हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 13 ☆ घरोंदा ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “घरोंदा”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 13 ☆ 

☆ घरोंदा  ☆

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

सपनों के पानी से उसे सींचा था,

लम्हों की मिट्टी से उसे बनाया था,

सब की नज़रों से उसे बचाया था,

एक और आशियाना बनाया था,

उसके कमरे में मेरा एक एक सपना छुपाया था।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

सच्चाईयों के समुद्र ने बहा दिया,

तेज धूप ने उसे जला दिया,

तेज आँधी ने उसे गिरा दिया,

लोगों की ठोकरों ने उसे गिरा दिया,

दुनिया के छल-कपट ने मुझे रुला दिया।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

उम्र की बढ़ती राह पर घरोंदें की सच्चाई समझ में आई है,

हर कमजोर वस्तु का भविष्य समझ में आया है,

घरोंदा छोड़ मकान का स्वपन सजाया है,

ईट गारे के साथ विश्वास से ठोस बनाया है,

हर नींव के पत्थर को अपने ऊपर विश्वास के काबिल बनाया है।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #2 ☆ हम तो मजदूर हैं ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भावप्रवण रचना  “हम तो मजदूर हैं ”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #2 ☆ 

☆ हम तो मजदूर हैं  ☆ 

 

निकल पड़े हैं हम सड़कों पे

मंज़िल अभी दूर है

हम तो मजदूर है

 

लगे हुए है काम पर ताले

कैसे अपना पेट पाले

जमा पूंजी सब खत्म हो गई

भूख हमपे हावी हो गई

संगी साथी सब बेचैन हैं

कट रही आंखों में रैन हैं

थक हार कर सब चूर हैं

हम तो मजदूर हैं

 

सर पर गठ़री, गोद में बच्चा

आंख में आंसू, कमर में लच्छा

ऐंठती आंतें, रूकती सांसें

भटक रहे हैं, भूखे प्यासे

तपती धूप, झूलसते पांव

आंखें ढ़ूंढ रही है छांव

प्रवासी होना क्या कसूर है ?

हम तो मजदूर हैं

 

मौत हो गई कितनी सस्ती

खाली हो गई मजदूर बस्ती

पैदल,ट्रक, बस या रेलगाड़ी

मजदूर मर रहे बारी-बारी

घड़ियाली आंसू रो रहे हैं

हमको दोष दे रहे हैं

हम असहाय, लाचार, मजबूर हैं

हम तो मजदूर हैं

 

मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरूद्वारे

बंद पड़े हैं अब तो सारे

किसको हम फरियाद सुनायें

किसको अपना दर्द बतायें

भूल गया है शाय़द अफ़सर

जीवन का अंतिम ठिकाना

राजा हो या रंक

मरकर सबको वहीं है जाना

जीवन-मृत्यु के दो-राहे पर

हम खड़े बेकसूर हैं

हम तो मजदूर हैं

हां भाई! हम तो मजदूर हैं

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

26/06/2020

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 49 – संवेदना ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपका  एक अत्यंत भावप्रवण  दशपदी कविता  ” संवेदना”।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 49 ☆

☆ संवेदना ☆

 

तापलेल्या या भूईचे भेगाळले गात्र गावे।

शमविण्याला या तृषेला  मेघनांनी आज यावे।

 

शुष्क कंठी साद घाली आर्त झाल्या चातकाला।

बरसू दे  अंतरी या, जीवनाची स्वप्न माला।

 

श्याम रंगी रंगलेले भाळलेले मेघ आले।

मृत्तिकेच्या सुगंधाने  आसमंत व्यापलेले।

 

चिंब ओल्या या धरेचा मोहरला देह सारा।

भारलेल्या या क्षणांनी मुग्ध झाला देह सारा।

 

नयनमनोहर सोहळा हा नित नव्याने रांगणारा।

साद घाली संवेदना, शब्द ओला नांदणारा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 6 ☆ हे विश्वची माझे घर….☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है पितृ दिवस के अवसर पर उनकी भावप्रवण कविता “बाप.. ”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 6 ☆ 

☆ हे विश्वची माझे घर…. ☆

हे विश्वची माझे घर

सुबुद्धी ऐसी यावी

मनाची बांधिलकी जपावी.. १

 

