मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 30 – मराठी क्षणिकाएं …! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है कुछ अतिसुन्दर  मराठी क्षणिकाएं …! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #30☆ 

मराठी क्षणिकाएं …! ☆ 

 

[ 1 ]

हल्ली हल्ली शब्दांचाही

विसर पडू लागलाय

हे आयुष्या तुला संभाळता संभाळता….,

अक्षरांचा हात सुटू लागलाय..

 

[ 2 ]

लहान असताना . . .

फुलपाखरू पकडताना ,

जितकी तारांबळ उडायची ना…

तितकीच तारांबळ ,

सुखाच्या बाबतीत होते हल्ली…!

 

[ 3 ]

मी ठरवलंय आजपासून

मनाशी वाद नाही घालायचा

वाद झालाच तर

विकोपाला नाही न्यायचा…

 

[ 4 ]

सरत्या उन्हात आठवणींचा

सुरू होतो पुन्हा खेळ

जुन्याच आठवणींना पुन्हा

नव्याने घेऊन येते कातरवेळ…

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 21 ☆ भोर ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  उनकी अतिसुन्दर कविता  “भोर ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 21 ☆

☆ भोर ☆

रात अंधेरी छट गई, हुई सुनहरी भोर

गम के साये से निकल, चल प्रकाश की ओर

 

☆ प्रभात ☆

नई उमंगें ला रहा, लेकर नया प्रभात

कोने में दुबकी खड़ी, वही अंधेरी रात

 

☆ ऊषा ☆

ऊषा की यह लालिमा, भरती मन उत्साह

नई सोच नव जोश से, नई दिखाती राह

 

☆ उजास ☆ 

अंधकार के इरादे, कभी न रहते नेक

बाधित करे उजास को, बुरा काम यह एक

 

☆ सूरज ☆

सूरज से जीवन चले, है प्रकाश का पुंज

चलते रहना सिखाता, कभी न होना लुंज

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 30 – स्वयं कभी कविता बन जाएँ …… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक गीत  स्वयं कभी कविता बन जाएं….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 30☆

☆ स्वयं कभी कविता बन जाएं…. ☆  

 

होने, बनने में अन्तर है

जैसे झरना औ’ पोखर है।।

 

कवि होने के भ्रम में हैं हम

प्रथम पंक्ति के क्रम में हैं हम

मैं प्रबुद्ध, मैं आत्ममुग्ध हूँ

गहन अमावस तम में हैं हम।

तारों से उम्मीद लगाए

सूरज जैसे स्वप्न प्रखर है……

 

जब, कवि हूँ का दर्प जगे है

हम अपने से दूर भगे हैं

भटकें शब्दों के जंगल में

और स्वयं से स्वयं ठगे हैं।

भटकें बंजारों जैसे यूँ

खुद को खुद की नहीं खबर है।……

 

कविता के संग में जो रहते

कितनी व्यथा वेदना सहते

दुःखदर्दों को आत्मसात कर

शब्दों की सरिता बन बहते,

नीर-क्षीर कर साँच-झूठ की

अभिव्यक्ति में सदा निडर है।……

 

यह भी मन में इक संशय है

कवि होना क्या सरल विषय है

फिर भी जोड़-तोड़ में उलझे

चाह, वाह-वाही, जय-जय है

मंचीय हावभाव, कुछ नुस्खे

याद कर लिए कुछ मन्तर है।……

 

मौलिकता हो कवि होने में

बीज नए सुखकर बोने में

खोटे सिक्के टिक न सकेंगे

ज्यों जल, छिद्रयुक्त दोने में

स्वयं कभी कविता बन जाएं

यही काव्य तब अजर अमर है।…..

