(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत हैं मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं समसामयिक कविता “निर्मल सांसें मिलेगी तुमको”। आशा पर संसार टिका है। ईश्वर शीघ्र इस आपदा से सारे विश्व को मुक्ति दिलाएंगे और सबको निर्मल सांसे मिलेगी। इस सार्थक एवं भावनात्मक कविता के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।)
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की परिचर्चा – व्यंग्य कोई गणित नहीं है – श्री आलोक पुराणिक। )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 63 ☆
☆ परिचर्चा – व्यंग्य कोई गणित नहीं है – श्री आलोक पुराणिक ☆
देश के जाने-माने व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से महत्वपूर्ण बातचीत –
जय प्रकाश पाण्डेय –
किसी भ्रष्टाचारी के भ्रष्ट तरीकों को उजागर करने व्यंग्य लिखा गया, आहत करने वाले पंंच के साथ। भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचारियों ने पढ़ा पर व्यंग्य पढ़कर वे सुधरे नहीं, हां थोड़े शरमाए, सकुचाए और फिर चालू हो गए तब व्यंग्य भी पढ़ना छोड़ दिया, ऐसे में मेहनत से लिखा व्यंग्य बेकार हो गया क्या ?
आलोक पुराणिक –
साहित्य, लेखन, कविता, व्यंग्य, शेर ये पढ़कर कोई भ्रष्टाचारी सदाचारी नहीं हो जाता। हां भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है। अगर कार्टून-व्यंग्य से भ्रष्टाचार खत्म हो रहा होता श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय आर के लक्ष्मण के दशकों के रचनाकर्म का परिणाम भ्रष्टाचार की कमी के तौर पर देखने में आना चाहिए था। परसाईजी की व्यंग्य-कथा इंसपेक्टर मातादीन चांद पर के बाद पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। रचनाकार की अपनी भूमिका है, वह उसे निभानी चाहिए। रचनाकर्म से नकारात्मक के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य को भी देखा जाना चाहिए।
जय प्रकाश पाण्डेय –
देखने में आया है कि नाई जब दाढ़ी बनाता है तो बातचीत में पंच और महापंच फेंकता चलता है पर नाई का उस्तरा बिना फिसले दाढ़ी को सफरचट्ट कर सौंदर्य ला देता है पर आज व्यंग्यकार नाई के चरित्र से सीख लेने में परहेज कर रहे हैं बनावटी पंच और नकली मसालों की खिचड़ी परस रहे हैं ऐसा क्यों हो रहा है ?
आलोक पुराणिक –
सबके पास हजामत के अपने अंदाज हैं। आप परसाईजी को पढ़ें, तो पायेंगे कि परसाईजी को लेकर कनफ्यूजन था कि इन्हे क्या मानें, कुछ अलग ही नया रच रहे थे। पुराने जब कहते हैं कि नये व्यंग्यकार बनावटी पंचों और नकली मसालों की खिचड़ी परोस रहे हैं, तो हमेशा इस बयान के पीछे सदाशयता और ईमानदारी नहीं होती। मैं ऐसे कई वरिष्ठों को जानता हूं जो अपने झोला-उठावकों की सपाटबयानी को सहजता बताते हैं और गैर-झोला-उठावकों पर सपाटबयानी का आऱोप ठेल देते हैं। क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि कौन सी बात कह कौन रहा है। अगर कोई नकली पंच दे रहा है और फिर भी उसे लगातार छपने का मौका मिल रहा है, तो फिर मानिये कि पाठक ही बेवकूफ है। पाठक का स्तर उन्नत कीजिये। बनावटी पंच, नकली मसाले बहुत सब्जेक्टिव सी बातें है। बेहतर यह होना चाहिए कि जिस व्यंग्य को मैं खराब बताऊं, उस विषय़ पर मैं अपना काम पेश करुं और फिर ये दावा ना ठेलूं कि अगर आपको समझ नहीं आ रहा है, तो आपको सरोकार समझ नहीं आते। लेखन की असमर्थता को सरोकार के आवरण में ना छिपाया जाये, जैसे नपुंसक दावा करे कि उसने तो परिवार नियोजन को अपना लिया है। ठीक है परिवार नियोजन बहुत अच्छी बात है, पर असमर्थताओं को लफ्फाजी के कवच दिये जाते हैं, तो पाठक उसे पहचान लेते हैं। फिर पाठकों को गरियाइए कि वो तो बहुत ही घटिया हो गया। यह सिलसिला अंतहीन है। पाठक अपना लक्ष्य तलाश लेता है और वह ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरों में फर्क कर लेता है। वह सैकड़ों उपन्यासों की भीड़ में राग दरबारी को वह स्थान दे देता है, जिसका हकदार राग दरबारी होता है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
लोग कहने लगे हैं कि आज के माहौल में पुरस्कार और सम्मान “सब धान बाईस पसेरी” बन से गए हैं, संकलन की संख्या हवा हवाई हो रही है ऐसे में किसी व्यंग्य के सशक्त पात्र को कभी-कभी पुरस्कार दिया जाना चाहिये, ऐसा आप मानते हैं हैं क्या ?