हे विश्वची माझे घर

औदार्य दाखवावे

शुद्ध कर्म आचरावे.. २

 

हे विश्वची माझे घर

जातपात नष्ट व्हावी

नदी सागरा जैसी मिळावी.. ३

 

हे विश्वची माझे घर

थोरांचा विचार आचरावा

मनाचा व्यास वाढवावा.. ४

 

हे विश्वची माझे घर

गुण्यगोविंदाने रहावे

प्रेम द्यावे, प्रेम घ्यावे.. ५

 

हे विश्वची माझे घर

नारे देणे खूप झाले

आपले परके का झाले.. ६

 

हे विश्वची माझे घर

वसा घ्या संतांचा

त्यांच्या शुद्ध विचारांचा.. ७

 

हे विश्वची माझे घर

सोहळा साजरा करावा

दिस एक, मोकळा श्वास घ्यावा.. ८

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 56 ☆ लघुकथा – लॉकडाउन तोड़ने वाला बूढ़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक समसामयिक विषय पर आधारित कहानी  ‘लॉकडाउन तोड़ने वाला बूढ़ा ।  जहाँ एक ओर लॉक डाउन एक आवश्यकता है वहीँ दूसरी ओर उसके दुष्परिणाम भी सामने आये हैं। इस विचारणीय कहानी  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 56 ☆

☆ कहानी – लॉकडाउन तोड़ने वाला बूढ़ा
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पुरुषोत्तम जी उम्र के पचहत्तर पार कर गये। हाथ-पाँव ,आँख-कान अब भी दुरुस्त हैं। दिमाग़, याददाश्त भी ठीक-ठाक हैं। कोई बड़ा रोग नहीं है। आराम से स्कूटर चला लेते हैं, रात को भी दिक्कत नहीं होती।

लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के बाद पुरुषोत्तम जी के पाँव बँध गये हैं। पैंसठ से ऊपर के बुज़ुर्गों के लिए घर से बाहर निकलना मना हो गया है। अब पुरुषोत्तम जी पर घरवालों की नज़र रहती है। चारदीवारी का गेट खुलने की आवाज़ होते ही कोई न कोई झाँकने आ जाता है। कपड़े बदलते हैं तो सवाल आ जाता है, ‘कहाँ जा रहे हैं?’
पुरुषोत्तम जी चिढ़ जाते हैं, कहते हैं, ‘कपड़े भी न बदलूँ क्या?’

दो बेटियाँ शहर से बाहर हैं। भाई भाभी के पास उनकी रोज़ हिदायत आती है—‘उन्हें कहीं जाने नहीं देना है। आप लोग तो हैं, फिर उन्हें बाहर निकलने की क्या ज़रूरत है?’ उनको सीधी हिदायत भी मिलती है—-‘प्लीज़, आप कहीं नहीं जाएंगे। भैया भाभी हैं न। वे आपके सब काम करेंगे। बिलकुल रिस्क नहीं लेना है। प्लीज़ स्टे एट होम। ‘
लाचार पुरुषोत्तम जी गेट के बाहर नहीं जाते। लॉकडाउन के कारण कोई आता भी नहीं। सब तरफ सन्नाटा पसरा रहता है। घरों के सामने कारें खड़ी दिखायी देती हैं, लेकिन चलती हुई कम दिखायी पड़ती हैं। पहले शाम को सामने की सड़क पर बच्चों की भागदौड़ शुरू हो जाती थी, अब वे भी घरों में कैद हो गये हैं। पुरुषोत्तम जी चिन्तित हो जाते हैं कि कहीं यह परिवर्तन स्थायी न हो जाए।

वक्त काटने के लिए पुरुषोत्तम जी घर में ही मंडराते रहते हैं। पुरानी चिट्ठियाँ, पुराने एलबम उलटते पलटते रहते हैं। कभी अपनी छोटी सी लाइब्रेरी से कोई किताब निकाल लेते हैं। पुराने संगीत का शौक है। सबेरे दूसरे लोगों के उठने से पहले सुन लेते हैं। लता मंगेशकर, बेगम अख्तर, तलत महमूद प्रिय हैं। लेकिन बाहर निकलने के लिए मन छटपटाता है।

