हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ स्वराज्य का साम्राज्य में विस्तार- पेशवा बाजीराव प्रथम ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग ☆

श्रीमती समीक्षा तैलंग

☆  स्वराज्य का साम्राज्य में विस्तार- पेशवा बाजीराव प्रथम ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग  ☆

(पेशवा बाजीराव विश्वनाथ प्रथम” जयंती विशेष – 18 अगस्त  1700)

बाजीराव प्रथम लगातार आगे बढ़ रहे थे, और यह जानना दिलचस्प है कि उन्होंने कई सामरिक विजय हासिल कीं। 1720 में पेशवा बनने के बाद उन्होंने ४१ से ज़्यादा युद्ध किए और एक भी नहीं हारे जिसके कारण उनके सैनिकों की गति और गतिशीलता हमेशा बनी रही। 1728 में पालखेड का युद्ध 18वीं सदी की महान घुड़सवार लड़ाइयों में से एक माना जाता है और सैन्य रणनीतिकारों द्वारा इसका बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया है। निज़ाम के ख़िलाफ़ बाजीराव की तेज शतरंजी चालों की परिणीति पालखेड में गोदावरी के तट पर एक बड़ी विजय के रूप में निजाम सेना के फँसने और उनके आत्मसमर्पण के रूप में हुई। इस युद्ध में विजय ने बाजीराव की विरासत की नींव रखी।

बाजीराव ने उत्तर भारत में कई अभियान किये। 1737 का दिल्ली अभियान महत्वपूर्ण था। मुगलों की एक बड़ी सेना के साथ आगे बढ़ते हुए, बाजीराव ने अपनी एक और तेज चाल चली। दुश्मन को पछाडा और दिल्ली पहुंचकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। इस अभियान ने दिल्ली में मुगल सम्राट की कमजोरी को उजागर किया। निज़ाम सम्राट का समर्थन करने के लिए दिल्ली जा रहा था जबकि भोपाल की लड़ाई बाजीराव से हार चुका था।

कई इतिहासकारों ने बाजीराव को एक महान सेनापति और सैन्य रणनीतिकार (जो वह थे) के रूप में ध्यान केंद्रित किया है, लेकिन डॉ. कुलकर्णी की पुस्तक में अनेक संदर्भ पढ़कर पाठक बाजीराव की ताकत को कूटनीतिकार के रूप में समझ पाएगा। वे लिखते हैं- “अंतर यह था कि बाजीराव जानते थे कि कब लड़ना है और कहाँ लड़ना है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि कब नहीं लड़ना है”।

“बाजीराव के पास योजना बनाने के लिए दिमाग और क्रियान्वयन के लिए हाथ थे”- ग्रांट डफ (डॉ. कुलकर्णी ब्रिटिश इतिहासकार डफ के एक लोकप्रिय उद्धरण का उल्लेख करते हैं, जिन्होंने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में मराठा इतिहास लिखा था)।

बाजीराव को मल्हारजी होलकर, राणोजी सिंधिया, पिलाजी जाधव आदि का भरपूर सहयोग मिला। बाजीराव के छोटे भाई चिमाजी अप्पा ने 1737-39 में पुर्तगालियों के विरुद्ध कोंकण अभियान चलाया था। पुर्तगाली स्थानीय आबादी पर अत्याचार कर रहे थे। अभियान की अंतिम लड़ाई वसई के किले पर हमला थी। एक लंबी और कठिन लड़ाई के बाद अंततः मई 1739 में किला ढहाया। इस लड़ाई और उसके बाद की संधि के परिणामस्वरूप, ‘सस्ती’ (साल्सेट) (वर्तमान उत्तर/मध्य मुंबई), ठाणे, उत्तरी कोंकण का पूरा द्वीप मराठों के नियंत्रण में आ गया। पुर्तगाली क्षेत्र गोवा और दमन तक ही सीमित रहा। अंग्रेजों के पास केवल मुंबई द्वीप रह गया था। इस लड़ाई में 7 शहरों, 4 बंदरगाहों, 2 युद्धक्षेत्रों और 340 पुर्तगाली गांवों को मराठों ने अपने क़ब्ज़े में लिया था। 1720 और 1740 के दशक में भारत के राजनीतिक शक्ति मानचित्र बहुत अलग दिखते हैं। उन्होंने शिवाजी द्वारा स्थापित ‘स्वराज्य’ को एक ‘साम्राज्य’ में विस्तारित किया और कई बार दिल्ली तक पहुँचे।

