हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 16 ☆ लघुकथा – गणेश चौथ ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “गणेश चौथ”।  समाज में व्याप्त  भेदभावपूर्ण एवं नकारात्मक संस्कारों को भी सकारात्मक स्वरुप दिया जा सकता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम्  भूमिकाएं निभाती हैं ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 16 ☆

☆ लघुकथा – गणेश चौथ

हर साल गणेश चौथ और अहोई व्रत मुझे कचोटते हैं इसलिए नहीं कि मेरे पुत्र नहीं है।  बल्कि इसलिए कि यदि व्रत रखने और पूजा पाठ करने से पुत्र को लंबी उम्र और सुखी जीवन मिलता है तो मैं अपनी बेटियों के लिए यह व्रत क्यों न करूँ। क्या मैं नहीं चाहती कि मेरी  बेटियाँ स्वस्थ तथा दीघार्यु हों? पुत्रियों के लिए क्या कोई व्रत – पूजा नहीं ? मैं मन ही मन कलप उठती।

गणेश चौथ का दिन था।  सासू जी सुबह से ही नहा-धोकर नयी साड़ी पहनकर तैयार हो गयीं। आज उनका गणेश चौथ का व्रत था। तिल के लड्डू, तिलकूट और भी बहुत कुछ घर में बन रहा था।

सासू जी खुद तो व्रत रखती ही थीं आस-पड़ोसवालों से भी पूछती रहतीं – आज गणेश चौथ है आप भी व्रत होंगी ? नहीं या हाँ के उत्तर के बाद प्रश्न दग जाता – और आपकी बहू ? नहीं, बहू यह व्रत नहीं रखती। उसके लड़का नहीं है ना ? लड़के की माँ ही गणेश चौथ और अहोई का व्रत रखती है। ना चाहते हुए भी मेरे कानों में आवाज पड़ ही जाती थी। अब ये बातें मेरी समझदार होती बेटियों को भी सुनायी देने लगी थीं, जो मैं नहीं चाहती थीं।

तभी मैंने देखा कि मेरी छोटी बेटी आस्था अपनी दादी से उलझ रही है – दादी। लड़कों के लिए ही व्रत रखते हैं क्या ? लड़कियों के लिए कौन-सा व्रत रखा जाता है ?

अरे नहीं होता कोई व्रत, दादी झुंझलाकर बोलीं— लड़कियों के लिए भी कहीं व्रत रख जाता है क्या ?

पर क्यों नहीं रखते दादी ? – रुआँसी होती आस्था बोली |

अरे। हमें क्या पता। जाकर अपनी मम्मी से पूछो। बहुत पढ़ी-लिखीं हैं,  वही बताएंगी।

आस्था रोनी सूरत बनाए आँखों में प्रश्न लिए मेरे सामने खड़ी थी। आस्था के गाल पर स्नेह भरी हल्की चपत लगाकर मैं बोली – ये व्रत, पूजा सब संतान के लिए होती है।

संतान मतलब ?

हमारे बच्चे – बेटे, बेटी सब।

मैंने देखा आस्था के चेहरे पर भाव आँख – मिचौली खेल रहे थे। सासू जी रात में गणपति जी की पूजा करने बैठीं। उन्होंने अपने बेटे को टीका लगाया और आरती उतारी। मैंने अपनी बेटियों अदिति और आस्था को भी वहाँ बैठाया। सुंदर-सा टीका लगाकर, अक्षत के दो दाने लगा दिए, आरती उतारी और बेटियों की दीर्घायु की कामना की। दीपक की लौ में उज्ज्वल चाँदनी-सी मुस्कान ने दोनों के चेहरे पर अनोखी सुंदरता भर दी। तिलकूट की सौंधी महक घर भर में पसर गयी  थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 30 ☆ हाइकु ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  हाइकू विधा में  दो कवितायेँ   ‘हाइकु ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 30 – साहित्य निकुंज ☆

☆ हाइकु 

[1]

हमारी हिंदी

मनभावन हिंदी

मिश्री सी लगे.

