मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे – कोरोनाचा पोवाडा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी  की कोरोना विषाणु  पर  एक समसामयिक रचना  “कोरोनाचा पोवाडा ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे ☆

☆ कोरोनाचा पोवाडा ☆ 

 

अहो पहा भय़ंकर हा कोरोना !

याने जगाची केली कशी दैना !

म्हणे चीनने पाठवला नमुना !!१!!

 

कोरोनाचा विषाणु जबरदस्त!

वरुन काटेदार आतून चुस्त !

जाऊन बसतो आधी घशात !

तिथून घुसतो मग फुफ्फुसात !

नंतर घालतो धिंगाणा शरीरात !!२!

 

सोडले नाही पंतप्रधान ब्रिटन!

सौदीच्या दीडशे राजपुत्रांना  लागण !

गावेच्या गावे झाली बंदीवान !

असा हा कोरोना आहे भयाण!

रहा घरात शासनाचं आवाहन!

आम्ही सर्व घरातच राहून !

करु यशस्वी लोकडाऊन !!३!!

 

आम्ही आहोत सारे बलवान !

कोरोनाशी दोन हात करुन !

देऊ त्याला लौकर घालवून !

देऊ त्याला लौकर घालवून …

नक्की घालवून..

होऽऽऽ जी..जी…जी…जी.जी.ऽऽऽ..

 

©️®️ उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-१४-४-२०

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 3 ☆ जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ ☆ डॉ निधि जैन

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक कविता  “जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 3 ☆

☆ जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ☆

 

जरा सा दूर हो जाओ,  कोरोना वायरस से बच जाओ,

न किसी के घर जाओ, ना किसी को घर बुलाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

न दोस्तों से मिलो, पर दोस्ती निभाओ, दूर रह कर प्यार को  निभाओ,  किसी के घर मत  जाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

मौसम की मार हो या बारिश की फुहार , धूप या सूरज का खुमार, जहाँ हो,  जैसे हो, वहाँ, वैसे ही खुशी मनाओ,

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

कल मिलना आज रूठना, कल रूठना आज मिलना,

तुमसे मिलना ज़रूरी नहीं, तुम्हारा होना ज़रूरी है, फिर से तुम मिल जाओ, कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

रिश्तों पर संवेदनशील हो जाओ, सबकी जान की कीमत अपने जैसे  लगाओ l

कोरोना वायरस से बच  जाओ l

 

भगवान के मंदिर के दरवाजे बंद हो गए, गरीबों  में  भगवान का रूप देख आओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

गुरुद्वारों के लंगर उठ जायें , भूखों का पेट भरने के लिए दान दे आओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

आँखे बेहाल थमीं हुई सी ज़िन्दगी,  कोरोना का कहर चारों ओर,  जानें  बेहाल हैं कहती हैं  बचाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

आसमान मे पंछी उड़ते, इंसानो की आजादी का सवाल है, जानवरों और प्रकृति के प्रकोप को समझो ओर समझाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

सबके  रक्त का रंग एक है, मौत का डर भी सबका एक है, भेद भाव  छोड़ कर मानवता को बचाओ l

कोरोना वायरस से बच जाओ l

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 42 ☆ कितना बदल गया इंसान ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  दो जमानों को जोड़ती और विश्लेषित करती एक  लघुकथा   “कितना बदल गया इंसान” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की  रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 42

