‘ म्हणजे ईश्वर,वात्सल्याचा सागर,मायेचा आगर गोड्या पाण्याचा झरा . . . हे सर्व कवितेत येत त्याला भरपूर लाईक्स पण मिळतात. पण ” प्रेमस्वरुप आई. . . ही कविता म्हणून गेलेली आई परत येत नाही पण तिच्या प्रेमळ स्मृती मात्र आपल्या हृदयात कायम कोरल्या जातात.  प्रत्येकाची आई अशी कुठल्याना कुठल्या अंगाने छान असते.

माझी आई नावाप्रमाणेच सरस्वती साधी शांत सोज्वळ मूर्ती,नवुवार  सुती साधं पातळ डोईवर पदर सावळी पण नेटकी अशी माझी आई .   शिक्षण फक्त दुसरीच पण अक्षर  मोत्यासारखं ! तिला लहानपणी वडील नव्हते तर तिने तिच्या मामांकडून घरीच इंग्रजी शिकली. आम्हाला ती घडघडा म्हणून लिहून दाखवायची. आणि शिकवायचीही. तिच्या सुंदर अक्षरामुळेच आम्हा भावंडांच्या अक्षरांना सुंदर वळण लागलं.

आम्हाला ती नेहमी एका कृष्णभक्त विधवा गरीब आईच्या ‘गोपाळ ‘ नावाच्या मुलाची गोष्ट सांगायची. छोट्या गोपाळला जंगलातून शाळेत जावे लागायचे त्याला वडील नव्हते. आईने त्याला सांगितले जंगलात शिरण्यापूर्वी तू दादा अशी हाक मार तुझा दादा येईल व तुला सोडेल व परत आणेल. त्या मुलाने आईवर विश्र्वास ठेवला. त्याला आईच्या उत्कट भक्तीमुळे श्रीकृष्ण  शाळेत आणणे नेणे सर्व मदत करीत असे. हे ऐकल्यापासून आमचीही देवावर श्रद्धा बसली व आज तिच्या कृपेने श्रीसद्गुरुकृपेचा लाभ झाला. व आयुष्यभर साधं सरळ वागण्याचं बाळकडू तिच्याकडूनच आम्हाला  मिळालं.

आकाश कसं अगदी स्वच्छ निरभ्र असीम अमर्याद आईच्या मायेनं भरल्यागत असतं तशी माझी आई होती. त्या आकाशात कधी गडगडाट नाही कधी कडकडाट नाही झाला. ती इतकी सोशीक आणि सहनशील होती की,ती गेल्यावर माझी एक बालमैत्रीण मला भेटायला आल्यावर म्हणाली. . ” मालू ,तुझी आई नां नको इतकी गरीब होती गं. . ! माणसानं इतकं गरीब पण  नसावं. . !”

पण ती होती हे खरं !

आमचं एकत्र कुटुंब होतं. घरात मोठे काका काकू व आम्ही. काका पेन्शन नसलेले पेन्शनर व वडिलांचं टेलरिंगचं दुकान. त्यामुळे हातातोंडाशी गाठ. !

काकू घरातलं स्वयंपाक पाणी गाईंच्या धारा इ. व आई वरचं सगळं पडेल ते काम उन्हं,पाऊस थंडी वारा या कशाचाही बाऊ न करता अखंड काम करत रहायची. दुसऱ्या कुणी मदत करावी ही अपेक्षा नाही व कितीही काम पडलं तरी तक्रार नाही.

जेवताना ती आम्हाला साने गुरुजींच्या गोष्टी सांगायची. विशेषत्वानं लक्षात राहिली ती ” अळणी भाजी ” व आयुष्य जगताना ती उपयोगीही पडली.

गंमत म्हणजे सत्तरीनंतरही आम्हा सर्व भावंडांच्या जन्मतारखा,वेळा , व वार हेही ती पटापट सांगत असे.