ब्रिटिश फील्ड मार्शल बर्नार्ड मोंटगोमरी ने बाजीराव की प्रशंसा करते हुए लिखा- “1727-28 का पालखेड अभियान में बाजीराव प्रथम ने निज़ाम-उल-मुल्क को मात दी। यह रणनीतिक गतिशीलता की उत्कृष्ट कृति है”।

छत्रसाल बुंदेला पर दिल्ली का वजीर “मोहम्मद खान बंगेश” आक्रमण करने पहुँचा तब छत्रसाल को आत्मसमर्पण करना पड़ा। तब उन्होंने बाजीराव को पत्र लिखा-

“जग द्वै उपजे ब्राह्मण, भृगु औ बाजीराव। उन ढाई रजपुतियाँ, इन ढाई तुरकाव”॥

“जो गति ग्राह गजेंद्र की सो गति भई जानहु आज॥ बाजी जात बुंदेल की रखो बाजी लाज”॥

पत्र मिलने के बाद ४०-५० हज़ार की सेना के साथ पेशवा ने बंगेश पर आक्रमण किया। उसे कुछ सोचने का मौक़ा तक नहीं दिया।

भारत के सर सेनापति कै जनरल अरुण कुमार वैद्य जी ने एक जगह कहा है कि (महाराष्ट्र टाइम्स ६ जनवरी १९८४) -“नेपोलियन ने मिट्टी से जिस तरह मार्शल पैदा किए वैसे ही बाजीराव१ ने बारगीर और शीलेदारों से लढैय्ये सरदार पैदा किए। उनका घोड़ा रोकने का सामर्थ्य किसी में नहीं था”।

ऐतिहासिक अभिलेख (बखर) में बाजीराव के अनुसार लिखा है और वे ऐसा ही करते थे- ‘याद रखें, रात सोने के लिए नहीं है, बल्कि बिना किसी चेतावनी के दुश्मन के शिविर पर हमला करने के लिए ईश्वर प्रदत्त अवसर है। नींद घोड़ा चलाते हुए पूरी करनी चाहिए”।

उस समय भारत का अस्सी प्रतिशत भू-भाग मराठा साम्राज्य में शामिल था। 27 फरवरी, 1740 को नासिरजंग के विरुद्ध युद्ध जीतने के बाद मुंगीपैठन में एक संधि पर हस्ताक्षर किये गये। संधि में नासिरजंग ने बाजीराव पेशवा को हंडिया और खरगोन के क्षेत्र दे दिये। उसी की व्यवस्था देखने बाजीराव 30 मार्च को खरगोन गये। बाजीराव पेशवा प्रथम की 28 अप्रैल 1740 (वैशाख शुद्ध शक 1662) को प्रातःकाल मात्र 40 वर्ष की आयु में स्वास्थ्य अचानक बिगड़ने के कारण नर्मदा तट पर रावेरखेड़ी गाँव में निधन हुआ।

प्रसिद्ध इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं- ‘अखंड हिंदुस्तान एक हो गया लगता है’।

बाजीराव१ के सैन्य इतिहास पर ब्रिगेडियर आर. डी. पालोस्कर की पुस्तक “बाजीराव-1 एन आउटस्टैंडिंग कैवर्ली जनरल” एक ऐतिहासिक सैन्य दस्तावेज है।

‘पहिला पेशवा बाजीराव’ प्रो श श्री पुराणिक लिखित पुस्तक के अनुसार बाजीराव प्रथम पर आज तक मराठी में कुल पाँच उपन्यास लिखे गये जो कि आश्चर्यजनक है। पहली पुस्तक 1879 में नागेश विनायक बापट की ‘बाजीराव चरित्र’ है। 1928 में ना के बेहेरे की पुस्तक ‘पहिले बाजीराव पेशवे’ प्रकाशित हुई। उसके बाद 1942 में सरदेसाई जी का मराठी रियासत का पाँचवा भाग ‘पुण्यश्लोक शाहू- पेशवा बाजीराव’ आयी। 1979 में म श्री दीक्षित की पुस्तक ‘प्रतापी बाजीराव’ प्रकाशित हुई।

