(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “प्रकृति की समर्थ कृति”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश। श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने 27 वर्ष पूर्व स्व परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 60 ☆
☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध ☆
जय प्रकाश पाण्डेय –
आपका व्यक्तिगत जीवन प्रारंभ से ही नाना प्रकार के हादसों और ट्रेजिक स्थितियों से घिरा होने के कारण बहुत संघर्षपूर्ण ,अनिश्चित व असुरक्षित रहा है। इस प्रकार का जीवन जीने वाले व्यक्ति के लेखन का स्वाभाविक मार्ग, सामान्य तौर पर दास्तोएव्सकी और मुक्तिबोध का मार्ग होना चाहिए, जबकि व्यक्तिगत जीवन के ठीक विपरीत आपके लेखन में अगाध आत्मविश्वास यहां तक कि विकट विजेता भाव के दर्शन होते हैं। दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध की तरह आप जीवन के डेविल फोर्सेस का आतंक नहीं रचते,वरन् इनका विद्रूपीकरण करते हैं, इनका मजाक उड़ाते हैं, इन्हें हास्यास्पद बनाते हुए इनकी दुष्टता व क्षुद्रता पर प्रहार करते हैं। कहने का आशय यह है कि अंतहीन आतंककारी स्थितियों, परिस्थितियों के बीच लगातार बने रहते हुए आपने जिस तरह का लेखन किया है उसमें उस असुरक्षा भाव की अनुपस्थिति है जो दोस्तोवस्की एवं मुक्तिबोध के लेखन की केन्द्रीय विशेषताओं में से एक है। इस दिलचस्प “कान्ट्रास्ट” पर क्या आपने स्वयं भी कभी विचार किया है ?
हरिशंकर परसाई –
देखिए..एक तो ये है कि दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध में भेद करना चाहिए।यह सही है कि दोस्तोवस्की ने रूसी समाज एवं रूसी मनुष्य के दिमाग के अंधेरे से अंधेरे कोने को खोजा है और उस अंधेरेपन को उन्होंने चित्रित किया है तथा बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। क्रूरता, गरीबी, असहायता, कपट और छल आदि जो रूसी समाज की बुराईयां हैं वे सब की सब दोस्तोवस्की के लेखन में हैं। टालस्टाय ने इन्हें ईवीजीनियस कहा है।अब उनके पास इन सब स्थितियों को स्वीकारने के सिवाय,उन पर दुखी होने के सिवाय और लोगों का कुछ भला करने की इच्छा के सिवाय कोई और उनके पास आशा नहीं है और न उनके पास मार्ग है। एक तो वे स्वयं बीमार थे, मिर्गी के दौरे उनको आते थे, जुआ खेलने का भी शौक था, उनके बड़े भाई को फांसी हो गई थी, जारशाही ने फांसी दे दी थी।वे खुद दास्वासेलिया में रहे थे। कष्ट उन्होंने बहुत सहे लेकिन उनके सामने कोई रास्ता नहीं था। जैसे उनके उपन्यास ‘इडियट’ मेंं जो प्रिंस मुस्की है वो सबके प्रति दयालु है और सबकी सहायता करना चाहता है,सबका भला करना चाहता है,जो भी दुखी है पर किसी का भला नहीं कर सकता,उस सोसायटी में भला नहीं कर सका। विश्वास उनके क्या थे ? वास्तव में उनके पास पीड़ा थी, दर्द था,वे अपने समाज की सारी बुराईयों को,अनीतियों को समझते थे, लेकिन विश्वास नहीं था उनके पास। और दूसरा यह कि कर्म नहीं था, और संघर्ष नहीं था। उनके पात्र स्थितियों को स्वीकार कर लेते हैं, कर्म और संघर्ष नहीं करते। एकमात्र उनका संबल जो था वह कैथोलिक विश्वास था, तो मोमबत्ती जलाकर ईश्वर की प्रार्थना कर ली, ये नियतिवाद हुआ,भाग्यवाद हुआ, संघर्ष कदापि नहीं हुआ।
