हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 18 – पंचमुखी हनुमान ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “पंचमुखी हनुमान ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 18 ☆

☆ पंचमुखी हनुमान

 

मकरध्वज ने भगवान हनुमान से कहा कि महल में प्रवेश करने से पहले उन्हें उससे लड़ना होगा। क्योंकि वह अपने स्वामी अहिरावण के साथ छल नहीं कर सकता है, और सेवक धर्म का पालन करने के लिए अपने पिता का सामना करने के लिए भी तैयार है। मकरध्वज की भक्ति और वचनबद्धता को देखकर, भगवान हनुमान खुश हुए और उसे आशीर्वाद दिया । उसके बाद भगवान हुनमान और मकरध्वज के बीच संग्राम हुआ जिसमे भगवान हनुमान विजयी हुए । उसके बाद उन्होंने मकरध्वज को बंदी बना दिया और भगवान राम और लक्ष्मण की खोज में महल में प्रवेश किया ।

वहाँ पर भगवान हनुमान चन्द्रसेना (अर्थ : चंद्रमा की सेना) से मिले, जिन्होंने उन्हें बताया कि अहिरावण को मारने का एकमात्र तरीका पाँच अलग-अलग दिशाओं में जलते दीपकों को एक ही फूँक से बुझाना है । ऐसा करने के लिए भगवान हनुमान ने पाँच चेहरों के साथ पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया, जो घरेलू प्रार्थनाओं के लिए बहुत शुभ है ।

भगवान हनुमान ने अपने मूल चेहरे के अतरिक्त वरहा, गरुड़, नृसिंह और हयग्रीव चेहरे चार दिशाओं में निकाले और इस प्रकार उनके पाँच दीपक एक साथ बुझाने के लिए पाँच चेहरे दिखाई देने लगे। भगवान हनुमान का मूल चेहरा पूर्व दिशा में था, वरहा उत्तर दिशा, गरुड़ पश्चिम दिशा नृसिंह दक्षिण दिशा में, और हयग्रीव वाला चेहरा ऊपर की ओर को था ।

इन पाँच चेहरों का बहुत महत्व है। भगवान हनुमान का मूल चेहरा जो पूर्वी दिशा में है, पाप के सभी दोषों को दूर करता है और मन की शुद्धता प्रदान करता है। नृसिंह का चेहरा दुश्मनों के डर को दूर करता है और जीत प्रदान करता है। गरुड़ का चेहरा बुराई के मंत्र, काले जादू प्रभाव, और नकारात्मक आत्माओं को दूर करता है; और किसी के शरीर में उपस्थित सभी जहरीले प्रभावों को हटा देता है। वरहा का चेहरा ग्रहों के बुरे प्रभावों के कारण परेशानियों से गुजरते व्यक्तियों को आराम प्रदान करता है, और सभी आठ प्रकार की समृद्धि (अष्ट ऐश्वर्य) प्रदान करता है। ऊपर की ओर हयग्रीव का चेहरा ज्ञान, विजय, अच्छी पत्नी और संतान को प्रदान करता है ।

भगवान हनुमान के इस रूप (पाँच मुखों वाले हनुमान) का वर्णन पराशर संहिता (ऋषि पराशर द्वारा लिखित एक अगामा पाठ) में भी किया गया है। भगवान हनुमान का यह रूप बहुत लोकप्रिय है और पंचमुखी मुखा अंजनेय (पाँच चेहरों के साथ अंजना का पुत्र) भी कहा जाता है । इन चेहरों से पता चलता है कि दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो इन पाँच में से किसी ना किसी चेहरे के प्रभाव के तहत नहीं आता है, और जो सभी भक्तों के लिए सुरक्षा प्रदान करता है । ये पाँच चेहरे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और ऊपर की दिशा पर सतर्कता और नियंत्रण का प्रतीक है ।

प्रार्थना के पाँच रूप, नमन, स्मरण,कीर्तन, यचनाम और अर्पण के पाँच तरीके हैं। पाँच चेहरे इन पाँच रूपों को दर्शाते हैं ।

पाँच चेहरे प्रकृति के निर्माण के पाँच तत्वों के अनुसार भी हैं। गरुड़ अंतरिक्ष को दर्शाता है, भगवान हनुमान ने वायु को इंगित किया है, नृसिंह अग्नि को दर्शाता है, हयग्रीव पानी को दर्शाता है, और वरहा पृथ्वी तत्व को दर्शाता है ।

