संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – बदल गया है आज जमाना”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 22 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 5
(29 मार्च 2024)
पारो शहर की यात्रा आनंददायी रही। मौसम भी साथ दे रहा था। आसमान में हल्के बादल तो थे पर वर्षा के होने की कोई संभावना न थी। आज हम विश्व विख्यात ताकत्संग या टाइगर नेस्ट देखने के लिए निकले। यह इस देश की सबसे पुरानी मोनैस्ट्री है। तथा पारो शहर का सबसे बड़ा आकर्षण केंद्र भी।
यह मोनेस्ट्री पारो घाटी से 3, 000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नीचे से ही यह अत्यंत आकर्षक और मोहक दिखाई देती है। यह विशाल इमारत लाल और सफ़ेद रंग से पुती हुई है। एक खड़ी चट्टान पर इतनी बड़ी मोनैस्ट्री कैसे बनाई गई यह एक आश्चर्य करनेवाली बात है।
यात्रियों ने तथा गाइड ने हमें बताया कि ऊपर जाने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं है बल्कि पत्थर काटकर रास्ता बनाया गया है। आने -जाने में छह से सात घंटे लगते हैं। यात्री घोड़े पर सवार होकर भी वहाँ जा सकते हैं। हम कुछ दूर तक चलकर गए परंतु ऊपर तक जाने की हमने हिम्मत नहीं की। बताते चलें कि यहाँ जाने के लिए प्रतिव्यक्ति प्रवेश शुल्क ₹1500 /- है। मौसम सही हो और मार्च अप्रैल का महीना हो तो तकरीबन सौ से दोसौ लोग प्रतिदिन दर्शन करने जाते हैं। सबसे आनंद की बात है कि यह बौद्ध धर्मस्थल है और आनेवाले सभी पर्यटक बौद्धधर्म का सम्मान करते हैं।
हम वहीं एक चट्टान पर बैठ गए और पेमा ने हमें तकत्संग की स्थापना और महत्त्व की जानकारी दी।
यह एक मठ है जिसे मोनैस्ट्री ही मूल रूप से कहा जाता है। यहाँ आज भी बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुक रहते हैं। पूजा की विधि का पालन नियमित होता है। शाम को पाँच बजे के बाद यात्रियों को ऊपर रुकने नहीं दिया जाता है।
इसे टाइगर नेस्ट या मठ भी कहा जाता है। इस बड़ी इमारत का निर्माण 17वीं शताब्दी के अंत में चट्टान में बनी एक गुफा के स्थान पर किया गया था। यद्यपि इसे अंग्रेज़ी में टाइगर नेस्ट कहते हैं, लेकिन तकत्संग का सटीक अनुवाद “बाघिन की माँद” है और इसका नाम इसके पीछे जो किंवदंती है उसके साथ मिलता जुलता भी है।
कहा जाता है कि 8वीं शताब्दी में किसी रानी ने बाघिन का रूप धरा था और तिब्बत से पद्मसंभव को पीठ पर बिठाकर यहाँ की गुफा में लेकर आई थी। पुरातन काल में काला जादू का प्रभाव इन सभी स्थानों में था। यही कारण है कि इसे बाघिन की माँद नाम दिया गया है। सत्यता का तो पता नहीं पर पुरानी गुफा तो है जहाँ आज भी मठाधीश ध्यान करते हैं। मुझे यह कथा सुनकर माता वैष्णों देवी के मंदिर का स्मरण हो आया। यह मंदिर भी पहाड़ी के ऊपर स्थित है और चौदह कि.मी ऊपर चढ़ने पर मंदिर में तीन छोटे -छोटे पिंड के रूप में माता विराजमान हैं। यहाँ भी एक किंवदंती है।
तकत्संग मठ की इमारतों में चार मुख्य मंदिर हैं। यहाँ आवासीय आश्रम भी है। पहले जो गुफा थी उसी के इर्द -गिर्द की चट्टानों पर अनुकूल इमारत बनाई गई है। आठ गुफाओं में से चार तक पहुँचना तुलनात्मक रूप से आसान है। वह गुफा जहाँ पद्मसंभव ने बाघ की सवारी करते हुए पहली बार प्रवेश किया था, उसे थोलू फुक के नाम से जाना जाता है और मूल गुफा जहाँ उन्होंने निवास किया था और ध्यान किया था उसे पेल फुक के नाम से जाना जाता है। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध भिक्षुओं को यहाँ मठ बनाने का निर्देश दिया।
