मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – पंढरी माहेर . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी  एक भावप्रवण रचना “पंढरी माहेर . . . ! )

☆ विजय साहित्य – पंढरी माहेर . . . ! ☆

मुराळी होऊन

घेतसे विसावा

माये तुझ्या नेत्री

विठ्ठल दिसावा. . . . !

 

पंढरीची वारी

ऊन्हात पोळते

गालावरी माये

आसू ओघळते.. . . !

विठ्ठलाची वीट

उंबरा घराचा

ओलांडून येई

पाहुणा दारचा.

पंढरीची वारी

भेटते विठूला

आठवांची सर

आलीया भेटीला. . . . !

विठू दर्शनाची

घरा दारा आस

परी सोडवेना

प्रपंचाची कास.

पंढरीची वारी

हरीनाम घेई

माय लेकराला

दोन घास देई. . . . !

पंढरीची वारी

रिंगण घालते

माय शेतामधी

माया कालवते.. . . !

पंढरीची वारी

माऊलींच्या दारा

माय पदराचा

लेकराला वारा. . . . !

म्हणोनीया देवा

पंढरी माहेर

आसवांचे मोती

करती आहेर.

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 38 ☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी महानगरीय जीवनशैली पर विमर्श करती लघुकथा जिज्जी।  आज भी हम जीवन में ऐसे  संबंधों को निभाते हैं  जिसकी अपेक्षा अपने रिश्तेदारों से भी नहीं कर सकते हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 38 ☆

☆  लघुकथा – जिज्जी

किसी ने बडी जोर से दरवाजे भडभडाया,  ऐसा लगा जैसे कोई दरवाजा तोड ही देगा , अरे ! जिज्जी होंगी, सामने घर में रहती हैं, बुजुर्ग हैं, हमारे सुख – दुख की साथी. जब से शादी होकर आई हूँ इस मोहल्ले में माँ की तरह मेरी देखभाल करती रही हैं, सीढी नहीं चढ पातीं इसलिए नीचे खडे होकर अपनी छडी से ही दरवाजा खटखटाती हैं – सरोज बोली.  यह सुनकर मैं मुस्कुराई कि तभी आवाज आई – तुम्हारी दोस्त है तो हम नहीं मिल सकते क्या ?  हमसे मिले बिना चली जाएगी ? नहीं जिज्जी, हम उसे लेकर आपके पास  आते हैं . लाना जरूर,  यह कहकर जिज्जी छडी टेकती हुई अपने घर की ओर चल दीं. पतली गली के एक ओर सरोज और दूसरी ओर उनका घर था. दरवाजे पर खडे होकर भी आवाज दो तो सुनाई पड जाए. गली इतनी सँकरी कि  दोपहिया वाहन ही उसमें चल सकते थे. गलती  से अगर गली में गाय – भैंस आ जाए फिर तो  उसके पीछे – पीछे   गली के अंत तक जाएं या खतरा मोल लेकर उसके बगल से भी आप जा सकते हैं.

सरोज बोली – जिज्जी से मिलने तो जाना ही पडेगा,  नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी. हमें देखते ही वह खुश हो गईं,बोली – आओ बैठो,  सरोज भी बैठने ही वाली थी कि बोली- अरे तुम बैठ जाओगी तो चाय, नाश्ता कौन लाएगा ? जाओ रसोई में, हाँ  जिज्जी  कहकर वह चाय बनाने चली गई.  जिज्जी बडे स्नेह से बात करे जा रही थीं और मैं उन्हें देख रही  थी. उम्र सत्तर से अधिक ही  होगी, सफेद साडी और सूनी मांग  उनके वैधव्य के सूचक  थे. सूती साडी के पल्ले से आधा सिर ढंका था जिसमें से  सफेद घुंघराले बाल दिख रहे थे. गांधीनुमा चश्मे में से बडी – बडी आँखें झाँक रही थीं.हाथों में  चाँदी के कडे पहने थीं. झुर्रियों ने चेहेरे को और ममतामय बना  दिया था. बातों ही बातों में  जिज्जी ने बता दिया कि बेटियां अपने घर की हो गईं और बेटे अपनी बहुओं के. सरोज तब तक चाय, नाशता ले आई,उसकी ओर देखकर बोलीं- हमें अब किसी की जरूरत भी नहीं है, डिप्टी साहब ( उनके पति ) की पेंशन मिलती है और ये है ना हमारी सरोज,  एक आवाज पर  दौडकर आती है. बिटिया हमारे लिए तो आस-  पडोस ही सब कुछ है, ये लोग ना होते तो कब के मर खप गए होते.