इसी तरह पाँच चेहरे मानव शरीर के पाँच महत्वपूर्ण वायु या प्राणों को भी दर्शाते हैं। गरुड़ उदान के रूप में, भगवान हनुमान प्राण के रूप में, नृसिंह समान के रूप में, हयग्रीव व्यान और वरहा अपान के रूप में ।

तो इस पंचमुखी रूप में, भगवान हनुमान एक ही समय में सभी पाँच दीपक बुझाने में सक्षम हुए। उसके बाद उन्होंने चाकू के एक तेज झटके के साथ अहिरावण को मार दिया। भगवान हनुमान अंततः भगवान राम और लक्ष्मण को बचाकर, अहिरावण को मारने और विभीषण को दिए गए वचन को पूरा करने में सफल हुए ।

 

© आशीष कुमार  

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 16 ☆ विजय ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “विजय”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 16 ☆

☆ विजय

कालरात्रि पर विजय पाना,
बड़ा कठिन होता है।
पर अमावस हो या हो पूनम,
जीना सिखलाता है…..

अंबर से एक तारा टूटे,
उसे क्या फर्क पड़ता है
जिनका एक मात्र सहारा छूटे,
उन्हें जीना तो पड़ता है…..

लंका दहन हो मर्कट का
या कुरूक्षेत्र का चक्रव्यूह हो
शत्रु पर पाने को विजय
भेदन तो करना पड़ता है…..

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 25 ☆ स्मित रेखा और संधि पत्र ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “स्मित रेखा और संधि पत्र ”.   जयशंकर प्रसाद जी की कालजयी रचना  ‘कामायनी ‘ की  चार पंक्तियों को सुप्रसिद्ध कवि कुमार  विश्वास जी के विडिओ पर सुनकर  डॉ मुक्त जी द्वारा इस सम्पूर्ण आलेख की रचना कर  दी गई ।  कामायनी की चार पंक्तियों पर नारी  की संवेदनाओं पर संवेदनशील रचना डॉ मुक्त जैसी संवेदनशील रचनाकार ही ऐसा आलेख रच सकती हैं।  मैं निःशब्द हूँ और इस ‘निःशब्द ‘ शब्द की पृष्ठभूमि को संवेदनशील और प्रबुद्ध पाठक निश्चय ही पढ़ सकते हैं. डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 25 ☆

☆ स्मित रेखा और संधि पत्र 

‘आंसू से भीगे अंचल पर

मन का सब कुछ रखना होगा

तुझको अपनी स्मित रेखा से

यह संधि पत्र लिखना होगा’

कामायनी की इन चार पंक्तियों में नारी जीवन की दशा-दिशा और उसके जीवन का यथार्थ परिलक्षित है। प्रसाद जी ने नारी के दु:खों की अनुभूति की तथा उसे,अपने दु:ख,पीड़ा व कष्टों को आंसुओं रूपी आंचल में समेट कर, मुस्कुराते हुए संधि-पत्र लिखने का संदेश दिया। यह संधि-पत्र एक-तरफ़ा समझौता है अर्थात् विषम परिस्थितियों का मुस्कराते हुए सामना करना… इस ओर संकेत करता है, क्योंकि उसे सहना है, कहना नहीं। यह सीख दी है, बरसों पहले प्रसाद जी ने, कामायनी की नायिका श्रद्धा को…कि उसे मन में उठ रहे ज्वार को आंसुओं के जल से प्रक्षालित करना होगा और अपनी पीड़ा को आंचल में समेट कर समझौता करना होगा।

आज कामायनी के चार पद, जिन्हें कुमार विश्वास ने वाणी दी है, उस वीडियो को देख-सुनकर हृदय विकल-उद्वेलित हो उठा। मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और मेरी लेखनी, नारी जीवन की त्रासदी को शब्दों में उकेरने को विवश हो गई। एक प्रश्न मन में कुनमुनाता है कि जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है, उसे मौन रहने का संदेश दिया गया है…दर्द को आंसुओं के भीगे आंचल में छुपा कर, मुस्कराते हुए जीने की प्रेरणा दी गई है…क्या यह उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है?शायद! यह कुठाराघात है उसकी संवेदनाओं पर… समझ नहीं पाता मन… आखिर हर कसूर के लिए वह ही क्यों प्रताड़ित होती है और अपराधिनी समझी जाती है…हर उस अपराध के लिए, जो उसने किया ही नहीं। प्रश्न उठता है, जब कोर्ट-कचहरी में हर मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर-अधिकार प्रदान किया जाता है, तो नारी इस अधिकार से वंचित क्यों?