मुक्तिबोध की चेतना में अपने युग में सभ्यता का जो संकट था उसकी समझ बहुत गहरी थी, एक पूरी मनुष्य जाति की सभ्यता के संकट को वे समझते थे। उससे दुखी भी वे थे, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अंधेरे का चित्रण किया है, ये सही है उन्होंने विकट परिस्थितियों का चित्रण किया है, उन्होंने टूटे हुए लोगों का चित्रण किया है, और पीड़ित लोगों एवं पीडिकों का भी चित्रण किया है, लेकिन इसके साथ साथ मुक्तिबोध में आशा है और वे विश्वास करते हैं कि कर्म से, संघर्ष से ये हालात बदलेंगे।इस विश्वास का कारण क्या है ? इस विश्वास का कारण है उनका एक ऐसे दर्शन में विश्वास, जो कि मनुष्य के जीवन को सुधारने के लिए संघर्ष का रास्ता दिखाता है।
दोस्तोवस्की के पास ऐसा दर्शन नहीं था। कैथोलिक फेथ में तो भाग्यवाद होता है,कर्म नहीं होता, इसीलिए उन्होंने जगह जगह जहां बहुत गहरा अंधेरा चित्रित किया है, मुक्तिबोध ने कहीं न कहीं एक आशा की किरण प्रगट कर दी है।
इस तरह उनके काव्य में संघर्ष, आशा और समाज पलटेगा, स्थितियां बदलेंगी ये विश्वास मुक्तिबोध के अन्दर है,इस कारण दोस्तोवस्की और मुक्तिबोध में फर्क है क्योंकि दोस्तोवस्की ने पतनशीलता स्वीकार कर ली है और मुक्तिबोध ने उस अंधेरे को स्वीकार नहीं किया है, ये माना है कि ये कुछ समय का है और इतिहास का एक फेस है यह तथा संघर्षशील शक्तियां लगी हुई हैं जो कि इसको संघर्ष करके पलट देंगी,बदल देंगी,ऐसी आशा मुक्तिबोध के अन्दर है। जहां तक मेरा सवाल है मैंने दोस्तोवस्की को भी बहुत ध्यान से लगभग सभी पढ़ा है, मुक्तिबोध को भी पढ़ा है। मेरे विश्वास भी लगभग मुक्तिबोध सरीखे ही हैं, इसमें कोई शक नहीं है, इसीलिए निराशा या कर्महीनता मेरे दिमाग में नहीं है, मैंने एक तो क्या किया कि अपने को अपने दुखों से, अपने संघर्षों से, अपनी सुरक्षा से, अपने भय से, लिखते समय अपने आपको मुक्त कर लिया और फिर मैंने यह तय किया कि ये सब स्थितियां जो हैं, इनका विद्रूप करना चाहिए, इनका उपहास उड़ाना चाहिए, उनसे दब नहीं जाना चाहिए, तो मैं उनसे दबा नहीं। मैंने व्यंग्य से उनके बखिया उधेड़े, उनका मखौल उड़ाया, चोट की उन पर गहरी। इसमें मेरा उद्देश्य यह था कि समाज अपने को समझ ले कि हमारे भीतर ये ये कुछ हो रहा है। इसमें मेरा उद्देश्य ये रहा है कि समाज आत्म साक्षात्कार करे, अपनी ही तस्वीर देखे और उन शक्तियों को देखे, उन काली शक्तियों को समझे जिन काली शक्तियों को मैंने विद्रूप किया है, उन पर व्यंग्य किया है और जिन पर सामयिक मखौल उड़ाया है, उन स्थितियों के साथ मेरा ट्रीटमेंट जो है वह इस प्रकार का है जो कि मुक्तिबोध और दोस्तोवस्की इन दोनों से अलग किस्म का…।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “ रात बीत जायेगी”। कुछ अधूरी कहानियां कल्पनालोक में ही अच्छी लगती हैं। संभवतः इसे ही फेंटसी कहते हैं। )
(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “ प्रेम काय असतं……”)
(आपसे यह साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक सटीक व्यंग्य ‘अमर होने का मार्ग ’। आखिर मनुष्य तो अमर हो नहीं सकता सो अपना नाम अमर करने के लिए क्या क्या सोच सकता है और उसकी सोच की क्या सीमा हो सकती है ?उस सीमा से परे जाकर भी डॉ परिहार जी ने इस समस्या पर विचार किया है। उन विचारों को जानने के लिए तो इस व्यंग्य को पढ़ने के सिवाय आपके पास कोई चारा है ही नहीं। इस सार्थक एवं सटीक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 62 ☆