इतिहासकार द ग गोडसे जी का ऐतिहासिक ग्रंथ ‘मस्तानी’ में वे लिखते हैं- “मस्तानी की कबर के दर्शन करना आसान है। परंतु बाजीराव की समाधि के दर्शन करना आसान नहीं है। निमाड़ ज़िले के किसी कोने में बाजीराव की समाधि पिछले ढाई सौ सालों से निर्वासित अवस्था में अकेले खड़ी है। जिस बाजीराव ने जीवंत रहते हुए पूरे हिंदुस्तान को हिलाकर रख दिया था वही बाजीराव यहाँ सोया हुआ है जिसका भान तक किसी को नहीं है”।

बाजीराव स्मारक संरक्षण समिति के श्री बालाराव इंगले जी ने अख़बार में लेख लिखकर एक आंदोलन खड़ा किया था। परिणामस्वरूप उस समय मध्यप्रदेश की तत्कालीन अर्जुन सिंह सरकार ने उस समाधि की पुनर्स्थापना का आश्वासन दिया था जो पूरा नहीं हुआ। इसका आक्रोश उनके एक लेख के शीर्षक को पढ़कर पता चलता है- “थोरल्या बाजीरावांची समाधी- महाराष्ट्राला खंत नाही मध्यप्रदेशाला गरज नाही!!” अर्थात् “बडे बाजीराव की समाधि- महाराष्ट्र को खेद नहीं मध्यप्रदेश को ज़रूरत नहीं!!” इसके बाद उन्होंने लोकसत्ता अख़बार में फिर एक लेख लिखा जो कि २२ मई १९८३ को प्रकाशित हुआ था। उस लेख को उन्होंने महाराष्ट्र सरकार से मध्यप्रदेश सरकार को समझाने के उद्येश्य से लिखा था। आज जनमानस और सरकारें उनके प्रति कृतघ्नता का भाव रखती हैं। आज भी विकसित भारत के स्वप्न में उन्हें उनका उचित आदर और सम्मान प्राप्त होने की दरकार है।

© श्रीमती समीक्षा तैलंग 

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 190 ☆ # “रक्षाबंधन” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रक्षाबंधन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 190 ☆

☆ # “रक्षाबंधन” # ☆

धागो के इस बंधन पर

खुश होता संसार है

छुपा हुआ है इसमें

भाई बहन का प्यार है

सिर्फ नहीं है रेशम के धागे

यह स्नेह का इजहार है

जनम जनम का पावन रिश्ता

इस जीवन का आधार है

 

आज हर बहना

बुन रही है सपने

भैया से मिलने के अपने

दिनभर भूखी-प्यासी रहकर

राह उसकी लगी है तकने

 

भाई भी मिलने को है आतुर

बहना रहती है मीलों दूर

कैसे उड़कर उस तक पहुंचूं

राह मे सोच रहा होके मजबूर

 

दरवाजे की हर आहट पर

बहना का लगा ध्यान है

पल पल हो रही देरी में

उसके अटके हुए प्राण है

घंटी बजी तो वो दौड़ी

नहीं कुछ उसको भान है

भाई को देख लिपट गई वो

उसको जैसे मिल गया भगवान है

 

राखी बांधी मिठाई खिलाई

उसके चेहरे पर मुस्कान आई

भाई ने सर पर हाथ रखा

रक्षा करने की कसम खाई

 

दोनों के चेहरे पर

खुशी के भाव झलक रहे हैं

आंखों से स्नेह के सागर

चुपके चुपके छलक रहे हैं

 

दोनों को सारा जहां मिल गया

कुछ नहीं अब बाकी है

भाई बहन के मिलन की साक्षी

भाई के कलाई पर राखी है

 

यह पवित्र ऐसा बंधन है

महकता हुआ जैसे चन्दन है

भाई बहन के अमर प्रेम को

मेरा शत् शत् वंदन है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – अम्मा की रोटी… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता ‘अम्मा की रोटी…‘।)

