हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 32 ☆ कविता-  ग्राम्य विकास ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक बुंदेलखंडी कविता “ग्राम्य विकास”आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 32

☆ कविता-  ग्राम्य विकास  

 

सड़क बनी है

बीस बरस से

मोटर कबहुं

नहीं आई ।

 

गांव के गेवड़े

खुदी नहरिया

बिन पानी शरमाई।

 

टपकत रहो

मदरसा कबसें

धूल धूसरित

भई पढ़ाई ।

 

कोस कोस से

पियत को पानी

और ऊपर से

खड़ी चढ़ाई ।

 

बिजली लगत

रही बरसों से

पे अब लों

तक लग पाई ।

 

जे गरीब की

गीली कथरी

हो गई है

अब फटी रजाई।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #36 – कैसे हो गाँव का विकास ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “कैसे हो गाँव का विकास”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 35 ☆

☆ कैसे हो गाँव का विकास

है अपना हिंदुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गाँवों में ! दुनिया में हमारे गांवो की विशिष्ट पहचान यहां की आत्मीयता,सचाई और प्रेम है.विकास का अर्थ आर्थिक उन्नति से ही लगाया जाता है, हमारे गाँवो का ऐसा विकास होना चाहिये कि आर्थिक उन्नति तो हो किन्तु हमारे ग्रामवासियों के ये जो चारित्रिक गुण हैं, वे बने रहें . गांवो के आर्थिक विकास के लिये कृषि तथा मानवीय श्रम दो प्रमुख साधन प्रचुरता में हैं. इन्हीं दोनो से उत्पादन में वृद्धि व विकास संभव है. उत्पादकता बढ़ाने के लिये बौद्धिक आधार आवश्यक है, जो अच्छी शिक्षा से ही संभव है. पुस्तकीय ज्ञान व तकनीक शिक्षा के दो महत्व पूर्ण पहलू हैं. ग्राम विकास के लिये तकनीकी शिक्षा के साथ साथ चरित्रवान व्यक्ति बनाने वाली शिक्षा दी जानी चाहिये. वर्तमान स्वरूप में शिक्षित व्यक्ति में शारीरिक श्रम से बचने की प्रवृत्ति भी स्वतः विकसित हो जाती है, यही कारण है कि शिक्षित युवा शहरो की ओर पलायन कर रहा है. आज ऐसी शिक्षा की जरूरत है जो सुशिक्षित बनाये पर  व्यक्ति शारीरिक श्रम करने से न हिचके.

स्थानीय परिस्थितियो के अनुरूप प्रत्येक ग्राम के विकास की अवधारणा भिन्न ही होगी, जिसे ग्राम सभा की मान्यता के द्वारा हर ग्रामवासी का अपना कार्यक्रम बनाना होगा. कुछ बिन्दु निम्नानुसार हो सकते हैं..

  1. जहाँ भूमि उपजाऊ है वहां खेती, फलों फूलो बागवानी नर्सरी को बढ़ावा, व कृषि से जुड़े पशुपालन का विकास
  2. वन्य क्षेत्रो में वनो से प्राप्त उत्पादो से संबंधित योजनायें व कुटिर उद्योगो को बढ़ावा
  3. शहरो से लगे हुये गांवो में शासकीय कार्यालयो में से कुछ गांव में प्रारंभ किया जाना,जिससे शहरो व गांवो का सामंजस्य बढ़े
  4. पर्यटन क्षेत्रो से लगे गाँवो में पर्यटको के लिये ग्रामीण आतिथ्य की सुविढ़ायें सुलभ करवाना
  5. विशेष अवधारणा के साथ समूचे गांव को एक रूपता देकर विशिष्ट बनाकर दुनिया के सामने रखना, उदाहरण स्वरूप जैसे जयपुर पिंक सिटी के रूप में मशहूर है, किसी गांव के सारे घर एक से बनाये जा सकते हैं, उन्हें एक रंग दिया जा सकता है और उसकी विशेष पहचान बनाई जा सकती है, वहां की सांस्कृतिक छटा के प्रति, ग्रामीण व्यंजनो के प्रति प्रचार के द्वारा लोगो का ध्यान खींचा जा सकता है.
  6. कार्पोरेट ग्रुपों द्वारा गांवों  में अपने कार्यालय खोलने पर उन्हें करों में छूट देकर कुछ गांवो की विकास योजनायें बनाई जा सकती है।

इत्यादि इत्यादि अनेक प्रयोग संभव हैं,पर हर स्थिति में ग्रामसंस्कृति का अपनापन, प्रेम व भाईचारे को अक्षुण्य बनाये रखते हुये, गांव से पलायन रोकते हुये,गाँवो में सड़क, बिजली,संचार,स्वच्छ पेय जल, स्वास्थ्य सुविधाओ की उपलब्धता की सुनिश्चितता व स्थानीय भागीदारी से ही गांवो का सच्चा विकास संभव है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 35☆ व्यंग्य – मुहल्ले का डॉक्टर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का  व्यंग्य  ‘मुहल्ले का डॉक्टर’ वास्तव में हमें  इस सामाजिक सत्य से रूबरू कराता है। साथ ही यह भी कि मोहल्ले के डॉक्टर से मुफ्त समय, दवाइयां और फीस  की अपेक्षा कैसे की जाती है।  आखिर किसी  के व्यवसाय को  ससम्मान व्यावसायिक दृष्टिकोण से क्यों नहीं देखा जाता ?  ऐसी  सार्थक रचना के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 35 ☆