☆ व्यंग्य – अमर होने का मार्ग ☆
माना कि जीवन क्षणभंगुर है, ‘पानी में लिक्खी लिखाई’ है, लेकिन यह ख़याल जी को कंपा देता है कि एक दिन इस विशाल भारतभूमि में अपना कोई नामलेवा भी नहीं रहेगा। अभी कुछ दिन पहले एक काफी वज़नदार लेखक दिवंगत हुए। जब ‘आम आदमी’ की किस्म के कुछ लोगों को यह सूचना दी गयी तो उन्होंने बहुत मासूमियत से पूछा, ‘कौन? वे मिलौनीगंज वाले पहलवान?’ सवाल सुनकर मेरा दिल एकदम डूब गया। तभी से लग रहा है कि अमर होने के लिए सिर्फ लेखक होना काफी नहीं है। कुछ और हाथ-पाँव हिलाना ज़रूरी है।
इस सिलसिले में छेदीलाल जी का स्मरण करना ज़रूरी समझता हूँ। छेदीलाल जी बीस साल तक मिलावट और कालाबाज़ारी के बेताज बादशाह रहे। मिलावट में नाना प्रकार के प्रयोग और ईजाद करने का श्रेय उन्हें जाता है। हज़ारों लोगों को कैंसर और चर्मरोग प्रदान करने में उनका योगदान रहा। शहर के कैंसर,गुर्दा रोगऔर चर्मरोगों के डॉक्टर बीस साल तक उन्हें ख़ुदा समझते रहे। पचपन साल की उम्र में वे मुझसे बोले, ‘भाई जी, पैसा तो बहुत कमा लिया, अब कुछ ऐसा करना चाहता हूँ कि लोग मौत के बाद मुझे याद करें। ‘ फिर मैंने और उन्होंने बहुत कोशिश की कि धरती पर अमरत्व का कोई मार्ग उन्हें मिल जाए, लेकिन बात कुछ बनी नहीं। उनकी मौत के बाद उनके पुत्रों ने उनके नाम पर खजुराहो में एक आधुनिक जुआघर खुलवा दिया जहाँ लोग अपना कला-प्रेम और जुआ-प्रेम एक साथ साधते हैं। अब छेदीलाल के पुत्रों को अर्थ-लाभ तो मिल ही रहा है, साथ ही दुनिया के सारे जुआड़ी उनका आदर से स्मरण करते हैं।
मैं भी उम्र की ढलान पर पहुँचने के बाद इसी फिक्र में हूँ कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाए कि मेरा नाम इस संसार से उखाड़ फेंकना मुश्किल हो जाए। यह भी क्या बात हुई कि आप संसार से बाहर हों और जनता-जनार्दन पीछे से आपको आवाज़ दे कि ‘ए भइया, यह अपना नाम भी साथ लेते जाओ। हमें इसकी दरकार नहीं है। ‘ मुश्किल यह है कि नाम या तो बहुत अच्छे काम करने वाले का रहता है या बहुत बुरे काम करने वाले का। बीच वाले आदमी के लिए इस संसार में कोई भविष्य नहीं है।
मैं भी अन्य आम आदमियों की तरह इन मुश्किलात से मायूस न होकर अमर होने के रास्ते खोजता रहता हूँ। अभी तक सफलता हाथ नहीं लगी है, लेकिन मैंने ठान लिया है कि इस दुनिया से कूच होने से पहले कोई पुख़्ता इंतज़ाम कर लेना है। आजकल संतानों पर कोई काम छोड़ जाना बुद्धिमानी नहीं है। दुनिया से पीठ फिरने के बाद संतानों का रवैया आपकी तरफ क्या हो इसका कोई भरोसा नहीं। इसलिए जो कुछ करना है,आँख मुंदने से पहले कर गुज़रना चाहिए।
पहले सोचा था कि कुछ लोगों को आगे करके और पीछे से पैसा देकर शहर के किसी चौराहे पर अपनी मूर्ति लगवा दूँ। लेकिन पूरे देश में मूर्तियों की जो दुर्दशा देखी उसने मुझे दुखी कर दिया। इस महान देश में बड़े बड़े नेताओं और वीरों की मूर्तियों के मस्तक अन्ततः कबूतरों और कौवों के शौचालय बन कर रह जाते हैं। इधर जो मूर्तियों का मुँह काला करने और उनका सर तोड़ने की प्रवृत्तियां उभरी हैं उनसे भी मेरे मंसूबों को धक्का लगा है। अब नयी पीढ़ियाँ जानती भी नहीं कि जिस मूर्ति के चरणों में बैठकर वे चाट और आइसक्रीम खा रहे हैं उसका आदमी के रूप में कृतित्व क्या था।
