मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 8– ☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत”.  यह आलेख साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री इंदिरा संत जी  की रचनाओं पर आधारित है ।  थे। इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 8 ☆

☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे – कवयित्री इंदिरा संत☆ 

विसाव्या शतकातील एक नावारूपाला आलेली, राजमान्यता पावलेली कवयित्री म्हणून ‘इंदिरा संत’ ओळखल्या जातात. ४ जानेवारी १९१४ साली जन्मलेल्या ह्या थोर कवयित्रीने आपल्या संवेदनशील आणि सहजसुंदर लिखाणाने रसिकवाचनांवर मोहिनी तर घातलीच पण आपल्या आशयघन कविता, ललितगद्य लेखनाने मराठी साहित्यविश्व देखील अधिकच समृद्ध केले. ‘कविता हा माझ्या लेखनाचा आणि जगण्याचा गाभा आहे’ असे त्या स्वत:बद्दल म्हणत. ‘शेला’ ’मेंदी’ ’रंगबावरी’ह्या कवितासंग्रहांना राज्य शासनाचा पुरस्कार मिळाला तर त्यांच्या ‘गर्भरेशीम’ ह्या कविता संग्रहाला साहित्य अकादमीच्या पुरस्काराने गौरविले गेले. आज ह्या कवयित्रीची अतिशय गोड कविता घेऊन मी येतेय.

☆ निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे ☆

निवडुंगाच्या शीर्ण फुलाचे

झुबे लालसर ल्यावे कानी ;

जरा शीरावे पदर खोचुनी

करवंदीच्या जाळीमधुनी.

 

शीळ खोल ये तळरानातून

भणभण वारा चढ़णीवरचा;

गालापाशी झील्मील लाडीक

स्वाद जीभेवर आंबट कच्चा.

 

नव्हती जाणीव आणि कुणाची

नव्हते स्वप्नही कुणी असावे;

डोंगर चढ़णीवर एकटे

किती फीरावे… उभे रहावे.

 

पुन्हा कधी न का मिळायचे

ते माझेपण आपले आपण;

झुरते तन मन त्याच्यासाठी

उरते पदरी तीच आठवण…

 

निवडुंगाच्या लाल झुब्याची,

टपोर हिरव्या करवंदाची…

 

स्वैर बालपण, आपल्यातच दंग असलेली स्वप्नाळू, मुग्ध तारूण्यावस्था ह्या साऱ्याला मागे टाकत काळ भराभर पुढे जातो. अनेक जवाबदाऱ्या समर्थपणे पेलत कर्तेपणाची झूल आपल्या नकळतच आपण मिरवू लागतो. व्यवहाराची गणितं सोडवण्यात, य़शापयशाच्या नोंदी ठेवण्यात, जीवनाचा ताळेबंद मांडण्यात जीवाचं निवांतपण हरवल्यागत होतं. आणि मग आठव येतो तो त्या बेभान बेधुंद काऴाचा !

मन कघीच पोहोचतं त्या निवडुंगाच्या झाडापाशी. आणि असंख्य आठवणींचं मोहोळ एका क्षणात उडतं. लाल झुब्यांनी नटलेला तो निवडुंग, त्या टप्पोरल्या करवंदीच्या भरदार जाळ्या, ती डोंगराची चढण, तो दऱ्याखोऱ्यातून भणाणत्या वाऱ्याचा शीळभरला नाद, ती आंबट कच्ची करवंदाची गालात घोळणारी जीभेवर रेंगाळणारी चव, आणि स्वत:च्याच मस्तीतले स्वत:पलिकडे नसलेले बेधुंद मन ! किती वारा प्यावा, किती आसमंत निरखावा, आणि किती निसर्ग अंगावर घ्यावा…साऱ्याचा मनसोक्त आनंद लुटतांना कधी दुसऱ्या कुणाचा विचार  देखील

मनाला शिवला नाही आणि शिवणार कसा..स्वत:तच रमलेल्या मनात इतर कुणाचा शिरकाव होईलच कसा..!

पुन: ते सारं अनुभवावं ह्याची ओढ कवयित्रीला लागली आहे. तसं शांतपण, निवलेपण, भारलेपण, स्वमग्न बेधुंदपण पुन: जगता येईल का तेवढ्याच असोशीने असा एक हलका तरंगही मनात तिच्या उमटून जातो.

*पुन्हा कधी न का मिळायचे

ते माझेपण आपले आपण

झुरते तनमन त्याच्यासाठी

उरते पदरी तीच आठवण*

ह्यातून तिची साशंकता तिने व्यक्त केलीय. सारी बंधनं झुगारून द्यावीत, काळाची पावलं उलटी पडावीत, पुन: एकदा ते स्वैर क्षण अनुभवावे, रसरसून जगावे, कधी तरी आपल्याही मनात असं तरळून जातंच ना !

