हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 8 ☆ कविता– भूला मानव को मानव का प्यार है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  समसामयिक कविता    भूला मानव को मानव का प्यार है।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 8 ☆

☆ भूला मानव को मानव का प्यार है ☆

 

कदम-कदम पर यहाँ एक व्यापार है.

एक जहर भरी पुड़िया ये संसार है.

 

मिला अनुभव जीवन कद काँटो से.

बहुत राह में रोड़ों का अम्बार है.

 

तूल दिया जाता छोटी घटना को.

बात बढ़ाता रहता हर अखबार है.

 

मंदिर, मस्जिद, गुरुव्द़ारे को दौड़ रहे.

भूला मानव को मानव का प्यार है.

 

बीच भँवर में मुझे अकेला छोड़ गया.

देख लिया मैंने अब कैसा ये संसार है.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 2 ☆ जख्मी कलम की वसीयत ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” प्रारम्भ करने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय – हेमन्त बावनकर

Amazon Author Central  – Hemant Bawankar 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #2 

☆ जख्मी कलम की वसीयत ☆

 

जख्मी कलम से इक कलाम लिख रहा हूँ,
बेहद हसीन दुनिया को सलाम लिख रहा हूँ।

ये कमाई दौलत जो मेरी कभी थी ही नहीं,
वो सारी दौलत तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

तुम भी तो जानते हो हर रोटी की कीमत,
वो ख़्वाहिशमंद तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

पूरी तो करो किसी ख़्वाहिशमंद की ख़्वाहिश,
ख़्वाहिशमंद की ओर से सलाम लिख रहा हूँ।

सोचा न था हैवानियत दिखायेगा ये मंज़र,
आबरू का जिम्मा तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,
इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।

इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत,
ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।

ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,
बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

कुछ भी तो नहीं बचा वसीयत में तुम्हें देने,
अमन के अलफाज तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

जाने क्या किया था इस बदनसीब कागज ने,
जो इसे घायल कर अपना नाम लिख रहा हूँ।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 21 ☆ पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं।  आज लीक से हटकर  पुस्तक चर्चा का विषय चुना है।  मैं कुछ और लिखूं इसके पूर्व कर्त्तव्यस्वरूप कुछ  लिखना चाहूंगा।  हमने मातृ  पितृ भक्त श्रवण कुमार की कहानियां  पढ़ीं हैं । किन्तु, यह अतिशयोक्ति कदापि नहीं होगी  और मैंने  स्वयं श्री विवेक जी के व्यवहार -कर्म  में श्रवण कुमार सी  मातृ-पितृ भक्ति की छवि  एवं संस्कार  अनुभव किया है । हमारे विशेष अनुरोध पर  उन्होंने आज  पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा  हमारे  पाठकों  के साथ साझा  किया है । उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है। जो हमारी पूंजी है। हमारी ईश्वर से प्रार्थना है यह सतत जारी रहे। वे हमारे प्रेरणा स्रोत हैं।  श्री विवेक जी  का  हृदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 21 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा

 1948 चाँद, सरस्वती जैसी तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताओं के प्रकाशन से प्रारंभ उनकी शब्द यात्रा के प्रवाह के पड़ाव हैं उनकी ये किताबें।

पहले पुस्तक प्रकाशन केंद्र दिल्ली की जगह आगरा और इलाहाबाद हुआ करता था। आगरा का प्रगति प्रकाशन साहित्यिक किताबों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। स्वर्गीय परदेसी जी द्वारा साहित्यकार कोष भी छापा गया था, जिसमें पिताजी का विस्तृत परिचय छपा है।भारत चीन व पाकिस्तान युद्धो के समय जय जवान जय किसान,  उद्गम, सदाबहार गुलाब, गर्जना, युग ध्वनि आदि प्रगति प्रकाशन की किताबों में पिताजी की रचनाएं प्रकाशित हैं। कुछ किताबें उन्हें समर्पित की गई हैं, कुछ का उन्होंने सम्पादन किया है। ये सामूहिक संग्रह हैं।

