हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 14 ☆ मी वाट…..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण मराठी कविता  “मी वाट…..!!”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 14 ☆

 

☆ मी वाट…..!!

 

मी वाट आहे
थांबत नाही कधी
संपत ही नाही कधी
मी वाट आहे…

 

कुणाची ही वाट
पाहत नाही कधी
अनंतापर्यंत जाणारी
मी वाट आहे…

 

काट्याकुट्यातून जाणारी
फुला मनातून जाणारी
मोक्ष मिळवून देणारी
मी वाट आहे….

 

मला वाट नाही दिली
तरी वाट करून जाणारी
स्वतःची वाट स्वतः शोधणारी
मी वाट आहे……

 

मी मुकलेल्यांना आणि
मी चुकलेल्यांना पण
वाट दाखवणारी
मी वाट आहे…

 

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 13 ☆ अमृत महोत्सव विशेष – वाढदिवसाची सप्तपदी ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

अमृत महोत्सव विशेष

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता  वाढदिवसाची सप्तपदी  जो उन्होंने  अपने इकसाठवें जन्मदिवस पर लिखी थी ।  

श्रीमती उर्मिला जी को  आज उनके 75 वें  जन्मदिवस  8-11-2019 ( अमृत महोत्सव ) पर हम सबकी ओर से  हार्दिक शुभकामनाएं। 

इस वय में भी  समय के साथ सजग रह कर सीखने की लालसा रखने वाली श्रीमती उर्मिला जी हमारी प्रेरणा स्त्रोत हैं।  वे

सदैव स्वस्थ रहें, शताधिक वर्षों तक हम सबका ऐसे ही उत्साहवर्धन करती रहें ऐसी ईश्वर से कामना है। 

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 13 ☆

 

☆ वाढदिवसाची सप्तपदी ☆

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

आयुष्यातल्या नव्या उगवत्या भास्कराच्या

प्रफुल्ल तेजाने ओजाने

प्रकाशमान होण्यासाठी !!१!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

सायंकाळचे सूर्यास्ताचे

विहंगम दृश्य पाहून मन

प्रसन्नचित्त होण्यासाठी !!२!!

 

वाढदिवस कशासाठी?

 

चंद्रप्रकाशात पुसट होत

जाणाऱ्या गतायुष्यातील

स्मृतींना उजाळा देण्यासाठी!!३!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

पतिपत्नींमधील रुसवे फुगवे जाऊन

त्यांच्यातील अनुबंध अधिक दृढ होण्यासाठी !!४!!

 

वाढदिवस कशासाठी?

 

मित्रमैत्रिणींच्या मेळाव्यात

अन् स्नेहीजनांच्या समुदायात

स्वत:ला अगदी हरवून जाण्यासाठी !!५!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

निरांजनातील वातीप्रमाणे

स्वजनांसाठी व सर्वांसाठी

शांत वृत्तीने तेवत रहाण्यासाठी !!६!!

 

वाढदिवस कशासाठी ?

 

चैतन्य चक्रवर्ती परमेश्र्वराच्या कृपेने

बोनस आयुष्य लाभले म्हणून

त्याचे ऋणाईत होण्यासाठी !

ऋणाईत होण्यासाठी !!

ऋणाईत होण्यासाठी !!!७!!

 

©® उर्मिला इंगळे, सातारा

दिनांक: 8-11-2019

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆ झूठी आधुनिकता ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही सत्य के धरातल पर लिखी गई लघुकथा “झूठी आधुनिकता”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 5 ☆

☆ लघुकथा – झूठी आधुनिकता ☆ 

गणपति पूजा का अंतिम दिन। गणपति विसर्जन की धूमधाम थी, शॉर्ट्स, टी शर्ट और हाई हील सेंडिल में वह ढ़ोल की ताल पर थिरक रही थी। पास ही उसकी बड़ी बहन भी थी, जो एअर होस्टेज है। दोनों बहनें गणपति उत्सव के लिए छुट्टी लेकर घर आई हैं। वेशभूषा से दोनों  आधुनिक लग रही थीं। लड़कियों के आधुनिक पहनावे को देखकर ऐसा लगता है कि महिलाओं का विकास हो रहा है? समाज में कुछ बदलाव आ रहा है?

ढ़ोल तासे की आवाज थोड़ी कम होने पर पड़ोस की एक महिला ने पूछा- “मिनी! कब आई तुम लंदन से?”

“आज ही आई हूँ आँटी।“

“अच्छा गणपति विसर्जन के लिए आई होगी? गणपति बैठाले (स्थापना) हैं ना?”