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #24 – कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक  भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल  “कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 24 ☆

 

☆ कुर्बान जिस्म जाँ ये, मेरी यहाँ वतन पर ☆

 

कुर्बान जिस्म जाँ ये मेरी यहाँ वतन पर

मैं नाम खुद लिखूंगा मेरा वहाँ कफ़न पर

 

मैं हाथ तोड़ दूंगा गद्दार के कसम से

कोई न हाथ डाले अब देश की बहन पर

 

झंडा सफे़द लेकर शव को उठाने आओ

गिनलो निशान सारे ना’पाक’ इस बदन पर

 

बारूद कम हुआ है अल्लाह की फ़जल से

अब फूल ही खिलेंगे कश्मीर के चमन पर

 

दुनिया समझ गई है दमख़म यहाँ हमारा

अब नाम हिंद का मैं लिख दूं वहाँ गगन पर

 

शांति की राह पर हम चलते रहे निरंतर

विश्वास है हमारा गांधी के उस भजन पर

 

भूखा किसान क्यो है इसका जवाब चुप्पी

कुछ साथ दे रहे हैं नेता बडे गबन पर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 24 – आज  की नारी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर  आलेख   “आज  की नारी ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 24 ☆

☆ लेख – आज  की नारी ☆

कविवर जयशंकर प्रसाद की रचना है –

” नारी तुम केवल श्रद्धा हो

विश्वास रजत नग पग तल में,

पीयूष स्रोत सी बहा करो

जीवन के सुंदर समतल में।”

यूं तो सबके जीवन में कोई ना कोई कहानी अवश्य ही होती है। किसी की लंबी, किसी की छोटी  कोई रोचक, भाव प्रद, तो कोई हृदयस्पर्शी। कोई बहुत ही आक्रमक, तो कोई आकर्षण से परिपूर्ण। कोई ममता से सरोकार तो कोई हृदय विहीन। परंतु यह सब भावनाएं, कहानियाँ जिसके आसपास होती हैं वो है नारी।

परमात्मा ने हमको इस मानवीय काया के रूप में जो अनुपम उपहार दिया है। उसकी तुलना किसी भी अन्य अनुदान से कर पाना संभव नहीं है। वो जीवन जिसे प्राप्त करने के लिए देवी-देवता भी लालायित रहते हैं वह है मनुष्य जीवन। मनुष्य जीवन के रूप में मिले अवसर को यदि सौभाग्य का नाम दिया जाए तो उसे ही नारी कहा जाता है।

*यत्र नारी पूज्यंते रमंते तत्र देवता*

अर्थात जहां नारी (सृष्टि) की पूजा होती है। वहां देवता अपने आप निवास करते हैं। और नारी की गरिमा को आज सहज ही स्वीकारा जाता है। धरती माता से लेकर भारत माता, मां गंगा से लेकर मां गायत्री देवी तक नारी शक्ति का ही चित्रण और पूजन होता है। यदि कोई जीवन चाहता है और इस पृथ्वी पर उसे आना है तो बिना मां (नारी) के कृपा पात्र के बिना यह संभव नहीं हो सकता है।

नारी भारतीय संस्कृति का आधार स्तंभ है। अपने प्राणों कि न्योछावर कर उन्होंने संपूर्ण सृष्टि में अपना स्थान देवी के रूप में स्थापित कर लिया है। तभी शास्त्रों में पूजनीय है। इतिहास साक्षी है जब-जब घोर संकट का सामना करना पड़ा है, नारी शक्ति ही सामने आकर उनका संहार करती है।जब-जब उनकी परीक्षा लेनी चाही तब-तब उन्होंने पुरुष बल को ही अपना हथियार बना लिया। याद करिए माता अनुसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने स्वयं ब्रह्मा  विष्णु और शिव जी आए। मां अनुसूया ने अपने पतिव्रत धर्म और अपने पति की ताकत का वास्ता देकर तीनों भगवान को बाल रूप में कर लिया था। और अपने धर्म का पालन किया था। नारी शक्ति संपूर्ण ब्रह्मांड को हिला सकती है। आज भारतीय समाज को ऐसे ही संकल्प की धनी नारी की आवश्यकता है। जिसके संकल्प बल से त्रिमूर्ति को झुकना पड़े।

नारी सृष्टि निर्माता की आदित्य रचना है। नारी के अभाव में सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह एक ऐसा छायादार वृक्ष है जिसकी छाया के अभाव में मनुष्य अपनी आशा- आकांक्षाओं के विषय में उदासीन ही रहेगा। प्रत्येक माता-पिता की इच्छा होती है कि उनके यहां संतान उत्पन्न हो। संतान के अभाव में परिवार अपूर्ण रहता है। जिस घर के आंगन में बच्चों की किलकारियां नहीं गूंजती, वह घर बिना सुगंधी के पुष्प के समान दिखाई देता है। यह संतान रूपी धन दो रूपों में प्राप्त होता है:-पुत्र  अथवा पुत्री। पहले हमेशा से देखा जाता रहा कि माता-पिता पुत्र की कामना करते थे। पर अब समय बदल गया है बेटा हो या बेटी माता पिता अपने बच्चे के लिए सुंदर स्वस्थ और स्वावलंबी जीवन की कामना करते हैं। पुराने समय से कुछ तो अंतर आ गया है। अब समाज में यह कहा जाने लगा कि “मेरी बेटी मेरा अभिमान” मेरा गर्व और क्यों ना हो वर्तमान स्वरूप में आज हम देख रहे हैं कि राजनीति के क्षेत्र में, शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में, समाज सेवा के क्षेत्र में, हवाई सेवा से लेकर रेल सेवा और अन्य उद्योग धंधों के विकास में भी नारी अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। किसी ने सच ही कहा है :-

 “एक कदम जो मेरा बढाओगे

दस कदम स्वयं आगे बढ़ा लूंगी मैं,

प्रोत्साहन व सहयोग जो दोगे

अंतरिक्ष कर दिखा दूंगी मैं”