☆ लघुकथा – कितना बदल गया इंसान ☆ 

गांव का खपरैल स्कूल है ,सभी बच्चे टाटपट्टी बिछा कर पढ़ने बैठते हैं।  फर्श गोबर से बच्चे लीप लेते हैं,  फिर सूख जाने पर टाट पट्टी बिछा के पढ़ने बैठ जाते हैं।  मास्टर जी छड़ी रखते हैं और टूटी कुर्सी में बैठ कर खैनी से तम्बाकू में चूना रगड़ रगड़ के नाक मे ऊंगली डालके छींक मारते हैं, फिर फटे झोले से सलेट निकाल लेते हैं। बड़े पंडित जी जैसई पंहुचे सब बच्चे खड़े होकर पंडित जी को प्रणाम करते हैं।  हम सब ये सब कुछ दूर से खड़े खड़े देख रहे हैं। पिता जी हाथ पकड़ के बड़े पंडित जी के सामने ले जाते हैं ,पहली कक्षा में नाम लिखाने पिताजी हमें लाए हैं अम्मा ने आते समय कहा उमर पांच साल बताना ,  सो हमने कह दिया  पांच साल………….बड़े पंडित जी कड़क स्वाभाव के हैं पिता जी उनको दुर्गा पंडित जी कहते हैं । दुर्गा पंडित जी ने बोला पांच साल में तो नाम नहीं लिखेंगे।  फिर उन्होंने सिर के उपर से हाथ डालकर उल्टा कान पकड़ने को कहा  कान पकड़ में नहीं आया।  तो कहने लगे हमारा उसूल है कि हम सात साल में ही नाम लिखते हैं।  सो दो साल बढ़ा के नाम लिख दिया गया।  पहले दिन स्कूल देर से पहुंचे तो घुटने टिका दिया गया।  सलेट नहीं लाए तो गुड्डी तनवा दी, गुड्डी तने देर हुई तो नाक टपकी, मास्टर जी ने खैनी निकाल कर चैतन्य चूर्ण दबाई फिर छड़ी की ओर और हमारी ओर देखा बस यहीं से जीवन अच्छे रास्ते पर चल पड़ा।  अपने आप चली आयी नियमितता, अनुशासन की लहर, पढ़ने का जुनून, कुछ बन जाने की ललक। पहले दिन गांधी को पढ़ा। कई दिन बाद परसाई जी का “टार्च बेचने वाला” पढ़ा,  फिर पढ़ते रहे और पढ़ते ही गए ………

गांव के उसी स्कूल की खबरें अखबारों में अक्सर पढने मिलती हैं कि

“मास्टर जी ने बच्चे का कान पकड़ लिया तो हंगामा हो गया ….. स्कूल का बालक मेडम को लेकर भाग गया………. स्कूल के दो बच्चों के बीच झगड़े में छुरा चला”

आज के अखबार में उसी स्कूल की ताजी खबर ये है कि स्कूल के मास्टर ने कोरोना वायरस के कारण बंद स्कूल के क्लासरूम में ग्यारहवीं में पढ़ने वाली छात्रा की इज्जत लूटी और लाॅक डाऊन का उल्लंघन किया…….

अखबार को दोष दें या ऐन वक्त पर कोरोना को दोष दें या अपने आप को दोष दें कि ऐसे समाचार रुचि लेकर हर व्यक्ति क्यों पढ़ता है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 43 – वाचन संस्कृती ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपकी एक अत्यंत शिक्षाप्रद एवं प्रेरक कविता ” वाचन संस्कृती”।  आज वास्तविकता यह है  कि वाचन संस्कृति रही ही नहीं । न पहले जैसे पुस्तकालय रहे  न पुस्तकें और न ही पढ़ने वाले।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 43 ☆

☆ वाचन संस्कृती ☆

 

वाचन संस्कृती । बाणा नित्य नेमे । आचरावी प्रेमे । जीवनात ।1।

 

संपन्न जीवना । ज्ञान एक धन । सुसंस्कृत मन । वाचनाने ।2।

 

शब्दांचे भांडार । समृद्धी अपार । चढतसे धार । बुद्धीलागी ।3।

 

मधुमक्षी परी । वेचा ज्ञान बिंदू । जीवनाचा सिंधू । होई पार ।4।

 

अज्ञान अंधारी । लावा ज्ञान ज्योती । वाचन संस्कृती । तरणोपाय ।5।

 

ज्ञानाची संपत्ती । लूटू वारेमाप । चातुर्य अमाप । गवसेल ।6।

 

वाचा आणि वाचा । ध्यानी ठेवा मंत्र । व्यासंगाचे तंत्र । फलदायी ।7।

 

जपा जिवापाड । वाचन संस्कृती । नुरेल विकृती । जीवनात ।8।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #45 ☆ दान : दर्शन और प्रदर्शन (कोरोनावायरस और हम – 7) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – दान : दर्शन और प्रदर्शन  ☆

(कोरोनावायरस और हम, भाग-7)

कोरोना वायरस से उपजे कोविड-19 से भारत प्रशासनिक स्तर पर अभूतपूर्व रूप से जूझ रहा है। प्रशासन के साथ-साथ आम आदमी भी अपने स्तर पर अपना योगदान देने का प्रयास कर रहा है। योगदान शब्द के अंतिम दो वर्णो पर विचार करें। ‘दान’अर्थात देने का भाव।

भारतीय संस्कृति में दान का संस्कार आरंभ से रहा है। महर्षि दधीचि, राजा शिवि जैसे दान देने की अनन्य परंपरा के असंख्य वाहक हुए हैं।