एक योजना यह थी कि अपने नाम से कोई सड़क, अस्पताल या शिक्षा-संस्थान बनवा दूँ। फिर देखा कि दादाभाई नौरोजी रोड डी.एन.रोड,तात्या टोपे नगर टी.टी.नगर, महारानी लक्ष्मीबाई स्कूल एम. एल.बी. और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जे.एन.वी.वी. होकर रह गया। अभी मेरे शहर में सड़क के किनारे के अतिक्रमण हटाये गये तो कुछ घरों के भीतर से मील के पत्थर प्रकट हुए। (ये हमारे शहर के अतिक्रमण के मील के पत्थर थे। ) मेरे नाम की सड़क के पत्थर का भी यही हश्र हो सकता है।
एक विचार यह था कि जिस तरह बिड़ला जी ने कई जगह मन्दिर बनवाकर अपना नाम अमर कर लिया, उसी तर्ज़ पर मैं भी दस बीस मन्दिर बनवा डालूँ। लेकिन जब से धार्मिक स्थल राजनीति के अड्डे बनने लगे और साधु-सन्त बाकायदा पॉलिटिक्स करने लगे,तब से उस दिशा में जाने में भी जी घबराता है।
एक सुझाव यह आया है कि मैं ताजमहल की तर्ज़ पर एक आलीशान इमारत बनवा डालूँ ,जिसे देखने दुनिया भर के लोग आयें और मेरा नाम सदियों तक बना रहे। लेकिन शाहजहाँ की और मेरी स्थिति में कुछ मूलभूत अन्तर है। अव्वल तो शाहजहाँ को ताजमहल पर अपनी जेब की पूँजी नहीं लगानी पड़ी थी। दूसरे, उन्हें कोई लेबर पेमेंट नहीं करना पड़ा था। तीसरे, शाहजहाँ की सन्तानें भली थीं जो उन्होंने उन्हें मृत्यु के बाद ताजमहल में सोने की जगह दी। मुझे शक है कि मेरी आँखें बन्द होने के बाद मेरी सन्तानें मुझे अपने सुपरिचित रानीताल श्मशानगृह की तरफ रुखसत कर देंगी और मेरे ताजमहल को ‘रौनकलाल एण्ड कंपनी’ को पच्चीस पचास हज़ार रुपये महीने पर किराये पर दे देंगी।
प्रसंगवश बता दूँ कि समाधियों पर भी मेरा विश्वास नहीं है। एक तो श्मशान में थोड़ी सी जगह, उस पर समाधियों का धक्कमधक्का। साढ़े पांच फुट बाई दो फुट का जो आदमी श्मशान में ख़ाक होकर विलीन हो जाता है उसकी स्मृति में स्थायी रूप से आठ फुट बाई आठ फुट की जगह घेर ली जाती है। बड़े बड़े सन्तों के चेले भी यही कर रहे हैं। लेकिन हालत यह होती है कि समाधियों पर या तो कुत्ते विश्राम करते हैं या श्मशान के कर्मचारी उन पर कपड़े सुखाते और दीगर निस्तार करते हैं। अमरत्व का यह तरीका भी अन्ततः निराशाजनक सिद्ध होता है।
मेरे एक शुभचिन्तक ने मुझे सलाह दी है कि मैं अपने नाम से एक विशाल शौचालय बनवा दूँ। इससे सड़कों की पटरियों का दुरुपयोग रुकेगा और प्रातःकाल सैकड़ों लोग कम से कम दस पन्द्रह मिनट तक मेरे नाम का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करेंगे। मैं इस प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहा हूँ, यद्यपि मुझे कभी कभी शक होता है कि मेरा मित्र मेरे साथ मसखरी तो नहीं कर रहा है।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तिका )
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – सेल्फ क्वारंटीन ☆
लॉकडाउन आरम्भ हुआ। पहले लगा, थोड़े समय की बात है। फिर पूर्णबंदी की अवधि बढ़ती गई। अनेकजन को लगता था कि यूँ समय कैसे कटेगा?