अक्सर हमें ज्ञान मिलता है कि दो रूपों को जाना जाता है। (1)आकृति (2)प्रकृति। आकृति को समझना बड़ा ही आसान है कि बाहरी वातावरण, एक रूप, रंग, बनावट जिस की संरचना हो, इसी को आकृति कहते हैं। और जब प्रकृति कहा जाता है तब इसकी आंतरिक रचना जिसमें सारा सृष्टि समाया हुआ है और इसी सृष्टि का नाम ही *नारी* है, जिसके लिए स्वयं ब्रह्मदेव ने भी कहे हैं:-

 “देख जिसकी शक्ति को।

भयभीत होता दुष्ट दल हो।।

नारी तुम ही कल।

आज और कल हो।।

संगठन की शक्ति।

विचारों का मंथन हो।।

नारी तुम ही इस सृष्टि में।

नव पल्लव हो।।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # दो ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आज से दस अंकों में आप तक उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # दो ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

हम श्रीधाम स्टेशन से बाहर आए और मुंशीलाल पाटकार  टिकट बुक करने बुकिंग आफिस चले गये, उन्हें अपनी पुत्री की सासू मां की त्रयोदशी में शामिल होने एक दिन के लिए आमला जाना था। हम बाहर आकर आटो में बैठे ही थे कि एक पैंट शर्ट पहने लगभग अधेड़ उम्र का पुरुष हमारे पास आया, उसने नमस्कार कर हाथ मिलाया और नर्मदे हर के उदघोष के साथ पूंछा कि परिक्रमा कहां से उठानी है। हमने बताया कि झांसी घाट खमरिया से उठायेंगे और हम बिना किसी धार्मिक कर्मकांड के नर्मदा यात्रा कतिपय सामाजिक सरोकारों की पूर्ति हेतु करते हैं। यह सुन वह कुछ पल बैठकर चला गया। बाद में हमें समझ में आया कि वह किसी स्थानीय पंडा का एजेंट रहा होगा और परिक्रमा के कर्मकांड करवाने के उद्देश्य से हमसे संपर्क कर रहा था। हम पांच आटो रिक्शा में सवार होकर कोई तीन बजे  अपने गंतव्य स्थल पहुंचे चाय पी, अगरबत्ती और नारियल लिया, तट पर गये।  नर्मदा पूजन की जिम्मेदारी अग्रवालजी ने उठाई, हम सबने मां नर्मदा को प्रणाम किया और तीरे-तीरे आगे बढ़ चले। रास्ते भर फसल बोने के लिए तैयार खेत तो कहीं मत्स्याखेट करते, सुर्ख काले रंग पर सुगठित शरीर धारी, बर्मन युवक दिखे।

साढ़े तीन बजे चले होंगे और लगभग छह बजे छह किलोमीटर की यात्रा कर बेलखेड़ी गांव के शिव मंदिर पहुंच गए। मंदिर पुराना है और लगता है गौंडकालीन है। अधेड़ रघुवीर सिंह लोधी इसकी देखभाल करते हैं। युवावस्था में उनकी बांह के उपर से ट्रेक्टर निकल गया था, फ्रैक्चर तो ठीक हो गये पर सारे दांत गिर गये। उन्होंने शिवमन्दिर के बरामदे में चटाई बिछा दी और हम लोगों ने अपना बिस्तर जमाया। भोजन बनाने वे गांव से एक दो लोगों को ले आये। अरहर की दाल, चावल और मोटे टिक्कड़ का भोजन किया। लकड़ी के चूल्हे पर पकी रोटियों का स्वाद अलग ही होता है।

भोजन कर विश्राम की तैयारी में थे ही कि गांव से आठ-दस लोग आ गये, गांधी चर्चा और महाभारत की कथाएं सुनाने का दायित्व सुरेश पटवा ने लिया, मैंने भी गांधीजी के दो चार संस्मरण सुनाये। बड़े दिनों बाद जमीन में सोये तो नींद न आई। सुबह सबेरे नर्मदा के पूर्वी तट से सूर्योदय देख मन आनंदित हो गया। चटक लाल रंग की अरुणिमा बिखेरते आदित्य की किरणों ने जब नर्मदा के आंचल को छुआ तो सम्पूर्ण जलराशि कंचन हो गई। मनोहर दृश्य था, अफसोस कि मोबाइल पास न था और फोटो न ले सका।

कंचनजंघा की प्रसिद्धि सुनी थी यह तो कंचन नीर  है। उधर शिवमन्दिर के गर्भगृह में शिव पिंडी के अलावा तीन मूर्तियां  हैं, सूर्य अपने सात घोड़ों के साथ  प्रतिमा में विराजित हैं, आदित्य की किरणें सबसे पहले इसी मूर्त्ति का चुंबन करती हैं। एक अन्य प्रतिमा मां सरस्वती की है तो तीसरी प्रतिमा में मकर वाहिनी नर्मदा के दर्शन होते हैं। कोई आठ बजे हमने शिव मंदिर को छोड़ा तो रघुवीर सिंह ने दिन भर रुकने का आग्रह किया पर दिन में रुकना कहां सम्भव है और हम उनके मुख से रमता जोगी बहता पानी जे रुकें तो गाद हो जायं लोकोक्ति सुनकर अगले ठौर की ओर निकल पड़े। 06.11.2019 की  भ्रमण कहानी यहीं समाप्त हो गई।

 

नर्मदे हर!

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #24 – जबाबदार कौन नेतृत्व ? या नीतियां ? ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “जबाबदार कौन नेतृत्व ? या नीतियां ?  ”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 24 ☆

☆ जबाबदार कौन नेतृत्व ? या नीतियां ?