पिताजी शिक्षा विभाग में प्राचार्य, फिर संयुक्त संचालक, शिक्षा महाविद्यालय में प्राध्यापक, केंद्रीय विद्यालय जबलपुर तथा जूनियर कालेज सरायपाली के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं।  आशय यह कि उन्होंने न जाने कितनी ही पुस्तकें पुस्तकालयों के लिए खरीदी, पर जोड़-तोड़ और गुणा-भाग से अनभिज्ञ सिद्धांतवादी पिताश्री की रचनाये पुस्तक रूप में उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मैंने ही प्रस्तुत कीं। उन्हें किताबें छपवाने, विमोचन समारोह करने, सम्मान वगैरह में कभी दिलचस्पी नहीं रही।

मेघदूतम का हिंदी छंदबद्ध पद्यानुवाद उनका बहुत पुराना काम था, जो पहली पुस्तक के रूप में 1988 में आया। बाद में मांग पर उसका नया संस्करण भी पुनर्मुद्रित हुआ।

फिर ईशाराधन आई, जिसमे उनकी रचित मधुर प्रार्थनाये हैं। वे लिखते हैं

नील नभ तारा ग्रहों का अकल्पित विस्तार है

है बड़ा आश्चर्य, हर एक पिण्ड बे आधार है

है नहीं कुछ भी जिसे सब लोग कहते हैं गगन

धूल कण निर्मित भरी जल से  सुहानी है धरा

पेड़-पौधे जीव जड़ जीवन विविधता से भरा

किंतु सब के साथ सीमा और है जीवन मरण

सूक्ष्म तम परमाणु अद्भुत शक्ति का आगार है

हृदय की धड़कन से भड़ भड़ सृजित संसार है

जीव क्या यह विश्व क्यों सब कठिन चिंतन मनन

कारगिल युद्व के समय मण्डला के स्टेडियम में गणतंत्र दिवस के भव्य समारोह में उल्लेखनीय रूप से वतन को नमन का विमोचन हुआ।

पिताश्री की रचनाओ का मूल स्वर देशभक्ति, आध्यात्मिक्ता, बच्चों के लिए शिक्षा प्रद गीत, तात्कालिक घटनाओं पर काव्यमय सन्देश, संस्कृत से हिंदी काव्य अनुवाद है।

अनुगुंजन का प्रकाशन वर्ष 2000 में हुआ, जिसके विषय में सागर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखते हुए पिताजी की ही रचना उधृत की है

होते हैं मधुरतम गीत वही

जो मन की व्यथा सुनाते हैं

जो सरल शब्द संकेतों से

अंतर मन को छू जाते हैं

वसुधा के संपादक  डॉक्टर कमला प्रसाद ने उनके गीतों के विषय में लिखा “वे सामाजिक अराजकता के विरोधी हैं उनकी कविताओं में सरलता सरसता गीता तथा दिशा बोध बहुत साफ दिखाई देते हैं,विचारों की दृढ़ता तथा भावों की स्पष्टता के लिए उनके गीत हिंदी साहित्य में उदाहरण है”

बाल साहित्य की उनकी उल्लेखनीय किताबें हैं बाल गीतिका,बाल कौमुदी, सुमन साधिका,  चारु चंद्रिका,कर्मभूमि के लिए बलिदान, जनसेवा,अंधा और लंगड़ा, नैतिक कथाएं, आदर्श भाषण कला इत्यादि ये पुस्तकें विभिन्न  पुस्तकालयों  में खूब खरीदी गईं।

मानस के मोती तथा मानस मंथन रामचरितमानस पर उनके लेखों के संग्रह हैं। मार्गदर्शक चिंतन वैचारिक दिशा प्रदान करते आलेख हैं।

भगवत गीता के प्रत्येक श्लोक का हिंदी  पद्यानुवाद अर्थ सहित दो संस्करण छप चुका है। अनेक अखबार इसे धारावाहिक छाप रहे हैं। यह किताब लगातार बहुत डिमांड में है। ( ई- अभिव्यक्ति में सतत रूप से प्रतिदिन एक श्लोक का पद्यानुवाद तथा हिंदी / अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होता है )

तीसरा संस्करण तैयार है जिसमे अंग्रेजी में भी अर्थ दिया गया है। प्रकाशक संपर्क कर सकते हैं।