☆ व्यंग्य – मुहल्ले का डॉक्टर ☆

जनार्दन ने एम.बी.बी.एस. करने के बाद मुहल्ले में क्लिनिक खोलने का निर्णय लिया। मुहल्ला पढ़े-लिखे, खाते-पीते परिवारों का था, इसलिए प्रैक्टिस चल पड़ने की काफी गुंजाइश थी।

उन्होंने एक दिन मुहल्ले के परिवारों को क्लिनिक के उद्घाटन का आमंत्रण भेजा। क्लिनिक के सामने शामियाना लगवाया, कॉफी बिस्कुट का इंतज़ाम किया। शाम को मुहल्ले के लोग परिवारों के साथ इकट्ठे हो गये।

बुज़ुर्गों की तरफ से सुझाव आने लगे– ‘किसी को ब्लड-प्रेशर नापने के लिए बैठा देते’ या ‘ब्लड-शुगर की जाँच के लिए किसी को बैठा देते, तब सही मायने में क्लिनिक का उद्घाटन होता।’ डॉक्टर साहब सबके सुझाव सुन रहे थे। हर सुझाव का जवाब था—–‘कल से सब शुरू होगा। आज तो आप सब का आशीर्वाद चाहिए।’

मुहल्ले के बुज़ुर्ग लाल साहब डॉक्टर साहब के पीछे पीछे घूम रहे थे। बीच बीच में कह रहे थे, ‘एक बार मेरी जाँच कर लेते तो अच्छा होता। तबियत हमेशा घबराती रहती है। किसी काम में मन नहीं लगता। भूख भी आधी हो गयी है।’

डॉक्टर साहब ने ऐसे ही पूछ लिया, ‘यह परेशानी कब से है?’

लाल साहब बोले, ‘सर्विस में एक बार डिपार्टमेंटल इनक्वायरी बैठ गयी थी। उसमें तो छूट गया, लेकिन तब से डर बैठ गया। रात को कई बार पसीना आ जाता है और नींद खुल जाती है।’

डॉक्टर साहब ने पीछा छुड़ाया, बोले, ‘कल आइए, देख लेंगे।’

लाल साहब निराश होकर चुप हो गये।

डॉक्टर साहब का उद्घाटन कार्यक्रम हो गया। सब उन्हें शुभकामना और आशीर्वाद देकर चले गये।

दूसरे दिन लाल साहब सबेरे साढ़े सात बजे ही डॉक्टर साहब के दरवाज़े पर हाज़िर होकर आवाज़ देने लगे। डॉक्टर साहब भीतर से ब्रश करते हुए निकले तो लाल साहब बोले, ‘मैं पार्क में घूमने के लिए निकला था। सोचा, लगे हाथ आपको दिखाता चलूँ। दुबारा कौन आएगा।’

डॉक्टर साहब विनम्रता से बोले, ‘साढ़े दस बजे आयें अंकल। उससे पहले नहीं हो पाएगा।’

लाल साहब ने ‘अरे’ कह कर मुँह बनाया और विदा हुए। फिर दोपहर को हाज़िर हुए। डॉक्टर साहब ने जाँच-पड़ताल करके कहा, ‘कुछ खास तो दिखाई नहीं पड़ता। ब्लड-शुगर की जाँच कराके रिपोर्ट दिखा दीजिए।’

लाल साहब निकलते निकलते दरवाज़े पर मुड़ कर बोले, ‘मुहल्ले वालों से फीस लेंगे क्या?’

डॉक्टर साहब संकोच से बोले, ‘जैसा आप ठीक समझें।’

लाल साहब ‘अगली बार देखता हूँ’ कह कर निकल गये।

डॉक्टर साहब ने शाम की पारी में नौ बजे तक बैठने का नियम बनाया था। दो तीन दिन बाद मुहल्ले के एक और बुज़ुर्ग सक्सेना जी रात के दस बजे आवाज़ देने लगे। डॉक्टर साहब निकले तो बोले, ‘अरे, सत्संग में चला गया था। वहाँ टाइम का ध्यान ही नहीं रहा। घर में बच्चे को ‘लूज़ मोशन’ लग रहे हैं। कुछ दे देते। आपके पास तो सैंपल वगैरह होंगे।’

डॉक्टर साहब ने असमर्थता जतायी तो सक्सेना साहब नाराज़ हो गये। बोले, ‘जब मुहल्ले वालों का कुछ खयाल ही नहीं है तो मुहल्ले में क्लिनिक खुलने से क्या फायदा?’

वे भकुर कर चले गये।

फिर एक दिन एक बुज़ुर्ग खन्ना साहब आ गये। उन्होंने बताया कि उनके डॉक्टर साहब के मरहूम दादाजी से बड़े गहरे रसूख थे और उनकी उनसे अक्सर मुलाकात होती रहती थी। वे बार बार कहते रहे कि डॉक्टर साहब उनके लिए पोते जैसे हैं। आखिर में वे यह कह कर चले गये कि वे फीस की बात करके डॉक्टर साहब को धर्मसंकट में नहीं डालना चाहते। चलते चलते वे डॉक्टर साहब को ढेरों आशीर्वाद दे गये।

फिर दो चार दिन बाद रात को एक बजे डॉक्टर साहब का फोन बजा। उधर मुहल्ले के एक और बुज़ुर्ग चौधरी जी थे।बोले, ‘भैया, पेट में बड़ी गैस बन रही है। एसिडिटी बढ़ी है। नींद नहीं आ रही है। कुछ दे सको तो किसी को भेजूँ।’

डॉक्टर साहब ने फोन ‘स्विच ऑफ’ कर दिया।

अब कभी कभी डॉक्टर साहब सोचने लगते हैं कि मुहल्ले में दवाखाना खोलकर अक्लमंदी का काम किया या बेअक्ली का?