कारपोरेट मैनेजर्स की पार्टीज में चलने वाला जसपाल भट्टी का लोकप्रिय व्यंग है, जिसमें वे कहते हैं कि किसी कंप,नी में सी एम डी के पद पर भारी भरकम पे पैकेट वाले व्यक्ति की जगह एक तोते को बैठा देना चाहिये, जो यह बोलता हो कि “मीटिंग कर लो”, “कमेटी बना दो” या  “जाँच करवा लो “. यह सही है कि सामूहिक जबाबदारी की मैनेजमेंट नीति के चलते शीर्ष स्तर पर इस तरह के निर्णय लिये जाते हैं, पर विचारणीय है कि  क्या कंपनी नेतृत्व से कंपनी की कार्यप्रणाली में वास्तव में कोई प्रभाव नही पड़ता ? भारतीय परिवेश में यदि शासकीय संस्थानो के शीर्ष नेतृत्व पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि नौकरी की उम्र के लगभग अंतिम पड़ाव पर, जब मुश्किल से एक या दो बरस की नौकरी ही शेष रहती है, तब व्यक्ति संस्थान के शीर्ष पद पर पहुंच पाता है. रिटायरमेंट के निकट इस उम्र के टाप मैनेजमेंट की मनोदशा यह होती है कि किसी तरह उसका कार्यकाल अच्छी तरह निकल जाये, कुछ लोग अपने निहित हितो के लिये पद का दोहन करने की कार्य प्रणाली अपनाते हैं, कुछ शांति से जैसा चल रहा है वैसा चलने दिया जावे और अपनी पेंशन पक्की रखी जावे की नीति पर चलते हैं. वे नवाचार को अपनाकर विवादास्पद बनने से बचते हैं. कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो मनमानी करने पर उतर आते हैं, उनकी सोच यह होती है कि कोई उनका क्या कर लेगा ?  उच्च पदों पर आसीन ऐसे लोग अपनी सुरक्षा के लिये राजनैतिक संरक्षण ले लेते हैं, और यहीं से दबाव में गलत निर्णय लेने का सिलसिला चल पड़ता है. भ्रष्टाचार के किस्से उपजते हैं. जो भी हो हर हालत में नुकसान तो संस्थान का ही होता है.

इन स्थितियों से बचने के लिये सरकार की दवा स्वरूप सरकारी व अर्धसरकारी संस्थानो का नेतृत्व आई ए एस अधिकारियों को सौंप दिया जाता है. संस्थान के वरिष्ठ अधिकारियों में यह भावना होती है कि ये नया लड़का हमें भला क्या सिखायेगा ? युवा आई ए एस अधिकारी को निश्चित ही संस्थान से कोई भावनात्मक लगाव नही होता, वह अपने कार्यकाल में कुछ करिश्मा कर अपना स्वयं का नाम कमाना  चाहता है, जिससे जल्दी ही उसे कही और बेहतर पदांकन मिल सके. जहां तक भ्रष्टाचार के नियंत्रण का प्रश्न है, स्वयं रेवेन्यू डिपार्टमेंट जो आई ए एस अधिकारियों का मूल विभाग है, पटवारी से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा है, फिर भला आई ए एस अधिकारियों के नेतृत्व से किसी संस्थान में भ्रष्टाचार नियंत्रण कैसे संभव है ? आई ए एस अधिकारियों को प्रदत्त असाधारण अधिकारों, उनके लंबे विविध पदों पर संभावित सेवाकाल के कारण, संस्थान के आम कर्मचारियों में भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है. मसूरी के आई ए एस अधिकारियों के ट्रेनिंग स्कूल की, अंग्रेजो के समय की एक चर्चित ट्रेनिंग यह है कि एक कौए को मारकर टांग दो, बाकी स्वयं ही डर जायेंगे, मैने अनेक बेबस कर्मचारियों को इसी नीति के चलते बेवजह प्रताड़ित होते हुये देखा है, जिन्हें बाद में न्यायालयों से मिली विजय इस बात की सूचक है कि भावावेश में शीर्ष नेतृत्व ने गलत निर्णय ही लिया था. मजेदार बात है कि हमारे वर्तमान सिस्टम में शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिये गये गलत निर्णयो हेतु उन्हे किसी तरह की कोई सजा का प्रवधान ही नही है. ज्यादा से ज्यादा उन्हें उस पद से हटा कर एक नया वैसा ही पद किसी और संस्थान में दे दिया जाता है. इसके चलते अधिकांश आई ए एस अधिकारियों की अराजकता सर्वविदित है. सरकारी संस्थानो के सर्वोच्च पदो पर आसीन लोगो का कहना यह होता है कि उनके जिम्में तो केवल इम्प्लीमेंटेशन का काम है नीतिगत फैसले तो मंत्री जी लेते हैं, इसलिये वे कोई रचनात्मक परिवर्तन नही ला सकते.