चौंकिए नहीं! यह तो हमारे पूर्वजों की धरोहर है, जिसे आज तक प्रतिपक्ष ने संभाल कर रखा हुआ है और उसकी अनुपालना भी आज तक बखूबी की जा रही है। ‘क्या कहती हो ठहरो! नारी/संकल्प अश्रुजल से अपने/तुम दान कर चुकी पहले ही/ जीवन के सोने से सपने’ द्वारा नारी को आग़ाह किया गया है कि वह तो अपने स्वर्णिम सपनों को पहले ही दान कर चुकी है अर्थात् होम कर चुकी है। अब उसका अपना कुछ है ही नहीं,क्योंकि दान की गयी वस्तु पर प्रदाता का अधिकार उसी पल समाप्त हो जाता है। स्मरण रहे, उसने तो अपने आंसुओं रूपी जल को अंजलि में भर कर संकल्प लिया था और अपना सर्वस्व उसके हित समर्पित कर दिया था।

सो! नारी, तुम केवल श्रद्धा व विश्वास की प्रतिमूर्ति हो और तुम्हें जीवन को समतल रूप प्रदान करने हेतु  पीयूष-स्त्रोत अर्थात् अमृत धारा सम बहना  होगा। युद्ध देवों का हो या दानवों का, उसके अंतर्मन में सदैव संघर्ष बना रहता है…परिस्थितियां कभी भी उसके अनुकूल नहीं रहतीं और पराजित भी सदैव नारी ही होती है। युद्ध का परिणाम भी कभी नारी के पक्ष में नहीं रहता। इसलिए नारी को अपने अंतर्मन के भावों पर अंकुश रख, आंसुओं रूपी रूपी जल से उस धधकती ज्वाला को शांत करना होगा तथा उसे अपनी मुस्कान से जीवन में समझौता करना होगा। यही है नारी जीवन का कटु यथार्थ है…कि उसे नील- कंठ की भांति हंसते-हंसते विष का अआचमन करना ही होगा… यही है उसकी नियति। सतयुग से लेकर आज तक इस परंपरा को बखूबी सहेज-संजो- कर रखा गया है, इसमें तनिक भी बदलाव नहीं आ पाया। नारी कल भी पीड़ित थी, आज भी है और कल भी रहेगी। जन्म लेने के पश्चात् वह पिता व भाई के सुरक्षा-घेरे में रहती है और विवाहोपरांत पति व उसके परिवारजनों के अंकुश में, जहां असंख्य नेत्र सी•सी•टी•वी• कैमरे की भांति उसके इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और उसकी हर गतिविधि उन में कैद होती रहती है।

दुर्भाग्यवश न तो पिता का घर उसका अपना होता है, न ही पति का घर… वह तो सदैव पराई समझी जाती है। इतना ही नहीं, कभी वह कम दहेज लाने के लिए प्रताड़ित की जाती है, तो कभी वंश चलाने के लिए, पुत्र न दे पाने के कारण उस पर बांझ होने का लांछन लगा कर, उसे घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है।जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर, केवल चेहरा बदल जाता है, नियति नहीं। हां! पिता और पति का स्थान पुत्र संभाल लेता है और उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है। उस स्थिति में उसे केवल पुत्र का नहीं, पुत्रवधु का भी मुख देखना पड़ता है, क्योंकि अब उसकी ज़िन्दगी की डोर दो-दो मालिकों के हाथ में आ जाती है।