समय बीतता गया। कभी विचार किया कि इस समय को बिताने(!) में आभासी दुनिया का कितना बड़ा हाथ रहा! वॉट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, टेलिग्राम पर कितना समय बीता। ब्लॉगिंग, मेलिंग और ऑनलाइन मीटिंग एपस् ने कितना समय लिया। फिर आभासी दुनिया से ऊब हो चली। जान लिया कि हरेक स्वमग्न है यहाँ। आभासी की खोखली वास्तविकता समझ आने लगी।
विडंबना यह है कि जिसे वास्तविक दुनिया समझते हो, वह भी ऐसी ही आभासी है।
सफलता, पद, प्रतिष्ठा, धन, संपदा, लाभ पाने की इच्छा, यही सब छिपा है इस आभास में भी। तुमसे थोड़ी मात्रा में भी लाभ मिल सकने की संभावना बनती है तो जमावड़ा है तुम्हारे इर्द-गिर्द। …और जमावड़े की आलोचना क्यों करते हो, ध्यान से देखो, तुम भी वहीं डटे हो जहाँ से कुछ पा सकते हो। तुम अलग नहीं हो। वह अलग नहीं है। मैं अलग नहीं हूँ। सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे। सारे के सारे स्वमग्न!
मानसिक व्याधि है स्वमग्नता। है कोई कुछ नहीं पर सोचता है कि वह न हो तो जगत का क्या हो!
चलो प्रयोग करें। एक शब्द चलन में है इन दिनों,’क्वारंटीन’.., एकांतवास। कुछ दिन वास्तविक अर्थ में सेल्फ क्वारंटीन करो। विचार करो कि ऐसे कितने साथी हैं जो तन, मन, धन तीनों को खोकर भी तुम्हारा साथ दे सकेंगे? सिक्के को उलटकर अपना विश्लेषण भी इसी कसौटी पर कर लेना। सारे रिश्तों की पोल खुल जाएगी।
स्वमग्नता से बाहर आने का मार्ग दिखाया है आपदा ने। अभी भी समय है चेतने का। अपने यथार्थ को जानने-समझने का। आभासी से वास्तविक में लौटने का।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है एक धारावाहिक कथा “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय भाग।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-3 ☆
अब देश स्वतंत्रत हो गया था, रघु काका जैसे लाखों अनाम शहीदों की कुर्बानी रंग लाई थी तथा रघु काका की त्याग तपस्या सार्थक हुई, उनकी सजा के दिन पूरे हो चले थे,आज उनकी रिहाई का दिन था। जेलके मुख्य द्वार के सामने आज बड़ी भीड़ थी, लोग अपने नायक को अपने सिर पर बिठाअभिनंदन करने को आतुर दिख रहे थे। उनके बाहर आते ही वहां उपस्थित अपार जनसमूह ने हर हर महादेव के जय घोष तथा करतलध्वनि से मालाफूलों से लाद कर कंधे पर उठा अपने दिल में बिठा लिया था । लोगों से इतना प्यार और सम्मान पा छलक पड़ी थी रघु काका की आँखें।
इस घटनाक्रम से यह तथ्य बखूबीसाबित हो गया कि जिस आंदोलन को समाज के संभी वर्गों का समर्थन मिलता है, वह आंदोलन जनांदोलन बन जाता है, जो व्यक्तित्व सबके हृदय में बस मानस पटल पर छा जाता है , वह जननायक बन सबके दिलों पर राज करता है।
