हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 8 – एक सुगढ़ बस्ती थी ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “एक सुगढ़ बस्ती थी”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #8 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ एक सुगढ़ बस्ती थी ☆

 

सुगढ़ बस्ती थी

बहुत खुशहाल खाकों में

भर गया पानी वहाँ

निचले इलाकों में

 

कई चिन्तायें लिये दुख

में खड़े शामिल सभी

लोग हैं भयभीत देखो

बढ़ गई मुश्किल अभी

 

छूटता जाता है कुछ –

कुछ समय के संग में

बेबसी में हो रहे

इन बड़े हाँकों में

 

बहुत पहले से यहाँ पर

अन्न का दाना नही था

और चिन्ता थी मदद को

किसी को आना नहीं था

 

लोग सारे इसी बस्ती

के यहाँ पर मर रहे हैं

विपति के मारे

अनिश्चित हुये फाकों में

 

बहुत कोलाहल बढ़ा है

बढ़ गई हलचल यहाँ

एक पानी है अकेला

चल रहा पैदल जहाँ

 

ठहर कर चलती रही

कोई खबर है बस यहाँ

सभी विचलित सूचना के

इन धमाकों में

 

© राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

25-06-2020

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 9 ☆ व्यंग्य – रात जो रात नहीं रही ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “रात जो रात नहीं रही ।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 8 ☆

☆ व्यंग्य – रात जो रात नहीं रही 

 

“वेलकम, यात्रा कैसी रही ?” मैंने केके को स्टेशन पर रिसीव करते हुए पूछा. केके यानी कपिल कुमार यानी कुम्भकरण हमारे होस्टल का. आज जब स्टेशन पर उतरा तो एक लम्बी सी जमुहाई लेते हुए बोला- “नींद नहीं हुई डियर ठीक से.”

“तुम्हारी नींद नहीं हुई. कमाल है ! छह-छह महिनों तक सोने का रिकार्ड है तुम्हारे नाम. आज तक कोई तोड़ नहीं पाया फिर ………”

“वो त्रेता युग की बात है डियर. उन दिनों मोबाईल नहीं हुआ करते थे ना. ”

“स्विच ऑफ करके सो जाना था.”

“मैंने अपना तो कर दिया था, सहयात्री का क्या करता ? हर थोड़ी देर में इनकमिंग. हर इनकमिंग पर ईश्क सूफियाना. सूफी संतों को ही क्या पता था प्रेम के उनके संदेशों की ये गत बनेगी.”

फियांसी रही होगी उसकी. रह-रह कर उसकी घंटी बजती और रह-रह कर नींद हमारी हराम होती जाती. पहले बोगी में, फिर ट्रेन में और रात के पौने एक बजते बजते सारी कायनात को पता चल गया कि इंदौर हावड़ा क्षिप्रा एक्सप्रेस की बोगी नं. एस-6 में तैंतीस नम्बर की बर्थ पर एक प्रेमी पसरा पड़ा है, विरह में व्याकुल जिसकी फियांसी न खुद सो पा रही है न डिब्बे में किसी और को ही सोने दे रही है. समय बदल गया है साहब. कभी प्रेमी जन प्रतीक्षा किया करते थे कि सो जाये सारा जमाना तो कर लें मन की बातें, इतनी धीमे कि दूसरा कान भी न सुन पाये. अब तो लव इतना लाउड कि न ईश्क की छुपम-छुपाई का आनंद रहा न सूफियाना पवित्रता. जमाना तो कबूतरों वाला ही बेहतर था. बांध दिया पुर्जा पंजों में और जा बैठे छज्जे में. उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते एक दो विरह गान लिख मारे. पंखिड़ा ने संदेश लाने में देरी की तो थोड़ा सूख साख लिये. वजन भी कम हो लिया साथ ही साथ. अब तो  घंटों लेटे लेटे बतियाते रहो कि आसानी रहे चर्बी को चढ़ने में. तुम ही बताओ डियर, जब तक एक भी प्रेमी जाग रहा हो डिब्बे में तब तक बाकी सब कैसे सो सकते थे ?”

“टोक देना था उसे.”