 

मन में बसी

हिंदी हिंदुस्तान की

रोम रोम में..

 

मीरा कबीरा

हिंदी है साहित्य

दोहा पदों में

 

पर्यावरण

छायी है हरियाली

मनमोहक.

 

झूमी डालियाँ

रंग बिरंगे फूल

बिखरी खुश्बू

 

चली हवायें

मदमस्त पवन

पुरवाई

 

खेती  किसानी

फसलें बो रहे है

मिला अनाज.

 

[2]

पर्यावरण

छायी है हरियाली

मनमोहक.

 

झूमी डालियाँ

रंग बिरंगे फूल

बिखरी खुश्बू

 

चली हवायें

शीतल मन्द मन्द

मनभावन

 

खेती  किसानी

फसलें बो रहे है

मिला अनाज.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 9☆ कविता – असुर और देव ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “असुर और देव.)

गत 11 जनवरी 2020 को राष्ट्रीय पुस्तक मेला, प्रगति मैदान नई दिल्ली में डॉ राकेश चक्र जी की 100वीं पुस्तक “गाते अक्षर खुशियों के स्वर” बालगीत का लोकार्पण सुविख्यात गीतकार डॉ कुँवर बेचैन जी, सुविख्यात साहित्यकार डॉ दिविक रमेश जी, प्रसिद्ध गजलकारा तूलिका सेठ एवं ज्ञानगीता व अधिकरण प्रकाशन पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा दिल्ली के प्रबंधक श्री मुकेश शर्मा  आदि की उपस्थिति में सकुशल सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर अन्य साहित्यकारों और पाठकों की उपस्थिति भी रही। ई-अभिव्यक्ति की ओर से डॉ राकेश चक्र जी को हार्दिक बधाई।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 9 ☆

☆  असुर और देव ☆ 

प्रेम करता हूँ

उनसे भी

जो कपट ईर्ष्या द्वेष में

निस्तेज हैं

लवरेज हैं

मुझे

अब पाने की इच्छाएँ नहीं

खोने को कुछ शेष नहीं

खोल हैं रखे

मैंने कई पेज

उपकार के

प्यार के

सत्कार के

एक ऐसे

अखबार के

जिसमें है सब कुछ

सकारात्मक-सरलात्मक

आनन्द और शान्ति के गीत

छपने के

रीता घड़ा भरने के

सब कुछ लुटाकर

मैं हँसना चाहता हूँ

झरने-सा झरना चाहता हूँ

समय है कम

बहा दिए हैं सब गम

गंगा के पवित्र जल में

देख रहा हूँ मैं

सबमें ईश्वर

असुर और देवताओं में

क्योंकि भगवान कृष्ण

कहते हैं गीता में

बस दो ही जातियाँ

मनुष्य की

असुर और देव

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 1 ☆ धड़कता अहसास ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वाराव्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है बुंदेलखंडी भाषा की चाशनी में लिपटा एक व्यंग्य “धड़कता अहसास”। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 1 ☆

☆ धड़कता अहसास ☆

भगतराम  बद्रीनाथ धाम की  यात्रा पर गए थे कल ही सकुशल लौटे, जैसे ही घर में प्रवेश किया प्रश्नों की झड़ी लग गयी। भाई पुरोहित जी जो हैं, कालोनी के  लोगों में इनकी अच्छी पैठ है। कम दक्षिणा में भी ग्रह  व गृह दोनों शान्ति करवा देते हैं।

सबकी एक ही शिकायत थी आप फोन क्यों नहीं उठा रहे थे … ???

