हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पथराई आंखों का सपना भाग -1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  दो भागों में एक लम्बी कहानी  “पथराई  आँखों के सपने ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“ आदरणीय पाठक गण अभी तक आप सभी ने मेरी लघु उपन्यासिका “पगली माई दमयन्ती” को पूरे मनोयोग से पढा़ और उत्साहवर्धन किया। आपकी मिलने वाली फोनकाल प्रतिक्रिया तथा वाट्सएप, फेसबुक के लाइक/कमेंट से  शेयरों की सकारात्मक प्रतिक्रिया ने लेखन के क्षेत्र में जो उर्जा प्रदान की है, उसके लिए हम आप सभी का कोटिश: अभिनंदन करते हुएआभार ब्यक्त करते हैं। इस प्रतिक्रिया ने ही मुझे लेखन के लिए बाध्य किया है।  उम्मीद है इसी प्रकार मेरी रचना को सम्मान देते हुए प्रतिक्रिया का क्रम बनाए रखेंगें।  प्रतिक्रिया सकारात्मक हो या आलोचनात्मक वह हमें लेखन के क्षेत्र में प्रेरणा तथा नये दृष्टिकोण का संबल प्रदान करती है।

इस बार पढ़े पढ़ायें एक नई कहानी “पथराई आंखों का सपना” और अपनी अनमोल राय से अवगत करायें। हम आपके आभारी रहेंगे। पथराई आंखों का सपना न्यायिक ब्यवस्था की लेट लतीफी पर एक व्यंग्य है जो किंचित आज की न्यायिक व्यवस्था में दिखाई देता है। अगर त्वरित निस्तारण होता तो वादी को न्याय की आस में प्रतिपल न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का दंश न झेलना पड़ता। रचनाकार  न्यायिक व्यवस्था की इन्ही खामियों की तरफ अपनी रचना से ध्यान आकर्षित करना चाहता है।आशा है आपको पूर्व की भांति इस रचना को भी आपका प्यार समालोचना के रूप में प्राप्त होगा, जो मुझे एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकेगा।

? धारावाहिक कहानी – पथराई आंखों का सपना  ? 

(जब लेखक किसी चरित्र का निर्माण करता है तो वास्तव में वह उस चरित्र को जीता है। उन चरित्रों को अपने आस पास से उठाकर कथानक के चरित्रों  की आवश्यकतानुसार उस सांचे में ढालता है।  रचना की कल्पना मस्तिष्क में आने से लेकर आजीवन वह चरित्र उसके साथ जीता है। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपने प्रत्येक चरित्र को पल पल जिया है। रचना इस बात का प्रमाण है। उन्हें इस कालजयी रचना के लिए हार्दिक बधाई। )  

पूर्वी भारत का एक ग्रामीण अंचल।  उस अंचल का एक गांव जो विकास की किरणों से अब भी कोसों दूर है। जहाँ आज भी न तो आवागमन के अच्छे साधन है न तो अच्छी सड़कें, और न तो विकसित समाज के जीवन यापन की मूलभूत सुविधाएं।  लेकिन फिर भी वहां के ग्रामीण आज भी प्राकृतिक पर्यावरण, अपनी लोक संस्कृति लोक परंपराओं को सहेजे एवम् संजोये हुए हैं। भौतिक संसाधनों का पूर्ण अभाव होते हुए भी उनकी आत्मसंतुष्टि से ओतप्रोत जीवन शैली, जीवन के सुखद होने का एहसास कराती है।

उस समाज में आज भी संयुक्त परिवार का पूरा महत्व है, जिसमें चाचा चाची दादा ताऊ बड़े भइया भाभी के रिश्ते एक दूसरे के प्रति प्रेम, दया, करूणा का भाव समेटे भारतीय संस्कृति के ताने बाने की रक्षा तो करती ही है, पारिवारिक सामाजिक ढ़ांचे को मजबूती भी प्रदान करती हुई, ग्रामीण पृष्ठभूमि की रक्षा का दायित्व भी निभाती है।

ऐसे ही एक संयुक्त परिवार में मंगली का जन्म हुआ था।  मंगलवार के दिन जन्म होने से बड़ी बहू ने प्यार से उसका नाम मंगरी  (मंगली)  रखा था। परिवार में कोई उसे गुड़िया, कोई लाडो कह के बुलाता था।

वह सचमुच गुड़िया जैसी ही प्यारी थी, उसका भी भरापूरा परिवार था जो उसके जन्म के साथ ही बिखरता चला गया। मां उसे जन्म देते ही असमय काल के  गाल में समा गई। पिता सामाजिक जीवन से बैराग ले संन्यासी बन गया।  उसकी माँ असमय मरते मरते तमाम हसरतें लिए ही इस नश्वर संसार से विदा हुई। जाते जाते उसने अपनी नवजात बच्ची को बडी़ बहू के हाथों में सौपते हुये कहा था – “आज से इसकी माँ बाप तुम्ही हो दीदी। इसे संभालना”।

उस नवजात गुड़िया को सौंपते हुये उसके हांथ और होंठ कांप रहे थे।  उसकी आंखें छलछला उठी थी।  उसके चेहरे की भाव भंगिमा देख उसके हृदय में उठते तूफानों का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। उसके मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे, फिर भी क्षीण आवाज कांपते ओठों एवम् अस्फुट स्वरों में उसने बडी़ बहू से अपनी इच्छा व्यक्त कर दी थी और हिचकियों के बीच उसकी आंखें मुदती चली गई थी। वह तो इस नश्वर संसार से चली गई लेकिन अपने पीछे छोड़ गई करूणक्रंदन करता परिवार जो बिछोह के गम तथा पीडा़ में डूबा हुआ था।

धार्मिक कर्मकाण्ड के बीच उसके मां की अर्थी को कंधा तथा चिता को मुखाग्नि मंगरी के पिता ने ही दे जीवन साथी होने का फर्ज पूरा किया था तथा उसे सुहागिन बिदा कर अपने पति होने का रस्म पूरा किया।

धीरे धीरे बीतते समय के साथ उसके पिता के हृदय की वेदनायें बढ़ती जा रही थी।  वह प्राय: गुमसुम रहने लगा था।  परिवार तथा रिश्ते वालों ने उसे दूसरी शादी का प्रस्ताव भी दिया था, लेकिन उसने मंगरी के जीवन का हवाला दे शादी से इंकार कर दिया था।  वह फिर से घर गृहस्थी के जंजाल में नहीं फंसना चाहता था।  वह पलायन वादी होगया था।