“किस-किस को टोकता डियर. मिडिल बर्थ वाले अंकलजी रात डेढ़ बजे तक अपनी वाइफ को सफाई देते रहे. मामला टसर सिल्क की साड़ी पर अटका था. उनकी बेटर-हॉफ उनके मेमेारी-लॉस के आर्ग्युमेंट को मानने के लिये तैयार नहीं थी. अंकलजी ने कंजूसी के तमाम आरेाप खारिज किये. आंटीजी के प्यार में पगे होने की कसमें खाई. हर बार वही ढाक के तीन पात. दलीलें उनकी खारिज होती जाती थी – नींद हमारी खराब होती जाती थी. फिर कहानी में एक टर्निंग पाईंट आया – किसी कामिनी मैडम के नाम पर. अंकलजी ने गले की सबसे निचली तह से, पूरे हाई पिच पर, घर पहुँचते ही चार जूते लगाने की घोषणा की. सहयात्री महिलायें डर गईं. ऐसे मरद का क्या भरोसा ! जोश में किसी को भी जूते मार सकता है. कुछ देर पहले कह ही रहे थे अंकलजी – औरतें सब एक जैसी होती हैं.”

“फिर”

“फिर क्या डियर, गॉड इज ग्रेट. बेलेन्स खत्म हो गया उनके मोबाईल में. तूफान के बाद की खामोशी छा गई. निस्तब्ध नीरव निशा में हम नींद के आगोश में समाने ही वाले थे कि साइड अपर का अलार्म बज उठा. शिर्डी वाले सांई बाबा, आया है तेरे दर पे…….”

“तुम्हें इन्हीं से दुआ करनी थी.”

“की मैंने. मन्नत मांगी कि आज की रात सारे नेटवर्क ठप्प हो जायें. कुबूल भी हो गई. मगर तब तक कुछ स्टूडेंटस्  कैलाशा-लाइव बजाने लगे.”  स्टेशन से घर तक केके अपनी आपबीती रातबीती सुनाता रहा.

हमारा मुल्क ऐसा ही है साहब-आप वोट देते हैं सरकार मिल जाती है, शासन नहीं मिल पाता. अधिकार मिल जाता है सूचना नहीं मिल पाती. एडमिशन मिल जाता है शिक्षा नहीं मिल पाती. आप पैसे देते हैं बर्थ मिल जाती है, नींद नहीं मिल पाती. कैसे-कैसे जतन करते हैं! भिनसारे आरक्षण की लाईन में लग जाते हैं. तत्काल में ज्यादा पैसे देते हैं. एजेन्ट से लेकर कुली तक की चिरौरी करते हैं. प्लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक काले कोट वाले के पीछे-पीछे घूमते हैं. उसकी घुड़कियों का बुरा नहीं मानते. मिन्नतें करते हैं, ऑन देने को सहमत होते हैं, बमुश्किल एक बर्थ का जुगाड़ जम पाता है. चलिये साहब, चेन-ताले से अटैची बांध के पसर जाइये. सुन्दर, सलोने सपनों के संसार में प्रवेश करने जा ही रहे हैं कि उपर की बर्थ वाला जगा कर पूछता है आपसे “भाई साहब कौन सा स्टेशन आया ?” उल्लू हैं आप जो धनघोर अंधेरे में डूबे स्टेशन का नाम पढ़कर बतायेंगे.

“होनोलुलु है. उतरेंगे आप ?”

“नहीं, बकानियाँ भौंरी जाना है. आये तो बताईयेगा.”

“अभी देर है. दो घंटे लेट चल रही है.” – साइड लोअर से आवाज आई.

“एक घंटा बावन मिनिट” – किसी ने एक्जेक्ट बताने की कोशिश की.

“राजधानी का क्रॉसिंग है.”

“अभी और पिटेगी ट्रेन. जयपुर निकालेंगे इसको रोककर.”

शब-ए-फुरकत का जागा हूँ फरिश्तों अब तो सोने दो. आप गाना चाहते हैं मगर गा नहीं पाते. बस बाल नोंच कर रह जाते हैं. अमजद खान भी नहीं रहे अब कि डरा सकें आप – सो जा, सो जा वरना गब्बर आ जायेगा.

