मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 37 – गझल – ………. आले चांदणे! ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  एक प्यारी सी ग़ज़ल “……. आले चांदणे!.  सुश्री प्रभा जी की  यह गजल चन्द्रमा की चाँदनी को जीवन  दर्शन से जोड़ती हुई प्रतीत  होती है। चन्द्रमा अमावस्या से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा  के पूर्ण चन्द्रमा तक अपनी कलाओं  और आकार से हमारे जीवन से सामंजस्य बनाये रखता है।  सुश्री प्रभा जी ने इस सामंजस्य को अपनी ग़ज़ल में बेहतरीन तरीके से एक सूत्र में पिरोया है। इस अतिसुन्दर  ग़ज़ल  के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 37 ☆

☆ गझल – ………. आले चांदणे! ☆ 

 

मध्यरात्री जन्मताना घेऊन आले चांदणे

गर्द काळ्या त्या तमाला भेदून  आले चांदणे

 

जन्म जेथे जाहला त्या गावात माझा चांदवा

त्याच गावी  आठवांचे ठेवून आले चांदणे

 

ती किशोरी धीट स्वप्ने गंधाळली तेजाळली

मी दुपारी तप्त सूर्या देवून आले चांदणे

 

नेहमी मी मोह फसवे हेटाळले या जीवनी

संशायाचे बीज का हो पेरून आले  चांदणे

 

दूषणे सा-या जगाची सोसून मी तारांगणी

पौर्णिमेने ढाळलेले वेचून  आले चांदणे

 

जीवनाचे गीत गाता आसावरी झंकारली

आर्ततेचे सूर सारे छेडून  आले चांदणे

 

तारकांचा गाव  आता देतो “प्रभा” आमंत्रणे

शुभ्र साध्या भावनांचे  लेवून  आले चांदणे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 16 – महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु”.)

☆ गांधी चर्चा # 15 – महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरु ☆

मेरे साथी श्री उदय सिंह टुंडेले ने महात्मा जी पर  लिखा कि  “यह कुछ ऐसा ही है कि तेज रौशनी में हमारी आँखें चौंधियां जाती हैं और हम आसपास की कई चीजें देख ही नहीं पाते.” सचमुच गांधीजी का भारत भूमि की धरा पर आगमन कुछ ऐसा ही था। यदि वे बीसवीं सदी में हमारे देश को ईश्वर की अनुपम देन है तो पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के लिए गांधीजी की अद्भुत खोज हैं। गांधीजी को नेहरू ने परखा, समझा, उन्हे समर्थन दिया और कभी कभी उनके विचारों से असहमति  भी व्यक्त करी और उन पर बेबाकी से भरपूर लिखा। अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी” में उन्होने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गांधीजी की छाप की विस्तृत विवेचना की है। एक अध्याय “गांधीजी मैदान में” वे लिखते है:

“ 1919 के शुरू में गांधीजी एक सख्त बीमारी से उठे थे। रोग-शैय्या से उठते ही उन्होने वॉइसराय से प्रार्थना की थी की वह इस बिल को कानून न बनने दें। इस अपील की उन्होने, दूसरी अपीलों की तरह कोई परवाह ना की और उस हालत में, गांधीजी को अपनी तबीयत के खिलाफ इस आंदोलन का अगुआ बनना पड़ा, जो उनके जीवन में पहला भारत-व्यापी आंदोलन था।उन्होने सत्याग्रह सभा शुरू की, जिसके मेम्बरों से यह प्रतिज्ञा कराई गई थी के उनपर लागू किए जाने पर वे रौलट-कानून को न मानेंगे।दूसरे शब्दो में यह खुलमखुल्ला और जानबूझकर जेल जाने की तैयारी करनी थी।

जब मैंने अखबारों में यह खबर पढ़ी तो मुझे बड़ा संतोष हुआ।आखिर इस उलझन से एक रास्ता मिला तो। वार करने का एक हथियार तो मिला, जो सीधा, खुला और बहुत करके रामबाण था। मेरे उत्साह का पार ना रहा और में फौरन सत्याग्रह सभा में शामिल होना चाहता था।…मगर एकाएक मेरे सारे उत्साह पर पाला पड़ गया और मैंने समझ लिया की मेरा रास्ता आसान नहीं है, क्योंकि पिताजी इस विचार के घोर विरोधी थे।…पिताजी ने गांधीजी को बुलाया और वह इलाहाबाद आए। दोनों की बड़ी देर तक बातें होती रही। उस समय मैं मौजूद न था। इसका नतीजा यह हुआ कि गांधीजी ने मुझे सलाह दी कि जल्दी न करो और ऐसा काम न करो जो पिताजी को असह्य हो।“

पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू के जीवन, रहन सहन, तौर तरीके से अच्छे-खासे प्रभावित थे, और सही मायने मे  आम भारतीय पुत्रों की तरह वे भी पिता को अपना आदर्श मानते थे। “मेरी कहानी” के एक अध्याय “ पिताजी और गांधीजी” में वे अपने पिता व गांधीजी की तुलना करते हुये लिखते हैं कि “ मगर मेरे पिताजी गांधीजी से कितने भिन्न थे! उनमें भी व्यक्तित्व का बल था और बादशाहियत की मात्रा थी। वह ना तो नम्र ही थे , न मुलायम ही, और गांधीजी के उलट वह उन लोगों की खबर लिए बिना नहीं रहते थे जिनकी राय उनके खिलाफ होती थी।“ विचारों से इतनी मत-भिन्नता रखने वाले पंडित मोतीलाल नेहरू को भी  गांधीजी ने अपना मित्र बना लिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू आगे लिखते हैं- “ एक दूसरे से उनकी राय चाहे कितनी ही खिलाफ होती, लेकिन दोनों के दिल में एक दूसरे के लिए सद्भाव और आदर था। ‘विचार-प्रवाह’ (Thought Currents) नाम की एक पुस्तिका में गांधीजी के लेखों का संग्रह छापा गया। इस पुस्तक की भूमिका पिताजी ने लिखी थी। उन्होने लिखा है- मैंने महात्माओं और महान पुरुषों की बाबत बहुत सुना है, लेकिन उनसे मिलने का आन्नद मुझे कभी नहीं मिला। और मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मुझे उनकी असली हस्ती के बारे में कुछ शक है। मैं तो मर्दो में और मर्दानगी में विश्वास करता हूँ। इस पुस्तिका में जो विचार इकट्ठा किए गए हैं, वे एक ऐसे ही मर्द के दिमाग से निकले हैं और उनमे मर्दानगी है।वे मानव प्रकृति के दो बड़े गुणों के नमूने हैं-यानी श्रद्धा और पुरुषार्थ के… जिस आदमी में न श्रद्धा है, न पुरुषार्थ है, वह पूछता है, ‘इन सबका नतीजा क्या होगा?’ यह जबाब कि जीत होगी या मौत उसे अपील नहीं करता। इस बीच में वह विनीत और छोटा-सा व्यक्ति अजेय शक्ति और श्रद्धा के साथ सीधा खड़ा हुआ अपने देश के लोगों को मातृभूमि के लिए अपनी कुर्बानी करने और कष्ट सहने का अपना संदेश देता चला जा रहा है। लाखों लोगों के हृदय में इस संदेश की प्रतिध्वनि उठती है।………”

ऐसा नही था की पंडित नेहरू गांधीजी के प्रत्येक निर्णय से सहमत होते। अनेक अवसरों पर उन्होने गांधीजी से विभिन्न मत रखा और अपनी आत्मकथा में इसका उल्लेख भी बड़ी शालीनता से किया है। सितंबर 1932 के बीच में ब्रितानिया हुकूमत द्वारा लिए गए सांप्रदायिक निर्णय जिसके अनुसार दलित जातियों को अलग चुनाव के अधिकार दिये जाने के विरोध में वे गांधीजी द्वारा आमरण अनशन किए जाने के निर्णय से असहमत थे। अपनी आत्मकथा के “धर्म क्या है?” अध्याय में वे लिखते हैं – “ और फिर मुझे झुझलाहट भी आई  कि उन्होने अपने अंतिम बलिदान के लिए एक छोटा सा, सिर्फ चुनाव का, मामला लिया है। हमारे आजादी के आंदोलन का क्या होगा? क्या अब, कम से कम थोड़े वक्त के लिए ही सही, बड़े सवाल पीछे नहीं पड़ जाएँगे? और अगर वह अपनी अभी की बात पर कामयाब भी हो जाएँगे, और दलित जातियों के लिए सम्मिलित चुनाव प्राप्त भी कर लेंगे, तो क्या इससे एक प्रतिक्रिया न होगी, और यह भावना न फैल जाएगी कि कुछ-न-कुछ तो प्राप्त कर ही लिया गया है, और कुछ दिन तक अब कुछ भी नही करना चाहिए?”