इन परिस्थितियों में बड़ी बहू ने धैर्य का परिचय देते हुए सचमुच ही मंगरी के माँ बाप दोनों के होने का फर्ज निभाया, और मंगरी को अपनी ममता के दामन में समेट लिया और पाल पोस बड़ा किया। यद्यपि उस जमाने में स्कूली शिक्षा पर बहुत जोर नहीं था, फिर भी उसे बडी़ बहू ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा दिलाई थी। बड़ी ही स्वाभिमानी तथा जहीन लड़की थी मंगरी। बड़ी बहू ने अपनी ममता के साये में पालते हुए अपनी गोद में सुला गीता रामायण तथा भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों की घुट्टी घोंट घोंट पिलाई थी।

अब बीतते समय के साथ मंगरी बड़ी बहू को ताई जी के, संबोधन से संबोधित  करने लगी थी।  बड़ी बहू ने भी उसे कभी मां की कमी खलने नहीं दी थी। मंगरी सोते समय बड़ी बहू के हांथ पांव दबाती, सिर में तेल मालिश करती तो बड़ी बहू उसे दिल से दुआयें देती और वह बड़ी बहू के गले में गलबहियां डाले  लिपट कर सो  जाती।

इस प्रकार मंगरी बड़ी बहू के ममता एवम् प्यार के साये में पल बढ़ कर जवान हुई थी। बड़ी बहू ने अच्छा खासा संपन्न परिवार देख  उसकी शादी भी कर दी थी।  मंगरी के बिवाह में बड़ी बहू ने अपनी औकात से बढ़कर खर्चा किया था। अपने कलेजे के टुकड़े को खुद से अलग करते हुए बिदाई की बेला में फूट फूट कर रोई थी।

उसके कानों में बार बार  मंगरी के मां के कहे शब्द गूंज रहे थे और उसकी मां का चेहरा उसके स्मृति पटल पर उभर रहा था। लेकिन तब तक किसी को भी यह पता नही था कि मंगरी जिस परिवार में जा रही है, वो  साक्षात् नर पिशाच है। उम्मीद से ज्यादा पाने पर भी उनकी इच्छा अभी पूरी नहीं हुईं हैं। और ज्यादा पाने  कि चाह उन नरपिशाचों की आंख में उभरती चली गई।

मँगरी जब ससुराल पंहुची तो अपनी प्रकृति के विपरीत लोगों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाई।  इस, कारण सालों साल तक उपेक्षित व्यवहार तथा तानों के बीच उसने अपनी सेवा तथा तथा मृदुल व्यवहार से उनका दिल जीतने का पूरा प्रयास किया था। लेकिन वह सफल न हो सकी अपने उद्देश्य में क्योंकि ससुराल वाले लोगों की मंशा तो कुछ और थी उनके इरादे नेक नहीं थे।

ससुराल में पारिवारिक कलह मनमुटाव कुछ इस तरह बढा कि ससुराली एक दिन गर्भावस्था में ही मायके की सीमा में उसे छोड़ चलते बनें। उस दिन उसके सारे सपने टूट कर बिखर गये।  विवश मंगरी न चाहते हुये भी रोती बिलखती मायके में अपने घर के दरवाजे पर पहुंची। उसे देखते ही बड़ी बहू नें दौड़ कर गले लगा  ममता के आंचल में  समेट लिया था और मंगरी जोर जोर से दहाड़े मार कर रो पड़ी थी।

इसके साथ ही बड़ी बहू की  अनुभवी निगाहों ने सब कुछ समझ लिया था। उन्हें इस  बात का बखूबी एहसास हो गया था कि आज एक बार फिर पुरुष प्रधान समाज नें किसी दूसरी सीता को जीवन की जलती  रेत पर अकेली तड़पनें के लिए छोड़ दिया हो। उसके बाद बड़ी बहू नें रिश्तेदारों परिवार तथा समाज के वरिष्ठ जनों को साथ ले सुलह समझौते का अंतिम प्रयास किया, लेकिन बात बनी नहीं बिगडती ही गई।  सारे प्रयास असफल साबित हुए दवा ज्यों ज्यों की मर्ज बढ़ता गया।  सुलह समझौते का कोई प्रयास काम नहीं आया तो थक हार कर बड़ी बहू नें  न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी और इसी के साथ शुरू हो गया न्यायालय में दांव पेंच की लड़ाई के साथ तारीखों का अंतहीन सिलसिला जो बड़ी बहू के जीवन में खत्म नही हुआ और मंगरी के न्याय की आस मन में लिए ही एक दिन भगवान को प्यारी हो गई।

मंगरी अकेली रह गई जमाने से संघर्ष करने के लिए, उसके हौसलों में फिर भी कोई कमी नहीं आई।

बड़ी बहू की असामयिक मृत्यु ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया था। बड़ी बहू नहीं रही। मंगरी अकेली हो गई।  ससुराल से मायके छोडे़ जाने के बाद उसे पुत्र की प्राप्ति हुई, सिर से ममता की छाया उठने के बाद उसने अपने तथा बच्चे के भविष्य के लिए बड़ी बहू द्वारा शुरू की गई न्यायिक लड़ाई को उसके आखिरी मुकाम तक पंहुचाने का निर्णय ले लिया था मंगरी ने और उन नर पिशाचों से अपना हक पाने पर आमादा हो गई थी।

न्याय पाने के लिए हर कुर्बानी देना स्वीकार किया था उसने।  वह तारीख़ दर तारीख बच्चे को गोद उठाये सड़कों की धूल फांकती रही। न्याय की आस में न्यायालय के चक्कर पे चक्कर लगाती गई लेकिन न्याय से भेंट होना उतना ही छलावा निकला जितना अपनी परछाई पकड़ना।

कभी हड़ताल, तो कभी न्यायाधीश का अवकाश लेना, कभी वादी प्रति वादी अधिवक्ताओं का तारीख लेना।  इन्ही दाव पेंचो के बीच फंसी मंगरी की जिन्दगी उस कटी फटी पतंग की तरह झूल रही थी, जो झुरमुटों में फंसी फड़फड़ा तो सकती थी, लेकिन उन्मुक्त हो नीलगगन में उड़ नहीं सकती।

कुछ भी करना बस में नहीं, हताशा और निराशा के क्षणों में डूबती उतराती मंगरी का उन बिपरीत परिस्थितियों से उबरने का संघर्ष जारी था। बड़ी बहू की मृत्यु के बाद एकाकी जीवन के पीड़ा दायक जीवन जीने को विवश थी।  आमदनी का कोई जरिया नहीं घर में गरीबी के डेरे के बीच मंगरी उतना ही कमाई कर पाती जितनें में माँ बेटों के दोनों जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता।

