सुश्री अनुभा श्रीवास्तव
(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “घर बनायें स्वर्ग”। इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने # 32 ☆
☆ घर बनायें स्वर्ग ☆
हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं है. किन्तु अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.
यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ, मित्र भाव से, निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.
यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन भौतिक संसाधनो को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में होते ही नहीं.
घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !
© अनुभा श्रीवास्तव्
घर बनायें स्वर्ग
हम सब के अवचेतन मन में, स्वर्ग की कल्पना, एक सुखद, परम आनन्ददायी, कष्ट रहित, अलौकिक अनुभूति के रूप में रेखांकित है. अर्थात स्वर्ग वही है, जहाँ आपके परिवेश में आपकी आज्ञा का अक्षरशः परिपालन हो, आपको मन वाँछित महत्व मिले, आपकी आवश्यकतायें सहजता से पूरी हों, सकारात्मक वातावरण हो. कटुता, विषमता, वैमनस्य जैसी कुत्सित प्रवृत्तियों का परिवेश न हो. ऐसे ही लोक की चाहत में हम स्वर्ग की कामना करते हैं. तपस्या, पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठान करते हैं. इस सबके बाद, मृत्यु के उपरांत भी ऐसा काल्पनिक स्वर्ग मिलता है या नहीं प्रमाणिक रूप से निश्चित नहीं है. किन्तु अपने कर्मों से, अपनी जीवन शैली में थोड़ा सा बदलाव करके, हम इसी जीवन में, यहीं धरती पर, स्वयं अपने घर पर ही स्वर्ग के समस्त गुणों से परिपूरित परिवेश बना सकते हैं.
यदि पति पत्नी परस्पर संपूर्ण सर्मपण के साथ, मित्र भाव से, निष्ठा पूर्वक, दाम्पत्य का निर्वाह कर रहे हैं, अर्थात पति एक पत्नीव्रती है, व पत्नी पतिव्रता है तो हम समझ सकते हैं कि यह सुख स्वर्ग की किसी भी
अप्सरा के साथ के सुख से बेहतर, चिर स्थाई एवं ऐसा है जिसकी अपेक्षा देवता भी करते हैं.
यदि आपकी संतान आपकी आज्ञाकारणी है, तो हर पल के ऐसे अनुचर तो स्वर्ग में भी नहीं मिलते. कहा जाता है ” पूत सपूत तो क्या धन संचय ? “. यदि आपकी संतान को आपने सुसंस्कारी, सुसंतान बनाया है तो आपको संपत्ती के व्यर्थ संग्रहण की भी कोई आवश्यकता नहीँ है. “साँई इतना दीजीये जामें कुटुंब समाये, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाये ” गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है ” जहाँ सुमति तँह संपति नाना “. अतः अच्छा हो कि हम अपने परिवेश में सुमति का वातावरण बनाने के प्रयत्न करें. भौतिक संसाधनों के संग्रहण की अंत हीन स्पर्धा में पड़कर मन की शांति, दिन का चैन, रात का आराम खो देने में बुद्धिमानी नहीं है,जिन भौतिक संसाधनो
को पाने के लिये हम अपना स्वास्थ्य तक खो देते हैं वे तो स्वर्ग में होते ही नहीं.
घर के प्रत्येक सदस्य के कार्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव घर वालों पर पड़ता है, कोई एक परिवार जन बीमार पड़ जाये तो सब चिंतित हो जाते हैं ! घर परिवार के सदस्य अपने आचरण, व्यवहार से घर में ही स्वर्ग सावातावरण बना सकते हैं, या फिर किसी एक के भी दुराचरण से परेशान होकर घर वाले स्वर्ग वासी बनने पर मजबूर होकर आत्महत्या तक कर लेते हैं. चुनना हमें ही है !