इस प्रकार समय चक्र मंथर गति से चलता रहा चलता रहा,और रघु काका जेल में बिताए यातना भरे दिनों अंग्रेज सरकार द्वारा मिली यातनाओं को भुला चले थे। और एक बार फिर अपने स्वभाव के अनुरूप कांधे पर ढोलक टांगें जीविकोपार्जन हेतु घर से निकल पड़े थे,यद्यपि उनके पुत्र राम खेलावन अच्छा पैसा कमाने लगे थे। वो नहीं चाहते थे कि रघु काका अब ढोल टांग भिक्षाटन को जाएँ । क्योंकि इससे उनमें हीनभाव पैदा होती लेकिन रघु तो रघु काका ठहरे। उन्हें लगता कि गांव ज्वार की गलियां, बड़े बुजुर्गो का प्यार, बच्चों की निष्कपट हँसी अपने मोह पाश में बांधे अपनी तरफ खींच रहीं हों। इन्ही बीते पलों की स्मृतियां उन्हें अपनी ओर खींचती और उनके कदम चल पड़ते गांवों की गलियों की ओर।
आज महाशिवरात्रि का पर्व है, सबेरे से ही लोग-बाग जुट पड़े हैं भगवान शिव का जलाभिषेक करने। शिवबराती बन शिव विवाह के साक्षी बनने। महाशिवरात्रि पर पुष्प अर्पित करने मेला अपने पूरे यौवन पर था। पूरी फिजां में ही दुकानों पर छनती कचौरियो जलेबियों की तैरती सौंधी सौंधी खुशबू जहाँ श्रद्धालु जनों की क्षुधा को उत्तेजित कर रही थी तो कहीं बेर आदि मौसमी फलों से दुकानें पटी पड़ी थीऔर कहीं घर गृहस्थी के सामानों से सारा बाज़ार पटा पड़ा था, तो कहीं जनसमूह भेड़ों ,मुर्गों, तीतर, बुलबुल के लड़ाई का कौशल देखने में मशगूल था। कहीं लोक कलाकारों के लोक नृत्य तथा लोकगीतों की स्वरलहरियां लोगों के बढ़ते कदमों को अनायास रोक रही थी। इन्ही सबके बीच मंदिर प्रांगण से गाहे-बगाहे उठने वाले हर-हर महादेव के जयघोष की तुमुल ध्वनि वातावरण में एक नवीन चेतना एवं ऊर्जा का संचार कर रही थी।
उन सबसे अलग -थलग पास के प्रा०पाठशाला पर कुछ अलग ही ऱंग बिखरा पड़ा था। महाशिवरात्रि के अवकाश में विद्यालय में वार्षिक सांस्कृतिक प्रतियोगिता चल रही थी, निर्णायक मंडल के मुख्य अतिथि जिले के मुख्य शिक्षाधिकारी श्री राम खेलावन को बनाया गया था। क्योंकि उनके ऊंचे पद के साथ एक स्वतंत्रता सेनानी का पुत्र होने का सम्मान भी जुड़ा था, जो उस समय मंचासीन थे। प्रतियोगिता में उत्कृष्ट प्रदर्शनकर्ता को संम्मानित भी राम खेलावन के हाथों होना था। प्रतियोगिता में एक से बढ़ कर एक धुरंधर प्रतियोगी अपनी कला प्रदर्शित कर रहे थे।
ऐसे में सर्वोच्च प्रतिभागी का चयन मुश्किल हो रहा था। एक कीर्तिमान स्थापित होता असके अगले पल ही टूट जाता। उसी मेले में सबसे अलग-थलग जमीन पर आसन
ज़माये अपनी ढोल की थाप पर रघूकाका ने आलाप लेकर अपनी सुर साधना की मधुर तान छेड़ी तो जनमानस विह्वल हो आत्ममुग्ध हो गया। उनकी आवाज़ का जादू तथा भाव प्रस्तुति का ज्वार सबके सिर चढ़ कर इस कदर बोल उठा कि वाह बहुत खूब, अतिसुंदर, अविस्मरणीय, लोगों के जुबान से शब्द मचल रहे थे कि तभी आई प्राकृतिक आपदा में सब ऱंग में भंग कर दिया।