कार्पोरेट जगत के निजी संस्थानो की बात करें तो हम पाते हैं कि मध्यम श्रेणी के संस्थानो में मालिक का एकाधिकार व वन मैन शो हावी है, पढ़े लिखे टाप मैनेजर भी मालिक या उसके बेटे की चाटुकारिता में निरत देखे जाते हैं. एम एन सी अपनी बड़ी साइज के कारण कठनाई में हैं. शीर्ष नेतृत्व अंतर्राष्ट्रीय बैठकों, आधुनिकीकरण, नवीनतम विज्ञापन, संस्थान को प्रायोजक बनाने, शासकीय नीतियों में सेध लगाकर लाभ उठाने में ही ज्यादा व्यस्त दिखता है. वर्तमान युग में किसी संस्थान की छबि बनाने, बिगाड़ने में मीडीया का रोल बहुत महत्वपूर्ण है, हमने देखा है कि रेल मंत्रालय में लालू यादव ने अपने समय में खूब नाम कमाया, कम से कम मीडिया में उनकी छबि एक नवाचारी मंत्री की रही. आई सी आई सी आई के शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन से उस संस्थान के दिन बदलते भी हमने देखा है. शीर्ष नेतृत्व हेतु आई आई एम जैसे संस्थानो में जब कैम्पस सेलेक्शन होते हैं तो जिस भारी भरकम पैकेज के चर्चे होते हैं वह इस बात का द्योतक है कि शीर्ष नेतृत्व कितना महत्वपूर्ण है.  किसी संस्थान में काम करने वाले लोग तथा संस्थान की परम्परागत कार्य प्रणाली भी उस संस्थान के सुचारु संचालन व प्रगति के लिये बराबरी से जवाबदार होते हैं. कर्मचारियों के लिये पुरस्कार, सम्मान की नीतियां उनका उत्साहवर्धन करती हैं. कर्मचारियों की आर्थिक व ईगो नीड्स की प्रतिपूर्ती औद्योगिक शांति के लिये बेहद जरूरी है, नेतृत्व इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है.

राजीव दीक्षित  भारतीय सोच के एक सुप्रसिद्ध विचारक हैं, व्यवस्था सुधारने के प्रसंग में वे कहते हैं कि “यदि कार खराब है तो उसमें किसी भी ड्राइवर को बैठा दिया जाये, कार तभी चलती है जब उसे  धक्के लगाये जावें.”  प्रश्न उठता है कि किसी संस्थान की प्रगति के लिये, उसके सुचारु संचालन के लिये सिस्टम कितना जबाबदार है? हमने देखा है कि विगत अनेक चुनावों में पक्ष विपक्ष की अनेक सरकारें बनी पर आम जनता की जिंदगी में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नही आ सके. लोग कहने लगे कि सांपनाथ के भाई नागनाथ चुन लिये गये. कुछ विचारक  भ्रष्टाचार जैसी समस्याओ को  लोकतंत्र की विवशता बताने लगे हैं, कुछ इसे वैश्विक सामाजिक समस्या बताते हैं. कुछ इसे लोगो के नैतिक पतन से जोड़ते हैं. आम लोगो ने तो भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेककर इसे स्वीकार  ही कर लिया है, अब चर्चा इस बात पर नही होती कि किसने भ्रष्ट तरीको से गलत पैसा ले लिया, चर्चा यह होती है कि चलो इस इंसेटिव के जरिये काम तो सुगमता से हो गया. निजी संस्थानों में तो भ्रष्टाचार की एकांउटिग के लिये अलग से सत्कार राशि, भोज राशि, गिफ्ट व्यय आदि के नये नये शीर्ष तय कर दिये गये हैं. सेना तक में भ्रष्टाचार के उदाहरण देखने को मिल रहे हैं. क्या इस तरह की नीति स्वयं संस्थान और सबसे बढ़कर देश की प्रगति हेतु समुचित है ?

विकास में विचार एवं नीति का महत्व सर्वविदित है, इस सबसे महत्वपूर्ण हिस्से को हमने जनप्रतिनिधियों को सौंप रखा है. एक ज्वलंत समस्या बिजली की है इसे ही लें, आज सारा देश बिजली की कमी से जूझ रहा है, परोक्ष रूप से इससे देश की सर्वांगीण प्रगति बाधित हुई है. बिजली, रेल की ही तरह राष्ट्रव्यापी सेवा व आवश्यकता है बल्कि रेल से कहीं बढ़कर है, फिर क्यों उसे टुकड़े टुकड़े में अलग अलग बोर्ड, कंपनियों के मकड़ जाल में उलझाकर रखा गया है, क्यों राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय विद्युत सेवा जैसी कोई व्यवस्था अब तक नही बनाई गई ? समय से भावी आवश्यकताओ का सही पूर्वानुमान लगाकर क्यों नये बिजली घर नही बनाये गये ? इसका कारण बिजली व्यवस्था का खण्ड खण्ड होना ही है, जल विद्युत निगम अलग है, तापबिजली निगम अलग, परमाणु बिजली अलग, तो वैकल्पिक उर्जा उत्पादन अलग हाथों में है, उच्चदाब वितरण, निम्नदाब वितरण अलग हाथों में है. एक ही देश में हर राज्य में बिजली दरों व बिजली प्रदाय की  स्थितयों में व्यापक विषमता है. केंद्रीय स्तर पर  राष्ट्रीय सुरक्षा व आतंकी गतिविधियों के समन्वय में जिस तरह की कमियां उजागर हुई हैं ठीक उसी तरह बिजली के मामले में भी  केंद्रीय समन्वय का सर्वथा अभाव है. जिसका खामियाजा हम सब भोग रहे हैं. नियमों का परिपालन केवल अपने संस्थान के हित में किये जाने की परंपरा गलत है. यदि शरीर के सभी हिस्से परस्पर सही समन्वय से कार्य न करे तो हम नही चल सकते, विभिन्न विभागों की परस्पर राजस्व, भूमि या अन्य लड़ाई के कितने ही प्रकरण न्यायालयों में हैं, जबकि यह एक जेब से दूसरे में रुपया रखने जैसा ही है. इस जतन में कितनी सरकारी उर्जा नष्ट हो रही है, ये तथ्य विचारणीय है. पर्यावरण विभाग के शीर्ष नेतृत्व के रूपमें टी एन शेषन जैसे अधिकारियों ने पर्यावरण की कथित रक्षा के लिये तत्काकलीन पर्यावरणीय नीतियों की आड़ में बोधघाट परियोजना जैसी जल विद्युत उत्पादन परियोजनाओ को तब अनुमति नही दी, निश्चित ही इससे उन्होने स्वयं अपना नाम तो कमा लिया पर इससे बिजली की कमी का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह अब तक थमा नही है. बस्तर के जंगल सुदूर औद्योगिक महानगरों का प्रदूषण किस स्तर तक दूर कर सकते हैं यह अध्ययन का विषय हो सकता है, पर हां यह स्पष्ट दिख रहा है कि आज विकास की किरणें न पहुंच पाने के कारण ये जंगल नक्सली गतिविधियो का केंद्र बन चुके हैं. आम आदमी भी सहज ही समझ सकता है कि प्रत्येक क्षेत्र का संतुलित, विकास होना चाहिये. पर हमारी नीतियां यह नही समझ पातीं.  मुम्बई जैसे नगरो में जमीन के भाव आसमान को बेध रहे हैं. प्रदूषण की समस्या, यातायात का दबाव बढ़ता ही जा रहा है. आज देश में जल स्त्रोतो के निकट नये औद्योगिक नगर बसाये जाने की जरूरत है, पर अभी इस पर कोई काम नही हो रहा !