आश्चर्य होता है, यह देख कर कि मृत्योपरांत उसे पति के घर का दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता, वह भी उसके मायके से आता है और भोज का प्रबंध भी उनके द्वारा ही किया जाता है। अजीब दास्तान है… उसकी ज़िन्दगी की, जिस घर से उसकी डोली उठती है, वहां लौटने का हक़ उससे उसी पल छिन जाता है, और जिस घर से अर्थी उठती है, उस घर के लिए वह सदा ही पराई समझी जाती थी। उसका तो घर होता ही कहां है…इसी उधेड़बुन व असमंजस में वह पूरी उम्र गुज़ार देती है। प्रश्न उठता है,आखिर संविधान द्वारा उसे समानता का दर्जा क्यों प्रदत नहीं? अधिकार तो पुरूष के भाग्य में लिखे गये हैं और स्त्री को मात्र कर्त्तव्यों  की फेहरिस्त थमा दी जाती है…आखिर क्यों? जब परमात्मा ने सबको समान बनाया है तो उससे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? यह प्रश्न बार-बार अंतर्मन को कचोटते हैं… हां!यदि अधिकार मांगने से न मिलें,तो उन्हें छीन लेने में कोई बुराई नहीं।श्रीमद्भगवत् गीता में भी अन्याय करने वाले से अन्याय सहन करने वाले को अधिक दोषी ठहराया गया है।

शायद! नारी की सुप्त चेतना जाग्रत हुई होगी और उसने समानाधिकर की मांग करने का साहस जुटाया होगा। सो!कानून द्वारा उसे अधिकार प्राप्त भी हुए, परंतु वे सब कागज़ की फाइलों तले दब कर रह गये। नारी शिक्षित हो या अशिक्षित, उसकी धुरी सदैव घर- गृहस्थी के चारों ओर घूमती रहती है।दोनों की नियति एक समान होती है। उनकी तक़दीर में तनिक भी अंतर नहीं होता। वे सदैव प्रश्नों के घेरे में रहती हैं। पुरूष का व्यवहार औरत के प्रति सदैव कठोर ही रहा है, भले ही वह नौकरी द्वारा उसके बराबर वेतन क्यों न प्राप्त करती हो? परंतु परिवार के प्रति समस्त दायित्वों के वहन की अपेक्षा उससे ही की जाती है। यदि वह किसी कारणवश उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती, तो उस पर आक्षेप लगाकर, असंख्य ज़ुल्म ढाये जाते हैं। सो!उसे पति व परिजनों के आदेशों की अनुपालना सहर्ष करनी पड़ती है।

हां!वर्षों तक पति के अंकुश व उसके न खुश रहने के पश्चात् उसके हृदय का आक्रोश फूट निकलता है और वह प्रतिकार व प्रतिशोध की राह पर पर चल पड़ती है। उसने लड़कों की भांति जींस कल्चर को अपना कर, क्लबों में नाचना गाना, हेलो हाय करना, सिगरेट व मदिरापान करना, ससुराल-जनों को अकारण जेल के पीछे पहुंचाना, उसके शौक बन कर रह गए हैं। विवाह के बंधनों को नकार, वह लिव-इन की राह पर चल पड़ी है, जिसके भयंकर परिणाम उसे आजीवन झेलने पड़ते हैं।

‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि पत्र लिखना होगा।’ यह पंक्तियां समसामयिक व सामाजिक हैं, जो कल भी सार्थक थीं,आज भी हैं और कल भी रहेंगी। परंतु नारी को पूर्ण समर्पण करना होगा, प्रतिपक्ष की बातों को हंसते-हंसते स्वीकारना होगा…यही ज़िन्दगी की शर्त है। वैसे भी अक्सर महिलाएं,बच्चों की खुशी व परिवार की मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं… अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं। अपनी अस्मिता व प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर, शतरंज का मोहरा बन जाती हैं। कई बार अपने परिवार की खुशियों व सलामती के लिए अपनी अस्मत का सौदा तक करने को विवश हो जाती हैं, ताकि उनके परिवार पर कोई आंच ना आ पाए। इतना ही नहीं, वे  बंधुआ मज़दूर तक बनना स्वीकार लेती हैं, परंतु उफ़् तक नहीं करतीं। आजकल अपहरण व दुष्कर्म के किस्से आम हो गए हैं…दोष चाहे किसी का हो, अपराधिनी तो वह ही कहलाती है।

‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है

इच्छा क्यों पूरी हो मन की

एक दूसरे से मिल ना सके

यह विडंबना है जीवन की।’