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 32 – अनुवंश ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी अतिसुन्दर कविता  “अनुवंश.  सुश्री प्रभा जी की कविता अनुवंश एक गंभीर काव्य विमर्श है ।  यदि हम अपनी अब तक की  जीवन यात्रा पर विचार करें  तो पाएंगे कि हमने अनुवांशिक क्या पाया। निश्चित ही हमने  कवि के रूप में  भरे पुरे संयुक्त परिवार में  अपने अस्तित्व का एकाकी जीवन ही जिया है । हां संस्कार जरूर हमारे साथ चलते रहे और उन संस्कारों, जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों ने हमारे कवि मन की नींव रखी । फिर हम रचते रहे अपना साहित्यिक संसार । नीलकमल जैसे चित्रपट हमें जरूर कल्पना के सागर में ले गए होंगे कि हमारा पूर्व जन्म कैसा रहा होगा ?

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 32 ☆

☆ अनुवंश ☆ 

 

मी काहीच घेतले नाही

माझ्या आईबापाकडून वारसा हक्काने,

किंवा त्यांच्यातले

काहीच उतरले नाही माझ्यात

अनुवंशाने !

भल्या थोरल्या वाड्यात,

एकत्र कुटुंबात,

कुणीच नव्हते कुणाचे

असे आता वाटते !

चुलीला पोतेरे घालणारे

सालंकृत घरंदाज बायकी हात

किंवा दर बुधवारी शेतमजुरांना पगार वाटणारे

पैसेवाले बेबंद पुरुषी हात

कधीच वाटले नाहीत….

भक्कम आधाराचे किंवा आश्वासक!

सुखवस्तू कुटुंबात

आपसूक वाढतात मुले

सुरक्षित,नीटनेटकी!

तरीही त्या भरल्या घरात

अगदी एकटेच वाटत राहिले

आणि एकाकीही……

त्या एकांत बेटावर

स्वतःला अंतर्बाह्य न्याहाळताना

अवघ्या अस्तित्वावर उमलत गेली

कवितेची असंख्य नीळी कमळं….

 

“नीलकमल आ जाओ….”

अशी साद घालणा-या

चित्रपटातल्या गतजन्मीच्या

प्रियकरा सारखीच,

कविता खुणावत राहिली

आणि मीही गुमान चालत राहिले

त्या अभिमंत्रित वाटांवरून  ……

हा कुठला अनुवंश उतरला आहे माझ्यात?

जे जाणवले,जे न्याहाळले,

जे सोसले,जे भोगले,

ते खदखदते आहे….धगधगते आहे…उसळते आहे…

काहीतरी वेगळेच रसायन

धावते आहे माझ्या धमन्यातून!

त्यावर आप्त स्वकियांचे शेरे ताशेरे…

अवहेलना, अपमान, खच्चीकरण!

आणि या सा-याहून वेगळं….

एक जग कवितेचं!

“ये हृदयीचे ते हृदयी”

पोहचविताना झालेल्या आनंदाचं!

माझ्यातून उगवलेल्या माझंच…..

जगातल्या पहिल्या कवयित्रीचं—-

संवेदन, जखमी हृदय, झालेली उपेक्षा, हेटाळणी आणि

बरेच काही….

मिळाले आहे वारसाहक्काने मला

आणि तिच्यातलीच सृजनशीलताही

अनुवंशाने उतरली असावी माझ्यात!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 8 ☆ कविता– भूला मानव को मानव का प्यार है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  समसामयिक कविता    भूला मानव को मानव का प्यार है।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 8 ☆

☆ भूला मानव को मानव का प्यार है ☆

 

कदम-कदम पर यहाँ एक व्यापार है.

एक जहर भरी पुड़िया ये संसार है.

 

मिला अनुभव जीवन कद काँटो से.

बहुत राह में रोड़ों का अम्बार है.

 

तूल दिया जाता छोटी घटना को.

बात बढ़ाता रहता हर अखबार है.

 

मंदिर, मस्जिद, गुरुव्द़ारे को दौड़ रहे.

भूला मानव को मानव का प्यार है.

 

बीच भँवर में मुझे अकेला छोड़ गया.

देख लिया मैंने अब कैसा ये संसार है.