आवश्यकता है कि कार्पोरेट जगत, व सरकारी संस्थान अपनी सोशल रिस्पांस्बिलिटि समझें व देश के सर्वांगीण हित में नीतियां बनाने व उनके इम्प्लीमेंटेशन में शीर्ष नेतृत्व राजनेताओ के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपनी भूमिका निर्धारित करें, देश के विभिन्न संस्थानों की प्रगति देश की प्रगति की इकाई है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #- 23 – कॉपी ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  शिक्षिका के कलम से एक भावप्रवण कविता  – “कॉपी। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 23☆ 

 

 ☆ कॉपी ☆

 

कॉपी मुक्त शिक्षणाची

आज मांडली से थट्टा ।

पेपर फुटीला ऊधान

लावी गुणवत्तेला बट्टा।

 

गरिबाचं पोरं  वेडं

दिनरात अभ्यासानं।

ऐनवेळी रोवी झेंडा

गठ्ठेवाला धनवान ।

 

सार्‍या शिक्षणाचा सार

गुण   सांगती शंभर।

चाकरीत  बिरबल

सत्ताधारी अकबर।

 

कॉपी पुरता अभ्यास

चार दिवसाचे सत्र।

ठरविते गुणवत्ता

गुणहीन  गुणपत्र।

 

उन्नतीस खीळ घाली

कॉपी नामक वळंबा।

नाणे पारखावे जसे

राजे शिवाजी नि संभा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 24 – व्यंग्य – पत्रिका के साझेदार ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने एक ऐसे पडोसी चरित्र के मनोविज्ञान का अध्ययन किया है, जिसकी मानसिकता गांठ के पैसे  से कुछ भी  खरीदने की है ही नहीं। पत्रिका तो मात्र संकेत है। यदि आप ऐसी मानसिक बीमारी के चरित्र को जानना चाहते हैं तो आपको इस  व्यंग्य को अंत तक पढ़ना चाहिए एक जासूस पाठक की तरह। मेरा दवा है आप कुछ नया ही निष्कर्ष निकालेंगे। डॉ परिहार जी के व्यंग्य के चश्में से ऐसे चुनिंदा चरित्र  तो कदाचित बच ही नहीं सकते। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “पत्रिका के साझेदार”.)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 24 ☆

☆ व्यंग्य  – पत्रिका के साझेदार   ☆

 

शर्मा जी ने टेबिल पर रखी ‘ज्योति’ पत्रिका उठा ली,बोले, ‘नियमित मंगाते हैं क्या?’

‘हाँ’, मैंने कहा।

‘बहुत बढ़िया’, उन्होंने पन्ने पलटते हुए कहा। थोड़ी देर बाद वे उठ खड़े हुए, बोले, ‘ज़रा इसे ले जा रहा हूँ। पढ़कर लौटा दूँगा।’

वह पत्रिका का नया अंक था। मैंने मुरव्वत के मारे दे दिया। तीन दिन बाद पत्रिका वापस आयी, जवान से बूढ़ी होकर।

फिर हालत यह हुई कि पत्रिका का नया अंक आने के दूसरे दिन शर्मा जी के चिरंजीव दरवाज़े पर उपस्थित होने लगे। ‘बाबूजी ने पत्रिका मंगायी है।’  चिरंजीव पुराना अंक वापस लेकर आते और नये की मांग पेश करते।

धीरे धीरे शर्मा जी ने समय-अन्तराल को छोटा करना शुरू किया और इतनी प्रगति की कि इधर ‘हॉकर’ अंक देकर गया और उधर उनके चिरंजीव उसे मांगने के लिए प्रकट हुए। किसी तरह  टाल-टूल कर दूसरे दिन तक अपने पास रख पाता।