पंडित नेहरू 1934 में अलीपुर जेल में कैद थे, तभी उन्हे अखबारों से खबर मिली कि गांधीजी ने सत्याग्रह वापिस ले लिया है, इस खबर से वे विचलित हुये। अपनी आत्मकथा  के एक अन्य अध्याय “नैराश्य” में वे लिखते हैं “ लेकिन गांधीजी की महानता का, भारत के प्रति उनकी महान सेवाओं का या अपने प्रति की गई महान उदारताओं का, जिनके लिए मैं उनका ऋणी हूँ, कोई प्रश्न ही नही है। इन सब बातों के होते हुये भी वह बहुत सी बातों में गलती कर सकते हैं।आखिर उनका लक्ष्य क्या है? इतने वर्षो तक उनके निकटतम रहने पर भी मुझे खुद अपने दिमाग में यह बात साफ साफ नही दिखाई देती कि उनका ध्येय आखिर क्या है। वह यह कहते कभी नही थकते कि हम अपने साधनों की चिंता रक्खे तो साध्य अपने आप ठीक हो जाएगा।“

पंडित नेहरू द्वारा अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी” में गांधीजी के विषय में बहुत  कुछ भी लिखा गया है  और इस आत्मकथा के विभिन्न अध्याय हमे गांधीजी के विचारों की तह में जो भावनाएँ काम करती रही हैं उन्हे समझने में मदद करते हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 13 ☆ लघुकथा – शारदा ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अतिसुन्दर लघुकथा  “शारदा। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा भारतीय समाज के एक पहलू को दर्शाती है साथ ही यह भी कि हम जो संस्कार देते हैं या बच्चे समाज से पाते हैं, वे उसी का अनुसरण भी करते हैं। ) 

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 13 ☆

☆ लघुकथा – शारदा ☆

 

चौदह बरस की शारदा का विवाह बचपन मैं तय किये गये बाईस वर्षीय लड़के के साथ कर दिया गया। शारदा तो खुश थी।

बचपन से संस्कार से भरी बालिका पहनने ओढ़ने  से बेहद अपने आपको सुंदर समझ रही थी। पर वह लड़का खुश नहीं था। ससुराल पहुँचते ही पता चला कि जिसके साथ उसे सात फेरों में बांधा गया है। माँ ने कहा था बेटी जिसके साथ फेरे लेती है वही जीवन भर उसका साथी होता है । उसी से निभाया जाता है। किसी और के बारे में कुछ भी नहीं  सोचा जाता ।

यहाँ आते ही उसे पता चला कि वह किसी और से भी विवाह कर चुका है और वह उसके साथ ही रहना चाहता है। शारदा एक पढ़ी और समझदार लड़की थी। भले वह पाँचवीं पढ़ चुकी थी। अधिक बहस में न पड़ माँ पिता को समझा कर तलाक के लिये अर्जी लगवा दी।

फिर विधिपूर्वक तलाक भी हो गया। तलाक हो जाने के बाद सबके कहने पर भी उसने विवाह नहीं किया। और जब कोई भी उससे कहता या पूछता कि आगे क्या होगा तब वह कहती जिसने मुझे बनाते समय यह सब सोच  लिया था तो आगे भी वही समझेगा। एक बार ही खुशियों का द्वार भारतीय लड़कियों का खुलता है बार बार नहीं खुलता। अर्थात हो चुका जो होना था अब और नहीं।

….और उसने आगे पढ़ने का मन बना लिया।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 27 ☆ खामोशी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “खामोशी”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 27 ☆

☆ खामोशी

बारिश है

कि बरसे ही जा रही है,

काले बादलों ने

हरी-भरी धरती को भिगो रखा है,

एक अजीब सी खामोशी है हर तरफ!

 

परिंदों की आवाज़

कहीं खो गयी है,

गुल भीग-भीगकर

नम हो गए है

और झर रहे हैं,

बस हवाएं हैं कि

ज़ोरों से बोले जा रही हैं

और मचल रही हैं

कुछ कहने को!

