हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ स्त्री ब्रेल लिपि नहीं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “स्त्री ब्रेल लिपि नहीं”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख जहाँ एक ओर स्त्री शक्ति की असीम  शक्तिशाली कल्पनाओं पर विमर्श करता है वहीँ दूसरी ओर पुरुषों को सचेत करता है कि स्त्री ब्रेल लिपि नहीं, जिसे स्पर्श द्वारा समझा जा सकता है। डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆

☆ स्त्री ब्रेल लिपि नहीं

सृष्टि की सुंदर व सर्वश्रेष्ठ रचना स्त्री, जिसे परमात्मा ने पूरे मनोयोग से बनाया… उसे सृष्टि रचना का दायित्व सौंपा तथा शिशु की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम बनाया। भ्रूण रूप में नौ माह तक उसकी रक्षा व पालन-पोषण एक अजूबे से कम नहीं है। शिशु के जन्म के पश्चात् मां के अमृत समान दूध की संकल्पना भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। मां का शिशु की गतिविधियों को देखकर, उसकी आवश्यकता व सुख-दु:ख की अनुभूति करना,उसकी की सुख-सुविधा के निमित्त स्वयं गीले में सोना व   उसे सूखे में सुलाना…उसे बोलना, चलना, पढ़ना- लिखना सिखलाना व  सुसंस्कारित करना…वास्तव में श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है, अद्वितीय है, बेमिसाल है, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। हां! इसके एवज़ में उसे प्राप्त होता है मातृत्व सुख जो किसी दिव्य व अलौकिक आनंद से कम नहीं है।
जयशंकर प्रसाद जी की कामायनी में मनु व श्रद्धा को सृष्टि-रचयिता स्वीकारा गया है…इस संदर्भ में अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। प्रलय के पश्चात् मनु व श्रद्धा का मिलन, एक-दूसरे के प्रति आकर्षण, वियोगावस्था में मनु व इड़ा का प्रेम व मिलन मानव को जन्म देता है और वे दोनों संसार रूपी सागर में डूबते-उतराते रहते हैं। अंत में इड़ा का मानव को सम्पूर्ण मानव बनाने के लिए श्रद्धा के पास ले जाना और उसे तीनों लोकों निर्वेद, दर्शन, रहस्य की यात्रा करवा कर जीने का सही अंदाज़ सिखलाना अलौकिक आनंद की प्रतीति कराता है, जो वास्तव में श्लाघनीय है, मननीय है। जीवन में सामंस्यता प्राप्त करने के लिए, जिस कर्म को आप करने जा रहे हैं, उसके बारे में पूरी जानकारी होना आवश्यक है, अन्यथा आप द्वारा किये गये कार्य से आपकी इच्छा कभी पूर्ण नहीं हो पाएगी…आपकी भटकन कभी समाप्त नहीं होगी और जीवन में समरसता नहीं आ पाएगी। कामायनी का जीवन-दर्शन मानवतावादी है और समरसता…आनंदोपलब्धि का प्रतीक है।
मुझे स्मरण हो रहा है वह उद्धरण… जब मानव को परमात्मा ने सृष्टि में जाने का फरमॉन सुनाया, तो उसने प्रश्न किया कि वे उसे अपने से दूर क्यों कर हैं…वहां उसका ख्याल कौन रखेगा? वह किसके सहारे ज़िंदा रहेगा? इस पर प्रभु ने उसे  समझाया कि मैं…. मां अथवा जननी  के रूप में सदैव तुम्हारे साथ रहूंगा अर्थात् संसार में मां से बढ़कर दूसरा कोई हितैषी नहीं और वह तुम्हें स्वयं से बढ़ कर प्यार करेगी… तुम्हारी अच्छे ढंग से परवरिश करेगी…तुम्हें किसी प्रकार का अभाव अनुभव नहीं होने देगी। सो!  सृष्टि-नियंता ने स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे का पूरक बनाया है… एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है, अधूरा है। वे गाड़ी के दो पहियों के समान हैं और उनका चोली-दामन का साथ है। इसमें जीवन का सार छिपा है कि मानव को पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे के सुख-दु:ख में साथ देना चाहिए… इसके लिए उन्होंने विवाह की व्यवस्था निर्धारित की, ताकि मानव मर्यादा में रहकर, घर-परिवार व समाज में स्नेह व सौहार्द उत्पन्न करे तथा अपने दायित्वों का बखूबी वहन करें। वास्तव में एक के अधिकार दूसरे के कर्त्तव्य होते हैं और कर्त्तव्यों की अनुपालना से, दूसरे के अधिकारों की रक्षा संभव है। दूसरे शब्दों में इसमें छिपा है… त्याग व समर्पण का भाव, जो पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द का मूल है।
 परंतु आधुनिक युग में प्रेम, सौहार्द, सहनशीलता, त्याग, सहानुभूति व समर्पण आदि दैवीय भाव गुज़रे ज़माने की बातें लगती हैं…इनका सर्वथा अभाव है। रिश्तों की अहमियत रही नहीं और कोई भी संबंध पावन नहीं रहा। चारों ओर आपाधापी का वातावरण है और विश्वास का भाव नदारद है। हर इंसान स्वार्थ- पूर्ति और अधिकाधिक धन कमाने के लिये दूसरे को रौंदने व किसी के प्राण लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता। वह मर्यादा व समस्त निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण कर गुज़रता है। जहां तक स्त्री का संबंध है, वह तो हजारों वर्ष से दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है…हाड़-मांस की प्रतिमा, जिसके साथ पुरूष मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। वर्षों पूर्व उसे पांव की जूती स्वीकारा जाता था,जिसका कारण  था….उसे मंदबुद्धि अथवा बुद्धिहीन स्वीकारना।आज भी कहां अहमियत दी जाती है उसे…आज भी हर उस अपराध के लिए भी वह ही दोषी ठहरायी जाती है, जो उसने किया ही नहीं।
सो! अहंनिष्ठ पुरुष उसे मात्र वस्तु समझ, उस पर कभी भी, कहीं भी निशाना साध सकता है। अपनी वासना-पूर्ति के लिए उसका अपहरण कर, उसका शील-हरण कर सकता है, उससे दरिंदगी कर सबूत मिटाने के लिए उसके चेहरे पर पत्थरों से प्रहार  कर, उसके टुकड़े-टुकड़े कर, दूरस्थ किसी नाले या गटर में फेंक सकता है। आजकल एकतरफ़ा प्यार में  तेज़ाब का प्रयोग, उसे ज़िंदा जलाने में अक्सर किया जाने लगा है। हर दिन ऐसे हादसे सामने आ रहे हैं। उदाहरणत: हैदराबाद की प्रियंका, उन्नाव की दुष्कर्म पीड़िता, जिस पर रायबरेली जाते समय ज्वलनशील पदार्थ उंडेल दिया गया। बक्सर में भी ऐसे ही हादसे को अंजाम दिया गया। चार दिन में तीन निर्दोष युवतियां  उन सिरफिरों के वहशीपन का शिकार हुयीं और तीनों  इस जहान से रुख़्सत हो गयीं…. परंतु वे अपने पीछे अनगिनत प्रश्न छोड़ गयीं। आखिर कब तक चलता रहेगा यह सिलसिला? ऐसे जघन्य अपराधी कब तक छूटते रहेंगे और ऐसे हादसों को पुन:अंजाम देते रहेंगे?