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 2 ☆ जख्मी कलम की वसीयत ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” प्रारम्भ करने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय – हेमन्त बावनकर

Amazon Author Central  – Hemant Bawankar 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #2 

☆ जख्मी कलम की वसीयत ☆

 

जख्मी कलम से इक कलाम लिख रहा हूँ,
बेहद हसीन दुनिया को सलाम लिख रहा हूँ।

ये कमाई दौलत जो मेरी कभी थी ही नहीं,
वो सारी दौलत तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

तुम भी तो जानते हो हर रोटी की कीमत,
वो ख़्वाहिशमंद तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

पूरी तो करो किसी ख़्वाहिशमंद की ख़्वाहिश,
ख़्वाहिशमंद की ओर से सलाम लिख रहा हूँ।

सोचा न था हैवानियत दिखायेगा ये मंज़र,
आबरू का जिम्मा तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,
इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।

इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत,
ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।

ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,
बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

कुछ भी तो नहीं बचा वसीयत में तुम्हें देने,
अमन के अलफाज तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

जाने क्या किया था इस बदनसीब कागज ने,
जो इसे घायल कर अपना नाम लिख रहा हूँ।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 21 ☆ पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं।  आज लीक से हटकर  पुस्तक चर्चा का विषय चुना है।  मैं कुछ और लिखूं इसके पूर्व कर्त्तव्यस्वरूप कुछ  लिखना चाहूंगा।  हमने मातृ  पितृ भक्त श्रवण कुमार की कहानियां  पढ़ीं हैं । किन्तु, यह अतिशयोक्ति कदापि नहीं होगी  और मैंने  स्वयं श्री विवेक जी के व्यवहार -कर्म  में श्रवण कुमार सी  मातृ-पितृ भक्ति की छवि  एवं संस्कार  अनुभव किया है । हमारे विशेष अनुरोध पर  उन्होंने आज  पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा  हमारे  पाठकों  के साथ साझा  किया है । उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है। जो हमारी पूंजी है। हमारी ईश्वर से प्रार्थना है यह सतत जारी रहे। वे हमारे प्रेरणा स्रोत हैं।  श्री विवेक जी  का  हृदय से आभार जो वे प्रति सप्ताह एक उत्कृष्ट एवं प्रसिद्ध पुस्तक की चर्चा  कर हमें पढ़ने हेतु प्रेरित करते हैं। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 21 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध के जिल्द बंद शब्दों  की पुस्तक यात्रा

 1948 चाँद, सरस्वती जैसी तत्कालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताओं के प्रकाशन से प्रारंभ उनकी शब्द यात्रा के प्रवाह के पड़ाव हैं उनकी ये किताबें।

पहले पुस्तक प्रकाशन केंद्र दिल्ली की जगह आगरा और इलाहाबाद हुआ करता था। आगरा का प्रगति प्रकाशन साहित्यिक किताबों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। स्वर्गीय परदेसी जी द्वारा साहित्यकार कोष भी छापा गया था, जिसमें पिताजी का विस्तृत परिचय छपा है।भारत चीन व पाकिस्तान युद्धो के समय जय जवान जय किसान,  उद्गम, सदाबहार गुलाब, गर्जना, युग ध्वनि आदि प्रगति प्रकाशन की किताबों में पिताजी की रचनाएं प्रकाशित हैं। कुछ किताबें उन्हें समर्पित की गई हैं, कुछ का उन्होंने सम्पादन किया है। ये सामूहिक संग्रह हैं।

पिताजी शिक्षा विभाग में प्राचार्य, फिर संयुक्त संचालक, शिक्षा महाविद्यालय में प्राध्यापक, केंद्रीय विद्यालय जबलपुर तथा जूनियर कालेज सरायपाली के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं।  आशय यह कि उन्होंने न जाने कितनी ही पुस्तकें पुस्तकालयों के लिए खरीदी, पर जोड़-तोड़ और गुणा-भाग से अनभिज्ञ सिद्धांतवादी पिताश्री की रचनाये पुस्तक रूप में उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मैंने ही प्रस्तुत कीं। उन्हें किताबें छपवाने, विमोचन समारोह करने, सम्मान वगैरह में कभी दिलचस्पी नहीं रही।