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #33 ☆ शारदीयता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 33 ☆

☆ शारदीयता ☆

कुछ चिंतक भारतीय दर्शन को नमन का दर्शन कहते हैं जबकि यूरोपीय दर्शन को मनन का दर्शन निरूपित किया गया है।

वस्तुतः मनुष्य में विद्यमान शारदीयता उसे सृष्टि की अद्भुत संरचना और चर या अचर हर घटक की अनन्य भूमिका के प्रति मनन हेतु प्रेरित करती है। यह मनन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, कृति और कर्ता के प्रति रोम-रोम में कृतज्ञता और अपूर्वता का भाव जगता है। इस भाव का उत्कर्ष है गदगद मनुष्य का नतमस्तक हो जाना, लघुता का प्रभुता को नमन करना।

मनन से आगे का चरण है नमन। नमन में समाविष्ट है मनन।

दर्शन चक्र में मनन और नमन अद्वैत हैं। दोनों में मूल शब्द है-मन। ‘न’ प्रत्यय के रूप में आता है तो मन ‘मनन’ करने लगता है। ‘न’ उपसर्ग बन कर जुड़ता है तो नमन का भाव जगता है।

मनन और नमन का एकाकार पतझड़ को वसंत की संभावना बनाता है। देखने को दृष्टि में बदल कर आनंदपथ का पथिक हो जाता है मनुष्य।

एक प्रसंग साझा करता हूँ। देश के विभाजन के समय लाहौर से एक सिख परिवार गिरता-पड़ता दिल्ली पहुँचा। बुजुर्ग महिला, एक शादीशुदा बेटा, बहू, नन्हीं पोती और शादी की उम्र का एक कुँआरा बेटा। दिल्ली की एक मुस्लिम बस्ती में मस्जिद के पास सिर छुपाने को जगह मिली। बुजुर्ग महिला जब तक लाहौर में थी, रोजाना पास के गुरुद्वारा साहिब में मत्था टेककर आतीं, उसके बाद ही भोजन करती थीं। बेटों को माँ का यह नियम पता था पर हालात के आगे मज़बूर थे। अगली सुबह दोनों बेटे काम की तलाश में निकल गए। शाम को लौटे। बड़े बेटे ने कहा,” बीजी, मैंने पता कर लिया है। एक गुरुद्वारा है पर दूर है। थोड़े दिन यहीं से मत्था टेक लो, फिर गुरुद्वारे के पास कोई मकान ढूँढ़ लेंगे।” माँ ने कहा,”मैं तो मत्था टेक आई।”..”कहाँ?”..”यह क्या पास में ही तो है”, इशारे से दिखाकर माँ ने कहा।..”पर बीजी वह तो मस्जिद है।”..”मस्जिद होगी, उनके लिए। मेरे लिए तो गुरु का घर है”, माँ ने उत्तर दिया।

देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता हम सबमें सदा जागृत रहे।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 20 – चक्र ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  जीवन दर्शन पर आधारित एक दार्शनिक / आध्यात्मिक  रचना ‘चक्र ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 20  – विशाखा की नज़र से

☆ चक्र  ☆

 

भूख है तो , चूल्हा है

चूल्हा है तो, बर्तन है

बर्तन है तो , घर है

घर है तो , सुरक्षा है

सुरक्षा है तो , दीवारें हैं

दीवारें हैं तो ?

 

दीवारें हैं तो , झरोखा है

झरोखें से दिखता आसमाँ है

आसमाँ है , तो चाह है

चाह है तो भूख है

और

भूख है तो ……

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 26 ☆ तुम आना ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा कोहरे के आँचल में लिखी हुई एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “तुम आना”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 26 ☆

☆ तुम आना

तुम आना,

वासंती किरणों को ओढ़कर,

सुगन्धित हवाओं में लपेटकर,

तुम आना ।

 

तुम आना ,

रिमझिम बूँदों में भीग कर,

कोहरे की श्वेत शाल पहनकर ,

तुम आना ।

 

तुम आना ,

नंगे पाँव, ओस पर चलकर ,

पायल को खनकाकर,

तुम आना ।

 

तुम आना,

केशों को खुला छोड़ कर ,

नदिया सी बल खाकर,

तुम आना ।

 

तुम आना

अंजुली में सपने संजोकर,

मेरी अंजुली में भर देने,

तुम आना ।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 9 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 9 – संघर्ष ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- पगली के जीवन की संघर्ष की कहानी , किस प्रकार पगली का विवाह हुआ, ससुराल में नशे की पीड़ा झेलनी पड़ी। अब आगे पढ़े——)