निशांत की गहरी नींद में होते हैं आप तब पैसठ नम्बर की बर्थ से ओमऽऽऽऽ का ब्रम्हनाद गूंजता है. समूची सृष्टि में गुंजायमान होने की नीयत से निकला प्राणायाम का स्वर बोगी में सोये यात्रियों को हिलाकर रख देता है. कांप उठते हैं आप. ट्रेन पटरी से उतर तो नहीं गई ?  ऐसा कुछ नहीं हुआ है,  बस चादर बिछा ली है उन्होने, डिब्बे के फर्श पर भृस्त्रिका कर रहे हैं. अनुलोम विलोम करेंगे. आप दुआ करते हैं कि डेस्टिनेशन आने तक शवासन करते रहें. मगर आपका ऐसा नसीब कहाँ! नित्य नियम तो वे पूरा करेंगे ही. टिकट के पीछे लिखा है कहीं कि चलती ट्रेन में योगा करना मना है. महर्षि पतंजलि के जमाने से करते आ रहे हैं, आज क्यूं छोडें ? उनके फेफड़ों में समाती ऑक्सीजन के आरोह अवरोह आपके खर्राटों पर भारी पड़ते हैं. सो आप चद्दर से मुँह ढंके रहें. कान, आँख, मुँह, स्लीपिंग सेन्सेटिव इन्द्रियों को चद्दर में छुपाये रखें साहब. बेवफा नींद कभी तो आयेगी. जीरो से एक सौ अस्सी डिग्री तक करवटें बदलते रहें. हाथ पीछे ले जाकर पीठ खुजाते रहें. कुम्भकरण तक नहीं सो पाता, किसी और की क्या बिसात! जतन करते रहें.

रेल के सफर में आप अपने को सर्वाधिक भाग्यशाली उस रात समझते है जिस रात कोई बारात आपकी बोगी में नहीं फंसती. डिब्बे में पसरी खिजाओं को भी वे बहारें मानकर अनुरोध करते चलते हैं-फूल बरसाओ कि मेरा महबूब आया है. भोजन घर से पैक करा कर लाया है. स्टील की टंकियों में भरी पूरियाँ, आलू गोभी की सब्जी, अचार की तीखी गंध आपकी निद्रा ही नहीं क्षुधा को भी जगाये रखती है. आज की रात पूरा डिब्बा ही बारात है. पेपर प्लेट पर रखी मनुहार जगाये रखती है. सकुचाइये नहीं. शानदार खोपरा पाक कह रहा है सोया क्यूं है पट्ठे. उठ. सेंव कम है तो भुआजी से मांग. खाना निपटे तो अंत्याक्षरी शुरू करें. बड़ी मामी कब से ढोलक तैयार किये बैठी है. महोबावाली मौसी पहले दो भजन गायेंगी. फिर युवा मंडली के हवाले पूरा एस-6. पप्पा तो ट्रेन में ही डीजे लगवाने को कह रहे थे. सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देती. न चांदनी न सुहानापन, बस कुछ फटे बांस हैं. कुछ दूसरों के कान फोड़ने की कवायदें और एक रात है जो रात नहीं रही. ‘ती’ पर खत्म हुआ है तो ‘ती’ से ही गाइये. नाऽऽऽ नाऽऽऽ नईऽऽ नईऽऽ ये ‘आ’ से शुरू होता है आपको ‘ती’ से गाना है. चीटींग.. चीटींग.. तमाम सालियाँ चीख रहीं हैं. जिज्जाजी मान नहीं रहे. चीटींग तो आज रात आपके साथ घट रही है. आपके पगला जाने में कुछ ही क्षण बाकी है. तभी पिछले जन्म के  कुछ कुछ पुण्यकर्मों का उदय होता है. आपको नींद आती ही है कि ‘थ्री सिक्स थर्टी-सिक्स.‘ घबराईये नहीं. आपकी बर्थ कोई और क्लेम नहीं कर रहा. तम्बोला निकाल लिया है छोटी मामी ने. बोगी… बोगी. पूरी की पूरी बोगी कांप उठी है उनकी चीखों से जिनके कार्नर्स अभी तक कटे नहीं हैं. पहले बॉटम लाईन, फिर मिडिल, फिर अपर. सम्भल कर सोइये आपकी  लाईन खतरे में हैं ? लुक फॉर फुल हाउस डियर. हर वो आनंद जो कहीं नहीं लिया जा सकता एस-6 में है. सोना मना है यहाँ कि अभी कुछ देर में चाय की फेरी शुरू होने वाली है.

ऐसी रातों से केके का वास्ता अक्सर पड़ता ही है. उसकी परेशानी का अंदाजा बहुत से लोगों को नहीं है. उसे आज ही मेरे शहर में तीन प्रजेन्टेशन्स करना है. क्लाइंटस को सेट करना है. आर्डर्स बुक करने है. टारगेट्स का दैत्य सामने खड़ा है. व्यक्तित्व को खुशनुमा रखना उसकी मजबूरी है. क्लाइंट्स से मिलते समय जॉली, जोवियल, हंसमुख, सजग दिखना कम्पलसरी है. कॉम्बीफ्लेम लें आप, सिंकारा पियें, बार-बार आँखों पर गीला रूमाल रखें. वाट एवर इट टेक्स. मार्केटिंग की क्लास में कहा गया है पसनैलिटी प्लीजंट होना. नींद युवा पीढ़ी की जरूरत नहीं विवशता है. ‘करवटें बदलते रहें सारी रात हम, आपकी कसम’ आप अपनी प्रियतमा से तो कह सकते हैं अपने बॉस को कैसे कहें. वो तुरन्त एक पिंक स्लिप पकड़ा देगा आपको, गुडबॉय कर देगा.

आपा धापी भरी जीवन शैली में चैन की नींद कुम्भकरण को भी मयस्सर नहीं है.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ 

 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपने अपनी कोई भी पुस्तक प्रकाशित रुप में कभी किसी को समर्पित नहीं की, जबकि विश्व की सभी भाषाओं में इसकी अत्यंत समृद्ध परंपरा मिलती है।आपके व्यक्तित्व व लेखन दोनों की अपार लोकप्रियता को देखते हुए यह बात कुछ अधिक ही चकित करती है ?

हरिशंकर परसाई – 

यह समर्पण की परंपरा बहुत पुरानी है। अपने से बड़े को, गुरु को, कोई यूनिवर्सिटी में है तो वाइस चांसलर को समर्पित कर देते हैं।कभी किसी आदरणीय व्यक्ति को,कभी कुछ लोग पत्नियों को भी समर्पित कर देते हैं। कुछ में साहस होता है तो प्रेमिका को भी समर्पित कर देते हैं। ये पता नहीं क्यों हुआ है ऐसा।कभी भी मेरे मन में यह बात नहीं उठी कि मैं अपनी पुस्तक किसी को समर्पित कर दूं।जब मेरी पहली पुस्तक छपी, जो मैंने ही छपवाई थी, तो मेरे सबसे अधिक निकट पंडित भवानी प्रसाद तिवारी थे, अग्रज थे, नेता थे, कवि थे,, साहित्यिक बड़ा व्यक्तित्व था, उनसे मैंने टिप्पणी तो लिखवाई किन्तु मैंने समर्पण में लिखा-‘उनके लिए,जो डेढ़ रुपया खर्च करके खरीद सकते हैं।ये समर्पण है मेरी एक किताब में। लेकिन वास्तव में यह है वो- उनके लिए जिनके पास डेढ़ रुपए है और जो यह पुस्तक खरीद सकते हैं, उस समय इस पुस्तक की कीमत सिर्फ डेढ़ रुपए थी।सस्ता जमाना था, पुस्तक भी करीब सवा सौ पेज की थी। इसके बाद मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मैं किसी के नाम समर्पित कर दूं अपनी पुस्तक। जैसा आपने कहा कि मैंने तो पाठकों के लिए लिखा है, तो यह समझ लिया जाये कि मेरी पुस्तकें मैंने किसी व्यक्ति को समर्पित न करके तमाम भारतीय जनता को समर्पित कर दी है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 14 ☆ गुरुवर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “गुरुवर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 14 ☆ 

☆ गुरुवर ☆

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

तुम भोर की पहली किरण के समान,

तुम अंधकार में ज्योति के समान,

तुम पुष्प में सुगंध के समान,

तुम शरीर में प्राण के समान,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

तुमने दिखाया इस भू से चाँद छूने का रास्ता,

तुम हो गगनस्पर्शी,

तुमने बताया पाताल की सुन्दर नगरी का रास्ता,

तुम त्रिकाली, तुम त्रिकालदर्शी,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

तुम अद्वितीय,  तुम अकथनीय, तुम अजातशत्रु,

तुमने दिखाया इस लोक से उस लोक तक का रस्ता, तुम परलोकी,

तुमने दिखाया विश्व को जीतने का रास्ता,

तुमने बताया आत्म संतोष का रास्ता,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

तुम युद्ध में हो कृष्ण,

तुम ज्ञान में हो वाल्मीकि,

तुम रात में सूरज की किरण,

तुम घोर अंधकार में दीपक की रौशनी,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

गुरुवर आप हमें देते हैं ज्ञान का भंडार,

दूर करते हैं हमारे अवगुणों का विकार,

देते हैं हमारे ज्ञान को नया आकार,

मिटाते हैं अज्ञान का अंधकार,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

भुला नही सकते आपका ये ज्ञान,

देते रहेंगे आपको हमेशा सम्मान,

आपसे भी स्नेह मिले यदि श्रीमान,

तो करते रहेंगे ज़िन्दगी भर आपका गुणगान,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #3 ☆ वर्षा ऋतु ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण रचना  “वर्षा ऋतु ”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #3 ☆ 

☆ वर्षा ऋतु ☆ 

 

वर्षा की ऋतु आई

झुलसाती गर्मी से राहत पाई

तन-मन ने ली अंगड़ाई

हर चेहरे पर मुस्कान लायी

 

अंबर में बादलों में

हो रहीं हैं जंग

कर्णभेदी गर्जना से

शांति हो रही भंग

 

चपल तड़ित क्षण में

कर रही है दंग

वर्षा ऋतु की आहट पाकर

फड़क रहे हैं अंग

 

वसुंधरा है प्यासी प्यासी

तरूवर पर है छायी उदासी

व्याकुल है हर धरती वासी

मेघों! टपकाओ बूंदें जरासी

 

यूँ  ही कब तक तड़पाओगे

काली घटाएं कब लाओगे

बोलो! तुम कब आओगे

धरती पर पानी कब बरसाओगे

 

हे मेघों! तुमको है वंदन

तोड़के आओ सारे बंधन

लंबी-लंबी झड़ी लगाओ

टूट टूट कर पानी बरसाओं

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

26/06/2020

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 7 ☆ परोपकार ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है पितृ दिवस के अवसर पर उनकी भावप्रवण कविता “परोपकार”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 7 ☆ 

☆ परोपकार ☆

 

एक फुलपाखरू मला

स्पर्श करून गेलं

अचानक बिचारं ते

माझ्यावर आदळलं

कसेतरी स्वतःला

सावरत सावरत

उडण्याचा स्व-बळे,

प्रयत्न करू लागलं.

त्याला मी जवळ घेतलं

स्नेहाने अलगद ओंजळीत भरलं

झाडाच्या फांदीवर

हळूच सोडून दिलं…

त्याला सोडलं जेव्हा, तेव्हा

ओंजळ माझी रंगली

पाहुनी त्या रंगाला मग

कळी माझीच खुलली

हसू मला आलं विचार सुद्धा आला,

ना मागताच मला फुलपाखराने त्याचा रंग विनामूल्य बहाल केला,

परोपकार कसा असावा याचा निर्भेळ पुरावा मला मिळाला…!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 50 – आम्ही भाग्यवंत ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपका  एक अत्यंत भावप्रवण  कविता  ” आम्ही भाग्यवंत”।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 50 ☆

☆ आम्ही भाग्यवंत ☆

 

नुरलिसे जीवा खंत।

धन्य आम्ही भाग्यवंत।।१।।

 

प्रेम संस्काराने न्हालो

यशवंत आम्ही झालो  ।।२।।

 

ओठी अमृताची गोडी

जन मना नित्य जोडी।।३।।

 

संगे गोपाळांचा मेळा

विठू जणू हा सावळा।।४।।

 

लुटे ज्ञानाची शिदोरी

वसे शिष्यांच्या आंतरी।।५।।

 

घाली मायेची पाखर।

बाणा परि कणखर ।।६।।

 

यशवंत भविष्याची।

गुरुकिल्ली शिक्षणाची  ।।७।।

 

उभा पाठी हिमालय।

बाबा जणू देवालय ।।८।।

 

प्रेम कोष उधळून।

गेला निर्मोही सोडून ।।९।।

 

साद घाली वेडे मन

यावे तोडुनी बंधन।।१०।।

 

माय पित्याविन दीन

होऊ कशी पायी लीन।।११।।

 

रंजना लसणे

आखाडा बाळापूर

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 57 ☆ व्यंग्य – सब मर्ज़ों की एक दवा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘सब मर्ज़ों की एक दवा’।  यह जीवन का सत्य है कि सब मर्ज़ों की एक ही दवा  है और यह एक गरीबदास है जो मानने को तैयार ही नहीं है।  इस अतिसुन्दर व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

गुरु पूर्णिमा पर्व पर परम आदरणीय डॉ कुंदन सिंह परिहार जी को सादर चरण स्पर्श।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 57 ☆

☆ व्यंग्य – सब मर्ज़ों की एक दवा

 

भाई जी, यह बहुत अच्छा हुआ कि संसार के सब मर्ज़ों की एक दवा मिल गयी। अब इस बात में कोई शक नहीं रहा कि ज़िन्दगी की सब व्याधियों की एक दवा पैसा है, अक्सीर दवा।

पैसा है तो रोग-दोष आपके पास नहीं फटकते। पैसा है तो आपके लिए सब कुछ मुहैया है। बोलो,क्या ख़रीदना चाहोगे? मोटर ख़रीदोगे या हवाई जहाज़? फाइल ख़रीदोगे या बाबू? अफसर ख़रीदोगे या विधायक?

पैसा पास है तो कला, सभ्यता, संस्कृति भी मिल सकती है। यहाँ तो हर चीज़ बिकती है, कहो जी तुम क्या क्या ख़रीदोगे? आप बस ज़ुबान भर हिलाओ बबुआ, संसार की सब विभूतियाँ आपके चरणों में लोटेंगीं। हाँ, बस थोड़ा नावाँ दिखाते जाओ।

पैसा है तो सुपुत्रों को पढ़ने के लिए जर्मनी जापान भेजो और फिर आसानी से अच्छी नौकरी या व्यापार में जमा दो। नौकरी की आपाधापी और हताशा सिर्फ अभागों के लिए है। पैसा है तो ज़ुकाम का इलाज जसलोक में कराओ। या अगर घर के डॉक्टर पसन्द न हों तो अमेरिका चले जाओ। कोई असाध्य रोग पकड़ ले तो पैसा आपको बचा भले ही न पाए, पर चार छः साल आपकी ज़िन्दगी को खींच तो सकता ही है। जिस दिन विज्ञान मृत्यु पर विजय पा लेगा उस दिन सब पैसे वाले अमर हो जाएंगे, क्योंकि अमरत्व के मंहगे उपकरण ख़रीदने की शक्ति उन्हीं में होगी। तब वे देवताओं की श्रेणी में आ जाएंगे और आदमी के नाम पर वही बचेंगे जिनकी जेब में नावाँ नहीं होगा।

पैसा पास है तो आदमी को कोई पाप, दोष नहीं छूते। हज़ार पाप करके भी वह पवित्र, निर्मल रह सकता है।  ‘विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा। ‘ गोस्वामी जी भी कह गये हैं, ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं। ‘

लेकिन यह गरीबदास बड़ी देर से मेरी बगल में भुनभुनाकर कुछ कह रहा है। पूछता है, इस पैसे वाली दुनिया में उसका क्या होगा? तो सुनो गरीबदास, तुम्हारी जो हालत है वह तुम्हारा प्रारब्ध और पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। लेकिन गरीबदास मानता नहीं। कहता है बड़े लोग कह गये हैं ‘बड़े भाग मानुस तन पावा’।  मनुष्य का जन्म बड़े पुण्यों के बाद मिलता है, तब ये पुराने पाप कहाँ से आ गये? है न सिरफिरा?

लो गरीबदास, तुम्हारे हित के लिए कुछ सूक्तियाँ देता हूँ। इन्हें जतन से गठिया लो। ये तुम्हारी तकलीफ को दूर भले ही न करें, लेकिन तुम्हारा ध्यान उस पर से हटा देंगीं। सुनो—‘हानि लाभ ,जीवन मरण,यश अपयश विधि हाथ’, ‘को करि तरक बढ़ावै साखा, हुईहै वहि जो राम रचि राखा’, ‘संतोषी सदा सुखी’, ‘देख पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव, रूखा सूखा खाय के ठंडा पानी पीव’, ‘जो आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान। ‘ इसलिए अपनी ज़िन्दगी धूरि समान, बच्चों की पढ़ाई लिखाई और नौकरी धूरि समान,अपने बुढ़ापे और बीमारी का इंतज़ाम भी धूरि समान।

एक और सूक्ति देता हूँ गरीबदास। इसे कई समझदार लोग दुहराते हैं—-‘पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं। ‘ समझे गरीबदास? लेकिन गरीबदास मूड़ हिलाता है, कहता है, ‘पाँचों उँगलियाँ बराबर भले ही न हों, लेकिन ऐसा तो नहीं होता कि बड़ी उँगली हमेशा गुलाब पर रखी रहे और छोटी हमेशा काँटों में घुसी रहे। ‘ गरीबदास  का कहना है कि यह गोरखधंधा उसकी समझ में नहीं आता। सच्ची बात तो यह है गरीबदास, कि यह सब मेरी समझ में भी नहीं आता।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #54 ☆ गुरु और गुरुता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – गुरु और गुरुता  ☆

मनुष्य अशेष विद्यार्थी है। प्रति पल कुछ घट रहा है, प्रति पल मनुष्य बढ़ रहा है। घटने का मुग्ध करता विरोधाभास यह कि  प्रति पल, पल भी घट रहा है।

हर पल के घटनाक्रम से मनुष्य कुछ ग्रहण कर रहा है। हर पल अनुभव में वृद्धि हो रही है, हर पल वृद्धत्व समृद्ध हो रहा है।

समृद्धि की इस यात्रा में प्रायः हर पथिक सन्मार्ग का संकेत कर सकने वाले मील के पत्थर को तलाशता है। इसे गुरु, शिक्षक, माँ, पिता, मार्गदर्शक,  सखा, सखी कोई भी नाम दिया जा सकता है।

विशेष बात यह कि जैसे हर पिता किसी का पुत्र भी होता है, उसी तरह अनुयायी या शिष्य, मार्गदर्शक भी होता है। गुरु वह नहीं जो कहे कि बस मेरे दिखाये मार्ग पर चलो अपितु वह है जो तुम्हारे भीतर अपना मार्ग ढूँढ़ने की प्यास जगा सके। गुरु वह है जो तुम्हें ‘एक्सप्लोर’ कर सके, समृद्ध कर सके। गुरु वह है जो तुम्हारी क्षमताओं को सक्रिय और विकसित कर सके।

गुरु वह है जो  तुम्हें एकल नहीं एकाकार की यात्रा कराये। एकाकार ऐसा कि पता ही न चले कि तुम गुरु के साथ यात्रा पर हो या तुम्हारे साथ गुरु यात्रा पर है। दोनों साथ तो चलें पर कोई किसी की उंगली न पकड़े।

यदि ऐसा गुरु तुम्हारे जीवन में है तो तुम धन्य हो। तुम्हारा मार्ग प्रशस्त है।

जिनकी गुरुता ने जीवन का मार्ग सुकर किया, उनका वंदन। जिन्होंने मेरी लघुता में गुरुता देखी, उन्हें नमन।

शुभं भवतु।

गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।

 

© संजय भारद्वाज

परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – माँ  का आँचल ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  एक सार्थक एवं  हृदयस्पर्शी लघुकथा माँ  का आँचल। इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

 ☆  माँ  का आँचल  ☆ 

 

आज अरुण की तलाश पूरी हुई।

आखिरकार इंटरव्यू में पास हो गया।

इतने में जोर से बारिश आ गई। भीगता हुआ अरुण बस स्टैंड से दौड़ता सा घर पहुंचा। भीतर सब लोग हाॅल में बैठे थे। उसे देखकर भैया भाभी रहस्यमय तरीके से एक दूसरे को देखकर चाय की सिप लेने लगे। छोटी बहन उसका बैग टटोलने लगी।

पिता गरजे कुछ देर ठहर कर नहीं आ सकते थे वैसे भी हम जानते हैं क्या हुआ होगा। इतनी बड़ी कंपनी में तुम्हें नौकरी  नहीं मिलेगी।

इतने में माँ दौड़ती सी तौलिया लेकर आई और धीरे से पूछा बेटा कुछ खाया कि नहीं और माँ के आँचल से खुशी के आँसू पोंछते अरुण की आँखों ने सच्चाई बयां कर दी जिसे कहने की असफल कोशिश कर रहा था।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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