हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 10 ☆ ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे।  इस समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 10 ☆

☆ ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे

ऊँट किस करवट बैठेगा ये कोई नहीं जानता पर तुक्का लगाने में सभी उस्ताद होते हैं। आखिर बैठने के लिए उचित धरातल भी होना चाहिए अन्यथा गिरने का भय रहता है। जैसे -जैसे हम बुद्धिजीवी होते जा रहे हैं वैसे- वैसे हमें अपनी जमीन मजबूत करने की फिक्र कुछ ज्यादा ही बढ़ रही है। आखिर  बैठना कौन नहीं चाहता पर हम ऊँट थोड़ी ही हैं जो हमें रेतीली माटी नसीब हो और अलटते – पलटते रहें। हमें तो बस कुर्सी रख सकें इतनी ही जगह चाहिए। और हाँ कुछ ऐसे लोग भी चाहिए जो इस कुर्सी की रक्षा कर सकें भले ही साम दाम दंड भेद क्यों न अपनाना पड़ जाए। कुर्सी की एक विशेषता ये भी है कि ये समय – समय पर अपना भार बदलती रहती है। इस पर गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी लगता है। ग्रहों के बदलते ही इसका भार बदल जाता है। वैसे तो बदलाव हमेशा ही सुखद मौसम लाता है। देखिए न पतझड़ के मौसम में  भी बासंती रंग, तरह- के फूल, सेमल, टेसू, पलाश सभी अपने जोर पर जाते हैं। आम्र बौर  की छटा व सुगंध तो मनभावन होती ही है । बस यही बदलाव तो कोयल को चाहिए, इसी मौसम में तो वो अपना राग गुनगुनाने लगती है। अरे ऊँट की चिंता करते- करते  कहा कोयल पर अटक गये। बस ये अपने धरातल की खोज जो न करवाये वो थोड़ा है। पुराने समय से ही ऊँट पर कई मुहावरे चर्चा में हैं। जहाँ  मात्रा या संख्या बल घटा,  बस समझ लो ऊँट के मुख में जीरा जैसे ही अल्पसंख्यक समस्या जोर पकड़ने लगती है। अरे ये संख्याबल की इतनी  हिमाकत केवल लोकतंत्र की वजह से ही है क्योंकि यहाँ गुणवत्ता नहीं संख्या पर जोर दिया जाता है। जैसे ही जोड़- तोड़ का गणित अनुभवी गणितज्ञ के पास पहुँचा बस गुणा भाग भी दौड़ पड़ते हैं पाठशाला की ओर। मौज मस्ती आखिर कितने दिनों तक चलेगी  परीक्षार्थियों को परीक्षा तो देनी ही होगी। रिजल्ट चाहें कुछ भी हो पुनर्जीवन तो मेहनत करने वाले को मिलेगा ही। सबको पता है कि अंत काल में केवल सत्कर्म ही साथ जाते हैं फिर भी जर, जोरू, जमीन की खोज में मन भटकता ही रहता है। मजे की बात इतना बड़ा प्राणी जो रेगिस्तान का जहाज कहलाता है उसकी चोरी भी लोग चोरी छुपे करने की हिमाकत करते हैं। इसी को बघेली में कहा जाता है ऊँट की चोरी निहुरे – निहुरे  अर्थात झुक – झुक कर। खैर देखते हैं कि क्या – क्या नहीं होता ; आखिरकार मार्च का महीना तो सदैव से ही परीक्षा का समय रहा है। इस समय हिन्दू नववर्ष का आगमन होता है, साल भर जो लेखा – जोखा व अध्ययन किया है उसका परीक्षण भी होता है। उसके बाद देवी-  देवताओं  से मान मनौती की जाती है ताकि परिणाम सुखद हो।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 18 ☆ कविता – महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 18 ☆

☆ महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस ☆ 

वीर सुभाष कहाँ खो गए

वंदेमातरम गा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

कतरा-कतरा लहू आपका

काम देश के आया था

इसीलिए ये आजादी का

झण्डा भी फहराया था

गोरों को भी छका-छका कर

जोश नया दिलवाया था

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान मान करवाया था

 