“अरे नहीं आंटी। हम दो बहनें ही हैं, भाई तो है नहीं, इसलिए हम घर पर गणपति स्थापना नहीं करते। मॉम मना करती हैं ………………।”

नकली आधुनिकता की चादर सर्र………… से सरक गई। वास्तविकता उघड़ी पड़ी थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 19 ☆ संभालिये अपना …… ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “संभालिये अपना …… ”.  श्री विवेक रंजन जी का यह  सामयिक व्यंग्य  हमें आतंक और आतंकियों के बारे में नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करता है। साथ ही यह भी कि आतंक के प्रतीक के अंत की कहानी क्या होती है और यह भी कि आतंक कभी मरता क्यों नहीं है ? श्री विवेक रंजन जी ऐसे बेबाक  व्यंग्य के लिए निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 19 ☆ 

☆ संभालिये अपना …… ☆

ब्रेकिंग न्यूज़ में घोषणा हुई कि आतंकी सरगना मारा गया, दुनियां भर में इस खबर को बड़ी उत्सुकता से  सुना गया. सरगना आतंक का पोषक था. पहले भी उसे मारने के कई प्रयास हुये. हर बार उसे मारने की गर्वोक्ति भरी घोषणायें भी की गईं, किन्तु वे घोषणायें गलत निकलीं. सरगना  फिर से किसी वीडीयो क्लिप के साथ अपने जिंदा होने के सबूत दुनिया को देता रहा है, पर इस बार डी एन ए मैच कर पुख्ता सबूत के साथ उसके मौत की घोषणा की गई है, तो लगता है कि सचमुच ही सरगना मारा गया है. सरगना की मौत की पुष्टि के लिये डी एन ए मैच करने के लिये उसका अंतरवस्त्र चुरा लिया गया था. इस घटना से दो यह  स्पष्ट संदेश मिलते हैं पहला तो यह कि सबको अपना अंतरवस्त्र संभाल कर ही रखना चाहिये. और दूसरा यह कि घर का भेदी लंका ढ़ाये यह तथ्य राम के युग से लेकर आज तक प्रासंगिक एवं शाश्वत सत्य है. विभीषण की मदद से ही राम ने रावण पर विजय पाई थी. सरगना के विश्वसनीय ने ही उसका अंतरवस्त्र अमेरिकन एजेंसियो को सौंपा और मुखबिरी कर उसे कुत्ते से घेर, कुत्ते की मौत मरने के लिये मजबूर कर दिया.

यूं यह भी शाश्वत सत्य है कि आतंक का अंत तय है देर सबेर हो सकती है. बड़े समारोह के साथ रावण वध तो हर बरस किया  जाता है, पर फिर भी रावणी वृत्ति जिंदा बनी रहती है. यही कारण है कि कितने भी आतंकी सरगना मार लें पर आतंक जिंदा है. जरूरत है कि जिहाद की सही व्याख्या हो, इस्लाम तो सुकून, तहजीब और मोहब्बत का मजहब है, उसकी पहचान आतंक के रूप में न बने इस दिशा में काम हों.

यूं आतंकी सरगना के बार बार मारे जाने की खबरो और रावण के हर बरस मरने या यूं कहें कि राक्षसी वृत्ति के अमरत्व को लेकर दार्शनिक चिंतन किया तो लगा कि ये भले ही बार बार मर रहे हों पर हममें से ना जाने कितने ऐसे हैं जो हर दिन बार बार मरने को मजबूर हैं, कभी मन मारकर, कभी थक हारकर. कभी मजबूरी में तो कभी समझौते के लिये आत्मा को मारकर लोग जिंदा हैं. कोई किसान कर्ज के बोझ तले फसल सूख जाने, या बाढ़ आ जाने पर हिम्मत हारकर फांसी पर लटक जाता है तो कोई प्रेमी प्रेयसी की बेवफाई पर पुल से नदी की गहरी धारा में कूद कर आत्म हत्या कर लेता है. कोई गरीब बैंक या फाईनेंस कम्पनी के डूब जाने पर खुद को लुटा हुआ मानकर जीवन से निराश हो जाता है. दुर्घटना में मरने पर सरकारें सहायता घोषित करती हैं, जाने वाला तो चला जाता है पर वारिसो का भविष्य संवर जाता है, परिवार के किसी सदस्य को सरकारी नौकरी मिल जाती है, मौत का मुआवजा मिल जाता है, गरीबी रेखा के बहुत नीचे से परिवार अचानक उछल कर पक्के मकान तक पहुंच जाता हैं.

