( डॉ निधि जैन जी भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “तुम सा मैं बन जाऊँ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 19 ☆
☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆
हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,
तुम सा मैं चमक उठूं, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।
अंधकार के कितने बादल आये,
नीर की कितनी बारिश हो जाये,
रात की कितनी कलिमा छा जाये,
हे भास्कर, हे रवि, सारे अंधकार सारा नीर थम जाये,
तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।
हर दिन चन्द्रमा तारे, काली रात को दोस्त बनाकर सबका मन लुभाते हैं,
रात की कलिमा सब प्रेमियों का दिल लुभाते हैं,
ये रात झूठी हो जाये, सूरज की किरणें छूने की आस लगाये,
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “परिंदे। )
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना एक काव्य संसार है । आप मराठी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण कविता “हळदीचा लेप ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 63 ☆
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं राजभाषा दिवस के अवसर पर आपके अप्रतिम दोहे ..संदर्भ हिंदी। )
(सुदूर उत्तर -पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में राजभाषा दिवस पर प्रस्तुत है हमारे उत्तर पूर्व में स्थित असम की आधिकारिक भाषा का ज्ञानवर्धक इतिहास असमिया भाषा का इतिहास।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री निशा नंदिनी जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना #65 ☆
☆ राजभाषा दिवस विशेष – असमिया भाषा का इतिहास ☆
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में पूर्वी सीमा पर अवस्थित असम की भाषा को असमी,असमिया अथवा आसामीकहा जाता है।असमिया भारत के असम प्रांत की आधिकारिक भाषा तथा असम में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसको बोलने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है।
भाषाई परिवार की दृष्टि से इसका संबंध आर्य भाषा परिवार से है। बांग्ला, मैथिली, उड़िया और नेपाली से इसका निकट का संबंध है। गियर्सन के वर्गीकरण की दृष्टि से यह बाहरी उपशाखा के पूर्वी समुदाय की भाषा है। सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरण में प्राच्य समुदाय में इसका स्थान है। उड़िया तथा बंगला की भांति असमी की भी उत्पत्ति प्राकृत तथा अपभ्रंश से ही हुई है।
यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति सत्रहवीं शताब्दी से मानी जाती है। किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन तेरहवीं शताब्दी में रुद्र कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा माधव कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया।शंकर देव (1449-1567) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा।
सीमा की दृष्टि से असमिया क्षेत्र के पश्चिम में बंगला है। अन्य दिशाओं में कई विभिन्न परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें से तिब्बती, बर्मी तथा खासी प्रमुख हैं। इन सीमावर्ती भाषाओं का गहरा प्रभाव असमिया की मूल प्रकृति में देखा जा सकता है।असमिया एकमात्र बोली नहीं हैं। यह प्रमुखतः मैदानों की भाषा है।
बहुत दिनों तक असमिया को बंगला की एक उपबोली सिद्ध करने का उपक्रम होता रहा है। असमिया की तुलना में बंगला भाषा और साहित्य के बहुमुखी प्रसार को देखकर ही लोग इस प्रकार की धारण बनाते रहे हैं। परंतु भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि से बंगला और असमिया का समानांतर विकास आसानी से देखा जा सकता है। मागधी अपभ्रंश के एक ही स्रोत से निःसृत होने के कारण दोनों में समानताएँ हो सकती हैं। पर उनके आधार पर एक दूसरे की बोली सिद्ध नहीं किया जा सकता।