वह पैतृक जमीन तथा बटाई की जमीन पर हाड़तोड़ मेहनत करती, लेकिन उसकी फसल कभी सूखा, तो कभी बाढ़ की भेंट चढ़ जाती।  उपर से रखवाली न होने से ऩंदी परिवार  तथा नील गायों का आतंक अलग।  इस प्रकार खेती किसानी मंगरी के लिए घाटे का सौदा साबित होती रही।  महाजनों का कर्जा मूल के साथ सूद समेत सुरसा के मुंह की तरह बढता जा रहा था। मंगरी की सारी पैतृक संपदा लील गया था और उसकी संपत्ति सूदखोरों के चंगुल मे फसती चली गई।

अब उसके पास सहारे के रुप में टूटा फूटा घर तथा सिर ढकने को मात्र आंचल का पल्लू ही बचा था, जिसमें वह कभी दुख के पलों में अपना मुंह छुपा रो लेती और अपना गम थोड़ा हल्का कर लेती।  उसका शिशु अब शैशवावस्था से निकल किशोरावस्था में कदम रखने वाला था।  उसकी आंखों में बच्चे को पालपोस पढा लिखा एक अच्छा वकील बनाने का सपना मचल रहा था।

वह रात दिन इसी उधेड़ बुन में रहती थी कि जिस अन्याय की आग में वह तिल तिल कर रोज जली है और लोग न जलने पाये उसका बेटा उन हजारों दीन दुखियों को न्याय दिला सके जो सताये हुए लोग है।

इसी बीच न्यायालय से मंगरी को चार हजार मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित हुआ था, उस दिन मंगरी बड़ी खुश थी।  उसे लगा कि अब उसे न्याय मिल जायेगा उसका बेटे को पढाने लिखाने का सपना साकार हो जायेगा।  उसके जीवन की राहें आसान हो जायगी।

यह सोच उसका न्यायिक ब्यवस्था पर भरोसा दृढ हो गया था। पर हाय रे किस्मत! यथार्थ के धरातल पर उसका सपना सपना ही रहा।  न्यायिक आदेश भ्रष्ट पुलिसिया तंत्र की भेंट चढ़ फाईलों में दब महत्व हीन हो रह गया।  न्यायिक आदेश तो सिर्फ जायज हक पर मोहर ठोकता है और फिर उसे भूल जाता है, क्योंकि न्यायिक आदेश के अनुपालन कराने के लिए जिस पैसे और पैरवी की जरूरत होती है वे दोनों ही मंगरी के पास नहीं थे,  जिसके चलते आदेश की प्रति फाइलों के अंबार में दबी दम तोड़ गई और उसे न्याय न दिला सकी, गुजारे की राशि मंगरी न पा सकी।

मंगरी चकरघिन्नी बन कभी वकील की चौकी, कभी न्यायालय परिसर, कभी भ्रष्ट पुलिसिया तंत्र के आगे हाथ जोड़कर रोती गिड़गिड़ाती दिखाई देती।  कभी कोई उसके जवान जिस्म को खा जाने वाले अंदाज में घूरता नजर आता तो वह सहम नजरें झुका कर खुद में सिमटते नजर आती।  उसे समझ नहीं आता कि आखिर वह करे भी तो क्या करे,?

क्रमश: पथराई आंखों का सपना भाग-2

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 32 ☆ अब के पतझड़ में ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “अब के पतझड़ में ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 32 ☆

☆ अब के पतझड़ में ☆

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

शाख से या घर से?

डर से या दर्द से !!

दर से दरबदर होगा

या दर्द से बेदर्द होगा?

बेदर्द इलाज लाएगा

या खुद लाइलाज

बन जाएगा।

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

ज़मीं से मिलेगा?

या ज़मीं ही बन जाएगा!!

दरख्त से बिछड़कर

धूल बन जाएगा,

या गर्द में फूल बनकर

डाली पर छा जाएगा!!

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

एक राह चलेगा

या बेराह हो जाएगा ?

राह चलते चलते

गुमराह बन जाएगा

या गुमराह बनकर

गुमनाम हो जाएगा।

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

फूलों सा बिखरेगा

या पत्ते सा झड़ जाएगा

डाली पर मलूल बनेगा

या सुर्ख हो जाएगा ।

मकाम को पाएगा

या खुद ही मकाम

बन जाएगा ।

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

 

पतझड़ को जाएगा

तो बसंत में आएगा

या पतझड़ का गया

बारिश में आएगा ।

सावन में मिल पाएगा

या खुद सावन

बन जाएगा ।

अब के पतझड़ में

कौन कौन झरेगा?

कौन जाने?

कौन कौन टूटेगा ?

कौन जाने?

26/2/20

© सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 38 – ज्योतिष शास्त्र ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं शिखाप्रद आलेख  “ज्योतिष शास्त्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 38 ☆

☆ ज्योतिष शास्त्र

क्या आप जानते हैं कि हमारी सौर प्रणाली की पूरी संरचना ऐसी है कि सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर अंडाकार कक्षा में गति कर रहे हैं । सूर्य के पास पहला ग्रह बुध है, फिर अगली कक्षा में शुक्र आता है । इन दो ग्रहों बुध और शुक्र को पृथ्वी काआंतरिक ग्रह कहा जाता है क्योंकि वे सूर्य और पृथ्वी के घूर्णन के बीच में आते हैं । तो शुक्र के बाद, पृथ्वी की कक्षा आती है जिसके चारों ओर हमारा चंद्रमा घूमता है । पृथ्वी के बाद के ग्रहों को बाहरी ग्रह कहा जाता है क्योंकि वे सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूर्णन की कक्षा के बाहर अपनी अलग अलग कक्षाओं में घूर्णन करते हैं । तो अनुक्रम में पृथ्वी के बाद आने वाले अन्य ग्रह मंगल, बृहस्पति और शनि हैं । तो ग्रहों का अनुक्रम है सूर्य (सूर्य को ज्योतिष के अनुसार ग्रह के रूप में मानें), बुध, शुक्र, पृथ्वी, पृथ्वी का चंद्रमा, मंगल, बृहस्पति, और फिर शनि । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उल्टी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । क्योंकि ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के अनुसार ही राहु और केतु की स्थिति भी बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद राहू (अथवा केतु) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं ।