वैसे सच तो यह है कि जब भी, कोई बड़ी डील होती है, तो कोई न कोई, अपनी थोड़ी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बड़े बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बड़े बनने के, बड़े सपने सजोंये अपने जुगाड़ भिड़ाये, बार-बार मरने को, मन मारने को तैयार खड़ा है, तो आप आज कितनी बार मरे? मरो या मारो! तभी डील होंगी। देश प्रगति करेगा, हम मर कर अमर बन जायेंगे. बड़ी बड़ी डील में केवल कागजी मुद्राओ का ही खेल नही होता, हसीनाओ की मोहक अदाओ और मादक नृत्य मुद्राओ का भी रोल होता है. सुरा और सुंदरी राजनीति व व्यापार में हावी होती ही हैं इसलिये डी एन ए से पहचान और अदृश्य कैमरो से बन रही फिल्मो के इस जमाने में अपना यही आग्रह है कि  अपना अंतरवस्त्र संभालिये वरना आपको कई कई तरह से कई कई बार मरना पड़ेगा.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆ मापदंड ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मापदंड”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆

 

☆ मापदंड ☆

 

“मैंने पहले ही कहा था. तुम्हें नहीं मिलेगा.” रघुवीर ने कहा तो प्रेमचंद बोले, “मगर, तुम ने यह किस आधार पर कहा था ? मैं यह बात अभी तक समझा नहीं हूँ?”

“मैं उन को अच्छी तरह जानता और पहचानता हूँ.” ‘ रघुवीर ने कहा.

“वे मेरे अच्छे मित्र है. मैं उन्हें नही जानता और तुम अच्छी तरह पहचानते हो ?” प्रेमचंद ने स्पष्टीकरण दिया,  “मेरी पुस्तक की भूमिका उन्हीं ने लिखी थी. उस का प्रकाशन भी उन्हीं ने किया था. इसलिए उस पुस्तक को पुरस्कार मिलना लगभग तय था. आखिर पुरस्कार भी वे ही दे रहे हैं.”

“हूँ.”  रघुवीर ने लंबी सांस ली. फिर धीरे से कहा, ‘”तुम बहुत अच्छा लिखते हो, इसलिए वे तुम से जुड़े हैं. मगर, वे पूरे व्यावसायिक लेखक हैं. अपना अच्छाबुरा अच्छी तरह समझते हैं. इसलिए तुम्हारी पुस्तक को…..”

“इस से उन्हें क्या फायदा मिलेगा ?”  प्रेमचंद ने बात बीच में काट कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “मेरे भाई, यह नया जमाना है. यहां अधिकांश वही होता है जो तुम्हारी फितरत में नहीं है. यानी तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाता हूं.”

“मतलब !”  प्रेमचंद ने आंखें और हाथ ऊंचका कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “जिन का नाम पुरस्कार के लिए घोषित हुआ है उन्हों ने पहले इन को पुरस्कृत व सम्मानित किया था. इसलिए तुम्हारा…” कह कर रघुवीर ने भी आंखें मटका दी.

यह सुन कर प्रेमचंद ने रघुवीर के सामने हाथ जोड़ कर कह दिया,  “वाह ! महाप्रभु ! आप और वे धन्य है. उन्हें और आप को अपनी पूछपरख का पता तो हैं. हम अनाड़ी ही भले.”  कह कर वे चुपचाप एक नई रचना लिखने के लिए अपने कक्ष में चले गए.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 22 – पांडुरंग…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता पांडुरंग  )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #22☆ 

 

☆  पांडुरंग☆ 

 

कटेवरी हात उभा विटेवरी

दीनांचा कैवारी पांडुरंग…!

 

नाही राग लोभ नाही मोजमाप

सुख वारेमाप दर्शनात…!

 

रूप तुझे देवा मना करी शांत

जाहलो निवांत अंतर्यामी…!

 

कीर्तनात दंग भक्तीचाच रंग

रचिला अभंग आवडीने…!

 

भीमा नदीकाठ सार्‍यांचे माहेर

कृपेचा आहेर अभंगात…!

 

सुख दुःखे सारी भाग जगण्याचा

स्पर्श चरणांचा झाल्यावर…!

 

सुजा म्हणे आता सार्थक जन्माचे

नाम विठ्ठलाचे ओठी आले…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 20 – मेरे पिता …..☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  बेटियों पर आधारित एक भावपूर्ण रचना   “मेरे पिता …..। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 20☆

 

☆ मेरे पिता ….. ☆  

 

सजग साधक

रत, सुबह से शाम तक

दो घड़ी मिलता नहीं

आराम तक

हम सभी की दाल-रोटी

की जुगत में

जो हमारी राह के कांटे

खुशी से बीनता है,

वो मनस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

सूर्य को सिर पर धरे

गर्मी सहे जो

और जाड़ों में

बिना स्वेटर रहे जो

मौसमों के कोप से

हमको बचाते

बारिशों में असुरक्षित

हर समय जो भींगता है,

वो तपस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

स्वप्न जो सब के

उन्हें साकार करने

और संशय, भय

सभी के दूर हरने

संकटों से जूझता जो

धीर और गंभीर

पुलकित, हृदय में

नहीं खिन्नता है,

वो यशस्वी कौन?

