हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 51 – ये सदी….. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है इस सदी की त्रासदी को बयां करती  भावप्रवण रचना ये सदी….. । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 51 ☆

☆ ये सदी….. ☆  

चुप्पियों को ओढ़

आई ये सदी

सबको रुलाने।

 

पैर पूजे थे हमीं ने

देहरी दीपक जलाए

और हर्षित हो सभी ने

सुखद मंगल गीत गाए,

उम्मीदें थी अब खुलेंगे

द्वार सब जाने अजाने।

चुप्पियों को ओढ़…….।।

 

गांव घर सारे नगर के

पथिक बेचारे डगर के

घाव पावों के पसीजे

अश्रु छलके दोपहर के,

भूख इस तट उधर संशय

है न कोई तय ठिकाने।

चुप्पियों को ओढ़…….।।

 

तुम अदृश्या, सर्वव्यापी

कोप से यह सृष्टि कांपी

ईद, दिवाली नहीं

कैसे मनेगा पर्व राखी,

क्रुध्द हो किस बात से

अवरुद्ध है सारी उड़ाने।

चुप्पियों को ओढ़…….।।

 

जोश यौवन का लिए तुम

उम्र केवल बीस की है

हे सदी! है नजर तुम पर

वक्त खबर नवीस की है,

अंत में होगी विकल तब

कौन से होंगे बहाने

चुप्पियों को ओढ़…….।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 53 – आयुष्य कधीचे थांबले …….. ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक  भावप्रवण कविता “आयुष्य कधीचे थांबले ……..।  जब सब कुछ सकारात्मक लगे और हृदय में कोई उमंग जागृत न हो तब ऐसी कविता जन्मती है क्योंकि हमें बेशक लगे किन्तु, जीवन कभी भी थमता नहीं है। एक अप्रतिम रचना । सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित संवेदनशील रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 53 ☆

☆ आयुष्य कधीचे थांबले ……..☆ 

हे पात्र नदीचे संथ, अवखळ नाही

जगण्यात अता कुठलेच वादळ नाही

 

आयुष्य कधीचे थांबले काठाशी

हृदयात अताशा होत खळबळ नाही

 

तू ठेव तिथे लपवून ती गा-हाणी

सरकार म्हणे आम्हास कळकळ नाही

 

बाईस विचारा, काय खुपते आहे

गावात तिच्या मुक्तीचि चळवळ नाही

 

की मूग गिळावे आणि मूकच व्हावे ?

‘त्यांच्या’ इतकी मी मुळिच सोज्वळ नाही

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 32 – बापू के संस्मरण-6 बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 32 – बापू के संस्मरण – 6 – बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ☆ 

 

गांधीजी दक्षिण  अफ्रीका  मे सत्याग्रह  चलाने  के सिलसिले मे  गिरफ्तार  होकर फाक्सरस्ट जेल मे  बंद  कर  दिये  गए थे।जेल मे उनके  एक सहयोगी  श्री  वेस्ट  ने उन्हे  तार भेज  उनकी  पत्नी  कस्तूरबा  की बीमारी  की सूचना  दी। गांधीजी  के जेल के सहयोगिओ ने उन्हे सलाह  दी थी  कि वे जुर्माना  अदा  कर  जेल  से बाहर  होकर अपनी  पत्नी  कस्तूरबा  को देख  आयें  लेकिन  गांधी जी ने दृढ़ता  के साथ  इस सुझाव  को खारिज   कर दिया  और 9 नवम्बर 1908 को जेल से ही कस्तूरबा  को एक बहुत मार्मिक  पत्र  लिखा।

गांधीजी अपने  पत्र मे लिखते  हैं  कि  तुम्हारी  तबीयत  खराब  होने  की सूचना  पाकर मेरा हृदय  फटा जा रहा  है  और  मैं  रो रहा हूँ  लेकिन तुम्हारी सुश्रुषा करने  कैसे आऊँ, ऐसी स्थिति  नहीं है।सत्याग्रह  संघर्ष  को मैंने अपना सब कुछ अर्पित  कर दिया है।इस लिए मेरा  आना  नहीं हो सकता।