सत्ता के भुखियारों को अब

कुछ तो सीख सिखा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

नेताजी उपनाम तुम्हारा

कितनी श्रद्धा से लेते

आज तो नेता कहने से ही

बीज घृणा के बो देते

वतन की नैया डूबे चाहे

अपनी नैया खे लेते

बने हुए सोने की मुर्गी

अंडे भी वैसे देते

 

नेता जैसे शब्द की आकर

अब तो लाज बचा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

जंग कहीं है काश्मीर की

और जला पूरा बंगाल

आतंकी सिर उठा रहे हैं

कुछ कहते जिनको बलिदान

कैसे न्याय यहाँ हो पाए

सबने छेड़ी अपनी तान

ऐक्य नहीं जब तक यहां होगा

नहीं हो सकें मीठे गान

 

जन्मों-जन्मों वीर सुभाष

सबमें ऐक्य करा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

लिखते-लिखते ये आँखें भी

शबनम यूँ हो जाती हैं

आजादी है अभी अधूरी

भय के दृश्य दिखातीं हैं

अभी यहाँ कितनी अबलाएँ

रोज हवन हो जाती हैं

दफन हो रहा न्याय यहाँ पर

चीखें मर-मर जाती हैं

 

देखो इस तसवीर को आकर

कुछ तो पाठ पढ़ा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

डॉ राकेश चक्र ( एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 40 – बेनाम रिश्ता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बेनाम रिश्ता। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 40 ☆

☆ लघुकथा – बेनाम रिश्ता ☆

 

ट्रेन में चढ़ते ही रवि ने कहा, “ले बेटा ! मूंगफली खा.”

“नहीं पापाजी ! मुझे समोसा चाहिए” कहते हुए उस ने समोसा बेच रहे व्यक्ति की और इशारा किया.

“ठीक है” कहते हुए रवि ने जेब में हाथ डाला.  “ये क्या ?” तभी दिमाग में झटका लगा. किसी ने बटुआ मार लिया था.

“क्या हुआ जी ?”

घबराए पति ने सब बता दिया.

“अब ?”

“उस में टिकिट और एटीएम कार्ड भी था ?” कहते हुए रवि की जान सूख गई .

सामने सीट पर बैठे सज्जन उन की बात सुन रहे थे. कुछ देर बाद उन्हों ने कहा “आप लोगों का वहां जाने और खाने का कितना खर्च होगा ?”

“यही कोई १५०० रूपए .”

” लीजिए” उन सज्जन ने कहा,” वहां जा कर इस पते पर वापस कर दीजिएगा.”

“धन्यवाद” कहते ही रवि की आँखे में आंसू आ गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 38 – कर्जमाफी…… ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “कर्जमाफी…”।   यह अकेली चिड़िया जीवन के  कटु सत्य को  अकेली अनुभव करती है , साथ ही अपने बच्चों को स्वतंत्र आकाश में उड़ते देखकर उतनी ही प्रसन्न भी होती है। यह कविता हमें और हमारे अंतर्मन को झकझोर कर रख देती है। कल्पना करिये जब कृषक आत्महत्या कर लेता है और कृषक के पुत्र को देवघर में लिखी चिट्ठी मिलती है तो पुत्र पर क्या गुजरती होगी। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #38☆ 

☆ कर्जमाफी… ☆ 

बाबा तू जाण्याआधी

एका चिठ्ठीत लिहून

ठेवलं होतंस

मी देवाघरी जातोय म्हणून.. .

पण..

आम्हाला असं ..

वा-यावर सोडून

तो देव तरी तुला

त्याच्या घरात घेईल का…?

पण बाबा तू. . .

काळजी करू नकोस

त्या देवाने जरी तुला त्याच्या

घरात नाही घेतलं ना तरी

तू तुझ्या कष्टाने उभ्या केलेल्या

ह्या घरात तू

कधीही येऊ शकतोस

कारण .. . बाबा

आम्हाला कर्ज माफी नको होती

आम्हाला तू हवा होतास …!

