(सुदूर उत्तर -पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक गीत भगवद्गीता अति रमणम्।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री निशा नंदिनी जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “गुमशुदा कोई ….”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का एक समसामयिक व्यंग्य एक रुपैया बारह आना। )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 61 ☆
☆ व्यंग्य – एक रुपैया बारह आना ☆
जब से महाकोर्ट में एक रुपए जुर्माना हुआ,तब से एक रुपए इतना भाव खा रहा है कि उसके भाव ही नहीं मिलते। जिनके पास एक रुपए का नया नोट है वो नोट दिखाने में नखरे पेल रहे हैं, एक रुपए का नोट दिखाने का दस रुपए ले रहे हैं। आपको पढ़ने में आश्चर्यजनक लगेगा कि बहुत पहले एक डालर एक रुपए का होता था। पहले कोई नहीं जानता था कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी हो जाएगा। रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी हो गई होती। पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था, तभी तो हर गली मुहल्ले के रेडियो में एक ही गाना बजता रहता था। ” एक रुपैया बारह आना,”
तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजब हो गया, बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि साहब का सीना 56 इंच का हुआ, उसी दिन से टंगड़ी मार कर रुपये को गिराने का चक्कर चला दिया। डालर को पहले से पता चल जाता है कि साहब का अहंकार का मीटर उछाल पर है। जैसे ही भाषण में लटके झटके आये और हर बात पर सत्तर साल का जिक्र आया, भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटक देता है।
बाजार में हर चीज पर एम आर पी लिख कर कीमत तय कर दी जाती है एक रुपये में कभी एम आर पी लिखा नहीं जाता, क्योंकि इसमें गवर्नर के हस्ताक्षर नहीं होते। शादी विवाह के मौके पर एकरुपए की गड्डी ब्लैक में बिकती थी तो डालर को बड़ा बुरा लगता था। हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का रूपये खाने का शौक है और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम है ,इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते चाहे जब रुपये को पटक कर चारों खाने चित्त कर देता है।और भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कहता है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।
एक रुपए का जुर्माना भरने वाला बहुत परेशान है माथे पर हाथ टिकाए सोच रहा है अजीब बात है सरकार कह रही है कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ और पुरानी सरकार की लकवाग्रस्त नीतियों से रुपये की कीमत गिरी है। अब जब छै साल से विकास ही विकास हो रहा है और अच्छे दिन का डंका बज रहा है तो रुपया और तेजी से क्यों गिर रहा है और चीन चाहे जब दम दे रहा है।
रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से एक रुपए वाला नोट चिंतित रहता है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में सरकार द्वारा जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है।
( डॉ निधि जैन जी भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “विचार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 18 ☆
☆ विचार ☆
विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।
विचार ही हर पतझड़ में बहार, विचार ही हर यौवन का श्रृंगार।
विचार ही तूफ़ान में मंझधार, विचार ही करते हैं चमत्कार।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक रचना “तर्पण”। )
(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “प्रेम कविता… प्रेमाची ओढ… ”)
(आपसे यह साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर समसामयिक विषय पर व्यंग्य ‘सेतु का निर्माण फिर फि’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से हाल ही में टूटे हुए पुलों के निर्माण के लिए जिम्मेवार भ्रष्ट लोगों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है साथ ही एक आम ईमानदारआदमी की मनोदशा का सार्थक चित्रण भी किया है। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 63 ☆
☆ व्यंग्य – सेतु का निर्माण फिर फिर ☆
आठ साल में दो सौ साठ करोड़ की लागत से बना पुल उद्घाटन के उन्तीसवें दिन काल-कवलित हो गया. एक दो दिन हल्ला-गुल्ला मचा, फिर सब अपने अपने काम में लग गये. कारण? सबको पता है कि आजकल पुल गिरने के लिए ही बनते हैं. कोई लाल किला थोड़इ है जो चार सौ साल तक खड़ा रहे, या कुतुबमीनार जो सात सौ साल तक हमें मुँह चिढ़ाती रहे. अंग्रेजों के ज़माने के भी कई पुल सैकड़ों साल से बेशर्मी से खड़े हैं. हमारा पुल एक महीना चल गया, यह क्या कम फ़ख्र की बात है? कोई जन-हानि तो नहीं हुई न? इसके पहले भागलपुर का पुल तो उद्घाटन से पहले ही दम तोड़ गया था. पुराने ज़माने की टेक्नोलॉजी पिछड़ी थी, हमारी टेक्नोलॉजी एडवांस्ड है. इसीलिए ये उपलब्धियाँ हैं. लोग कहते हैं कि पुराने ज़माने में भी भ्रष्टाचार था, तो ये पुरानी इमारतें गिरती क्यों नहीं हैं भाई? हमारे कर-कमलों से निर्मित पुल ही क्यों छुई-मुई बने हुए हैं?