उस जहरीली शराब ने पगली से उसके पति का जीवन छीन लिया था। वह विधवा हो गई थी। अब घर गृहस्थी की गाड़ी खीचने का सारा भार पगली के सिर आन पड़ा था।
समय के साथ उसके ह्रदय का घाव भर गया था। पति के बिछोह का दर्द एवम् पीड़ा, गौतम के प्यार में कम होती चली गई थी। उसने परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए गौतम को उच्च शिक्षा दिलाने का निर्णय ले लिया था।  गौतम के भविष्य को लेकर अपनी आंखों में भविष्य के सुन्दर ख्वाब सजाये थे। अपने सपने पूरे करने के लिए उसने लोगो के घर चूल्हा चौका करना भी स्वीकार कर लिया था। वह रात दिन खेतों में मेहनत करती।  उसका एक मात्र उद्देश्य गौतम को पढा़ लिखा अच्छा हुनर मंद इंसान बनाना था, ताकि वह एक दिन देश व समाज के काम आये।

गौतम बड़ा ही प्रतिभाशाली कुशाग्र बुद्धि का था। व्यवहार कुशलता, आज्ञा पालन, दया, करूणा, प्रेम, जैसे श्रेष्ठ मानवीय गुणों उसे अपनी माँ से विरासत में मिले थे, जिन्हें उसने पौराणिक कथाओं को मां से सुन कर प्राप्त किया था। वह अपनी माँ के नक्शे कदम पर चलता।  लोगों की मदद करना उसका स्वभाव बन गया था।  बच्चों के साथ वह नायक की भूमिका में होता। सबके साथ खेलना, मिल बांट कर खाना उसका शौक था। उस वर्ष उसने अपने गांव के माध्यमिक विद्यालय की आखिरी कक्षा की अंतिम परीक्षा पूरे जिले में सर्वोच्च अंको से विशिष्ट श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। उसकी इस सफलता पर सारा गांव गौरवान्वित हुआ था। सबको ही अपने गांव के होनहार पर गर्व था, जो विपरीत परिस्तिथियों में संघर्ष करते हुए इस स्तर तक पहुँच सका था।

अब पगली के सामने गौतम को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए शहर मे रहने खाने की व्यवस्था करने की समस्या उत्पन्न हो गई थी, उसे कोई रास्ता सूझ नही रहा था।  वह ऊहापोह में पड़ी सोच ही रही थी, अब आगे की पढ़ाई की उसकी औकात नही थी। वह इसी उधेड़ बुन में परेशान थी, कि सहसा उसकी इस समस्या का समाधान निकल आया।

एक दिन उस गाँव के संपन्न परिवारों गिने जाने वाले एक नि:संतान दंपत्ति पं दीनदयाल पगली के घर किसी कार्यवश आये थे। बातों बातों में जब गौतम के पढ़ाई की चर्चा चली तो उन्होंने गौतम के आगे की पढ़ाई का खर्चा देने की हामी भर दी थी, तथा खर्च का साराभार अपने उपर ले कर पगली को चिंता मुक्त कर दिया था।  उसके बदले में पगली ने पं दीनदयाल के घर चौका बर्तन करने का जिम्मा सम्हाल लिया था। पगली की मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई थी। उसने मन ही मन में भगवान को कोटिश :धन्यवाद दिया था।

अब पं दीनदयाल ने खुद ही शहर जा कर मेडिकल की पढ़ाई हेतु अच्छे संस्थान में दाखिला करा दिया था।  गौतम के रहने खाने का उत्तम प्रबंध भी कर दिया था। गौतम जब भी छुट्टियों में घर आता, तो दोस्तों के साथ खेलता ठहाके लगा हंसता, तो पगली की ममता निहाल हो जाती।

कभी कभी जब गौतम पढ़ते पढ़ते थक कर निढाल हो पगली की गोद में लेट कर माँ के सीने से लग सो जाता। अलसुबह माँ जब चाय की प्याली बना बालों में उंगलियाँ फिराती गौतम को जगाती तो गौतम कुनमुना कर आंखें खोल मां के कठोर छालों से युक्त हाथों को हौले से चूम लेता और झुककर माँ के पैरों को छू लेता तो, उसे उन कदमो में ही जन्नत नजर आती और पगली का मन  पुलकित हो जाता साथ ही उसकी आंखें छलछला जाती।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 10 – आतंकवाद का कहर

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 28 – कर्मो का सिद्धान्त ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “कर्मो का सिद्धान्त।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 28 ☆