एक शाम घरवालों को बताये बिना टहलने निकल गये थे। बहुत अच्छा लगा था। तभी एक पुलिस की गाड़ी बगल में आकर रुक गयी थी। उसमें बैठा अफसर सिर निकालकर बोला, ‘क्यों, घर के लिए फालतू हो गये हो क्या दादा? भगवान ने जितने दिन दिये हैं उतने दिन जी लो। जाने की बहुत जल्दी है क्या?’ पुरुषोत्तम जी कुछ नहीं बोले, लेकिन उस दिन के बाद गेट से बाहर नहीं निकले।

सामने वाले घर के बुज़ुर्ग शर्मा जी कभी कभी नाक मुँह पर ढक्कन लगाये दिख जाते हैं। मास्क में से ही हाथ उठाकर कहते हैं, ‘कहीं निकलना नहीं है, पुरुषोत्तम जी। हम स्पेशल कैटेगरी वाले हैं। हैंडिल विथ केयर वाले। ‘

उस दिन पुरुषोत्तम जी मन बहलाने के लिए गेट पर बाँहें धरे खड़े थे। उन्होंने देखा कि इस बीच बहू तीन बार दरवाज़े से झाँककर गयी। समझ गये कि उन पर नज़र रखी जा रही है। दिमाग़ गरम हो गया। भीतर आकर गुस्से में बोले, ‘मैं बच्चा नहीं हूँ। मुझे पता है कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है। आप लोग क्यों बेमतलब परेशान होते हैं?’

बहू ‘ऐसा कुछ नहीं है, पापाजी, मैं तो सब्ज़ीवाले को देख रही थी’, कह कर दूसरे कमरे में चली गयी। लेकिन पुरुषोत्तम जी का दिमाग गरम ही बना रहा। एक तो घर में बँध कर रह गये हैं, दूसरे यह चौकीदारी।

बैठे बैठे बेचैनी होने लगी। बहू को आवाज़ देकर एक गिलास पानी लाने को कहा। बहू के आने तक उनकी गर्दन कंधे पर लटक गयी थी। बहू ने घबराकर पति को पुकारा और पति ने अपने दोस्त डॉक्टर को फोन लगाया। डॉक्टर ने आकर जाँच-पड़ताल की और बता दिया कि पुरुषोत्तम जी दुनिया को छोड़कर निकल गये।

तत्काल बेटियों को सूचित किया गया। उधर रोना-पीटना मच गया। लॉकडाउन में निकल पाना संभव नहीं। कहा कि बीच बीच में मोबाइल पर दिखाते रहें। झटपट विदाई की तैयारी हुई। बहुत नज़दीक के रिश्तेदार और दोस्त ही आये। बाकी को सूचित तो किया लेकिन समझा दिया कि सरकारी निर्देशों के अनुसार संख्या बीस से ज़्यादा नहीं होना चाहिए।

तीन चार घंटे में सब तैयारी हो गयी और पुरुषोत्तम जी अन्ततः घर से बाहर हो गये। जब उनकी सवारी बाहर निकली तो अपने गेट पर खड़े शर्मा जी नमस्कार करके बोले, ‘रोक तो बहुत लगी, लेकिन लॉकडाउन तोड़ कर निकल ही गये पुरुषोत्तम जी।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #53 ☆ मन्त्र ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – मंत्र ☆

‘सुबह हुई’ या ‘एक और सुबह हुई?’…’शाम हुई’ या ‘एक और शाम हुई?’…कितनी सुबहें आ चुकीं जीवन में…. कितनी शामें बीत चुकीं जीवन की ?…सुबह- शाम करते कितने जीवन रीत चुके?

रीतने की रीति से मुक्त होने का एक सरल उपाय कहता हूँ। ‘सुबह हुई, शाम हुई’ के स्थान पर  ‘एक और सुबह हुई, एक और शाम हुई’ कहना शुरू करो। ‘एक और’ का मंत्र भौतिक तत्व को परमसत्य की ओर मोड़ देगा।

प्रयोग करके देखो। यात्रा की दिशा और दशा बदल जाएगी।

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 2.10 बजे, 4 जून 2019)

# परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 12 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 11/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 12 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तकलीफ खुद ही

कम हो गई…

जब अपनों से…

उम्मीद कम हो गई..