उन्होंने कहा वहाँ नेटवर्क नहीं आता है, तथा चार्ज करने की समस्या भी रही,  समझा भी तो करिए आप लोग,भगवान से सीधी मुलाकात करके आये हैं अब तो चुटकियों में आप सभी की समस्या यूँ निपट जायेगी जैसे……. कहते – कहते पंडित जी चुप हो गए।

जैसे क्या गुरूजी ……अकेले लड्डू खाय आए, कुछू परसाद भी लाएँ हैं या  कोई और बहाना …?  सुना है संगम भी नहाय आए, सबके लिए कुछ माँगा भगवान बद्दरीनाथ से?

भगतराम जी ने मुस्कुराते हए कहा   अवश्य माँगा वत्स …. *सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्ति-  – –

संगम सब को पार उतार देता है, यहीं तैरना सीखो और भव सागर पार करो, कुछ को सीधे मोक्ष भी देते हैं संगम के पंडे कहते हुए भगत राम जी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए  चुप हो गए।

सुवीर ने कहा बुन्देलखण्ड में कहावत है

*कुंआ की माटी*

*कुअई मैं लगत*

संगम के साथ

ज्ञान की गंगा

यत्न की यमुना

और सरस्वती विलुप्त होकर समाहित है पंडित जी ने कहा।

परम सत्य आदरणीय जय हो नर्मदा की पवित्रता,महानदी की स्वतंत्रता और ब्रह्मपुत्र का विस्तार आपकी  वाणी में समाहित है  भावेश ने कहा।

*सौ डंडी एक बुंदेलखंड़ी* किसी ने सही ही कहा है गुरुदेव सुवीर ने कहा।

अरे भाई  कहावते सुनाना छोड़ो अब, आराम करने दो गुरुदेव को   बिहारी काका ने कहा।

*ऐसो है आग को छड़को लडैया बिजली खों डरात* बोलते हुए पंडित जी ने सबको प्रणाम कर आगे के कार्यक्रम की तैयारी में जुट गए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1

बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 28 ☆ व्यंग्य – वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में ”.  श्री विवेक जी को धन्यवाद एक सदैव सामयिक रहने वाले व्यंग्य के लिए। इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 28 ☆ 

☆ वर्ष 2020 कुछ दार्शनिक अंदाज में 

समय की तेजी और अनिश्चिंतता में ही उसकी रोमांचकता है.  वर्ष २००० के आने की धमक याद है ना ? लगता था कि कम्प्यूटर के सारे साफ्टवेयर गड़बड़ा जायेंगे वर्ष के अंत में ०० होने के चलते. १९९९ से २००० में प्रवेश नई शताब्दि का आगाज था, और देखते देखते फटाफट नई शताब्दि के दूसरे दशक में आ चुके हैं हम . वर्ष २० २० आ चुका है. ट्वेंटी  ट्वेंटी क्रिकेट में भी यही तेजी है,  जिसके कारण वह लोकप्रिय हुआ है. इस व्यस्त युग में हमारा जीवन भी बहुत तेज हो चुका है, लोगो के पास सब कुछ है, बस समय नही है, बहुत कुछ साम्य है जीवन और २०..२० क्रिकेट में. सीमित गेंदो में अधिकतम रन बनाने हैं और जब फील्डिंग का मौका आये तो क्रीज के खिलाड़ी को अपनी स्पिन गेंद से या बेहतरीन मैदानी पकड़ से जल्दी  से जल्दी आउट करना होता है.