आईला मधूमालतीची फुलं खूप आवडायची म्हणून तिनं माझं नाव मालती व भावाचं मधू ठेवलं. झाडाफुलांची तिला खूप आवड.

आम्ही आठ भावंडं माझा धाकटा भाऊ गजानन जन्मला तेव्हा मी नववीत होते. शाळा सुटल्यावर येताना दवाखान्यात बाळाला बघायला गेले तर आई म्हणाली हा बघ माझा आठवा कृष्ण. ! आणि खरंच तिनं फक्त जन्म दिला पण तो पहिल्यापासून वाढला माझ्या काकूच्या कुशीत. तिला मूलबाळ नव्हतं तिनं आम्हा सर्वांना संगोपन आईच्या मायेनं केलं.

माझी काकू व आई दोघीही बहिणीप्रमाणे वागायच्या आमचं घर म्हणजे कृष्णाचं गोकुळच जणूं.

 

©️®️उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक: ९-६-२०

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #8 ☆ मित….. (अंतिम भाग) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #8 ☆ मित….. (अंतिम भाग) ☆

पुसत तो बाहेर आला. बाहेर येऊन पाहिले तर त्याचे बाबा आणि गावातल्या काही मंडळींची बैठक सुरु होती. जवळजवळ संपण्याच्या तयारीत होती. अब्दुल मियाँ ही बसले होते.

मित जवळ आला तेव्हा बैठक संपली होती जाता जाता अब्दुल मियाँ मितला म्हटले

अब्दुल मियाँ- संभाल लेना बेटा। बच्ची थोड़ी-सी नादान है पर शिक़ायत का कोई मौक़ा नहीं देगी ।

एवढे सांगुन अब्दुल मियाँ चालले  गेले. सगळी मंडळी मितच्या बाबांना शुभेच्छा देत जात होते. बाबा फार खुश दिसत होते. सगळी मंडळी गेल्यावर बाबा त्याच्या जवळ आले.

बाबा- मोठा झालास तू आज…….

आणि हसतच चालले गेले. एवढे खुश बाबा तेव्हाच व्हायचे जेव्हा खुप महत्वाची गोष्ट किंवा महत्वाचा निर्णय करायचे. हे त्याला माहीत होते. तो आई जवळ गेला. आई स्वयंपाक घरात काहीतरी काम करत होती.

मित- आई. अगं काय आहे हे. बाबा असं का म्हणताहेत.  आणि ते अब्दुल मियाँ पण……मला काहीच कळत नाहीये.

आई (हसत) – पण आम्हाला कळले आहे. आणि तुझं लग्न तुझ्या आवडीच्या मुलीशी, मुस्कानशी करून देताहेत तुझे बाबा.

मित(आश्चर्याने) – काय? मुस्कान…. आणि कोणी सांगीतले गं तुला ती मला आवडते म्हणून.

आई –  मग नाही आवडत का? आता झालीय ना बोलणी पुर्ण. आता लपवून काय भेटणार आहे तुला.

मित – अगं कोणी काय केलं. मला काही कळू देशील का?

आई- अरे, लग्न ठरलंय तुझं मुस्कानशी. तुच नाही का तिला पाहायला जायचा. ती पण तुझीच वाट पाहायची म्हणे. सगळ्या गावात चर्चा चालली होती. तिच्या बाबांना कळलं आणि ते आले होते घरी. तूझे बाबा पण लगेच तयार झाले लग्नाला. त्यांनीच ठरवलं. तुझ्या बाबांनाही आवडते ती मुलगी.

मित- अगं मी आणि तिला पाहायला. आई तुम्ही उगाच काहीही समजू नका. माझ्यात आणि तिच्यात काहीच नाही. आणि मी काही तिला पाहायला नाही गेलो कधी.

आई- पण तीने तर जेवण सोडलं होतं म्हणे तुझ्या साठी.

मित- काय?

आई- हो. सगळ्या गावाला माहीत आहे. आणि तुझ्या बाबांनीही लग्नाची तारीख फिक्स केली.