फिर एक बार अंक नहीं आया। मैं इंतज़ार करता रहा। एक दिन ‘हॉकर’ रास्ते में टकराया तो मैंने अंक के बारे में पूछा। वह आश्चर्य से बोला, ‘आपको मिला नहीं क्या? शर्मा जी ने मुझसे रास्ते में ले लिया था। कहा था कि आपको दे देंगे।’

मैंने झल्लाकर उसे आगे के लिए वर्जित किया और शर्मा जी के घर से पत्रिका मंगायी। वह राणा सांगा की काया लिये हुए आयी। शर्मा जी ने खेद का कोई शब्द नहीं भेजा।

अगले अंक के पदार्पण के साथ ही चिरंजीव फिर हाज़िर। मैंने चिढ़कर  कहा, ‘बाबूजी से कहना पहले मैं पढ़ूँगा फिर दूँगा। इतनी जल्दी मत आया करो।’

दूसरे दिन रास्ते में शर्मा जी मिले तो मुँह टेढ़ा करके निकल गये। दुआ-सलाम भी नहीं हुई। करीब पंद्रह दिन तक यही चला। वे मुझे पूर्व की ओर से आते देखते तो पश्चिम दिशा का अवलोकन करने लगते। मैंने भी कमर कस ली। उनका ही रास्ता पकड़ लिया। मैं भी उनको अपना मुख दिखाने के बजाय पीठ दिखाने लगा।

शर्मा जी समझ गये कि तरीका गलत हो गया, इस तरह तो पत्रिका के निःशुल्क पठन से गये। उन्होंने रुख बदला। एक दिन बत्तीसी हमारी तरफ घुमायी, बोले, ‘क्या बात है भाई? आजकल कुछ कुपित हो क्या? बातचीत भी नहीं होती।’

मैंने कहा, ‘आप ही कहाँ बातचीत करते हैं, महाराज। मुझसे क्या कहते हैं?’

वे मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘अरे नहीं भाई, कुछ घरेलू परेशानियाँ आ गयी थीं। चिन्ताओं में मग्न रहता था। आप तो हमारे बंधु हैं।’

चिरंजीव फिर दरवाज़े पर दस्तक देने लगे, लेकिन थोड़ी सावधानी के साथ।

पत्रिका का एक अंक जो शर्मा जी की सेवा में गया तो कई दिन तक लौट कर नहीं आया। उसे मैं सुरक्षित रखना चाहता था। मैंने एक दिन उसके लिए शर्मा जी के घर के तीन चक्कर लगाये। शर्मा जी तीनों बार नहीं मिले। गाँव से उनके पिताजी पधारे थे, तीनों बार उन्हीं से साक्षात्कार हुआ। सफेद नुकीली मूँछों वाले तेज़-तर्रार आदमी।

पहली बार उन्होंने पूछा, ‘कहिए भइया जी, क्या काम है?’ मैंने कहा, ‘ज़रा एक पत्रिका लेनी थी।’ वे बोले, ‘बबुआ थोड़ी देर में आ जाएगा। तब पधारें।’ बबुआ तो नहीं मिला, तीनों बार बाबूजी ही मिले। तीसरी बार तनिक भृकुटि वक्र करके बोले, ‘आप पत्रिका खरीद क्यों नहीं लिया करते?’  मैंने उन्हें समझाया कि उनके सुपुत्र के पास जो पत्रिका है वह दास की गाढ़ी कमाई से खरीदी हुई है। उन्होंने तुरंत नरम होकर खेद प्रकट किया। पत्रिका का वह अंक अंतर्ध्यान ही रहा। शर्मा जी से पूछने पर उत्तर मिलता, ‘हाँ, ढूँढ़ रहा हूँ।’

फिर एक दिन वह अंक खुद हमारे घर में प्रकट हुआ। उस पर मेरे छोटे सुपुत्र की कुछ कलाकारी थी, इसलिए पहचान गया। मैंने पूछा, ‘यह कहाँ से आयी? यह तो अपनी है।’ मेरा बड़ा पुत्र बोला, ‘लेकिन यह तो मैं खरे साहब के यहाँ से पढ़ने को लाया हूँ।’ मैंने खरे साहब से कहलवाया कि वह पत्रिका मेरी है। खरे साहब भागे भागे आये, बोले, ‘नहीं साहब, आपकी कैसे हो सकती है? यह तो हम जोशी जी के घर से लाये थे।’ मैंने कहा, ‘आप चाहे जोशी जी से लाये हों या जोशीमठ से, यह पत्रिका मेरी है और मैं इस पर पुनः अपना अधिकार स्थापित करना चाहता हूँ।’ वे बहुत घबराये, बोले, ‘ऐसा गज़ब मत करिए। मैं इसे जोशी जी को वापस कर देता हूँ। आप उनसे बखुशी ले लीजिए।’

मैंने जासूस का चोला पहना और पता लगाया कि यह गंगा कौन कौन से घाटों से बहती हुई घूमकर अपने उद्गम पर आयी थी। पता चला कि वह अंक शर्मा जी के घर से चलकर सिंह साहब, दुबे जी, रावत साहब, सिन्हा साहब तथा जोशी जी के यहाँ होता हुआ खरे साहब के घर अवतरित हुआ था। बीच की कोई कड़ी मुझे उस पत्रिका का मालिक मानने को तैयार नहीं हुई, इसलिए मैंने उसे ‘थ्रू प्रापर चैनल’ शर्मा जी के घर की तरफ ढकेलना शुरू किया। लेकिन वह अंक वापस शर्मा जी तक नहीं पहुंचा। लौटते लौटते वह बीच में कहीं तिरोहित हो गया और अब तक गुमशुदा है।