आम्हाला तू हवा होतास …!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 39 – कितना बचेंगे …… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की  हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू करता एक गीत  “कितना बचेंगे…..जो आज भी समसामयिक  एवं विचारणीय  है । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 39 ☆

☆ कितना बचेंगे….. ☆  

 

काल की है अनगिनत

परछाईयाँ

कितना बचेंगे।

 

टोह लेता है, घड़ी पल-छिन दिवस का

शून्य से सम्पूर्ण तक के  झूठ – सच का

मखमली है पैर या कि

बिवाईयां है

चलेंगे विपरीत, सुनिश्चित है

थकेंगे  ।  काल की…….

 

कष्ट भी झेले, सुखद सब खेल खेले

गंध  चंदन  की, भुजंग मिले  विषैले

खाईयां है या कि फिर

ऊंचाईयां है

बेवजह तकरार पर निश्चित

डसेंगे  । काल की………….।

 

विविध चिंताएं, बने चिंतक सुदर्शन

वेश धर कर  दे रहे हैं, दिव्य प्रवचन

यश, प्रशस्तिगान संग

शहनाईयां है

छद्म अक्षर, संस्मरण कितने

रचेंगे  । काल की…………..।

 

लालसाएं लोभ अतिशय चाह में सब

जब कभी ठोकर  लगेगी, राह में तब

छोर अंतिम पर खड़ी

सच्चाइयां है

चित्र खुद के देख कर खुद ही

हंसेंगे  ।

काल की है अनगिनत परछाईयाँ

कितना बचेंगे।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 41 – या अज्ञात प्रदेशात….  ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  आपकी एक अत्यंत भावपूर्ण कविता “या अज्ञात प्रदेशात…. ।  मैं विस्मित हूँ और निःशब्द भी । एक अतिसंवेदनशील  एवं परिपक्व कवि की अंतरात्मा की  बेबाक प्रतिध्वनि है यह कविता। वह जब अपने रचनाशील संसार में आत्ममुग्ध हो कर  सृजन कार्य में  लिप्त रहता है, तो वास्तव में एक अज्ञात प्रदेश में ही रहता है।  वह वरिष्ठतम रचनाकारों की तुलना में  अपने अस्तित्व और सीमाओं को समझते हुए  अपने अस्तित्व के किसी  एक कोने को  थामने का प्रयास करता है जो पकड़ से छूटता जाता है। अप्रतिम रचना। इस अतिसुन्दर  एवं भावप्रवण  कविता के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 41 ☆

☆ या अज्ञात प्रदेशात…. ☆ 

 

एका  अज्ञात प्रदेशात वावरते  आहे..

वर्षानुवर्षे….. इथली भाषा मला  आवगत नाही….

मी साधू शकत नाही संवाद….

इथल्या कुणाशी च …..

मी माणूस  आहे म्हणून….

मन.. शरीर..भावना….

आणि कवी असल्यामुळे..

जरा जास्तच संवेदनशीलता….

षड्रिपू ही वास करताहेत…

माझ्या शरीरात….

शरीराला बहुधा म्हातारपणाचा शाप…

 

धसकायलाच होतं हल्ली…

दीर्घायुषी माणसं पाहून…

 

मी कुणी  कुडमुडी कवयित्री नाही,

निश्चितच….

पण बालकवी,साने गुरुजीं सारखी महान ही नाही….

मी लिहू ही शकत नाही त्यांच्या सारखं  आणि घेऊही शकत नाही निर्णय इतके धाडसी…..

 

खसखशी एवढे अस्तित्व संपूनही जात नाही चुटकी सरशी!

 

उगाचच लांबत रहातं आयुष्य…..

एक प्रचंड मोठं ओझं वागवीत….

चालत रहाते……

या अज्ञात प्रदेशात…

माझ्या अस्तित्वाच्या कुठल्या च खुणा सापडत नाहीत..

मी खणत रहाते….खणत रहाते खणतच रहाते…

 

एखाद्या शापित  आत्म्यासारखी…..

