मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 28 – उत्तर..! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता उत्तर..!)

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #28☆ 

☆  उत्तर..! ☆ 

 

परवा बाप झालो

खूप आनंद झाला आणि

खूप तांराबळ ही उडाली

काय करायच काहीच कळत नव्हतं

तेव्हा आईची आठवण आली

मी म्हटलं तिला..,

अत्ता आई हवी होती..

ती एकटक माझ्याकडे

पहात राहिली..आणि

काहीशा

तुसड्या शब्दांतच तिनं

मला उत्तर दिलं…

घेऊन या तिला वृध्दाश्रमातून

माझी आई येई पर्यंत..

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 30 – जन्म सोहळा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी अतिसुन्दर कविता  “जन्म सोहळा.  आखिर नव वर्ष का शुभारम्भ किसी जन्म उत्सव से कम तो नहीं है न ? 

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 30 ☆

☆ जन्म सोहळा ☆ 

 

वृत्त-आनंद कंद

गागाल गालगागा  गागाल गालगागा

 

आहेत चांदण्याचे माझ्या घरी पसारे

मोहात पाडती ते  शब्दातले इशारे

 

मी रंगले कधीची स्वप्नामधेच माझ्या

सा-या खुणा सुखाच्या आहेत नित्य ताज्या

 

मी वेगळीच आहे, जेव्हा मला कळाले

तेव्हाच दुःख माझे एका क्षणी जळाले

 

मी कोणत्या कुळाची,आले कुठून येथे

माझे मला कळेना ही वाट कोणती ते

 

मी मंत्रमुग्ध झाले पाहून त्या सुखाला

हातात येत गेले आकाश, मेघमाला

 

वर्षाव कौतुकाचा मी ओंजळीत घेता

आजन्म तृप्त झाले या सोहळ्यात आता

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 28 – ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी के आयु के 71 वर्ष के शुभारंभ पर कविता   “साठोत्तरीय…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 28☆

☆ साठोत्तरीय……. ☆  

 

इकहत्तर की वय में, वही चेतना, प्राण वही है

परिवर्तित मौसम में भी, मन में अरमान वही है।

 

है, उमंग – उत्साह, बदन  में  चाहे  दर्द  भरा  हो

पीड़ा की पगडंडी यदि, मंजिल का एक सिरा हो

पा लेंगे चलते – चलते, जो सोचा यहीं कहीं है.

परिवर्तित———-

 

आत्म शक्ति और  संकल्पों का, लेते हुए सहारा

आशाओं के बल पर, टिका हुआ विश्वास हमारा

शिथिल शिराएं हुई, किन्तु हम शक्तिहीन नहीं हैं

परिवर्तित———–

 

कई   तरंगे  रंग  बिरंगी, अन्दर   दबी  पड़ी  है

जग को कुछ नूतन देने को, तत्पर चाह खड़ी है

सब उतार दें कागज पर, जो अबतक नहीं कही है

परिवर्तित————

 

पाया जो जग से अब तक, लौटाने की है बारी

देखें  कर्ज चुकाने की, क्या की  हमने   तैयारी

सींचें उन्हें और, जिनसे जीवन रसधार बही है

परिवर्तित————

 

आदर्शों  की  लिखें  वसीयत  नवपीढ़ी के  नाम  करें

अबतक अपने लिए जिये, आगे कुछ ऐसे काम करें

नीर क्षीर हों पावन, जीने का ये मार्ग सही है

परिवर्तित————-

 

महकाएं  इस  मनमंदिर को, मुरझाने  से पहले

तन्मय हो निर्मल सरिता बन, अंतर्मन में बह लें

द्रष्टा बनें स्वयं के, बाहर के प्रपन्च सतही है

परिवर्तित मौसम में——

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 10 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 10 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