अब अगर हम ज्योतिष की संभावनाओं से देखते हैं, तो ग्रहों की ऊर्जा इस प्रकार है सूर्य हमारी आत्मा या जीवन की रोशनी है, बुध स्मृति और संचार को दर्शाता है जो अक्सर बहुत तेजी से बदलते हैं । शुक्र, जो मूल रूप से इच्छाओं की भावनाओं को दिखाता है, भी तेजी से बदलता है, लेकिन बुध की तुलना में कम तेजी से । फिर पृथ्वी आती है, जिस पर हम विभिन्न ग्रहों के प्रभाव देख रहे हैं (जिसे हम मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क आदि मान सकते हैं) । फिर चंद्रमा आता है जो हमारे बदलते मस्तिष्क को दर्शाता है जो परिवर्तन में सबसे तेज़ है ।

फिर मंगल ग्रह आता है, जो हमारी शारीरिक शक्ति, हमारी क्षमता, सहनशक्ति, क्रोध इत्यादि दर्शाता है । मंगल ग्रह के बाद बृहस्पति आता है, जो दूसरों को सिखाने के लिए ज्ञान, शिक्षण और गुणवत्ता दिखाता है । अंत में शनि आता है, जो हमारे जीवन की उचित संरचना बनाने के लिए हमारे ऊपर लगाने वाले प्रतिबंधों के लिए ज़िम्मेदार है इसे क्रिया स्वामी भी कहा जाता है क्योंकि शनि हमारी जिंदगी की गति में रुकावटें डाल डाल कर हमें एक या अन्य कार्यों में निपुण बनाता है ।

अब यदि हम राशि चक्र में ग्रहों की स्थितियों और उसके ज्योतिषीय ऊर्जा के गुणों की तुलना करते हैं तो हम पायँगे कि ये एकदम सटीक हैं । चलो सूर्य से शुरू करते हैं, यह हमारे सौर मंडल का केंद्र है। सूर्य के चारों ओर सभी ग्रह घूमते हैं । ज्योतिष में भी सूर्य बुनियादी चेतना और ऊर्जा है जिसके साथ हम पृथ्वी पर आये थे । अगला ग्रह बुध है, जिसका घूर्णन चक्र ग्रहों के बीच सबसे छोटा है । इसके अतरिक्त बुध स्मृति और संचार को दर्शाता है जो अक्सर बदलता रहता है । दूसरे शब्दों में, संचार के माध्यम से किसी के विषयमें किसी को कुछ बताने में बहुत कम समय लगता है, एवं स्मृति में संस्कारों को संग्रहीत करने और वापस निकालने में बहुत कम समय लगता है और प्रत्येक क्षण में हमारी कुल स्मृति बदलती रहती है ।

अगला ग्रह शुक्र है, जिसके घूर्णन का चक्र ज्योतिष में बुध से बड़ा है । शुक्र इच्छाओं से उत्पन्न भावनाओं को दर्शाता है । प्रेम जैसी कुछ भावनाओं के प्रभाव से वापस सामान्य अवस्था में आने के लिए मानव को कई सप्ताह भी लग सकते हैं । बुध और शुक्र सूर्य और पृथ्वी के बीच में अपनी परिक्रमायें करते हैं, और इसी लिए इन्हे आंतरिक ग्रह कहा जाता है ।

इसके अतरिक्त बुध और शुक्र, जो स्मृति, संचार और भावनाओं से जुड़े हुए ग्रह हैं, हर मानव के आंतरिक मुद्दे हैं और कोई भी बाहरी व्यक्ति बाहरी रूप से देखकर उनके विषय में नहीं बता सकता है । ये मनुष्य के अंदर छिपे हुए व्यक्ति के आंतरिक गुण हैं, इसलिए हमारे राशि चक्र में भी बुध और शुक्र आंतरिक ग्रह हैं । पृथ्वी हमारा शरीर है जिसके संदर्भ से हम सभी ग्रहों के गति को देख रहे हैं । चंद्रमा, जो पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, हमारे हमेशा बदलते मस्तिष्क को दिखाता है, विशेष रूप से मस्तिष्क का मन वाला भाग, जो मानव का सबसे तेज़ गति से बदलने वाला आंतरिक अंग है । तो पृथ्वी के चारों ओर चंद्रमा के घूर्णन को अन्य ग्रहो के घूर्णन की तुलना में सबसे कम समय लगता है । चंद्रमा के विषय में यह भी महत्वपूर्ण है कि अन्य ग्रहों की गति सूर्य के चारों ओर है, जो किसी व्यक्ति की आत्मा है, लेकिन चंद्रमा की गति पृथ्वी के चारों ओर या व्यक्ति की भौतिक, दृश्य संरचना के चारो ओर है ।

तो चंद्रमा हमारे शरीर के चारों ओर हमारी सोच दर्शाता है, इसका अर्थ मुख्य रूप से भौतिक वस्तुओ के विषय में है, या अधिक स्पष्ट रूप से चंद्रमा का घूर्णन हमारे अन्नमय कोश और प्राणमय कोश को मनोमय कोश के माध्यम से प्रभावित करता है ।

चंद्रमा के बाद बाहरी ग्रहआते हैं । पहला मंगल है, जो हमारी शारीरिक शक्ति, सहनशक्ति, क्षमता और क्रोध को दर्शाता है । बेशक ये वे गुण हैं जिनका कोई भी मनुष्य किसी की दैनिक गतिविधियों का बाह्य रूप से विश्लेषण करके उनके विषय में बता सकता है । अर्थात मैं बाहर से देखने के बाद बता सकता हूँ कि शारीरिक रूप से आप कितने बलशाली है, बुध, शुक्र और चंद्रमा की तरह इस पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है कि आपके शरीर या मस्तिष्क के अंदर क्या हो रहा है ।

तो बाहरी ग्रह वे गुण दिखाते हैं जो बाहर से दिखाई देते हैं । अगला ग्रह बृहस्पति है, जो आपके ज्ञान और सिखाने की क्षमता दिखाता है जिसे बाहर से तय किया जाता है । अंतिम बाहरी ग्रह शनि है, जो हमारे जीवन में प्रतिबंधों और समस्याओं को दिखाता है जिन्हें बाहर से देखा जा सकता है ।