☆ कविता – अम्मा की रोटी… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

याद आती है हमको, अम्मा की रोटी,

गोल गोल चंदा जैसी, अम्मा की रोटी,

मिट्टी के चूल्हे की, सौंधी सी रोटी,

याद आती है हमको, अम्मा की रोटी,

रोज सबेरे उठ कर खाते, अम्मा की रोटी,

पीछे पीछे लिए दौड़ती, अम्मा वो रोटी,

यादों में ही बसी हुई है, अम्मा की रोटी,

गोल गोल चंदा जैसी, अम्मा की रोटी,

भूख नहीं है,नहीं खाना, अम्मा की रोटी,

मना मना के मुझे खिलाती, अम्मा एक रोटी,

मन करता था खाता जाऊं, अम्मा की रोटी,

गोल गोल चंदा जैसी, अम्मा की रोटी,

आपा धापी में,खो गई, अम्मा की रोटी,

रोजी रोटी,आगे, पीछे अम्मा की रोटी,

किस्मतवालों को मिलती है, अम्मा की रोटी,

गोल गोल चंदा जैसी, अम्मा की रोटी,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 254 ☆ व्यंग्य नाटिका – चढ़ता रिश्तेदार ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य नाटिका – ‘चढ़ता रिश्तेदार‘ इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 254 ☆

☆ व्यंग्य नाटिका ☆ चढ़ता रिश्तेदार

 (एक कमरा। खिड़की से धूप आ रही है। कमरे में एक पलंग पर मुंह तक चादर ताने एक आदमी सोया है। गृहस्वामी का प्रवेश।)

मेज़बान- उठिए भाई साहब, धूप चढ़ आयी। आठ बजे का भोंपू बज गया। फैक्टरी वाले काम पर गये।

मेहमान- (कुनमुनाकर चेहरे पर से चादर हटाता है। आंखें मिचमिचाकर) अभी नहीं उठूंगा। कल बात-बात में मुंह से निकल गया कि मेरा आज सवेरे लौटने का विचार है तो आप मुझसे पीछा छुड़ाने में लग गये? मुझे टाइम मत बताइए। मुझे अभी नहीं जाना है।

मेज़बान- (क्षमा याचना के स्वर में) आप मुझे गलत समझे। मैं भला क्यों चाहूंगा कि आप लौट जाएं? आपके पधारने से तो मुझे बड़ी खुशी हुई है। कितने दिन बाद पधारे हैं आप। मैं तो यही चाहता हूं कि आप हमें और कुछ दिन अपने संग का सुख दें।

मेहमान- साहित्यिक भाषा मत झाड़िए।  मैं आपके मन की बात जानता हूं। मेहमानदारी करते मेरी उमर गुज़र गयी। हर तरह के मेज़बानों से निपटा हूं। आप तो रोज पूजा के वक्त घंटी हिलाने के साथ प्रार्थना करते हैं कि मैं जल्दी यहां से दफा हो जाऊं। आपकी पत्नी रोज आपसे झिक-झिक करती है कि मैं अंगद के पांव जैसा जमकर बैठा  आपका राशन क्यों नष्ट कर रहा हूं। लेकिन मैं अभी जाने वाला नहीं। आपकी प्रार्थना से कुछ नहीं होने वाला।

मेज़बान- हरे राम राम। आप तो मुझे पाप में घसीट रहे हैं। मैं तो रोज यही प्रार्थना करता हूं कि आप बार-बार हमारे घर को पवित्र करें। मेरी पत्नी आपकी सेवा करके कितना सुख महसूस करती है आपको कैसे बताऊं। यकीन न हो तो आप खुद पूछ लीजिए।

मेहमान- रहने दीजिए। वह सब मैं समझता हूं। मुंह के सामने झूठी मुस्कान चमका देने से कुछ नहीं होता। मैं पूरे घर का वातावरण भांप लेता हूं। चावल के एक दाने से हंडी की हालत पकड़ लेता हूं। मेरे सामने पाखंड नहीं चलता।

मेज़बान- पता नहीं आपको ऐसा भ्रम कैसे हो गया। हां, हम लोग कभी-कभी यह चर्चा जरूर करने लगते हैं कि आपको आये इतने दिन हो गये, घर के लोग चिंतित हो रहे होंगे।

मेहमान- छोड़िए, छोड़िए। आपकी चिंता को मैं समझता हूं। आपकी चिंता यही है कि मैं आपके घर की देहरी क्यों नहीं छोड़ता। जहां तक मेरे घर वालों का सवाल है, वे मेरी आदत जानते हैं इसलिए चिंतित नहीं होते। मेरा जीवन इसी तरह लोगों को उपकृत करते बीत गया। वे जानते हैं कि मैं जहां भी हूंगा सुख से हूंगा।