हिंदू शास्त्रों ने दान के तीन प्रकार बताये हैं, सात्विक, राजसी और तामसी। इन्हें क्रमशः श्रेष्ठ, मध्यम और अधम भी कहा जाता है। केवल दिखावे या प्रदर्शन मात्र के लिए किया गया दान तामसी होता है। विनिमय की इच्छा से अर्थात बदले में कुछ प्राप्त करने की तृष्णा से किया गया दान राजसी कहलाता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया दान सात्विक होता है। सात्विक में आदान-प्रदान नहीं होता, किसी भी वस्तु या भाव के बदले में कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती।

हमारे पूर्वज कहते थे कि दान देना हो तो इतना गुप्त रखो कि एक हाथ का दिया, दूसरे हाथ को भी मालूम ना चले। आज स्थितियाँ इससे ठीक विपरीत हैं। हम करते हैं तिल भर, दिखाना चाहते हैं ताड़ जैसा।

सनातन दर्शन ने कहा, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, अर्थात स्वयं में अंतर्निहित ब्रह्म को देखो ताकि सूक्ष्म में विराजमान विराट के समक्ष स्थूल की नगण्यता का भान रहे। स्थूल ने स्वार्थ और अहंकार को साथ लिया और ‘मैं’ या ‘सेल्फ’ को सर्वोच्च घोषित करने की कुचेष्टा करने लगा। ‘सेल्फ’ तक सीमित रहने का स्वार्थ ‘सेल्फी कल्चर’ तक पहुँचा और मनुष्य पूरी तरह ‘सेल्फिश’ होता गया।

लॉकडाउन के समय में प्राय: पढ़ने, सुनने और देखने में आ रहा है कि किसी असहाय को भोजन का पैकेट देते समय भी सेल्फी लेने के अहंकार, प्रदर्शन और पाखंड से व्यक्ति मुक्त  नहीं हो पाता। दानवीरों (!) की ऐसी तस्वीरों से सोशल मीडिया पटा पड़ा है। इसी परिप्रेक्ष्य में एक कथन पढ़ने को मिला,..”अपनी गरीबी के चलते मैं तो आपसे खाने का पैकेट लेने को विवश हूँ  लेकिन आप किस कारण मेरे साथ फोटो खिंचवाने को विवश हैं?”

प्रदर्शन की इस मारक विवशता की तुलना रहीम के दर्शन की अनुकरणीय विवशता से कीजिए। अब्दुलरहीम,अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे परम दानी थे। कहा जाता है कि दान देते समय वे अपनी आँखें सदैव नीची रखते थे। इस कारण अनेक लोग दो या तीन या उससे अधिक बार भी दान ले जाते थे। किसी ने रहीम जी के संज्ञान में इस बात को रखा और आँखें नीचे रखने का कारण भी पूछा। रहीम जी ने उत्तर दिया, “देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन।लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥”

विनय से झुके नैनों की जगह अब प्रदर्शन और अहंकार से उठी आँखों ने ले ली है। ये आँखें  वितृष्णा उत्पन्न करती हैं। इनकी दृष्टि दान का वास्तविक अर्थ समझने की क्षमता ही नहीं रखतीं।

दान का अर्थ केवल वित्त का दान नहीं होता। जिसके पास जो हो, वह दे सकता है। दान ज्ञान का, दान सेवा का, दान संपदा का, दान रोटी का, दान धन का, दान परामर्श का, दान मार्गदर्शन का।

दान, मनुष्य जाति का दर्शन है, प्रदर्शन नहीं। मनुष्य को लौटना होगा दान के मूल भाव और सहयोग के स्वभाव पर। वापसी की इस यात्रा में उसे प्रकृति को अपना गुरु बनाना चाहिए।

प्रकृति अपना सब कुछ लुटा रही है, नि:स्वार्थ दान कर रही है। मनुष्य देह प्रकृति के पंचतत्वों से बनी है। यदि प्रकृति ने इन पंचतत्वों का दान नहीं किया होता तो तुम प्रकृति का घटक कैसे बनते?