कामायनी की अंतिम पंक्तियां मन की इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म के समन्वय को दर्शाती हैं। इनका विपरीत दिशा की ओर अग्रसर होना, जीवन की विडम्बना है… दु:ख व अशांति का कारण है। सो! समन्वय व सामंजस्यता से समरसता आती है, जो अलौकिक आनंद-प्रदाता है।इसके लिए निजी स्वार्थों के त्याग करने की दरक़ार है, इसके द्वारा ही हम परहितार्थ हंसते-हंसते समझौता करने की स्थिति में होंगे और पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द बना रहेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 23 ☆ कविता ☆ सागर की गहराई ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता सागर की गहराई । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 23  साहित्य निकुंज ☆

☆ सागर की गहराई

 

कौन जान सका

है सागर की गहराई

कौन समझ सका

सागर के उतार चढ़ाव को।

कितना चाहा

सागर को कसना।

पर न हो सका संभव

उठती है जब तरंगे

मचलता है सागर

आता है उफान

बांहे फैलाता है सागर

समेटने के लिए

संभव नहीं लम्हों को रोकना

बेबस सी मै देखती हूं

इन लम्हों लम्हों को

उफनते सागर को

छलकते गागर को ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प बावीस # 22 ☆ साहित्य संवर्धनात मोबाईलचे योगदान ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक भावप्रवण कविता  “सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प बावीस # 22 ☆

☆ साहित्य संवर्धनात मोबाईलचे योगदान ☆

 

सद्य परिस्थितीत माणूस माणसापासून मनाने दुरावत चालला आहे. त्याला  औपचारिक रित्या जोडून ठेवण्याचे महत्वाचे कार्य मोबाईल करतो आहे.  जे प्रत्यक्ष भेटीत बोलता येत नाही ते काम सामंजस्यानं ज्ञानवर्धक ससंदेशवहनातून मोबाईल सातत्याने करीत आहे. मदतीचा हात म्हणून  मोलाची भूमिका  मोबाईल पार पाडीतआहे .  दैनंदिन लेखन कला व्यासंग जोपासताना नोकरी,  व्यवसाय, सर्व  जबाबदाऱ्या पार पडतांना अनेक प्रकारे  विविध माध्यमातून हा मोबाइल गुरू, मित्र, प्रचारक,  प्रसारक  या भूमिकेतून मोबाईल व्यासंग वाढविण्यात  उपयोगी ठरतो.

नित्य लेखन करणारे  मोबाईल द्वारे  समाजात आपले साहित्य प्रसारित करीत आहेत.   मोबाईल, व्हाट्सएप, फेसबुक आणि सोशल मिडिया तंत्रज्ञानाचा वापर करून स्वतःला सिद्ध करीत आहे.

इतरांचे विविध विचार मत प्रवाह संग्रहीत करून त्यातून  कलाव्यासंग जोपासण्याची  आणि  आवश्यक ते  ज्ञान मिळवण्याची सेवा संधी मोबाईल मुळे मिळाली आहे.

साहित्यिक  ग्रुपची  महत्वपूर्ण  वैचारीक देवाण घेवाण  आणि लेखन प्रगती, कवितेचा प्रचार  आणि प्रसार करण्यात  मोबाईल ने उच्चांक गाठला आहे.  साहित्यिकांना आवश्यकता आहे.

सोशल नेटवर्किंग साईट वर सर्व साहित्यिकांच्या मुलाखती,  विविध  नवे जुने काव्य प्रकार  मोबाईल मधून वाचायला, लिहायला मिळतात.   त्यातून रसिक वाचक, साहित्यिक यांचे  अतूट स्नेहबंधन निर्माण होते.

अनेक स्पर्धा,  उपक्रम  यात सहभागी होण्याचे भाग्य केवळ मोबाईल मुळे मिळते.  कलावंतांचे कलागुण व अंगी असलेल्या साहित्य गुणांना,  त्यांच्या विचारांना नाव, गाव, वाव  आणि भाव देण्याचे महत्त्व पूर्ण कार्य मोबाईल करत आहे.

लेखन करायचे  म्हटले की अनेक गोष्टी जुळून याव्या लागतात. पण मोबाईल मुळे   फार काही विनासायास घडत आहे.  मोबाईल  अद्ययावत माहिती तंत्रज्ञानाचा आरसा आहे.  याच्यात डोकावणारे काळाचे भान विसरून जातात.  पण संयमाची कळ त्यांना हवे ते  मिळवण्याचा  अनुभव  आणि संधी  उपलब्ध करून देते. मोबाईल  खळाळणारी नदी. मोबाईल घनगर्द  अंबराई. मोबाईल  एक नयनमनोहर शब्द चित्र, रेखाचित्र,  भावदर्पण आणि बरेच काही. . . . !