मेज़बान- बड़ी अच्छी बात है। हम भी यही चाहते हैं कि आप यहां पूरे सुख से रहें। लीजिए, चाय पीजिए।

मेहमान- पीता हूं। आपसे कहा था कि एक-दो दिन मुझे यहां के आसपास के दर्शनीय स्थल दिखा दीजिए, लेकिन आप झटके पर झटका दिये जा रहे हैं। कभी छुट्टी नहीं मिली तो कभी स्पेशल ड्यूटी लग गयी।

मेज़बान- आपको गलतफहमी हुई है, भाई साहब। इस शहर में कुछ देखने लायक है ही नहीं। लोग यों ही अपने शहर के बारे में शेखी मारते रहते हैं।

मेहमान- उड़िए मत। यहां की संगमरमर की चट्टानें पूरे हिन्दुस्तान में मशहूर हैं। रानी दुर्गावती का एक किला भी है जिसकी लोग चर्चा करते हैं। दरअसल आप चाहते हैं कि मैं अकेला ही चला जाऊं ताकि आपका पैसा बचे और मेरा खर्च हो।

मेज़बान- कैसी बातें करते हैं आप! असली बात यह है कि रानी दुर्गावती का किला अब इतना पुराना हो गया है कि आम आदमी को उसमें कुछ दिलचस्प नज़र नहीं आता और संगमरमर की चट्टानों में इतनी तोड़फोड़ हो गयी है कि उनका नाम भर रह गया है।

मेहमान- जो भी हो। मुझे अपने शहर लौट कर लोगों को बताना है कि मैंने यह सब देखा। इसलिए मुझे यहां से जल्दी विदा करना चाहते हों तो दफ्तर से छुट्टी लीजिए और मुझे ये जगहें घुमाइए।

मेज़बान- ज़रूर घुमाऊंगा। लेकिन आप विदा होने की बात क्यों करते हैं? मुझे इससे पीड़ा होती है।

 

मेहमान- पीड़ा होती है या खुशी होती है यह मैं जानता हूं। ये सब जगहें घूमने के बाद आप अपने पैसे से मेरा रिजर्वेशन करा दीजिए। संगमरमर की एक अच्छी सी मूर्ति भेंट भी कर दीजिएगा। घर जाकर क्या दिखाऊंगा? मैं आपके चढ़ते समधी का फुफेरा भाई हूं।चढ़ता रिश्तेदार हूं। इतना हक तो मेरा बनता ही है। रोज-रोज थोड़े ही आता हूं।

मेज़बान- सब हो जाएगा। हम पर आपका हक तो पूरा है ही। यह भी कोई कहने की बात है?

मेहमान- अगले साल बाल-बच्चों को लेकर आऊंगा। आठ दस दिन रुकूंगा।

मेज़बान- ज़रूर ज़रूर। मेरा अहोभाग्य। हम आपकी प्रतीक्षा करेंगे। आने से पहले सूचित कर दीजिएगा ताकि मैं कहीं इधर-उधर न चला जाऊं।

मेहमान- बिना सूचित किये ही आऊंगा। सूचित करुंगा तो आप जानबूझकर लिख देंगे कि इधर-उधर जा रहा हूं। आप नहीं भी रहेंगे तो आपका परिवार तो रहेगा।

मेज़बान- आप बहुत विनोदी हैं। आपके आने से हमें सचमुच बड़ी खुशी होगी

मेहमान- अब आपको खुशी हो या रंज, हम तो आएंगे। आप में हमें बाहर निकालने की हिम्मत तो है नहीं क्योंकि हम चढ़ते रिश्तेदार हैं। साल भर भी डेरा डाले रहें फिर भी आप चूं नहीं कर सकते। मुझे पता है कि हमारा रहना-खाना आपको अखरेगा क्योंकि महंगाई बढ़ रही है, लेकिन आपको चढ़ते भावों और चढ़ते रिश्तेदारों में से एक का चुनाव करना होगा।

मेज़बान- मैं पहले आज छुट्टी लेकर आपके घूमने-घामने की व्यवस्था करता हूं।

मेहमान-देखा! मैंने रिजर्वेशन की बात कही तो आप फौरन हरकत में आ गये। ठीक है, यहां से विदा होकर मुझे एक और उतरते रिश्तेदार के यहां जाना है। दो-तीन साल से उनका आतिथ्य ग्रहण नहीं किया। कुछ दिन उन्हें भी सेवा का मौका देना है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 253 – शिवोऽहम्*…(4) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 253 शिवोऽहम्*…(4) ?