मित- अगं पण………

आई- पण बीन काही नाही. मला खुप कामं करायची आहेत. तू जा बरं इथून.

तो पाय आपटत निघून गेला. रूममध्ये येऊन त्याने परत मोबाईल पाहीला. मॅसेज अजुनही रीड झाला नव्हता. त्याने फोन केला पण फोन ही लागले नाही. त्याने खुप प्रयत्न केला पण काही फायदा झाला नाही. शेवटी कंटाळून त्याने मोबाईल बाजुला ठेवला. आणि पलंगावर तसाच विचारात पडून राहीला.

सोशल मिडियाच्या या व्हॅर्चयुअल जगात अनेक ओळखी बनतात. पुसल्या जातात. काही क्षणभर आठवतं तर काही चिरकाल स्मरणात राहतात. सोशल मिडियावर का होईना पण प्रेम हे कुठेही झाले तरी ते प्रेम आहे. भावना तेवढ्याच जुळतात.

गुलज़ार म्हणतात,

जब जायका आता था एक सफ़ा पलटने का 

अब उँगली क्लिक करने से एक झपकी गुजरती है 

बहुत कुछ तय ब तय खुलता चला जाता है पर्दे पर 

किताबों से जो जाती राबता था, कट गया है 

कभी सीने पर रख के लेट जाते थे 

कभी गोदी मे लेते थे 

कभी घुटनों को  अपनी रहल की सुरत बना कर 

नींद सजदे मे पढा करते थे 

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा मगर 

मगर वो जो किताबों मे मिला करते थे सूखे फूल और महका हुए रुके 

किताबें मांगने गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे 

उनका क्या होगा

जे प्रेम आधी डोळयांतल्या डोळ्यांत सुरू व्हायचं. डोळ्यांत असो की ऑनलाइन प्रेम हे प्रेम असतं. भावना त्याच असतात. पण जुळण्याचे स्वरूप बदलले आणि दुखावण्याचेही.

(समाप्त)

 © कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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आध्यत्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – त्रयोदश अध्याय (27) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

त्रयोदश अध्याय

(ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय)

 

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्‌ ।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।27।।

 

नाशवान हर वस्तु में , रहते है भगवान

वही सत्य को देखता, जिसका यह अनुमान।।27।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है।।27।।

 

He sees, who sees the Supreme Lord, existing equally in all beings, the unperishing within the perishing.।।27।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 51 ☆ मानव ग़लतियों का पुतला है ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मानव ग़लतियों का पुतला है ।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 51 ☆

☆ मानव ग़लतियों का पुतला है

‘ग़लत लोगों से अच्छी वस्तुओं की अपेक्षा करके हम दु:खों व ग़मों को प्राप्त करते हैं और आधी मुसीबतें हम अच्छे लोगों में दोष ढूंढ कर प्राप्त करते हैं’… इसमें अंतर्निहित है बहुत सुंदर संदेश… एक ऐसी सीख, जिसे अपना कर आप अपना जीवन सफल बना सकते हैं। इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि इंसान वही देता है, जो उसके पास होता है। यदि आप ग़लत लोगों की संगति में रहकर श्रेष्ठ पाने की चेष्टा करेंगे, तो आपको शुभ परिणाम की प्राप्ति कदापि नहीं होगी और एक दिन आपको अपनी भूल पर अवश्य पछताना पड़ेगा। ‘यह मथुरा काजर की कोठरि, जे आवहिं ते कारे’ से आप स्वयं ही अनुमान लगाएं कि काजल की कोठरी से बाहर आने वाला इंसान उजला कैसे हो सकता है? इसी प्रकार ‘कोयला होई न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ से स्पष्ट होता है कि बुरी व दूषित मनोवृत्ति वाले व्यक्ति से शुभ की आशा व अपेक्षा करना, स्वयं के साथ विश्वासघात करना है; जो भविष्य में दु:ख व अवसाद का कारण बनती है और उस स्थिति में मानव की दशा अत्यंत दयनीय हो जाती है, शोचनीय हो जाती है।’अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय निकल जाने के पश्चात् प्रायश्चित करना व्यर्थ है, निष्फल है, क्योंकि उसका परिणाम कभी शुभ हो ही नहीं सकता। इसलिए आज में अर्थात् वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, क्योंकि कल कभी आता नहीं और आज कभी जाता नहीं। सो! अतीत का स्मरण कर अपने वर्तमान को नष्ट मत करें। हां! अतीत से सबक व शिक्षा ग्रहण कर अपने आज अर्थात् वर्तमान को सुंदर अवश्य बनाएं, क्योंकि भविष्य सदा वर्तमान के रूप में ही दस्तक देता है।
दोष-दर्शन मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। हम प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति में दोष देखते हैं, जो हमारे अंतर्मन की नकारात्मकता को दर्शाता है। आधी मुसीबतों का सामना तो मानव को अच्छे लोगों में अवगुण तलाशने के कारण करना पड़ता है। इसलिए हमें दूसरों पर दोषारोपण करने की अपेक्षा, आत्मावलोकन करना चाहिए…अपने अंतर्मन में निहित दोषों व अवगुणों पर दृष्टिपात कर, उनसे मुक्ति पाने के उपाय तलाशने चाहिएं। जीवन में जो भी अच्छा व उपयोगी दिखाई पड़े; उसे न केवल सहेज-संजोकर रखना चाहिए, बल्कि जीवन में धारण करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए अर्थात् जो अच्छा व उपयोगी नहीं है; उसके विषय में सोचना भी हानिकारक है, त्याज्य है, जीवन में विष समान है। जीवन में जो भी होता है, मानव के हित के लिए होता है और परमात्मा कभी किसी का बुरा करना तो दूर–मात्र उसकी कल्पना भी नहीं करता, क्योंकि हम सब उस परम-पिता की संतान हैं। सो! आवश्यकता है, उसकी महत्ता को जानने-समझने व स्वीकारने  की।
सो! उस लम्हे को बुरा मत कहो; जो आपको ठोकर मारता है; कष्ट पहुंचाता है, बल्कि उस लम्हे की क़द्र करो, क्योंकि वह आपको जीने का अंदाज़ सिखाता है अर्थात् यदि जीवन में कोई आपदा आती है, तो उस स्थिति में किसी को दोष मत दो और शत्रु व अपराधी मत स्वीकार करो, बल्कि उससे सीख लो और भविष्य में उस ग़लती को कभी मत दोहराओ। उस लम्हे को जीवन में सदैव स्मरण रखो, क्योंकि वह आपका गुरु है, शिक्षक है… जो जीने की सही राह दर्शाता है। ‘इस संसार में सबसे कठिन है… परवाह करने वालों को ढूंढना, क्योंकि इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ निकालते हैं।’ आधुनिक युग में हर इंसान स्वार्थी है तथा उपयोगिता के आधार पर संबंध कायम करता है, क्योंकि वह सदैव अहं में लिप्त रहता है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और अहंनिष्ठ मानव में सर्वश्रेष्ठता का भाव कूट-कूट कर भरा रहता है। इसलिए मानव ‘यूज़ एंड थ्रो’ के सिद्धांत में विश्वास करता है। इसी प्रकार संबंध भी उसी आधार पर कायम किए जाते हैं, जिससे मानव को लाभ प्राप्त होता है और वे उसकी स्वार्थ-सिद्धि में भी सहायक सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही वह उन्ही कार्यों को अंजाम देता है; उन लोगों से ‘हैलो हाय’ करके स्वयं को भाग्यशाली स्वीकार, केवल उनकी ही सराहना करता है तथा समाज में अपना रूतबा कायम कर संतोष प्राप्त करता है।
सो! मानव को सदैव ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए, जो उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर बन, ढाल के रूप में खड़े रहें। एक सच्चा मित्र भले ही उसे साथ दिखाई न दे, परंतु कठिनाई के समय में वह उसका साथ अवश्य निभाता है। ऐसे लोगों की संगति मानव को श्रेष्ठतम स्थिति तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है तथा वह उसे अपने जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि स्वीकार करता है। सच्चा मित्र उसे बियाबान जंगल में अकेला भटकने के लिए कभी नहीं छोड़ता, बल्कि दु:ख के समय धैर्य बंधाता है;  प्रोत्साहित करता है… ‘मैं हूं न’ कहकर उसे टूटने नहीं देता। वह उसे आगामी आपदाओं के भंवर से निकाल, अपने दायित्व का यथोचित निर्वहन करता है।
आइए! मित्रता में दरार उत्पन्न करने वाले तत्वों के विषय में भी जानकारी प्राप्त कर लें। मानव का अहं अर्थात् स्वयं के सम्मुख दूसरे के अस्तित्व को नकार कर उसे हेय समझना– मैत्री भाव में शत्रुता का मुख्य कारण होता है। इसके साथ दूसरों से अपेक्षा करना भी मित्रता में सेंध लगाने के समान है। दोस्ती में छोटे -बड़े व अमीरी-गरीबी का भाव संबंध-विच्छेद का मुख्य कारण स्वीकार किया जाता है। कृष्ण सुदामा की दोस्ती आज भी विश्व-प्रसिद्ध है, क्योंकि वे तुच्छ स्वार्थों में लिप्त नहीं थे और वहां त्याग, सौहार्द व अधिकाधिक देने का भाव विद्यमान था। अविश्वास, संशय, शक़ व संदेह का भाव ही शत्रुता का मूल है। सो! मित्रता में अटूट विश्वास व समर्पण भाव होना अपेक्षित है। हमें यह नहीं सोचना है कि उसने हमारे लिए क्या किया है, बल्कि हममें वह सब करने का जुनून होना अपेक्षित है, जिसे करने का हम में साहस व सामर्थ्य है। सो! जितना हममें त्याग का भाव सुदृढ़ होगा; हमारी दोस्ती उतनी प्रगाढ़ होगी।
‘मौन सभी समस्याओं का समाधान है। आप तभी बोलिए, जब आप अनुभव करते हैं कि आपके शब्द मौन से बेहतर हैं।’ मौन नौ निधियों का आग़ार है। यदि आप किसी विषय, संवाद व समस्या पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते और कुछ समय तक शांत बने रहते है, तो उसका समाधान स्वयं निकल आता है। मौन में वह असीम, अद्वितीय व अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं; जिनका प्रभाव अक्षुण्ण होता है। वाणी का माधुर्य व यथासमय बोलना– शत्रुता का शमन करता है। वैसे अधिकतर समस्याओं का मूल हमारे कटु वचन हैं; जिसके अनगिनत उदाहरण हमारे समक्ष हैं। इसके साथ सभी उलझनों का जवाब व समस्याओं का समाधान भी अपनी जगह सही है। ‘तू भी सही है और अपनी जगह मैं भी सही हूं’– जब हम इस सकारात्मक दृष्टिकोण को जीवन में अपना लेते हैं, तो समस्याएं अस्तित्वहीन हो जाती हैं। हां! इसके लिए हमें दरक़ार होगी– विनम्रता से दूसरे की महत्ता स्वीकारने की। सो! यदि हम इस सिद्धांत को जीवन का हिस्सा बना लेते हैं, तो जीवन रूपी गाड़ी में स्पीड-ब्रेकर अर्थात् अवरोधक कभी आते ही नहीं।
सो! हमें सदैव अच्छे लोगों की संगति करनी चाहिए और उनमें अवगुणों-दोषों की तलाश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मानव तो ग़लतियों का पुतला है। यदि हम संपूर्ण मानव की तलाश में निकलेंगे, तो हमें सफलता नहीं प्राप्त होगी और हम नितांत अकेले रह जाएंगे। इसलिए हमें उनसे यह सीख लेनी चाहिए कि ‘जब दूसरे लोग हमारे दोषों को अनदेखा कर, हमारे साथ संबंध-निर्वाह कर सकते हैं, तो हम उन्हें दोषों के साथ क्यों नहीं स्वीकार कर सकते?’ इसके साथ ही हमें ग़लत लोगों से शुभ की अपेक्षा करने के भाव का त्याग करना होगा…यही मानव जीवन की उपलब्धि व पराकाष्ठा होगी। इसलिए जो आपको मिला है, उसे श्रेष्ठ समझ स्वीकार करना– सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम बनाना ही मानव की सफलता का रहस्य है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 4 ☆ समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का।)

☆ किसलय की कलम से # 4 ☆

☆ समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का ☆

प्रकृति और पर्यावरण परस्पर पूरक हैं। प्रकृति का असंतुलन ही पर्यावरण क्षरण का अहम कारक है। देश में जहाँ कांक्रीट जंगल बढ़ते जा रहे हैं और वन्यक्षेत्र कम हो रहे हैं, बावजूद इसके भारत में अब भी विस्तृत और सुरक्षित हरित् क्षेत्रफल की कमी नहीं है। सत्यता यह भी है कि आवास, उद्योग व कृषि क्षेत्रों के विस्तार से वन्य क्षेत्रफल में कमी आई है परंतु प्राकृतिक असंतुलन का मूल कारण शहरी, कृषि और औद्योगिक भूखंडों में अनिवार्यतः वृक्षारोपण एवं वन्यक्षेत्रों का और विस्तार न किया जाना है। घरों, इमारतों, सड़कों, औद्योगिक क्षेत्रों व कृषिभूमि में यथोचित वृक्षारोपण की अनिवार्यता सुनिश्चित होना चाहिए। आज प्रमुखतः शहरी क्षेत्रों में इसकी उपेक्षा का दंश वहाँ का हर नागरिक झेल रहा है। गर्मी का प्रकोप, जलस्तर में कमी एवं वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी आज स्पष्ट देखी जा सकती है। हमारे आसपास व सड़कों के किनारे छायादार वृक्षों की कमी समस्त जीवधारियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है। वनों तथा पेड़ों की कटाई से जलस्रोत कम हो रहे हैं। नदियों का पानी घट रहा है। अंधाधुंध विषैले धुएँ से वायुमंडल जहरीला होता जा रहा है। इसके ठीक विपरीत आज भी ग्राम्यांचलों की हरियाली और लहराते खेत सभी को आकर्षित करते हैं। शुद्ध वायु ग्रामीणों की तंदुरुस्ती का एक प्रमुख कारक है।

हम कुछ प्रतिशत सक्षम परिवारों को छोड़ दें तो आज शहरी क्षेत्रों में आवास की विकट समस्या खड़ी हो गई है। लोग घोंसलों जैसे  छोटे कमरों, फ्लैट्स और मकानों में रहने हेतु बाध्य हैं। नगरों-महानगरों की बहुमंजली इमारतों में निवासरत मनुष्यों का घनत्व मधुमक्खियों के छत्तों जैसा हो गया है। ऐसी परिस्थितियों में आदमी अपने स्वास्थ्य व पर्यावरण पर ध्यान न देकर तथाकथित समृद्धि की चाह में अपने ही स्वास्थ्य की बाजी लगा बैठा है। निरंतर प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध चलने की हठ ने भी मनुष्यों में जो बीमारियाँ व परेशानियाँ पैदा की हैं, इन मानवघाती गलतियों का क्रम पिछली सदी से ही शुरू हो चुका था और तब से अभी तक हम अर्थ व स्वार्थ में ही संलिप्त हैं। हमने अपने उन ऋषि-मुनियों, महात्माओं और बुद्धिजीवियों से कुछ नहीं सीखा, जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से मानव कल्याण हेतु अपना श्रेष्ठ अर्पण किया। हम अपनी अधिकांश अच्छी परंपराएँ, प्रथाएँ और आदर्श कर्त्तव्य तक भूलते जा रहे हैं।