मुख्य गुफा में एक संकीर्ण मार्ग से प्रवेश किया जाता है। अँधेरी गुफा में बोधिसत्वों की एक दर्जन छवियाँ हैं और इन मूर्तियों के सामने मक्खन के दीपक जलाए जाते हैं। यह भी कहा जाता है कि इस गुफा मठ में वज्रयान बौद्ध धर्म का पालन करने वाले भिक्षु तीन साल तक यहीं रहते हैं और कभी पारो घाटी में उतरकर नहीं जाते।
यहाँ की सभी इमारतें चट्टानों में बनी सीढ़ियों के ज़रिए आपस में जुड़ी हुई हैं। रास्तों और सीढ़ियों के साथ-साथ कुछ जर्जर लकड़ी के पुल भी हैं, जिन्हें पार किया जा सकता है। सबसे ऊँचे स्तर पर स्थित मंदिर में बुद्ध की एक प्रतिमा है। प्रत्येक इमारत में एक झूलती हुई बालकनी है, जहाँ से नीचे की ओर सुंदर पारो घाटी का दृश्य दिखाई देता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए और लौटने के लिए 1800 सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने की आवश्यकता होती है।
पेमा से सारी विस्तृत जानकारी हासिल कर हम लोग लौटने की तैयारी करने लगे तो रास्ते में ढेर सारे घोड़े बँधे हुए दिखे। यहाँ के घोड़ों की पीठ पर थोड़े लंबे लंबे बाल होते हैं और ऊँचाई में भी वे कम होते हैं।
कुछ दूरी पर अनेक कुत्ते दिखे। आश्चर्य की बात यह थी कि सभी कुत्ते काले रंग के ही थे। भूटान में जहाँ – तहाँ ये काले कुत्ते दिखाई देते हैं जो ठंडी के कारण सुस्ताते रहते हैं। हमने पास की दुकान से ढेर सारे पार्लेजी बिस्कुट खरीदकर कुत्तों को खिलाया और उन्हें प्यार किया। ये सरल जीव पूँछ हिलाते हुए हमें अलविदा कहने गाड़ी तक आए। हृदय भीतर तक पसीज गया। थोड़े से बिस्कुटों और स्पर्श ने उनके भीतर की सरल आत्मा के स्वामीभक्ति वाला भाव अभिव्यक्त कर दिया।
आगे हम पारो किचू मंदिर के दर्शन के लिए गए। यह भूटान का सबसे पुराना मंदिर है। इस मंदिर को 7वीं सदी में तिब्बत के राजा साँग्तेसन गैम्पो ने बनवाया था। वह तिब्बत का 33वाँ राजा था जिसने लंबे समय तक राज्य भी किया था। इस राजा ने भू सीमा की रक्षा हेतु 108 मंदिर बनवाए थे। यह उनमें से एक है। कहा जाता है कि राक्षसों के निरंतर उत्पातों से बचने के लिए ये 108 मंदिरों की स्थापना की गई थी। मंदिर का परिसर स्वच्छ है तथा भक्त गण दर्शन करने आते रहते हैं। इस मंदिर के साथ एक छोटा सा संग्रहालय तथा पुस्तकालय भी है। बाहर सुंदर फूलों के पेड़ लगे हुए हैं।
यहाँ से निकलकर हम भूटान नैशनल म्यूज़ियम देखने गए। यह बाहर से तो दो मंजिली इमारत है परंतु भीतर प्रवेश करने पर भीतर यह पाँच मंज़िली इमारत है। एक – एक मंज़िल की दीवारों पर पुराने समय से उपयोग में लाए जानेवाले अस्त्र -शस्त्र सजे हुए हैं। भूटानी भाषा में वहाँ का इतिहास लिखा हुआ है। जो हम पढ़ न सके पर यह जानकारी मिली कि तिब्बत और भूटान के बीच नियमित युद्ध हुआ करते थे। भूटान के वर्तमान राजा पाँचवी पीढ़ी है जिनके पूर्वजों ने संपूर्ण भूटान को एक छ्त्र छाया में इकत्रित करने का काम किया था। भूटान स्वतंत्र राज्य था और अब भी है। आज वाँगचुक परिवार राज्य करता है।
इस संग्रहालय में आम पहने जाने वाले भूटानी वस्त्र, योद्धाओं के वस्त्र, मुद्राएँ, अलंकार, बर्तन आदि रखे गए हैं। यह एक संरक्षण के लिए बनाया गया किला था जो अब संग्रहालय में परिवर्तित है। हम मूल रूप से पाँचवीं मंजिल से उतरने लगे, प्रत्येक मंजिल में दर्शन करते हुए निचली मंजिल पर उतरे और उसी सड़क से गाड़ी की ओर बढ़े। पहाड़ी इलाकों में रास्ते के साथवाली ज़मीन पर बननेवाली मंज़िल सबसे ऊपर की मंज़िल होती है। उसके बाद पहाड़ काटकर नीचे की ओर इमारत बनाई जाती है।