आदिगुरु शंकराचार्य महाराज के आत्मषटकम् को निर्वाणषटकम् क्यों कहा गया, इसकी प्रतीति चौथे श्लोक में होती है। यह श्लोक कहता है,

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं

न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञः।

अहम् भोजनं नैव भोज्यम् न भोक्ता

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।

मैं न पुण्य से बँधा हूँ और न ही पाप से। मैं सुख और दुख से भी विलग हूँ, इन सबसे मुक्त हूँ। अर्थ स्पष्ट है कि आत्मस्वरूप सद्कर्म या दुष्कर्म नहीं करता। इनसे उत्पन्न होनेवाले कर्मफल से भी कोई सम्बंध नहीं रखता।

मंत्रोच्चारण, तीर्थाटन, ज्ञानार्जन, यजन कर्म सभी को सामान्यतः आत्मस्वरूप का अधिष्ठान माना गया है। षटकम् की अगली पंक्ति  सीमाबद्ध को असीम करती है। यह असीम, सीमित शब्दों में कुछ यूँ अभिव्यक्त होता है, ‘मैं न मंत्र हूँ, न तीर्थ, न ही ज्ञान या यज्ञ।’ भावार्थ है कि आत्मस्वरूप का प्रवास कर्म और कर्मानुभूति से आगे हो चुका है।

मंत्र, तीर्थ, ज्ञान, यज्ञ, पाप, पुण्य, सुख, दुखादि कर्मों पर चिंतन करें तो पाएँगे कि वैदिक दर्शन हर कर्म के नाना प्रकारों का वर्णन करता है। तथापि तत्सम्बंधी विस्तार में जाना इस लघु आलेख में संभव नहीं।

आगे आदिगुरु का कथन विस्तार पाता है, ‘मैं न भोजन हूँ, न भोग का आनंद, न ही भोक्ता।’ अर्थात साधन, साध्य और सिद्धि से ऊँचे उठ जाना। विचार के पार, उर्ध्वाधार। कुछ न होना पर सब कुछ होना का साक्षात्कार है यह। एक अर्थ में देखें तो यही निर्वाण है, यही शून्य है।

वस्तुत: शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।  शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाना होगा।… अपने शून्य का रसपान करें। शून्य में शून्य उँड़ेलें, शून्य से शून्य उलीचें। तत्पश्चात आकलन करें कि शून्य पाया या शून्य खोया?

शून्य अवगाहित करती सृष्टि,

शून्य उकेरने की टिटिहरी कृति,

शून्य के सम्मुख हाँफती सीमाएँ

अगाध शून्य की  अशेष गाथाएँ,

साधो…!

अथाह की कुछ थाह मिली

या फिर शून्य ही हाथ लगा?

साधक एक बार शून्यावस्था में पहुँच जाए तो स्वत: कह उठता है, ‘मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ, शिवोऽहम्..!’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 200 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 200 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 200) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 200 ?

☆☆☆☆☆

लगता था जिन्दगी को

बदलने में वक्त लगेगा

पर क्या पता था बदला

वक्त जिन्दगी बदल देगा…!

☆☆

Always felt, it would take

Time  to  change  the life…

Never knew that changed

time would change the life…!

☆☆☆☆☆

हालात तो कह रहे हैं

मुलाकात नहीं मुमकिन

पर उम्मीद कह रही है

थोड़ा  इंतजार  कर…

☆☆

Circumstances are saying

It’s not possible to meet

But the expectation  says

Just  wait  for a  while..!