पाश्चात्य जीवनशैली, परिस्थितियाँ व संस्कृति के मूलभाव को जाने बगैर हम भारत में रहकर उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। विश्व के प्रत्येक देश अथवा भू-भाग के लोगों का रहन-सहन तथा खान-पान स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियाँ स्वमेव निर्धारित कर लेती हैं। हमारी भारतीय भौगोलिक परिस्थितियाँ उनसे बहुत भिन्न हैं। संस्कार और संस्कृति अहिंसावादी व उदार है, लेकिन आज के वैज्ञानिक युग ने विश्वस्तरीय नजदीकियाँ बढ़ा दी हैं, जिसके अब फायदे कम नुकसान ज्यादा दिखाई पड़ने लगे हैं। विश्व में बढ़ती वैमनस्यता, प्रतिस्पर्धा, वर्चस्व की भावना और अर्थ की आकांक्षा ने मतभेद और मनभेद दोनों पैदा कर दिए हैं। आज सीधा, सरल, सुखी व शांतिमय जीवनयापन किताबी बातों जैसा हो गया है।

एक जमाने में लोग ताजी हवा, स्वच्छ जल, प्राकृतिक परिवेश, शुद्ध-पौष्टिक-खाद्यान्न, योग, व्यायाम व नियम-संयम पर अधिक ध्यान दिया करते थे। शनैः शनैः यही ऐशोआराम और धनोपार्जन इंसान का ही दुश्मन बनता जा रहा है। स्वास्थ्य को छोड़कर सुख का मोह ही आज इंसान की सबसे बड़ी समस्या बन गई है। बदलती जीवनशैली एवं समयाभाव से उत्पन्न परिस्थितियों पर यदि हम गौर करें तो आज अपनाई जा रही दिनचर्या और रहन-सहन स्वयं को अप्रासंगिक तथा हास्यास्पद लगने लगेगी। हमने सुना है कि एक समय जब हमें पानी पीना होता था तो हमारे घर के लोग कुएँ आदि जलस्रोतों से ताजा-शीतल जल सामने प्रस्तुत कर देते थे। घरों के चारों ओर फलदार तथा छायादार वृक्ष हुआ करते थे। बिना रासायनिक खाद के बाड़ियों व खेतों में सब्जियाँ उपलब्ध रहती थीं। गर्मी में पेड़ों के नीचे शीतल छाया में आराम करना कितना सुखद होता था। आँगन में शीतल मंद पवन व प्राकृतिक वातावरण के आनंद की आज कल्पना ही रह गई है।

आज हमारी जो दिनचर्या है, हम जो करने हेतु बाध्य हैं, यदि चाह लें तो उसे बदला भी जा सकता है। कुछ भविष्यदृष्टा व प्रकृति प्रेमियों ने स्वयं को बदलना भी प्रारंभ कर दिया है। लोग दूषित शहरी जीवन को त्याग गाँवों की ओर पलायन करने लगे हैं। लोग प्रकृति की गोद में वृक्षारोपण, जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने के अभियान में जुट गए हैं। कुछ लोग योग व स्वाध्याय के माध्यम से अपनी जीवनशैली  बदलने में लगे हैं। इस समझदारी की आज सबसे बड़ी जरूरत इसलिए भी है कि ‘जान है तो जहान है’, जब हम ही नहीं रहेंगे तो हमारे द्वारा कमाये गए धन और संसाधनों का क्या औचित्य रहेगा?