समाज पारावरून मोबाईल हा विषय आता केवळ टिकेचे लक्ष्य नसून  साहित्य संवर्धन करणारे प्रभावी माध्यम ठरला आहे.

असा हा जिव्हाळ्याचा विषय  अतिरेक केला तर व्यसन  आणि प्रसंगी शापही ठरू शकतो. हा धोका टाळायचा कसा हे देखिल मोबाईल च शिकवतो.  कुणाशी काय, कधी, कसे किती बोलायचे  याचे अनुभव प्रचुर धडे मोबाईल  क्षणोक्षणी देत रहातो. माणूस सुजाण करण्यात मोबाईल यशस्वी झाला आहे.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 13 ☆ चंगी जान,जहान है ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी भावप्रवण  कविता  “चंगी जान,जहान है ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 13 ☆

☆ चंगी जान,जहान है  ☆

 

चंगी जान,जहान है ।

सेहत ही धनवान है ।।

 

मिलता किसको साथ यहाँ।

सोचो सभी अनाथ यहाँ।।

ईश्वर कृपा महान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

सबकी अपनी राह अलग।

भरी स्वार्थ से चाह अलग ।।

कहाँ बचा ईमान है ।।

चंगी जान,जहान है ।।

 

बातें केवल प्यार की ।

चाहत के इकरार की ।।

चढ़ती जो परवान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

सच से सब कतराते हैं।

जिन्दा झूठ पचाते हैं।।

कैसा अब इंसान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

मंज़िल सबकी एक यहाँ ।

राहें अपितु अनेक यहाँ ।।

तन की गति शमशान है ।

चंगी जान,जहान है ।।

 

होगा स्वस्थ अगर तन-मन।

तब होगा “संतोष” भजन।।

जीवन कर्म प्रधान है ।

चंगी जान,जहान है

चंगी जान,जहान है ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 7 ☆ लघुकथा – गलत सवाल ? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय  लघुकथा “गलत सवाल ?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 7 ☆

☆ लघुकथा – गलत सवाल ? ☆ 

 

बेटी कंप्यूटर इंजीनियर। प्रतिष्ठित कॉलेज से बी.ई.। मल्टीनेशनल कंपनी में चार वर्ष से साफ्टवेअर इंजीनियर के पद पर कार्यरत। छह महीने के लिए ऑनसाइट ड्यूटी पर मलेशिया भी जा चुकी है। पैकेज सालाना आठ लाख। अपनी सुंदर, संस्कारी लड़की को इंजीनियर बनाने में आठ–दस लाख तो खर्च कर दिए होंगे माता-पिता ने ?

शादी की विभिन्न वेबसाइट पर उनकी लड़की के योग्य जो लड़का ठीक लगता तो वे उसके माता–पिता का फोन नं. लेकर बातचीत शुरू करते। लड़की के पिता के प्रश्न होते – “लड़के का पैकेज कितना है? आपका अपना मकान है या किराए पर रहते हैं? लड़के की शादी कैसी करेंगे आप?”

“मतलब …………… ?”

“मतलब साफ है साहब – 20 लाख, 25 लाख, कितना खर्च करेंगे आप अपने लड़के की शादी में? मेरी बेटी इंजीनियर है बहुत खर्च किया है मैंने उसकी पढाई-लिखाई पर” – लडकी के पिता ने विनम्रता से कहा।

“क्या …………….?” और झटके से लड़केवालों का फोन कट जाता। किसी एक ने गुस्से से कहा – “ये कैसे बेहूदे  सवाल कर रहे हैं आप? लड़कीवाले हैं ना? भूल गए क्या?”