प्रश्न उठता है, जिस पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है…’ स्त्री कोई ब्रेल लिपि  नहीं, जिसे समझने के लिए स्पर्श की ज़रूरत पड़े। स्त्री तो संकेतिक भाषा है, जिसे समझने के लिए संवेदनाओं की ज़रूरत है। वह स्वभाव से ही छुई-मुई व कोमल  है, समझने के लिए स्पर्श की आवश्यकता नहीं है। वह तो छूने-मात्र से संकोच का अनुभव करती है,पल भर मुरझा जाती है। वह दया, करूणा व ममता का अथाह सागर है… जीवन-संगिनी है, हमसफ़र है, त्याग की प्रतिमा है और सेवा व समर्पण उसके मुख्य गुण हैं। बचपन से वृद्धावस्था तक वह दूसरों के लिए जीती है तथा उनकी खुशियों में अपना संसार देखती है…बलिहारी जाती है। बचपन में भाई-बहनों पर स्नेह लुटाती, घर के कामों में माता का हाथ बंटाती, भाई व पिता के सुरक्षा-दायरे में कब बड़ी हो जाती… जिसके उपरांत पिता के घर से विदा कर दी जाती है, जहां उसे पति व परिवारजनों की खुशी व सबकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए अपने अरमानों का गला घोंटना पड़ता है। वह ता-उम्र अपने बच्चों के लिए पल-पल जीती, पल-पल मरती है और पति के हाथों हर दिन तिरस्कृत प्रताड़ित होती अपना जीवन बसर करती है…वृद्धावस्था में सब की उपेक्षा के दंश झेलती एक दिन दुनिया को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती है।
यह है औरत की कहानी… परंतु आजकल 85% बालिकाएं अपनों द्वारा छली जाती हैं और उनकी गलत आदतों का शिकार होती हैं। बड़े होने पर मनचलों द्वारा उन्हें बीच राह रोक कर फब्तियां कसना, बसों आदि में गलत इशारे करना,उनके शरीर का स्पर्श करना, बेहूदगी करना, व्यंग्य-बाण चलाना … उनके विरोध करने पर अंजाम भुगतने को तैयार रहने की धमकी देना, उन्हें बीच बाज़ार बेइज़्ज़त व बेआबरू करना, सरे-आम अपहरण कर निर्जन स्थान पर ले जाकर उससे दुष्कर्म करना आदि आजकल सामान्य सी बात हो गई है। इसके साथ उनके साथ होने वाले भीषण व जघन्य हादसों का चित्रण हम पहले ही कर चुके हैं।
काश! हम बच्चों को अच्छे संस्कार दे पाते… प्रारंभ से बेटी-बेटे में अंतर न करते हुए, बेटों को अहमियत न देते, उन्हें बहन-बेटी के सम्मान करने का संदेश देते, आपदाग्रस्त हर व्यक्ति की सहायता करने का मानवतावादी पाठ पढ़ाते, रिश्तों की अहमियत समझाते, तो वे सामान्य इंसान बनते, जिनमें लेशमात्र भी अहंनिष्ठता का भाव नहीं  होता। उनका गृहस्थ जीवन सुखी होता। तलाक अर्थात् अवसाद के किस्से आम नहीं होते। हर तीसरे घर में तलाकशुदा लड़की माता-पिता के घर में बैठी दिखलायी न पड़ती। आज कल तो युवा पीढ़ी विवाह रूपी बंधन को नकारने लगी है और समाज में ‘तू नहीं और सही’ का प्रचलन बढ़ने लगा है, जिसका मुख्य कारण है…अहंनिष्ठता व सर्वश्रेष्ठता का भाव होना,भारतीय संस्कृति की अवहेलना करना व मानव-मूल्यों को नकारना।
वास्तव में अहं ही संघर्ष का मूल है, जिसके कारण दोनों ही समझौता नहीं करना चाहते और परिवार टूटने के कग़ार पर पहुंच जाते हैं। जीवन रूपी गाड़ी को सुचारू रूप से चलाने के लिए समर्पण व त्याग की आवश्यकता है। शायद! इसीलिए स्त्री को सांकेतिक भाषा की संज्ञा से अभिहित किया गया है… जैसे वह  बच्चे के मनोभावों व संकेतों को समझ, उसकी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करती है, वैसे ही उसे भी अपेक्षा रहती है कि कोई उसे समझे, जीवन में अहमियत दे और उसके अहसासों व जज़्बातों को अनुभव करे। वह अपनत्व चाहती है तथा उसे दरक़ार रहती है कि कोई उसकी भावनाओं की कद्र करे। वह केवल स्नेह की अपेक्षा करती है, जिसे पाने के लिए वह सर्वस्व समर्पित करने को तत्पर रहती है। उस मासूम को तो पिता के घर में ही यह अहसास दिला दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं, वह यहां पराई है तथा पति का घर ही उसका अपना घर होगा। परंतु वहां भी सी•सी• टी• वी• कैमरे लगे होते हैं, जिनमें उसकी हर गतिविधि कैद होती रहती है और वह सब की उपेक्षा-अवहेलना की शिकार होती है। अंत में उसे पुत्र व पुत्रवधू के संकेतों को समझ, उनके आदेशों की अनुपालना करनी पड़ती है और उसकी तलाश का अंत इस जहान को अलविदा कहने के पश्चात् ही होता है।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि रिश्ते तभी मज़बूत होते हैं, जब हम उन्हें महसूसते हैं अर्थात् जब हम संवेदनशील होते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करते हैं, तभी रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है। औरत को समझने के लिए संकेतों अथवा संवेदन- शीलता की आवश्यकता होती है। जिस दिन हम यह सोच लेंगे कि हर इंसान में कमियां होती हैं। उसे उनके साथ स्वीकारने से ही ज़िंदगी में सुक़ून प्राप्त हो सकता है और वह  सुख-शांति से गुज़र सकती है। समाज में सौहार्द, समन्वय व सामंजस्यता और अपराध-मुक्त साम्राज्य की स्थापना हो सकती है।
सो! स्त्री ब्रेल लिपि नहीं, जिसे स्पर्श द्वारा समझा जा सकता है। वह वस्तु नहीं है, जिसे समझने के लिए उलट-फेर व उसकी चीर-फाड़ करना आवश्यक है। वह तो मात्र चिंगारी है, जो जंगलों को को जलाकर राख कर सकती है…उसके हृदय का लावा किसी भी पल फूट सकता है तथा सब कुछ तहस-नहस कर सकता है। इसलिए उसके धैर्य की परीक्षा मत लेना। वह केवल नारायणी ही नहीं, उसमें दुर्गा व काली की शक्तियां भी निहित हैं, जिन्हें यथा समय संचित कर वह पल भर में रक्तबीज जैसे शत्रुओं का मर्दन कर सकती है। इसलिए उसे गुप्त अबला व प्रसाद की श्रद्धा समझने की भूल मत करना। वह असीम- अनन्त साहस व विश्वास से आप्लावित है, जिसके शब्दकोष में असंभव शब्द नदारद है। इसलिए उसे छूने का साहस मत करना… वह सारी क़ायनात को जलाकर राख कर देगी और सृष्टि में हाहाकार मच जायेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 27 ☆ ☆ स्व डॉ गायत्री तिवारी जन्मदिवस विशेष ☆ माँ तुम याद बहुत आती हो ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  ममतामयी माँ  (कथाकार एवं कवयित्री  स्मृतिशेष डॉ गायत्री तिवारी जी ) के चतुर्थ जन्म स्मृति  के अवसर पर एक अविस्मरणीय कविता  ‘माँ तुम याद बहुत आती हो।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 27 साहित्य निकुंज ☆