आज शाम पाँच बजे ही हम होटल में लौट आए क्योंकि अगली सुबह हमें लंबी यात्रा करनी थी।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुदर्शन सोनी द्वारा लिखित पुस्तक “नौकरी धूप सेंकने की…” (जीवनी)पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 165 ☆
☆ “नौकरी धूप सेंकने की” – लेखक … श्री सुदर्शन सोनी☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
व्यंग्य संग्रह – नौकरी धूप सेंकने की
लेखक – श्री सुदर्शन सोनी, भोपाल
प्रकाशक …आईसेक्ट पब्लीकेशन, भोपाल
पृष्ठ ..२२४, मूल्य २५० रु
चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव
मो ७०००३७५७९८
धूप से शरीर में विटामिन-D बनता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की मानें, तो विटामिन डी प्राप्त करने के लिए सुबह 11 से 2 बजे के बीच धूप सबसे अधिक लाभकारी होती है। यह दिमाग को हेल्दी बनाती है और इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर में पाचन का कार्य जठराग्नि द्वारा किया जाता है, जिसका मुख्य स्रोत सूर्य है। दोपहर में सूर्य अपने चरम पर होता है और उस समय तुलनात्मक रूप से जठराग्नि भी सक्रिय होती है। इस समय का भोजन अच्छी तरह से पचता है। सरकारी कर्मचारी जीवन में जो कुछ करते हैं, वह सरकार के लिये ही करते हैं। इस तरह से यदि तन मन स्वस्थ रखने के लिये वे नौकरी के समय में धूप सेंकतें हैं तो वह भी सरकारी काम ही हुआ, और इसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिये। सुदर्शन सोनी सरकारी अमले के आला अधिकारी रहे हैं, और उन्होंने धूप सेंकने की नौकरी को बहुत पास से, सरकारी तंत्र के भीतर से समझा है। व्यंग्य उनके खून में प्रवाहमान है, वे पांच व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत को दे चुके हैं, व्यंग्य केंद्रित संस्था व्यंग्य भोजपाल चलाते हैं। वह सब जो उन्होने जीवन भर अनुभव किया समय समय पर व्यंग्य लेखों के रूप में स्वभावतः निसृत होता रहा। लेखकीय में उन्होंने स्वयं लिखा है ” इस संग्रह की मेरी ५१ प्रतिनिधि रचनायें हैं जो मुझे काफी प्रिय हैं “। किसी भी रचना का सर्वोत्तम समीक्षक लेखक स्वयं ही होता है, इसलिये सुदर्शन सोनी की इस लेखकीय अभिव्यक्ति को “नौकरी धूप सेंकने की” व्यंग्य संग्रह का यू एस पी कहा जाना चाहिये। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका में लिखा है ” सरकारी कर्मचारी धूप सेंक रहे हैं, दफ्तर ठप हैं, पर सरकार चल रही है, पब्लिक परेशान है। सरकार चलाने वाले चालू हैं वे काम के वक्त धूप सेंकते हैं। ”
मैंने “नौकरी धूप सेंकने की” को पहले ई बुक के स्वरूप में पढ़ा, फिर लगा कि इसे तो फुरसत से आड़े टेढ़े लेटकर पढ़ने में मजा आयेगा तो किताब के रूप में लाकर पढ़ा। पढ़ता गया, रुचि बढ़ती गई और देर रात तक सारे व्यंग्य पढ़ ही डाले। लुप्त राष्ट्रीय आयटम बनाम नये राष्ट्रीय प्रतीक, व्यवस्था का मैक्रोस्कोप, भ्रष्टाचार का नख-शिख वर्णन, साधने की कला, गरीबी तेरा उपकार हम नहीं भूल पाएंगे, मेवा निवृत्ति, बाढ़ के फायदे, मीटिंग अधिकारी, नौकरी धूप सेकने की, सरकार के मार्ग, डिजिटाईजेशन और बड़े बाबू, एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श आदि अनुभूत सारकारी तंत्र की मारक रचनायें हैं। टीकाकरण से पहले कोचिंगकरण से लेखक की व्यंग्य कल्पना की बानगी उधृत है ” कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो अजन्मे बच्चे की कोचिंग की व्यवस्था कर लेंगे “। लिखते रहने के लिये पढ़ते रहना जरूरी होता है, सुदर्शन जी पढ़ाकू हैं, और मौके पर अपने पढ़े का प्रयोग व्यंग्य की धार बनाने में करते हैं, आओ नरेगा-नरेगा खेलें में वे लिखते हैं ” ये ऐसा ही प्रश्न है जेसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रासीसी क्रांति के समय कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते ? “सर्वोच्च प्राथमिकता” सरकारी फाइलों की अनिवार्य तैग लाइन होती है, उस पर वे तीक्षण प्रहार करते हुये लिखते हैं कि सर्वोच्च प्राथमिकता रहना तो चाहती है सुशासन, रोजगार, समृद्धि, विकास के साथ पर व्यवस्था पूछे तो। व्यंग्य लेखों की भाषा को अलंकारिक या क्लिष्ट बनाकर सुदर्शन आम पाठक से दूर नहीं जाना चाहते, यही उनका अभिव्यक्ति कौशल है।
अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो, अनेक पतियों को एक नेक सलाह, हर नुक्कड़ पर एक पान व एक दांतों की दुकान, महँगाई का शुक्ल पक्ष, अखबार का भविष्यफल, आक्रोश जोन, पतियों का एक्सचेंज ऑफर, पत्नी के सात मूलभूत अधिकार, शर्म का शर्मसार होना वगैरह वे व्यंग्य हैं जो आफिस आते जाते उनकी पैनी दृष्टि से गुजरी सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर रचे गये हैं। वे पहले अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो व्यंग्य संग्रह लिख चुके हैं। डोडो का पॉटी संस्कार, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन इससंग्रह में उनकी पसंद के व्यंग्य हैं। अपनी साहित्यिक जमात पर भी उनके कटाक्ष कई लेखों में मिलते हैं उदाहरण स्वरूप एक पुरस्कार समारोह की झलकियां, ये भी गौरवान्वित हुए, साहित्य की नगदी फसलें, श्रोता प्रोत्साहन योजना, वर्गीकरण साहित्यकारों का : एक तुच्छ प्रयास, सम्मानों की धुंध, आदि व्यंग्य अपने शीर्षक से ही अपनी कथा वस्तु का किंचित प्रागट्य कर रहे हैं।
एक वोटर के हसीन सपने में वे फ्री बीज पर गहरा कटाक्ष करते हुये लिखते हैं ” अब हमें कोई कार्य करने की जरूरत नहीं है वोट देना ही सबसे बड़ा कर्म है हमारे पास “। संग्रह की प्रत्येक रचना लक्ष्यभेदी है। किताब पैसा वसूल है। पढ़ें और आनंद लें। किताब का अंतिम व्यंग्य है मीटिंग अधिकारी और अंतिम वाक्य है कि जब सत्कार अधिकारी हो सकता है तो मीटिंग अधिकारी क्यों नहीं हो सकता ? ऐसा हो तो बाकी लोग मीटिंग की चिंता से मुक्त होकर काम कर सकेंगे। काश इसे व्यंग्य नहीं अमिधा में ही समझा जाये, औेर वास्तव में काम हों केवल मीटिंग नहीं।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 96 ☆ देश-परदेश – अनुशासनहीनता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
एक पुराना गीत “सारे नियम तोड़ दो” हमारे देशवासियों का प्रिय गीत हैं। हमारे कर्म भी तो वैसे ही हैं। कोई भी धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि कार्य में नियमों को तोड़ना हमारी फितरत में हैं। हमारी रगों में बहता खून भी नियम तोड़ कर रक्त दबाव बढ़ता रहता हैं। आप यादि नियम से रहेंगे तो खून भी नियमित होकर बह सकता हैं।
बचपन में घर से दो पेंसिल लेकर जाते बच्चे को मां ये कहती है, कोई दूसरा बच्चा यादि पेंसिल मांगे तो कह देना मेरे पास एक ही है। माता पिता बच्चे के साथ होटल में खाना खा कर आने के बाद घर में आकर कोई और बहाना बना देते हैं। बच्चा भी झूठ बोलने की कला सीख लेता हैं।
युवा बच्चे को बिना लाइसेंस वाहन चलाने के लिए प्रेरित कर यातायात के नियमों की धज्जियां उड़ाना सिखा देते हैं। पिता लाल बत्ती नियम का खुलम खुल्ला उलंघन करते हुए, बचपन में ही बच्चों को नियम तोड़ने की कला में महारत बनने की प्रेरणा दे देता हैं।
यौवन की दहलीज पार करते ही सरकारी कार्यालय में गलत कार्यों के लिए रिश्वत देना/ लेना को जीवन की एक अनौपचारिकता का नाम देकर अपना लिया जाता हैं।
पेरिस ओलंपिक में एक महिला पहलवान सुश्री अंतिम पंगल ने अपनी बहन को नियम विरुद्ध अपने कार्ड से उसको “सिर्फ खिलाड़ियों” के लिए निर्धारित स्थान पर ले जाने का प्रयास किया और पकड़ी गई हैं। उनके निजी सहायक भी नशे की हालत में टैक्सी वाले से वाद विवाद कर चर्चा में हैं।
ओलंपिक नियम के अनुसार तुरंत पेरिस से निष्कासित कर दिया गया हैं। तीन वर्ष का प्रतिबंध भी संभव हैं। इससे पूर्व भी एक अन्य पहलवान सुश्री विनेश पोगट ने भी अपने भाई को उसकी कुश्ती के समय विशेष अनुमति की मांग करी थी।
मांग तो पंजाब के मुख्य मंत्री ने भी की थी, वो पेरिस जायेंगे तो हॉकी टीम का मनोबल बढ़ा सकेंगे। हॉकी टीम में अधिकतर खिलाड़ी पंजाबी भाषा वाले ही हैं, यादि पंजाब के मुख्य मंत्री वहां चले जाते, तो हो सकता है, हॉकी का गोल्ड मेडल हमारी झोली में होता। उन्होंने तो विनेश को भी वज़न कम करने के लिए मूढ़ मुड़वाने की सलाह भी दी हैं। यादि वो पेरिस गए हुए होते तो विनेश को और भी ज्ञानवर्धन कर देते।
अब आप सब भी तो दिन भर व्हाट्स ऐप खोल खोल कर देखते रहते है, कोई समय निर्धारित कर लेवें, इसलिए हम सब भी तो अनुशासनहीन श्रेणी में ही आते हैं। खेलों के मेडल हो या जिंदगी की जंग हो सभी अनुशासन से ही संभव हो सकता हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 202 – कथा क्रम (स्वगत)…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “जीवन का संघर्ष कठिन...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 202 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “जीवन का संघर्ष कठिन...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है श्री अजय कुमार मिश्रा जी द्वारा लिखित – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी ”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार – स्व. पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
(95वी जन्म जयंती पर विशेष)
बौद्धिक परिपक्वता और साहित्यिक गरिमा का जो समन्वय पंडित हरिकृष्ण त्रिपाठी जी के साहित्य में मिलता है वह और कही देखने को नही मिलता वह साहित्य क्षेत्र के एक ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र रहे जिन्होंने अपनी लेखनी राष्ट्र जीवन से जुड़े अधिकाश विषयों तथा सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों पर चलाई और विभिन्न अवसरों पर भी उन्होंने अपने भाषणों में इन विषयों का उल्लेख किया है जो उन्हे साहित्यिक पितामह प्रमाणित करने में पर्याप्त हैं । उनका जो अध्ययन था इतना गहन था की संस्कारधानी में उनके समानांतर और कोई नही दिखाई देता।
जितना विविधतापूर्ण उनका अध्ययन और इस अध्ययन के माध्यम से वो जो साहित्य को ऊंचाई देना चाहते थे और वो उसके लिए प्रयत्न शील रहे।और कहने से नही अपितु अपने व्यक्तित्व के माध्यम से भी उन्होंने प्रमाणित किया हैं। तथा अपने कृतित्व और व्यक्तित्व दोनों के माध्यम से इस बात को सिद्ध भी किया है ।
पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी एक सिद्धहस्त साहित्यकार होने के साथ-साथ पत्रकार एवं शिक्षाविद के रूप में नीरक्षीर विवेकी आलोचक के रूप में स्थापित रहे ।उनकी सभी रचनाओं (ग्रंथो)में साहित्यिक प्रतिभाओं के मूल्यांकन की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उनका हृदय “अय निः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरिताना तु वसुधैवकुटुम्बकम् ।।” के भावबोध से स्पन्दित होता हुआ विभिन्न कृतियों के माध्यम से दृष्टिगोचर होता है। सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा द्वारा रचित साहित्य पाठकों को अनुप्रमाणित करता है। श्री त्रिपाठी जी ने लगातार युवा पीढ़ी को साहित्य-रस से अभिसिंचित कर सदैव सृजन के लिए प्रेरित किया और आज भी नई पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत बने हुए है। कहा जा जाता है कि पुष्प की कोमलता और पाषाण की कठोरता को उन्होंने महापुरुषों की तरह आत्मसात किया है। राष्ट्रभक्ति, साहित्य और समाजसेवा का पाठ यशस्वी पारिवारिक परंपरा में बाल्यकाल से ही सीखा और उसे अपने जीवन में पूर्णरूपेण उतारने का प्रयास किया है। कर्म के प्रति ईमानदारी और अडिग विश्वास सदैव उनके यशस्वी जीवन का सबल रहे हैं। शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी निष्ठापूर्ण सेवाएँ सर्वविदित है। हिन्दी की सेवा उनके लिए राष्ट्रसेवा ही है।जिसे उन्होंने “राष्ट्रभाषा हिंदी और हमारी जनचेतना”नामक लेख में प्रस्तुत किया है की
“स्वाधीनता के पूर्व सारे देश ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता दे दी थी और इस प्रकार की मान्यता देने वाले सभी महापुरुषों में अहिन्दी भाषा-भाषी ही थे। कौन नहीं जानता कि स्वामी दयानंद सरस्वती, आचार्य केशवचंद्र सेन, शारदा नारायण मिश्र, केशव वामन पेठे, लोकमान्य तिलक, माधवराव सप्रे और स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष अहिन्दी भाषा-भाषी थे। वास्तव में आज से सामाजिक एक्य और राष्ट्रीय एकता की नींव को सुदृढ़ करने की हो हमें चेष्टा करनी चाहिए। अपेक्षित है कि मनीषी और हिन्दी के हित चिंतक अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों के संकल्पशील होकर रचनात्मक भावना से हिन्दी भाषा के माध्यम से राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक एक्य की चेतना जाग्रत करने की दिशा में सक्रिय होकर जनचेतना का निर्माण करें, क्योंकि राष्ट्र भाषा ही उन्नति का मूलमंत्र होती है।”
सृजन के क्षेत्र में साहित्येतिहास और समीक्षा उनके रुचिगत विषय रहे और उनके सुचितित लेख ग्रंथ ,गंगा प्रसाद अग्निहोत्री रचनावली मैं श्री त्रिपाठी जी ने द्विवेदीयुगीन साहित्य साधना के क्रमागत विकास का अध्ययन बड़े दृढ़ता के साथ करते हुए स्थानीय साहित्यकारों की सक्रियता को प्रस्तुत किया है वह स्वयं कहते है “भारतेन्दुबाबू हरिश्चन्द्र के अवसानोपरान्त और नवजागरण युग के आरंभ काल की सन्धि रेखा पर देश में हिन्दी हित-चितना और साहित्य-सर्जना के क्षेत्र में जो प्रतिभाएँ उदित हुई, उनमें स्वर्गीय अग्निहोत्री जी निश्चय ही एक महत्वपूर्ण स्थान के भागी है। इस काल की सभी प्रतिभाओं को साहित्येतिहास में द्विवेदी-मण्डल के साहित्यकारों में परिगणित किया गया है। इनमें हमारे मध्यप्रदेश के पंडित लोचन प्रसाद पांडेय, पंडित कामता गुरु, पं० रघुवर प्रसाद द्विवेदी, पं० माधवराव सप्रे आदि कुछ ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनके कृतित्व और विचार-सरणियों ने द्विवेदी-युग के ताने-बाने की कसावट को निस्सन्देह एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया है और इसलिए वे उस काल की ऐतिहासिक महत्ता के अधिकारी भी हैं।”वही श्री त्रिपाठी जी ने भी जबलपुर की काव्य धारा,वार्ता– प्रसंग ,चरित चर्चा, एवम् सृजन के सशक्त हस्ताक्षर,नमक अपने ग्रंथों में जबलपुर महाकोशल क्षेत्र के साहित्य तथा साहित्यकारो का एक दस्तावेज बड़ी मधुरता के साथ अलोचनात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के व्यवस्थित विकास की प्रक्रिया में जबलपुर का योगदान सराहनीय रहा है। भाषा-विज्ञान के आचार्यों के मतानुसार प्रचलित खड़ीबोली हिन्दी का विशुद्ध रूप जबलपुर की भाषायी विशेषता रही है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जबलपुर खड़ी बोली हिन्दी का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। भाषा के विकास एवं साहित्य-सृजन में इसका अपना विशिष्ट स्थान रहा ।इसलिए जबलपुर की काव्यधारा का संकलन किया जाना अपेक्षित था। इस लिए श्री त्रिपाठी जी ने “जबलपुर की काव्य धारा” में भारतेन्दुयुग के अवसान बेला से द्विवेदीयुग के प्रवर्तनकाल तक अद्यतन कालावधि के 75 दिवंगत कवियों का समावेश किया है जिससे इन रचनाकारों की कविताएं सहज ही भविष्य में सुलभ हो पाएंगी । उन्होंने अपने लिए ही नहीं साहित्य में कार्य किया क्योंकि साहित्यकारों के साथ एक विडंबना रहती है कि वे अपने लिए काम करना चाहते है वे अपने प्रचार- प्रसार के लिए, अपने यश के लिए काम करना चाहते हैं , लेकिन पंडित हरि कृष्ण त्रिपाठी जी ने उन तमाम साहित्यकारों के लिए कार्य किया ,जो उनकी दृष्टि में साहित्य की सेवा कर रहे थे और संकोच के कारण जो अपने आपको प्रकाश में नहीं ला पाते थे ऐसे लोगों को भी उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया हैं यह उनके व्यक्तित्व की एक गरिमा थी जिसके कारण वह संस्कारधानी के पितामह कहे जाने की योग्य है।
लेखक – श्री अजय कुमार मिश्रा (शोध छात्र के लेख से साभार)
संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “ये सवाल हैं जोख़िम भरे.…”।)
☆ शेष कुशल # 43 ☆
☆ व्यंग्य – “ये सवाल हैं जोख़िम भरे…”– शांतिलाल जैन ☆
इसीलिए अपन तो रिस्क लेते ही नहीं.
रिस्क रहती है श्रीमान् साड़ी पसंद करवाने के काम में. ताज़ा ताज़ा हाथ जला बैठे हैं डिज़ाइनर तरूण तहिलियानी. पेरिस ओलंपिक के लिए उनकी डिज़ाइन की गई साड़ी विवाद के केंद्र में आ गई है. मुर्गे की जान गई और खानेवाले को मज़ा नहीं आया. ओलंपिक दल की महिला सदस्यों ने पहन भी ली, ओपनिंग सेरेमनी में पहन कर चलीं भी, अब कह रहे हैं साड़ी पसंद नहीं आई. आजकल छोटे-छोटे आयोजनों में प्रिंटेड साड़ी तो कामवाली बाई नहीं पहनतीं, तरूणबाबू आपने ओलंपिक में पहनवा दी. ‘इकत’ प्रिंट है. तो क्या हुआ इकत प्रिंट का चलन तो इन दिनों बेडशीट में भी नहीं रहा! घर जैसे टंटे पेरिस में भी. होता है – जब साड़ी ननद लाई हो – ‘ऐसी तो दो-दो सौ रूपये में सेल में मिल जाती है’. एक्जेक्टली यही ओलंपिक साड़ी के लिए कहा जा रहा है – ‘दो सौ रूपये में दादर स्टेशन के बाहर मिलती है.’ जो पीहर से वैसी ही साड़ी आ जाए तो ट्रायल रन में ही केटवॉक, ऑन दी सेम-डे, किचन टू पोर्च वाया ड्राईंगरूम एंड बैक, हुज़ूर इस कदर भी न इतरा के चलिए. तो श्रीमान कहानी का पहला मोराल तो ये कि तारीफ़ करने या खोट निकालने से पहले सुनिश्चित कर लीजिए साड़ी आई कहाँ से है. बेचारे तरूणबाबू को इल्म भी नहीं रहा होगा कि सेम-टू-सेम एटीट्यूड इंटरनॅशनल लेवल पर नुमायाँ हो जाएगा. काश! उन्होंने सप्लाय करने से पहले इंडियन ओलंपिक असोसिएशन से पूछ लिया होता – ‘देनेलेने में दिखाऊँ ?’ तो उनकी इतनी आलोचना न होती. कस्बे के दुकानदार को पता होता है इस तरह की साड़ियों का कपड़ों में वही स्थान होता है जो दिवाली की मिठाई में सोन-पपड़ी का होता है. कभी कभी तो वही की वही साड़ी आठ-दस घरों में लेनदेन निपटाकर फिर से वहीं आ जाती है. ऐसे में बेचवाल सेफ हो जाता है, साफगोई से उसने पहले ही बता दिया कि ये देनेलेने के काम की है, पहनकर ट्रैक पर चलने को किसने कहा था!
रिस्क साड़ी खरीदवाने के काम में ही नहीं रहती, ‘आज क्या पहनूँ ?’ को रिस्पांड करने में भी रहती है. ऐसा करो वो एरी सिल्क की देख लो. कौन सी एरी सिल्क ? वही जो अभी अभी खरीदी है मूँगिया ग्रीन. अभी कभी? अरे अभी तो कुछ समय पहले तो खरीदी तुमने. सालों गुजर गए जो आपने एक साड़ी भी दिलाई हो. क्यों, अपन जोधपुर चले थे तब नहीं खरीदी तुमने, महिना भर भी नहीं हुआ है. वो तो मैंने मेरी मम्मी के पैसों से खरीदी थी, कौनसी आपने दिला दी है. कब से कह रही हूँ आइसी-ब्लू शेड में एक साड़ी लेनी है. आपके पास सबके लिए बजट है मेरे लिए नहीं. लगा कि अब और कुछ कहा तो मौसम बदल जाएगा. रिस्क तो रहती है श्रीमान, डर लगता है, बेध्यानी में भी सच न निकल जाए मुँह से. बेटर हॉफ की मम्मी ने तो खाली पाँच सौ रूपये भिजवाए थे साड़ी के, फॉल-पिको में निकल गए. पूरी फंडिंग अपन की लगी है. फिर सात वचन से बंधा जो हूँ, त्याग तो करना ही पड़ता है. वैसे असल त्याग तो रेशम के कीड़ों का है श्रीमान, उबलते पानी में जान देकर भी….
बहरहाल, ‘आज क्या पहनूँ ?’ अपन के दिए सारे ऑप्शंस रिजेक्ट हो चुके हैं. टसर सिल्क, कोसा सिल्क, मैसूर सिल्क, चंदेरी सिल्क हर ऑप्शन खारिज़. उधर उत्तर में बनारस से लेकर सुदूर दक्षिण में कांजीवरम तक कुछ जम नहीं रहा. पता नहीं कौन लोग हैं जो भारत को विकसित राष्ट्र मानते हैं. एक साड़ी तो ऐसी आज तक बना नहीं पाए जो पहली नज़र में पसंद आ सके चलें हैं विश्व का नेतृत्व करने. ‘अलमारी में कपड़े जमाकर कैसे रखें जाएँ’ – मैरी-कोंडो ये तो दुनिया को सिखा सकती हैं, मगर ‘आज क्या पहनूँ ?’ रिस्पांड करने में भारतीय पति की मदद नहीं कर सकती. कुदरत ने आर्यावर्त में महिलाओं को एलिफेंट मेमोरी की नेमत बख्शी है. दस साल पहले किसी परिवार में, किसी आयोजन में कौनसी साड़ी पहनी थी, याद रहता है उन्हें. याद रखना पड़ता है. उसी परिवार में, वैसे ही आयोजन में साड़ी रिपीट न हो जाए, कांशियस बना रहता है. ओवरफ्लो होते तीन तीन वार्डरोब. खोलने के लिए दरवाजा थोड़ा सा स्लाइड करते ही साड़ियाँ कोरस में सवाल करने लगती हैं – ‘क्या मुझे दूसरी बार कभी पहना जाएगा?’ वे आज फिर रिजेक्ट हो चुकी हैं. थकहार कर अगले ने उसी साड़ी को पहनना नक्की किया है जिसे वे शुरू में मना कर चुकी हैं – एरी सिल्क का मूँगिया ग्रीन. रिस्क गाड़ी छूट जाने की भी है – एरी की मूँगिया ग्रीन ड्रेप-रेडी नहीं है, तैयार होने में अभी टाईम लगेगा.
उधर ओलंपिक का साड़ी विवाद इस पर भी बढ़ गया कि तरूणबाबू ने डिज़ाइंड साड़ी पर अपनी कंपनी तस्व का लोगो ही छाप डाला. ‘ये साड़ी आपने कहाँ से ली ?’ ऐसे सवालों के जवाब सचाई से नहीं दिए जाते तरूणबाबू, नंदिता अय्यर जैसियों को तो बिलकुल भी नहीं, और आपने कंपनी का लोगो छाप कर सीक्रेट ख़त्म कर दिया. आलोचना तो होनी ही थी. वैसे भी कपड़े का नौ वार लम्बा यह टुकड़ा भारतीयों को इस कदर लुभाता है कि हम पदकों से ज़्यादा खिलाड़ियों की साड़ी के बारे में चिंतित होते हैं, गोया कि स्टेडियम का रेसिंग ट्रेक न हो, फैशन शो का रैम्प हो. ओलंपिक तो 11 अगस्त को ख़त्म हो जाएगा, साड़ी पसंद करवाने के काम में रिस्क तो ताउम्र बनी रहेगी. आप नज़र पदक पर रखिए, अपन साड़ी विवाद पर रखते हैं.
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सावन की झड़ी”)