रघुवंश का भी सम्पूर्ण हिंदी काव्य अनुवाद प्रकाशित है। 1900 श्लोकों का वृहद अनुवाद कार्य उन्होनें मनोरम रूप में मूल काव्य की भावना की रक्षा करते हुए किया। यह 2014 में छपा।

साहित्य अकादमी के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने पिताजी की पुस्तक स्वयं प्रभा जिसका प्रकाशन सितंबर 2014 में हुआ के विषय में लिखा है

श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव के गीत कविता को प्यार , स्नेह , संवेदना और सुंदरता के सीमित आंचल से बाहर निकालते हुए देशभक्ति के विस्तृत पटल तक ले जाती हैं। रचनाओं को पढ़ते ही मन देश प्रेम के सागर में हिलोरे लेने लगता है। आज सुसंस्कृत भारत की संस्कार और संस्कृति की समझ कम हो रही है वहीं ऐसे कठिन समय में विदग्ध जी की रचनाएं महासृजन की बेला में शब्दों और भाषा से शिल्पित, सराहनीय, उद्देश्य में सफल है।

फरवरी 2015 में अंतर्ध्वनि आई। म प्र राष्ट्र भाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्री संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त जी ने इसकी भूमिका में लिखा  है  ” उनकी संवेदना का विस्तार व्यापक है, कविताओं का शिल्प द्विवेदी युगीन है। वे  उनकी सरस्वती वंदना से पंक्तियों को उधृत करते हैं “

हो रही घर-घर निरंतर आज धन की साधना

स्वार्थ के चंदन अगरु से  अर्चना आराधना

आत्मवंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है

चेतना गीत की जगा मां, स्वरों को झंकार दे

भारतीय दर्शन को सरल शब्दों में व्याख्यायित  करते हुए एक अन्य कविता में विदग्ध जी लिखते हैं,

प्रकृति में है चेतना, हर एक कण सप्राण है

इसी से कहते कि कण कण में बसा भगवान है

चेतना है ऊर्जा , एक शक्ति जो अदृश्य है

है बिना आकार पर, अनुभूतियों में दृश्य है

2018 में अनुभूति, फिर हाल ही 2019 में शब्दधारा  पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

2018 दिसम्बर का ट्रू मीडिया विशेषांक पिताजी पर केंद्रित अंक था।

उनकी ढेरो कविताये  डिजिटल मोड में मेरे कम्प्यूटर पर हैं जिनकी सहज ही दस पुस्तकें तो बन ही सकती हैं। प्रकाशक मित्रों का स्वागत है।

उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है। जो हमारी पूंजी है।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 32 – दान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  मार्मिक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा  “दान ”।  आज के स्वार्थी संसार में भी कुछ लोग हैं जो मानव धर्म निभाते हैं। अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 32 ☆

☆ लघुकथा – दान ☆

 

सिविल लाइन का ईलाका सभी के अपने अपने आलीशान मकान, डुप्लेक्स और अपार्टमेंट। अलग-अलग फ्लैट में रहने वाले विभिन्न प्रकार के लोग और सभी लोग मिलजुलकर रहते।

वहीं पर एक फ्लैट में एक बुजुर्ग दंपत्ति भी रहते थे। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। कहने को तो बहुत रिश्ते नातेदार थे, परंतु, उनके लिए सभी बेकार रहे। सभी की निगाह उनकी संपत्ति, फ्लैट, रूपए पैसे, नगद, सोना चांदी, और गाड़ी पर लगी रहती थी। सेवा करना कोई नहीं चाहता था।

धीरे-धीरे समय बीतता गया एक सब्जी वाला कालू बचपन से उनके मोहल्ले में आता था। पूरे समय अम्मा बाबूजी उसका ध्यान लगाते थे। बचपन से सब्जी बेचता था। उसी गली में कभी अम्मा से ज्यादा पैसे ले लेता, कभी नहीं भी ले लेता। बुजुर्ग दंपत्ति भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। दवाई से लेकर सभी जरूरत का सामान ला कर देता था।

एक दिन अचानक बाबूजी का देहांत हो गया। सब्जी वाला कालू टेर लगाते हुए आ रहा था। अचानक की भीड़ देखकर रुक गया। पता चला उनके बाबूजी नहीं रहे। आस-पड़ोस सभी अंतिम क्रिया कर्म करके अपने-अपने कामों में लग गए।