जिज्जी, बस भी करिए अब,  बीमारी -हारी में आप ही तो रहीं हैं  हमारे साथ, मेरे बच्चे इनकी गोद में बडे हुए हैं, जगत अम्माँ हैं ये —-  सरोज और जिज्जी एक दूसरे की कुछ भी ना होकर बहुत कुछ थीं. कहने को ये दोनों पडोसी ही थीं, जिज्जी  का  स्नेहपूर्ण अधिकार और सरोज का सेवा भाव मेरे लिए अनूठा था. महानगर की फ्लैट संस्कृति में रहनेवाली  मैं  हतप्रभ थी जहाँ डोर बैल बजाने पर ही दरवाजा खुलता है नहीं तो सामने के दरवाजे पर लगी नेमप्लेट  मुँह चिढाती रहती है . दरवाजा  खुलने और बंद होने में घर के जो लोग दिख जाएं बस वही परिचय, बाकी कुछ नहीं, सब एक दूसरे से अनजान, अपरिचित. फ्लैट से निकले  अपनी गाडियों में  बैठे और  चल दिए, लौटने पर  दरवाजा खुला और फिर अगली सुबह तक के लिए बंद.

मन ही मन बहुत कुछ समेटकर जब  मैं चलने को हुई, जिज्जी छडी टेकती हुई उठीं – हमारा बटुआ लाओ सरोज, बिटिया पहली बार हमारे घर आई है,  जिज्जी  टीका करने के लिए बटुए में  नोट ढूंढने लगीं.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शब्द- दर-शब्द ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ शब्द- दर-शब्द

 

शब्दों के ढेर सरीखे,

रखे हैं काया के

कई चोले मेरे सम्मुख,

यह पहनूँ, वो उतारूँ

इसे रखूँ , उसे संवारूँ..?

 

तुम ढूँढ़ते रहना

चोले का इतिहास

या तलाशना व्याकरण,

परिभाषित करना

चाहे अनुशासित,

अपभ्रंश कहना

या परिष्कृत,

शुद्ध या सम्मिश्रित,

कितना ही घेरना

तलवार चलाना,

ख़त्म नहीं कर पाओगे

शब्दों में छिपा मेरा अस्तित्व!

 

मेरा वर्तमान चोला

खींच पाए अगर,

तब भी-

हर दूसरे शब्द में,

मैं रहूँगा..,

फिर तीसरे, चौथे,

चार सौवें, चालीस हज़ारवें

और असंख्य शब्दों में

बसकर महाकाव्य कहूँगा..,

 

हाँ, अगर कभी

प्रयत्नपूर्वक

घोंट पाए गला

मेरे शब्द का,

मत मनाना उत्सव

मत करना तुमुल निनाद,

गूँजेगा मौन मेरा

मेरे शब्दों के बाद..,

 

शापित अश्वत्थामा नहीं

शाश्वत सारस्वत हूँ मैं,

अमृत बन अनुभूति में रहूँगा

शब्द- दर-शब्द बहूँगा..,

 

मेरे शब्दों के सहारे

जब कभी मुझे

श्रद्धांजलि देना चाहोगे,

झिलमिलाने लगेंगे शब्द मेरे

आयोजन की धारा बदल देंगे,

तुम नाचोगे, हर्ष मनाओगे

भूलकर शोकसभा

मेरे नये जन्म की

बधाइयाँ गाओगे..!

 

©  संजय भारद्वाज

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 64 ☆ आज कितनी बार मरे! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक बचपन से वृद्धावस्था तक न जाने कितनी बार अनायास ही मुंह से निकल जाता है  ‘ मर गए ‘ और श्री विवेक जी ने इस रचना  “आज कितनी बार मरे!से कई स्मृतियाँ जीवित कर दीं । इस अत्यंत सार्थक आलेख के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 64 ☆