और वैसे भी है क्या तुम्हारे पास देने जैसा? जो उससे मिला, उसको अर्पित। था भी उसका, है भी उसका। तुम दानदाता कैसे हुए? सत्य तो यह है कि तुम दान के निमित्त हो।

नीति कहती है, जब आपदा हो तो अपना सर्वस्व अर्पित करो। कलयुग में सर्वस्व नहीं, यथाशक्ति तो अर्पित करो। देने के अपने कर्तव्य की पूर्ति करो। कर्तव्य की पूर्ति करना ही धर्म है।

स्मरण रहे, संसार में तुम्हारा जन्म धर्मार्थ हुआ है।… और यह भी स्मरण रहे कि ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’

*’पीएम केअर्स’ में यथाशक्ति दान करें। कोविड-19 से संघर्ष में सहायक बनें।*

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 11.09 बजे, 11.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 45 ☆ लघुकथा – आचार्य का हृदय-परिवर्तन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है लघुकथा  ‘आचार्य का हृदय-परिवर्तन ’। डॉ परिहार जी ने प्रत्येक चरित्र को इतनी खूबसूरती से शब्दांकित किया है कि हमें लगने लगता  है जैसे हम भी पूरे कथानक में  कहीं न कहीं मूक दर्शक बने खड़े हैं। ऐसी अतिसुन्दर लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 45 ☆

☆ लघुकथा – आचार्य का हृदय-परिवर्तन ☆

 

हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान, भाषा-शास्त्र में डी.लिट.,आचार्य रसेन्द्र झा मेरे शहर में एक शोध-छात्र का ‘वायवा’ लेने पधारे थे। पता चला कि वे मेरे गुरू डा. प्रसाद के घर रुके थे जो उस छात्र के ‘गाइड’ थे। उनकी विद्वत्ता की चर्चा से अभिभूत मैं उनके दर्शनार्थ सबेरे सबेरे डा. प्रसाद के घर पहुँचा। देखा तो आचार्य जी गुरूजी के साथ बैठक में नाश्ता कर रहे थे।

मैं आचार्य जी और गुरूजी को प्रणाम करके बैठ गया। गुरूजी ने आचार्य जी को मेरा परिचय दिया।कहा, ‘यह मेरा शिष्य है। बहुत कुशाग्र है। इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है।’

आचार्य जी ने उदासीनता से सिर हिलाया, कहा, ‘अच्छा, अच्छा।’

मैंने कहा, ‘आचार्य जी, आपकी विद्वत्ता की चर्चा बहुत सुनी थी। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी, इसी लिए चला आया।’

आचार्य जी ने जमुहाई ली,फिर कहा, ‘ठीक है।’

इसके बाद वे डा. प्रसाद की तरफ मुड़कर अपने दिन के कार्यक्रम की चर्चा करने लगे। मेरी उपस्थिति की तरफ से वे जैसे बिलकुल उदासीन हो गये। मुझे बैठे बैठे संकोच का अनुभव होने लगा।

बात चलते चलते उनके यूनिवर्सिटी के टी.ए.बिल पर आ गयी।

डा. प्रसाद ने मेरी तरफ उँगली उठा दी। कहा, ‘यह सब काम देवेन्द्र करेगा। यह टी.ए.बिल निकलवाने से लेकर सभी कामों में निष्णात है। आप देखिएगा कि आपका भुगतान कराने से लेकर आपको ट्रेन में बैठाने तक का काम किस कुशलता से करता है।’

आचार्य जी का मुख मेरी तरफ घूम गया। अब उनके चेहरे पर मेरे लिए असीम प्रेम का भाव था। उदासीनता और अजनबीपन के सारे पर्दे एक क्षण में गिर गये थे और वे बड़ी आत्मीयता से मेरी तरफ देख रहे थे।

उन्होंने अपनी दाहिनी भुजा मेरी ओर उठायी और प्रेमसिक्त स्वर में कहा, ‘अरे वाह! इतनी दूर क्यों बैठे हो बेटे? इधर आकर मेरी बगल में बैठो।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 29 – दाना – पानी ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री जीवन के कटु सत्य को उजागर कराती एक सार्थक रचना ‘दाना – पानी। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 29 – विशाखा की नज़र से

☆ दाना – पानी ☆

नित रखती हूँ परिंदों के लिए दाना – पानी

वो करते हैं मेरी आवाजाही पर निगरानी

मैं रखती हूँ दाना

 

निकलती हूँ घर से , जुटाने दाना – पानी

दिखतें है कई बाजनुमा शिकारी

वो भी रखतें है मेरी आवाजाही पर निगरानी

मैं बन जाती हूँ दाना और

लोलुप जीभ का पानी

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 2 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

 ☆ Anonymous Litterateur of Social  Media # 2/ सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 2☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का अंग्रेजी भावानुवाद  किया है।  इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

ज़रा सी कैद से ही

घुटन होने  लगी…

तुम तो पंछी पालने

के  बड़े  शौक़ीन थे…

 

Just a little bit of confinement

Made you feel so suffocated

 But keeping the birds caged

 You were so very fond of…!