दिनचर्या फिर से शुरू हो गई। सब्जी वाला आने लगा था। अम्मा जी धीरे धीरे आकर उससे सब्जी लेती थी। घंटों खड़ी होकर बात करती, वह भी खड़ा रहता। कभी अपनी रोजी रोटी के लिए परेशान जरूर होता था। परन्तु उनके स्नेह से सब भूल जाता था। अम्मा जी को भी बड़ी शांति मिलती। ठंड बहुत पड़ रही थी।

मकर संक्रांति के पहले सभी पड़ोस वाले आकर कहने लगे… आंटी जी दान का पर्व चल रहा है।  आप भी कुछ दान दक्षिणा कर दीजिए। अम्मा चुपचाप सब की बात सुनती रही। अचानक ठंड ज्यादा बढ़ गई, उम्र भी ज्यादा थी। अम्मा जी की तबियत खराब हो गई । अस्पताल में भर्ती कराया गया। कालू सब्जी वाला अपना धन्धा छोड़ सेवा में लगा रहा।

बहुत इलाज के बाद भी अम्मा जी को बचाया नहीं जा सका।

शांत होते ही कई रिश्तेदार दावा करने आ गये। परन्तु उसी समय वकील साहब आए और वसीयत दिखाते हुए कहा… स्वर्गीय दंपति का सब कुछ कालू सब्जी वाले का है। अंत में लिखा हुआ वकील साहब ने पढा…. कालू….. मेरे बेटे आज मैं तुम्हें अपना शरीर दान कर रही हूं। इस पर सिर्फ तुम्हारा अधिकार है। तुम चाहे इसे कैसे भी गति मुक्ति दो।

मृत शरीर पर कालू लिपटा हुआ फूट फूट कर रो रहा था। और कह रहा था…. जीते जी मुझे मां कहने नहीं दी और आज जब कहने दिया तो दुनिया ही छोड़ चली।

कालू ने बेटे का फर्ज निभाते हुए अपनी मां का अंतिम संस्कार किया। और कहा… मां ने मुझे महादान दिया है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #32 – नंदलाला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “नंदलाला”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 32☆

 

☆ नंदलाला ☆

 

प्राशले विष, ना तरीही घात झाला

ना कुठेही पीळ पडला आतड्याला

 

रासक्रीडा खेळण्याचे भाग्य नाही

देह भजनी फक्त त्याच्या लागलेला

 

प्रीतिच्या वाटेत आले कैक धोंडे

धर्म भक्तीचाच होता पाळलेला

 

मीच राधा मीच मीरा एक आम्ही

या जगाने भेद आहे मांडलेला

 

नाव त्यांनी ठेवलेले होय मीरा

मी कधीही सोडले ना राधिकेला

 

दर्शनाची आस आहे सावळ्याच्या

चुंबते मी रोज त्याच्या बासरीला

 

एकतारी ‘बासरीचे’ सूर काढी

बोट माझे वाटते मज नंदलाला

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ आइना ☆ श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

☆ कविता  –  आइना ☆

कविता के जुलूस में

कवि ने पढा़ –

अंधेरे !

अगर वाकई तू

इतना ही सच्चा होता

तो क्या आइनों को

तोड़ कर

इस तरह भागता ?

–सूरत

छिपा कर हंसता

—बोलने से बचता

इस तरह खुश मत हो

अपनी ही घड़ी को

तोड़ कर

क्योंकि समय को

तोड़ने -फोड़ने के

फालतू अहंकार में

यह भी भूल गया तू

कि आइने के

जितने भी टुकड़े करेगा

उतने ही टुकड़ों में

चमकेगा

सूरज!