अब इस बिंदु पर वापस आते हैं कि हमारे ब्रह्मांड का आकार, संरचना और संगठन समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं । मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ । आपने क्षुद्रग्रह पट्टी के विषय में सुना है । क्षुद्रग्रह पट्टी सौर मंडल में स्थिति एक चक्राकार क्षेत्र है जो लगभग मंगल और बृहस्पति ग्रहों की कक्षाओं के बीच स्थित है । यह क्षेत्र क्षुद्रग्रहों या छोटे ग्रहों नामक कई अनियमित आकार वाले निकायों द्वारा भरा हुआ है। क्षुद्रग्रह पट्टी का आधा द्रव्यमान चार सबसे बड़े क्षुद्रग्रहों सेरेस, वेस्ता, पल्लस, और हाइजी में निहित है । असल में ये क्षुद्रग्रह एक आद्य ग्रह के अवशेष हैं जो बहुत पहले एक बड़े टकराव में नष्ट हो गया था; प्रचलित विचार यह है कि क्षुद्रग्रह बचे हुए चट्टानी पदार्थ हैं जो किसी ग्रह में सफलतापूर्वक सहवास नहीं करते हैं ।

© आशीष कुमार 

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 30 ☆ कोरोनाची ऐशी तैशी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  कोरोना विषाणु  पर  एक समसामयिक रचना  “कोरोनाची ऐशी तैशी”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 30 ☆

☆ कोरोनाची ऐशी तैशी ☆ 

(काव्यप्रकार:-अभंग रचना)

कोरोनाच्या मुळे !

जग थांबलया !

विश्रांती घेतया !

शांतपणे !!१!!

 

अनेक वर्षांची !

रेल्वेची ती सेवा !

घेतीये विसावा !

मनसोक्त !!२!!

 

वाहणारे रस्ते !

घेतात आराम !

कधीच विश्राम !

नसे त्यांना !!३!!

 

जाहलिये थंड !

वाहनांची गर्दी !

पोलीसांची वर्दी !

जागोजागी !!४!!

 

हात ते हातात !

घेत नाही आम्ही!

म्हणतो हो आम्ही !

रामराम !!५!!

 

हात धुण्यासाठी !

सॅनिटायझर !

हो वापरणार !

घरोघरी !!६!!

 

कोरोना रोखण्या !

डॉक्टर धावती !

सिस्टर पळती !

मदतीला !!७!!

 

घरात बसुनी !

पाळुया नियम !

शासना मदत !

करुयाहो !!८!!

 

घरात राहूनी !

खेळ आम्ही खेळू !

साखर ती दळू !

जात्यावर !!९!!

 

सागर गोट्यांच्या !

खेळात हातांना !

व्यायाम डोळ्यांना !

छान होई !!१०!!

 

सागर किनारी !

स्वच्छंदपणाने !

आनंदे हरिणे !

बागडती !!११!!

 

पिसारा फुलवी !

मोर तो सुंदर !

नाचे रस्त्यावर !

बिनधास्त !!१२!!

 

उर्मिला म्हणते !

नियम ते पाळा !

आरोग्य सांभाळा !

आपुलाले !!१३!!

 

©️®️ उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक:-११-४-२०

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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मराठी साहित्य – कविता ☆ ज्योती म्हणजेच क्रांती ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटतेआज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय  एवं प्रेरक कविता ज्योती म्हणजेच क्रांती। 

☆ ज्योती म्हणजेच क्रांती☆

 

अखंड क्रांतीची ज्योत पेटवली

धाडसाने आद्य क्रांतिकारका

विचारांच्या तेजाने उजळवली

धरती सवे असंख्य तारका

तू जन्मला सत्य शोधण्यासाठी

माता बघिणींच्या शिक्षणासाठी

जाहलास ज्ञानाची अखंड गंगा

लढला असप्रुश्यता घालवण्यासाठी

शिक्षणाची देवता तूच ज्योती

धन्य तुझ्या अंगणातली ती हौद जाहली

महाराष्ट्रासवे ही भारत माता

नमन करून तुज महात्मा म्हटली

किती वंदावे तुज महात्मा

मानव धर्माचा पुरस्कर्ता

न्याय दिधला विधवा कूमारी

अनाथ बालकांचा पालनकर्ता

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 42 ☆ सत्य और कानून ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का सत्य के धरातल पर लिखा गया  महत्वपूर्ण आलेख नारी आंदोलन पर आपके व्यक्तिगत विचारों से परिपूर्ण एक दस्तावेज है। नारी शक्ति विमर्श की प्रणेता डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 42 ☆

☆ सत्य और कानून 

‘फैसला जो भी सुनाया जाएगा / मुझको ही मुजरिम बताया जाएगा/ आजकल सच बोलता फिरता है वह/ देखना सूली पर चढ़ाया जाएगा’ अर्चना ठाकुर जी की यह पंक्तियां हांट करती हैं और वर्तमान परिस्थितियों पर बखूबी प्रहार करती हैं। यह शाश्वत सत्य है कि हर अपराध के लिए दोषी औरत को  ठहराया जाता है; भले वह अपराध उसने किया ही न हो। इतना ही नहीं, उसे तो अपना पक्ष रखने का अधिकार भी प्रदान नहीं किया जाता। सतयुग में अहिल्या त्रेता में सीता, द्वापर में द्रौपदी और कलयुग में निर्भया जैसी हज़ारों महिलाएं आपके समक्ष हैं। निर्भया के दुष्कर्मी, जिनहें सात वर्ष गुज़र जाने और बार-बार फांसी व डैथ-वारंट जारी होने का फरमॉन सुना देने के पश्चात् भी, बचाव के अवसर प्रदान किए जा रहे हैं, मनोमस्तिष्क  को आहत करते हैं और कानून-व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं और सोचने को विवश करते हैं कि अपराधियों को बार-बार क्यूरेटिव-याचिका या गत वर्षों की मार-पीट के केस दर्ज  करवाने की अनुमति क्यों?

वैसे तो कहा जाता है ‘इग्नोरेंस ऑफ ला इज़ नो ऑफेंस’ अर्थात् कानून की अनभिज्ञता व अज्ञानता बेमानी है, अपराधी के बचने का विकल्प अथवा साधन नहीं है। क्या यह कानून सामान्यजनों के लिए है, दुष्कर्मियों व अपराधियों के लिए कारग़र नहीं;  शायद मानवाधिकार आयोग भी जघन्य अपराधियों की सुरक्षा के लिए बने हैं; उनके हितों की रक्षा करना उनका प्रथम व प्रमुख दायित्व है। जी हां! यही सब तो हो रहा है हमारे देश में। एक प्रश्न मन को बार-बार कचोटता है कि यदि बीजिंग में तीस मिनट में दुष्कर्मी को तलाश कर, जनता के हवाले करने के पश्चात् फांसी पर लटकाया जा सकता है, फिर हमारे देश में यह सब संभव क्यों नहीं है?