सोचिए, अब पहले ताजे और शीतल जल को भूमि से निकालकर छत पर बनी टंकियों में कई दिनों के लिए भंडारण करते हैं। फिर दुबारा फ्रिज में शीतल करने रखा जाता है। तत्पश्चात उसके पीने की बारी आती है। पहले ईंट-कंक्रीट के बने कमरों का निर्माण किया जाता है जहाँ प्राकृतिक वायु, सूर्यप्रकाश और खुलापन नहीं होता। फिर वहाँ कृत्रिम प्रकाश, पंखे, ए.सी. से सामान्य वातावरण का अनुभव कर खुश होते हैं। पहले घरों के वातायन-दरवाजे बंद किये जाते हैं फिर बिजली और पंखों के उपयोग से खुलेपन का अनुभव करते हैं। पेड़-पौधे, पुष्प-लताएँ, पशु-पक्षी व पर्वत-जंगलों की कृत्रिमता से कमरे व हाल सजाकर नकली खुशी पाते हैं। ताजे फल-फूल, जूस व खाद्य पदार्थों को खाने के बजाए उन्हें रसायनों से संरक्षित कर सीलबंद कर उन्हें फ्रिजों और कोल्ड स्टोरों में रखते हैं। फिर रसायनों और संरक्षण अवधि के दुष्परिणामों की चिंता किए बगैर एक्सपायरी डेट के पहले खाकर स्वयं को सुरक्षित मान लेते हैं। चिंतन करने से ही समझ में आएगा कि हम अपने स्वास्थ्य की खातिर तरोताज़ा चीजों के उपयोग हेतु समय न निकालकर अपने ही शरीर को कितनी हानि पहुँचा रहे हैं। अर्थ को जीवन से अधिक मूल्यवान मानकर ऐसी असंयमित जीवनशैली का अभ्यस्त आज का इंसान अपनी बेवकूफियों को बुद्धिमानी समझ बैठा है।

यह बड़ी विडंबना ही कही जाएगी कि इस मानव और मानव समाज के हितार्थ जब प्रकृति अपने खुले हाथों से सब कुछ लुटाना चाहती है, तब भी मानव उसका उपभोग नहीं करना चाहता, लेकिन कुछ ही अवधि पश्चात प्रकृति प्रदत्त इन्हीं चीजों को हमने खाने-पीने की आदत में शुमार कर लिया है, अर्थात ताजी व स्वस्थ चीजें खाने-पीने के लिए हम प्रयास और अवसर भी नहीं निकाल पा रहे हैं।

देखते ही देखते एक शताब्दी में ही हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। इतनी प्रगति और इतना परिवर्तन मानव समाज के स्वास्थ्य को लेकर किया गया होता तो आज मानव जीवन कितना सुखद व स्वस्थ होता? बीमारियों का कहीं नामोनिशान नहीं होता। आज जितना धन स्वास्थ्य को लेकर निजी व शासकीय स्तर पर व्यय किया जा रहा है, उससे हमारी यथार्थ प्रगति को पंख लग गए होते। सारांश यह है कि हमने आज तक स्वार्थान्ध हो जितनी स्वयं की क्षति की है जितने विनाश की ओर अग्रसर हुए हैं, यदि यही क्रम और गति रही तो एक दिन इस मानवीय जीवन की भयावह दुर्गति निश्चित है।

हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय उन अंतिम अवसरों में एक उपयुक्त अवसर है जब हम अपनी सोच, अपनी मानसिकता और अपनी जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, व मोह इन पाँचों विकारों को सीमित व नियंत्रण में रखना होगा, तभी मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध होगी। यदि हम बदलेंगे तो युग निश्चित रूप से बदलेगा, बस शर्त यही है कि दूसरों का इंतजार किए बगैर हमें स्वयं से ही शुरुआत करना पड़ेगी। आज एक नए जीवन, नए समाज और इस नवीन विचारधारा से जुड़ने और जोड़ने का भी समय आ गया है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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