जुर्माना  दूँ  तभी आ सकता  हूँ  और जुर्माना मुझसे दिया नहीं जाएगा।मेरी बदकिस्मती से कहीं  ऐसा हो कि तुम चल बसो  तो मैं  इतना ही कहूँगा  कि तुम पर मेरा इतना  स्नेह  है कि तुम मर  कर भी मेरे मन मे जीवित  रहोगी।मैं तुम्हें विश्वासपूर्वक  कहता हूँ  कि यदि तुम चली जाओगी  तो मैं तुम्हारे  पीछे  दूसरी  शादी  नहीं करूंगा।ऐसा मैं  कई बार  कह भी चुका  हूँ।

तुम ईश्वर मे आस्था  रखकर  प्राण त्यागना। तुम मर जाती  हो तो यह भी सत्याग्रह  होगा। हमारा  संघर्ष  मात्र राजनीतिक  नहीं  है। यह संघर्ष  धार्मिक  है  इसलिए अत्यंत शुद्ध  है।उसमे मर  जाएँ  तो क्या ,और जीवित  रहे  हो क्या ? आशा है , तुम भी  ऐसा सोंच  कर तनिक भी खिन्न  नहीं होगी। इतना  मैं  तुमसे  मांगे  लेता  हूँ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 2 – परिंदो का आसमान ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता परिंदो का आसमान 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 2 – परिंदो का आसमान ☆

  

ऐ परिंदो आसमान में दूर ऊपर कहां तुम जाते हो,

कौन वहां रहता है तुम्हारा, तुम किस से मिलने जाते हो ||

 

सर्दी गर्मी हो या बारिश, हर मौसम में रोज सवेरे जाते हो,

ऐसा वहां क्या करते हो, सब साथ शाम को लौटकर आते हो ||

 

यहां तो असंख्य पेड़ पौधे और तुम्हारा खुद का घरोंदा है,

क्या वहां भी पेड़ पौधे और घरोंदा है जो रोज वहां जाते हो ||

 

सुना है आसमान में स्वर्ग होता है, जो एक बार वहां जाता है,

लौट कर नहीं आता, तुम रोज स्वर्ग से वापिस कैसे आ जाते हो ||

 

मेरा छोटा सा एक काम कर दो, वहां माता-पिता मेरे रहते हैं,

पैर छू कर उनका आशीर्वाद ले आना, रोज जो तुम स्वर्गजाते हो ||

 

या फिर इतना सा कर देना, अदब से पंखों पर अपने उनको बैठा लाना,

एक बार जी भर के मिल लूँ फिर ले जाना, तुम तो रोज स्वर्ग जाते हो ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 31 ☆ बेटियाँ नित्य नया इतिहास रचा रहीं ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता बेटियाँ नित्य नया इतिहास रचा रहीं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 31 ☆

☆ बेटियाँ नित्य नया इतिहास रचा रहीं ☆

 

बेटियाँ नित्य नया इतिहास रचा रहीं,

उन्नति के शिखर चढ़, राष्ट्र ध्वज फहरा रहीं.

 

असफलता ,न्यूनता को प़ेम से बुहारती,

ये ऊँची उड़ान की पतंग फहरा रही.

 

बचपन का लाड़-प्यार, रूठना -फूलना,

कर्तव्य-सरोवर में गोते लगा रहीं.

 

पीपल की,बरगद की शीतल -सी छाँहभी हैं

बेटियाँ हैं शेरनी भी, खौफ नहीं खा रहीं.

 

मर -मिट जा रहीं सीमा पै देश की.

शहीदों में नाम बेटियाँ लिखा रहीं.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 39 ☆ खोज ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “ खोज ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 39 ☆

☆ खोज ☆

जाने क्या खोज रही है रूह

कि लेती जाती है जनम पर जनम?

 

क्या कोई तलब है

जो रूह को कलम की नोक सा चलाती है?

या कोई ख्वाहिश है

जो बार-बार उसे आने को मजबूर करती है?

या यह कोई समंदर सी प्यास है

जो पूरा होने को तड़पती है?

या यह कोई अधूरे चाँद का हिस्सा है

जो पुर-नूर होने की आरज़ू रखती है?