वास्तव में हमारा कानून अंधा और बहरा है। यहां निर्दोष व औरत को अपना पक्ष रखने व न्याय पाने का अधिकार कहां है? प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है? आपके समक्ष है… निर्भया व उन्नाव की पीड़िता व दुष्कर्म का शिकार होती महिलाओं के साथ होते संगीन अपराधों के रूप में… दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर ज़िंदा जला डालने, ईंटों से प्रहार कर सबूत मिटाने व शव को गंदे नाले में फेंक बहा देने के हादसे। सो! मस्तिष्क में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि किस कसूर की सज़ा दी जाती है उन मासूम बालिकाओं-युवतियों; उनके माता-पिता व परिवारजनों को… जो वर्षों तक कचहरी में ज़लील होने के पश्चात् मन मसोस कर निराश लौट आते हैं, क्योंकि वहां अपराधियों को नहीं; शिकायत-कर्त्ताओं को कटघरे में खड़ा किया जाता है… हर बार नयी कहानी गढ़ी जाती है तथा अपराधियों को बचाव का हर अवसर प्रदान किया जाता है। क्यों..क्यों..आखिर  क्यों? ऐसे संगीन अपराधियों व दुष्कर्मियों को छोड़ दिया जाता है ज़मानत पर…शायद एक नया ज़ुर्म करने को… एक नया अपराध करने को… उदाहरण आपके समक्ष हैं; उन्नाव की पीड़िता का, जहां ऐसे अपराधी उसके प्रियजनों पर दबाव डालते हैं या उन्हें किसी हादसे में मार गिराते हैं अथवा पुन:उस पीड़िता को सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बनाते हैं।

सो! अर्चना जी की यह पंक्तियां सत्य व सार्थक प्रतीत होती हैं। अपराधिनी तो हर स्थिति में महिला को ही ठहराया जाता है, क्योंकि वह हर जुल्म सहती है… ‘सहना और कुछ न कहना’ औरत की नियति है, जिसे वह युग-युगांतर से सहन करती आ रही है। हमारे शास्त्रों में संविधान रचयिता भी तो पुरुष ही थे। सो! सभी कायदे-कानून उनके पक्ष में बनाए गए हैं और औरत को सदा कटघरे में खड़ा कर, दोषारोपण नहीं किया गया, उसे प्रताड़ित व तिरस्कृत किया गया है। मुझे 2007 में स्व-प्रकाशित काव्य-संग्रह अस्मिता की ‘संस्कृति की धरोहर’ की पंक्तियां– ‘अधिकार हैं/ पुरुष के लिए/ नारी के लिए मात्र कर्त्तव्य/ इसमें आश्चर्य क्या है/ यह तो है युगों युगो की परंपरा/ संस्कृति की धरोहर।’ सतयुग में अहिल्या को शाप दिया गया था। अहिल्या कविता में ‘दोष पुरुष का/ सज़ा स्त्री को/ यही नियति है/ तुम्हारी युगों-युगों से।’ गांधारी कविता की– ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है पति के हाथों का/ कठपुतली है/ जो नाचती है इशारों पर/ घोंटती है गला/ अपनी इच्छाओं का/उसकी खुशी के लिए/ सामंजस्यता के लिए/ करती है होम/आकांक्षाओं का/ समरसता के लिए/ देती है बलि सपनों की/ करती है नष्ट अपना वजूद/ सब की इच्छाओं के प्रति सदैव समर्पित/—-और यदि ऐसा ना करे/ तो राह देख रहा होता है/ कोई तंदूर/ बिजली का नंगा तार/ मिट्टी के तेल का डिब्बा/ पंखे से झूलती रस्सी/ मन में भावनाओं ने/ अंगड़ाई ली नहीं/ तैयार हैं/ बंदूक की गोलियां/ या तेज़ाब की बोतल/ तेज़ाब… परिणाम उसके सपनों का/ जीवन के रूप में खौफ़नाक/ ऐसे ही भय या विवशता से/ मूंद लेती है/ वह निज आंखें/ और बन जाती है/गांधारी।’

शायद उपरोक्त पंक्तियां समर्थन करती हैं कि मुज़रिम सदैव औरत ही होती है। मुझे याद आ रही हैं, इसी पुस्तक की यशोधरा की ये पंक्तियां–’शायद भगवान भी क्रूर है/ कानून की तरह/ जो अंधा है, बहरा है/ जो जानता है/ केवल कष्ट देना/ ज़ुल्म करना/ उसके शब्दकोश में/ समस्या शब्द तो है/ परंतु निदान नहीं।’ रावण कविता की ये पंक्तियां आज भी समसामयिक हैं, सार्थक हैं। ‘सीता/ सुरक्षित थी/ राक्षसों की नगरी में/ उनके मध्य भी/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य भी/ परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है शैतान/ वे हैं नर पिशाच।’ क्या यह सत्य नहीं कि कानून और सृष्टि-नियंता ने भी दुष्टों के सम्मुख घुटने टेक दिए हैं।

औरत को हर पल अग्नि-परीक्षा से गुज़रना पड़ता है और सज़ा सदैव औरत को ही दी जाती है… दोषी भी वही ठहराई जाती है– ‘है यहां अंधा कानून/ चाहता है ग़वाह/ चश्मदीद ग़वाह/ जो बयां कर सके आंखों-देखी/ वह ग़वाह तो/-अस्मत लूटने वाला/

दरिंदा है/ जो कटघरे में खड़ा है/ कह रहा है निर्दोष स्वयं को/ और लगा रहा है तोहमत/ उस मासूम पर/ जिसकी अस्मत का/ सौदा हो रहा है/ कटघरे से बाहर/ कानून की/ बंद आंखों की/ पहुंच से परे/और परिणाम/ सब ग़वाहों और बयानों को/ मद्देनज़र रखते हुए/ अपराधी को बेग़ुनाह/ साबित करते हुए/ बा-इज़्ज़त/ बरी किया जाता है/ हंस रही है/ व्यंग्य से / वह फर्श पर/ टूटी हुई चूड़ियां/ यह अनकही /दास्तान हैं/ दर्द का बयान हैं।’