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 29 – व्यंग्य – यादों में पंगत – पंगत में गारी  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका  एक चुटीला संस्मरणात्मक व्यंग्य  “यादों में पंगत – पंगत में गारी ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 29 ☆

☆ संस्मरणात्मक व्यंग्य – यादों में पंगत – पंगत में गारी   

पंगत में जमीन में बैठकर दोना पतरी में खाने का यदि आपने  आनंद नहीं लिया , तो खाने के असली सुख से वंचित रह गए।

एक बार परिवार मे संझले भाई की शादी में बारात में गए। गांव की बारात थी डग्गा में डगमगाते कूदते फांदते दो घंटा में बारात लगी, बारात गांव के गेवड़े में बने खपरैल स्कूल में रोकी जानी थी पर लड़की वालों का सरपंच से झगड़ा हो गया तो लड़की वालों ने आमा के झाड़ के नीचे जनवासा बना दिया। आम के झाड़ के नीचे पट्टे वाली दरी बिछा दी। सब बाराती थके हारे दरी में लेट गए। आम के झाड़ से बंदर किचर किचर करन लगे और एक दो बाराती के ऊपर मूत भी दिये। एक बंदर दूल्हे की टोपी लेकर झाड़ में चढ़ गया। रात को आगमानू भई तब बंदर झाड़ छोड़ कर भगे। दूसरे दिन दोपहर में पंगत बैठी। पंगत में बड़ा मजा आया, औरतें की गारी चालू हो गई थी…. “जैसे कुत्ता की पूंछ वैसे समधी की मूंछ….. कुत्ता पोस लो रे मोरे नये समधी…… कुत्ता पोस लेओ…………”

बड़े बुजुर्गों को सब परोसा गया।  फिर कुछ लोगों की मांग पर अग्निदेव परोसे गए, नाई ने जब देखा कि भोग लगने पर खाना चालू हो जाएगा, भोग लगने के पहले भरी पंगत में नाई खड़ा हो गया, बोला – “साब, इस पंगत में गाज गिर सकती है।”

बड़े बुजुर्ग बोले “गंगू,  यदि गाज गिरी तो सब के साथ तुम्हारे ऊपर भी तो गिर सकती है।” गंगू नाई ने सबके सामने तर्क दिया “साब, मैं तब भी बच जाऊँगा कयूं कि जैसे सबके पत्तल में  मही – बरा परसा गया  है पर मुझे छोड़ दिया गया है। यदि गाज बरा में गिरी  तो मैं बच जाऊँगा ……. ” तुरंत  गंगू नाई को दो दोना में मही बरा परसा गया तब कहीं पंगत में भोग लग पाया।

फिर लगातार चुहलबाजी चलती रही परोसने वाले थक गए। औरतें डर गईं कहीं खाना न खतम हो जाय इसलिए औरतों ने गारी गाना बंद कर दिया और पंगत में बंदरों ने हमला कर दिया। सब अपने अपने लोटा लेकर भागे। लड़की वालों की इज्जत बच गई।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #32 – घर बनायें स्वर्ग ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “घर बनायें स्वर्ग”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 32 ☆

☆ घर बनायें स्वर्ग 

हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की  कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम  स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत  भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं  है. किन्तु  अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.

यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ,  मित्र भाव से,  निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.

यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये  ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी  कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन  भौतिक संसाधनो को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में  होते ही नहीं.

घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव  घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !

© अनुभा श्रीवास्तव्

 

घर बनायें स्वर्ग

 

 

हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की  कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम  स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत  भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं  है. किन्तु  अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.

यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ,  मित्र भाव से,  निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी

अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.

यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये  ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी  कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन  भौतिक संसाधनो

को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में  होते ही नहीं.

घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव  घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #30 ☆ विश्वास☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 30 ☆

☆ विश्वास ☆

 

भोर अंधेरे यात्रा पर निकलना है। निकलते समय घर की दीवार पर टँगे मंदिर में विराजे ठाकुर जी को माथा टेकने गया। दर्शन के लिए बिजली लगाई। बिजली लगाने भर की देर थी कि मानो ठाकुर जी हँस पड़े। मनुष्य को भी अपनी वैचारिक संकीर्णता पर स्वयं हँसी आ गई।

दिव्य प्रकाशपुंज को देखने के लिए 5-7 वॉट का बल्ब लगाना!! सूरज को दीपक दिखाने का मुहावरा संभवत: ऐसी नादानियों की ही उपज है।

नादानी का चरम है, भीतर की ठाकुरबाड़ी में बसे ठाकुर जी के दर्शन से आजीवन वंचित रहना। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य आँखों को खुद ढककर अंधकार-अंधकार चिल्लाता है।