शर्मा जी से जब मैं आखिरी बार शिकायत करने गया तो उन्होंने गहन खेद प्रकट किया,यहाँ तक कि वे खेद प्रकट करते हुए मेरे साथ चलकर मुझे घर तक छोड़ गये। लौटते समय मेरे फाटक पर रुककर उन्होंने सिर खुजाया, फिर अपनी टटोलती आँखों को मेरे चेहरे पर गड़ाकर बोले, ‘नया अंक तो पढ़ चुके होंगे?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #21 – गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
(We present an English Version of this Hindi Article “गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ”  as ☆ In an attempt to scare away the vulture ☆.  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 20☆

☆ गिद्ध को उड़ाने की कोशिश में ☆

कहानियों के पात्र प्राय: हमारे इर्द-गिर्द होते हैं, हमारे परिवेश में होते हैं। पात्र की पड़ताल कीजिए तो संबंधित साहित्यकार बताएगा/गी कि यह पात्र उसके मोहल्ले में रहता था। फलां पात्र के बारे में एक मित्र ने बताया था, अर्थात कहानियों के पात्र वास्तविक जीवन से कागज़ पर उतरते हैं। पात्र, पाठक की संवेदना के साथ जुड़ जाता है। पात्र के जीवन की घटनाओं पर आह और वाह, पाठक की  अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं।

विसंगति है कि कहानी के पात्र के साथ संवेदना रखने वाला अपितु संवेदना जीने वाला वास्तविक जीवन में पात्रों की दुर्दशा में यह कहकर दख़लअंदाज़ी करने से मना कर देता है कि यह सम्बंधित पात्र का निजी मामला है।

इस संदर्भ में प्रतिभाशाली पर दुर्भाग्यवान फोटोग्राफर केविन कार्टर का याद आना स्वाभाविक है। केविन 1993 में सूडान में भुखमरी की ‘स्टोरी'(!) कवर करने गए थे। भुखमरी से मरणासन्न एक बच्ची के पीछे बैठकर उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे गिद्ध की फोटो उन्होंने खींची थी। (विचलित करने वाली यह तस्वीर मैं साझा नहीं कर रहा हूँ।) इस तस्वीर ने दुनिया का ध्यान सूडान की ओर खींचा। केविन को इस फोटो के लिए पुलित्जर सम्मान भी मिला। बाद में एक टीवी शो के दौरान जब केविन इस गिद्ध के बारे में बता रहे थे तो एक दर्शक की टिप्पणी ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया। उस दर्शक ने कहा था, ‘ उस दिन वहाँ दो गिद्ध थे। दूसरे के हाथ में कैमरा था।’ माना जाता है कि बाद में ग्लानिवश केविन अवसाद में चले गए। एक वर्ष बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली। यद्यपि अपने आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र में केविन ने इस बात का उल्लेख किया था कि इस फोटो के कारण ही सूडान को संयुक्त राष्ट्रसंघ से बड़े स्तर पर सहायता मिली।

इस दुर्भाग्यजनक कहानी के विविध पहलुओं पर चर्चा हो सकती है। सहमति, असहमति हो सकती है पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि साहित्यकार, पत्रकार, कुछ भी होने से पहले हम मनुष्य हैं। मनुष्यता बची रहेगी तभी मनुष्य से जुड़े सरोकार भी बचे रहेंगे। साथ ही कालातीत सत्य का एक पहलू यह भी है कि हम सबके भीतर एक गिद्ध है। हो सकता है कि हम उस गिद्ध को समाप्त न कर सकें पर दूर भगाने या उड़ाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं न!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

22.10.2019, प्रात: 6.19 बजे
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से ☆ सुख – दुःख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना सुख – दुःखअब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से

☆ सुख – दुःख ☆

 

मैंने दुःख को विदा किया

कभी ना लौट आने के लिए

वो सुख की चादर ओढ़ आया

मेरे निश्चय की आजमाइश में ।

 

उसने विदाई का सम्मान किया

बस दूर खड़े रह सुख का नाट्य किया

हाथों में गुब्बारे लिए उसने

मेरे बालमन को लोभित किया

 

कभी वो ख़्वाबों की तश्तरी लाया

कभी रंग -बिरंगी तितलियाँ लाया

मेरी बढ़ती ताक -झाँक को

उसकी नजरो ने जान लिया

 

दुःख था बड़ा बहुरूपिया

समझता था मेरी कमजोरियाँ

हर उस शख्स का उसने रूप धरा

जिससे कभी था मेरा नाता जुड़ा

 

सब्र का मेरे बांध ढहा

हल्के से मन का किवाड़ खुला

दहलीज पर जो मैंने कदम रखा

मृगमरीचिका सा भरम हुआ

 

मैं दौड़ पड़ी उस ओर

सुख की चाह थी पुरजोर

उसने भी चादर फैला के मुझे

अपने अंक में समेट लिया

 

मै पहुँची अंध लोक

बस सुख की ही थी खोज

सुख का स्पर्श मुझे याद था

पर वहाँ कही ना उसका आभास था

 

मेरी आँखों से अश्रु बहे

सुख चाहे पर  दुःख मिले

क्यों पुराने पाठ ना याद रहे

सुख -दुःख सदा ही साथ रहे ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #28 – ☆ शिक्षण ☆ – सुश्री आरूशी दाते

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