 

मेरा दिल भी

बहुत कुछ कहना चाहता है

पर इस खामोशी ने

मुझे भी भिगो रखा है

और आज मैं बैठी रहना चाहती हूँ

बस चुपचाप एक कोने में

अपने मन के साथ,

अपनी ज़िदगी की किताब के

हर पन्ने को को

बस पलट-पलटकर देखना चाहती हूँ;

बस यही तमन्ना है

कि जितना हो सके

चूस लूँ जुस्तजू के वो सारे लम्हे

जिसकी चिंगारी ने मेरे ज़हन में

रौशनी भर दी थी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 7 ☆ शब्द … और कविता ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “शब्द … और कविता”।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #

☆ शब्द … और कविता ☆

 

मेरे शब्द

कभी सोते नहीं।

जब तुम सोते हो

तब भी नहीं

और

जब मैं सोता हूँ

तब भी नहीं।

 

ये

शब्द ही तो

मेरे वजूद हैं

मेरी पहचान हैं।

 

जब सारी दुनिया सोती है

अपनी अपनी दुनियाँ में

अपनी अपनी नींद में

तब ये शब्द ही

मुझे जगाते हैं

और

कराते हैं

अहसास

कि –

कुछ शब्द नादान हैं

एक दूसरे से अनजान हैं।

 

कोशिश करता हूँ

उन्हें जोड़ने

मन मस्तिष्क के शब्दकोश में

उन्हे बताने कि –

यही तो उनकी पहचान है।

ये शब्द

कभी – कभी

जुड़ जाते हैं

और

कभी कभी

हाथों से फिसल जाते हैं

और

चले जाते हैं

दूर

बहुत दूर।

 

झील के पार

नदी के पार

दूर

पहाड़ों पर

पहाड़ों पर बने

किलों पर

समुन्दर पर

और

कभी कभी

सात समुन्दर पार भी

सवार होकर

मेरे मन की उड़ान पर ।

 

शब्द तो

स्वतंत्र हैं।

उन्हें कोई भी

बाँध नहीं सकता।

किसी का

मन मस्तिष्क भी नहीं

और

किसी देश की

सीमा भी नहीं ।

 

जब कभी

होता हूँ अकेला

तब चुपचाप

ये ही शब्द

मुझे

सुनाते हैं

शान्त झील

और

पहाड़ी नदी के गीत

हरे – भरे

खेतों – मैदानों

की शान्ति

और

पहाड़ों

घने जंगलों में फैली

भयावहता की कहानियाँ।

श्मशान की भयावहता

और

ऐतिहासिक किलों में दफन

इतिहास।

 

इन सभी शब्दों का

अपना वजूद है

मेरे जेहन में

मेरे अपने शब्दकोश में ।

 

मेरे सभी शब्द

मेरे प्रिय हैं

मेरे अतिप्रिय हैं

 

कभी – कभी

राह चलते

मिल जाते हैं

कुछ कठोर शब्द!

जो विचलित कर देते हैं

तब

उन्हें करना पड़ता है – दरकिनार।

तभी

रच पाता हूँ

शेष शब्दों से

ऐसे ही एक कविता!

 

बेम्बर्ग 29 मई 2014

 

 

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #37 – मुसाफिर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण ग़ज़ल “मुसाफिर ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 37☆

☆ मुसाफिर ☆

 

मैं मुसाफि़र तू मुसाफि़र, रास्ते अनजान  हैं

आदमी हूँ आदमी की, बस यही पहचान है

 

आदमी बनकर रहा जो, जिंदगी में खु़श रहा

सारे मज़हब  के दिवाने, मिट्टी के मेहमान हैं

 

क्यों बखेडा कर रहे हो, घर के अंदर में यहाँ

भारती है माँ हमारी, उस की हम संतान हैं

 

माँ के टुकडे करने वाले, देश के गद्दार तुम

आरती का बन चुके हम, बस तेरे सामान है

 

हिंदू , मुस्लिम, सिख, ईसाई, सब सिपाही हैं यहाँ

देश पे कुर्बान हो तुम, तुम पे हम कुर्बान हैं …

 

उन शहीदों को पूछो, देश पर जो मिट गये

धर्म से बढकर तिरंगा, इस वतन की शान है

 

आओ मेहनत को बनाएं, एक इज्जत का निशाँ

मुफ्त़ की रोटी पे पलते, कुछ यहाँ नादान हैं

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 36 – लघुकथा – रोका ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण लघुकथा  “रोका”।  एक माँ और पिता के लिए बिटिया के विवाह जुड़ने से विदा होते तक ही नहीं, अपितु  जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं जो आजीवन  स्मरणीय होते हैं।  वेअनायास ही हमारे नेत्र नम कर देते हैं।  और यह लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 36 ☆