गांधीजी दो बातें कहते हैं .हिन्दुस्तान से कारीगरी जो करीब-करीब ख़तम हो गयी, वह मैनचेस्टर का ही काम है और मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं। निश्चय ही  गांधीजी के मन में यह विचार युरोप की औद्योगिक क्रांति के, जो अठारहवीं सदी के अंत व उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुई थी और इसने सारे यूरोप को प्रभावित किया था, दुष्परिणामों को देखते हुए आया होगा। आरंभ में यह क्रान्ति वस्त्र उद्योग के मशीनीकरण से हुई,  और फिर तरह तरह की मशीनों की खोज हुई। इसके साथ ही लोहा बनाने की तकनीकें आयीं और शोधित कोयले का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। कोयले को जलाकर बने भाप  की शक्ति का उपयोग होने लगा। शक्ति-चालित मशीनों (विशेषकर वस्त्र उद्योग में) के आने से उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। उन्नीसवी सदी के प्रथम् दो दशकों में पूरी तरह से धातु  से बने औजारों का विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप दूसरे उद्योगों में काम आने वाली मशीनों के निर्माण को गति मिली। उन्नीसवी शताब्दी में यह पूरे पश्चिमी युरोप तथा उत्तरी अमेरिका में फैल गयी।कच्चे माल को पाने के लिए यूरोप ने सारे विश्व में अपने उपनिवेश बनाए जो इन देशों की गुलामी का कारण बने। मशीनों ने उत्पादन बढ़ाया तो माल की खपत इन्ही उपनिवेश देशों में हुई फलत वहाँ के लघु उद्योग चौपट हो गये, माल बेचने से प्राप्त धन यूरोप मे अमीरी और औपनवेशिक देशों में गरीबी का कारण बना।औद्योगिक क्रान्ति के कारण आपसी मानवीय सम्बन्ध खराब हुए और नैतिक मूल्यों में गिरावट आई। गांधीजी जब यंत्रों का विरोध करते हैं तो वे तत्कालीन भारत की इन्ही कठनाइयों के परिप्रेक्ष्य में यह बात करते हैं।  जब गांधीजी कहते हैं कि गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा, लेकिन अनीति से पैसेवाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा तो मुझे देश के वर्तमान हालात दीखते हैं। भारत के औद्योगिक व व्यवसायिक घरानों ने, राजनीतिज्ञों व सरकारी अफसरों से गठजोड़ कर अनीतिपूर्वक जो धन कमाया है अंतत: उसकी परिणीती कालेधन में हुई है। इस काले धन ने सारे सिस्टम को तहस नहस कर दिया है, भ्रष्टाचार के फलने फूलने में इसी औद्योगिकरण का हाँथ है,    नोटबंदी जैसे प्रयास भी हमें इसके दुष्चक्र से मुक्ति नहीं दिला पाए हैं, आयकर विभाग, ईडी आदि लाख छापे मारें पर कभी कभार ही सफल होते दिखाई पढ़ते हैं। यही नैतिक पतन है जिसे गांधीजी ने एक सौ दस वर्ष पूर्व ही महसूस कर लिया था, और हमें चेताने की कोशिश की थी। उनकी चेतावनी का यह अर्थ कदापि न था कि हम यंत्रीकरण न करे उद्योगों की स्थापना न करे। वे तो बस इसके उचित बढ़ावे के पक्षधर थे। मशीनीकरण के अन्धानुकरण ने हमारे स्वास्थ को प्रभावित किया है। इससे भला कौन इनकार कर सकता है। हमने पैदल चलना और श्रम करना तो लगभग छोड़ ही दिया है। हमारे बच्चे इतने आलसी हो गए हैं कि वे सौ कदम भी नहीं चलना चाहते। उन्हें नजदीक के स्थान जाने के लिए भी वाहन चाहिए।  यही हमारे गिरते हुए स्वास्थ का कारण है।जब गान्धीजी यह कहते हैं कि  मैनचेस्टर के कपडे के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी हम अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए तब वे स्वदेश में मशीनों व यंत्रो के उपयोग के पक्षधर दिखाई देते हैं। वे चाहते हैं कि हम बजाय विदेशी माल खरीदने के देश में ही यंत्रो का प्रयोग कर अपनी जरूरतों के मुताबिक़ उत्पादन करें।गांधीजी जब कहते हैं कि  समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, पर वह किसी ख़ास वर्ग की नहीं बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए तो वे मशीनों व यंत्रों के उपयोग के समर्थन की बात करते हैं व उसका उपयोग मानव कल्याण के लिए करना चाहते हैं। गांधीजी बार बार कहते हैं कि  यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए, मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जाना चाहिए और यंत्र रुकावट बनने के बजाय मददगार होने चाहिए। जब वे कहते हैं कि  ‘मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है‘। वे तो कहते हैं कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए, जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें।इन बातों को अगर हम ध्यान से सोचे तो पायेंगे कि  वे यंत्रों के विरोधी नहीं हैं ।