भू तलावरच्या या अज्ञात प्रदेशात…..

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 20 – महात्मा गांधी  और उनके अनुयायी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी  और उनके अनुयायी”। )

☆ गांधी चर्चा # 20 – महात्मा गांधी  और उनके अनुयायी

अपने जीवन काल में गांधीजी ने जो कुछ अनुभव प्राप्त किए, लोगों से सीखे और जो भी सिद्धांत बनाए उन्हे सबसे पहले स्वयं पर लागू किया और उन्हे परखा। उनके अनेक कार्यक्रम समाज सुधार की भावना से भी प्रेरित थे और उन्हे लागू करवाने में उन्हे विरोधों का भी सामना करना पड़ता यहाँ तक कि अनेक बार उनकी पत्नी कस्तूरबा भी उनसे सहमत न होती पर गांधीजी ने हार नही मानी वे सदैव अपने नियमों, सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करते रहे। स्वतंत्रता के आन्दोलान में अनेक लोग उनके संपर्क में आए उनसे प्रभावित हुये और उनके सच्चे अनुयायी बन गए।इन व्यक्तियों ने आजीवन गांधीजी द्वारा बताई गई जीवन शैली का परिपालन किया। ऐसे अनेक नाम है उनमे से कुछ की चर्चा मैं करना चाहता हूँ।

गांधीजी की पत्नी के विषय में उनकी नातिन सुमित्रा गांधी कुलकर्णी अपनी पुस्तक “महात्मा गांधी मेरे पितामह” में लिखती हैं “ मेरा ऐसा विश्वास है कि आदि युग की अरुंधती के समान ही वर्तमान की कस्तूरबा गांधी अपने तेजस्वी सत्यनिष्ठ पति की सुयोग्य अर्धांगनी थीं जो स्वयं अपनी निर्भीकता, कर्मठ सेवा भाव और अपनी सुलझी हुई उदारता और चारित्र्य की प्रखरता से बापुजी के सारे देशी-विदेशी आश्रमों को प्रभासित किए हुए थीं।“ गांधीजी  ने कस्तूबा की सहनशीलता पर अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में अफ्रीका के घर में पेशाब के बर्तन उठाने के संदर्भ में लिखा है “ इसमे से हरेक कमरे में पेशाब के लिए खास बर्तन रखा जाता। उसे उठाने का काम नौकर का न था, बल्कि हम पति पत्नी का था। कस्तूर बाई दूसरे बर्तन तो उठाती पर पञ्चम कुल में उत्पन्न मुहर्रिर का बर्तन उठाना उसे असह्य लगा।इससे हमारे बीच कलह हुआ। मेरा उठाना उससे सहा न जाता था और खुद उठाना उसे भारी हो गया था।“ दुखी मन से कस्तूरबा का बर्तन उठाना गांधीजी को पसंद न आया। वे उनपर भड़क उठे और बोले “यह कलह मेरे घर में नहीं चलेगा”  कस्तूरबा भी कहाँ चुप रहती वे भी भड़क उठीं और बोली “ तो अपना घर अपने पास रखो मैं यह चली” गांधीजी आगे लिखते हैं “ मैंने उस अबला का हाथ पकड़ा और दरवाजे तक खींच कर ले गया। दरवाजा आधा खोला । कस्तूरबाई की आखों में गंगा जमुना बह रही थी वह बोली – तुम्हें तो शरम नहीं है। लेकिन मुझे है। जरा तो शरमाओ। मैं बाहर निकल कर कहाँ जा सकती हूँ ? मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, इसलिए मुझे तुम्हारी डांट फटकार सुननी पड़ेगी। अब शरमाओ और दरवाजा बंद करो। कोई देखेगा तो दो में से एक की भी शोभा नहीं रहेगी।“ गांधीजी कहते हैं कि “हमारे बीच झगड़े तो बहुत हुये, पर परिणाम सदा शुभ ही रहा है। पत्नी ने अद्भुत सहनशक्ति द्वारा विजय प्राप्त की है।“ गांधीजी और कस्तूरबा के दांपत्य जीवन पर श्री राकेश कुमार पालीवाल अपनी पुस्तक  ” गांधी जीवन और विचार”  में लिखते हैं –  एक बार गांधी ने स्वास्थ लाभ के लिए कस्तूरबा को नमक और दाल छोड़ने की सलाह दी। कस्तूरबा ने कहा – ये दो चीज तो आप भी नही छोड़ सकते। गांधी ने तभी दोनों को त्यागने का व्रत ले लिया। कस्तूरबा को गांधी का त्याग देखकर बड़ा अफसोस हुआ। उन्होने यह दोनों चीजें छोड़ दी और गांधी से  अनुरोध किया कि वे अपना ब्रत तोड़ दे लेकिन गांधी भी उतने ही दृढ़ संकल्पी थे उन्होने आजीवन यह व्रत निभाया। बाद के सालों में दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए थे।“