सब गुड़गोबर हो गया। पहले लाल बादल फिर उसके बाद तड़ित झंझा तथा काले मेघों के साथ ओलावृष्टि ने वो तांडव मचाया कि मेले में भगदड़ मच गई। जिसे जहां ठिकाना मिला वहीं दुबक लिया। उसी समय अपनी जान बचाने रघूकाका भी भाग चलें पाठशाला की तरफ। पाठशाला प्रांगण में घुसते ही सबसे पहले मंचासीन रामखेलावन से ही रघु काका की नजरें चार हुई थी,। लेकिन दो अपरिचितों की तरह रघु काका को देखते ही रामखेलावन ने अपनी निगाहें चुरा ली थी। उनके कलेजे की धड़कन बढ़ गई, मुंह सूखने लगा कलेजा मुंह को आ गया। वे अज्ञात भय तथा आशंका से थर-थर कांप रहे थे। पसीने से तर-बतर बतर हो गये। उन्हें डर था कि कहीं यह बूढ़ा मुझसे अपना रिश्ता सार्वजनिक कर के अपमानित न कर दे। इसलिए इन परिस्थितियों से बचने हेतु शौच के बहाने रामखेलावन विद्यालय के पिछवाडे छुप आकस्मिक परिस्थितियों से बचने का प्रयास कर रहे थे।
रघु काका की अनुभवी निगाहों ने रामखेलावन के हृदय में उपजे भय तथा अपने प्रतिउपजे अश्रद्धा के भावों को पहचान लिया था ।वो लौट पड़े थे। थके थके पांवों बोझिल कदमों से मेले की तरफ़। दिल पे लगी आज की भावनात्मक चोट अंग्रेजों द्वारा दी गई यातना की चोट से ज़्यादा गहरी एवम् दुखदायी, जिसने आज उनके सारे हौसलों को तोड़ कर अरमानों का गला घोट दिया था।
( श्री गणेश चतुर्थी पर्व के शुभ अवसर पर प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की बचपन की यादों से परिपूर्ण कविता यहाँ यादें बचपन की। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 6 ☆
☆ यहाँ यादें बचपन की ☆
आता है याद मुझको बचपन का घर वो प्यारा
अपनो के साथ मैने जीवन जहाँ गुजारा
खुशियों के साथ बीता जहॉ बालपन बिना भय
नहीं थी न कोई चिन्ता न ही कोई जय पराजय
घर वह कि पूर्वजो ने जिसे था कभी बनाया
जिसने मुझे बढ़ाया दे अपनी स्नेह छाया
आँगन था जिसका सुदंर औं बाग वह सुहाना
मैने जहाँ सुना नित चिड़ियों का चहचहाना
फूलों की छवि निरख खिंच तितलियाँ जहाँ आती
जो मेरे बालमन को बेहद रही लुभाती
जिनको पकड़ने गुपचुप हम बार बार जाते
पर कोशिशें भी कर कई उनको पकड़ न पाते
कैसा था मस्त मोहक बचपन का वह जमाना
कभी बेफिकर थिरकना कभी साथ मिल के गाना
कभी गिल्ली डण्डा गोली लट्टू कभी घुमाना
कभी छत पै चढ़ के चुपके ऊँचे पंतग उड़ाना
कभी साथियो के संग मिल कुछ पढना या पढाना
कभी घूमने को जाना या सायकिल चलाना
नजरों मे बसी हुई है माँ नर्मदा की धारा
सब घाट और मंदिर पावन हरा किनारा
स्कूल, क्लास, शिक्षक, बस्ती, गली बाजारें
पिताजी की शुभ सिखावन माँ की मधुर पुकारे
ताजी है अब भी मन मे सारी पुरानी बातें
खुशियों भरे मनोहर सुबह शाम दिन औं रातें
बदलाव ने समय के दुनियां बदल दी सारी
दुनियाँ के संग बदल गई सब जिंदगी हमारी
पर चित्त मे बसे है अब भी मधुर वे गाने
होकर भी जो पुराने नये से हैं क्यों न जाने
एकान्त में उभरता अब भी वो सौम्य सपना
जिससे अधिक सुहाना लगता न कोई अपना
ले आई खींच आगे बरसो समय की दूरी
लगता है मन की सारी इच्छाएं हुई न पूरी
आते हैं पर कभी क्या वे दिन जो बीत जाते
बस याद बन ही मन को रहते सदा रिझाते
जिनसे भरी रसीली सुखदायी शांति सारी
हर व्यक्ति के लिये है जीवन की निधि जो प्यारी