☆ आज कितनी बार मरे ☆

बचपन में बड़ी मधुरता होती है, ढेरों गलतियां माफ होती है, सब की संवेदना साथ होती है, ’अरे क्या हुआ बच्चा है’। तभी तो भगवान कृष्ण ने कन्हैया के अपने बाल रूप में खूब माखन चुरा चुरा कर खाया, गोपियों के साथ छेड़खानी की कंकडी से निशाना साधकर मटकियां तोड़ी, पर बेदाग बने रहे, बच्चे किसी के भी हो,  बड़े प्यारे लगते हैं, चूहे का नटखट, बड़े-बड़े कान वाला बच्चा हो या कुत्ते का पिल्ला प्यारा ही लगता है, शेर के बच्चे से डर नहीं लगता, और सुअर के बच्चे से घिन नहीं लगती मैंने भी बचपन में खूब बदमाशियां की है, बहनों की चोटी खींची है, फ्रिज में कागज के पुडे में रखे अंगूर एक-एक कर चट कर डाले है, और पुडा ज्यों का त्यों रखा रह जाता, जब मां पुडा खोलती तो उन्हें सिर्फ डंठल ही मिलते, छोटी बड़ी गलती पर जब भी पिटाई की नौबत आती तो, ’उई मम्मी मर गया’ की गुहार पर, मां का प्यार फूट पड़ता और मैं बच निकलता . स्कूल पहंचता, जब दोस्तों की कापियां देखता तो याद आती कि मैंने तो होमवर्क किया ही नहीं है, स्वगत अस्फुट आवाज निकल पड़ती ’मर गये’।

बचपन बीत गया नौकरी लग गई, शादी हो गई बच्चे हो गये पर यह मरने की परम्परा बकायदा कायम है, दिन में कई-कई बार मरना जैसे नियति बन गई है। जब दिन भर आफिस में सिर खपाने के बाद घर लौटने को होता हूं ,  तो घर में घुसते घुसते याद आता है कि सुबह जाते वक्त बीबी, बच्चों ने क्या फरमाईश की थी। कोई नया बहाना बनाता हूं और ’मर गये’ का स्वगत गान करता हूं, आफिस में वर्क लोड से मीटिंग की तारीख सिर पर आती है, तब ’मर गये’ का नारा लगाता हूं और इससे इतनी उर्जा मिलती है कि घण्टों का काम मिनटो में निपट जाता है, जब साली साहिबा के फोन से याद आता है कि आज मेरी शादी की सालगिरह है या बीबी का बर्थ डे है तो अपनी याददाश्त की कमजोरी पर ’मर गये’ के सिवा और कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया होती ही नहीं। परमात्मा की कृपा है कि दिन में कई कई बार मरने के बाद भी ’वन पीस’ में हट्टा कट्टा जिंदा हूं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि पूरी आत्मा साबूत है। वह कभी नहीं मरी, न ही मैंने उसे कभी मारा वरना रोजी, रोटी, नाम, काम के चक्कर में ढेरों लोगों को कुछ बोलते, कुछ सोचते, और कुछ अलग ही करते हुये, मन मारता हुआ, रोज देखता हूं . निहित स्वार्थो के लिये लोग मन, आत्मा, दिल, दिमाग सब मार रहे है। पल पल लोग, तिल तिल कर मर रहे है। चेहरे पर नकली मुस्कान लपेटे, मरे हुये, जिंदा लोग, जिंदगी ढोने पर मजबूर है। नेता अपने मतदाताओं से मुखातिब होते है, तो मुझे तो लगता है, मर मर कर अमर बने रहने की उनकी कोषिषों से हमें सीख लेनी चाहिये, जिंदगी जिंदा दिली का नाम है।

मेरा मानना है, जब भी, कोई बड़ी डील होती है, तो कोई न कोई, थोड़ी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बड़े बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बड़े बनने के, बड़े सपने सजोंये अपने जुगाड़ भिड़ाये, बार-बार मरने को, मन मारने को तैयार खड़ा है, तो आप आज कितनी बार मरे? मरो या मारो! तभी डील होंगी। देश प्रगति करेगा, हम मर कर अमर बन जायेंगे।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 36 ☆ शहादत को नमन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “शहादत को नमन.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 36 ☆

☆ शहादत को नमन ☆ 

 

जो वतन पर मिट गए

उनकी शहादत को नमन।

है नमन उनको हृदय से

कर रहे जो जागरण

 

सरहदों पर जो खड़े

प्रहरी प्रबल हिमताज से

धन्य उनको हो रहा है

खेल ये जीवन-मरण

 