☆ कर्मो का सिद्धान्त 

हम यहाँ पर एक साथ कर्मों के रण बंधन या ऋण बंधन के कारण हैं जो मेरे आपके साथ हैं। इस ब्रह्मांड में कुछ भी कर्मों के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं है। कर्म का अर्थ सबसे सामान्य शब्दों में ‘क्रिया’ है, और क्रिया भीतर से उत्पन्न होती है। अपनी आंतरिक मूल ऊर्जा के उपयोग से हुई क्रिया, यदि इसकी मूल दहलीज या सीमा  (हमारी आंतरिक ऊर्जा की वो कम से कम मात्रा जिससे किसी क्रिया का भान होता है) से अधिक या कम मात्रा में है तो वो कर्म है।ऊर्जा प्रभाव का यह उपयोग हमारे आस-पास की प्रकृति पर तुरंत या कुछ विलम्ब से परिणाम उत्पन्न करता है। जो क्रिया की प्रतिक्रिया या कारण का प्रभाव कहा जाता है। तो इन दोनों का संयोजन, प्रकृति पर कार्यरत हमारी ऊर्जा और उस ऊर्जा के प्रभाव पर प्रकृति की प्रतिक्रिया वास्तव में कर्म कहा जाता है।व्यय की गई एक निश्चित राशि जल्द ही या बाद में समाप्त हो जाएगी। लेकिन प्रतिक्रिया खुद में एक नई क्रिया बन जाती है।यह ज्यादातर व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा पर निर्भर करता है। वह एक ही क्रिया पर गुस्से में प्रतिक्रिया कर सकता है या समान क्रिया पर स्नेह दिखा सकता है।व्याकरण में क्रिया से निष्पाद्यमान फल के आश्रय को कर्म कहते हैं। क्रिया और फल का संबंध कार्य-कारण-भाव के अटूट नियम पर आधारित है। यदि कारण विद्यमान है तो कार्य अवश्य होगा। यह प्राकृतिक नियम आचरण के क्षेत्र में भी सत्य है। अत: कहा जाता है कि क्रिया का कर्ता फल का अवश्य भोक्ता होता है।

हम तीन श्रेणियों में हमारे द्वारा किए गए प्रत्येक कर्म को वर्गीकृत कर सकते हैं, और यहाँ कर्म का अर्थ केवल वह कार्य नहीं है जो हम शरीर के संचालन की क्रिया के साथ करते हैं, अपितु यह हमारे अंदर तीन प्रकार की प्रतिक्रियाओं का परिणाम है।

पहले भौतिक कर्म शरीर के दृश्य आंदोलन या हमारे शरीर के हिलने डुलने के द्वारा किए जाते हैं, दूसरे बोलने द्वारा होते हैं- हमारा भाषण या वचन, या जो शब्द हम अपने मुँह से कहते हैं; और तीसरे मन या विचारों से है, जो हम अपने मस्तिष्क से सोचते हैं। इसलिए हर पल हम सभी कर्मों या कारणों और प्रभावों के नियमों से बंधे होते हैं।

हम इन कर्मों को तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं:

संचित कर्म :

मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। संस्कार अर्थात हमने जो भी अच्छे और बुरे कर्म किए हैं वे सभी और हमारी आदतें।ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियां भी इन पर प्रभाव डालती हैं।ये कर्म ‘संस्कार’ ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे ‘संचित कर्म’ कहते हैं।

प्रारब्ध कर्म:

संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। दरअसल, इन संचित कर्मों में से एक छोटा भाग हमें नए जन्म में भोगने के लिए मिल जाता है। इसे प्रारब्ध कहते हैं। ये प्रारब्ध कर्म ही नए होने वाले जन्म की योनि व उसमें मिलने वाले भोग को निर्धारित करते हैं।हम कह सकते हैंकि प्रारब्ध कर्म वो है जो शुरू हुआ है, और वास्तव में फल पैदा कर रहा है।यह संचित कर्मों के द्रव्यमान में से चुना जाता है। प्रत्येक जीवनकाल में, संचित कर्मों का एक निश्चित भाग जो उस समय आध्यात्मिक विकास के लिए सबसे अनुकूल है,बाहर कार्य करने के लिए चुना जाता है। इसके बाद यह प्रारब्ध कर्म उन परिस्थितियों को बनाते हैं, जिन्हें हम अपने वर्तमान जीवनकाल में अनुभव करने के लिए नियत हैं, वे हमारे भौतिक परिवार, शरीर या जीवन परिस्थितियों के माध्यम से कुछ सीमाएँ भी बनाते हैं, जिन्हें हम जन्मजात रूप से भाग्य के रूप में जानते हैं।

अधिक आसानी से समझाने के लिए, मान लीजिए कि आपके संचित कर्म ऐसे हैं कि आपके उस समय तक अपने आने वाले जीवनों में 1000 कारणों का परिणाम सकारात्मक रूप से भोगना है और 500 कारणों का परिणाम नकारात्मक रूप से भोगना हैं। इसलिए इन कुल 1500 प्रभावों को आपके संचित कर्म कहा जाएगा।अब मान लें कि आपके द्वारा किये गए कर्मों के 300 सकारात्मक प्रभाव और 100 नकारात्मक प्रभावों को आपको अपने वर्तमान जीवन में उचित वातावरण द्वारा पक कर भोगने का मौका मिलेगा।तो वर्तमान जीवन के लिए आपके प्रारब्ध कर्म 300 + 100 = 400 होंगे।

दरअसल हम ऊपर की तरह कर्मों की गणना नहीं कर सकते क्योंकि यह गणित की गणना के लिए बहुत ही जटिल मापदण्ड है और इसके द्वारा हम सूक्ष्म और साझा कर्मों की व्याख्या नहीं कर सकते हैं।मैंने आपको कर्मों की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए केवल संख्याओं द्वारा एकउदाहरण दिया है।

जिस तरह से चोर को सहायता करने के जुर्म में साथी को भी सजा होती है ठीक उसी तरह काम्य कर्म और संचित कर्म में हमें अपनों के किए हुए कार्य का भी फल भोगना पड़ता है और इसीलिए कहा जाता है कि अच्छे लोगों की संगति करो ताकि कर्म की किताब साफ रहे। जिस बालक को बचपन से ही अच्छे संस्कार मिले हैं वो कर्म भी अच्छे ही करेगा और फिर उसके संचित कर्म भी अच्छे ही होंगे। अलगे जन्म में उसे अच्छा प्रारब्ध ही मिलेगा।