या फिर यह कोई तिस्लिम है

जिसमें बेबस हो यह फंसी हुई है?

 

रूह की आज़ादी तो

सारी जुस्तजू ख़त्म होने के बाद शुरू होती है-

तो फिर यह जाने कौनसी दास्ताँ है

जो किसी कसक को रोके रखती है?

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 19 ☆ कविता – सेवानिवृत्ति  ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “सेवानिवृत्ति ”।  अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 19

☆  सेवानिवृत्ति  ☆

 

सेवा

और उससे निवृत्ति

असंभव है।

फिर

कैसी सेवानिवृत्ति?

 

कितना आसान है?

शुष्क जीवन चक्र का

परिभाषित होना

शुभ विवाह

बच्चे का जन्म

बच्चे का लालन पालन

बच्चे की शिक्षा दीक्षा

बच्चे की नौकरी

बच्चे का शुभ विवाह

फिर

बच्चे का जीवन चक्र

जीवन चक्र की पुनरावृत्ति

फिर

हमारी सेवानिवृत्ति।

 

एक कालखंड तक

बच्चे के जीवन चक्र के मूक दर्शक

फिर

सारी सेवाओं से निवृत्ति

महा-सेवानिवृत्ति ।

 

जैसे-जैसे

हम थामते हैं

पुत्र या पौत्र की उँगलियाँ

सिखाने उन्हें चलना

ऐसा लगता है कि

फिसलने लगती हैं

पिताजी की उँगलियों से

हमारी असहाय उँगलियाँ।

 

जब हमारे हाथ उठने लगते हैं

अगली पीढ़ी के सिर पर

देने आशीर्वाद

ऐसा लगता है कि

होने लगते हैं अदृश्य

हमारे सिर के ऊपर से

पिछली पीढ़ी के आशीर्वाद भरे हाथ।

 

इस सारे जीवन चक्र में

इस मशीनी जीवन चक्र में

कहाँ खो गई

वे संवेदनाएं

जो जोड़ कर रखती हैं

रिश्तों के तार ।

 

“हमारे जमाने में ऐसा होता था

हमारे जमाने में वैसा होता था”

 

ये शब्द हर पीढ़ी दोहराती है

और

हर बार अगली पीढ़ी

मन ही मन

इस सच को झुठलाती है।

 

कोई पीढ़ी

जीवन के इस कडवे सच को

कड़वे घूंट की तरह पीती है

तो

कोई पीढ़ी

उसी जीवन के कड़वे सच को

बड़े प्रेम से जीती है।

 

इस सारे जीवन चक्र में

कहीं खो जाती हैं

मानवीय संवेदनाएं

तृप्त या अतृप्त लालसाएं

जो छूट गईं हैं

जीवन की आपाधापी में कहीं।

 

अतः

यह सेवानिवृत्ति नहीं

एक अवसर है

पूर्ण करने

वे मानवीय संवेदनाएं

तृप्त या अतृप्त लालसाएं

कुछ भी ना छूट पाएँ।

 

कुछ भी ना छूट पाये

सारी जीवित-अजीवित पीढ़ियाँ

और

वह भी

जो बस गई है

आपकी हरेक सांस में

आपके सुख दुख की संगिनी

जिसके बिना दोनों का अस्तित्व

है अस्तित्वहीन।

 

सेवा

और उससे निवृत्ति

असंभव है।

फिर

कैसी सेवानिवृत्ति?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 54 ☆ व्यंग्य – लल्लन टाप होने की रिस्क ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य   “लल्लन टाप होने की रिस्क।  श्री विवेक जी ने  शिक्षा के क्षेत्र में सदैव प्रथम आने की कवायद और अभिभावकों की मानसिकता पर तीखा व्यंग्य  किया है । साथ ही गलत तरीकों से ऊंचाइयों पर पहुँचाने का हश्र भी।  श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 54 ☆ 