☆☆☆☆☆

अब तो तन्हाई भी

मुझसे है कहने लगी

मुझसे ही कर लो मोहब्बत

मैं  तो  बेवफा नहीं…

☆☆

Now,  even loneliness

has also started saying 

Please fall in love with me

At least I am not unfaithful…

☆☆☆☆☆

नज़र जिसकी समझ सके

वही  दोस्त  है वरना…

खूबसूरत   चेहरे  तो

दुश्मनों के भी होते हैं…

☆☆

Just a glance  of  whose,

perceives you fully, is your friend

Otherwise  even   enemies

Too  have  pretty  faces…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 200 ☆ मुक्तिका – राधे माधव… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तिका – राधे माधव…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 200 ☆

☆ मुक्तिका – राधे माधव☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

जब बसंत हो, मुदित रहें राधे माधव

सुनें सभी की, कहें कभी राधे माधव

*

हीरा-लाल सदृश जोड़ी मनबसिया की

नारीभूषण पुरुषोत्तम राधे माधव

*

अमर स्नेह अमरेंद्र मिले हैं वसुधा पर

अमरावति बृज बना रहे राधे माधव

*

प्रभा किशोरी की; आलोक कन्हैया का

श्री श्रीधर द्वय मुकुलित मन राधे माधव

*

नत नारीश पगों में नरपति मुस्काते

अद्भुत मनोविनोद करें राधे माधव

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #249 – 134 – “पहली नज़र में समझ लेते थे इज़हार…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल पहली नज़र में समझ लेते थे इज़हार…” ।)

? ग़ज़ल # 134 – “पहली नज़र में समझ लेते थे इज़हार,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मुहब्बत में जीने के दिन आ गये हैं,

लो मोती पिरोने के दिन आ गये हैं।

*

किस्से दूसरों के बहुत सुन चुके हैं,

हमारे  फ़साने के दिन आ गये हैं। 

*

हुज़ूर कुछ दिनों से उखड़े से रहते हैं,

लगता हैं सताने के दिन आ गये हैं।

*

जज़्ब कर लेते थे कल तक भीतर ही, 

अब अश्क़ बहाने के दिन आ गये हैं। 

*

पहली नज़र में समझ लेते थे इज़हार,

प्यार अब जताने के दिन आ गये हैं।

*

उड़ चुके इश्क़ के कबूतर फड़फड़ा कर,

लो ज़ख़्म सहलाने के दिन आ गये हैं।

*

चुराने  लगे  अब नज़रों से नज़र वो,

लो आतिश लुभाने के दिन आ गये हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 126 ☆ गीत ☆ ।।स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगनाओ का योगदान।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 126 ☆

गीत ☆ ।।स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगनाओ का योगदान।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हमारी आज़ादी में रानी लक्ष्मी बाई का भी योगदान है।

जुड़ा आजादी से   बेगम हज़रत महल का भी नाम है।।

भारतीय वीरांगनाओं की महती भूमिका रही स्वतंत्रता में।

अहिल्या बाई होलकर की भी स्वाधीनता में  शान है।।

[2]

स्वतंत्रता सेनानी बन महिलाओं ने भी तिरंगा थामा था।

दुर्गावती पदमावती ने स्वाधीनता का मूल्य पहचाना था।।

वीरांगना झलकारीबाई सावित्रीबाई फुले का भी स्थान।

विजय लक्ष्मी  कमला नेहरू का नाम नहीं अनजाना था।।

[3]

त्याग तपस्या स्वाभिमान तो नैसर्गिक रूप गुण नारी के।

वीर योद्धा भांति लड़ती बातआती अस्मत की नारी के।।

स्वर्ण अक्षरों में नाम रहेगा सदा नारी के योगदान का।

जब भी पढ़ा जायेगा इतिहास शौर्य पराक्रम नारी के।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 190 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत – नये कदम बढ़ाता चल… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण गीत  – “नये कदम बढ़ाता चल। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 190 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – गीत नये कदम बढ़ाता चल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

तू गाता चल मुस्काता चल,

आगे बढ़ राह बनाता चल

ये दुनियाँ चलती जाती है,

रूक मत तू चलते जाता चल ।।१।।

*

दुख दर्द भरी दुनियाँ में यहाँ,

कष्टों से कहीं भी चैन कहाँ ?

मिल जायें जभी दो पल मन के,

मन की उलझन सुलझाता चल ।।२।।

*

दुख के ही अधिक सताये हैं,

सुख तो थोड़े पा पाये हैं

जो मिले राह में गले लगा,

उनको भी राह दिखाता चल ।।३।।

*

जो थककर हिम्मत हारे हों,

घबराकर एक किनारे हों

उनके मन में अपनी गति से,

आशा की ज्योति जगाता चल ।।४।।

*

हर पीढ़ी ने जो भी आई,

नई झेलीं जग में कठिनाई

पाने को अपनी मंजिल तू,

हर क्षण नये कदम बढ़ाता चल ।। ५।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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