क्रियमाण कर्म:

ये वे कर्महैं जो मनुष्य वर्तमान में बना रहा है, जिनके फल भविष्य में अनुभव किए जाएंगे। ये ही केवल वह कर्म हैं जिन पर हमें अपनी इच्छा शक्ति और मन की स्थिति के अनुसार चुनाव करने का अधिकार है।ये वो ताजा कर्म हैं जो हम प्रत्येक गुजरने वाले पल के साथ कर रहे हैं। वर्तमान जीवन और आने वाले जीवन में हमारे भविष्य का निर्णयकरने के लिए ये कर्म ही संचित कर्मों का भाग बन जाते हैं।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 19 ☆ लग्नाचा घाणा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित एक लग्न गीत “लग्नाचा घाणा”। आज भी पिछली  पीढ़ियों ने विवाह संस्कार तथा अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में गीतों के माध्यम से विरासत में मिले संस्कारों को जीवित रखा है। हम श्रीमती उर्मिला जी द्वारा रचित इस लग्न गीत  के लिए उनके आभारी हैं। निश्चित ही यह गीत  आवश्यक्तानुसार परिवर्तित कर भविष्य में विवाह संस्कारों में गाये जायेंगे।

यह एक संयोग ही है  कि – आज दिनांक 1-2-2020 को उनके पौत्र चिरंजीव अवधूत जी का विवाह है । इसके लिए  ई- अभिव्यक्ति की ऒर से  उनके भावी  दाम्पत्य जीवन की हार्दिक शुभकामनाएं।  इस सुन्दर लग्न गीत की रचना  के  समय उनके मन में  आई भावनाएं उनके ही शब्दों में  – “लग्नाची मुहूर्तमेढ, देवांना बोढण म्हणजे पुरणपोळी पक्वांनाचा नेवैद्य व सवाष्णींना भोजन असा विधी पार पडला त्यावेळी मला सुचलेला लग्नाचा घाणा “. इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को नमन।)  

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 19 ☆

☆ लग्नाचा घाणा ☆

पाच कुलदेवतांचं देवक वाजत आणलं घरात !

पाच पत्रींची मुहूर्तमेढ रोविली दारात !!१!!

 

पाच सवाष्णींच्या हाताने जात ते पुजिलं!

हळद कुंकू लावुनिया उखळ-मुसळ पुजिलं!!२!!

 

घाणा तो भरण्या सुंदर ते जातं !

सवाष्णींचा हात लागता गरगरा ते फिरतं !!३!!

 

गरगरा फिरतं ते हळकुंड दळितं!

हळकुंड दळित त्याचीहळद करतं !!४!!

 

अवधूत-प्राजूच्या लग्नाची  दळताती हळद!

दळताती हळद बाई ओव्यांच्या सुरात !!५!!

 

ओव्यांच्या सुरात बाई नाद घुमतो घरात!

नाद घुमतो घरात बाई आनंद होतो मनात !!६!!

 

पुरण-पोळीच्या पक्वांनाचं भरिल बोढण !

देवांना नेवैद्य अन् सवाष्णींना भोजन !!७!!

 

हळद-कुंकू लावुनि द्या पानसुपारी हातात!

खण नारळ तांदुळ घाला त्यांच्या ओटीत !!८!!

 

जाई जुईचा गजरा माळा त्यांच्या वेणीत !

गजऱ्याचा वास घुमे सगळ्या घरात  !!९!!

 

उर्मिला हात जोडोनी विनंती करीत !

आनंद सुखसमृद्धी सदा नांदो माझ्या घरात!!१०!!

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक:- १-२-२०२०

 

!! श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 32 ☆ समस्या नहीं : संभावना  ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “खामोशी और आबरू”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें  जीवन के कठिन से कठिन समय  में विपरीत परिस्थितियों में भी सम्मानपूर्वक जीने का लक्ष्य निर्धारित करने हेतु प्रेरणा देता है। इस आलेख का कथन “जीवन में हम कभी हारते नहीं, जीतते या सीखते हैं अर्थात् सफलता हमें विजय देती है और पराजय अनुभव अथवा बहुत बड़ी सीख… जो हमें गलत दिशा की ओर बढ़ने से रोकती है। ” ही इस आलेख का सार है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 32☆

☆ समस्या नहीं : संभावना 

‘जीवन में संभावनाएं देखिए, समस्याएं नहीं। सपने देखिए, रास्ता स्वयं मिल जाएगा’— अनुकरणीय उक्ति है। आप समस्या, उससे उपजी परेशानियों व  चिंताओं को अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकिए, आपको मंज़िल तक पहुंचने का सीधा-सादा विशिष्ट मार्ग मिल जाएगा। आप संभावनाएं तलाशिए अर्थात् यदि मैं ऐसा करूं, तो इसका परिणाम उत्तम होगा, श्रेष्ठ होगा और झोंक दीजिए… स्वयं को उस कार्य में… अपनी सारी शक्ति अर्थात् तन, मन, धन उस कार्य को संपन्न करने में लगा दीजिए… और पथ में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का चिंतन करना छोड़ दीजिए। सपने देखिए…रास्ता भी मिलेगा और मंज़िल भी बाहें फैलाए आपका स्वागत-अभिनंदन करेगी। हां! सपने सदैव उच्च, उत्तम व श्रेष्ठ देखिए …बंद आंखों से नहीं, खुली आंखों से देखिए…जैसा अब्दुल कलाम जी कहते हैं। आप पूर्ण मनोयोग से उन्हें साकार करने में लग जाइए…पथ की बाधाएं- आपदाएं स्वत: अपना रास्ता बदल लेंगी।