महात्मा गांधी के एक अनन्य मित्र थे शंकर धर्माधिकारी जो दादा धर्माधिकारी के नाम से ही प्रसिद्ध हुये।  उनके पिता ब्रिटिश हुकूमत में जज की नौकरी करते थे पर दादा गांधीजी के सिद्धांतों के पक्के अनुयायी थे। गांधीजी की अनेक मान्यताओं की उन्होने बड़ी सुंदर व्याख्या की है। ऐसी ही व्याख्या स्त्री को बराबरी का दर्जा देने को लेकर है। गांधीजी यह मानते थे कि “स्त्रियों का मन कोमल होता है इसका मतलब वह कमजोर होती है ऐसी बात नही”। गांधीजी की इस मान्यता का भाष्य करते हुये दादा कहते हैं, “ स्त्री सुरक्षित नही, पर स्वरक्षित हो। शिक्षा के विकास के लिए उसमे दो तत्त्वो का समावेश होना चाहिए, सामंजस्य और अनुबंध। शिक्षा का स्वाभाविक परिणाम विनयशीलता में हो। स्त्रियों को स्त्रियों के और पुरुषो के साथ भी मैत्री की समान भूमि पर विचरण करने की कला साध्य होनी चाहिए। स्त्री पुरुषों का सामान्य मनुष्यत्व शिक्षा के कारण विकसित हो। स्त्री पुरुष के बराबर रहे यानी वह पुरुष जैसी होगी ऐसा नही। विकसित स्त्री का मतलब नकली पुरुष नहीं।समानत्व का अर्थ तुल्यत्व नहीं। स्त्री की भूमिका पुरुष की भूमिका तुल्य रहेगी, कभी-कभी वह उससे सरस या कई बातों में उसके जैसी होगी परंतु वह निम्न स्तर की कभी नही रहेगी। स्त्री की प्रतिष्ठा केवल ‘वीरमाता’ या ‘वीरपत्नी’ बनने में नही। उसका पराक्रम स्वायत्त होगा। वीरपुरुष की तरह वीरस्त्री बनना उसके लिए भूषणावह होना चाहिए।“ ( एक न्यायमूर्ति का हलफनामा से साभार।)  आज जब बीएचयू जैसे उच्च शिक्षा केंद्रों में स्त्री अपमान, नारी समानता, स्त्री सुरक्षा जैसे  अनेक प्रश्न उठ रहे है, इनको लेकर आंदोलन हो रहे है तब  क्या गांधीजी की मान्यताओं की ऐसी व्याख्या हमे मार्ग नही दिखाती? गांधीजी  आज भी प्रासंगिक है यह मानने की जरूरत है।