प्राण देकर जो बचाते

हैं वतन की आबरू

उनकी माताओं के चरणों

में विनत श्रद्धार्पण

 

बर्फ की चादर कफन-सी

ओढ़कर चढ़ते शिखर

ऐसे वीरों की करूँ

मैं प्रार्थनाएँ संवरण

 

भूल मत जाना कभी

बलिदान यह इतिहास का

याद रखना शौर्य का

उनका प्रतापी आचरण

 

कर सको तो तुम भी करना

गर्व उनकी जीत पर

कीर्ति के जब गान से

गूँजे गगन का प्रांगण।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 27 ☆ शेयर का चक्कर  ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शेयर का चक्कर* ।  शेयर शब्द ही ऐसा है जिसमें  “अर्थ” जुड़ा है। किन्तु, शेयर का कुछ और भी अर्थ है जिसके लिए आपको यह रचना पढ़नी पड़ेगी। ।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 27☆

☆ शेयर का चक्कर

शेयर बाजार में उथल – पुथल मची ही रहती है । मंदी की मार कब किस को प्रभावित कर देगी ये कोई नहीं कह सकता । फिर भी लोग शेयर खरीदते व बेचते रहते हैं,  जिससे शेयर मार्केट का अस्तिव बना हुआ है ।

ये तो था शेयर के धन का चक्कर जिसके फेर में न जाने कितने लोग आबाद व बर्बाद होते रहते हैं । अब एक और शेयर पर  भी नजर डाल ही लीजिए,  देखिए कितनी तेजी से फेसबुक पर पोस्ट की शेयरिंग होती है । बस पोस्ट में कुछ दम होना चाहिए । जब जनमानस के कल्याण की पोस्ट हो या कुछ विशेष चर्चा हो ; तो शेयर की बाढ़ लग जाती है । और देखते ही देखते पोस्ट वायरल हो जाती है ।

मजे की बात ये है,  कि इस शेयर ने चेयर को भी नहीं छोड़ा है । आये दिन चेयर के शेयर उछाल पकड़ ही लेते हैं। जितनी मजबूत चेयर उतने ही उसके दीवाने । बस हिस्सा- बाँट की बात हो तो शेयर के कदम बढ़ ही जाते हैं । चेयर को बचाये रखना कोई मामूली कार्य नहीं होता है । जोर आजमाइश से ही इसके साथ जिया जा सकता है । सभी लोग अपने – अपने पदों को शेयर करने में लगें । ये कार्य कोई जनहित  की भावना से नहीं होता, ये तो अपना रुतबा बढ़ाने की चाहत के जोर पकड़ने से शुरू होता है,  और हिस्सा – बाँट पर ही  पूर्ण होता है ।

पहले तो शेयर करो,  का अर्थ अपनी अच्छी व उपयोगी चीजों को बाँटना होता था , पर जब से मीडिया का प्रभाव बढ़ा तब से लोगों ने इसकी अलग ही परिभाषा गढ़ ली है । अब तो कुछ भी शेयर कर देते हैं, बस लाइक और कमेंट मिलते रहना चाहिए । इस दिशा में जन सेवक तो सबसे बड़े शेयर कर्ता सिद्ध हुए वे अपनी सत्ता तक शेयर कर देते हैं ; बस चेयर बची रहे । कर्म की  पूजा का महत्व तो घटता ही जा रहा है , अब  तो शेयर देव, चेयर देव यही  आपस में उलझते हुए इधर से उधर आवागमन कर रहें हैं । नयी जगह नया सम्मान मिलता है,  सो अपने जमीर को व जनता के विश्वास को भी शेयर करने से ये नहीं चूकते बस चेयर मजबूती से पकड़े रहते हैं ।

अरे भई इतना तो सोचिए कि,  वक्त से बड़ा समीक्षक कोई नहीं होता , ये सबका लेखा जोखा रखता है । अतः सोच समझ कर ही चेयर को शेयर करें, घनचक्कर न बनें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 57 – जालसाज ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “जालसाज। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 57 ☆

☆ लघुकथा – जालसाज ☆

 

“आप को अध्यक्ष महोदय ने फोन किया था कि मेरी बेटी का चिकित्सा में प्रवेश हो जाना चाहिए. आप ने पूरी गारंटी ली और हम ने आप के कहे अनुसार काम किया. पूरा पैसा भी दिया. मगर आप ने मेरा काम नहीं किया ?” लड़की का पिता अपनी बेटी के चिकित्सा महाविद्यालय में चयन न होने पर नाराज था.