जिस तरह बल्लेबाज नही जानता कि  कौन सी गेंद उसके लिये अंतिम गेंद हो सकती है, ठीक उसी तरह हम नही जानते कि कौन सा पल हमारे लिये अंतिम पल हो सकता है. धरती की विराट पिच पर परिस्थितियां व समय बॉलिंग कर रहे है, शरीर बल्लेबाज है, परमात्मा के इस आयोजन में धर्मराज अम्पायर की भूमिका निभा रहे हैं,विषम परिस्थितियां, बीमारियाँ फील्डिंग कर रही हैं, विकेट कीपर यमराज हैं,ये सब हर क्षण हमें हरा देने के लिये तत्पर हैं.  प्राण हमारा विकेट है.प्राण पखेरू उड़े तो हमारी बल्लेबाजी समाप्त हुई.  जीवन एक २० .. २० क्रिकेट ही तो है, हमें निश्चित समय और निर्धारित गेंदो में अधिकाधिक रन बटोरने हैं. धनार्जन  के रन सिंगल्स हो सकते हैं,यश अर्जन के चौके,  समाज व परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारियो के निर्वहन के रूप में दो दो रन बटोरना हमारी विवशता है. अचानक सफलता के छक्के कम ही लगते  हैं. कभी-कभी कुछ आक्रामक खिलाड़ी जल्दी ही पैवेलियन लौट जाते हैं, लेकिन पारी ऐसी खेलते हैं कि कीर्तिमान बना जाते हैं, सबका अपना-अपना रन बनाने का तरीका  है.

जीवन के क्रिकेट में हम ही कभी क्रीज पर रन बटोर रहे होते हैं तो साथ ही कभी फील्डिंग करते नजर आते हैं, कभी हम किसी और के लिये गेंदबाजी करते हैं तो कभी विकेट कीपिंग, कभी किसी का कैच ले लेते हैं तो कभी हमसे कोई गेंद छूट जाती है और सारा स्टेडियम  हम पर हंसता है. हम अपने आप पर झल्ला उठते हैं. जब हम इस जीवन क्रिकेट के मैदान पर कुछ अद्भुत कर गुजरते हैं तो खेलते हुये और  खेल के बाद भी  हमारी वाहवाही होती है,रिकार्ड बुक में हमारा नाम स्थापित हो जाता है.सफल खिलाड़ी के आटोग्राफ लेने के लिये हर कोई लालायित रहता है.  जो खिलाड़ी इस जीवन के क्रिकेट में असफल होते हैं उन्हें जल्दी ही लोग भुला भी देते हैं.

अतः जरूरी है कि हम अपनी पारी श्रेष्ठतम तरीके से खेलें. क्रीज पर जितना भी समय हमें परमात्मा ने दिया है उसका परिस्थिति के अनुसार तथा टीम की जरूरत  के अनुसार अच्छे से अच्छा उपयोग किया जावे. कभी आपको तेज गति से रनो की दरकार हो सकती है तो कभी बिना आउट हुये क्रीज पर बने रहने की आवश्यकता हो सकती है.जीवन की क्रीज पर  हम स्वयं ही अपने कप्तान और खिलाड़ी होते हैं. हमें ही तय करना होता है कि हमारे लिये क्या बेहतर है ? हम जैसे शाट लगाते हैं गेंद वैसी और उसी दिशा में भागती है. हमें ही तय करना है कि  किस दिशा में हम गेंद मारते हैं.

जिस तरह एक सफल खिलाड़ी मैच के बाद भी निरंतर अभ्यास के द्वारा स्वयं को सक्रिय बनाये रखता है, उसी तरह हमें जीवन में भी सतत सक्रिय बने रहने की आवश्यकता है. हमारी सक्रयता ही हमें स्थापित करती है,जब हम स्थापित हो जाते हैं तो हमें नाम, दाम और काम सब अपने आप मिलता जाता है. जीवन आदर्श स्थापित करके ही हम दर्शको की तालियां बटोर सकते हैं. हमें सदैव हर परिस्थिति के लिये फिट बने रहने के यत्न करने होंगे. वर्ष २०२० तो जल्दी ही बीत जायेगा, पर इसकी किस तारीख को हम स्वर्ण अक्षरो में लिख देंगे या किस तारीख पर दुनियां कालिख पोत देगी यह कैलेंडर में छिपा हुआ है. सकारात्मक प्रयास ही हमारे हाथो में हैं, जो हमें निरंतर करते रहना होगें.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 31 ☆ समय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  मानवीय आचरण के एक पहलू पर  बेबाक लघुकथा  “समय । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #31☆

☆ लघुकथा – समय☆

 

“सुधीरजी ! सुना है कि आप का एक बेटा इंजिनियर और एक डॉक्टर है.”