यंत्रों का उपयोग मानव कल्याण के लिए हो ऐसी गान्धीजी  की भावना का पता हमें उनके इस कथन  से चलता है: “हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाएँ। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो। मैं तो चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो। धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुंचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूर को पहुंचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में जो कुछ अपवाद हैं,उनमे से एक यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था,इसलिए मानव-सुख का विचार मुख्य था। उस यंत्र का उद्देश्य है कि मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। मसलन, टेढ़े तकुवे को सीधा बनाने वाले यंत्र का मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लोहारों का तकुवे बनाने का काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढा हो जाय तब हरेक कातने वाले के पास तकुवा सीधा कर लेने के लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए  लोभ की जगह हम प्रेम को दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 6 ☆ कविता – दत्त-चित्त बनकर तो देखो ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक कविता  दत्त-चित्त बनकर तो देखो।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 6 ☆

☆ दत्त-चित्त बनकर तो देखो ☆

 

तन्मयता हर लेती है जब,विकल दृगों का नीर

संयम, धैर्यशीलता हरती दुखी हृदय की पीर

 

सिहरन, ठिठुरन ठंडी साँसों को करती श्रमहीन

किन्तु उठाकर जोखिम सेवन करते नित्य समीर

 

वेणी गोरी बालों में, पड़ रही सुनहरी धूप

चपल सुन्दरी चली झूमती बनकर राँझा-हीर

 

चली रसोई से माँ लेकर पकवानों का थाल

खोज रही थी नजर चितेरी वहाँ प्यार की खीर

 

निर्भयता धारण करने से बन जाते हर काम

दत्त-चित्त बनकर तो देखो होगा हृदय कबीर।

 

सोच समझकर सदा बोलिए अंकुश हो वाणी पर

पिंजरे की बुलबुल को कोई मार न जाए तीर

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #30 – चेहऱ्यावर चेहरे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “चेहऱ्यावर चेहरे”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 30☆

 

☆ चेहऱ्यावर चेहरे ☆

 

आसवांना अंतरी दडवू नको

आरश्याला तू असे फसवू नको

 

मखमली हा चेहरा नाराज का ?

चेहऱ्यावर चेहरे चढवू नको

 

सूर्य पाठीशी उभा असता तुझ्या

भर दुपारी काजवे जमवू नको

 

नेत्रपल्लव त्यात मजला झाक तू

तेथुनी मजला पुन्हा हलवू नको

 

जन्मठेपेची सजा तू दे मला

अन् जगापासून हे लपवू नको

 

सूर अपुले पाहुनी घेऊ जरा

मैफिलीचे काय ते ठरवू नको

 

बेत ठरला जर नकाराचा तुझा

ठेव हृदयी तो मला कळवू नको

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 30 – जूठन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक अत्यंत मर्मस्पर्शी जीवंत संस्मरण पर आधारित लघुकथा  “जूठन”। यह जीवन का कटु सत्य। आज भी ऐसी  मानसिकता के लोग समाज में हैं। वे नहीं जानते कि – सबको  आखिर जाना तो एक ही जगह है।

(श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी को मधुशाला साहित्यिक परिवार, उदयपुर की ओर से “काव्य  गौरव सम्मान 2019”  के लिए हार्दिक बधाई । )

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 30 ☆

☆ लघुकथा – जूठन ☆

 

कहते हैं आदमी कितना भी धनवान और रूपवान  क्यों न हो जाए, यदि उसके पास मानवता नहीं है तो वह पशु  समान है।

शहर के बीचों बीच काफी हाउस जहां पर दक्षिण भारतीय व्यंजन जैसे डोसा, इडली सांभर, बड़ा सांभर खाने के लिए काफी भीड़ लगती है। अपनी अपनी पसंद से सभी खाते हैं। काफी हाउस में लगभग सभी कुर्सियों पर व्यक्ति बैठे थे। हम भी वहां बैठे थे।

