(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा अंगना में फिर आ जा रे…… । बेहद भावुक लघुकथा । स्त्री / बेटी पर अत्याचार पर घटना घटित होने के पश्चात सभी अपनी अपनी राय रखते हैं किन्तु कोई यह नहीं सोचता कि पीड़िता क्या सोच रही है ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को मानवीय रिश्तों और दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 46 ☆
☆ लघुकथा – अंगना में फिर आ जा रे —- ☆
सामूहिक बलात्कार की शिकार उस लड़की की साँसें अभी चल रही थीं। हर पल जीवन का मृत्यु से संघर्ष था। ऐसा लगता था कि बार-बार कोमा में जानेवाली वह लड़की शारीरिक तकलीफों से ही नहीं, अपने आहत मन से भी जूझ रही थी। उस पर हुए अत्याचार की कल्पना से मन काँप उठता था। कैसे झेला होगा उसने अपने शरीर पर अमानवीय अत्याचार? अत्याचारी एक नहीं, चार या पाँच? जितनी बार सुना मन पीड़ा से तड़प उठा। सब तरफ चर्चा थी कि वह लड़की बचेगी कि नहीं। शारीरिक हवस ही नहीं अपनी विकृत भावनाओं की पूर्ति कर उन्होंने उस लड़की का शरीर तार-तार कर दिया था। सबकी नजरें टी.वी. पर लगी थीं। इसी बीच अचानक कोई कह देता– “मर ही जाना चाहिए इस लड़की को। बच भी गई तो कैसे जिएगी इस शरीर के साथ —–?
बहुत तरह के विचार मेरे मन में भी आते थे फिर भी ‘उसे मर जाना चाहिए’ यह वाक्य मुझे छलनी कर देता। लोगों की वाणी में सत्य बोल रहा था, यह मैं जानती थी फिर भी …… ? मेरी कल्पना में बार-बार वह सपना आता था जो उस लड़की ने लोकल ट्रेन में चढ़ने से पहले अपने मित्र के साथ देखा होगा। उत्साहित, प्रफुल्लित, हाथ में हाथ डाले वह घूमी होगी उसके साथ, आनेवाले खतरे से एकदम अनजान, बेखबर।
समाचार-पत्र, न्यूज चैनलों की खबरों से परेशान मैं सोचने लगी कि वह लड़की क्या चाहती है, यह तो कोई सोच ही नहीं रहा। किसी के जीवन-मृत्यु के बारे में निर्णय करनेवाले हम होते कौन हैं? हमें क्या अधिकार है इस विषय में कुछ भी बोलने का? काश ! वह लड़की कोमा से बाहर आ जाए और माँ से कुछ बोले। अपनी लाड़ली का हाथ पकड़े बैठी माँ भी तो उससे कितना कुछ कहना चाहती होगी? कितने सपने देखे होंगे उसने अपनी बेटी के लिए? ऐसा लग रहा था बेटी के साथ माँ भी तिल-तिल मर रही है।
तभी खबर आई -लड़की होश में आ गई। होश में आते ही उसने क्षीण आवाज में माँ से कहा— “माँ ! मैं जीना चाहती हूँ। मुझे ठीक होना है, उन लोगों को सजा दिलानी है।” आँसुओं को पोंछते हुए माँ ने बेटी के कमजोर हाथों को सहलाया और भर्राई आवाज में बोली—तू जिएगी बेटी, जरूर जिएगी! माँ की आस बँध रही थी, सिसकते हुए वह गुनगुना रही थी – ओ री चिरैया, नन्हीं-सी चिड़िया ! अंगना में फिर आ जा रे…..।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक हाइबन “जलमहल”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन # 65 ☆
☆ जलमहल ☆
चित्तौड़गढ़ का किला जितना अद्भुत है उतनी ही अद्भुत पद्मिनी की कहानी है। कहते हैं कि रानी पद्मिनी अति सुंदर ही थी। जिसकी एक झलक देखने के लिए अलाउद्दीन खिलजी बेताब था। उस ने सब तरह के यतन किए। तब वह अंततः रानी पद्मिनी को देखने की अनोखी तरकीब के कारण कामयाब हुआ था।
उस तरकीब के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी को पद्मिनी रानी के दर्शन कराए गए थे । रानी पद्मिनी की विश्व प्रसिद्ध महल में पद्मिनी रानी बैठी थी । पास के कमल जल तालाब में स्वच्छ पानी भरा था । अलाउद्दीन खिलजी को इसी तालाब के पानी में रानी के प्रतिबिंब यानी छायाकृति दिखाई गई थी।
यहां के महल की अद्भुत कृतित्व और रानी पद्मिनी के अद्वितीय सौंदर्य ने उस समय अलाउद्दीन खिलजी को अभिभूत कर दिया था। उस के मन में रानी पद्मिनी को पाने की उत्कट इच्छा जागृत हो गई थी। जिस की परिणति युद्ध में हुई थी।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विचारणीय आलेख कैसे करें साहित्यिक समीक्षा ?। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 73 ☆
☆ कैसे करें साहित्यिक समीक्षा ? ☆
लेखन की विभिन्न विधाओ में एक समीक्षा भी है. हर लेखक समीक्षक नही हो सकता. जिस विधा की रचना की समीक्षा की जा रही है, उसकी व्यापक जानकारी तथा उस विधा की स्थापित रचनाओ का अध्ययन ही समीक्षा को स्तरीय बना सकता है.