☆ माँ तुम याद बहुत आती हो

 

माँ तुम याद बहुत आती हो

बस सपने में दिख जाती हो .

पूछा है तुमसे, एक सवाल

छोड़ गई क्यों हमें इस हाल

जीवन हो गया अब वीराना

तेरे बिना सब है बेहाल

कुछ मन की तो कह जाती तुम

मन ही मन क्यों मुस्काती हो ।

 

माँ तुम याद बहुत आती हो

बस सपने में दिख जाती हो .

मुझमे बसती तेरी धड़कन

पढ़ लेती हो तुम अंतर्मन

 

तुमको खोकर सब है खोया

एक झलक तुम दिखला जाती .

जाने की इतनी क्यों थी जल्दी

हम सबसे क्यों नहीं कहती हो ।

 

माँ तुम याद बहुत आती हो

हम सबको तुम तरसाती हो ।

 

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प तेवीस # 23 ☆ कँलेंडर ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक सामयिक कविता  “कँलेंडर ”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प तेवीस # 23 ☆

☆ कँलेंडर ☆

 

डिसेंबर संपता संपता ….

आयुष्याच कोरं पान……..

उगीच भरल्या सारखं वाटतं,

शिशिराच्या पानगळीत सुद्धा

वसंत वैभवात मन रमतं…….!

 

किती सहज  उलटतो पाने ……

संकल्पाने सालंकृत…

कार्येप्रवणतेने आलंकृत…

एक एक स्मृती  सजवतो…

हृदयाच्या कोंदणात . . . . !

 

मागील पानांवर,

पुन्हा पुन्हा जाते नजर..

आठवणींची हळवी जर,

तिलाच असते कदर कृतीशील स्मरण नोंदी,

झळकतात पानावर

शब्दांचा  पारा, कधी गडद ,कधी धूसर

नजर वर्तमानात पण मन मात्र गतकाळावर.  . . . !

 

काही चौकटी  उगाच  ठसतात मनात

अन ताज्या होतात विस्मृती…….

आकडेवारी बदलत नाही . . .

बदलतात संदर्भ कागद, शाई अन पानांचे . .

मानवी  नात्यांचे नात्यातील रंगाचे  . . . !

 

सुख-दुःखाच्या चौकटी ………

आनंदाश्रूंच्या स्नेहधारा……..

मान-अपमानाचा वर्षाव……….

विश्वास- बेईमानीचा संघर्ष ………

विसरता येत नाही. . . . !

 

खऱ्या-खोट्याचे ठोकताळे ……….

हव्या-नकोशा आठवणी …

प्रेम-प्रितीच्या वंचना . .  वल्गना  …

आपल्या माणसांचे वाढदिवस ……..

गावातल्या जत्रा,  उरूस,  मेळे

विसरता येत नाही. . . . . !

 

ऊन-सावलीच्या चौकटी ……..

जगवतात जीवन तरू…………

याच कॅलेंडरच्या जीर्ण पानात

सुई, दोरा टोचलेल्या  आठवात

दिवस रात्रीच्या ऋतूचक्रात .. . !

 

कुणीतरी येत, कुणीतरी जातं

स्वभाव तोच आठवण बदलते

आकडे तेच तिथी वार बदलेला

आठवणींचा ओला श्वास

पानापानावर थांबलेला.. !

 

शब्दाचं कुटुंब कागदावर सजलेलं

आठवणींच गोकुळ मनामध्ये नटलेलं

भूत, भविष्य, वर्तमान, पानामध्ये सामावलेलं

नवीन वर्ष,  नवीन कॅलेंडर,  प्रतिक्षेत थांबलेलं

निरोप आणि स्वागताला सदानकदा  आसुसलेलं.. !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 18 ☆ लुप्त हुआ अब सदाचरण है ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “लुप्त हुआ अब सदाचरण है”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 18 ☆

☆ लुप्त हुआ अब सदाचरण है ☆

लुप्त हुआ अब सदाचरण है

बढ़ता हर क्षण कदाचरण है

 

आशाओं की लुटिया डूबी

स्वार्थ सिद्धि में नर हर क्षण है

 

निशदिन बढ़ते पाप करम अब

कलियुग का ये प्रथम चरण है

 

अपनों की पहचान कठिन है

चेहरों पर भी आवरण हैं

 

झूठ हुआ है हावी सब पर

सच का करता कौन वरण है

 

कब तक लाज बचायें बेटी

गली गली में चीर हरण है

 

देख देख कर दुनियादारी

“संतोष” दुखी अंतःकरण है

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य ☆ जन्मदिवस विशेष ☆ श्री दिलीप भाटिया ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ डॉ श्रीमती मिली भाटिया

श्री दिलीप भाटिया 

( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जीएवं  डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी  के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ हिन्दी साहित्य – श्री दिलीप भाटिया ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार  श्री दिलीप भाटिया जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  उनके प्रशंसकों एवं सुपुत्री डॉ मिली भाटिया जी  की कलम से। मैं  डॉ मिली भाटिया जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया।  भारत सरकार सेवाओं में परमाणु वैज्ञानिक की भूमिका निभाने के पश्चात बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री दिलीप भाटिया जी बच्चों में प्रिय ” दिलीप  अंकल ” के नाम से प्रसिद्ध, तन, मन और धन से समाज के प्रति समर्पित हम  सबके आदर्श हैं।

वैसे हम प्रति रविवार इस स्तम्भ को प्रकाशित करते हैं किन्तु, आज का दिन हम सबके लिए विशेष है और श्री भाटिया जी के लिए उनके प्रशंसकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अतः हम परिपाटी तोड़ते हुए आज उनके जन्मदिवस पर भेंट स्वरुप यह विचारों का गुलदस्ता प्रस्तुत करते हैं। सर्वप्रथम अनजाने में ही प्राप्त उनका संकल्प – २०२० )