☆ लघुकथा – रोका 

सुगंधा आज बहुत ही खुश थी। क्योंकि उसकी बिटिया को देखने लड़के वाले आने वाले थे। सब कुछ इतना जल्दी हो रहा था। किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था।

घर में त्यौहार का माहौल बना हुआ था। मीनू, सुगंधा की बिटिया बहुत सुंदर भोली प्यारी सी बिटिया। सभी की निगाहें सामने सड़क से आती जाती गाड़ियों पर थी। समय पर गाड़ी से उतर परिवार के सभी सदस्य घर आए। बातों ही बातों में सभी का मन उत्साह से भर उठा। और मीनू को देखने के बाद लड़के और उसके परिवार वाले बहुत खुश हो गए और  मीनू उनको पसंद आ गई।

तुरंत ही बातचीत कर रोका करने को कहने लगे क्योंकि सुगंधा भी इतनी जल्दी सब हो जाएगा। इसका आभास नहीं लगा सकी थी। आंखें और गला दोनों भर आया। स्वादिष्ट भोजन खा लेने के बाद पंडित जी को बुलाकर साधारण तरीके से रोका का कार्यक्रम करने को कहा गया।

दोनों घर परिवार आमने सामने बैठ कर पंडित जी के कहे अनुसार साधारण सामग्री से मंत्रोच्चार कर लड़के की मां को बिटिया की ओली में सगुन डालने को कहा… जैसे ही लडके की  माँ कुछ रुपया और मिठाई का डिब्बा ओली डाल रही थी बिटिया को। बिटिया की मां सुगंधा प्यार और स्नेह के कारण रो पड़ी, आंखों से आंसू गिरने लगे। यह देख लड़के की मां भी रो पड़ी। देखते ही देखते ऐसा लगने लगा मानो बिटिया की विदाई अभी होने वाली है।

इस समय की नजाकत को देखते हुए लड़के के पिताजी जो काफी समझदार और सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी। उन्होंने तुरंत बात संभाली और जोरदार हंसी ठहाके लगाते हुए ताली बजाकर कहने लगे क्यों श्रीमती जी अपना रोका याद कर रही हो याने सास भी कभी बहू थी। पत्नी भी हंसते हुए शरमाने लगी।

सुगंधा भी अपने समधी के व्यवहार कुशलता पर हंस पड़ी और गर्व करने लगी। सब कुछ हंसी खुशी संपन्न हुआ।

शादी का मुहूर्त निकाल कर पंडित जी बहुत खुश हुए। मीनू को बहू के रूप में पाकर लड़के वाले गदगद थे। और हंसी खुशी विदा होकर जाने लगे मानों कह रहे हो रोका हमने कर लिया। अब जल्दी ही विदाई करा कर ले जाएंगे। मीनू भी बहुत खुश थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 26 ☆ लेख संग्रह – विचार प्रवाह – डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदीजी के  लेख संग्रह  “ विचार  प्रवाह ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 26☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – लेख संग्रह  –  विचार प्रवाह 

पुस्तक – विचार प्रवाह (लेख संग्रह)

लेखक – डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी

प्रकाशक – मो 9414101295

प्रथम संस्करण २०१९

☆ लेख संग्रह   – विचार प्रवाह – डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी –  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

समाचार पत्रों में अनेक लेख छपते हैं। जिनका क्षणिक महत्व होता है। किंतु, कुछ लेख ऐसे भी होते हैं जो स्थाई महत्व के होते हैं। डॉ युधिष्ठिर त्रिवेदी, शिशु रोग विशेषज्ञ है। उन्होंने समय-समय पर विभिन्न संतो से साक्षात्कार, यात्रा वृत्तांत, स्वास्थ्य एवं अन्य विविध विषयों पर बहुत से लेख लिखें जो यत्र तत्र भिन्न भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। इस पुस्तक में उन्होंने ऐसे ही लेख विचार प्रवाह शीर्षक से प्रकाशित किये हैं । किताब पठनीय विचारणीय मनन करने योग्य है। पुस्तक में संग्रहित लेख स्वयं डॉ त्रिवेदी की उत्कृष्ट विचारधारा, उनके सन्तो से समागम, उनकी यात्राओं, उनकी दृष्टि की जानकारी देती है । इस पुस्तक हेतु वे बधाई के सुपात्र हैं । वे सादा जीवन उच्च विचार के पोषक डॉक्टर हैं ।