मेघदूतम का हिंदी छंदबद्ध पद्यानुवाद उनका बहुत पुराना काम था, जो पहली पुस्तक के रूप में 1988 में आया। बाद में मांग पर उसका नया संस्करण भी पुनर्मुद्रित हुआ।

फिर ईशाराधन आई, जिसमे उनकी रचित मधुर प्रार्थनाये हैं। वे लिखते हैं

नील नभ तारा ग्रहों का अकल्पित विस्तार है

है बड़ा आश्चर्य, हर एक पिण्ड बे आधार है

है नहीं कुछ भी जिसे सब लोग कहते हैं गगन

धूल कण निर्मित भरी जल से  सुहानी है धरा

पेड़-पौधे जीव जड़ जीवन विविधता से भरा

किंतु सब के साथ सीमा और है जीवन मरण

सूक्ष्म तम परमाणु अद्भुत शक्ति का आगार है

हृदय की धड़कन से भड़ भड़ सृजित संसार है

जीव क्या यह विश्व क्यों सब कठिन चिंतन मनन

कारगिल युद्व के समय मण्डला के स्टेडियम में गणतंत्र दिवस के भव्य समारोह में उल्लेखनीय रूप से वतन को नमन का विमोचन हुआ।

पिताश्री की रचनाओ का मूल स्वर देशभक्ति, आध्यात्मिक्ता, बच्चों के लिए शिक्षा प्रद गीत, तात्कालिक घटनाओं पर काव्यमय सन्देश, संस्कृत से हिंदी काव्य अनुवाद है।

अनुगुंजन का प्रकाशन वर्ष 2000 में हुआ, जिसके विषय में सागर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति श्री शिवकुमार श्रीवास्तव ने लिखते हुए पिताजी की ही रचना उधृत की है

होते हैं मधुरतम गीत वही

जो मन की व्यथा सुनाते हैं

जो सरल शब्द संकेतों से

अंतर मन को छू जाते हैं

वसुधा के संपादक  डॉक्टर कमला प्रसाद ने उनके गीतों के विषय में लिखा “वे सामाजिक अराजकता के विरोधी हैं उनकी कविताओं में सरलता सरसता गीता तथा दिशा बोध बहुत साफ दिखाई देते हैं,विचारों की दृढ़ता तथा भावों की स्पष्टता के लिए उनके गीत हिंदी साहित्य में उदाहरण है”

बाल साहित्य की उनकी उल्लेखनीय किताबें हैं बाल गीतिका,बाल कौमुदी, सुमन साधिका,  चारु चंद्रिका,कर्मभूमि के लिए बलिदान, जनसेवा,अंधा और लंगड़ा, नैतिक कथाएं, आदर्श भाषण कला इत्यादि ये पुस्तकें विभिन्न  पुस्तकालयों  में खूब खरीदी गईं।

मानस के मोती तथा मानस मंथन रामचरितमानस पर उनके लेखों के संग्रह हैं। मार्गदर्शक चिंतन वैचारिक दिशा प्रदान करते आलेख हैं।

भगवत गीता के प्रत्येक श्लोक का हिंदी  पद्यानुवाद अर्थ सहित दो संस्करण छप चुका है। अनेक अखबार इसे धारावाहिक छाप रहे हैं। यह किताब लगातार बहुत डिमांड में है। ( ई- अभिव्यक्ति में सतत रूप से प्रतिदिन एक श्लोक का पद्यानुवाद तथा हिंदी / अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित होता है )

तीसरा संस्करण तैयार है जिसमे अंग्रेजी में भी अर्थ दिया गया है। प्रकाशक संपर्क कर सकते हैं।

रघुवंश का भी सम्पूर्ण हिंदी काव्य अनुवाद प्रकाशित है। 1900 श्लोकों का वृहद अनुवाद कार्य उन्होनें मनोरम रूप में मूल काव्य की भावना की रक्षा करते हुए किया। यह 2014 में छपा।

साहित्य अकादमी के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने पिताजी की पुस्तक स्वयं प्रभा जिसका प्रकाशन सितंबर 2014 में हुआ के विषय में लिखा है

श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव के गीत कविता को प्यार , स्नेह , संवेदना और सुंदरता के सीमित आंचल से बाहर निकालते हुए देशभक्ति के विस्तृत पटल तक ले जाती हैं। रचनाओं को पढ़ते ही मन देश प्रेम के सागर में हिलोरे लेने लगता है। आज सुसंस्कृत भारत की संस्कार और संस्कृति की समझ कम हो रही है वहीं ऐसे कठिन समय में विदग्ध जी की रचनाएं महासृजन की बेला में शब्दों और भाषा से शिल्पित, सराहनीय, उद्देश्य में सफल है।

फरवरी 2015 में अंतर्ध्वनि आई। म प्र राष्ट्र भाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्री संचालक श्री कैलाश चन्द्र पन्त जी ने इसकी भूमिका में लिखा  है  ” उनकी संवेदना का विस्तार व्यापक है, कविताओं का शिल्प द्विवेदी युगीन है। वे  उनकी सरस्वती वंदना से पंक्तियों को उधृत करते हैं “

हो रही घर-घर निरंतर आज धन की साधना

स्वार्थ के चंदन अगरु से  अर्चना आराधना

आत्मवंचित मन सशंकित विश्व बहुत उदास है

चेतना गीत की जगा मां, स्वरों को झंकार दे

भारतीय दर्शन को सरल शब्दों में व्याख्यायित  करते हुए एक अन्य कविता में विदग्ध जी लिखते हैं,

प्रकृति में है चेतना, हर एक कण सप्राण है

इसी से कहते कि कण कण में बसा भगवान है

चेतना है ऊर्जा , एक शक्ति जो अदृश्य है

है बिना आकार पर, अनुभूतियों में दृश्य है

2018 में अनुभूति, फिर हाल ही 2019 में शब्दधारा  पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

2018 दिसम्बर का ट्रू मीडिया विशेषांक पिताजी पर केंद्रित अंक था।

उनकी ढेरो कविताये  डिजिटल मोड में मेरे कम्प्यूटर पर हैं जिनकी सहज ही दस पुस्तकें तो बन ही सकती हैं। प्रकाशक मित्रों का स्वागत है।

उनका रचना कर्म निरन्तर जारी है। जो हमारी पूंजी है।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 32 – दान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक  मार्मिक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा  “दान ”।  आज के स्वार्थी संसार में भी कुछ लोग हैं जो मानव धर्म निभाते हैं। अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 32 ☆

☆ लघुकथा – दान ☆

 

सिविल लाइन का ईलाका सभी के अपने अपने आलीशान मकान, डुप्लेक्स और अपार्टमेंट। अलग-अलग फ्लैट में रहने वाले विभिन्न प्रकार के लोग और सभी लोग मिलजुलकर रहते।

वहीं पर एक फ्लैट में एक बुजुर्ग दंपत्ति भी रहते थे। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। कहने को तो बहुत रिश्ते नातेदार थे, परंतु, उनके लिए सभी बेकार रहे। सभी की निगाह उनकी संपत्ति, फ्लैट, रूपए पैसे, नगद, सोना चांदी, और गाड़ी पर लगी रहती थी। सेवा करना कोई नहीं चाहता था।

धीरे-धीरे समय बीतता गया एक सब्जी वाला कालू बचपन से उनके मोहल्ले में आता था। पूरे समय अम्मा बाबूजी उसका ध्यान लगाते थे। बचपन से सब्जी बेचता था। उसी गली में कभी अम्मा से ज्यादा पैसे ले लेता, कभी नहीं भी ले लेता। बुजुर्ग दंपत्ति भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। दवाई से लेकर सभी जरूरत का सामान ला कर देता था।