दादा धर्माधिकारी के  एक पुत्र न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी हैं, उन्होने अपनी पुस्तक “एक न्यायमूर्ति का हलफनामा “ में गांधीजी के अनेक अनुयायियों का जिक्र किया है और उन घटनाओं का सजीव चित्रण किया है जो हमे बताती हैं कि लोगों पर गांधीजी का प्रभाव कितना व्यापक था और लोग किस निष्ठा के साथ उनके बताए मार्ग पर चलने का सफल प्रयास करते थे। न्यायमूर्ति धर्माधिकारी अपनी इस पुस्तक में श्रीकृष्णदासजी जाजू को याद करते हुए लिखते हैं कि “गांधीजी के एकादश व्रतों में ‘अस्तेय’ और अपरिग्रह ये दो व्रत हैं। जाजूजी इन  व्रतों के जीते जागते उदाहरण थे। एक बार दादा और माँ  जाजूजी के साथ गांधी सेवा संघ के सम्मेलन में हुदली गए थे। वहाँ खड़ी ग्राम-उद्योग की वस्तुओं की प्रदर्शनी लगी थी। दादा और माँ  जाजूजी प्रदर्शनी देखने निकले। दादा  ने माँ से कहा, ‘थोड़े पैसे साथ ले लेना।’ सुनकर जाजूजी ने कहा, प्रदर्शनी  में देखने और कुछ सीखने जाना है या चीजें खरीदने के लिए ? दादा ने  कहा, ‘यह तय करके की कुछ खरीदना ही है नही जा रहे। अगर कोई अच्छी चीज दिखी तो ले लेंगे।‘ जाजूजी को बहुत अचरज हुआ। बोले ‘यह क्या बात हुयी ? अगर आपको किसी चीज की जरूरत है तो उसे ढूढ़ेंगे’।पर केवल कोई चीज अच्छी ढीखती है, इसलिए बिना जरूरत उसका संग्रह करना कहाँ तक उचित है? अनावश्यक चीजे याने कबाड़।“

गांधीजी ने देश के उद्योगपतियों के लिए ट्रस्टीशिप का  सिद्धांत प्रतिपादित किया था। जमना लाल बजाज, घनश्याम दास बिरला आदि ऐसे कुछ देशभक्त उद्योगपति हो गए जिन्होने  गांधीजी के निर्देशों को अक्षरक्ष अपने व्यापार में उतारा। गांधीजी  से प्रभावित ये उद्योगपति आज के व्यापारियों जैसे न थे जिनका लक्ष्य केवल और केवल मुनाफा कमाना रह गया है। और  मुनाफाखोरी की यह आदत सारे नियम कानूनों का उल्लघन करने से भी नही चूकती। जन कल्याण , समाज सेवा आदि की भावना अब उद्योगपतियों के लिए गुजरे जमाने की बातें हैं, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्ति के साधन बन गए हैं और  टीवी पर डिबेट की विषयवस्तु बन कर रह गई है। जमना लाल बजाज के विषय में न्यायमूर्ति धर्माधिकारी अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं “ महात्मा गांधी ने जमनालालजी को जैसा प्रमाणपत्र दिया, वैसा शायद ही अन्य किसी को मिला हो! गांधीजी की राय से ‘उनकी और जमनालालजी की सच्ची राजनीति याने विधायक कार्य। जमनालालजी अपनी सम्पति के ट्रस्टी या संरक्षक के नाते ही बर्ताव करते थे। अगर वे  ट्रस्टीशिप की पूर्णता तक पहुँचे न होंगे तो उसका कारण मैं ही हूँ। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जमनालालजी ने अनीति से एक पाई तक नहीं कमाई और जो भी कमाया वह सब जनता जनार्दन की भलाई के लिए खर्च किया।‘ सच क्या आजकल ऐसे उद्योगपति बचे हैं? जमना लाल बजाज ने सत्याग्रहाश्रम , महिला सेवा मंडल, शिक्षा मंडल, चरखा संघ, गांधी सेवा संघ आदि संस्थाओं की नीव डाली। उन्होने ही सबसे पहले वर्धा का अपना ‘श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर’ 17 जुलाई 1928 को अस्पृश्यों के लिए खुला कर, उनके प्रेरणास्त्रोत गांधीजी के सहयोगी व पुत्र होने का सम्मान प्राप्त किया।