☆ व्यंग्य – लल्लन टाप होने की रिस्क ☆

“अगर आप समाज का विकास करना चाहते हैं तो आप आईएएस बनकर ही  कर सकते हैं “, यहां समाज का भावार्थ खुद के व अपने  परिवार से होता है, यह बात मुझे अपने सुदीर्घ अनुभव से बहुत लम्बे समय में ज्ञात हो पाई है. यदि हर माता पिता, हर बच्चे का सपना सच हो सकता तो भारत की आधी आबादी आई ए एस ही होती,  कोई भी न मजदूर होता न किसान, न कुछ और बाकी के जो आई ए एस न होते वे सब इंजीनियर, डाक्टर, अफसर ही होते. धैर्य, कड़ी मेहनत, अनुशासन और हिम्मत न हारना, उम्मीद न छोड़ना, परीक्षा की टेंशन से बचना और खुद पर भरोसा रखना, नम्बर के लिये नहीं ज्ञानार्जन के लिये रोज 10 या 20 घंटे पढ़ना जैसे गुण टापर बनाने के सैद्धांतिक तरीके हैं. प्रैक्टिकल तरीको में नकल, पेपर आउट करवा पाने के मुन्नाभाई एमबीबीएस वाले फार्मूले भी अब सेकन्ड जनरेशन के पुराने कम्प्यूटर जैसे पुराने हो चले  हैं.पढ़ाई के साथ साथ  तन, मन, धन से गुरु सेवा भी आपको टापर बनाने में मदद कर सकता है, कहा भी है जो करे सेवा वो पाये मेवा.

एक बार एक अंधा व्यक्ति सड़क किनारे खड़ा था. वह राह देख रहा था कि कोई आने जाने वाला उसे सड़क पार करवा दे. इतने में एक व्यक्ति ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा कि कृपया मुझे सड़क पार करवा दें मैं अंधा हूँ. पहले अंधे ने दूसरे को सहारा दिया और चल निकला, दोनो ने सड़क पार कर ली. यह सत्य घटना जार्ज पियानिस्ट के साथ घटी थी. शायद सचमुच भगवान  उन्ही की मदद करता है जो खुद अपनी मदद करने को तैयार होते हैं. मतलब अपने लक को भी कुछ करने का अवसर दें, निगेटिव मार्किंग के बावजूद  सारे सवाल अटैम्प्ट कीजीए  जवाब सही निकले तो बल्ले बल्ले.

टापर बनाने के लेटेस्ट  फार्मूले की खोज बिहार में हुई है. कुछ स्कूल अपनी दूकान चलाने के लिये तो कुछ कोचिंग संस्थान अपनी साख बनाने के लिये शर्तिया टाप करवाने की फीस लेते हैं. उनके लल्लन छात्र  भी टाप कर जाते हैं.  नितांत नये आविष्कार हैं. कापी बदलना, टैब्यूलेशन शीट बदलवाना, टाप करने के ठेके के कुछ हिस्से हैं  कुछ नये नुस्खे धीरे धीरे मीडीया को समझ आ रहे हैं. यही कारण है कि बिहार में टापर होने में आजकल बड़े रिस्क हैं जाने कब मीडीया फिर से परीक्षा लेने मुंह में माईक ठूंसने लगे. जिस तेजी से बिहार के टापर्स एक्सपोज हो रहे  है, अब गोपनीय रूप से टाप कराने के तरीको पर खोज का काम बिहार टापर इंडस्ट्री को शुरू करना पड़ेगा.कुछ ऐसी खोज करनी पड़ेगी की कोई टाप ही न करे, सब नेक्सट टु  टाप हों जिससे यदि मीडीया ट्रायल में कुछ न बने तो बहाना तो रहे. या फिर रिजल्ट निकलते ही टापर को गायब करने की व्यवस्था बनानी पड़ेगी, जिससे ये  इंटरव्यू वगैरह का बखेड़ा ही न हो.

एक पाकिस्तानी जनरल को हमेशा टाप पर रहने का जुनून था. वे कभी परेड में भी किसी को अपने से आगे बर्दाश्त नही कर पाते थे. एक बार वे परेड में लास्ट रो में तैनात किये गये, पर वे कहां मानने वाले थे, धक्का मुक्की करते हुये तेज चलते हुये  जैसे तैसे वे सबसे आगे पहुंच ही गये, पर जैसे ही वे फर्स्ट लाईन तक पहुंचे कमांडिंग अफसर ने एबाउट टर्न का काशन दे दिया. और वे बेचारे जैसे थे वाली पोजीशन में आ गये. कुछ यही हालत बिहार के टापर्स की होती दिख रही है.