लड़की के पिता सकते में, यही सवाल तो पिछले दो साल से हर लड़के के माता–पिता उनसे पूछ रहे थे, मैंने पूछा तो क्या गलत किया?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 1 ☆ गीत – अभिनन्दन है ☆ – डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है। 

हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ राकेश जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक लाख पचास हजार के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। 

यह हमारे लिए गर्व की बात है कि डॉ राकेश ‘चक्र’ जी ने  ई- अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से अपने साहित्य को हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर लिया है। इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं उनका एक गीत   “अभिनन्दन है ”..)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 1 ☆

☆  अभिनंदन है  ☆ 

 

प्रीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वन्दन है,वंदन है,वन्दन है

 

जयति राष्ट्र गान हो

लय ललित विधान हो

प्रेम की प्रतीति का

मान, स्वाभिमान हो

 

मीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है, वंदन है, वंदन है

 

वीणा को तान दो

मधुरिम मुस्कान दो

पावन उजियारे को

नव नित पहचान दो

 

रीत भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है, वंदन है, वंदन है

 

नयनों में सागर हो

जीवन ये गागर हो

झरते ये झरनों का

नदियों सा जागर हो

 

कीर्ति भरे गीत का

अभिनंदन है

वंदन है , वंदन है ,वंदन है

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 23 – पान हिरवे… ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता पान हिरवे…  )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #23☆ 

 

☆  पान हिरवे… ☆ 

 

पान हिरवे झाडाचे

वा-यासंगे गाते गाणे

शिवाराच्या त्या मातीला

भेटायाचे पान म्हणे. . . . !

 

जाते बोलून मनीचे

झाड  बिचारे  ऐकते

ऊन वा-याचे तडाखे

बळ झुंजायाचे देते. .. . !

 

स्वप्न पाहण्यात दंग

पान हिरवे झाडाचे

वयानूरुप सरले

गूढ गुपित पानाचे. . . . . !

 

हळदीच्या रंगामध्ये

पान हिरवे नाहते

सोन पिवळ्या रंगात

रूप त्याचे पालटते. . . . !

 

झाडालाही हुरहुर

पान पिवळे होताना

रंग हिरवा देठात

मातीमध्ये पडताना. . . . !

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #24 ☆ आदत ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “आदत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #24 ☆

 

☆ आदत ☆

 

दिल में उथलपुथल मची हुई थी. वह बोला, “क्या सोच रहा है ? काट डाल.”
दिमाग ने कहा, “नहीं नहीं! तू ऐसा नहीं कर सकता है?” मगर दिल कब मानने वाल था. वह बोला, “उस ने पहली बार मोटरसाइकल की आगे की लाइट पर लगा नाम खुरेद दिया था. इस से मोटरसाइकल का आगे का हिस्सा भद्दा हो गया था.”
“तो?”
“दूसरी बार उस ने नए सीट कवर को चाकू से काट दिया था. वह तो तूने देखा था.”
“हां” दिमाग ने कहा, “चाकू अभी वही बरामदे के एक कोने में पड़ा है.” उस ने ऊपरी मंजिल से नीचे रखी नई मोटरसाइकल की ओर झांका.
“रात का समय है. कोई देख नहीं रहा है. मोटर साइकल नई है. उसे अपनी हरकत का जवाब मिलना चाहिए,” दिल ने कहा, “नीचे चल और उसी चाकू से उस की मोटरसाइकल की नई सीट को काट डाल.”
दिमाग ने नानुकूर की. मगर दिल की बात मान कर शरीर नीचे बरामदे तक चला आया. हाथ ने चाकू पकड़ लिया. दिल ने जोर दिया, “इधर उधर देख. काट दे.”
मगर, दिमाग ने आदेश नहीं दिया, “यदि सुबह ‘वह’ चिल्लाया कि मोटरसाइकल की सीट किस ने काटी, तब?”
“कह देना, उसी भूत ने काटी है जिस ने मेरी मोटरसाइकल की सीट काटी थी,” यह कह कर दिल मुस्कराया. मगर, दिमाग अभी भी यह बात मानने को तैयार नहीं था.
“नहीं. मैं यह नहीं कर सकता हूं.” उस ने दिल से कहा.
“जैसे के साथ वैसा करना चाहिए ताकि वह दूसरे के साथ वह नहीं करें जो तेरे साथ किया है,” दिल ने कहा तो दिमाग बोला, “वह अपनी आदत नहीं छोड़ सकता है तो मैं अपनी आदत क्यों छोड़ दूं?” कह कर दिमाग ने हाथ को कोई आदेश नहीं दिया.
दूसरे ही पल चाकू नई मोटरसाइकल की सीट पर पड़ा था और पैर शरीर को लिए हुए प्रथम मंजिल की ओर चल दिए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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