“जी ! ठीक सुना है आप ने,” उन्होंने अस्पताल के बिस्तर पर करवट ली .

“फिर भी आप यहाँ पर, अकेले दुःख देख रहे है.”

“वह तो देखना ही है.”

“मैं समझा नहीं. आप क्या कहना चाहते है?”

“यही कि मेरे बच्चें वही कर रहे है जी मैं ने अपने पिता के साथ किया था. यह तो नियति चक्र है. जो जैसे बौता  है वैसा ही काटता है ”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 30 – मराठी क्षणिकाएं …! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है कुछ अतिसुन्दर  मराठी क्षणिकाएं …! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #30☆ 

मराठी क्षणिकाएं …! ☆ 

 

[ 1 ]

हल्ली हल्ली शब्दांचाही

विसर पडू लागलाय

हे आयुष्या तुला संभाळता संभाळता….,

अक्षरांचा हात सुटू लागलाय..

 

[ 2 ]

लहान असताना . . .

फुलपाखरू पकडताना ,

जितकी तारांबळ उडायची ना…

तितकीच तारांबळ ,

सुखाच्या बाबतीत होते हल्ली…!

 

[ 3 ]

मी ठरवलंय आजपासून

मनाशी वाद नाही घालायचा

वाद झालाच तर

विकोपाला नाही न्यायचा…

 

[ 4 ]

सरत्या उन्हात आठवणींचा

सुरू होतो पुन्हा खेळ

जुन्याच आठवणींना पुन्हा

नव्याने घेऊन येते कातरवेळ…

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 21 ☆ भोर ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  उनकी अतिसुन्दर कविता  “भोर ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 21 ☆

☆ भोर ☆

रात अंधेरी छट गई, हुई सुनहरी भोर

गम के साये से निकल, चल प्रकाश की ओर

 

☆ प्रभात ☆

नई उमंगें ला रहा, लेकर नया प्रभात

कोने में दुबकी खड़ी, वही अंधेरी रात

 

☆ ऊषा ☆

ऊषा की यह लालिमा, भरती मन उत्साह

नई सोच नव जोश से, नई दिखाती राह

 

☆ उजास ☆ 

अंधकार के इरादे, कभी न रहते नेक

बाधित करे उजास को, बुरा काम यह एक

 

☆ सूरज ☆

सूरज से जीवन चले, है प्रकाश का पुंज

चलते रहना सिखाता, कभी न होना लुंज

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 30 – स्वयं कभी कविता बन जाएँ …… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक गीत  स्वयं कभी कविता बन जाएं….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 30☆

☆ स्वयं कभी कविता बन जाएं…. ☆  

 

होने, बनने में अन्तर है

जैसे झरना औ’ पोखर है।।

 

कवि होने के भ्रम में हैं हम

प्रथम पंक्ति के क्रम में हैं हम

मैं प्रबुद्ध, मैं आत्ममुग्ध हूँ

गहन अमावस तम में हैं हम।

तारों से उम्मीद लगाए

सूरज जैसे स्वप्न प्रखर है……

 

जब, कवि हूँ का दर्प जगे है

हम अपने से दूर भगे हैं

भटकें शब्दों के जंगल में

और स्वयं से स्वयं ठगे हैं।

भटकें बंजारों जैसे यूँ

खुद को खुद की नहीं खबर है।……

 

कविता के संग में जो रहते

कितनी व्यथा वेदना सहते

दुःखदर्दों को आत्मसात कर

शब्दों की सरिता बन बहते,

नीर-क्षीर कर साँच-झूठ की

अभिव्यक्ति में सदा निडर है।……

 

यह भी मन में इक संशय है

कवि होना क्या सरल विषय है

फिर भी जोड़-तोड़ में उलझे

चाह, वाह-वाही, जय-जय है

मंचीय हावभाव, कुछ नुस्खे

याद कर लिए कुछ मन्तर है।……

 

मौलिकता हो कवि होने में

बीज नए सुखकर बोने में

खोटे सिक्के टिक न सकेंगे

ज्यों जल, छिद्रयुक्त दोने में

स्वयं कभी कविता बन जाएं

यही काव्य तब अजर अमर है।…..

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 32 – अनुवंश ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी अतिसुन्दर कविता  “अनुवंश.  सुश्री प्रभा जी की कविता अनुवंश एक गंभीर काव्य विमर्श है ।  यदि हम अपनी अब तक की  जीवन यात्रा पर विचार करें  तो पाएंगे कि हमने अनुवांशिक क्या पाया। निश्चित ही हमने  कवि के रूप में  भरे पुरे संयुक्त परिवार में  अपने अस्तित्व का एकाकी जीवन ही जिया है । हां संस्कार जरूर हमारे साथ चलते रहे और उन संस्कारों, जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों ने हमारे कवि मन की नींव रखी । फिर हम रचते रहे अपना साहित्यिक संसार । नीलकमल जैसे चित्रपट हमें जरूर कल्पना के सागर में ले गए होंगे कि हमारा पूर्व जन्म कैसा रहा होगा ?

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 32 ☆

☆ अनुवंश ☆ 

 

मी काहीच घेतले नाही

माझ्या आईबापाकडून वारसा हक्काने,

किंवा त्यांच्यातले

काहीच उतरले नाही माझ्यात

अनुवंशाने !

भल्या थोरल्या वाड्यात,

एकत्र कुटुंबात,

कुणीच नव्हते कुणाचे

असे आता वाटते !

चुलीला पोतेरे घालणारे

सालंकृत घरंदाज बायकी हात

किंवा दर बुधवारी शेतमजुरांना पगार वाटणारे

पैसेवाले बेबंद पुरुषी हात

कधीच वाटले नाहीत….

भक्कम आधाराचे किंवा आश्वासक!

सुखवस्तू कुटुंबात

आपसूक वाढतात मुले

सुरक्षित,नीटनेटकी!

तरीही त्या भरल्या घरात

अगदी एकटेच वाटत राहिले

आणि एकाकीही……

त्या एकांत बेटावर

स्वतःला अंतर्बाह्य न्याहाळताना

अवघ्या अस्तित्वावर उमलत गेली

कवितेची असंख्य नीळी कमळं….

 

“नीलकमल आ जाओ….”

अशी साद घालणा-या

चित्रपटातल्या गतजन्मीच्या

प्रियकरा सारखीच,

कविता खुणावत राहिली

आणि मीही गुमान चालत राहिले

त्या अभिमंत्रित वाटांवरून  ……

हा कुठला अनुवंश उतरला आहे माझ्यात?

जे जाणवले,जे न्याहाळले,

जे सोसले,जे भोगले,

ते खदखदते आहे….धगधगते आहे…उसळते आहे…

काहीतरी वेगळेच रसायन

धावते आहे माझ्या धमन्यातून!

त्यावर आप्त स्वकियांचे शेरे ताशेरे…

अवहेलना, अपमान, खच्चीकरण!

आणि या सा-याहून वेगळं….

एक जग कवितेचं!

“ये हृदयीचे ते हृदयी”

पोहचविताना झालेल्या आनंदाचं!

माझ्यातून उगवलेल्या माझंच…..

जगातल्या पहिल्या कवयित्रीचं—-

संवेदन, जखमी हृदय, झालेली उपेक्षा, हेटाळणी आणि

बरेच काही….

मिळाले आहे वारसाहक्काने मला

आणि तिच्यातलीच सृजनशीलताही

अनुवंशाने उतरली असावी माझ्यात!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print