क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से असमिया के कई उपरूप मिलते हैं। इनमें से दो मुख्य हैं- पूर्वी रूप और पश्चिमी रूप। साहित्यिक प्रयोग की दृष्टि से पूर्वी रूप को ही मानक माना जाता है। पूर्वी की अपेक्षा पश्चिमी रूप में बोलीगत विभिन्नताएँ अधिक हैं। असमिया के इन दो मुख्य रूपों में ध्वनि, व्याकरण तथा शब्दसमूह, इन तीनों ही दृष्टियों से अंतर मिलते हैं। असमिया के शब्दसमूह में संस्कृत तत्सम, तद्भव तथा देशज के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं। अनार्य भाषा परिवारों से गृहीत शब्दों की संख्या भी कम नहीं है। भाषा में सामान्यत: तद्भव शब्दों की प्रधानता है। हिंदी उर्दू के माध्यम से फारसी, अरबी तथा पुर्तगाली और कुछ अन्य यूरोपीय भाषाओं के भी शब्द आ गए हैं।
भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में पूर्वी सीमा पर स्थित होने के कारण असमिया कई अनार्य भाषा परिवारों से घिरी हुई है। इस स्तर पर सीमावर्ती भाषा होने के कारण उसके शब्द समूह में अनार्य भाषाओं के कई स्रोतों के लिए हुए शब्द मिलते हैं। इन स्रोतों में से तीन अपेक्षाकृत अधिक मुख्य हैं-
(१) ऑस्ट्रो-एशियाटिक – खासी, कोलारी, मलायन
(२) तिब्बती-बर्मी-बोडो
(३) थाई-अहोम
शब्द समूह की इस मिश्रित स्थिति के प्रसंग में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि खासी, बोडो तथा थाई तत्व तो असमिया में उधार लिए गए हैं। पर मलायन और कोलारी तत्वों का मिश्रण इन भाषाओं के मूलाधार के पास्परिक मिश्रण के फलस्वरूप है। अनार्य भाषाओं के प्रभाव को असम के अनेक स्थान नामों में भी देखा जा सकता है। ऑस्ट्रिक, बोडो तथा अहोम के बहुत से स्थान नाम ग्रामों, नगरों तथा नदियों के नामकरण की पृष्ठभूमि में मिलते हैं। अहोम के स्थान नाम प्रमुखत: नदियों को दिए गए नामों में हैं।
असमिया लिपि मूलत: ब्राह्मी का ही एक विकसित रूप है। बंगला से उसकी निकट समानता है। लिपि का प्राचीनतम उपलब्ध रूप भास्कर वर्मन का 610 ई. का ताम्रपत्र है। परंतु उसके बाद से आधुनिक रूप तक लिपि में “नागरी” के माध्यम से कई प्रकार के परिवर्तन हुए हैं।
असमिया भाषा का व्यवस्थित रूप 13वीं तथा 14वीं शताब्दी से मिलने पर भी उसका पूर्वरूप बौद्ध सिद्धों के “चर्यापद” में देखा जा सकता है। “चर्यापद” का समय विद्वानों ने ईसवी सन् 600 से 1000 के बीच स्थिर किया है। दोहों के लेखक सिद्धों में से कुछ का तो कामरूप प्रदेश से घनिष्ट संबंध था। “चर्यापद” के समय से 12वीं शताब्दी तक असमी भाषा में कई प्रकार के मौखिक साहित्य का सृजन हुआ था। मणिकोंवर-फुलकोंवर-गीत, डाकवचन, तंत्र मंत्र आदि इस मौखिक साहिय के कुछ रूप हैं।
असमिया भाषा का पूर्ववर्ती रूप अपभ्रंश मिश्रित बोली से भिन्न रूप प्राय: 18वीं शताब्दी से स्पष्ट होता है। भाषागत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए असमिया के विकास के तीन काल माने जा सकते हैं।
14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी के अंत तक। इस काल को फिर दो युगों में विभक्त किया जा सकता है। पहला वैष्णव-पूर्व युग दूसरा वैष्णव युग। इस युग के सभी लेखकों में भाषा का अपना स्वाभाविक रूप निखर आया है। यद्यपि कुछ प्राचीन प्रभावों से वह सर्वथा मुक्त नहीं हो सकी है। व्याकरण की दृष्टि से भाषा में पर्याप्त एकरूपता नहीं मिलती। परंतु असमिया के प्रथम महत्वूपर्ण लेखक शंकरदेव (जन्म-1449) की भाषा में ये त्रुटियाँ नहीं मिलती हैं। वैष्णव-पूर्व-युग की भाषा की अव्यवस्था यहाँ समाप्त हो जाती है। शंकरदेव की रचनाओं में ब्रजबुलि प्रयोगों का बाहुल्य है।
17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक। इस युग में अहोम राजाओं के दरबार की गद्यभाषा का रूप प्रधान है। इन गद्य कर्ताओं को बुरंजी कहा गया है। बुरंजी साहित्य में इतिहास लेखन की प्रारंभिक स्थिति के दर्शन होते हैं। प्रवृत्ति की दृष्टि से यह पूर्ववर्ती धार्मिक साहित्य से भिन्न है। बुरंजियों की भाषा आधुनिक रूप के अधिक निकट है।
19वीं शताब्दी के प्रारंभ से। 1819 ई. में अमरीकी बप्तिस्त पादरियों द्वारा प्रकाशित असमीया गद्य में बाइबिल के अनुवाद से आधुनिक असमीया का काल प्रारंभ होता है। मिशन का केंद्र पूर्वी आसाम में होने के कारण उसकी भाषा में पूर्वी आसाम की बोली को ही आधार माना गया। 1846 ई. में मिशन द्वारा एक मासिक पत्र “अरुणोदय” प्रकाशित किया गया। 1848 में असमीया का प्रथम व्याकरण छपा और 1867 में प्रथम असमीया अंग्रेजी शब्दकोश तैयार हुआ। श्रीमन्त शंकरदेव असमिया भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा हिन्दू समाज सुधारक थे।
असमीया की पारंपरिक कविता उच्चवर्ग तक ही सीमित थी। भट्टदेव (1558-1638) ने असमिया गद्य साहित्य को सुगठित रूप प्रदान किया। दामोदरदेव ने प्रमुख जीवनियाँ लिखीं। पुरुषोत्तम ठाकुर ने व्याकरण पर काम किया। अठारहवी शती के तीन दशक तक साहित्य में विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिए। उसके बाद चालीस वर्षों तक असमिया साहित्य पर बांग्ला का वर्चस्व बना रहा। असमिया को जीवन प्रदान करने में चन्द्र कुमार अग्रवाल (1858-1938), लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा (1867-1838) व हेमचन्द्र गोस्वामी (1872-1928) का योगदान रहा। असमीया में छायावादी आंदोलन छेड़ने वाली मासिक पत्रिका जोनाकी का प्रारंभ इन्हीं लोगों ने किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासकार पद्मनाभ गोहाञिबरुवा और रजनीकान्त बरदलै ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। सामाजिक उपन्यास के क्षेत्र में देवाचन्द्र तालुकदार व बीना बरुवा का नाम प्रमुखता से आता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य को मृत्यंजय उपन्यास के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस भाषा में क्षेत्रीय व जीवनी रूप में भी बहुत से उपन्यास लिखे गए हैं। 40वें व 50वें दशक की कविताएँ व गद्य मार्क्सवादी विचारधारा से भी प्रभावित दिखाई देती है।
अहोम वंश की मुद्रा जिस पर असमिया लिपि में लिखा गया है। असमिया लिपि ‘पूर्वी नागरी’ का एक रूप है जो असमिया के साथ-साथ बांग्ला और विष्णुपुरिया मणिपुरी को लिखने के लिये प्रयोग की जाती है। केवल तीन वर्णों को छोड़कर शेष सभी वर्ण बांग्ला में भी ज्यों-के-त्यों प्रयुक्त होते हैं। ये तीन वर्ण हैं- ৰ (र), ৱ (व) और ক্ষ (क्ष)।
इस तरह असमिया भाषा का इतिहास बहुत प्राचीन और विस्तृत है।
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “कबीर पूछ रहे …..”। )
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कालजयी व्यंग्य ‘कृतघ्न नयी पीढ़ी’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान परिवेश में आत्ममुग्ध साहित्यकार की मनोव्यथा को मानों स्याही में घोल कर कागज पर उतार दिया है। इस कालजयी व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 64 ☆
☆ व्यंग्य – कृतघ्न नयी पीढ़ी ☆
बंधु, आज दिल एकदम बुझा बुझा है। कुछ बात करने का मन नहीं है। वजह यह है कि कुछ देर पहले कुछ लड़के दुर्गा जी का चन्दा माँगने आये थे। मैंने रोब से कहा, ‘ठीक है, इक्यावन रुपया लिख लो। ‘ वे रसीद काटते हुए बोले, ‘थैंक यू, अंकल जी। क्या नाम लिख दें?’
सवाल सुनकर मेरा दिल भरभराकर बैठ गया। ऐसा बैठा कि फिर घंटों नहीं उठा। निढाल पड़ा रहा। बार बार दिमाग़ में यही बात बवंडर की तरह घूमती रही कि साहित्य की सेवा में अपने बेशकीमती तीस साल देने और अपने खून को स्याही की जगह इस्तेमाल करने के बाद भी यह हासिल है कि इलाके की नयी पीढ़ी हमारे नाम से नावाकिफ़ है। बस यही लगता था कि धरती फट जाए और हम अपने साहित्य के विपुल भंडार को लिये-दिये उसमें समा जाएं। यह पीढ़ी हमारे बहुमूल्य साहित्य की विरासत पाने लायक नहीं है।
हमसे यह गलती ज़रूर हुई कि हम अपने ड्राइंग रूम से निकल कर सड़क पर नहीं आये। कागज़ पर क्रान्ति करते रहे। ड्राइंग रूम के भीतर बैठे बैठे रिमोट कंट्रोल से दुनिया को बदलते रहे। ‘आम आदमी’ की माला पूरी निष्ठा से जपते रहे, लेकिन इस आम आदमी नाम के जीव को ढूँढ़ नहीं पाये। आम आदमी की तरफ पीठ करके श्रीमानों को सलाम बजाते रहे। इस बीच हमारे इलाके के बहुत मामूली और घटिया लोग जनता की समस्याओं को लेकर दौड़ते रहे, उनके मरे-जिये में शामिल होते रहे, उनके लिए नेताओं-अफसरों से जूझते रहे। हमारी इस मामूली भूल के कारण हम जैसे महत्वपूर्ण लोग ड्राइंग रूम में ही बैठे रह गये और फालतू लोगों ने बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के बीच घुसपैठ कर ली। अब ये बच्चे हमसे हमारा नाम पूछते हैं तो हमारे मन में ग़ालिब का यह शेर कसकता है—‘पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है, कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या?’
थोड़ी सी गड़बड़ी यह हुई कि बीस लाख की आबादी वाले इस शहर में से पन्द्रह बीस लोगों को चुन कर हम ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की तरह दुनिया से बेख़बर,एक कोना पकड़ कर बैठे रह गये। ये पन्द्रह बीस लोग हमारी पीठ ठोकते रहे और हम उन्हें ‘वाह पट्ठे’ कहते रहे। हम उनकी घटिया रचनाओं पर झूमते रहे और वे हमारी घटिया रचनाओं पर सिर धुनते रहे। उन्हीं के साथ बैठकर चाय, सिगरेट और कुछ अन्य चीज़ें पीते रहे और दुनिया की दशा और दिशा पर ज्ञान बघारते रहे। जब बाहर निकले तो पाया कि दुनिया दूसरी दिशा में खिसक गयी है।
आपकी सूचनार्थ बता दूँ कि साहित्य के शब्दकोश में ‘आलोचना’ का अर्थ ‘प्रशंसा’ होता है। साहित्यकार का मन कोमल होता है, आलोचना का आघात उसे बर्दाश्त नहीं होता। इसलिए गोष्ठियों में आलोचना के नाम पर ख़ालिस तारीफ के अलावा कुछ नहीं होता। कोई मूर्ख साहित्य की पवित्रता के नशे में आलोचना कर दे तो मारपीट की नौबत आ जाती है। तीन चार साल पहले ‘वीरान’ और ‘बेचैन’ उपनाम वाले जो दो साहित्यकार स्वर्गवासी हुए थे वे वस्तुतः एक गोष्ठी में आलोचना के शिकार हुए थे। किसी नासमझ ने गोष्ठी में उनकी कविताओं को घटिया बता दिया था और चौबीस घंटे के भीतर उनकी जीवनलीला समाप्त हो गयी थी। यह तो अच्छा हुआ कि हादसा गोष्ठी के दौरान नहीं हुआ, अन्यथा सभी हाज़िर साहित्यकार दफा 302 में धर लिये जाते।
नयी पीढ़ी के बीच हमारी पहचान न बन पाने का ख़ास कारण यह है कि नयी पीढ़ी गुमराह है। टीवी, मोबाइल से चिपकी रहती है, साहित्य से कुछ वास्ता नहीं रहा। हमारा उत्कृष्ट लेखन बेकार जा रहा है। जल्दी ही हम साहित्यकार सरकार से माँग करने जा रहे हैं कि पच्चीस साल तक की उम्र के लोगों के लिए टीवी और मोबाइल कानूनन निषिद्ध कर दिया जाए और उनके लिए साहित्य का अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाए। साहित्य में भी चाहे प्रेमचंद का साहित्य न पढ़ा जाए, लेकिन मेरे जैसे हाज़िर साहित्यकारों का साहित्य गर्दन पकड़कर पढ़ाया जाए। हमारी किताबों की बिक्री और हमारी रायल्टी बढ़ाने के लिए यह ज़रूरी है।
कुछ कुचाली लोग कहते हैं कि आज के साहित्य में दम नहीं है, वह पाठक को पकड़ता नहीं है, और इसीलिये पाठक उससे दूर भागता है। यह सब दुष्प्रचार है। हम तो हमेशा बहुत ऊँचे स्तर का साहित्य ही रचते हैं (यकीन न हो तो हमारे मित्रों से पूछ लीजिए), लेकिन इस देश के पाठक का कोई स्तर नहीं है। जिस दिन पाठक मेरे साहित्य को खरीदने-पढ़ने लगेगा उस दिन समझिएगा कि उसका स्तर सुधर गया।
कुछ लोग कहते हैं कि आज के लेखक को जीवन की समझ नहीं है, उसके साहित्य में पाठक को कुछ मिलता नहीं है। मुझे यह सुनकर हँसी आती है। हमारे साहित्य में तो जीवन-तत्व भरा पड़ा है। जिसमें समझ हो वह ढूँढ़ ले। हीरा खोजने के लिए गहरे खोदना पड़ता है। ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ’। हमारे साहित्य में पैठो, मालामाल होकर बाहर निकलोगे। किनारे बैठे रहोगे तो मोती कैसे पाओगे भाई? हाँ,जब मिल जाए तो हमें ज़रूर सूचित कीजिएगा।
हमसे यह गलती भी हुई कि सारे वक्त छपने के लिए संपादकों की ठुड्डी सहलाते रहे, किताब के विमोचन के लिए मंत्रियों-नेताओं के चक्कर लगाते रहे, और पुरस्कारों के लिए समितियों के सदस्यों को साधते रहे। अपनी किताबों को कोर्स में लगवाकर कुछ माया पैदा करने के लिए दौड़-भाग करते रहे। इस बीच पाठक हमारी पकड़ से खिसक गया। हम जनता के बीच से ‘कच्चा माल’ उठाकर वापस अपने खोल में घुसते रहे। अपना तैयार माल लेकर जनता के बीच आने का आत्मविश्वास और साहस नहीं रहा, इसलिए अपने ‘सुरक्षा-चक्र’ के बीच बैठे, मुँहदेखी तारीफ सुन सुन कर आश्वस्त और मगन होते रहे।
जो भी हो, नयी पीढ़ी को चाहिए कि हमारा साहित्य खरीदे और पढ़े। माना कि किताबों की कीमत ऊँची है, लेकिन प्रकाशकों, लेखकों और सरकारी खरीद में मददगार अधिकारियों को लाभ देने की दृष्टि से यह उचित है। माना कि देश की जनता गरीब है और रोटी के लाले पड़े हैं, लेकिन साहित्य की अहमियत को देखते हुए पेट पर गाँठ लगाकर उसे हमारी किताबें खरीदना चाहिए। जब लोग पान खाकर थूक सकते हैं तो हमारा साहित्य खरीद कर ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
नयी पीढ़ी का फर्ज़ बनता है कि देश में हमारे योगदान को समझे और हम पर धन और सम्मान की वर्षा करे। हर हफ्ते हमारा अभिनन्दन करे और हमारी जन्मतिथि और पुण्यतिथि को पर्वों की तरह मनाये। हमें भले ही उससे ताल्लुक रखने की फुरसत न मिले, लेकिन वह हमें न भूले।
फिलहाल तो बंधु, उन लड़कों के रुख़ से दिल बहुत गिरा है। मायूसी ही मायूसी है। शाम को एक गोष्ठी है। उसमें मित्रों से मरहम लगवाऊँगा, तसल्ली के दो बोल सुनूँगा, तब कुछ मनोबल वापस लौटेगा। अभी तो बात करने का मन नहीं है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – साक्षर ☆
बालकनी से देख रहा हूँ कि सड़क पार खड़े, हरी पत्तियों से लकदक पेड़ पर कुछ पीली पत्तियाँ भी हैं। इस पीलेपन से हरे की आभा में उठाव आ गया है, पेड़ की छवि में समग्रता का भाव आ गया है।
रंगसिद्धांत के अनुसार नीला और पीला मिलकर बनता है हरा..। वनस्पतिशास्त्र बताता है कि हरा रंग अमूनन युवा और युवतर पत्तियों का होता है। पकी हुई पत्तियों का रंग सामान्यत: पीला होता है। नवजात पत्तियों के हरेपन में पीले की मात्रा अधिक होती है।
पीले और हरे से बना दृश्य मोहक है। परिवार में युवा और बुजुर्ग की रंगछटा भी इसी भूमिका की वाहक होती है। एक के बिना दूसरे की आभा फीकी पड़ने लगती है। अतीत के बिना वर्तमान शोभता नहीं और भविष्य तो होता ही नहीं। नवजात हरे में अधिक पीलापन बचपन और बुढ़ापा के बीच अनन्य सूत्र दर्शाता है।
प्रकृति पग-पग पर जीवन के सूत्र पढ़ाती है। हम देखते तो हैं पर बाँचते नहीं। जो प्रकृति के सूत्र बाँच सका, विश्वास करना वही अपने समय का सबसे बड़ा साक्षर और साधक भी हुआ।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला)
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है एक धारावाहिक कथा “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय भाग।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-5 ☆
पत्नी के क्रिया कर्म के बाद रघूकाका ने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया रामखेलावन को पढ़ा लिखा अच्छा इंसान बनाकर पत्नी की आखिरी इच्छा पूरी करने का। रामखेलावन की परवरिश में उन्होंने कोई कमी नहीं की। लेकिन रामखेलावन के आज के व्यवहार से वे टूट गये थे। इन्ही परिस्थितियों में जब स्मृतियो के सागर में तूफान मचा तो उन्हें लगा जैसे स्मृतिपटल का पर्दा फाड़ प्रगट हो उनकी पत्नी उनके आंसू पोंछ टूटे हृदय को दिलासा दे रही हो और रघूकाका बर्दाश्त नहीं कर सके थे। उनके हृदय की पीड़ा आर्तनाद बन कर फूट पड़ी और वे अपने विचारों में खोये हुए बुदबुदा उठे —–
हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई, अब तुमसे मिल न सकूँगा।
दुख सुख मन की पीड़ा, कभी किसी से कह न सकूँगा।
घर होगा परिवार भी होगा, दिन होगा रातें भी होगी।
सारे रिश्ते होंगे नाते होंगे, सबसे फिर मुलाकातें होंगी।
तुम ही न होंगी जग में, फिर किससे दिल की बातें होंगी।
।।हाय प्रिये।।।1।।
तुम ऐसे आई मेरे जीवन में, मानों जैसे बहारें आई थी।
दुख सुख मे साथ चली , कदमों से कदम मिलाई थी ।
थका हारा जब होता था, सिरहाने तुमको पाता था।
कोमल हाथों का स्पर्श , सारी पीड़ा हर लेता था
।।।हाय प्रिये।।।2।।।
जीवन के झंझावातों में, दिन रात थपेड़े खाता था ।
उनसे टकराने का साहस तुमसे ही पाता था ।
रूखा सूखा जो कुछ मिलता, उसमें ही खुश रहती थी।
अपना ग़म अपनी पीड़ा, मुझसे कभी न कहती थी ।
।।।हाय प्रिये ।।3।।
तुम मेरी जीवन रेखा थी, तुम ही मेरा हमराज थी।
और मेरे गीतों गजलों की, तुम ही तो आवाज थी ।
नील गगन के पार चली, शब्द मेरे खामोश हो गये ।
ताल मेल सब कुछ बिगड़ा, मेरे सुर साज खो गये।
।।।हाय प्रिये ।।4।।
अब शेष बचे दिन जीवन के, यादों के सहारे काटूंगा ।
अपने ग़म अपनी पीड़ा को, मैं किससे अब बांटूंगा ।
तेरी याद लगाये सीने से, बीते पल में खो जाऊंगा।
ओढ़ कफ़न इक दिन , तेरी तरह ही सो जाऊंगा
।।।हाय प्रिये ।।5।।
इस प्रकार आर्तनाद करते करते, बुदबुदाते रघूकाका के ओंठ कब शांत हो गये पता नहीं चला।