एक दिन अचानक बाबूजी का देहांत हो गया। सब्जी वाला कालू टेर लगाते हुए आ रहा था। अचानक की भीड़ देखकर रुक गया। पता चला उनके बाबूजी नहीं रहे। आस-पड़ोस सभी अंतिम क्रिया कर्म करके अपने-अपने कामों में लग गए।

दिनचर्या फिर से शुरू हो गई। सब्जी वाला आने लगा था। अम्मा जी धीरे धीरे आकर उससे सब्जी लेती थी। घंटों खड़ी होकर बात करती, वह भी खड़ा रहता। कभी अपनी रोजी रोटी के लिए परेशान जरूर होता था। परन्तु उनके स्नेह से सब भूल जाता था। अम्मा जी को भी बड़ी शांति मिलती। ठंड बहुत पड़ रही थी।

मकर संक्रांति के पहले सभी पड़ोस वाले आकर कहने लगे… आंटी जी दान का पर्व चल रहा है।  आप भी कुछ दान दक्षिणा कर दीजिए। अम्मा चुपचाप सब की बात सुनती रही। अचानक ठंड ज्यादा बढ़ गई, उम्र भी ज्यादा थी। अम्मा जी की तबियत खराब हो गई । अस्पताल में भर्ती कराया गया। कालू सब्जी वाला अपना धन्धा छोड़ सेवा में लगा रहा।

बहुत इलाज के बाद भी अम्मा जी को बचाया नहीं जा सका।

शांत होते ही कई रिश्तेदार दावा करने आ गये। परन्तु उसी समय वकील साहब आए और वसीयत दिखाते हुए कहा… स्वर्गीय दंपति का सब कुछ कालू सब्जी वाले का है। अंत में लिखा हुआ वकील साहब ने पढा…. कालू….. मेरे बेटे आज मैं तुम्हें अपना शरीर दान कर रही हूं। इस पर सिर्फ तुम्हारा अधिकार है। तुम चाहे इसे कैसे भी गति मुक्ति दो।

मृत शरीर पर कालू लिपटा हुआ फूट फूट कर रो रहा था। और कह रहा था…. जीते जी मुझे मां कहने नहीं दी और आज जब कहने दिया तो दुनिया ही छोड़ चली।

कालू ने बेटे का फर्ज निभाते हुए अपनी मां का अंतिम संस्कार किया। और कहा… मां ने मुझे महादान दिया है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #32 – नंदलाला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण कविता  “नंदलाला”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 32☆

 

☆ नंदलाला ☆

 

प्राशले विष, ना तरीही घात झाला

ना कुठेही पीळ पडला आतड्याला

 

रासक्रीडा खेळण्याचे भाग्य नाही

देह भजनी फक्त त्याच्या लागलेला

 

प्रीतिच्या वाटेत आले कैक धोंडे

धर्म भक्तीचाच होता पाळलेला

 

मीच राधा मीच मीरा एक आम्ही

या जगाने भेद आहे मांडलेला

 

नाव त्यांनी ठेवलेले होय मीरा

मी कधीही सोडले ना राधिकेला

 

दर्शनाची आस आहे सावळ्याच्या

चुंबते मी रोज त्याच्या बासरीला

 

एकतारी ‘बासरीचे’ सूर काढी

बोट माझे वाटते मज नंदलाला

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ आइना ☆ श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

☆ कविता  –  आइना ☆

कविता के जुलूस में

कवि ने पढा़ –

अंधेरे !

अगर वाकई तू

इतना ही सच्चा होता

तो क्या आइनों को

तोड़ कर

इस तरह भागता ?

–सूरत

छिपा कर हंसता

—बोलने से बचता

इस तरह खुश मत हो

अपनी ही घड़ी को

तोड़ कर

क्योंकि समय को

तोड़ने -फोड़ने के

फालतू अहंकार में

यह भी भूल गया तू

कि आइने के

जितने भी टुकड़े करेगा

उतने ही टुकड़ों में

चमकेगा

सूरज!

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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