‘सच बोलता फिरता है वह/ देखना सूली पर चढ़ाया जाएगा’ कोटिश: सत्य कथन है। अनेक प्रश्न उठते हैं मन में– ‘कानून!/ रक्षक समाज का/ मनुष्य-मात्र का/ कर लेता नेत्र बंद/ बलात्कार का इल्ज़ाम/ सिद्ध होने पर/ क्यों नहीं चढ़ा दिया जाता/ उसे फांसी पर/ या बना दिया जाता है/ नपुंसक/ एहसास दिलाने को/ वह घिनौना कृत्य/ जिसे अंजाम दे/ कर दिया नष्ट/ जीवन उस मासूम का/ नोच डाला/ अधखिली कली को/ और  छीन लिया/ उसका बचपन।’

सत्य भले ही लंबे समय के पश्चात् उजागर होता है, परंतु उससे पहले ही आजकल उसे सूली पर चढ़ा दिया जाता है। यही है आज के युग का सत्य… झूठ उजागर होना चाहता है, क्योंकि अपराधियों को किसी का भय नहीं,  जिसका प्रमाण है—देश में बढ़ती दुष्कर्म की घटनाएं, मानव अंगों की तस्करी के लिए अपहरण की घटनाएं, सरे-आम भीड़ में तलवार लहराते और हवा में गोलियां चलाते दहशतगर्दों के  बुलंद हौसले, जिन्हें देखकर हर इंसान भयभीत व  आक्रोशित है, क्योंकि वह स्वयं को असुरक्षित  अनुभव करता है। काश! हमारे संविधान में संशोधन हो पाता; कानून की लचर धाराओं को बदला जाता और अपराधियों के लिए कड़ी से कड़ी सज़ा का प्रावधान होता। ‘जैसा जुर्म, वैसी सज़ा दी जाती, तो दरिंदों के हौसले पस्त रहते और वे उसे अंजाम देने से पहले लाख बार विचार करते। परंतु जब तक हमारा ज़मीर नहीं जागेगा, सब ऐसे ही चलता रहेगा। इसके लिए औरत को इंसान समझने की दरक़ार है। जब तक उसे दलित, दोयम दर्जे की प्राणी व उपभोग की वस्तु-मात्र समझा जाएगा, तब तक यह भीषण हादसे घटित होते रहेंगे…देह-व्यापार पर अंकुश नहीं लग पायेगा…दुष्कर्म होते रहेंगे और हर अपराध के लिए औरत को ही मुज़रिम करार किया जायेगा। लोग मुखौटा धारण कर, औरत की अस्मत से खिलवाड़ करते रहेंगे और वह महफ़िलों की शोभा बन उन्हें रोशन करती रहेगी। आवश्यकता है– सामंजस्य की, जिसका सिंचन संस्कारों द्वारा ही संभव है। हमें जन्म से ही लड़के-लड़की को समान समझ उन्हें संस्कारित करना होगा… मर्यादा व संयम का पाठ पढ़ाना होगा। बेटियों को आत्मरक्षा हित जूडो-कराटे सिखाना होगा; आत्मनिर्भर बनाना होगा, ताकि उसे कभी भी दूसरों के सामने हाथ न पसारने पड़ें। इतना ही नहीं, हमें उन्हें यह एहसास दिलाना होगा कि विवाहोपरांत भी इस घर के द्वार उसके लिए खुले हैं। वह उस घर का हिस्सा थीं और सदैव रहेंगी।

वैसे तो दुष्कर्म के हादसों के संदर्भ में चश्मदीद गवाह की मांग करना हास्यास्पद है। इस स्थिति में साक्ष्यों के आधार पर तुरंत निर्णय लेना ही कारग़र है ताकि अपराधियों को सबूत मिटाने, परिवारजनों को धमकी देने व उस दुष्कर्म-पीड़िता को ज़िंदा जलाने जैसे अपराधों की पुनरावृत्ति न हो। आज कल के युवा बहुत सचेत व इस तथ्य से अवगत हैं कि ‘एक व दस अपराधों की सज़ा समान होती है।’ सो! वे दुष्कर्म के करने के पश्चात् पीड़िता की हत्या कर निश्चिंत हो जाते है, क्योंकि ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ अर्थात्  पीड़िता के ज़िंदा न बचने पर, उन्हें साक्ष्य जुटाने में वर्षों गुज़र जायेंगे।

आधुनिक युग में हर इंसान बिकता है। हमारे नुमाइंदे भी सत्ता का दुरुपयोग कर आरोपियों को संरक्षण प्रदान कर, अपनी पीठ थपथपाते हैं और पीड़िता के परिजन दहशत के साये में जीने को विवश होते हैं। अक्सर तो वे मौन धारण कर लेते हैं, क्योंकि उनके कारनामों की रिपोर्ट दर्ज कराना तो उनसे पंगा लेने के समान है–’आ! बैल, मुझे मार’ की स्थिति को आमंत्रण देने, मुसीबतों व दुश्वारियों को आमंत्रण देने जैसा है।

आश्चर्य होता है, अपने देश की कानून-व्यवस्था को देख कर–यदि वे शिकायत दर्ज कराने कि साहस जुटाते हैं, तो कोई साक्ष्यकर्त्ता ग़वाही देने की जुर्रत नहीं करता क्योंकि कोई भी अपनी हंसती-खेलती गृहस्थी की खुशियों में सेंध नहीं लगाना चाहता। ‘भय बिनु होत न प्रीति’ बहुत सार्थक उक्ति है। सो! हमें कानून को सख्त बनाना होगा, ताकि समाज में अव्यवस्था व जंगल-राज न फैले। वास्तव में त्वरित न्याय-व्यवस्था वह रामबाण औषधि है, जो कोढ़ जैसी इस लाइलाज बीमारी पर भी विजय प्राप्त कर सकती है।