वो मेरे पिता है।

 

जो कभी कहता नहीं

दुख-दर्द अपना

घर संवरता जाए

है बस एक सपना

पर्व,व्रत, उत्सव

मनाएं साथ सब

जिसकी सबेरे – सांझ

भगवन्नाम में तल्लीनता है,

वो महर्षि कौन?

वो मेरे पिता है।

 

मौन आशीषें

सदा देते रहे जो

नाव घर की

हर समय खेते रहे जो

डांटते, पुचकारते, उपदेश देते

सदा दाता भाव

मंगलमय,विनम्र प्रवीणता है,

वो  दधीचि कौन?

वो मेरे पिता हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 22 – उत्तरायण ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “उत्तरायण.  सुश्री प्रभा जी की कविता  में जीवन के उत्तरायण की जो कल्पना की गई है वह वास्तव में कल्पना से परे है।  ऐसी कविता की कल्पना करने  के पश्चात कविता रचने के मध्य की प्रक्रिया  निश्चित ही कवि को दार्शनिक भाव से परिपूर्ण करने की क्षमता रखती है।  काल के सम्मुख कोई टिक नहीं सकता और उस पर कविता  रचने के लिए काल के कपाल पर  लिखने जैसा है। सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 22 ☆

☆ उत्तरायण ☆ 

माहीत नाही यापुढचं
आयुष्य कसं असेल?
वय उतरणीला लागल्यावर
आठवतात
तारुण्यातले अवघड घाट
वळण-वळसे…
स्वप्नवत्‌ फुलपंखी
अभिमंत्रित वाटा…
ठरवून थोडीच लिहिता येते
आयुष्याची कादंबरी?
काय चूक आणि काय बरोबर
हेही कळेनासं होतं
काळाच्या निबिड अरण्यातले सर्प
भिववतात मनाला
कुठल्या पाप-पुण्याचा
हिशेब मागेल काळ
मनात फुलू पाहताहेत
आजही कमळकळ्या
त्या उमलू द्यायच्या की
करायचं पुन्हा परत
भ्रूणहत्येचं पाप?
की निरीच्छ होऊन
उतरायचं नर्मदामैय्येत
मगरमत्स्यांचं भक्ष्य होण्यासाठी ?

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 15 ☆ पथरीली आँखें ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “पथरीली आँखें ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 15 ☆

☆ पथरीली आँखें

 

जब खुश होने पर

तुम्हारी आँखों में चमक न आये,

जब ग़म में डूबने पर

तुम न ही पलकें मीच सको,

न ही आंसू बहा सको,

जब तुम्हारी आँखें

पत्थर हो जाएँ,

तब तुम

डुबा देना ख़ुद को

जुस्तजू की चाशनी में…

 

सुनो,

इस जुस्तजू की इस चाशनी में

घुल जाएगा आँखों का

सारा पथरीलापन

और उन आँखों में आकर बस जायेंगे

जोश के जुगनू!

 

इन जुगनुओं की रौशनी से

तुम यूँ इतराकर चलना

कि सारी दुनिया

तुम्हें देखती ही रह जाए

और दाँतों तले उंगली दबा ले!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 12 ☆संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी ”  ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  विश्वप्रसिद्ध पुस्तक “संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी ”  जिसकी 30 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं पर श्री विवेक जी  की चर्चा ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 12  ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी 

पुस्तक – संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी

हिन्दी अनुवाद –  The monk who sold his Ferari का  हिंदी संस्करण

लेखक – रोबिन शर्मा

मूल्य –  199 रु

किताब जिसकी दुनियां भर में ३० लाख प्रतियां बिकी  

 

☆ संयासी जिसने अपनी संपत्ति बेच दी– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

जूलियन मेंटले एक वकील थे, जो अनियमित जीवन शैली से निराश हो चुके थे. बाद में उन्होने अपने पेशे, धन दौलत घर को त्याग कर हिमालय की कन्दराओ में सिवाना के संतो के साथ ज्ञान प्राप्त किया. उनके जीवन का निचोड़ बताती यह पुस्तक जिसे दुनिया के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लेखको में से एक राबिन शर्मा ने लिखा है और जिस किताब की दुनियां भर में ३० लाख प्रतियां बिक चुकी हैं पठनीय है व जीवन दर्शन सिखाती है. किताब बताती है कि कैसे हम अपने जीवन में आनंद का विस्तार कर सकते हैं. जीवन के उद्देश्य और आवश्यकता को समझ सकते हैं. जीवन में स्वयं अपने पर कैसे शासन किया जावे, अपने समय को किस तरह सुनियोजित करना चाहिये, तथा अपने रिश्तो को किस तरह निभाना चाहिये तथा जीवन को उसकी परिपूर्णता में कैसे जीना चाहिये यह इस किताब को पढ़कर ज्ञात होता है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर

मो ७०००३७५७९८

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