समीक्षा करने के कई बुनियादी सिद्धांत हैं:
समीक्षा में रचना का गहन विश्लेषण, काम की सामग्री के संदर्भ में तर्क और इसके मुख्य विचार के बारे में संक्षिप्त निष्कर्ष की होना चाहिये.
विश्लेषण की गुणवत्ता समीक्षक के स्तर और क्षमताओं पर निर्भर करती है।
समीक्षक को भावनात्मक रूप से जुड़े बिना अपने विचारों को तर्कसंगत और तार्किक रूप से व्यक्त करना चाहिए. विश्लेषणात्मक सोच समीक्षक को समृद्ध बनाती है.
समीक्षा की जा रही रचना को बिना हृदयंगम किये जल्दबाजी में लिखी गई सतही समीक्षा न तो रचनाके साथ और न ही रचनाकार के साथ सही न्याय कर सकती है. समीक्षा पढ़कर रचना के गुणधर्म के प्रति प्रारंभिक ज्ञान पाठक को मिलना ही चाहिये, जिससे उसे मूल रचना के प्रति आकर्षण या व्यर्थ होने का भाव जाग सके. यदि समीक्षा पढ़ने के बाद पाठक मूल रचना पढ़ता है और वह मूल रचना को समीक्षा से सर्वथा भिन्न पाता है तो स्वाभाविक रूप से समीक्षक से उसका भरोसा उठ जायेगा, अतः समीक्षक पाठक के प्रति भी जबाबदेह होता है. समीक्षक रचना का उभय पक्षीय वकील भी होता है और न्यायाधीश भी.
पुस्तक समीक्षा महत्वपूर्ण आलोचना है और इसका एक उद्देश्य रचनाकार का संक्षिप्त परिचय व रचना का मूल्यांकन भी है, विशेष रूप से जिनके बारे में आम पाठक को कुछ भी पता नहीं है.
पुस्तक समीक्षा लिखने में कई सामान्य गलतियाँ हो रही हैं
मूल्यांकन में तर्क और उद्धरणों का अभाव
कथानक के विश्लेषण का प्रतिस्थापन
मुख्य सामग्री की जगह द्वितीयक विवरण ओवरलोड करना
पाठ के सौंदर्यशास्त्र की उपेक्षा
वैचारिक विशेषताओं पर ध्यान न देना
मुंह देखी ठकुर सुहाती करना
रचनात्मक काम का मूल्यांकन करते समय, समीक्षक को विषय प्रवर्तन की दृढ़ता और नवीनता पर भी ध्यान देना चाहिए. यह महत्वपूर्ण है कि रचना समाज के निर्माण व मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों के लिये, जो साहित्य की मूलभूत परिभाषा ही है कितनी खरी है.इन बिन्दुओ को केंद्र में रखकर यदि समीक्षा की जावेगी तो हो सकता है कि लेखक सदैव त्वरित रूप से प्रसन्न न हो पर वैचारिक परिपक्वता के साथ वह निश्चित ही समीक्षक के प्रति कृतज्ञ होगा, क्योंकि इस तरह के आकलन से उसे भी अपनी रचना में सुधार के अवसर मिलेंगे. समीक्षक के प्रति पाठक के मन में विश्वास पैदा होगा तथा साहित्य के प्रति समीक्षक सच्चा न्याय कर पायेगा.