☆ सन्कल्प 2020☆

परमाणु ऊर्जा विभाग से सेवानिवृत्ति के पश्चात् प्रति वर्ष समय के सकारात्मक सदुपयोग हेतु सन्कल्प लेता हूँ। प्रति सप्ताह कम से कम एक शिक्षण संस्थान में विद्यार्थियों को समय प्रबंधन एवं कैरियर चुनाव पर विचार व्यक्त करने के लिए समय देना है। हर वर्ष 75 प्रतिशत से अधिक यह सन्कल्प पूरा हो जाता है। वर्ष 2019 में लक्ष्य प्राप्ति का प्रतिशत  125 रहा क्योंकि नवंबर 2019 में नाथद्वारा दरीबा चित्तोडगढ प्रवास में  12 शिक्षण संस्थानों में लगभग  3000 विद्यार्थियों के साथ समय के सदुपयोग पर विचार व्यक्त किए। सरकारी विद्यालयों की मेधावी बेटियों की उच्च शिक्षा के लिए पेन्शन का 5 प्रतिशत देने का सन्कल्प 100 प्रतिशत पूर्ण हो जाता है। अपनी लिखित एवं प्रकाशित समय एवं कैरियर की पुस्तकों की  सोफ्ट  पी डी एफ प्रति उपहार स्वरूप  1000 विद्यार्थियों को वाट्सएप मेल पर देने का सन्कल्प 75 प्रतिशत से अधिक पूर्ण हो जाता है। प्रति वर्ष अपने जन्मदिन  26 दिसम्बर पर रक्तदान का पुण्य 65 वर्ष की आयु तक करता रहा। पर अब अधिक उम्र होने के कारण इस सन्कल्प को निभाना सम्भव नहीं है। जन्मदिन पर एक पौधा रोपण करने का सन्कल्प प्रति वर्ष पूरा हो जाता है। 2020 में भी इन सभी सन्कल्पो को पूर्ण करने का प्रयास करूंगा। साथ ही जन जागरूकता अभियान में परमाणु ऊर्जा संयंत्र पर लेख लिखने का सन्कल्प भी प्रति वर्ष निभ रहा है एवं जीवन की अंतिम साँस तक निभाने का प्रयास रहेगा। जीवन सन्ध्या में देश की कुछ सेवा तन मन धन से करते रहने के लिए सकारात्मक सन्कल्प पुरी ईमानदारी से निभा रहा हूँ एवं शेष जीवन में भी निभाते रहने का प्रयास रहेगा। Dileep Bhatia के नाम से  मेरी फेसबुक टाइम लाइन पर इन सभी सन्कल्पो के निभाने के समाचार एवं फोटो प्रमाण स्वरूप देखे जा सकते हैं।

दिलीप भाटिया 

सेवानिवृत्त परमाणु वैज्ञानिक

(19-12-2019 – 10:35)

(ई- अभिव्यक्ति  श्री दिलीप भाटिया जी के प्रशंसकों के उद्गारों के माध्यम से ही आपको उनके व्यक्तित्वा एवं कृतित्व से रूबरू कराने का एक प्रयास है।)

प्रेम की प्रतिमूर्ति 

दिलीप भाटिया जी के बारे में मुझे कोई एक वाक्य में कहने के लिए बोले तो मैं कहूंगा कि “वह  बहुत ही श्रम शील, समाजनिष्ठ, प्रेम की प्रतिमूर्ति, समय के पाबंद एक ऐसे इंसान हैं, जो उम्र के इस पड़ाव पर होते हुए भी, जहां व्यक्ति सारे कार्यों को छोड़कर समाज व परिवार के ऊपर एक बोझ नजर आता है, आप एक युवा के बराबर की ऊर्जा सन्निहित किए हुए समाज को एक नई दिशा देने में प्रयत्नशील हैं”।

आपने अपनी संतान के लिए एक माता, पिता, मित्र और पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाते हुए उन्हें भी समाज निर्माण के कार्य में संलग्न किया। बच्चों से आपका प्रेम इतना है कि उतना माता-पिता भी नहीं कर सकते। प्रेम व आत्मीयता बांटने के कारण ही सारे बच्चे आपको दिलीप अंकल के नाम से जानते हैं। सारे बच्चे आपको इसलिए भी पसंद करते हैं कि आपके द्वारा “अधिक अंक कैसे पाएं”  एवं ” समय प्रबंधन कैसे करें” जैसे टिप्स के माध्यम से उन्हें परीक्षा में सफलता व कैरियर बनाने में मदद मिलती है।

गायत्री परिवार के रचनात्मक कार्यों से जुड़ने के बाद से आप गायत्री चेतना केंद्र में नियमित बाल संस्कार शाला का संचालन करने के साथ-साथ अन्य सामाजिक कार्यों को भी जारी रखे हुए हैं। बच्चों में संस्कार विकसित करने की दिशा में उनके प्रयत्नों को अखिल विश्व गायत्री परिवार, शांतिकुंज, हरिद्वार ने भी सराहा है। आपका पर्यावरण प्रेम किसी से भी छिपा नहीं है । चाहे वृक्ष लगाना हो, उनकी देखभाल करना हो या स्वच्छता अभियान का कार्यक्रम हो, आपने हमेशा से ही अपने आचरण द्वारा दूसरों को प्रेरणा देने का कार्य किया है। रक्तदान करके पीड़ितों की सेवा करना और उनकी जान बचाना तो आपके जीवन का एक लक्ष्य ही बन चुका है । शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो इतनी बार रक्तदान कर चुका होगा। कोई बच्चा यदि धन के अभाव में पढ़ नहीं सकता तो यह आपसे देखा नहीं जाता। स्कूलों में निर्धन बच्चों को पाठ्य सामग्री मुहैया कराकर आपने हमेशा से ही उनकी सहायता की है।  तमाम स्थानीय विद्यालयों में शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाने व विद्यार्थियों हेतु अच्छी सुविधाएं मुहैया कराने हेतु आपने गुप्तदान करके अपनी भामाशाह भावना का परिचय दिया है।

कलम के माध्यम से अपनी भावनाओं को कागज पर व्यक्त करने हेतु आपने कई पुस्तकों का भी लेखन किया है। जहां “भीगी पलकें” जैसी लघुकथा पढ़कर आंखों में आंसू आ जाते हैं वहीं  “छलकता गिलास” और “कड़वे सच” जैसी रचनाएं पढ़कर समाज के प्रति आपकी भावनाएं पाठकों को उद्वेलित कर जाती हैं। तमाम सामाजिक व सरकारी संस्थाओं द्वारा आपका सम्मान किया जाना इस बात का परिचायक है कि समाज के प्रति आपके अंदर कितनी पीड़ा है। बच्चों को संस्कारित करके व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण व समाज निर्माण के पथ पर आगे  बढ़ते हुए, राष्ट्रनिर्माण के जिस लक्ष्य को प्राप्त करने में आप लगे हुए हैं,वह प्रशंसनीय ही नहीं अपितु हम सभी के लिए अनुकरणीय भी है। परमात्मा आपको उचित शक्ति व मार्गदर्शन देते रहें जिससे आप अपने लक्ष्य पर बढ़ते रहें,ऐसी मंगल कामना।

कैसा लगा।मन से लिखा है।आप कैसे हो।जन्मदिन मुबारक हो।

अवधेश नारायण वर्मा

पूर्व चेयरमैन व मुख्य कार्यकारी भारी पानी बोर्ड, परमाणु ऊर्जा विभाग,  मुंबई

 

लोगों के दिलों को जीतने वाले दिलीप सरजी !