आलोक पुराणिक –
रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है। कि इतने संकलन पर इतनी सीनियरटी मान ली जायेगी। आपको यहां ऐसे मिलेंगे जो अपने लगातार खारिज होते जाने को, अपनी अपठनीयता को अपनी निधि मानते हैं। उनकी बातों का आशय़ होता कि ज्यादा पढ़ा जाना कोई क्राइटेरिया नहीं है। इस हिसाब से तो अग्रवाल स्वीट्स का हलवाई सबसे बड़ा व्यंग्यकार है जिसके व्यंग्य का कोई भी पाठक नहीं है। कई लेखक कुछ इस तरह की बात करते हैं , इसी तरह से लिखा गया व्यंग्य, उनके हिसाब से ही लिखा गया व्यंग्य व्यंग्य है, बाकी सब कूड़ा है। ऐसा मानने का हक भी है सबको बस किसी और से ऐसा मनवाने के लिए तुल जाना सिर्फ बेवकूफी ही है। पुरस्कार किसे दिया जाये किसे नहीं, यह पुरस्कार देनेवाले तय करेंगे। किसी पुरस्कार से विरोध हो, तो खुद खड़ा कर लें कोई पुरस्कार और अपने हिसाब के व्यंग्यकार को दे दें। यह सारी बहस बहुत ही सब्जेक्टिव और अर्थहीन है एक हद।
जय प्रकाश पाण्डेय –
आप खुशमिजाज हैं, इस कारण व्यंग्य लिखते हैं या भावुक होने के कारण ?
आलोक पुराणिक –
व्यंग्यकार या कोई भी रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है। बिना भावुक हुए रचनात्मकता नहीं आती। खुशमिजाजी व्यंग्य से नहीं आती, वह दूसरी वजहों से आती है। खुशमिजाजी से पैदा हुआ हास्य व्यंग्य में इस्तेमाल हो जाये, वह अलग बात है। व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी। हास्य मिश्रित व्यंग्य को ज्यादा स्पेस मिल जाता है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में आ रहे शब्दों की जादूगरी से ऐसा लगता है कि शब्दों पर संकट उत्पन्न हो गया है ऐसा कुछ आप भी महसूस करते हैं क्या ?
आलोक पुराणिक –
शब्दों पर संकट हमेशा से है और कभी नहीं है। तीस सालों से मैं यह बहस देख रहा हूं कि संकट है, शब्दों पर संकट है। कोई संकट नहीं है, अभिव्यक्ति के ज्यादा माध्यम हैं। ज्यादा तरीकों से अपनी बात कही जा सकती है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
हजारों व्यंग्य लिखने से भ्रष्ट नौकरशाही, नेता, दलाल, मंत्री पर कोई असर नहीं पड़ता। फेसबुक में इन दिनों” व्यंग्य की जुगलबंदी ” ने तहलका मचा रखा है इस में आ रही रचनाओं से पाठकों की संख्या में ईजाफा हो रहा है ऐसा आप भी महसूस करते हैं क्या ?
आलोक पुराणिक –
अनूप शुक्ल ने व्यंग्य की जुगलबंदी के जरिये बढ़िया प्रयोग किये हैं। एक ही विषय पर तरह-तरह की वैरायटी वाले लेख मिल रहे हैं। एक तरह से सीखने के मौके मिल रहे हैं। एक ही विषय पर सीनियर कैसे लिखते हैं, जूनियर कैसे लिखते हैं, सब सामने रख दिया जाता है। बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी। इसका असर खास तौर पर उन लेखों की शक्ल में देखा जा सकता है, जो एकदम नये लेखकों-लेखिकाओं ने लिखे हैं और चौंकानेवाली रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है उन लेखों में। यह नवाचार इंटरनेट के युग में आसान हो गया।
जय प्रकाश पाण्डेय –
हम प्राचीन काल की अपेक्षा आज नारदजी से अधिक चतुर, ज्ञानवान, विवेकवान और साधन सम्पन्न हो गए हैं फिर भी अधिकांश व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में नारदजी को ले आते हैं इसके पीछे क्या राजनीति है ?
आलोक पुराणिक –
नारदजी उतना नहीं आ रहे इन दिनों। नारदजी का खास स्थान भारतीय मानस में, तो उनसे जोड़कर कुछ पेश करना और पाठक तक पहुंचना आसान हो जाता है। पर अब नये पाठकों को नारद के संदर्भो का अता-पता भी नहीं है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
व्यंग्य विधा के संवर्धन एवं सृजन में फेसबुकिया व्यंगकारों की भविष्य में सार्थक भूमिका हो सकती है क्या ?
आलोक पुराणिक –
फेसबुक या असली की बुक, काम में दम होगा, तो पहुंचेगा आगे। फेसबुक से कई रचनाकार मुख्य धारा में गये हैं। मंच है यह सबको सहज उपलब्ध। मठाधीशों के झोले उठाये बगैर आप काम पेश करें और फिर उस काम को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है। फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “सुवासित पनिहारने”। )
( डॉ निधि जैन जी भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “आमंत्रण”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 20 ☆
☆ आमंत्रण ☆
आमंत्रण शब्द में छुपा मेरा निमंत्रण,
उन्मुक्त प्यार रूपी पंछी को मेरा हसीन निमंत्रण,
अभिव्यक्तियों को दिल से दिल तक पहुँचाने का निमंत्रण,
उम्र के हर पड़ाव में, अपनों के साथ का निमंत्रण,
ख्वाब को रूबरू होने का निमंत्रण,
आमंत्रण शब्द में छुपा मेरा निमंत्रण।
ज़िन्दगी की भीड़ में कहीं अपने आप को छुड़ाने का निमंत्रण,
ये शरीर बना हड्डी का पिंजर, उसे सहजने का निमंत्रण,
मुसाफिरखाना बने मेरे मन को नए एहसास का निमंत्रण,
अपने अंतर्मन को छूने का निमंत्रण,
खामोशी के साथ पैगाम-ए-दिल को निमंत्रण,
आमंत्रण शब्द में छुपा मेरा निमंत्रण।
आओ हम सब एक हो जाएँ और दे ख़ुशी को निमंत्रण,
ऊँच-नीच जाति -पाति का भेद मिटाकर, करे एकता का निमंत्रण,
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक भावप्रवण रचना “लाॅकडाऊन”। श्री श्याम खापर्डे जी ने इस कविता के माध्यम से लॉकडाउन की वर्तमान एवं सामाजिक व्याख्या की है जो विचारणीय है।)
(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण अभंग “बावरे मन”)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य ‘कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु ’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान समय में यह सिद्ध कर दिया कि कोरोना काल में रिश्तों का मुलम्मा उतर रहा है। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 66 ☆
☆ व्यंग्य – कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु ☆
कोरोना-काल में मरना भी आसान नहीं रहा। हालत यह हो गयी है कि कोई किसी भी रोग से मरे, कोरोना के शक का कीड़ा दिमाग़ में कुलबुलाने लगता है। लोगों को भरोसा ही नहीं होता कि कोई किसी दूसरे रोग से भी मर सकता है। अब फसली बुख़ार से कोई नहीं मरता,सब को कोरोना के खाते में डाला जाता है। नाते-रिश्तेदार पास फटकने के लिए तैयार नहीं होते। सोचते हैं, ‘इन्हें अभी मरना था। कोरोना खतम होने तक रुक नहीं सकते थे?अब कैसे पता चले कि इनकी मौत में कोरोना का योगदान था या नहीं।’
कोरोना-काल में मृतक को उठाने के लिए चार आदमियों का इन्तज़ाम भी मुश्किल हो रहा है। परिवार में माताएं पुत्र को शव के पास जाने से बरजती हैं और पत्नियाँ पति को। सबको अपनी अपनी जान की पड़ी है। मध्यप्रदेश के एक कस्बे में तहसीलदार साहब को ही शव को अग्नि देनी पड़ी क्योंकि मृतक की पत्नी ने पुत्र को शव के पास जाने से रोक दिया। कोरोना सब रिश्तों को छिन्न भिन्न कर रहा है। रिश्तों का मुलम्मा उतर रहा है। जिन लोगों ने पुत्र के हाथों दाह-संस्कार के लोभ में पुत्र पैदा किये वे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनकी सद्गति पुत्र के हाथों होगी या नगर निगम के किसी कर्मचारी के हाथों। सब तरफ अफरातफरी का आलम है। अब रिश्तेदारों के बजाय लोग उनकी तरफ देख रहे हैं जो कुछ पैसे लेकर, अपनी जान को दाँव पर लगाकर, मृतक को स्वर्ग या नरक की तरफ ढकेल सकते हैं। यह अच्छा है कि हमारे देश में पैसे वालों का कोई काम रुकता नहीं,अन्यथा बड़ी समस्या खड़ी हो जाती।
दो दिन पहले नन्दू के दादाजी का इन्तकाल हो गया। दोस्त महिपाल को फोन लगाया। कहा कि आ जाए तो कुछ राहत मिलेगी। थोड़ी बात हुई कि फोन उसके डैडी ने झपट लिया।
‘हाँ जी, बोलो बेटा।’
‘अंकल, दादाजी की डेथ हो गयी है। महिपाल आ जाता तो कुछ मदद मिल जाती।’
‘ओहो, बुरा हुआ। क्या हुआ था उनको?’
‘कुछ नहीं। दो तीन दिन से थोड़ा बुखार था। अचानक ही हो गया।’
‘कोरोना टैस्ट कराया था?’
‘नहीं अंकल, कुछ ज़रूरी नहीं लगा।’
‘कराना था बेटा। चलो, कोई बात नहीं। ऐसा है कि महिपाल के घुटने में कल से दर्द है। थोड़ा ठीक हो जाएगा तो आ जाएगा। अभी तो मुश्किल है।’
सबेरे कुछ मित्र-रिश्तेदार झिझकते हुए आते हैं। कुर्सी खींचकर नाक पर ढक्कन लगाये दूर बैठ जाते हैं। बार बार सवाल आता है, ‘टैस्ट कराया क्या? करा लेते तो अच्छा रहता। शंका हो जाती है।’
दादाजी के काम में हाथ लगाने के लिए कोई आगे नहीं आता। उन्हें वाहन में रखते ही आधे लोग फूट लेते हैं। बीस से ज़्यादा लोगों के शामिल न होने के नियम का बहाना है। जो बचते हैं वे वाहन में बैठने को तैयार नहीं होते। कहते हैं, ‘आप लोग चलिए। हम अपने वाहन से आते हैं।’
प्रभुजी, हम पचहत्तर पार वाले हैं और इस नाते संसार से रुख़्सत होने के लिए पूरी तरह ‘क्वालिफाइड’ हैं, लेकिन हालात देखकर आपसे गुज़ारिश है कि हमारी रुख़्सती को कोरोना-काल तक मुल्तवी रखा जाए। हमें फजीहत से बचाने के लिए यह ज़रूरी है।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी का एक नव प्रयोग सवैया मुक्तिका। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 21 ☆
☆ सवैया मुक्तिका ☆
अमरेंद्र विचरें मही पर, नर तन धरे मुकुलित मना।
अर्णव अरुण भुज भेंटते, आलोक तम हरता घना।।
श्री धर मुदित श्रीधर हुए, श्रीधर धरें श्री हैं जयी।
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है राजभाषा माह के परिपेक्ष्य में स्थानीय / आंचलिक भाषा पर आधारित एक ज्ञानवर्धक लेख “भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – भोजपुरी बोली भाषा साहित्य तथा समाज ☆
किसी भी भाषा की संरचना का मूल आधार व्याकरण है बिना व्याकरण के ज्ञान के न तो कोई भाषा शुद्ध रूप से लिखी जा सकती है न बोली जा सकती है न पढ़ी जा सकती है। भाषा साहित्य के ज्ञान के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। व्याकरण के ज्ञान द्वारा ही त्रुटिहीन लेखन वाचन संभव होता है। जिस भाषा का प्रसार राष्ट्रीय स्तर पर होता है वह राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त करती है। जो भाषा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लिखी पढ़ी बोली जाती है उसे अंतरराष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त होता है। लेकिन राष्ट्र भाषा के साथ आंचलिक भाषा जिसे मातृभाषा कहते हैं भी बोली लिखी पढ़ी जाती है।