‘ए ऑटो विन विस्मार्क’ का यह वाक्य भी किसी संजीवनी से कम नहीं है कि ‘ समझदार इंसान दूसरों की गलती से सीखता है। मूर्ख इंसान गलती करके सीखता है।’ सो! बन जाइए बुद्धिमान और समझदार …दूसरों की गलती से सीखिए, खुद संकट में छलांग न लगाइये… जलती आग को छूने का प्रयास मत कीजिए ताकि आपके हाथ सुरक्षित रह सकें। इससे सिद्ध होता है कि दूसरों के अनुभव का आकलन कीजिए… उन्हें आज़माइये मत …और बिना सोचे-समझे कार्य-व्यवहार में मत लगाइए। बड़े बड़े दार्शनिक अपने अनुभवों को, दूसरों के साथ सांझा कर उन्हें गलतियां करने से बचाते हैं और कुसंगति से बचने का प्रयास करते हैं।

जो लोग ज़िम्मेवार, सरल, ईमानदार व मेहनती होते हैं, उन्हें ईश्वर द्वारा विशेष सम्मान मिलता है, क्योंकि वे धरती पर उसकी श्रेष्ठ रचना होते हैं। अब्दुल कलाम जी की यह उक्ति उपरोक्त भाव को पुष्ट करती है। ऐसे लोगों का अनुकरण कीजिए…उन द्वारा दर्शाये गये मार्ग पर चलने का प्रयास कीजिए, क्योंकि सरल स्वभाव के व्यक्ति ईमानदारी व परिश्रम को जीवन में धारण कर सबका मार्ग-दर्शन करते हैं,  उन सभी महापुरुषों के जीवन का उद्देश्य आमजन को दु:खों-संकटों व आपदाओं  से बचाना होता है। कबीर, नानक, तुलसी व कलाम सरीखे महापुरूषों के जीवन का विकास व आत्मोन्नति कीचड़ में कमलवत् था। इसलिए आज भी उनके उपदेश समसाययिक हैं और एक लंबे अंतराल के पश्चात् भी सार्थक व अनुकरणीय रहेंगे।

वे संत पुरुष सबके हित व कल्याण की कामना करते हैं तथा सबके साथ रहने का संदेश देते हैं। संत बसवेश्वर अपने घुमंतू स्वभाव के कारण गांव-गांव का भ्रमण कर रहे थे तथा वे एक सेठ के निमंत्रण पर उसके घर गए… जहां उनकी खूब आवभगत हुई। थोड़ी देर में उनसे मिलने कुछ लोग आए और उन्होंने उन लोगों को यह कह कर लौटा दिया कि ‘मैं अभी अतिथि के साथ व्यस्त हूं।’ इसके पश्चात् वे भीतर चले आये और संत से कल्याण के मार्ग के बारे में पूछने लगे। ‘जो व्यक्ति द्वार पर आये अतिथि से कटु व्यवहार करता है, उन्हें भीषण गर्मी में लौटा देता है… उसका कल्याण किस प्रकार संभव है? यह सुनते ही सेठ समझ गया कि व्यर्थ दिखावे व  पूजा-पाठ से अच्छा है,  हम सदाचार व परोपकार को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं। शायद! इसीलिए वे धरती पर प्रभु की सर्वश्रेष्ठ रचना कहलाते हैं तथा लोगों को यह भी समझाते हैं कि कुदरत ने तो आनंद ही आनंद दिया है और दु:ख मानव की खोज है। हर वस्तु के दो पक्ष होते हैं। परंतु फूल व कांटे तो सदैव साथ रहते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस का चुनाव करते हैं? हम घास पर बिखरी ओस की बूंदों को मोतियों के रूप में देख उल्लसित -आनंदित हो सकते हैं या प्रकृति द्वारा बहाये गये आंसुओं के रूप में देख व्यथित हो सकते हैं।

उसी प्रकार कांटों से घिरे गुलाब को देख, उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो सकते हैं तथा कांटों को देख, उसकी नियति पर आंसू भी बहा सकते हैं। इसी प्रकार सुख-दु:ख का चोली दामन का साथ है… दोनों इकट्ठे कभी नहीं आते। एक के विदा होने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है, परंतु यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम सुखों को स्थायी समझ, उसके न रहने पर आंसू बहते हैं… अपने भाग्य को कोसते हैं तथा अपने जीवन को दूभर व नरक बना लेते हैं। उस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि सुख तो बिजली की कौंध की भांति हमारे जीवन में प्रवेश करता है-और हम भ्रमित होकर अपने वर्तमान को दु:खी बना लेते हैं। सुख- दु:ख दोनों मेहमान हैं और आते-जाते रहते हैं। इसलिए सुख का लालच व दु:ख का भय हमें सदैव कष्टों व आपदाओं में रखता है और हम चाह कर भी उस व्यूह से मुक्ति नहीं पा सकते।

सो! दोस्ती व प्रेम उसी के साथ रखिए, जो तुम्हारी हंसी व गुस्से के पीछे का दर्द अनुभव कर सके मौन की वजह तक पहुंच सके। अर्थात् सच्चा दोस्त वही है, जो आपका गुरू भी है… सही रास्ता दिखलाता है और विपत्ति में सीना ताने आपके साथ खड़ा होता है। सुख में वह आपको भ्रमित नहीं होने देता तथा विपत्ति में गुरु की भांति आपको संकट से उबारता है। वह उस कारण को जानने का प्रयास करता है कि आप  दु:खी क्यों हैं? आपकी हंसी कहीं बनावटी व  दिखावे की तो नहीं है? आपकी चुप्पी तथा मौन का रहस्य क्या है? कौन-सा ज़ख्म आपको नासूर बन साल रहा है? उसके पास सुरक्षित रहता है… आपके जीवन के हर पल का लेखा-जोखा। सो! ऐसे लोगों से संबंध रखिए और उन पर अटूट विश्वास रखिए, भले ही संबंध बहुत गहरे ही न हों? इसके साथ ही वे ऐसे मुखौटाधारी लोगों से भी सचेत रहने का संदेश देते हैं, जो अपने बनकर, अपनों को छलते हैं। इसलिए उनसे सजग व सावधान रहिए, क्योंकि चक्रव्यूह रचने वाले व पीठ में छुरा घोंकने वाले सदैव अपने ही होते हैं। यह तथ्य कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल भी रहेगा। इसलिए मन की बात बिना सोचे-समझे, कभी भी दूसरों से सांझा न करें, क्योंकि कुछ लोग बहुत उथले होते हैं। इसलिये वे बात की गंभीरता को अनुभव किए बिना, उसे आमजन के बीच प्रेषित कर देते हैं, जिससे आप ही नहीं, वे स्वयं भी जग-हंसाईं का पात्र बनते हैं। सो! सावधान रहिये, ऐसे मित्रों और संबंधियों से.. जो आपकी प्रशंसा कर, आपके मनोबल को गिराते हैं तथा आपको निष्क्रिय बना कर, अपना स्वार्थ साधते हैं। ऐसे ईर्ष्यालु आपको उन्नति करते देख, दु:खी होते हैं तथा आपके कदमों के नीचे से सीढ़ी खींच सुक़ून पाते हैं। तो चलिए इसी संदर्भ में जिह्वा का ज़िक्र भी कर लें, जो दांतों के घेरे में रहती है…अपनी सीमा व मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करती। इसलिए वह भीतरी षड्यंत्र व बाहरी आघात से सुरक्षित रहती है… जबकि उसमें विष व अमृत दोनों तत्व निवास करते हैं… प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं, बल्कि साथी व सहयोगी के रूप में और मानव उनसे मनचाहा संबंध बनाने व प्रयोग करने में स्वतंत्र है। इसी प्रकार वह कटु वचन बोलकर दोस्त को दुश्मन बना सकता है और शत्रु को को पल भर में अपना साथी-सहयोगी, मित्र व विश्वासपात्र।

हमारी वाणी में अलौकिक शक्ति है… यह प्रयोगकर्ता  पर निर्भर करता है कि वह शर-संधान अर्थात् कटु वचन रूपी बाण चला कर हृदय को आहत करता है या मधुर वाणी से, उसके अंतर्मन में प्रवेश पाकर व  उसे आकर्षित कर अपना पक्षधर बना लेता है। इसलिये स्वयं को पढ़ने की आदत बनाइए, क्योंकि कुदरत को पढ़ना अत्यंत दुष्कर कार्य है। दुनिया बहुत बड़ी है, इसलिए सब कुछ समझना व सब की आकांक्षाओं पर खरा उतरना मानव के वश में नहीं है। सो! दूसरों से अपेक्षा मत कीजिए। अपने अंतर्मन में झांकिये व आत्मावलोकन कीजिये जो समस्याओं के निदान का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। जब आप अपने दोषों व अवगुणों से अवगत हो जाते हैं तो आप सब के प्रिय बन जाते हैं। इस स्थिति में कोई भी आपका शत्रु नहीं हो सकता। आप अनहद नाद की मस्ती में डूब, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर सकते हैं… यही जीते जी मुक्ति है, कैवल्य है।

सो! हर समस्या के दो पहलुओं के अतिरिक्त, तीसरे विकल्प की ओर भी दृष्टिपात कीजिए… जीवन उत्सव बन जाएगा और कोई भी आपके जीवन में अंर्तमन में खलल नहीं डाल पाएगा। इसलिए जीवन में संभावनाओं की तलाश कीजिये और निरंतर अपनी राह पर बढ़ते जाइए… स्वर्णिम भोर पलक पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा कर रही होगी। जीवन में हम कभी हारते नहीं, जीतते या सीखते हैं अर्थात् सफलता हमें विजय देती है और पराजय अनुभव अथवा बहुत बड़ी सीख… जो हमें गलत दिशा की ओर बढ़ने से रोकती है। तो आइए! जीवन में सम स्थिति में रहना सीखें…जीवन में सामंजस्यता का प्रवेश होगा और समरसता स्वत: आ जायेगी, जो आपको अलौकिक आनंद प्रदान करेगी क्योंकि संभव और असंभव के बीच की दूरी, व्यक्ति की सोच और कर्म पर निर्भर करती है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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