पास की पंक्ति पर एक सरकारी नौकरी और अच्छे पद पर काम करने वाली सभ्रांत लगाने वाली महिला एक बुजुर्ग महिला के साथ बैठी थी। उस महिला के पहनावे और बातचीत करने के तरीके से पता चल रहा था कि वह घर में काम करने वाली बाई है। पास में ही दो-तीन थैलों में सामान रखा हुआ था साथ ही मिनरल वाटर की चमचमाती बोतल टेबल पर रखी थी।

ऑर्डर पास करने वाला आकर खड़ा हो गया। भीड़ के कारण जल्दी-जल्दी ऑर्डर ले रहा था। उस सभ्य महिला ने कहा… “एक मसाला डोसा लेकर आओ”।  उसने हां में सिर हि दिया।  फिर खड़ा रहा और पूछा “क्या, सिर्फ एक ही लाना है?” उसे लगा उम्र में उससे दुगनी महिला साथ में बैठी है, तो शायद उसके लिए कुछ अलग मांग रही है।  परंतु उसने कहा.. “सिर्फ एक मसाला डोसा।“

थोड़ी देर में प्लेट में मसाला डोसा लेकर वेटर आ गया और  टेबिल पर रखकर चला गया। उस महिला ने मुंह बना-बना कर मसाला डोसा खाना शुरू किया। वह बात करते जा रही थी।  लिपस्टिक खराब ना हो जाए इसलिए बड़े ही स्टाइल से खा रही थी। परंतु, प्लेट में बहुत ही गंदे तरीके से सांभर टपका रही थी और वह महिला सामने बैठ उसके प्लेट को देख रही थी। शायद, भूख उसे भी लगी थी, परंतु चुपचाप देख रही थी।

अंत में उस  सभ्य महिला ने सामने बैठी अधेड़ उम्र की महिला से कहा… “यह बचा हुआ डोसा तुम खा लो तुम्हारा पेट भर जाएगा। घर जाकर खाना नहीं पड़ेगा। हम तो अभी जूस पीकर आए हैं। अब ज्यादा नहीं खा सकेंगे।“

उस प्लेट को हम  सभी देख रहे थे मुश्किल से एक तिहाई डोसा बचा था। यह कह कर वह हाथ धोने वॉशरूम की ओर चली गई। जब किसी से नहीं रहा गया तो वहां बैठे और लोगों ने पूछा… “तुम यह जूठन क्यों खा रही हो अम्मा?

उसने मुंह में निवाला डाले डाले कहा… “घर में हम रोज ही मेम साहब का जूठन खाते हैं। वह खाने के बाद उसी प्लेट पर बचा हुआ खाना हमें देती है। हमारी तो आदत है, जूठन खाने की। क्या करें? जिंदगी जो काटनी है उनके साथ!” उत्तर सुनकर सभी उसकी ओर देखने लगे।

किसी ने कुछ नहीं कहा और सब उस ऊंची सोच वाली महिला को देख रहे थे। जो वाशरूम से हाथ धो कर निकली और पर्स उठा कर बाहर की ओर चलती बनी।

कुछ तो फर्क होता है ‘बचा हुआ’ और ‘जूठन’ देने में? कैसी मानसिकता हैं यह? हम सोचते रहे, किन्तु, कुछ कर न सके।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 19 ☆ काव्य संग्रह – लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं – सुश्री सोनिया खुरानिया ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  सुश्री सोनिया खुरानिया जी के काव्य संग्रह लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा.  श्री विवेक जी  का ह्रदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 19☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – काव्य संग्रह  –  लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं 

पुस्तक –लफ्ज दर लफ्ज मैं

लेखिका –  सुश्री सोनिया खुरानिया

प्रकाशक – रवीना प्रकाशन दिल्ली

आई एस बी एन – ९७८९३८८३४६८१८

मूल्य –  200 रु प्रथम संस्करण 2019

☆ काव्य संग्रह –  लफ्ज़ दर लफ्ज़ मैं – सुश्री सोनिया खुरानिया –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

काव्य वह विधा है जो यदि कौशल से प्रयुक्त हो तो व्यक्तिगत अनुभवो को हर पाठक के उसके अनुभव बना देने की क्षमता रखती है. सोनिया खुरानिया की इस पुस्तक में संग्रहित कवितायें अधिकांशतः इसी तरह की हैं. छंद के शिल्प में भले ही कुछ रचनायें वह पकड़ न रखती हों जो साहित्यिक दृष्टि से आवश्यक हैं किन्तु भाव की कसौटी पर रचनायें खरी अभिव्यक्ति प्रस्तुत कर रही हैं. कोई ६० से अधिक कवितायें, कुछ मुक्त छंद में कुछ छंद में संग्रहित हैं. अधिकतर रचनायें स्त्री पुरुष संबंधो के, प्रतीत होता है उनके स्व अनुभव ही हैं. कवियत्री से अनुभवो की परिपक्वता पर बेहतर साहित्य की उम्मीद साहित्य जगत को है.