 

The suffering itself got

conclusively reduced,

When expectations from

the loved ones minimized…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 पत्तों सी होती है कई रिश्तों

की उम्र, आज हरे कल सूखे….

क्यों  न  हम जड़ों  से  ही

उम्र भर रिश्ते निभाना सीखें…

  

 Age of many relationships is like

leaves; today green, tomorrow dried… 

Why don’t we learn from roots

To maintain the relationship … 

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

चलो अब जाने भी दो

क्या करोगे दास्तां सुनकर

खामोशी तुम समझोगे नहीं

और हमसे बयाँ होगा नहीं…

 Let’s leave it at that now….

What’ll you do by hearing my story

You won’t understand the silence

And I’ll not be able to explain…!

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मेरी तमन्ना न थी कभी

तेरे बगैर रहने की मगर

मजबूर को मजबूर की

मजबूरीयां मजबूर कर देती हैं!

 Never did I desire to

Live without you but…

The helplessness compels 

the helpless to live without!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 14 ☆ दोहे सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपके दोहे सलिला . )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 14 ☆ 

☆ दोहे सलिला ☆ 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मन में अब भी रह रहे, पल-पल मैया-तात।

जाने क्यों जग कह रहा, नहीं रहे बेबात।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

रचूँ कौन विधि छंद मैं,मन रहता बेचैन।

प्रीतम की छवि देखकर, निशि दिन बरसें नैन।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कल की फिर-फिर कल्पना, कर न कलपना व्यर्थ।

मन में छवि साकार कर, अर्पित कर कुछ अर्ध्य।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जब तक जीवन-श्वास है, तब तक कर्म सुवास।

आस धर्म का मर्म है, करें; न तजें प्रयास।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मोह दुखों का हेतु है, काम करें निष्काम।

रहें नहीं बेकाम हम, चाहें रहें अ-काम।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

खुद न करें निज कद्र गर, कद्र करेगा कौन?

खुद को कभी सराहिए, व्यर्थ न रहिए मौन.

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

प्रभु ने जैसा भी गढ़ा, वही श्रेष्ठ लें मान।

जो न सराहे; वही है, खुद अपूर्ण-नादान।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

लता कल्पना की बढ़े, खिलें सुमन अनमोल।

तूफां आ झकझोर दे, समझ न पाए मोल।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

क्रोध न छूटे अंत तक, रखें काम से काम।

गीता में कहते किशन, मत होना बेकाम।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जिस पर बीते जानता, वही; बात है सत्य।

देख समझ लेता मनुज, यह भी नहीं असत्य।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

भिन्न न सत्य-असत्य हैं, कॉइन के दो फेस।

घोडा और सवार हो, अलग न जीतें रेस।।

❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – यही बाकी निशां होगा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है महान स्वतंत्रता सेनानी स्व मंगल पांडे एवं उनकी वर्तमान पीढ़ी की जानकारी देता एक देशभक्ति से ओतप्रोत  ओजस्वी आलेख  –yahi बाकी निशान होगा। भारत सरकार ने स्व मंगल पण्डे जी के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था।  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  यही बाकी निशां होगा ☆

स्व जगदम्बा प्रसाद मिश्रा जी द्वारा 1916 में रचित कालजयी रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है – –

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का‌ यही बाकी निशां होगा ।।

इस कथन को सत्य साबित होते देखना वास्तव में हृदय को सुखद अनुभूति कराता है। घाघरा और गंगा की पावन गोद में बसे बलिया जिले के माटी की तासीर ही ऐसी है, जहां की मातायें सिंह शावकों को जन्म देती है जिनकी घनगर्जना से दुश्मनों की छाती फटती है। वतन की आन बान शान के लिए अपनी आत्माहुति देना यहां के रणबांकुरों का शौक तो है ही, यहां की मिट्टी के इतिहास में हमारी सांस्कृतिक सभ्यताओं के ध्वजवाहक ऋषि मुनियों की गौरवगाथा भी समाहित है।