मातृभाषा का ज्ञान बच्चा बिना व्याकरण ज्ञान के मात्र माता पिता तथा परिवार से सुनकर अथवा बोल कर प्राप्त करता है। क्षेत्रीय भाषा के साथ आंचलिक भाषा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, आंचलिक भाषा का प्रभाव शब्दों के उच्चारण तथा बोलने के अंदाज में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। जैसे उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से बिहार के भोजपुर तक बोली जाने वाली आंचलिक भाषा को भोजपुरी भाषा कहते हैं जो भोजपुरिया समाज द्वारा लिखी पढ़ी व बोली जाती है । जिसका असर राष्ट्रभाषा पर पड़ता है जो क्षेत्रीय अंचल के साथ बदलती चली जाती जैसे पूर्वांचल में भोजपुरी, अवध में अवधी, मथुरा में ब्रज भाषा के रूप में बोली जाती है। या यूं कह लें, वह क्षेत्रीय लोक कलाओं, लोक संस्कृति तथा लोक संस्कारों का मातृभाषा पर गहरा असर दीखता है । जैसे राम-सीता तथा राधा-कृष्ण के कथा चरित्र पर आंचलिक भाषा का प्रभाव दिखता है। भाषा ज्ञान बच्चा बिना पढ़े लिखे मात्र सुनकर समझ कर भी बोल कर भी कर सकता है। आंचलिक भाषा की आत्मा उसकी लोक रीतियां लोक परंपराये तथा उनमें पलने वाली लोक संस्कृति ही आंचलिक भाषा को सुग्राह्य तथा समृद्ध बनाती है ।
तभी तो आंचलिक स्तर पर बोली जाने वाली भाषा भाव से समृद्ध होती है उसकी संस्कृति में रचा बसा माधुर्य लोक विधाओं का माधुर्य बन प्रस्फुटित होता है, जो अंततोगत्वा विधाओं की प्राण चेतना बन लोक साहित्य तथा लोक धुनों के रूप में अपने आकर्षण के मोहपाश में बांध लेता ह तथा श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। जो कभी आल्हा, कभी कजरी, कभी चैता के रूप में आम जन के मानस पर गहरी छाप छोड़ता है। कभी बारह मासा, कभी विदेशिया के रूप दृष्टिगोचर होता है। गो ० तुलसी साहित्य जो मुख्यत: अवधी ब्रज संस्कृति तथा भोजपुरी-मैथिली आदि के सामूहिक रूप का दर्शन कराता है तो वहीं सूर साहित्य पूर्ण रूप से ब्रज भाषा पर आधारित है। जिसके संम्मोहन से कोई बच नहीं सकता, भर्तृहर-चरित्र, कृष्ण-सुदामा चरित आज भी अपने कारुणिक प्रसंग के चलते श्रोताओं की आंख में पानी भर देता है। भोजपुरी भाषा को उसके भावों को न समझने वाला भी उसे गुनगुना लेता है, एक छोटा सा उदाहरण देखे—–
गवना कराई पियवा गइले बिदेशवा,
भेजले ना कवनो सनेश।
नेहिया के रस बोरी, पिरीति के डोरि तोरी।
गईले भुलाई आपन देश।
पुरूआ के गरदी से जरदी चनरमा पे,
देहिया के टूटे पोरे पोर।
घरवा में सेजिया पे तरपत तिरियवा,
दुखवा के नाही ओर छोर।
वहीं पर दूसरा उदाहरण देखे——
बगिया में गूजेला कोइलिया के बोलियां,
खेतवा में बिरहा के तान ।
अंग अंग गोरिया के बंसरी बजावे रामा,
लोगवा के डोलेला ईमान ।
नखरा गोरकी पतरकी अजब करें हो,
जब नियरे बोलाई अब तब करें हो ।
अथवा —-जोगी जी धीरे धीरे ,नदी के तीरे तीरे, का नशा अभी भी लोगों की स्मृतियों में हावी है जिसे सुनते सुनते आम जनमानस गुनगुना उठता है । इसी तरह तमाम आंचलिक भाषायें अपनी संस्कृति का साहित्य तमाम क्षेत्रीय घटनाक्रम क्षेत्रीय साहित्य के कथा कोष को समृद्ध करने का काम करती हैं। आत्मसौंदर्य समेटे लोकसंस्कृति तथा लोक विधाओं का ध्वज वाहक बनी दीखती है। तोता मैना, शीत बसंत, सोरठी बृजाभार की कहानियां आज भी उसी चाव से कही सुनी जाती हैं।