 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 27 – भारत का आखिरी गांव माणा गांव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका अविस्मरणीय  संस्मरण  “भारत का आखिरी गांव माणा गांव”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 27 ☆

☆ भारत का आखिरी गांव माणा गांव 

सरस्वती नदी का उदगम स्थल भीमपुल माणा गांव भारत का अंतिम गांव कहलाता है बहुत दिनों से भारत चीन सीमा में बसे इस गाँव को देखने की इच्छा थी जो जून 2019 में पूरी हुई। यमुनेत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के दर्शन के बाद माणा गांव जाना हुआ। 20 जून 2019 को उत्तराखंड की राज्यपाल माणा गांव आयीं थीं ऐसा वहां के लोगों ने बताया। हम लोग उनके प्रवास के तीन चार दिन बाद वहां पहुंचे। हिमालय की पहाड़ियों के बीच बसे इस गांव के चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य देखकर अदभुत आनंद मिलता है पर गांव के हालात और गांव के लोगों के हालात देखकर दुख होता है अनुसूचित जाति के बोंटिया परिवार के लोग गरीबी में गुजर बसर करते हैं पर सब स्वस्थ दिखे और ओठों पर मुस्कान मिली।

बद्रीनाथ से 4-5 किमी दूर बसे इस गांव से सरस्वती नदी निकलती है और पूरे भारत में केवल माणा गांव में ही यह नदी प्रगट रूप में है इसी नदी को पार करने के लिए  भीम ने एक भारी चट्टान को नदी के ऊपर रखा था जिसे भीमपुल कहते हैं। किवदंती है कि भीम इस चट्टान से स्वर्ग गए और द्रोपदी यहीं डूब गयीं थी।

कलकल बहती अलकनंदा नदी के इस पार माणा गांव है और उस पार आईटीबीपीटी एवं मिलिट्री का कैम्प हैं जिसकी हरे रंग की छतें माणा गांव से दिखतीं है।

माणा गांव के आगे वेदव्यास गुफा, गणेश गुफा है माना जाता है कि यहीं वेदों और उपनिषदों का लेखन कार्य हुआ था। माणा गांव के आगे सात किमी वासुधारा जलप्रपात है जिसकी एक बूंद भी जिसके ऊपर पड़ती है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। कहते हैं यहां अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी। थोड़ा आगे सतोपंथ और स्वर्ग की सीढ़ी पड़ती हैं जहां से राजा युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग गये थे।

हालांकि इस समय भारत का ये आखिरी गांव बर्फ से पूरा ढक गया होगा और बोंटिया परिवार के 300 परिवार अपने घरों में ताले लगाकर चले गए होंगे पर उनकी याद आज भी आ रही है जिन्होंने अच्छे दिन नहीं देखे पर गरीबी में भी वे मुस्कराते दिखे।।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 29 – विद्याधन ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है अतिसुन्दर  शिक्षाप्रद कविता   “विद्याधन ” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 29 ☆ 

 ☆विद्याधन

 

जगी तरण्या साधन

असे एक विद्याधन।

कण कण जमवू या

अहंकार विसरून ।

 

सारे सोडून विकार

करू गुरूचा आदर।

सान थोर चराचर।

रूपं गुरूचे सादर ।

 

चिकाटीने धावे गाडी

आळसाची कुरघोडी।

जरी जिभेवर गोडी।

बरी नसे मनी अढी।

 

घरू ज्ञानीयांचा संग

सारे होऊन निःसंग।

दंग चिंतन मननी

भरू जीवनात रंग ।

 

ग्रंथ भांडार आपार

लुटू ज्ञानाचे कोठार।

चर्चा संवाद घडता

येई विचारांना धार।

 

वृद्धी होईल वाटता

अशी ज्ञानाची शिदोरी।

नका लपवू हो  विद्या

वृत्ती असे ही अघोरी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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