खुद को प्रकाश से वंचित रखनेवाले मनुष्य रूपी प्रकाश की कथा भी निराली है। अपनी लौ से अपरिचित ऐसा ही एक प्रकाश, संत के पास गया और प्रकाश प्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। संत ने उसे पास के तालाब में रहनेवाली एक मछली के पास भेज दिया। मछली ने कहा, अभी सोकर उठी हूँ, प्यास लगी है। कहीं से थोड़ा जल लाकर पिला दो तो शांति से तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकूँगी। प्रकाश हतप्रभ रह गया। बोला, “जल में रहकर भी जल की खोज?” मछली ने कहा, “यही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान है। खोज सके तो खोज।”

“खोजी होये तुरत मिल जाऊँ

एक पल की ही तलाश में ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो,

मैं तो हूँ विश्वास में ।।

भीतर के ठाकुर जी के प्रकाश का साक्षात्कार कर लोगे तो बाहर की ठाकुरबाड़ी में स्वत: उजाला दिखने लगेगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 8.29, 7.1.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 32 ☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं . आज का व्यंग्य  है अफसर की कविता-कथा।  वास्तव में  अफसर की कविता – कथा  अक्सर अधीनस्थ  साहित्यकार की व्यथा कथा हो जाती है । डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से ऐसा कोई पात्र नहीं बच सकता  और इसके लिए तो आपको यह व्यंग्य पढ़ना ही पड़ेगा न।  हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 32 ☆

☆ व्यंग्य – अफसर की कविता-कथा ☆

 

भूल मेरी ही थी कि मैं उस शाम अपने अफसर को कवि-सम्मेलन में ले गया। दरअसल मेरी नीयत उनको मस्का लगाने की थी। कवि-सम्मेलन में मैं तो वहाँ आने की सार्थकता सिद्ध करने के लिए ‘वाह वाह’ करता रहा और अफसर महोदय अपने हीनभाव को दबाने के लिए बार बार सिर हिलाते रहे। मैं जानता था कि कविताएं उनके सिर के ऊपर से गुज़र रही थीं और कविता जैसी चीज़ से उनका दूर का भी वास्ता नहीं था।

फिर हुआ यह कि एक कवि ने एक कविता सुनायी जो कुछ इस प्रकार थी—–

‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ,
फाइल ही मेरी ज़िन्दगी है।
फड़फड़ाता हूँ लेकिन मुक्ति कहाँ है?’

और मुझे लगा जैसे मेरे अफसर को किसी ने घूँसा मार दिया हो। कविता खत्म होने पर वे बड़ी देर तक ‘वाह वाह’ करते रहे। कविताएं चलती रहीं लेकिन वे सब कविताओं से बेखबर उस एक कविता को याद करके आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करते रहे।

कवि-सम्मेलन खत्म होने पर जब हम घर लौटे तो वे रास्ते भर ‘मैं फाइल में कैद कागज़ हूँ’ दुहराते रहे। अलग होते समय उन्होंने मुझे कई बार धन्यवाद दिया। मेरी आत्मा गदगद हो गयी।

दूसरे दिन दफ्तर में दोपहर को साहब के पास मेरा बुलावा हुआ। उन्होंने बड़े आदर के साथ मुझे बैठाया। मैंने देखा, वे कुछ नयी बहू जैसे शर्मा रहे थे। मुख लाल हो रहा था। थोड़ी देर तक वे इधर उधर की बातें करते रहे, फिर कुछ और शर्माते हुए उन्होंने दराज़ से एक कागज़ निकाला और मुझे पकड़ा दिया। मैंने देखा, उस कागज़ पर एक कविता लिखी थी, इस प्रकार—–

‘टाइपराइटर की चटचट,
टेलीफोन की घनघन,
यही मेरा जीवन,
यही मेरा बंधन।
जो देखे थे सपने,
दफन हो चुके हैं,
बगीचे सभी
सूखे वन हो चुके हैं।
कहाँ खो गये हाय
वे सारे उपवन।’

इसी वज़न के तीन और छन्द थे। आखिरी पंक्ति थी, ‘खतम हो चुका है उमंगों का राशन।’

मैंने पढ़कर सिर उठाया।वे भयंकर उत्सुकता से मुझे देख रहे थे। बोले, ‘कैसी है?’