पुल का मुआयना करने के लिए मंत्री जी आये हैं. पेशानी पर शिकन नहीं, उन्नत माथा, तना हुआ वक्ष. उन्हें देखकर वहाँ इकट्ठी भीड़ में से कुछ शिकायत की आवाज़ें उठती हैं. मंत्री जी एक मिनट सुनते हैं, फिर हाथ ऊपर उठाते हैं. उधर सन्नाटा हो जाता है. मंत्री जी किंचित क्रोध से कहते हैं, ‘कौन अफवाह उड़ाता है कि पुल टूट गया है? वो सामने पूरा पुल खड़ा है कि नहीं? अलबत्ता ‘अप्रोच रोड’ टूट गया है तो क्या कीजिएगा? जब हजारों क्यूसेक पानी आएगा तो रोड कैसे टिकेगा? पुल और अप्रोच रोड एक ही होता है क्या?’
आगे कहते हैं, ‘रोड टूटने से हम भी दुखी हैं, लेकिन प्राकृतिक विपदा को तो झेलना ही पड़ेगा न. ये पुल बनाने वाली कंपनी के इंजीनियर खड़े हैं. बेचारे कितने दुखी हैं. कंपनी की रेपुटेशन का सवाल है. ब्लैकलिस्ट होने का डर है.
लेकिन जो लोग कहते हैं कि ढाई सौ करोड़ पानी में चला गया वे झूठे हैं. अरे भई, आठ साल काम चला तो पैसा मज़दूर को मिला, ठेकेदार इंजीनियर को मिला, ईंट पत्थर सीमेंट लोहा सप्लाई करने वालों को मिला. पानी में कैसे गया?थोड़ा सा गड़बड़ हो गया तो सुधार दिया जाएगा. जब आठ साल पुल के बिना काम चल गया तो महीना दो महीना में कौन सी मुसीबत टूटने वाली है?’
थोड़ा रुककर मंत्री जी कहते हैं, ‘आप लोग थोड़ा समझिए. सौ साल पुराने जमाने में मत रहिए. यह ‘यूज़ एंड थ्रो’ का जमाना है. पुरानी चीज को खतम कीजिए, नयी बनाइए. एक ही चीज से मत चिपके रहिए. तभी तरक्की होगा. पुल टूट गया तो टूट जाने दीजिए. हम दूसरा पुल बनाएंगे. और लोगों को रोजगार मिलेगा, और चीजें बिकेंगी. यही विकास का रास्ता है. किसी के बहकावे में मत आइए. ‘
मंत्री जी अन्त में कहते हैं, ‘मैंने कॉलेज के दिनों में एक कविता पढ़ी थी ‘नीड़ का निर्माण फिर फिर’. उसकी एक पंक्ति है ‘नाश के दुख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख’. इसलिए हम अपने दुख के बावजूद निर्माण के मिशन से पीछे नहीं हटेंगे. आप अपना हौसला और हममें भरोसा बनाये रहिए. जय हिन्द. भारत माता की जय. ‘
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 19 सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 19 ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆
(अनाम साहित्यकारों के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तिका )
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है एक धारावाहिक कथा “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय भाग।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-4 ☆
अब तूफ़ान थम चुका था। उनके सारे सपने बिखर गये थे। वे वापस लौट चलें थे। अपने गाँव की उन गलियों की ओर जिसके निवासियों ने उन्हें अपार स्नेह दिया था। वहीं पर उनके अपने ने घृणा नफरत का उपहार दिया था।उन्हें प्रांगण से बाहर निकलता देख रामखेलावन की जान में जान आई थी,और तुरंत मंचासीन हो अपनी कुर्सी संभाल चुके थे। प्रतियोगियों को पुरस्कृत भी किया था। लेकिन उनके हृदय का सारा उत्साह जाता रहा था। उन दोनों बाप बेटों के मन में अपने ही विचारों के अंतर्द्वंद्व की आँधियां चल रही थी। दोनों की व्यथा अलग अलग थी। रामखेलावन सोच रहे थे कि यही स्थिति रही तो एक न एक दिन बूढ़ा बेइज्जती कर ही देगा। पिता जी के आचरण से मुझे अपमानित होना पड़ेगा। उन्होंने अपने मन में झूठी शानो-शौकत तथा बड़प्पन का दंभ पाल लिया था।वे शायद यह भूल चुके थे कि वह आज जो कुछ भी है,वह रघूकाका के त्याग तपस्या व व्यवहार का परिणाम था। उसी के चलते ऊँचा ओहदा ऊँची कुर्सी मिली थी। वे आज दृढ़ निश्चय कर घर को चले थे कि अब और नहीं वे आज ही बुढऊ की ढोल खूंटी पर टांग देंगे। एक तरफ जहां रामखेलावन के हृदय में आक्रोश की ज्वाला क्षोभ का लावा उबाल मार रहा था, वहीं रघूकाका किसी हारे हुए जुआरी की तरह बोझिल कदमों से घर लौट रहे थे