§

अधूरी कहानी पर ख़ामोश

लबों का पहरा है

चोट रूह की है इसलिए

दर्द ज़रा गहरा है….

 

 Silent lips are the sentinels

 Of  the  unfulfilled fairytale…

 Wound is of the spirited soul

 So the pain is rather intense….

§

हंसते हुए चेहरों को गमों से

आजाद ना समझो साहिब

मुस्कुराहट की पनाहों में भी

हजारों  दर्द  छुपे होते  हैं…

 

O’ Dear, Don’t even consider that

Laughing faces are free of sorrow

Innumerable  pains are  hidden

Even behind the walls of a smile…

§

चुपचाप चल रहे थे

ज़िन्दगी के सफर में

तुम पर नज़र क्या पड़ी

बस  गुमराह  हो  गए…

 

  Was walking peacefully

  In  the  journey of the life

  Just casting a glance on you

  Made my journey go astray…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 3 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना  ” दोहा सलिला”। )

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 3 ☆ 

☆  दोहा सलिला ☆ 

(व्यंजनाप्रधान)

केवल माया जाल है, जग जीवन जंजाल

घर तज बाहर घूमिए, मुक्ति मिले तत्काल

 

अगर कुशल से बैर है, नहीं चाहिए क्षेम

कोरोना से गले मिल, बनिए फोटो फ्रेम

 

मरघट में घट बन टँगें, तुरत अगर है चाह

जाएँ आप विदेश झट, स्वजन भरेंगे आह

 

कफ़न दफ़न की आरज़ू, पूरी करे तुरंत

कोविद दीनदयाल है, करता जीवन अंत

 

ओवरटाइम कर चुके, थक सारे यमदूत

मिले नहीं अवकाश है, बाकी काम अकूत

 

बाहर जा घर आइए, सबका जीवन अंत

साथ-साथ हो सकेगा, कहता कोविद कंत

 

यायावर बन घूमिए, भला करेंगे राम

राम-धाम पाएँ तुरत, तजकर यह भूधाम

 

स्वागत है व्ही आइ पी, सबसे पहले भेंट

कोरोना से कीजिए, रीते जीवन टेंट

 

जिनको प्रभु पर भरोसा, वे परखें तत्काल

कोरोना खुशहाल को, कर देगा बदहाल

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२१-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 6 ☆ लक्ष्मणरेषा ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है । आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक एवं शिक्षाप्रद कविता “लक्ष्मणरेषा“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 6 ☆

☆ कविता – लक्ष्मणरेषा

लक्ष्मणाने आखलेली लक्ष्मणरेषा

नाही पाळली सीतेने, म्हणून तिला

पळवून नेली रावणाने

अडविले प्रयत्नपुर्वक जटायुने

विलगीकरणात बसविले

लंकेच्या अशोक वाटिकेने

शोधुन काढले हनुमानाने

सेतू पार केला सुग्रीवसेनेने

रावणाला मारून सोडविले रामलक्ष्मणाने

खरं सांगा, नकोच पार करायला होती नं,

लक्ष्मणरेषा सीतेने……..

 

ललकारले त्वेषात सुग्रीवाने

रोखले गुहेतच पत्नी ताराने

न ऐकता वाली बाहेर आला

अतिशय रागारागाने

शक्तीमान असुनही

विनाकारण मारल्या गेला

केवळ बाहेर आल्याने

खरं सांगा,नकोच बाहेर यायला

पाहिजे होते नं

वाली राजाने………

 

लंकेत सुखी होता रावण

त्याला उचकविले शुर्पनखेने

समज दिली बिभिषनाने

परोपरीने समजाविले मंदोदरीने

नका लंकेबाहेर जाऊ राजन

सीता प्रलोभणाने

पण कुणाचेही न ऐकता

रावण लंकेबाहेर गेला हेक्याने

शेवटी,युद्धात मारला गेला

बंधू पुत्रासह अती गर्वाने

खरं सांगा, नकोच बाहेर जायला पाहिजे होते नं

सीताहरणासाठी रावणाने……….

 

म्हणून सांगतो महिला पुरूषांनो

घरातच राहिले पाहिजे सुखाने

घराची लक्ष्मणरेषा ओलांडून

बाहेर जाऊ नका हेक्याने

नाहीतर कोरोनामुळे विनाकारण बळी जाल धोक्याने..,………

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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