आइए! गूंगी-बहरी व्यवस्था को बदल डालें। लोगों में आधी आबादी में विश्वास जाग्रत करें ताकि उनमें सुरक्षा का भाव जाग्रत हो व भ्रूण-हत्या जैसे अपराध समाज में न हों और लिंगानुपात बना रहे। समन्वय, सामंजस्य व समरसता हमारी संस्कृति की अवधारणा है, जो समाज में सत्यम् शिवम् व सुंदरम् की स्थापना करती है। सज़ा अपराधी को ही मिले और सत्यवादी को न्याय प्राप्त हो…उसे सूली पर न चढ़ाया जाए…यही अपेक्षा है कानून-व्यवस्था से। सत्य का पक्षधर को सदैव यथासमय, शीघ्र न्याय प्राप्त होना चाहिए। सो! समाज में राग-द्वेष, स्व-पर आदि का स्थान न हो और संसार का हर बाशिंदा स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा, त्याग आदि की भावनाओं से आप्लावित हो, सकारात्मक सोच का धनी हो। ‘जो हुआ,अच्छा हुआ/ जो होगा,अच्छा होगा…यह नियम सच्चा है।’ सो! जो अच्छा व शुभ नहीं, त्याज्य है; उसका विरोध करना अपेक्षित है। द्वंद्व संघर्ष का परिणाम है और संघर्ष ही जीवन है। जब तक मानव में सत्य को स्वीकारने का साहस नहीं होगा, ज़ुल्म होते ही रहेंगे। सो! धैर्य वह संजीवनी है, जो वर्तमान व भविष्य को सुखद बनाने में समर्थ है…आनंद-प्रदाता है। आइए! विश्व-कल्याण हेतु इस यज्ञ में समिधा डालें ताकि वायु प्रदूषण ही नहीं; मानसिक व सांस्कृतिक प्रदूषण का अस्तित्व भी न रहे और प्राणी-मात्र सुक़ून की सांस ले सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 42 ☆ समय की धार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा  समय की धार।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 42 – साहित्य निकुंज ☆

☆ समय की धार

इंदू की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.

हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.

उसने कहा..” मां बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते.”

हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ.”

“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द , मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी मां जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी.

मां बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये.”

“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो.”

दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा.”

“इंदु  अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो.”

“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया,

इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”

“इंदु एक बात ध्यान रखना माता -पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है.”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 33 ☆ संतोष के शब्द आधारित दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  के   “संतोष के शब्द आधारित दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 33 ☆

☆ संतोष के शब्द आधारित दोहे ☆

 

रामायण

रामायण से मिल रहा,सामाजिक संदेश

अनुशासन की सीख दे,सिखलाती परिवेश

 

रामनवमी

राम जन्म के शुभ दिवस,भरते मन उत्साह

रामनवमी के पर्व पर,हो आंनद अथाह

 

विज्ञान

नव निर्माण करता सदा,यह नवीन विज्ञान

कोरोना का करेगा,करके खोज  निदान

 

अरविंद

मन मनसिज हरते वही,सबके प्रभु गोविंद

खिलते जिनकी दया से,कीचड़ में अरविंद

 

अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति ही दर्शाती, मानव का व्यक्तित्व

वाणी में हो मधुरता,सुंदर रहे कृतित्व

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – जाण ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक वात्सल्यमयी रचना ‘जाण’।  यह सत्य है कि  हम सब पैसों के लिए भागते हैं। जीवन में कई  क्षण आते हैं, जब लगता है कि पैसा ही  बहुत कुछ होता है । किन्तु, फिर एक क्षण ऐसा भी आता है जब लगता है कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ जाण 

( करूण रस )

 

गेला लेक

दूर देशी

माऊलीचे

चित्त नेशी…….१

 

लागे मनी

हूर हूर

आठवांना

येई पूर…..२

 

एकुलता

लेक गेला

जीव झाला

हळवेला……३

 

पैशासाठी

गेला दूर

घरदार

चिंतातूर ….४

 

नाही वार्ता

नाही पत्र

अंतरात

चिंता सत्र…..५

 

एकलीच

वाट पाही

झाला  देह

भार वाही…..६

 

कोणे दिनी

पत्र आले

खूप सारे

पैसे  दिले…….७

 

हवा होता

त्याचा वेळ

लेकराने

केला खेळ……८

 

नाही तुला

काही कमी

देतो पैसे

दिली हमी ……९

 

वात्सल्याची

नाही जाण

माऊलीचा

गेला प्राण……१०

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 25 ☆ लघुकथा – सोच — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “सोच —-”।  यह लघुकथा हमें  एक सकारात्मक सन्देश देती है।  परिवार के सभी सदस्यों को अपनी सोच बदलने की  आवश्यकता  है। वैसे  इस मंत्र को आज सभी  ने महसूस किया है एवं उसका अनुपालन भी हो रहा है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत सकारात्मक रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 25 ☆

☆ लघुकथा – सोच —-

माँ ! भाभी की मीटिंग तो खत्म ही नहीं हो रही है.

तो तुझे क्या करना है? कुछ काम है भाभी से?

अरे नहीं,  लॉकडाउन की वजह से खाना बनानेवाली काकी तो नहीं आएगी ना? बर्तन, कपडे, झाडू-पोंछा सब करना पडेगा हमें?

हाँ, तो क्या हुआ? पहले नहीं करते थे क्या हम सब? कामवाली बाईयां तो अब कोरोना महामारी  खत्म होने के बाद ही आएगी. लॉकडाउन की वजह से कोई कहीं आ-जा नहीं सकता है.

हाँ वही तो मैं भी कह रही हूँ और भाभी हर समय अपने ऑफिस के काम में ही लगी रहती हैं, घर के काम कौन करेगा? निधि ने मुँह बनाते हुए कहा.

ओह, तो अब समझ आया कि तुझे भाभी की इतनी याद क्यों आ रही है – सुनयना मुस्कुराती हुई बोली- ये बता जब तक तेरे भैया की शादी नहीं हुई थी तो घर के काम कौन करता था ?

मैं और तुम, हाँ छुट्टी वाले दिन पापा और भैया भी हमारी मदद कर दिया करते थे.

तो आज भाभी का इतना इंतजार क्यों हो रहा है? हम सब आराम से घर में बैठे हैं और वो बेचारी सुबह से लैपटॉप पर आँखें गडाए काम कर रही है. उसमें से भी जब समय मिलता है तो उठकर घर के काम निपटा देती है. उसका भी तो मन करता होगा ना थोडा आराम करने का, वह इंसान नहीं है क्या ? चल उठ, हम दोनों जल्दी से रसोई का काम निपटा देते है. सबको मिलकर काम करना चाहिए,  बहू अकेले कितना काम करेगी?

शुभा आज बहुत थक गई थी, सिर में दर्द भी हो रहा था.  आठ दस घंटे काम करने के बाद भी मैनेजर का मुँह चढा ही रहता है, इसी बात को लेकर मैनेजर से झिक-झिक भी हो गई थी. कोरोना के कारण लोग घर बैठकर बिना काम के बोर हो रहे थे पर आई टी वालों को तो घर से काम करना था. वह अपने कमरे से निकल ही रही थी कि उसे अपनी सास और नंद निधि की बातचीत सुनाई दी. उसकी आँखें भर आईं वह सोचने लगी काश! ऐसी ही सोच समाज में सबकी हो जाए?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

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