ऐसा लगा जैसे जीवन के जुये में एक ही दांव पर वे अपना सब कुछ अपनी सारी पूँजी एक बार में ही हार बैठे हों। आज चोट बलिष्ठ शरीर पर नहीं भावुक दिल पर लगी थी। वे सोच रहे थे कि काश उस दिन अंग्रेजों की एक गोली उनके छाती में उतर गई होती तो अपमान जनक जिंदगी से सम्मानजनक मौत भली होती। इस प्रकार भावनाओं के भंवर में डूबते उतराते ही रघूकाका घर पहुँचे थे। तब तक राम खेलावन का तांगा भी घर के दरवाजे पर आ लगा था।
लालटेन की पीली जलती हुई लौ की रोशनी के साये में उन दोनों बाप-बेटे का सामना हुआ था।
एक ही रोशनी में बाप बेटों का रंग अलग अलग दिख रहा था। रघूकाका का चेहरा जहां जूड़ी के बुखार के मरीजों की तरह पीला म्लान एवम् उतरा दीख रहा था, वहीं रामखेलावन के चेहरे की भाव भंगिमा बता रही थी कि आक्रोश की आग में जलते दहकतेअंगारों सी लालिमा लिए रामखेलावन रूपी उगता सूरज आज अवश्य कहर ढायेगा ।
रघूकाका के सामने आते ही ना दुआ ना सलाम फट पड़े थे बारूद के गोले की तरह रामखेलावन – “का हो बुढ़ऊ! काहे हमरे इज्जत के कबाड़ा करत हउआ,अब तक ई ढोल रख द, तोहार सारी कमी हम पूरा करब।”
अब रघूकाका से भी रहा नहीं गया।
उनके हृदय में पक कर मथ रहा भावनाओं का फोड़ा फूट पडा़ और वे भी अपने ताव में आ गये और बोल पडे़ – “राम खेलावन जी, आज ई जे कुर्सी तोहके मिलल ह, ई
एही ढोल के कमाई ह, हमें खुशी तो तब होत जब तूं सारे समाज के सामने सीना तान के कहता कि हम एगो आल्हा गावे वाला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के लडिका हई, जेवन
अपने मेहनत अ इनके परिश्रम के पसीना से इहा तक पहुंचल हइ,। औ अपने समाज के उदाहरन बनता, लेकिन जे समाज में अपना बाप के बाप ना कहि सकल उ बेटा के रिस्ता का निभाई,जा बेटा तू आपन सम्मान के जिनगी में सुखी रहा, हमें हमरे हाल पे छोडि दा तू भले छूटि जईबा लेकिन ई समाज अ ढोलक हम ना छोडि पाईब” इस प्रकार रघूकाका के व्यंगबाणो ने रामखेलावन को आहत तो किया ही । निरूत्तर भी,और बह चली उस सेनानी की आंखों से अश्रु धारा और फिर एक बार लौट चलें अपनी सहचरी ढोल को कंधे पे लटकाये नीम स्याह काले घने अंधेरे के बीच जीवन की पथरीली राहों पर अपने जीवन की नई राह तलाशने। उस राह पे चल पड़े उल्टे पांव जिस राह से चलकर वे घर आये थे।
उन्होंने उस नीम अंधेरी घनी काली आज की रात अपने मन में मचलते अंतर्दद्व के साथ शिवान में खेतों बीच बने भग़्न शिवालय में बिताने का निश्चय कर लिया था। आखिर वे जाते भी तो कहां ? राम खेलावन की उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं हुई थी। वो सोच रहे थे कि कल की मंजिल सुबह की सूर्योदय के साथ नई उम्मीद के सहारे ढ़ूढ़ ही लेंगे ।
वो मंदिर के बरामदे में बैठे कुछ सोच रहे थे। गतिशील समय के साथ रात गहराती जा रही थी और उसी गहराती रात के साथ रघूकाका के हृदय का अंतर्दद्व तीव्र हो चला था। उसी अंतर्दद्व में फँसे अपनी स्मृतियों डूबते चले गये थे। जब विचारों की गहनता बढ़ी तो रघूकाका के स्मृतिपटल पर पत्नी का चेहरा नर्तन कर उठा। ऐसा लगा जैसे वे उन बीते पलों से संवाद कर उठे हो।
उन्हें पत्नी के साथ बिताए पल हंसाने व रूलाने लगे थे। सहसा उनके स्मृति में पत्नी के मृत्यु के समय का दृश्य उभर आया थाऔर जीवन के आखिरी पल में कहे पत्नी के शब्द याद आ रहे थे।
आखिरी समय में उनकी पत्नी ने प्यार से उनका हाथ थामते हुए आशा भरी नजरों से उन्हें देखते हुए कहा था “देखो जी रामखेलावन अभी बच्चा है इसे पाल पोस कर अच्छा इंसान बनाना , . मेरे मरने पर इसी के सहारे जीवन बिताना। अपना बुढ़ापा काटना। लेकिन दूसरी शादी मत करना।”
इसके बाद वह कुछ नहीं कह पाई क्यो कि रघूकाका ने उसको ओंठो पर अपना हाथ रख दिया।अब जीवन के आखिरी पलों में बिछोह पीड़ा का भाव रघूकाका के हृदय में कटार की तरह चुभ रहे थे, जिसे सहने में वे असहाय नजर आ रहे थे। और फिर अगली सुबह उनकी पत्नी उनको रोता बिलखता छोड़ नश्वर संसार से बिदा हो गई।