मैंने सावधानी से उत्तर दिया, ‘अच्छी है।’

वे मुस्कराये, बोले, ‘मेरी है।’

मैं पहले ही भाँप रहा था। कहा, ‘प्रथम प्रयास की दृष्टि से काफी अच्छी है। आप तो छिपे रुस्तम निकले।’

वे काफी प्रसन्न हो गये।

फिर वे रोज़ चार छः कविताएं लिखकर लाने लगे। रोज़ मेरी पेशी होती और मुझे सारी कविताएं सुननी पड़तीं। घरेलू समस्याओं का समाधान सोचते हुए मैं आँखें मींचे ‘वाह वाह’ करता रहता। मेरा काम करना दूभर हो गया। उनसे धीरे से काम की बात कही तो उन्होंने मेरा ज़्यादातर काम छिंगे बाबू को सौंप दिया। नतीजा यह हुआ कि मेरे साथियों ने मेरा नाम ‘नवनीत लाल’ और ‘ठसियल प्रसाद’ रख दिया।

मेरे अफसर महोदय अपने को पक्का कवि समझ चुके थे। कई बार मुझे दफ्तर से घर पकड़ ले जाते और बची-खुची कविताओं को वहाँ सुना डालते। एक दिन भावुक होकर कहने लगे, ‘मिसरा जी, आपसे क्या छिपाना। मेरा दिल टूटा हुआ है। ब्याह से पहले मेरा एक लड़की से ‘लव’ चलता था। माँ-बाप ने दहेज के लालच में इनसे शादी कर दी, लेकिन मेरा दिल कहीं नहीं लगता। अब भी डोर वहीं बंधी है। मेरे भीतर कवि के सब गुण पहले ही थे, आपके संपर्क ने चिनगारी का काम किया। मैं आपका बहुत आभारी हूँ।’

धीरे धीरे वे मेरे पीछे पड़ने लगे कि मैं उनको कवि सम्मेलनों में ठंसवा दिया करूँ। मैं बड़ी दौड़-धूप करके उनका नाम डलवाता। वे ‘हूट’ हो जाते तो उनके घावों पर मरहम लगाता। कहता, ‘साहब जी, समझदार श्रोता मिलते कहाँ हैं?’

एक दिन किस्मत मेरे ऊपर मुस्करायी। मेरा ट्रांसफर आर्डर आ गया। मैं अपने नगर में काफी गहरे तक स्थापित हो चुका हूँ, इसलिए मुझे पीड़ा तो काफी हुई लेकिन अफसर महोदय से छुटकारा मिलने की संभावना से प्रसन्नता भी कम नहीं हुई। लेकिन मेरे अफसर ने मुझे नहीं छोड़ा। उन्होंने मुझे ‘रिलीव’ करने से इनकार कर दिया और ऊपर लिख दिया कि मैं उनके लिए अपरिहार्य हूँ। वे मुझसे बोले, ‘मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। अभी तो मेरी प्रतिभा निखर रही है, तुम चले जाओगे तो मैं फिर जहाँ का तहाँ पहुँच जाऊँगा।’ अन्ततः मेरा तबादला रद्द हो गया।

प्रभु ने एक बार फिर मेरी सुनी। अबकी बार मेरे अफसर का ही ट्रांसफर हो गया। वे बड़े दुखी हुए। मैं प्रसन्नता लिए उन्हें सांत्वना देता रहा। मैंने कहा, ‘अब कविता की दृष्टि से आप बालिग हो गये, अपने पैरों पर खड़े हो गये। अब आपको किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है।’  लेकिन वे मुझसे अलग होते बड़े असहाय हो रहे थे।

मैं उन्हें छोड़ने स्टेशन पर गया। वे बेहद उदास थे।चलते समय कहने लगे, ‘मिसरा जी, मेरा काम आपके बिना नहीं चल सकता। मैं आपका तबादला भी वहीं करा लूँगा। आप चिन्ता मत करना।’

और वे इन शब्दों के साथ मुझे चिन्ता के सागर में ढकेलकर चले गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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