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “निष्ठा की प्रतिष्ठा”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
( 27 सितम्बर 2020 बेटी दिवस के अवसर पर प्राप्त कल्पना चावला सम्मान 2020 के लिए ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से हार्दिक बधाई )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 35 – निष्ठा की प्रतिष्ठा ☆
सम्मान रूपी सागर में समाहित होकर अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए, अपमान रूपी नाव पर सवार होना ही होगा। ये कथन एक मोटिवेशनल स्पीकर ने बड़े जोर- शोर से कहे।
हॉल में बैठे लोगों ने जोरदार तालियों से इस विचार का समर्थन किया। अब चर्चा आगे बढ़ चली। लोगों को प्रश्न पूछने का मौका भी दिया गया।
एक सज्जन ने भावुक होते हुए पूछा ” निष्ठावान लोग हमेशा अकेले क्यों रह जाते हैं। जो लोग लड़ – झगड़ कर अलग होते हैं , वे लोग अपना अस्तित्व तलाश कर कुछ न कुछ हासिल कर लेते हैं। पर निष्ठावान अंत में बेचारा बन कर, लुढ़कती हुई गेंद के समान हो जाता है। जिसे कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह दिया जाता है।”
मुस्कुराते हुए स्पीकर महोदय ने कहा ” सर मैं आपकी पीड़ा को बहुत अच्छे से समझ सकता हूँ। सच कहूँ तो ये मुझे अपनी ही व्यथा दिखायी दे रही है। मैं आज यहाँ पर इसी समस्या से लड़ते हुए ही आ पहुँचा हूँ। ये तो शुभ संकेत है, कि आप अपने दर्द के साथ खड़े होकर उससे निपटने का उपाय ढूँढ़ रहे हैं। जो भी कुछ करता है ,उसे बहुत कुछ मिलता है। बस निष्ठावान बनें रहिए, कर्म से विमुख व्यक्ति को सिर्फ अपयश ही मिलता है , जबकि कर्मयोगी, वो भी निष्ठावान ; अवश्य ही इतिहास रचता है।
सभी ने तालियाँ बजा कर स्पीकर महोदय की बात का समर्थन किया।
समय के साथ बदलाव तो होता ही है। आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है। किसी उद्देश्य को पूरा करने हेतु दुश्मन को दोस्त भी बनाना, कोई नई बात नहीं होती। बस प्रतिष्ठा बची रहे, भले ही निष्ठा से कर्तव्य निष्ठा की अपेक्षा करते- करते, हम उसकी उपेक्षा क्यों न कर बैठे, स्पीकर महोदय ने समझाते हुए कहा।
सबने पुनः तालियों के साथ उनका उत्साहवर्द्धन किया।
पिछलग्गू व्यक्ति का जीवन केवल फिलर के रूप में होता है, उसका स्वयं का कोई वजूद नहीं रहता। अपने सपनों को आप पूरा नहीं करेंगे , तो दूसरों के सपने पूरे करने में ही आपका ये जीवन व्यतीत होगा। जो चलेगा वही बढ़ेगा, निष्ठावान बनने हेतु सतत प्रथम आना होगा। उपयोगी बनें, नया सीखें, समय के अनुसार बदलाव करें।
इसी कथन के साथ स्पीकर महोदय ने अपनी बात पूर्ण की।
सभी लोग एक दूसरे की ओर देखते हुए, आँखों ही आँखों में आज की चर्चा पर सहमति दर्शाते हुए नजर आ रहे थे।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को उनके “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं “पाँच दोहे ”.)