बच्चे के पैदा होते ही उसे टापर बनाने के लिये हमारा समाज एक दौड़ में प्रतियोगी बना देता है.सबसे पहले तो स्वस्थ शिशु प्रतियोगिता में बच्चे के वजन को लेकर ही ट्राफी बंट जाती है, विजयी बच्चे की माँ फेसबुक पर अपने नौनिहाल की फोटो अपलोड करके निहाल हो जाती है. फिर कुछ बड़े होते ही बच्चे को यदि कुर्सी दौड़ प्रतियोगिता में  चेयर न मिल पाये तो आयोजक पर चीटिंग तक का आरोप लगाने में माता पिता नही झिझकते. स्कूल में यदि बच्चे को एक नम्बर भी कम मिल जाता है तो टीचर की शामत ही आ जाती थी. इसीलिये स्कूलो को मार्किंग सिस्टम ही बदलना पड़ गया. अब नम्बर की जगह ग्रेड दिये जाते हैं. सभी फर्स्ट आ जाते हैं.

जैसे ही बच्चा थोड़ा बड़ा होता है, उसे इंजीनियर डाक्टर या आई ए एस बनाने की घुट्टी पिलाना हर भारतीय पैरेंट्स की सर्वोच्च प्राथमिकता होती है. इसके लिये कोचिंग, ट्यूशन, टाप करने पर बच्चे को उसके मन पसंद मंहगे मोबाईल, बाईक वगैरह दिलाने के प्रलोभन देने में हर माँ बाप अपनी हैसियत के अनुसार चूकते नहीं हैं. वैसे सच तो यह है कि हर शख्स अपने आप में किसी न किसी विधा में टाप ही होता है, जरूरत है कि  हर किसी को अपनी वह क्वालिटी पहचानने का मौका दिया जाये जिसमें वह टापर हो.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 49 – कविता – जीवन है अनमोल धरोहर …….☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम समसामयिक कविता  “ जीवन है अनमोल धरोहर ……..।  वास्तव में जीवन अनमोल धरोहर है और उसे संभाल कर रखने के लिए सतर्कता  की आवश्यकता है  जिस सन्देश के लिए कविता प्रेरणा स्रोत है।  इस सर्वोत्कृष्ट  रचना के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 49 ☆

☆ कविता  – जीवन है अनमोल धरोहर ……..

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

महामारी सा फैल गया

दुष्ट रक्त बीज कोरोना

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

जड़ से इसे मिटाना है अब

भय से नहीं घबराना

स्वछता से रहना घर पर

स्वत नष्ट होगा कोरोना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

सात्विक भोजन बने घर पर

सब उसे प्रेम से खाना

भाव भक्ति में समय बिता

ज्ञान की किताबें पढ़ना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

सुबह-शाम दीपक उजियारा

धूप दीप सुगंधी लगाना

स्व स्वधा के पाठ से

निरोगी होगा भारत अपना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

बच्चे बूढ़ों का ध्यान रखें

प्यार से उनको समझाना

कुछ दिनों की बात है ये

सभी का होगा पूरा सपना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना

 

लगेगी फिर बागों में रौनक

शहनाई बजेगी अंगना

सावन की बूंदे लाएंगी

सुख-शांति का गहना

 

जीवन है अनमोल धरोहर

इसे संभाले रहना।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 52 ☆ साखरेची गोळी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत मार्मिक, ह्रदयस्पर्शी एवं भावप्रवण कविता  “साखरेची गोळी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 52 ☆

☆ साखरेची गोळी☆

होती चुकून गेली

मिरची घशात माझ्या

असतेच साखरेची

गोळी खिशात माझ्या

 

पाहून बालकांना

मी जाम खूष होतो

जपलेय बालपण मी

या काळजात माझ्या

 

स्वप्नी अजून माझ्या

तो खेळ रोज येतो

होतेच टॉम जेरी

जे बारशात माझ्या

 

थकलो जरी अता मी

वय हे उतार झाले

हे केस चार काळे

आहे मिशीत माझ्या

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

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