“वह तो अच्छा हुआ मुझे सदबुद्धि आ गई और मैं सरकारी गवाह बन गया, वरना तुम, तुम्हारी लड़की और अध्यक्ष महोदय भी मेरे साथ जेल में होते या फिर मेरा भी रामनाम सत्य हो गया होता.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

१७/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – कविता ☆ सुजित साहित्य – कॅनव्हास ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “कॅनव्हास”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆  सुजित साहित्य  –  कॅनव्हास ☆ 

मी कॅनव्हास वर अनेक सुंदर

चित्र काढतो….

त्या चित्रात. . मला हवे तसे

सारेच रंग भरतो…

लाल,हिरवा,पिवळा, निळा

अगदी . . मोरपंखी नारंगी सुध्दा

आणि तरीही

ती.. चित्र तिला नेहमीच अपूर्ण वाटतात…

मी तिला म्हणतो असं का..?

ती म्हणते…,

तू तुझ्या चित्रांमध्ये..

तुला आवडणारे रंग सोडून,

चित्रांना आवडणारे रंग

भरायला शिकलास ना. .

की..,तुझी प्रत्येक चित्रं तुझ्याही

नकळत कँनव्हास वर

श्वास घ्यायला लागतील…

आणि तेव्हा . . .

तुझं कोणतही चित्र

अपूर्ण राहणार नाही…!

 

© सुजित शिवाजी कदम

दिनांक  5/3/2019

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 56 – हम बारिश बन जाएं…. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक विचारणीय भावप्रवण कविता  हम बारिश बन जाएं….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 56 ☆

☆  हम बारिश बन जाएं…. ☆  

 

आओ!

हम बारिश बन जाएं

धरकर रूप बादलों का

फिर समूचे अंबर में छा जाएं।

 

सूरज से, आशीषें  लेकर

पवन देव से हाथ मिलाएं

मौसम से मनुहार,प्यार से

मैत्री भाव, आश्वस्ति पाएं,

 

जल के स्वामी वरुण देवता

से फिर अपनी  प्रीत बढ़ाएं।

आओ हम बारिश बन जाएं।।

 

बरसें, पहले  जहाँ  प्यास है

जल बिन जनजीवन उदास है

पक्षपात से पीड़ित अब तक

पहुंचें,  उनके आसपास है,

 

जहां पड़ा सूखा अकाल है

वहाँ हवा हमको पहुंचाए।

आओ हम बारिश बन जाएं।।

 

नहीं बाढ़ ना अतिवृष्टि हो

बंटवारे  में  सम दृष्टि हो

नहीं शिकायत रहे किसी को

आनंदित यह सकल सृष्टि हो,

 

वन उपवन फसलें सब सरसे

हरसे  धरा  तृप्त  हो  जाए।

आओ हम बारिश बन जाएं।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

07/06/2020

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 58 – गावाकडची कविता….. ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनके ही गांव पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता कविता गावाकडची कविता…..। सुश्री प्रभा जी की यह रचना  उनके गांव का सजीव चित्रण है। काश हमारे सभी गांव इसी तरह हरित एवं श्वेत क्रांति के प्रतीक होते तो हमारा देश कितना सुन्दर देश होता ? सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित  इस भावप्रवण रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 58 ☆

☆ गावाकडची कविता….. ☆

(राहू हे आमचं गाव. दौंड तालुक्यातील….)

 

नदीकाठावर वसले आहे  आमचे राहू

मिडीयाला ही दिसले आहे  आमचे राहू

 

असे थोरांचे अन मोरांचे कोण कोणाचे

दलदली मध्ये फसले आहे  आमचे राहू

 

महादेवाचे,शिवशंभोचे ,गाव ऊसाचे

हरितक्रांतीने हसले आहे आमचे राहू

 

धवलक्रांती ही घडते,हे तर क्षेत्र दूधाचे

मनी लोकांच्या ठसले आहे आमचे राहू

 

इथे रानातच सळसळ चाले सर्प-नागांची

कुठे कोणाला डसले आहे आमचे राहू

 

‘प्रभा ‘त्याच्या ही स्वप्नी सजते पीक सोन्याचे

बळीराजाने कसले आहे  आमचे राहू

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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