श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ (अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना होकर खुद से अनजाने। )
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
आदरणीय श्री अरुण डनायक जी ने गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर 02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. लेख में वर्णित विचार श्री अरुण जी के व्यक्तिगत विचार हैं। ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “महात्मा गांधी और राष्ट्र भाषा”)
☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर विशेष ☆
☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 18 – यही तो पवित्र दान है ☆
खादी-यात्रा के समय दक्षिण के बाद गांधीजी उड़ीसा गये थे ।
घूमते-घूमते वे ईटामाटी नाम के एक गांव में पहुंचे । वहां उनका व्याख्यान हुआ और उसके बाद, जैसा कि होता था, सब लोग चंदा और भेंट लेकर आये । प्रायः सभी स्थानों पर रुपया-पैसा और गहने आदि दिये जाते थे, लेकिन यहां दूसरा ही दृश्य देखने में आया । कोई व्यक्ति कुम्हड़ा लाया था, कोई बिजोरा, कोई बैंगन और कोई जंगल की दूसरी भाजी । कुछ गरीबों ने अपने चिथड़ों में से खोल खोलकर कुछ पैसे दिये ।
काकासाहब कालेलकर घूम-घूमकर पैसे इकट्ठे कर रहे थे । उन पैसों के जंग से उनके हाथ हरे हो गये । उन्होंने अपने हाथ बापू को दिखलाये । वे कुछ कह न सके, क्योंकि उनका मन भीग आया था । उस क्षण तो गांधीजी ने कुछ नहीं कहा । उस दृश्य ने मानों सभी को अभिभूत कर दिया था । अगले दिन सवेरे के समय दोनों घूमने के लिए निकले । रास्ता छोड़कर वे खेतों में घूमने लगे । उसी समय गांधीजी गम्भीर होकर बोले,”कितना दारिद्र्य और दैन्य है यहां! क्या किया जाये इन लोगों के लिए ? जी चाहता है कि अपनी मरण की घड़ी में यहीं आकर इन लोगों के बीच में मरूं । उस समय जो लोग मुझसे मिलने के लिए यहां आयेंगे, वे इन लोगों की करुण दशा देखेंगे । तब किसी-न-किसी का हृदय तो पसीजेगा ही और वह इनकी सेवा के लिए यहां आकर बस जायेगा ।” ऐसा करुण दृश्य और कहीं शायद ही देखने को मिले ।
लेकिन जब वे चारबटिया ग्राम पहुंचे तो स्तब्ध रह गये । सभा में बहुत थोड़े लोग आये थे । जो आये थे उनमें से किसी के मुंह पर भी चैतन्य नहीं था, थी बस प्रेत जैसी शून्यता । गांधीजी ने यहां भी चन्दे के लिए अपील की । उन लोगों ने कुछ-न-कुछ दिया ही, वही जंग लगे पैसे । काकासाहब के हाथ फिर हरे हो गये । इन लोगों ने रुपये तो कभी देखे ही नहीं थे । तांबे के पैसे ही उनका सबसे बड़ा धन था । जब कभी उन्हें कोई पैसा मिल जाता तो वे उसे खर्च करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे । इसीलिए बहुत दिन तक बांधे रहने या धरती मैं गाड़ देने के कारण उस पर जंग लग जाता था । काकासाहब ने कहा, “इन लोगों के पैसे लेकर क्या होगा?”
गांधीजी बोले,” यही तो पवित्र दान है. यह हमारे लिए दीक्षा है । इसके द्वारा इन लोगों के हृदय में आशा का अंकुर उगा है । यह पैसा उसी आशा का प्रतीक है. इन्हें विश्वास हो गया है कि एक दिन हमारा भी उद्धार होगा ।”
( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें सफर रिश्तों का तथा मृग तृष्णा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता आजाद हो गए मोती)
Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>> मृग तृष्णा
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 15 – आजाद हो गए मोती☆
खुल गयी गांठ आजाद हो गए मोती,
बिखर कर चारों और फ़ैल गए सब, ठहर गए जिसको जहां जगह मिली ||
गिरते मोती इधर-उधर फुदक रहे थे,
जश्न मना रहे थे सब फुदक-फुदक कर, धागे से आजादी जो मिली ||
उतर गया मुंह सबका जब जमीन पर धड़ाम से गिरे,
कोई इस तो कोई उस कोने में गिरा, किसी को कचरे मे जगह मिली ||
कुछ मोती तो ज्यादा उतावले थे आजादी के जश्न में,
ऐसे औंधे मुंह गिरे, सबसे बिछुड़ ना जाने किसको कहाँ जगह मिली ||
पहले सब खुश थे एक मुद्द्त बाद आजादी जो मिली,
अब सब अपनी-अपनी जगह दुबक गए जहां भी उन्हें जगह मिली ||
सब एक दूसरे को जलन ईर्ष्या करने लगे,
सब एक दूसरे को तिरछी नजर से देखते रहे मगर आँखे नहीं मिली ||
कुछ मोती समझदार थे जो एक जगह इकट्ठे थे,
कुछ खुद को ज्यादा होशियार समझते थे, वे इधर-उधर बिखरे मिले ||
सबको समझ आया बंद गांठ में कितने मजबूत थे,
चाह कर भी मोती धागे में खुद को पिरो वापिस माला नहीं बन सकते ||
बिखरे मोतियों को देख खुला धागा भी रोने लगा,
धागे को देख सब अतीत में खो गए काश कोई हमें एक सूत्र में बांध दे ||
धीरे-धीरे धागा भी वर्तमान से अतीत हो गया,
धागा ठोकरे खा अदृश्य हो गया, मोती धुंधला कर एक दूसरे को भूल गए ||
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “ सो जाएँ”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –