हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 49 ☆ व्यंग्य – ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक अतिसुन्दर गॉसिप आधारित व्यंग्य  “ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 49 ☆ 

☆ व्यंग्य – ब्रांडेड  स्टेटस सिंबल

सोसायटी में स्टेटस सिंबल के मापदण्ड समय के साथ बदलते रहते हैं. एक जमाना था जब घर के बाहर खड़ी मंहगी गाडी घर वालों का स्टेटस बताती थी.मंहगे बंगले से समाज में व्यक्ति की इज्जत बढ़ती थी. महिलायें क्लब में घर की लक्जरी सुविधाओ जकूजी बाथ सिस्टम, बरगर एलार्म, सी सी टीवी, वगैरह को लेकर या अपनी मंहगी गाड़ी के नये माडल को लेकर बतियातीं थी.जिस बेचारी के पति मारुति ८०० में चलते, वह पति की ईमानदारी के ही गुण गाकर और उनहें मन ही मन कोसकर संतोष कर लेती थी. ननद, भाभियों, बहनो, कालेज के जमाने की सखियों में लम्बी लम्बी मोबाईल वार्ता के विषय गाड़ी, बंगले, फ्लैट रहते थे. पर जब से ई एम आई और निन्यानबे प्रतिशत लोन पर गाडीयो की मार्केटिंग होने लगी है, केवल सैलरी स्लिप पर लाइफ इंश्योरेंस करके बड़े बड़े होम लोन के लिये बैंक स्वयं फोन करने लगे हैं बंगले और गाड़ियां स्टेटस के मुद्दे नही रह गये. फिर  मंहगी ब्रांडेड ज्वेलरी, मंहगी घड़ियां,सिल्क और हैण्डलूम की मंहगी साड़ियां चर्चा के विषय बने. किस पार्टी में किसने कितनी मंहगी साड़ी पहनी से लेकर, अरे उसने तो वह साड़ी अमुक की शादी में भी पहनी थी, फेसबुक पर फोटो भी है. हुंह, उसका वह डायमण्ड सैट ब्रांडेड थोड़े था पर बात होने लगी किंतु किश्तों में ज्वैलरी स्कीम्स से वह मजा भी जाता रहा. स्टेटस सिंबल की महिला गासिप  फारेन ट्रिप पर केंद्रित हुई,नेपाल, भूटान, मालदीव ट्रिप वाले, देहरादून, शिमला, कुल्लू मनाली से स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे.  वे अगले बरस एनीवर्सरी पर दुबई, सिंगापुर, बैंकाक  की प्लानिंग की बातें करते नही थकते थे.  बड़े लोग यूरोप, आस्ट्रेलिया,पेरिस ट्रिप से शुरुवात ही करते थे. हनीमून पर बेटी दामाद को लासवेगास की ट्रिप के पैकेज गिफ्ट करना स्टेटस का द्योतक  बन गया था.

पहले विदेश यात्रा और फिर उसके फोटो व्हाट्सअप के स्टेटस, इंस्टाग्राम पर चस्पा करना सोसायटी में डील करने के लिये जरूरी हो गया था. आयकर विभाग ने भी इस प्रवृति को संज्ञान में लेकर इनकम टैक्स रिटर्न में फारेन ट्रिप के डिटेल्स भरवाने शुरू कर दिये. इन सब भौतिकतावादी अमीरी के प्रदर्शक स्टेटस सिंबल्स के बीच बुद्धिजीवी परिवारों ने बच्चो की एजूकेशन को लेकर स्टेटस के सर्वथा पवित्र मापदण्ड स्वयं गढ़े. बच्चे किस स्कूल में पढ़ रहे हैं ? मुझे क्या देखते हो मेरे बच्चो को देखो, के आदर्श आधार पर बच्चों के रेसिडेंशियल काण्वेंट स्कूल से प्रारंभ हुई  स्टेटस की यह दौड़ बच्चो को हायर एजूकेशन के लिये सीधे अमेरिका और लंदन ले गई. किसके बच्चे ने मास्टर्स विदेश से किया है,और अब कितने के पैकेज पर किस मल्टी नेशनल में काम कर रहा है,  यह बात बड़े गर्व से माता पिता की चर्चा का हिस्सा बन गई. बच्चे विदेश गये तो घरो में काम करने वाले मेड् और ड्राईवर, शोफर और उन गरीब परिवारो को मदद की चर्चा भी स्टेटस सिंबल बना. मंहगे मोबाईल्स, उसके फीचर्स, मोबाईल  कैमरे के पिक्सेल थोड़ा तकनीकी टाईप के नेचर वाली महिलाओ के स्टेटस वार्तालाप के हिस्से रहे.बड़ी ब्रांड के सेंट, साबुन, कास्मेटिक्स, सौंदर्य प्रसाधन, स्पा, मसाज की बातें भी खूब हुईं.

पर पिछले दो महीनो में स्टेटस सिंबल एकदम से बदले हैं. कोरोना ने दुनियां को घरो में बन्द कर दिया है. नौकरो की सवैतनिक छुट्टी कर दी गई है. बायें हाथ को दाहिने हाथ से कोरोना संक्रमण का डर सता रहा है. ऐसे माहौल में लोग व्यस्त भी हैं और फ्री भी. वर्क फ्राम होम चल रहा है. महीनो हो गये महिलायें सज धज ही नहीं रही. पति पूछ रहे हैं कि सजना है मुझे सजना के लिये वाले गाने में सजना मैं ही हूं न ? ब्रांडेड ड्रेसेज पहने महीनो बीत गये हैं.लूज घरू कपड़ों में दिन कट रहे हैं. इन दिनों घर के कामों में किसके पति कितना हाथ बटांते हैं, यह लेटेस्ट स्टेटस चर्चा में चल रहा है. घर के कामों में पति की भागीदारी से उसका प्यार नापा जा रहा है.  किचन के किस आटोमेटिक उपकरण से क्या नई डिश बनी, उसमें पति की कितनी भागीदारी रही, और उसका स्वाद किस फाइवस्टार होटल की किस डिश के समान था यह आज का स्टेटस डिस्कशन पाईंट था. मुझे भरोसा है कि जल्दी ही इन तरह तरह की डिसेज से भी मन ऊब ही जायेगा, और यदि तब भी लाकडाउन और क्वेरंटाईन जारी रहा तो चर्चा के नये विषय होंगे ब्रांडेड झाडू और पोंछे.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 47 – लघुकथा – सहोदर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम लघुकथा  “सहोदर ।  एक कहावत है कि- शक के इलाज की दवा तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी। वास्तव में कुछ अपवाद छोड़ दें तो हमारी समवयस्क पीढ़ी ने जिस तरह से मुंहबोले रिश्ते निभाए हैं,  वैसी अगली पीढ़ी किस स्तर तक निभा पाएंगी , भविष्य ही बताएगा। एक अतिसंवेदनशील विषय पर लिखी गई एक अतिसंवेदनशील सफल लघुकथा।  इस सर्वोत्कृष्ट  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 47 ☆

☆ लघुकथा  – सहोदर

खन्ना साहब और वर्मा जी की गहरी दोस्ती थी।

दोनों एक ही मोहल्ले में घर के आस-पास रहते थे। एक हादसे में अचानक वर्मा जी और उनका साल भर का बेटा दुनिया से चल बसा। दोस्त की पत्नी और रिश्ते में बहन बन चुकी, वर्मा जी की  पत्नी ममता की जिम्मेदारी खन्ना साहब पर आ गई।

कुछ दिनों बाद खन्ना साहब की धर्मपत्नी को जुड़वा संतान हुए।

उन्होंने एक उठाकर ममता की आंचल पर डाल दिया। भरा पूरा परिवार खुश रहने लगा और ममता भी अपना दर्द भूल गई। सुधीर ममता के पास धीरे-धीरे बड़ा होने लगा और गुस्सैल स्वभाव के होने के कारण कुछ ना कुछ बातें हो जाती थी। अक्सर मां बेटे में कहा सुनी होती थी।

घर में फिर अचानक जोर जोर से बातचीत और सामान फेंकने की आवाज आ रही थी। खन्ना साहब जो कीआर्मी से रिटायर हो चुके थे। दौड़ कर ममता के घर पहुंचे। सुधीर अपने मां के साथ फिर से झगड़ा कर रहा था। कह रहा था…. कि हमेशा मेरी सही गलत पर यह खन्ना क्यों टांग अडाता है, मैं क्या पढ़ता हूं, भविष्य में क्या बनूंगा, इसकी जिम्मेदारी वह लेने वाला कौन होता है? ना वह हमारा सगा संबंधी, ना रिश्तेदार, और ना ही हमारे कोई हितैषी!!!! पापा रहे नहीं तो दोस्त भी नहीं है। आपके साथ उनका क्या????? संबंध है आज मैं जानना चाहता हूं। युवा वर्ग होने के कारण वह बौखला गया था। घर में खन्ना जी के दखल अंदाजी उसको परेशान कर रही थी। अपने बेटे की बात सुन आज ममता बर्दाश्त न कर सकी। उसने सारा बर्तन अलमारी कपड़े सभी फेंक दिए। बर्तनों की आवाज से खन्ना साहब और उनकी धर्मपत्नी दौड़कर आए।

जैसे ही उन्होंने यह माजरा सुना कसकर एक जोरदार थप्पड़ दिया उनका हाथ लगते ही.. सुधीर और जोर जोर से बोलने लगा…. क्या रिश्ता है हमारी मां के साथ आपका। अब तो खन्ना आंटी जोर से चिल्ला कर बोली…. बेटा है तू हमारा मैंने तुझे जन्म दिया है। बंटी का जुड़वा भाई है तू सहोदर है उसका।

सुधीर  तो जैसे कटे पेड़ की तरह दम से गिर धरती पर बैठ गया। सुधीर की मां बोली…. नहीं नहीं यह आपने क्या कह दिया। इसकी मां तो मैं ही हूं और रोते – रोते  वह सुधीर को गले लगा ली।

सुधीर इन सब बातों से अंजान कभी अपनी मां और कभी खन्ना अंकल आंटी को देखने लगा पश्चाताप से भरा हुआ।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 49☆ पाखरे चिंतेत आता ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण कविता  “पाखरे चिंतेत आता।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 49 ☆

☆ पाखरे चिंतेत आता ☆

वादळाशी झाड भिडते रडत नाही

मुळ इतके घट्ट आहे सुटत नाही

 

पाय, तळवे, लोह झाले पूर्ण आता

पावलांना फार काटे रुतत नाही

 

हिरवळीचा बेगडी आहे दिखावा

पावलांना सुखवणारे गवत नाही

 

फूल बाजारात मिळते दाम देता

गंध-वारा विकत येथे मिळत नाही

 

शांततेचा मंत्र लोका का कळेना ?

मज कळाला मी कुणावर चिडत नाही

 

शेत विकले पाखरे चिंतेत आता

माॕल झाले पोट त्याचे भरत नाही

 

लालसा ही भावनेच्या अग्र भागी

प्रीतिची ही बाग आता फुलत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 4 – काही कणिका ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है ‘काही कणिका’ शीर्षक से कुछ भावप्रवण कणिकाएं।आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 4 ☆ 

☆ काही कणिका 

1.

तप्त रस सोनियाचा

खाली आला फुफाटत

सारा शांतला

फुलाफुलांच्या देहात

 

2.

किती कशा भाजतात

उन्हाळ्याच्या ऊष्ण झळा

तरी झुलतात संथ

बहाव्याच्या फुलमाळा

 

3.

मिठी मातीला मारून

पाने ढाळितात आसू

वर हासतात फुले

शाश्वताचं दिव्य हसू

 

4.

किती आवेग फुलांचे

वेल हरखून जाते

काया कोमल तरीही

उभ्या उन्हात जाळते.

 

5.

किती किती उलघाल

होते काहिली काहिली

एक लकेर गंधाची

सारे निववून गेली.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 3 ☆ नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक व्यंग्य “नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #3 ☆

☆ नलियाबाखल से मंडीहाउस तक : किस्सा कामियाब सफ़र का

आप रम्मू को नहीं जानते.

अरे वोई, जो एक जमाने में कंठाल चौराहे पर, साईकिल खड़ी करके, दोपहर का अखबार चिल्ला चिल्ला कर बेचा करता था. यस, वोई. इन दिनों एक न्यूज चैनल में एडिटर-इन-चीफ हो गया है. प्राईम टाईम के प्रोग्राम कम्पाईल करता है. मुझे भी नहीं पता था.

कुछ दिनों पहले, मैं चैनल बदल रहा था तो जोर की आवाज पड़ी कान में. अरे ये तो अपना रम्मू है. ध्यान से देखा तो वोई निकला. कैसा तो मोटा हो गया है. नाक नक्श में भी थोड़ा बदलाव आया है. चश्मा भी लगने लगा है, इसीलिए पहिचानने में देर लगी. लेकिन मैं आवाज से पहचान गया. चिल्लाने की वैसी ही अदा, वही आवाज़ हॉकरों वाली, उतनी ही लाउड. ख़बरों की वैसी ही अदायगी – ‘महापौर के अवैध सम्बन्ध उजागर. छुप छुप के मिलने की कहानी का पर्दाफ़ाश’. आज वो स्टूडियो के न्यूज रूम से पूरे देश के सामने मुखातिब है. क्या शानदार तरक्की की है रम्मू ने!!!

समाचारों की दुनिया में रम्मू के प्रवेश की छोटी सी मगर दिलचस्प कहानी है. शुरू शुरू में रम्मू अपनी साईकिल पर हांक लगाकर खटमलमार पावडर बेचा करता था. क्या तो हाई पिच गला उसका और क्या मज़बूत फेफड़े पाये उसने!! बंसी काका की उस पर नज़र पड़ी, उन्होंने उसे साथ-साथ ‘जलती मशाल’  अखबार बेचने के लिये राजी कर लिया. शहर का सबसे पॉपुलर टैब्लॉयड, क्राईम की खबरों से भरपूर. रम्मू उसमें से ह्त्या, बलात्कार, डकैती की किसी खबर को बुलंद आवाज़ में दोहराता और सौ-दो सौ प्रतियाँ बेच लेता था. ‘आज की ताज़ा खबर’ की उसकी हांक इतनी जोरदार होती थी कि चार किलोमीटर दूर टॉवर चौराहे पर खड़े लोग जान जाते कि कोई सत्तर साल की वृद्धा बीस साल के युवक के साथ भाग गयी है.

एक दिन बंसी काका ने संपादन का दायित्व भी थमा दिया. वो सुबह सुबह प्रूफरीडर होता, फिर एडिटर, फिर हॉकर. ‘तीन ग्रामीणों की पीट पीट कर हत्या’ जैसी खबर नागालैंड से होती, मगर उसकी गूँज से लगता कि क़त्ल अभी अभी इसी चौराहे पर हुआ है. सनसनी वो तब भी बेचता रहा, अब भी. असल जनसरोकारों से उसे तब भी कोई लेना देना नहीं रहा, अब भी. सरोकार में कमाई, टारगेट में बिक्री. नलियाबाखल से मंडीहाउस तक के उसके सफ़र में ‘जलती मशाल’ की झलक हर पायदान पर महसूस की जा सकती है.

देखिये ना, आज वो विचार भी उसी शिद्दत से बेच लेता है जिस शिद्दत से कभी खटमलमर पावडर बेचा करता था. पोलिटिकल लीनिंग और लाईनिंग वो पजामे की तरह बदलता रहता है. थाने की दलाली का कौशल उसे नेशनल केपिटल में पॉलिटिकल पार्टीज के साथ डील करने में मददगार साबित हो रहा है. वो न्यूज का अल्केमिस्ट है. खबर को बाज़ारी से बाजारू बना देने के हुनर को उसने महारथ में जो बदल लिया है. पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिये रम्मू ‘यलो जर्नलिज्म’ की एक फिट केस स्टडी है. वो राई को पहाड़ और पहाड़ को राई बना सकता है. निर्मल बाबा जैसे प्रोडक्ट उसी ने बाज़ार में चलाये हैं. वो राधे माँ, हनी प्रीत, कंगना रानौत-ह्रितिक रोशन प्रसंगों पर घंटों बहस कर सकता है. बिना जमीर के पत्रकारिता करने की उसने एक नायाब नज़ीर कायम की है. प्राईम टाईम की शुरुआत वो गालियों से करता है, और ताली बजा बजा कर इंफोटेनमेंट का सर्कस जमा लेता है. वो पैनलिस्टों से बौद्धिक बहस नहीं करता उन्हें नचवा लेता है. वो इंटेलेक्चुअल्स को शट-अप बोलने का शऊर रखता है. अपनी आवाज़ के दम पर बीस बीस पैनलिस्टों पर अकेला भारी पड़ता है. कभी-कभी उसके पैनलिस्ट सुनील वाल्सन की तरह होते हैं – वे टीम में चुने तो जाते हैं, मैच नहीं खेल पाते. उनके मुंह खोले बिना ही डिबेट पूरी हो जाती है.  उज्जैन में था तो पाड़े लड़वाता था, अब पैनलिस्ट.

पढ़ने में फिसड्डी रहने का स्याह अध्याय वो बहुत पीछे छोड़ आया है. आज वो किसी भी विषय पर बहस करा लेता है. उसका ज्ञान से कोई लेना देना नहीं. वो विज्ञान, समाजशास्त्र, पर्यावरण, कला-साहित्य जैसे विषयों को बिना पढ़े भी खींच तो ले जाता है मगर सुकून उसे हिन्दू-मुसलमां डिबेट में ही मिलता है. वो अपनी बात किसी भी पैनालिस्ट के मुंह में ठूंस सकता है, उगलवा सकता है, निगलवा सकता है, स्टूडियो में उल्टी करने को मजबूर कर सकता है. ‘जलती मशाल’ तो कभी स्तरीय बना नहीं पाया, अलबत्ता नेशनल न्यूज को उसने ‘जलती मशाल’ के स्तर पर ला खड़ा किया है. वो एक ऐसा कीमियागर है जिसने मामूली खबर को निरर्थक बहस से प्रॉफिट के ढेर में तब्दील करने की तकनीक विकसित की है.

वो रात नौ बजे पड़ोसी मुल्क के पैनालिस्टों के विरुद्ध अपनी कर्णभेदी आवाज़ में जंग का बिगुल बजा देता है दस बजते बजते विजय की दुंदुभी बजाकर उठ जाता है. ‘बूँद बूँद को तरसेगा….’ से ‘कुत्ते की मौत मरेगा ….’ जैसे केप्शन्स भरी चीख़ उसे टीआरपी दिलाती है और टीआरपी विज्ञापन. इन सालों में उसने बहुत कुछ सीखा है, अब वो चैनल में ही कचहरी लगा लेता है. जज, ज्यूरी, एक्सीक्यूशनर सब वही रहता है. घंटे-आधे घंटे में फैसले सुनाने लगा है. फैसले जिनके पार्श्व में सिक्के खनकें तो, मगर सुनाई न दें.

उसका अगला लक्ष्य राज्यसभा की कुर्सी है. रम्मू एक दिन होगा वहां. उस रोज़ हम नलियाबाखल में मिठाई बाँट रहे होंगे और आतिशबाजी तो होगी ही. अब इससे ज्यादा, रम्मू के बारे  और क्या जानना चाहेंगे आप ?

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 1 – मन के शब्दार्थ ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आपने ई- अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ -अभिनव गीत” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकारा है, इसके लिए साधुवाद। आज पस्तुत है उनका अभिनव गीत  “मन  के शब्दार्थ “ ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ मन के शब्दार्थ  ☆

छूट गये साथी सब

पेंचदार गैल के

बीत गये दिन जैसे

शापित अप्रैल के

 

चिन्तातुर आँगन को

झाँकते पुकारते

मन के शब्दार्थ को

यों अक्षरशः बाँचते

भीतर तक गहरे

अवसाद मे समाये से

शब्दों की तह को

न ढाँपते उघाड़ते

 

देर तलक छाया मे

छिछलते रहे ऐसे

छाछ बचे अधुनातन

छप्पन के छैल के

 

माथे पर चाँद की

तलाश के विचार से

बीत गई रात बहुत

रोशनी, प्रचार से

शंकायें तैर रहीं

आँखों की कोरो में

व्याकुल तारामंडल

अपने घर वार से

 

खोजती चली आई

वह निशीथ की कन्या-

चाँदनी, झाँक गई

घर में खपरैल के

 

नम्र हुआ जाता है

शापित वह पुष्पराग

जिस पर आ सिमटा है

मुस्कानों का प्रभाग

मन्द मन्द खुशबू के

बिखरे हुये केशों

में जाकर सुलगी है

बरसों को दबी आग

 

हवा की किताबों से

देखो छनकर निकले

आखिर वे प्रेमपत्र

किंचित विगड़ैल के

 

© राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47 ☆ माइक्रो व्यंग्य – ईगो का ईको ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 47

☆ माइक्रो व्यंग्य –  इगो का इको ☆ 

बीस साल पहले हम साथ साथ एक ही आफिस में काम करते थे। पर वे हमारे सुपर बाॅस थे, गुड मार्निंग करो तो देखते नहीं थे, नमस्कार करो तो ऐटीकेट की बात करते थे। जब हेड आफिस से हमारे नाम पुरस्कार आते तो देते समय सबके सामने कहते कि इनके यही सब दंद फंद के काम है बैंक का काम करने में इनका मन लगता नहीं। हेड आफिस से प्रशंसा पत्र आते तो दबा के रख लेते।

जब तक रिटायर नहीं हुए तब तक फेसबुक में हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट को इग्नोर करते रहे। हार कर जब रिटायर हुए तो बेमन से हमारी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। पिछले दो साल से उन्हें फेसबुक में लिखा आने वाला वाक्य “हैपी बर्थडे टू यू” बिना श्रम के हम भेज देते थे। वे पढ़ कर रख लेते थे। कुछ कहते नहीं थे रिटायरमेंट के हैंगओवर में रहते।  इस बार से हमने न्यु ईयर की हैप्पी न्यु ईयर भी भेजने लगे। थैंक्यू का मेसेज तुरंत आया हमें बहुत खुशी हुई। मार्च माह में इस बार गजब हुआ जैसई हमनें “हैपी बर्थ डे टू यू” भेजा वहां से तुरंत रिप्लाई आई, “आपका हैप्पी बर्थडे का संदेश ऊपर भेजा जा रहा है। साहब का अचानक हृदयाघात से निधन हो गया था जाते-जाते कह गये थे कि सब मेसेज ऊपर फारवर्ड कर देना फिर मैं देख लूंगा।  जाते समय वे आपको याद कर रहे थे और उनकी इच्छा थी कि आप भी उनके साथ चलते……

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 8 ☆ मन ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “मन ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 8 ☆

☆  मन  ☆

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

घर के एक एक कोने में मेरा मन,

न जाने कहाँ कहाँ भटकता मेरा मन,

इस मन को पकड़ लेना चाहती हूँ, मन ही मन में,

कभी रोकती हूँ, कभी टोकती हूँ, ना जाए इधर उधर मेरा मन,

कभी पतंग सा  उड़ता मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

कभी घूमने निकलूँ तो, चाट के ठेले पे ललचाता मेरा मन,

कभी रंगीन कपड़ों की दुकानों पर, रुक जाता मेरा मन,

कभी पार्क में बैठूँ तो, पता नहीं कहाँ खो जाता मेरा मन,

कभी पुरानी  यादों में मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

दीपावली के फटाकों से उत्साहित मेरा मन,

होली के रंगों से रंगा हुआ मेरा मन,

बैसाखी मे नाचता हुआ मेरा मन,

हर त्यौहार में आनन्दित मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

 

हर दुख में रोता चीखता मेरा मन,

किसी सहारे, किसी कंधे को ढूँढता मेरा मन,

हर उम्र में ढूँढता, माँ की गोद को मेरा मन,

क्योंकि आकाश की अन्तहीन सीमा में मेरा मन,

भावों की सरिता में मेरा मन, इन्द्रधनुष सा मेरा मन।

©  डॉ निधि जैन, पुणे

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 47 – गुरूने दिला ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपका  एक अत्यंत भावप्रवण कविता  ” गुरूने दिला”।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 46 ☆

☆ गुरूने दिला ☆

 

गुरुने दिला हा। ज्ञानरूपी वसा। वाटू घसघसा । सकलांना।।१।।

गुरूने दिधली।ज्ञानाची शिदोरी ।अज्ञान उधारी।संपविण्या।।२।।

करिता प्राशन ।ज्ञानामृत  गोड । संस्काराची जोड। लाभे तया।।३।।

गुरू उपदेश।  उजळीतो दिशा। पालटेल दशा जीवनाची।।४।।

गुरूविना भासे ।तमोमय सृष्टी । देई दिव्य दृष्टी । गुरू माय।।५।।

गुरू जीवनाचा।असे शिल्पकार । जीवना आकार ।लाभलासे।।६।।

गुरू माऊलीला।करू या वंदन । जीवन चंदन। सुगंधीत।।७।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 50 ☆ व्यंग्य – निरगुन बाबू की पीड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘निरगुन बाबू की पीड़ा’। वास्तव में कुछ पात्र हमारे आसपास  ही दिख जाते हैं, किन्तु , उन्हें हूबहू अपनी लेखनी से कागज़ पर उतार देना, डॉ परिहार सर  की लेखनी ही कर सकती है।  ऐसा लगता है जैसे अभी हाल ही में निर्गुण बाबू से मिल कर आ रहे हैं। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 50 ☆

☆ व्यंग्य – निरगुन बाबू की पीड़ा ☆

निरगुन बाबू चौबीस घंटे पीड़ा से भरे रहते हैं। उन्हें संसार में अच्छा कुछ भी नहीं दिखता। सब भ्रष्टाचार है, सत्यानाश है, बरबादी है।

सबेरे दूधवाला दूध देकर जाता है तो निरगुन बाबू पाँच मिनट तक पतीले को हिलाते खड़े रहते हैं। कहते हैं, ‘देखो, पानी में थोड़ा सा दूध मिलाकर दे गया। ये बेपढ़े लिखे लोग हमारे कान काटते हैं। दुनिया बहुत होशियार हो गयी।’

सब्ज़ी लेने जाते हैं तो सब्ज़ीवालों से घंटों महाभारत करते हैं। घंटों भाव-ताव होता है। कहते हैं, ‘ठगने को हमीं मिले? हमें पूरा बाजार मालूम है। हमें क्या ठगते हो?’  तराजू में से आधी सब्ज़ी निकालकर वापस टोकरी में फेंक देते हैं। कहते हैं, ‘यह सड़ी सब्जी हमारे सिर मत मढ़ो। जानता हूँ कि तुम बड़े होशियार हो।’

सब्ज़ी की तौल के वक्त निरगुन बाबू की चौकन्नी नज़र तराजू के काँटे पर रहती है। हिदायत चलती है—-‘पल्ले पर से हाथ हटाओ। जरा और ऊपर उठाओ। पल्ला नीचे जमीन पर धरा है। डंडी मत मारो।’ तराजू उठाए उठाए सब्ज़ीवाले का हाथ थरथराने लगता है, लेकिन निरगुन बाबू का शक दूर नहीं होता। घर लौटकर कहते हैं, ‘साले सब चोर बेईमान हैं। ठगने के चक्कर में रहते हैं।’

उनकी नज़र में मोची भी बेईमान है और धोबी भी। चप्पल सुधरवाकर कई मिनट उसको उलटते पलटते हैं। फिर भुनभुनाते हैं, ‘दो टाँके मारे और दो रुपये ले लिये। लूट मची है।’

कपड़े धुल कर आने पर निरगुन बाबू उनमें पचास धब्बे ढूँढ़ निकालते हैं। पचास जगह सलवटें बताते हैं।  ‘ससुरे मुफ्त के पैसे लेते हैं। इससे अच्छा तो घर में ही धो लेते।’

नुक्कड़ का बनिया उनकी नज़र में पक्का बेईमान है। कम तौलता है, खराब माल देता है और ज़्यादा पैसे लेता है। यानी सर्वगुणसंपन्न है। लेकिन उससे निरगुन बाबू कुछ नहीं बोलते क्योंकि महीने भर उधार चलता है। उधार का तत्व उनकी तेजस्विता का गला घोंट देता है।

उनके बच्चों के मास्टर बेईमान हैं। कुछ पढ़ाते लिखाते नहीं। जानबूझकर उनके सपूतों को फेल कर देते हैं। एक मास्टर को उन्होंने घर पर पढ़ाने के लिए लगाया था। लेकिन पढ़ाई के वक्त निरगुन बाबू उसके आसपास ही मंडराते रहते थे। नतीजा यह कि एक महीना होते न होते वह मास्टर भाग गया।

राशन की लाइन में लगने वालों को निरगुन बाबू बताते हैं कि कैसे अच्छा राशन खराब राशन में बदल जाता है। बस में बैठते हैं तो सहयात्रियों  को बताते हैं कि कैसे बसों के टायर-ट्यूब और हिस्से-पुर्ज़े बिक जाते हैं। ट्रेन में बैठते हैं तो भाषण देते हैं कि कैसे रेलवे के बाबू लोग पैसे बनाते हैं।

निरगुन बाबू देश के भ्रष्टाचार के चलते-फिरते ज्ञानकोश हैं। एक एक कोने के भ्रष्टाचार की जानकारी उन्हें है। भ्रष्टाचार सर्वत्र है, सर्वव्यापी है, लाइलाज है। दुनिया चूल्हे में धरने लायक हो गयी है।

भ्रष्टाचार का रोना रोने वाले निरगुन बाबू साढ़े दस बजे अपने दफ्तर के सामने ज़रूर पहुँच जाते हैं, लेकिन ग्यारह बजे तक सामने वाले पान के ठेले पर खैनी मलते रहते हैं। निरगुन बाबू नगर निगम के जल विभाग में हैं। ग्यारह बजे कुरसी पर पहुँचने पर यदि उन्हें कोई शिकायतकर्ता इंतज़ार करता मिल जाता है तो उनका माथा चढ़ जाता है। कहते हैं, ‘क्यों भइया, रात को सोये नहीं क्या? हमारे दरसन की इतनी इच्छा थी तो हमसे कहते। हम आपके घर आ जाते।’ आधे घंटे तक मेज कुरसी खिसकाने और पोथा-पोथी इधर उधर करने के बाद उनका काम शुरू होता है।

हर दस मिनट पर निरगुन बाबू दोस्तों से गप लड़ाने या बाथरूम जाने के लिए उठ जाते हैं और उनकी कुरसी खाली हो जाती है। शिकायतकर्ता खड़े उनका इंतज़ार करते रहते हैं। कोई कुछ कहता है तो निरगुन बाबू जवाब देते हैं, ‘आदमी हैं। कोई कोल्हू के बैल नहीं हैं कि जुते रहें।’

हर घंटे में वे चाय के लिए खिसक लेते हैं। लंच टाइम एक से दो बजे तक होता है, लेकिन वे पौन बजे कुरसी छोड़ देते हैं और ढाई बजे से पहले कुरसी के पास नहीं फटकते। लोग काम के लिए घिघियाते रह जाते हैं।

पौने पाँच बजे फिर निरगुन बाबू कुरसी छोड़ देते हैं और पान के ठेले पर पहुँच जाते हैं। वहाँ उनका भाषण शुरू हो जाता है, ‘भइया, बाल पक गये, लेकिन ऐसा अंधेर और भ्रष्टाचार न देखा। दुनिया ससुरी बिलकुल चूल्हे में धरने लायक हो गयी। ‘

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares