मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 33 – चार दिशेची चार पाखरे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “चार दिशेची चार पाखरे” । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 33 ☆ 

 ☆ चार दिशेची चार पाखरे

 

सोडून कट्टी कर ना ग बट्टी, हट्ट सखे हा सोड ना।

प्रेमा मध्ये नको दुरावा, बरी नव्हे ही खोड ना।।धृ।।

 

चार दिशेची चार पाखरे, जमलो या काव्यांगणी।

सुखदुःखांच्या अनेक लहरी, मनास गेल्या छेडुनी।

क्षणात हसणे क्षणात रुसणे  मैत्रीस या तोड ना।।१।।

 

ताई, माई, दादा, भाऊ, जमले सारे दोस्त ग।

काव्य मैफिली इथे रंगल्या अफलातून या मस्त ग।

चढाओढी अन् कुरघोडीची कधी न जमली जोड ना।।२।।

 

हाती हात नि पक्की साथ काव्य रसाची सारी रात।

भिन्न रंग- रूप धर्म जरी, मधे ना आली केव्हा जात।

असेल चुकला भाऊ अवखळ… अंतरंग परि गोड ना।।३।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #34 – उम्मीदें ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “उम्मीदें”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 34 ☆

☆ उम्मीदें

लोकतंत्र का पंचवर्षीय महोत्सव पूरा हुआ. करोड़ो का सरकारी खर्च हुआ जिसके आंकड़े शायद सूचना के अधिकार के जरिये कोई भी कभी भी निकलवा सकता है, पर कई करोड़ो का खर्च पार्टियो और उम्मीदवारो ने ऐसा भी किया है जो कुछ वैसा ही है कि “घी कहां गया खिचड़ी में..” व्यय के इस सर्वमान्य सत्य को जानते हुये भी हम अनजान बने रहना चाहते है. शायद यही “हिडन एक्सपेंडीचर”  राजनीति की लोकप्रियता का कारण भी है. सैक्स के बाद यदि कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. अधिकांश उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय घोषित कर चुके हैं, वह हमसे छिपी नही है. एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है, वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि- आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है? क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है? मेरे तो बच्चे और पत्नी तक मेरे ऐसे ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है, राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादाद में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में. इसका अर्थ तो यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं, जिसे मेरे जैसी मूढ़ बुद्धि समझ नही पा रहे.

तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते.  देश ही नही दुनिया भर में हमारे ‘रामभरोसे’ की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. ‘रामभरोसे’ के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से कर रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करता हूं. हर बार बेचारा ‘रामभरोसे’ ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है ‘रामभरोसे’, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर ‘रामभरोसे’ का सपना हर बार टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है. नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं, जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला ‘रामभरोसे’ पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है. मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छवियाँ होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में ‘रामभरोसे’ के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल ‘रामभरोसे’ के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं ‘रामभरोसे’ के खर्चे पर. वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है. तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है. नई सरकार से मेरी यही उम्मीद है कि, और शायद यही ‘रामभरोसे’ की भी उम्मीद होगी कि पिछली सरकारो के गड़े मुर्दे उखाड़ने में अपना श्रम, समय और शक्ति व्यर्थ करने के बजाय सरकार कुछ रचनात्मक करे. कागजो पर कानूनी परिवर्तन ही नही समाज में और लोगो के जन जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाने के प्रयास हों.

केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस हो. सरकार से हमें केवल देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें ही तो हैं, और क्या?

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य ☆ श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ डॉ भावना शुक्ल

श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’

ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।
हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी, श्री दिलीप भाटिया जी, डॉ मुक्त जी, श्री अ कीर्तिवर्धन जी एवं डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ हिन्दी साहित्य – श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  डॉ भावना शुक्ल जी की कलम से। मैं  डॉ भावना शुक्ल जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। साहित्यिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी  श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ जी हम सबके आदर्श हैं। )

(संकलनकर्ता  – डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) 

जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, साहित्य साधक स्व। माणिकलाल चौरसिया के पुत्र, कवि स्व.जवाहरलाल ‘तरुण’ के अनुज स्वनाम धन्य श्री कृष्ण कुमार पथिक ने विरासत को सहेजा सँवारा और बढ़ाया है।

5 मई 1937 को जन्मे श्री पथिक जी ने साहित्य विशारद और शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर अध्यापन कार्य किया और सेवा निर्वृत हुए.

श्री पथिक जी ने सन 1960 के आसपास काव्य रचना प्रारंभ की और अपने विशिष्ट कृतित्व के कारण उन्हें मान्यता और प्रतिष्ठा मिलती चली गई स्थानीय पत्रों के अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं और आपकी रचनाएँ प्रकाशित और संकलित हुई. जिन संकलनों में आपकी रचनाएँ प्रकाशित और संकलित हुई हैं उनमे  सर्वश्रेष्ठ विरह गीत (संपादक नीरज जी), हिन्दी के मनमोहक गीत (संपादक विराट), युद्धों का आव्हान (डॉ सुमित्र), मिलन के कवि, चेतना के स्वर, स्वप्न गीत, मधु श्रंगार, मानसरोवर, प्रेम गीत, काव्यांजलि, पहरुए जाग उठे आदि.

भावुकता और बतरस के धनी श्री पथिक जी के संदर्भ में उनके काव्य ग्रंथ में कितना सटीक परिचय दिया गया है-

“काव्य की अराजकता के युग में भी पथिक ने अपने को छंदानुशासित रखा है जो उसकी परंपरा प्रियता और काव्य सामर्थ्य का प्रतीक है। पूजा और प्यार के इस  गायक ने राष्ट्रीय भाव भूमि को भी स्पष्ट किया है।

पथिक जी का कुल कृतित्व परिमाण और गुणवत्ता की दृष्टि से विस्मय जनक है। प्रदेश की प्रतिभाओं का निष्पक्ष मूल्यांकन करने वाली दृष्टि पथिक का विस्मरण नहीं कर पाएगी।”

पथिक के गीत—-

वास्तव में श्री पथिक जी के कव्योन्मेष में छंदों के लिए अपरिचित लय ताल और शब्दों के नए संगीत सम्बंधों की गर्माहट मिलती है। जीवंत भाषा के व्यावहारिक स्वरूप को ग्रहण कर काव्य भाषा की ताजगी को संजोने का अविकल लगाओ भी मिलता है। कवि की व्यापक दृष्टि होने से उसमें शिल्प की समृद्धता भी परिलक्षित होती है। पथिक ने अपनी समस्त अनुभूति और प्रेरणा की पूंजी लेकर छंदों की अराजकता और विश्रंखलता के युग में सुलझेपन से सुगठित छंद विधान अपनाकर एक प्रौढ़ और विचारशील कवि व्यक्तित्व का प्रभावी परिचय दिया है। अभिव्यक्ति की अकुलाहट और नए अर्थ के लिए आंतरिक छटपटाहट ने इनके गीतों को ग्राह्य बना दिया है।

पथिक जी के गीतों में हमें संगमरमर शिल्प सौंदर्य के बीच प्रवाहित नर्मदा को चंचल किंतु संयमित धारा का श्रुतिमधुरनाद नयन मोहक रूप जाल और हृदयस्पर्शी भावोद्रेक भी मिलता है

 

” चरण चिह्न मिट चले चांद के

डूब चले हैं कलश किरण के

धूल प्रतिष्ठित हुई जहाँ कल

चर्चित थे चर्चे चंदन के.

मधुबन में पतझड़ ठहरा है

फूल खिलाओ हरसिंगार के.”

 

उपर्युक्त पद में अनुप्रास एक आनंद के साथ भावानुकूल भाषा प्रवाह भी है। बोधगम्यता है शब्दों में नगीनो-सा कसाव है।

पथिक जी ने काव्य और कथाओं को टकसाली सौंदर्य देने वाली मुहावरा बंदी का प्रयोग भी किया है।

 

” यात्रा जीवन की लंबी है

पांव थके पग दो पग चल के

उमरें अपावन, पावन कैसे

बोलो बिन गंगाजल के

भौतिक भ्रम पग-पग गहरा है

द्वार दिखाओ हरिद्वार के

अंधकार बेहद गहरा है

दीप जलाओ मीत प्यार के.”

 

सौंदर्य के प्रति अनुराग, तद्जन्य मानसिक तनाव और रूप आकर्षण के प्रति लगाव, पथिक जी की अभिव्यक्ति को सहज और विशिष्ट बनाते हैं।

 

“आह की अदालत में हारा यह मन

कुर्क किया अपनों ने अपना ही धन

 

काजल की कथा लिखी

हुई बड़ी भूल

प्रीति की पराजय पर

हंस पड़े बबूल

कदमों की कांवर को

कांधों पर लाद

यात्रा तय कर लेंगे

तुमको कर याद

तुमने जो दर्द दिया

मन को कुबूल

प्रीति की पराजय पर

हंस पड़े बबूल, ”

 

यहाँ “आह की अदालत” और “कसमों की कांवर” जैसे नए प्रतीक कवि की सूझबूझ के परिचायक है।

कवि नए अर्थों का अन्वेषी है। अछूती कल्पना की भाव भूमि को सफलता से मोड़ता चलता है ताकि कविता का पौधा पुष्टता ग्रहण करें। पीड़ा को धंधा मिले। प्यार में पूजा भाव की प्रतिष्ठा कर कवि अपनी उदात्त भावना का परिचय देता है।

 

” रास रंग राहों में,

नीलमी निगाहों में

गौर वर्ण हाथों पर

मेहंदी की छांहों में

हमने भाषा प्रणाम तेरा है।”

 

आज के यांत्रिक युग में जबकि व्यक्ति अपने सम्बंध विसर्जित करता जा रहा है गीतकार सम्बंधों की गंगा को शीश झुका रहा है।

 

“मन में फर्क ज़रा भी आए

ऐसी कोई बात न करना

अपनी रजत मयी पूनम पर

कभी अंधेरी रात न करना

परिचय से सम्बंध बड़े हैं

सम्बंधों को शीश झुकाना”

 

एक ओर तो कभी सम्बंधों को स्थिर रखने पर बल दे रहा है, दूसरी ओर वह यथार्थ परक दृष्टि भी रखता है…

 

“ठीक वहीं पर मन फटता है

वर्षों के सम्बंध टूटते

पीछे ने निबंध छूटते

आपस के झगड़े में तेरे

अपने ही आनंद लूटते

मान प्रतिष्ठा का घटता है

सौदा जिधर ग़लत पटता है।”

 

परिचय और प्रीति ही तो जीवन की शक्ति है। यदि यह दोनों को कुहासे से घिर जाएँ तब कभी यही कहेगा…

 

“हमने तो परिचय पाले पर तुमने भुला दिए

तुम ही कहो भला ऐसे में कैसे प्रीत जिए

याद याद न रही

भ्रम में ऐसे भटक गए

रंग चुनरिया के कांटो

में जाकर अटक गए

बदले कौन जन्म के तुमने मुझसे भांजा लिए

तुम ही कहो भला ऐसे में कैसे प्रीत जिए.”

 

कवि पथिक की आंखों में सपने हैं किंतु यथार्थ से जुड़े हैं। कवि ने जीवन को संपूर्णता के साथ स्वीकार किया है।

 

“जीवन जो भी जिया उसे स्वीकार किया

बिखरे बिंब दरकते दर्पण

और अधूरे नेह समर्पण

तुमने जो दे दिया उसे स्वीकार किया

चंदन द्वारे वंदन वारे

सारी खुशियाँ नाम तुम्हारे

मुझे मिला मर्सिया, उसे स्वीकार किया

पाषाणों का स्वर अपनाया

तुमने मेरे द्वार बनाया

जीवन के संपूर्ण पृष्ठ पर

खंडित एक सांतिया, उसे स्वीकार किया

जीवन के संपूर्ण पृष्ठ पर

तुमने सारे रंग भर दिए

छोड़ दिया हाशिया, उसे स्वीकार किया।”

 

जीवन को नया मोड़ देने की आकांक्षा रखने वाला कवि, गहराई से चिंतन करता है और निष्कर्ष देता है…

 

“ज्योति यह कब तक जलेगी यह न सोचें

तिमिर भरते चलें हम

*

जब तलक यह उजाला है

दूरियों को पार करने

उम्र की क्षणिका अनिश्चित

बात हम दो चार कर ले

यात्रा कब तक चलेगी यह न सोचें

पाव भर धरते चलें हम …

 

पंडित श्रीबाल पांडे जी के शब्दों में “पथिक जी के गीत उन पहाड़ी स्रोतों के समान प्रवाहित होते हैं जिनके पत्थरों के दिल भी पसीजे रहते हैं। उनके गीत बंजारों की मस्ती और अंगारों की तड़पन लिए रहते हैं।”

विगत दिवस जबलपुर में पथिक जी के गीत संग्रह “पीर दरके दर्पणों की” का विमोचन हुआ। अतः यह स्पष्ट है की इनकी लेखनी आज भी गतिमान है हम इनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

C – 904 प्रतीक लॉरेल, नोएडा (यूपी) पिन 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 34☆ व्यंग्य – मोबाइल और उत्सुकता का अन्त☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का  व्यंग्य  ‘मोबाइल और उत्सुकता का अन्त‘ हमें  सूचना क्रान्ति  के साथ ही हमारे जीवन में उसके प्रभाव और उनसे सम्बंधित परिवर्तन पर दिव्य दृष्टि डालता है। डॉ परिहार जी ने इस बार मोबाईल  क्रान्ति के सूचना विस्फोट पर गहन शोध किया है। संभवतः डॉ परिहार जी के मस्तिष्क में मोबाईल पर सोशल मीडिया विस्फोट  विषय पर  भी निश्चित ही कुछ न कुछ तो चल ही रहा होगा । डॉ परिहार जी एवं हमारी समवयस्क पीढ़ी ने अब तक की जो सूचना क्रान्ति देखी है उसकी कल्पना भी नवीन और आने वाले पीढ़ियां नहीं कर सकती। ऐसी  सार्थक रचना के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 34 ☆

☆ व्यंग्य – मोबाइल और उत्सुकता का अन्त ☆

यह सूचना-विस्फोट का युग है। जिधर देखिए, धाँय धाँय सूचना के बम फूट रहे हैं। कुछ भी पोशीदा, कुछ भी अज्ञात नहीं रहा। मीडिया के खबरची और कैमरामेन सब तरफ बौराए से दौड़ते रहते हैं—-ड्राइंगरूम से बेडरूम तक, धरती से आकाश तक, गुलशन से सहरा तक। सूचना-तन्तु चौबीस घंटे घनघनाते रहते हैं।

मोबाइल आने के बाद लगता है, आदमी सामान्य नहीं रहा। जो बातें करना कतई ज़रूरी नहीं,वे भी होती रहती हैं क्योंकि मोबाइल को थोड़ी थोड़ी देर में मुँह और कान से चिपकाये बिना चैन नहीं पड़ता। ‘क्यों भैया, उठ गये? नाश्ता हो गया? कल शाम कहाँ थे? और क्या हाल है? आज क्या प्रोग्राम है?’

एक दिन एक सज्जन मेरे घर के सामने सड़क पर इधर से उधर घूमते और अपने आप से ज़ोर ज़ोर से बातें करते दिखे। मैं समझा दिमाग़ से कमज़ोर होंगे। फिर ग़ौर किया तो देखा वे कान से मोबाइल चिपकाये थे। कई लोग दूर से ऐसे दिखते हैं जैसे कान पर हाथ धर कर कोई सुर साध रहे हों, लेकिन पास जाने पर पता चलता है कि मोबाइल पर बात कर रहे हैं।

ऐसे ही एक बार ट्रेन में एक अनुभव हुआ। एक महिला सबेरे उठते ही मोबाइल लेकर ऊँचे स्वर में शुरू हो गयीं। उन्होंने एक एक कर दूर घर में बैठे सब बच्चों की कैफियत ले डाली। पहले चुन्नू को बुलाया, फिर मुन्नू, टुन्नू, पुन्नू और चुन्नी को भी।  ‘नहा लिया?’ ‘नाश्ता कर लिया?’ ‘स्कूल क्यों नहीं गये?’ ‘आपस में लड़ना मत’, ‘ठीक से रहना’—–रिकॉर्ड जो चालू हुआ तो रुकने का नाम नहीं। ट्रेन की खटर पटर उनकी बुलन्द आवाज़ में दब गयी। सुनते सुनते दिमाग काठ हो गया, लेकिन उनकी हिदायतें चालू रहीं।

मोबाइल ने जीवन से उत्सुकता और संशय का अन्त कर दिया। अब सब कुछ उघड़ा उघड़ा, खुला खुला है। अनुमान और कयास लगाने को कुछ नहीं बचा। लेकिन मुश्किल यह है कि ज़िन्दगी श्याम-श्वेत, सुख-दुख, प्रेम-द्वेष, भय-निश्चिंतता, हर्ष-विषाद का मिला-जुला पैकेज होती है। आदमी की ज़िन्दगी में सुख ही सुख हो तो उबासियाँ आने लगती हैं। मेरे एक मित्र के संबंधी ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उनकी ज़िन्दगी में सब कुछ उपलब्ध था, करने को कुछ नहीं था। इसीलिए बहुत से लक्ष्मीपुत्र सुकून और सार्थकता की तलाश में इधर उधर भटकते दिखायी पड़ते हैं। अपने देश में चैन नहीं मिलता तो भारत का रुख करते हैं।

पहले बहुत सा वक्त दूर बैठे मित्रों-संबंधियों की चिन्ता में गुज़र जाता था। चिट्ठी चलती थी तो घूमती घामती बहुत दिनों में किनारे लगती थी। टेलीफोन दुर्लभ था। टेलीफोन के दफ्तरों से ट्रंककॉल होता था जिसके लिए घंटों लाइन लगानी पड़ती थी।

ऐसे में अज़ीज़ों की चिन्ता करने और उनके लिए दुआएं करने के सिवा और कुछ नहीं रह जाता था। अब सूचना का ऐसा आक्रमण है कि मिनट मिनट की सूचना मिल रही है। लेकिन सूचना की उपयोगिता तभी है जब आदमी कुछ कर सके। यदि कहीं किसी संबंधी का आपरेशन चल रहा है तो सूचना मिलने पर हज़ार मील दूर बैठे लोग पूरे समय बदहवास तो हो सकते हैं, लेकिन कुछ कर नहीं सकते। इससे बेहतर तो यह है कि जब आपरेशन हो जाए तभी कुशल मंगल का समाचार मिले।

ऐसा नहीं है कि सूचना से भला ही होता है। बहुत सी बातें पोशीदा, ढकी-मुँदी रहना ही बेहतर होती है। कई ज़िन्दगियाँ मुगा़लतों में कट जाती हैं, यदि हकीकत सामने आ जाए तो बर्दाश्त न हो। तीस-पैंतीस साल पुरानी प्रेमिका अगर अब अचानक सामने आ जाए तो भूतपूर्व प्रेमी को बिजली का झटका लगेगा। पैंतीस साल से सहेजी दिलकश छवि चूर चूर हो जाएगी। इसलिए अब उनका दीदार न हो तो भला।

मोपासां की एक कहानी है जिसमें पत्नी बहुत से गहने खरीदती है और पति के पूछने पर समझाती है कि वे गहने नकली और सस्ते हैं। पत्नी की अचानक मृत्यु हो जाने पर पति उन गहनों की जाँच कराता है और पता चलता है कि गहने असली और बहुमूल्य हैं। यह खुलासा होने पर पति का भ्रम और पत्नी की छवि कैसे टूटती है यह समझा जा सकता है।

लेकिन अब मुगा़लतों, भ्रमों की कोई गुंजाइश नहीं है। सब कुछ सूचना के दायरे में है। अब फिल्मों में हीरोइन यह गीत नहीं गाएगी—‘तुम न जाने किस जहाँ में खो गये’ या ‘बता दे कोई कौन गली गये श्याम’। अब श्याम जहाँ भी होंगे, पाँच मिनट में मोबाइल के मार्फत ढूँढ़ लिये जाएंगे।

मोबाइल के माध्यम से अब घर में आगन्तुक की इतनी सूचना आ जाती है कि उसके आने का कुछ मज़ा ही नहीं रहता। दिल्ली से बैठते हैं तो मथुरा, आगरा, ग्वालियर, झाँसी से फोन करते रहते हैं, यहाँ तक कि सुनने वाला परेशान हो जाता है। आखिरी फोन आने पर जब घरवाले पूछते हैं, ‘कहाँ तक पहुँचे भैया?’ तो जवाब मिलता है, ‘आपके गेट पर खड़े हैं।’ अब ऐसे मेहमान का आना क्या और न आना क्या।

इसमें शक नहीं कि सूचना-क्रांति ने बहुत सी जगहें भर दीं, बहुत से शून्य पाट दिये, लेकिन साथ ही साथ इंतज़ार, संशय और रोमांच के जो क्षण खाली हुए हैं वे कैसे भरे जाएंगे, इसका जवाब मिलना अभी बाकी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #32 ☆ भवसागर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 32 ☆

☆ भवसागर  ☆

स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ें लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाइवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं।  जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता  है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।

छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत  की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?

एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोजाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।

सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पाये जीव की गति मनुष्य के संग से ही सम्भव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।

दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।

जासु नाम सुमरित एक बारा
उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

केवट का अड़ जाना, पार कराने के लिए शर्त रखने का  आनंद भी अपार है।

मागी नाव न केवटु आना
कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई
मानुष करनि मूरि कुछ अहई।

सोचता हूँ, केवट को श्रीराम मिले जिनकी चरणरज में जीव को मनुष्य करने की जड़ी-बूटी थी। मुझ अकिंचन को कोई केवट मिले जो श्वास भरती इस देह को मानुष कर सके।

तभी एक स्वर टोकता है, “उस पार जाना है?” कहना चाहता हूँ, “हाँ, भवसागर पार करना है। करा दे भैया…!”

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11.05 बजे, 22.01.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 19 – प्रश्न आत्मा का परमात्मा से ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  जीवन दर्शन पर आधारित एक दार्शनिक / आध्यात्मिक  रचना ‘प्रश्न आत्मा का परमात्मा से  ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 19  – विशाखा की नज़र से

☆ प्रश्न आत्मा का परमात्मा से  ☆

 

जिस तरह चुनती हूँ मैं

पूजा के फूल अगली सुबह

हे देव ! क्या तुम भी इसी तरह

चुनते हो आत्मा के फूल मुरझाए हुए ?

 

जिस तरह रखती हूँ मैं

बदले में उसके सुहासित पुष्प

हे देव ! क्या तुम भी इसी तरह

बदलते हो कलेवर को ?

 

यह छोटी सी क्रिया मेरा पूजन है

कुछ अर्पण है तेरे नाम का

क्या तेरी क्रिया भी पूजन है

और ये मन्त्र है बदलाव का ?

 

जिस तरह  करती हूँ जप

रखती हूं व्रत तेरे नाम का

शेष शय्या पर लेटे हुए

या पुष्प पर बैठे हुए

क्या स्मरण तुझे मेरे नाम का ?

 

हम इस धरा के सूक्ष्म से थलचर

पृथ्वी के घ्ररूण संग फिरते है हम, हर पल

जन्म – मरण के इस चक्र में

हे देव ! क्या  रूप बदल

करते हो भ्रमण हमारे लिए ?

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 8 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 8 – अंत्येष्टि ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- किस प्रकार जहरीली शराब के सेवन से हाथ पांव  पीटते लोग मर रहे थे।  उसमें से एक अभागा पगली का पति भी था। अब आगे पढ़े—–)

उस दिन कुछ लोग उसके पति को सहारा दे पगली के दरवाजे पर लाये और घर से बाहर पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर लिटा कर चलते बने, घर के एक कोने में पड़ा उदास गौतम मौत की पीड़ा झेलते हाथ पांव पीटते अपने जन्मदाता को विवश हो सूनी सूनी आंखों से ताक रहा था।  कुछ भी करना उसके बस में नही था। वहीं पर पैरों के पास बैठी पगली अपने दुर्भाग्य पर अरण्य रुदन को विवश थी।  कोई भी तो नही था उसे ढाढ़स बंधाने वाला।  उसकी नशे की मस्ती अब मौत की पीड़ा में बदलती जा रही थी।

उस सर्द जाड़े की रात में जब सारा गाँव रजाइयों में दुबका नींद के आगोश में लिपटा पड़ा था। तब कोहरे की काली चादर में लिपटी रात के उस नीरव वातावरण में माँ बेटे रोये जा रहे थे कि- सहसा पास पड़े उस बेजान जिस्म में थोड़ी सी हलचल हुई, नशे में बंद आंखे थोड़ी सी खुली, जिसमें पश्चाताप के आंसू झिलमिलाते नजर आये,  हाथ क्षमा मांगने की मुद्रा में जुड़े, एक हिचकी आई फिर सब कुछ खामोश।

अब माँ बेटों के करूण क्रंदन से रात्रि की नीरवता भंग हो गई।  साथ ही गाँव के बाहर सिवान में सृगाल समूहों का झुण्ड हुंआ  हुंआ का शोर तथा कुत्तों का रूदन वातावरण को और डरावना बना रहे थे।

अब पगली के समक्ष पति के अन्त्येष्टि की समस्या एक यक्ष प्रश्न बन मुंह बाये खडी़ थी। जब कि उसके घर में खाने के लिए अन्न के दाने नही तो वह कफन के पैसे कहाँ से लाती।  यह तो भला हो उन गांव वालों का जो उसके बुरे वक्त में काम आए और अंतिम संस्कार में खुलकर मदद की तथा अपना पड़ोसी धर्म निभाया।

उस दिन उस गाँव के लोगों ने नशे से तबाह होते परिवार की पीड़ा को निकट से महसूस किया था तथा गाँव में किसी का चूल्हा उस दिन नहीं जला था। विधवा महिलाओं ने अपने वैधव्य का हवाला देकर उसे चुप कराया था। श्मशान में चिता पर लेटे पिता को मुखाग्नि का अग्नि दान दे गौतम ने अपने पुत्र होने का फर्ज निभाया था। वही श्मशान में कुछ दूर खड़ी पगली लहलह करती जलती चिता पर अपने जीवन के देवता के धू धू कर जलते शरीर को एकटक भाव शून्य चेहरे एवम् अश्रुपूरित नेत्रों से देखती जा रही थी।

ऐसा लगा जैसे उसे काठ मार गया हो, तभी सहसा गौतम माँ  के सीने से लग फूट फूट कर रो पड़ा था। उन माँ बेटों को रोता देख गाँव वासियों को लगा जैसे उनकी दुख पीड़ा देख महाश्मशान देवता भी रो पड़े हों।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -9 –  संघर्ष 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तेज धूप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – तेज धूप

 

एसी कमरे में अंगुलियों के

इशारे पर नाचते तापमान में

चेहरे पर लगा लो कितनी ही परतें,

पिघलने लगती है सारी कृत्रिमता

चमकती धूप के साये में,

मैं सूरज की प्रतीक्षा करता हूँ

जिससे भी मिलता हूँ

चौखट के भीतर नहीं

तेज़ धूप में मिलता हूँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

7:22 बजे, 25.1.2020

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 25 ☆ पतझड़ ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी एक भावप्रवण कविता  “पतझड़ ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 25 ☆

☆ पतझड़

 

मैंने देखा,

पतझड़ में

झड़ते हैं पत्ते,

और

फल – फूल भी

छोड़ देते हैं साथ।

बचा रहता है

सिर्फ ठूँस

किसलय की

बाट जोहते हुए।

 

मैंने देखा

उसी ठूँठ पर

एक घोंसला

गौरैया का,

और सुनी

उसके बच्चों की,

चहचहाट साँझ की।

ठूँठ पर भी

बसेरा और,

जीवन बढ़ते

मैंने देखा

पतझड़ में ।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 27 – अश्वत्थामा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “ अश्वत्थामा ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 27 ☆

☆ अश्वत्थामा 

महाभारत के युद्ध में अश्वत्थामा ने सक्रिय भाग लिया था। महाभारत युद्ध में वह कौरव-पक्ष का एक सेनापति था। उसने भीम-पुत्र घटोत्कच (अर्थ : गंजा व्यक्ति,उसका नाम उसके सिर की वजह से मिला था, जो केशो से वहींन था और एक घट, मिट्टी का एक पात्र की तरह के आकार का था, घटोत्कच भीम और हिडिंबा पुत्र था और बहुत बलशाली था) को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा(अर्थ : अज्ञात त्यौहार, उसे यह नाम मिला क्योंकि उसके जन्म के समय आस पास का वातावरण बिना किसी त्यौहार के ही त्यौहार जैसा हो गया था) का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार (अर्थ : दोषपूर्ण), शत्रुंजय (अर्थ : दुश्मन पर विजय), बलानीक (अर्थ : बच्चे की तरह निर्दोष), जयानीक (अर्थ : सत्य की जीत), जयाश्व (अर्थ : एक विशेष उद्देश्य में जीत)तथा राजा श्रुताहु (अर्थ : स्मृति का  प्रवाह)को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज(अर्थ : ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा) के दस पुत्रों का वध किया। द्रोण और अश्वत्थामा पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया।

पांडवों की सेना की हार देख़कर भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर (अर्थ : “वह जो युद्ध में स्थिर है”, युधिष्ठिर पाँच पाण्डवों में सबसे बड़े भाई थे। वह पांडु और कुंती के पहले पुत्र थे। युधिष्ठिर को धर्मराज (यमराज) पुत्र भी कहा जाता है। वो भाला चलाने में निपुण थे और वे कभी झूठ नहीं बोलते थे) से कूटनीति सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत यह बात फैला दी गई कि “अश्वत्थामा मारा गया” जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने उत्तर दिया”अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी”, परन्तु उन्होंने बड़े धीरे स्वर में “परन्तु हाथी” कहा, और झूट बोलने से बच गए। इस घटना से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की भगवान श्री कृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं “परन्तु हाथी” को इतने स्वर में बोला जाए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नहीं सुन पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये और युद्ध भूमि में आखें बन्द कर शोक अवस्था में बैठ गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता जानकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न (अर्थ : “कार्रवाई में तेज”,पांचालराज द्रुपद का अग्नि तुल्य तेजस्वी पुत्र। यह पृषत अथवा जंतु राजा का नाती, एवं द्रुपद राजा का पुत्र था) ने तलवार से उनका सिर काट डाला। अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पांडवों पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया । जिसके आगे सारी पाण्डव सेना ने हथियार डाल दिए ।

युद्ध के 18 वें दिन केवल तीन कौरव योद्धा जीवित बचे थे अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा (अर्थ : आत्मविश्वास के लिए प्रसिद्ध)। उसी दिन अश्वत्थामा ने सभी पांडवों को मारने के लिए एक शपथ ली। रात्रि में अश्वत्थामा ने एक उल्लू देखा जो कौवे के परिवार पर आक्रमण करता था और सभी कौवों को मार देता था। इसे देखने के बाद, अश्वत्थामा भी ऐसा करने का निर्णय करता है।

उसने अपनी योजना को निष्पादित करने के लिए अपने साथी योद्धा कृपा और कृतवर्मा की सहायता ली। अश्वत्थामा ने इसी तरह की स्थिति में अपने पिता की मृत्यु का हवाला देते हुए अपने नियोजित हमले को न्यायसंगत ठहराया, और वचन दिया कि वह पांडवों को उसी तरह उत्तर देगा, क्योंकि उन्होंने युद्ध के नियमों का उल्लंघन करके उसके पिता की हत्या की थी।

जब तीनों ने पांडवों के शिविर पर हमला किया, तो उन्हें द्वारपर एक बड़े राक्षस का सामना करना पड़ा। उस राक्षस ने आसानी से अश्वत्थामा, कृपा और कृतवर्मा के हमले को निष्फल कर दिया। यह समझाते हुए कि भाग्य उनके पक्ष में नहीं है, अश्वत्थामा ने महादेव से आशीर्वाद लेने का निर्णय किया। रेवती नक्षत्र के सितारों की ऊर्जा (वह ऊर्जा अभी भी रेवती नक्षत्र के तारा समूह से गायब है) का बलिदान देने के साथ ही भगवान महाकाल की प्रार्थना करने के बाद, अश्वत्थामा अपने शरीर का अग्नि में बलिदान देने के लिए तैयार हो गया।उस पल में, महादेव उसे आशीर्वाद देने के लिए अपने भयानक गणों के साथ प्रकट हुए।

महादेव शिव ने कहा, “कृष्ण से ज्यादा मुझे कोई भी प्रेय नहीं है, उन्हें सम्मानित करने के लिए और उनके वचन पर मैंने  पांचालों (पांडवों के पुत्रों) की रक्षा की है। लेकिन तुम्हारी तपस्या बर्बाद नहीं हो सकती है” यह कहकर उन्होंने एक उत्कृष्ट, चमकती तलवार के साथ अश्वत्थामा के शरीर में प्रवेश किया। विनाशक दिव्यता से भरा, द्रोण का पुत्र ऊर्जा से चमकता हुआ पांडवों के शिविर में प्रवेश करता है। उसके बाद उन्होंने उसने द्युष्टद्युम्न को मार डाला। इसके बाद उसने युधामन्यु (अर्थ : युद्ध की भावना), उत्तमानुज (अर्थ : सबसे अच्छा छोटा भाई), द्रौपदी का पुत्र और शिखंडी (अर्थ : सिर के मुकुट या माला पर लगा ताला) सहित कई और लोगों की हत्या कर दी।कृपा और कृतवर्मा ने द्वार पर ही अश्वत्थामा का इंतजार किया और उन सभी को मार डाला जिन्होंने भागने की कोशिश की। फिर अश्वत्थामा ने  शिविर को भी अग्नि लगा दी, और अपना क्रोध जारी रखा।

पुत्रों के हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला। भगवान श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था। उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”

भगवान श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर चलाया है, ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में हैं। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता”

भगवान श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने संतों के अनुरोध पर अपने ब्रह्मास्त्र को वापस ले लिया, लेकिन अश्वत्थामा ने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल कर अर्जुन के बेटे अभिमन्यु की विधवा के गर्भ की ओर कर दी।ब्रह्मास्त्र द्वारा अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा (अर्थ : पार होना) के गर्भ पर हुए हमले से भगवान कृष्ण ने उत्तरा के भ्रूण को बचा लिया।

अभिमन्युका अर्थ अत्यधिक क्रोध है। अभिमन्यु चंद्रमा-देवता (चंद्र) के पुत्र वर्चस (अर्थ :प्रसिद्धि)का पुनर्जन्म था। जब चाँद-देवता से पूछा गया कि वह अपने पुत्र को धरती पर अवतरित कर दे, तो उसने एक समझौता किया कि उसका पुत्र सोलह वर्षों तक ही धरती पर रहेगा क्योंकि वह उससे ज्यादा समय तक अलग नहीं रह सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरापराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध कर दो। लेकिन मैंने तुमको भगवद् गीता में यह भी सिखाया है कि किसी भी परिस्थिति में गुरु (शिक्षक) और ब्राह्मण के पुत्र को कभी नहीं मारा जाना चाहिए। तो अब यह तुम पर निर्भर है कि तुम अश्वत्थामा के साथ क्या करेंगे। क्या तुम उसे एक धर्म के अनुसार दंडित करोगे या दूसरे के अनुसार उसे जीवन दान दोगे।

अर्जुन ने उत्तर दिया, “मेरे लिए आपका कथन हर परिस्थिति में अंतिम है। आपने मुझे गीता के व्याख्यान में बताया है कि किसी भी स्थिति में गुरु के पुत्र को नहीं मारना चाहिए, और भगवान मैं आपके उन्हीं वचनों का पालन करते हुए अश्वत्थामा को जीवन दान देता हूँ”

तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को जीवित छोड़ दिया, लेकिन कृष्ण तो भगवान हैं वह अश्वत्थामा को ऐसे शर्मनाक कृत्य के लिए दंडित किए बिना कैसे छोड़ सकते थे।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के माथे से अमूल्य मणि को नोंच कर निकाल दिया। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तिष्क में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।

भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम हजारोंवर्षों तक इस पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी भी जगह, कोई भी तुम्हें समझ नहीं पायेगा। तुम्हारे शरीर से पीब और लहू की गंध निकलेगी। इसलिए तुम मनुष्यों के बीच नहीं रह सकोगे। दुर्गम वन में ही पड़े रहोगे।

तो जब ऐसी स्थिति जीवन में आ जाये कि यदि आप कुछ करने के लिए अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, और साथ ही साथ अपना धर्म तोड़ना भी पड़ रहा है, तो उस वर्तमान स्थिति में जो आपको सर्वप्रथम अपना उपयुक्त धर्म लगे वही करना चाहिए या जो आपकी आत्मा की पहली आवाज़ हो या अपने आंतरिक विवेक का पालन करना चाहिए जैसा की अर्जुन ने किया। बाकि धर्म भगवान स्वयं संभाल लेंगे जैसा की इस परिस्थिति में भगवान कृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप देकर किया।

 

© आशीष कुमार  

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