गांधीजी के सामुदायिक जीवन में प्रार्थना का बड़ा महत्व था। उनके द्वारा स्थापित आश्रमों में सुबह और शाम सर्वधर्म प्रार्थना होती और इसका क्रमिक विकास हुआ, जिसमें काका कालेलकर का बहुत बड़ा योगदान है। आश्रम-भजनावली का संपादन उन्होने ही किया और इसकी प्रस्तावना में उन्होने बड़े विस्तार से बताया है कि किस प्रकार बौद्ध मंत्रों, कुरान की आयतों, जरथोस्ती गाथा, बाइबल, देवी देवताओं की स्तुतियाँ, भजन, रामचरित मानस,  उपनिषद के श्लोक, गीता आदि का समावेश आश्रम-भजनावली में हुआ। काका लिखते हैं कि सुबह की प्रार्थना में अनेक देव-देवियों की उपासना आती है। इसका विरोध भी अनेक आश्रमवासियों ने किया था। गांधीजी ने कहा कि ये सब श्लोक एक ही परमात्मा की उपासना सिखाते हैं। नाम रूप की विविधता हमें ना केवल सहिष्णुता सिखाती है,बल्कि हमे सर्व-धर्म-सम-भाव  की ओर ले जाती है। यह विविधता हिन्दू धर्म की खामी नहीं किन्तु खूबी है।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सजल ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  अतिसुन्दर गीत  “सजल ।  इस अतिसुन्दर गीत के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।)

☆ सजल ☆

 

प्रिया तुम्हारे प्यार में, बनने लगे कबीर

बढ़ती हैं पींगें नयी, मनवा हुआ अधीर

 

आँखें अपलक जोहतीं, बाट गगन के तीर

सूनी राहें देख के, नयन बहाएँ नीर

 

हरिदर्शन पाऊँ भला, कहाँ हमारे भाग्य

उर में छवि घनश्याम की, मनवा धरे न धीर

 

काव्य कला समझे नहीं, नहीं शिल्प का ज्ञान

भाव – भाव  सुरभित सुमन, शब्द – शब्द में पीर

 

जीवन जीने की कला, रखें संतुलित दृष्टि

रखें धीर दुख में, रहें सुख में भी गंभीर।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 31 ☆ नदी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “नदी ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 31☆

☆ नदी 

झरने से जब

वो नदी के रूप में परिवर्तित हुई,

उसे पेड़, बादल और हवाओं ने

अच्छी तरह समझाया

कि जो गुज़र जाती है,

उसका कभी ग़म न करना

और बस आगे ही आगे बढती रहना!

 

पहाड़ों का साथ छूटा,

पर वो बिलकुल नहीं रोई;

उसका पानी अब उतना साफ़ नहीं रहा,

पर वो हरगिज़ नहीं टूटी;

उसपर न जाने कितने बाँध लगाए गए,

पर उसने उफ़ तक नहीं की-

बस जैसे उसे औरों ने समझाया था

वो करती रही!

 

बस उसके मन में कहीं

एक ख़ामोशी जनम लेने लगी

और वो उसको लाख चाहकर भी

मिटा नहीं पा रही थी…

 

एक साल

इतनी बारिश बरसी

कि वो सारे बंधनों से मुक्त हो गयी

और तब समझ पायी वो

अपनी शक्ति को!

 

अब वो बहती है

निर्बाध, मुक्त और खुली सांस लेती हुई!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 42 ☆ पुन्हा नव्याने ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “पुन्हा नव्याने ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 42 ☆

☆ पुन्हा नव्याने  ☆

 

जगतो आहे मरण रोजचे

दुःख पाहुणे कुण्या गावचे

 

सरणालाही पैसा नाही

टाळूया का मरण आजचे ?

 

शीतल सरिता सोबत असता

वाळवंट हे तप्त काठचे

 

मुरू लागल्या कच्च्या कैऱ्या

जीवनानुभव हेच लोणचे

 

निसर्ग लाभो देहाला या

तक्के, गाद्या नको फोमचे

 

पुन्हा नव्याने दुःख भेटता

जीवन वाटे बरे कालचे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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