वर्षों पूर्व पत्र – मित्रता का चलन था। जो लोग पत्र – मित्रता में रुचि रखते थे , वे रेडियो या पत्रिकाओं पर अपना नाम, पता, शौक आदि का विस्तृत विवरण देते थे। मैं भी उस समय कई भाईयों और एक बहनजी से पत्र – मित्रता करता था। आगे चलकर सभी से सम्पर्क टूट गया। पहला कारण व्यापार में व्यस्तता और दूसरा कारण विषयों की कमतरतता। हर बार नया क्या लिखें? जो भी हो, पत्र – मित्रता में अदभुत आनंद आता था। पत्रों की जगह अब मोबाइल ने ले ली है।

मैं कई लोगों से मोबाइल पर वार्तालाप करता हूं। दिलचस्प बात यह है कि उन महानुभावों से मिलने का सुअवसर अभी तक नहीं मिला है। उन चुनिंदा लोगों में से एक महत्वपूर्ण हस्ती का नाम दिलीप भाटिया जी है। मेरी प्रिय पत्रिका `अहा ! ज़िंदगी´ में कभी – कभार उनके पत्र, लघुकथाएं छपती थी तो मैं उन्हें अवश्य पढ़ता था। मेरे हृदय में उनके प्रति आदरभाव , सम्मान था। एक आदर्शवादी व्यक्ति की छवि अंकित हो चुकी थी मेरे मन में। नागपुर (महाराष्ट्र) से प्रकाशित मासिक `सिन्ध जो शेर´ में उनकी लघुकथाएं और आलेख के साथ उनका फ़ोटो और मोबाइल नंबर देखकर मैं खुद को रोक नहीं सका। दरअसल मैं उन्हें सिंधी भाषी समझता था। उनसे बातचीत करने के बाद गलत फहमी दूर हो गई कि वे सजातिय नहीं हैं। लेकिन बातचीत का जो सिलसिला चल पड़ा वो निरंतर आज भी जारी है।

फ़ेसबुक पर उनके साथ जुड़ने के बाद पता चला कि वे सामाजिक सरोकार से जुड़े कार्यों में सदैव तत्पर रहते हैं। यही नहीं, सेवानिवृत्त के बाद, स्कूली बच्चों के प्रति उनका सहयोग, सदभावना और समर्पण भाव उनकी  सहृदयता दर्शाता है। निस्वार्थ भाव से बच्चों का जो मनोरंजन और मार्गदर्शन करते हैं वो प्रशंसनीय , अभिनंदनीय, अनुकरणीय और वंदनीय है।

अब तो लगभग हर सप्ताह उनसे बातचीत होते रहती है। कभी – कभी, बार – बार फ़ोन करने के बावजूद वे फ़ोन नहीं उठाते हैं तो मन में घबराहट होती है कि कहीं उनकी तबियत तो नहीं बिगड़ी है। उनके साथ कोई रक्त सम्बंध तो नहीं है , मगर मेरे लिए वे भ्राताश्री के समान हैं। मेरी दिली इच्छा है कि वे सौ सालों तक सदैव चुस्त – दुरूस्त – तंदुरुस्त रहें। सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में केक काटकर जश्न मनाएं और मुझे बुलाऐं तो मुझे बेहद प्रसन्नता होगी। सरजी को जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएँ। आपकी कलम यूं ही बिना रुके, बिना थके, चलती रहे यही अभिलाषा है।

अशोक वाधवाणी ,गांधी नगर, महाराष्ट्र, संपर्क 9421216288 .

  निःस्वार्थ सेवा  

कई बार हम अपने आसपास  ऐसे लोगों पर दृष्टिपात करना भूल जाते हैं जो साधारण परिवार में जन्म  लेकर अपने बलबूते पर कुछ सामाजोपयोगी कार्य करते रहते हैं। कुछ मेरे बाबा  यानि पिता सचिपति नाथकी तरह मौन रहकर बिना प्रचार के काम करते रहते हैं।

कुछ लोग अपने कार्यो को अपनो को बताकर तृप्ति महसूस करते हैं दोनों ही तरीके सही हैं। पर मेरे ख्याल आज के युग में दिलीप अंकल  वाला तरीका  ज्यादा कारगर  हैं। क्योंकि इससे दूसरों से अपने समाजोपयोगी कार्यो के बारे में कहना नहीं पडता । अक्सर बुजुर्गोको अपना गुणगान करतेही सुना जा सकता हैं। केवल अपने व अपने बीवी बच्चो के लिये करना कोई बडी बात नहीं।

समाज सेवा हेतु घर बार भी सभी नहीं छोड सकते है। ऐसे में दिलीप अंकल का परिवार व समाज सेवा का संतुलन सराहनीय व अनुकरणीय हैं।

मुझे याद हैंकि मैंने इनसे पुरानी बाल पत्रिकाये स्कूल के बच्चो के लियो मांगी थी। इन्होने भिजवा दी। इनकी सुरेश सर्वहाराजी और हरदर्शन सहगलजी की बाल पत्रिकाये जब बाल साहित्य से अंजान व वंचित वर्ग के बाल पाठको अपने हाथों से दी तो उन की आंखो में जो भाव मुझे दृष्टिगोचर हुये वो अविस्मरणीय है। दरअसल दिलीप अंकल जैसा इंसान बनने के लिये ढृड इच्छा शक्ति व परोपकारी प्रवृति  का होना आवश्यक हैं।

वैसे ये बेटियो से इतना स्नेह रखते हैं कि इन की मुह बोली बेटियों किसी से सच कहने से नहीं हिचकती । लाख बाधाओ के बावजूद अपनी राह वना लेती हैं।

इनसे जब फोन पर पहली बार बात हुई तो मेरा लेखन  से नाता टूट ही चुका पर इनसे बात करके काफी हौसला मिला । जल्द ही राष्टीय स्तर की पत्रिकाओं  व संकलन में मेरी रचनाये शामिल| हुई।

मेरी लिखी रकत दान व रुचि इनपर आधारित हैं।

हर साल मेरे जन्म दिन पर अंकल पॉस्टकार्ड पर शुभ कामनाये भेजते हैं। इस बार हम हमारे अंकल का जन्मोत्सव इतना जानदार ढंग से मना रहे हैं।

कितने लोगो को नसीव होता है ऐसा दिन।  धन नाम तो बहुतो के पास होता है पर कितने उसका एक। हिस्सा गरीबो कीशिक्षा वास्ते लगा पाते हैं । अंकल स्वस्थ व सक्रिय रहे इसी मंगल कामना  के साथ।

पूर्णिमा मित्रा बीकानेर

 

“मैं कुछ नहीं करता..ईश्वर मुझसे यह कराता  है..”

मेरी पहली कहानी एक पत्रिका मे छपी..और उस कहानी पर प्रतिक्रिया स्वरूप सबसे पहला फ़ोन दिलीप सर का आया.  थोड़ा झिझकते हुए मैंने बात शुरु की…राउतभाटा अनुसंधान केन्द्र और सर का परिचय  सुनते ही लगा कितना प्रभावी व्यक्तित्व है और साथ ही सहजता भी लेकिन संकोचवश बस कहानी पर ही बात हो पायी।

दिलीप सर…जिन्हें मैंने कभी देखा नहीं… बस एक फ़ोन कॉल ने मुझे उनसे जोड़ा। बाद में मैं उनसे बात करने का मौका ढूँढती रही, और अपने दोपहर की नीद से समय निकालकर जब उन्होंने मुझसे बात की तो मै बहुत खुश हो गई। उनकी कई खूबियाँ मेरे सामने आयीं। उनकी सह्रदयता, दूसरों की मदद करने की इच्छा.. बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करना, अपने करियर को लेकर भ्रमित किशोरों की कॉउंसलिंग करना…उन्हें नयी राह सुझाना.. सब कुछ मेरे मन को भा गया..। आज कितने ऐसे उदारमना हैं जो दूसरों के लिये जीते हैं..!!!

यह बस सुनकर जब मैंने कहा कि, आप कितने अच्छे हैं.. और कितने अच्छे काम करते हैं..

इसके जवाब में उनका यह कहना कि, “मैं कुछ नहीं करता..ईश्वर मुझसे यह कराता  है..” मेरे मन को छू गया..

अज्ञात प्रशंसक

 

दिलीप भाटिया-  एक  मिसाल

मेरे लिए परम हर्ष व उल्लास का पर्व है -साहित्य गगन के देदीप्यमान नक्षत्र, रिटायर्ड परमाणु वैज्ञानिक , समाज सेवी ,पर्यावरण प्रेमी परम आदरणीय, दिलीप भाटिया जी की जीवन यात्रा को रेखांकित, शब्दांकित करन,

बल्कि ये कहना अधिक समीचीन होगा कि सूर्य को दीपक दिखाने जैसा कृत्य है।

दिलीप भाटिया जी की कवितायें, कहानियाँ, लघुकथाएँ, पुस्तक समीक्षा, आलेख आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ती रहती, और तदन्नतर प्रभावित हुए बिना न रह पाती ।

आपसे जुड़ने का सौभाग्य लगभग दो वर्ष पूर्व प्राप्त हुआ ,जब *शुभतारिका* में प्रकाशित मेरी रचना को पढ़कर आपने सहृदयता से मुझे बधाई दी ।

मुझे अपार हर्ष की अनुभूति हुई ।

आजीवन  कुशलतापूर्वक पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करते हुए, समाजसेवा करते रहे, गरीब बच्चों की पढ़ाई में मदद करना, संस्कारशाला का आयोजन करना, कैरियर गाइडेंस, इससे महत्त्वपूर्ण अबतक 59 बार रक्तदान कर अनेक व्यक्तियों को जीवनदान देना, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सामाजिक अवदान है ।

साहित्य को भी आपने अथक अवदान दिया है, साहित्यिक यज्ञ में आहुति दी है, साहित्य की अनेकों विधाओं में साधिकार लेखनी चलाई है, जिसका प्रमाण आपकी काव्यकृतियाँ स्वयं हैं।

अनगिन सम्मान आपकी साहित्य साधना की कहानी कह रहे हैं ।

अनेक विषम परिस्थितयों का सामना करते हुए भी आपने धैर्य बनाये रखा और जीवन के प्रति सदैव आशावादी दृष्टिकोण रखा।

आप किसी परिचय के मोहताज़ नहीं, न ही किसी सम्मान में वो सामर्थ्य है जो आपके व्यक्तित्त्व को माप सके, आप सहृदय संवेदनशील व्यक्ति हैं, आपका किंचित् भी अनुगमन कर सकूँ तो मुझे स्वयं पर गर्व होगा।

नतशीश नमन आपको

आपकी अनुजा नीलम सिंह

विशाल प्रेरक व्यक्ति का मित्र हूं

किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके कृतित्व से जाना जाता है। जैसा उसका कृतित्व होता है वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है । इस मायने में दिलीप भाटिया जी का व्यक्तित्व बहुआयामी और सामाजिक उपयोगी है।

जीवन में बिरले ही व्यक्ति होते हैं जो पूरी तरह समाज और बच्चे के लिए समर्पित होते हैं। दिलीप भाटिया जी वैसे ही समर्पित व्यक्ति हैं। एक इंजीनियर होते हुए भी इन्होंने अपना पूरा जीवन बच्चों के लिए समर्पित कर दिया है  । यह अपनेआप में अनुकरणीय और अद्वितीय उदाहरण है।

एक लड़की के पिता होते हुए भी आप सभी बच्चों के अभिभावक का दायित्व बेहतर ढंग से निभा रहे हैं । जहां कहीं भी आपको बुलावा मिलता हैं या आप को समय मिलता है वहां और जरूरतमंद विद्यालय में पहुंचकर आप विद्यालय और बच्चों की सहायता को तत्पर रहते हैं।

विषय क्षेत्र कोई भी हो, आप बच्चों की सहायता करने को सदैव तैयार रहते हैं। इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने के लिए आप ने कई विद्यालयों में अनेक कार्यशाला की हैं। कई बच्चों को समय प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया है । आपको जब भी कहीं से निमंत्रण या आमंत्रित मिलता हैं आप वहां तुरंत बच्चों के कार्य के लिए समर्पित भाव से पहुंच जाते हैं।

आज के आधुनिक युग में जहां माता-पिता अपने बच्चों को समय और श्रम नहीं दे पाते, वहां दिलीप भाटिया जी द्वारा दूसरे के बच्चों को समय और श्रम देकर उनके बहुगुणी विकास में अपना योगदान देना अपने आप में अनुकरण और प्रेरणादायक कार्य हैं। जिस का कोई मूल्य नहीं चुकाया जा सकता हैं ।

यही कार्य और उस की प्रेरणा आपको सदैव हंसमुख मिलनसार और एक और जवान व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। इसकी झलक इनके कार्यों और व्यवहार देखी जा सकती हैं। मुझे गर्व है कि मैं दिलीप भाटिया जी जैसे विशाल प्रेरक व्यक्ति का मित्र हूं । और इन से प्रेरणा लेकर मैं  भी छटांक मात्रा में  दूसरों की रचनात्मक कार्य मे मार्गदर्शन प्रदान करने की कोशिश करता हूं । मैं दिलीप भाटिया जी के दीर्घायु स्वस्थ और प्रेरक जीवन की कामना करता हूं। ये अपना पूरा जीवन इसी तरह के सामाजिक उपयोगी कार्यों में अपने आप को लगाते रहे और सदैव स्वस्थ व दीर्धायु रहें । यही कामना हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़, जिला -नीमच (मध्यप्रदेश) पिनकोड -45822

 

……..और बेटी की दृष्टि में   

मेरी नजर में मेरे पापा विश्व के श्रेष्ठतम पापा हैं । वे अत्यंत सरल, सीधे, अधिकतर खामोश रहकर दूसरों के लिए, तन, मन, धन से निःस्वार्थ मदद करने वाले, स्वाभिमानी तथा बच्चों में “प्रिय दिलीप अंकल “ के नाम से जाने जाते हैं।  सहनशक्ति से भरपूर परंतु दिल से कमजोर व नाजुक हैं परंतु मजबूत हैं।  किसी की भी बात में जल्दी आ जाते हैं जिससे लोग उनका फायदा उठाते हैं। परंतु पापा यही कहते हैं कि फायदा भी उसी का उठाया जाता है, जो किसी काम का हो, कहकर मुस्कुरा कर बात खत्म कर देते हैं। समाज में वे लोकप्रिय लेखक एवं वैज्ञानिक (अनेक प्रतिभाओं के धनी) हैं। 16 साल से मेरे पापा कम, मेरी माँ ज्यादा हैं। किसी बात को मनवाने के लिए जब मैं जिद्द करती हूँ तो पहले पिता कि तरह कठोर होकर मना कर देते हैं फिर माँ की तरह हाँ कर देते हैं। लोगों से दिल से रिश्ते निभाते हैं। छोटी छोटी बातों से खुश हो जाते हैं, बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना बहुत मजबूती से करते हैं। अपना दर्द कम ही कहते हैं। मेरी नजर में मेरे पापा मेरे गुरूर हैं। मैं अपने आप को पूरी तरह से सुरक्षित महसूस करती हूँ क्योंकि पीहर पक्ष में सिर्फ एकमात्र आप हैं जिनकी वजह से आपने  माँ की कमी पूरी करने की अथक कोशिश की है। आपने मुझे समाज में सबके सामने स्वाभिमान से खड़ा होना सिखाया है। आप छोटे बच्चों (मेरी बेटी) के सबसे प्रिय दोस्त हैं। बच्चे आपसे बहुत खुश रहते हैं।

आप जो 16 साल से मेरे लिए त्याग कर रहे हैं उसके लिए शब्द कम हैं।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए पी जे कलाम साहब से “आत्माराम पुरस्कार” प्राप्त कर चुके हैं । कडवे सच, छ्लकता गिलास, भीगी पलकें, समय, जीवन, कैरियर, कलाम साहब आदि पुस्तकें लिख चुके हैं। 59 बार रक्तदान कर चुके हैं। आपकी सबसे अच्छी बात मुझे यह लगती है कि आप गाँव के स्कूलों में गरीब बेटियों को पाठ्य-सामाग्री, कपड़े, फल, बिस्कित, फीस आदि वितरित करते हैं।

आपकी अगली किताब के लिए यह मेरे छोटे छोटे शब्द हैं।  बाकी मैं आपकी तरह लेखिका नहीं जो बहुत साहित्यिक लिख सकूँ। 26 दिसंबर 2019 “Happy Birthday” की बहुत सारी बधाइयाँ “PAPA THE GREAT” को ।

  • आपकी बेटी  डॉ मिली भाटिया 

( ई – अभिव्यक्ति की और से श्री दिलीप भाटिया जी को जन्मदिवस की अशेष हार्दिक शुभकामनाएं )

सम्प्रति : दिलीप भाटिया 

सेवानिवृत्त परमाणु वैज्ञानिक

238 बालाजी नगर रावतभाटा 323307 राजस्थान मोबाइल फोन नंबर 0 9461591498.

 

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 12 ☆ लघुकथा – बरसी ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी  एक  सार्थक एवं  वर्तमान में बच्चों की व्यस्तताएं एवं माँ पिता के प्रति संवेदनहीनता की पराकाष्ठा प्रदर्शित कराती लघुकथा  “बरसी”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 12 ☆

☆ लघुकथा – बरसी ☆ 

दीदी! आप और सुधा दीदी तो माँ की बरसी पर आई नहीं थीं आपको क्या पता मैने भोपाल में माँ की बरसी कितनी धूमधाम से मनायी? इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन करवाया – वह भी शुद्ध देशी घी का। रिश्तेदार, पडोसी, दोस्त कौन नहीं था? बरसी में तीन – चार सौ लोगों को भोजन करवाया।

विजय कहे जा रहा था। सुमन के कानों में पिता की दर्द भरी याचना गूँज रही थी- “सुमन बेटी! विजय से कह दे न्यूयार्क से कुछ दिन के लिए आ जाए, चलाचली की बेला है। तेरी माँ तो कल का सूरज देखेगी कि नहीं, क्या पता ? तडपती है विजय को देखने के लिए।”

सुमन कहना चाह रही थी- विजय ! तू माँ से मिलने क्यों नही आया। तेरे लिए तरसतीं चली गयी। सुमन के मन की हलचल से बेपरवाह विजय अपनी धुन में बोले जा रहा था- “दीदी। तुम तो जानती हो न्यूयार्क से आने में कितना पैसा खर्च होता है इसलिए  सोचा एक बार सीधे बरसी पर ही …………..।”

सुमन अवाक रह गयी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 6 ☆ गीत –  कुछ मित्र मिले ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  मित्रों को समर्पित एक गीत  “ कुछ मित्र मिले.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 6 ☆

☆   कुछ मित्र मिले ☆ 

 

ये कैसा

सफर सुहाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

जीवन तो आना जाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

आशाओं में

खोजा जीवन

यह धरा बनी सुख संजीवन

हर चेहरे पर ही

खिले सुमन

पावन मन चंदन-सा उपवन

 

ये कैसा

खोना -पाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

पथ नए बने

गंतव्य नया

फिर भी हम

भूले-भटके हैं

कुछ प्रश्न अधूरे हैं

अब भी

पूरा करने में अटके हैं

 

ये कैसा

ताना-बाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

 

मैं खोज रहा हूँ

अपने को

पर चाहत अभी अधूरी है

झरने-सा बहता हूँ

पावन

सागर से

अब भी दूरी है

 

ये कैसा

गीत पुराना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

 

जो प्रेम डगर

मुझको भाती

दे जाती है नूतन सपने

हर दिल को

पढ़कर यह जाना

जो कटे-कटे रहते अपने

 

ये कैसा

मन भरमाना है

कुछ मित्र मिले

कुछ छूट गए

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 25 ☆ व्यंग्य – एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा  रचनाओं को “विवेक साहित्य ”  शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी”.  समाज में सोशल मीडिआ पर संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करते  हुए इस व्यंग्य को पढ़कर कमेंट बॉक्स में बताइयेगा ज़रूर। श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेहतरीन व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य  # 25 ☆ 

☆  एक ट्वीटी संवेदना अपनी भी

 

एक बुढ़िया जो जिंदगी से बहुत परेशान थी जंगल से लकड़ियां बीनकर उन्हें बेचकर अपनी गुजर बसर कर रही थी। एक दिन वह थकी हारी लकड़ी का गट्ठर लिये परिस्थितियो को कोसती हुई लम्बी सांस भरकर बोल उठी, यमराज भी नहीं ले जाते मुझे ! बाई दि वे यमराज वहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बुढ़िया की पुकार सुनाई दी तो वे तुरंत प्रगट हो गये। बोले कहो अम्मा पुकारा। तो अम्मा ने तुरंत पैंतरा बदल लिया बोली, हाँ बेटा जरा यह लकड़ी का गट्ठर उठा कर सिर पर रखवा दे। कहने का आशय है कि मौत से तो हर आदमी बचना ही चाहता है। जीवन बीमा कम्पनियो की प्रगति का यही एक मात्र आधार भी है,पर भई मान गये आतंकवादी भैया  तो बड़े वीर हैं उन्हें तो खुद की जान की ही परवाह नहीं, बस जन्नत में मिलने वाली की हूरो की फिकर है। तो तय है कि समूल नाश होते तक ये तो आतंक फैलाते ही रहेंगे। आज दुनिया में कही भी कभी भी कुछ न कुछ  करेंगे ही। निर्दोषों की मौत का ताण्डव करने का सोल कांट्रेक्ट इन दिनो आई एस आई एस को अवार्डेड है।

बड़ी फास्ट दुनिया है, इधर बम फूटा नही, मरने वालो की गिनती भी नही हो पाई और ट्वीट ट्रेंड होने लगे। फ्रांस के आतंकी ट्रक की बैट्रेक दौड़ पर, हर संवेदन शील आदमी की ही तरह दिल तो मेरा भी बहुत रोया। दम साधे,पत्नी की लाई चाय को किनारे करते हुये मैं चैनल पर चैनल बदलता रहा। जब इस दुखद घटना की रिपोर्ट के बीच में ही ब्रेक लेकर चैनल दन्त कान्ति से लेकर निरमा तक के विज्ञापन दिखाने लगा पर मैं वैसा ही बेचैन होता रहा तो पत्नी ने झकझोर कर मेरी चेतना को जगाया और अपनी मधुर कर्कश आवाज में अल्टीमेटम दिया चाय ठण्डी हो रही है, पी लूं वरना वह दोबारा गरम नही करेगी। चाय सुड़पते हुये  बहुत सोचा मैने, इस दुख की घड़ी में, मानवता पर हुये इस हमले में मेरे और आपके जैसे अदना आदमी की क्या भूमिका होनी चाहिये ?

मुझे याद है जब मैं छोटा था, मेरे स्कूल से लौटते समय  एक बच्चे का स्कूल के सामने ही ट्रक से एक्सीडेंट हो गया था, हम सारे बच्चे बदहवास से उसे अस्पताल लेकर भागे थे, मैं देर रात तक बस्ता लिये अस्पताल में ही खड़ा रहा था, और उस छोटी उम्र में भी अपना खून देने को तत्पर था।  थोड़ा बड़ा हुआ तो बाढ़ पीड़ीतो के लिये चंदा बटोरकर प्रधानमंत्री सहायता कोष में जमा करने का काम भी मेरे नाम दर्ज है । मेरा दिल तो आज भी वही है। जब भी आतंकवादियो द्वारा निर्मम हत्या का खेल खेला जाता है तो मेरे अंदर का  वही बच्चा मुझ पर हावी हो जाता है। पर अब मैं बच्चा नहीं बचा,दुनिया भी बदल गई है न तो किसी को मेरा खून चाहिये न ही चंदा। मुझे समझ ही नही आता कि इस स्थिति में मैं क्या करूं ?

तो आज ट्रेंडिग ट्वीट्स ने मेरी समस्या का निदान मुझे सुझा दिया है। और मैने भी हैश टैग फ्रांस वी आर विथ यू पर अपनी ताजा तरीन संवेदनायें उड़ेल दी हैं और मजे से बर्गर और पीजा उड़ा रहा हूं। हो सके तो आप अपनी भी एक ट्वीटी संवेदना जारी कर दें और जी भरकर कोसें आतंकवादियो को हा हा ही ही के साथ।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 27 – गोष्ट..! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता गोष्ट..! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #27☆ 

 

☆  गोष्ट..! ☆ 

 

माझा बाप

माझ्या लेकरांना मांडीवर घेऊन

गावकडच्या शेतातल्या खूप गोष्टी सांगतो..

तेव्हा माझी लेकरं

माझ्या बापाकड हट्ट करतात

राजा राणीची नाहीतर परीची

गोष्ट सांगा म्हणून तेव्हा..

बाप माझ्याकडं आणि मी बापाकड

एकटक पहात राहतो

मला…

कळत नाही लेकरांना

कसं सांगाव

की राजा राणीची आणि परीची

गोष्ट सांगायला

माझ्या बापान कधी अशी स्वप्न

पाहिलीच नाहीत..,

त्यान..

स्वप्न पाहिली ती फक्त..

शेतातल्या मातीची

पेरणीनंतरच्या पावसाची..,

त्याच्या लेखी

नांगर म्हणजेच राजा

अन् माती म्हणजेच राणी

मातीत डोलणारी पिक म्हणजेच

त्यान जिवापाड जपलेली परी…,

 

© सुजित कदम, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – # 29 ☆ चिंता / फिकर ( हिन्दी / मालवी ) ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी  एक  मालवो  मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक मालवी कथा एवं उसका हिंदी भावानुवाद  “ चिंता / फिकर ” बच्चों के लिए ही नहीं बड़ों के लिए भी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #29 ☆

☆ हिन्दी लघुकथा – चिंता☆

 

“अरे किसन ! लाठी ले कर किधर जा रहा है ? मछली खाने की इच्छा है ?”

“नहीं रे माधव ! गर्मी में पांच मील पानी लेने जाना पड़ता है. उसी का इंतजाम करना चाहता हूँ.”

“इस लाठी से ?” किसन से लम्बी और भारी लाठी देख कर माधव की हंसी छुट गई.

“हंस क्यों रहा है माधव. पिताजी की लाठी से डर कर मैं स्कूल जाना छोड़ सकता हूँ तो नदी बहना क्यों नहीं छोड़ सकती है ?”

 

☆ लघुबाता – फिकर (मालवी) ☆

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“अरे ओ किसनवा ! लठ ले के कठे जा रियो हे  ? मच्छी मारवा की ईच्छा हे कई ?”

“नी रे , माधवा ! गरमी मा पाच कौस पाणी लेवा नी जानो पड़े उको बंदोबस्त करी रियो हु.”

“ई लाठी थी ?” किसनवा से मोटी व वजनी लाठी देख कर माधवा की हंसी छुट गइ.

“हंस की रियो रे माधवा. बापू की लाठी से डरी ने मूँ सकुल जानो रुक सकू तो ये नदि का नी रुक सके”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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