यहीं की मिट्टी से जन्म लेता है, मंगल पाण्डेय नामक रणबांकुरा फौजी  जिसका जन्म  १९ जुलाई सन १८२७ में बलिया जिले के नगवां में हुआ था।  जिन्होंने अपने युवा काल में ३४वी बटालियन नेटिव इन्फैंट्री बैरकपुर बंगाल की पैदल सेना में सैनिक नं १४४६ के रूप में नौकरी की।  अंग्रेज गोरों के खिलाफ  स्वतंत्रता आंदोलन के बगावत  का इतिहास रचने का श्रेय इनके हिस्से जाता है।  जिन्होंने बगावत का इतिहास लिखते हुए अंग्रेज अफसरों पर धावा बोल दिया।  जिसके चलते सारे भारत में  स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी धधक कर जल उठी।

अंग्रेज सरकार घबरा गई औरउन्हें आनन फानन में ८अप्रैल १८५७ को फांसी दे दी गई , लेकिन वह जवान मरते मरते अपनी शहादत के  बल पर अपने पदचिन्हों के बाकी निशान छोड़ गया तथा अपने कर्मों से स्वतंत्रता आंदोलन का प्रथम अध्याय स्वर्ण अक्षरों में लिख गया।  उसी कुल में स्व० पदुमदेव पाण्डेय जी का जन्म  हुआ , जिन्हें अदम्य शौर्य साहस कर्मनिष्ठा  वंशानुगत विरासत में मिली थी।  अपने कुल की उसी अक्षुण्ण परंपराको कायम रखते हुए  उन्होंने  सन् १९६४ स्पोर्ट्स कोटे से फौज की नौकरी की  और सन् १९६५ में पाकिस्तान भारत के युद्ध में अद्म्य शौर्य  साहस तथा विपरित परिस्थितियों में  युद्ध लड़ कर  शत्रु का संहार ही नहीं किया, बारूद खत्म होने पर भी रण नहीं छोड़ा, बल्कि अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मन की निगाहें बचा अपने अनेक घायल साथियों को पीठ पर लाद उन्हेंअस्पताल तक ला उनकी प्राण रक्षा की।  जिसके बदले उन्हें भारत सरकार द्वारा  स्वर्ण पदक दे सम्मानित किया गया।

उसके ठीक  छह साल बाद सन् १९७१ में फिर एक बार शत्रुओं ने युद्ध थोपा ।  इस बार फिर उस वीर जवान  ने अपनी टुकड़ी के साथ अदम्य साहस का परिचय देते हुए रण में दुश्मन का मानमर्दन करते हुए  विजय श्री का वरण कर विजेता बन रण से लौटे। सन् १९७३ में उन्हें एक बार फिर ‌उत्कृष्ट  सेवा के बदले कांस्य पदक हेतु चुना गया,जो उनके समर्पण कर्तव्यपरायणता  का सम्मान है और अंत में अपना सेवा काल  सकुशल  पूरा कर  सन् १९८० में सेवा  निवृत्त हो गये । सकुशल जीवन यापन करते हुए २६ अगस्त सन् २०१७ को परलोक गमन करते हुए  अपने त्याग तपस्या  मानव सेवा की उत्कृष्ट मिसाल पेश कर अपने पदचिन्हों का निशान बाकी छोड़ गये जो सदियों सदियों तक लोगों की ज़ेहन में बसा रहेगा, अपनी लेखनी के माध्यम से हम मां भारती के उस लाल को भावभीनी विनम्र श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 17 ☆ यामिनी ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है उनकी एक  श्रृंगारिक कविता “यामिनी“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 17 ☆

☆ यामिनी

 

यामिनी गं कामिनी,तू गं माझी साजणी

ये जरा,जवळी अशी ये जरा

ये गं मिठीत राहू, स्वप्नगीत गाऊ

ये जरा,जवळी अशी ये जरा!!

 

रात्र जशी झाली ,तसा चंद्रही निघाला

तारीके तू दूर नको,जवळी ये म्हणाला

इश्यऽऽ म्हणुनी,लाजुनिया चूर चूर झाली

ये जरा जवळी अशी………!!

 

मध्यरात्र झाली,काम जागृत ही झाला

रती मदन तृप्तीचा, क्षण जवळी आला

एक होऊ एक राहू, एक वेळ एकदा

ये जरा जवळी अशी………!!

 

पहाटेस थंडगार,झुळुक जशी आली

तृप्तीच्या सागरात, डुंबुनिया गेली

देहातुनी गोड अशी शिरशिरी निघाली

ये जरा जवळी अशी …….!!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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