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 34 ☆ कविता – बसंती बयार ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका एक सामयिक कविता “बसंती बयार”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 34

☆ कविता – बसंती बयार  

 

झीलें चुप थीं और

पगडंडियाँ खामोश,

गुनगुनी धूप भी

चैन से पसरी थी,

 

अचानक धूप को

धक्का मार कर

घुस आयी थी,

अल्हड़ बसंती बयार

मौन शयनकक्ष में,

 

अलसाई सी रजाई

बेमन सी सिमटकर

दुबक गई थी मन में,

 

अधखुले किवाड़ की

लटकी निष्पक्ष सांकल

उछलकर गिर गई

थी उदास देहरी पर,

 

हालांकि मौसम

डाकिया बनकर

खत दे गया था बसंत का,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 35 – आज प्रेम बदलत चाललयं का…? आणि निखळ प्रेम  कसं असावं…? ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  आपका एक सामयिक एवं विचारोत्तेजक आलेख  “आज प्रेम बदलत चाललयं का…? आणि निखळ प्रेम  कसं असावं…?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 35 ☆ 

 ☆ आज प्रेम बदलत चाललयं का…? आणि निखळ प्रेम  कसं असावं…?

आज प्रेम बदलत चाललयं का ? असा विचार करण्या पेक्षा आपण ज्याला प्रेम समजतो ते प्रेम आहे हे समजून घेण्याची आज खरी गरज आहे. आयुष्यातील अनेक वळणावर आपल्याला अनेक व्यक्ती आवडून जातात, मग ते एखाद्या मित्र असेल, मैत्रीण असेल,एखादा सहकारी असेल, शिक्षक असतील, शिक्षिका असतील किंवा आणखी  कुणी असेल, जीवानात येणाऱ्या प्रत्येकाचा वेगळा रंग,वेगळा ढंग,  वेगळी जीवन शैली, वेगवेगळे स्वभाव, गुण आपल्या मनात नकळत घर करून जाते याचा अर्थ माझं समोरच्या व्यक्तीवर प्रेम आहे असं समजणे आणि त्याला खतपाणी घालणे कितपत बरोबर आहे  आणि असं असेल तर आयुष्यात किती वेळा आणि किती जणांशी आपण प्रेम करणार आहोत परंतु दुर्दैवाची गोष्ट अशी की कुठेतरी याच आकर्षणाला आज प्रेम समजून त्याला खतपाणी घातलं जातं….! ज्याच्या एखाद्या पैलुवर भाळून आपण प्रेम करायला लागलो त्याचे इतर गुण/  बाबी नाही आवडल्या की ब्रेकअप असा प्रकार सर्रास पाहायला मिळतो परंतु ज्याच्यावर आपण प्रेम करतो त्याला त्याच्या गुणदोषासह स्विकारणं म्हणजे प्रेम असतं हा संस्कारच आज समूळ नष्ट होताना दिसत  आहे. एक प्रियकर किंवा प्रेयसी शंभर टक्के परफेक्ट असणे हे फक्त नाटक /सिनेमातच   शक्य आहे आपल्याला कधी कळणार आहे कोण जाणे …….!

जगात फक्त प्रियकर आणि प्रेयसी, नवरा/ बायको एवढीचं नाती आहेत का…..? विश्व बंधुत्वाची परंपरा जपणाऱ्या देशात निख्खळ मैत्री, मानस भाऊ बहीण, आई वडील,काका मामा, आजी आजोबा ही सगळी लयाला गेली आहेत का…?

थोडंस आपलं लहानपणीचे दिवस आठवा वडिलांचे सगळे मित्र काका त्यांची मुले ताई-दादा, आत्त्याच्या मैत्रीणी आत्त्या आईच्या माहेरी सगळे मावशी मामा आजी आजोबा असायचे. ही सगळी नाती तितक्याच आत्मियतेने सांभाळली जायची यात  जिव्हाळा, प्रेम,आपुलकी, सुरक्षितता ओतप्रोत भरलेली असायची परंतु आजच्या चौकोनी कुटुंबात पाचवा माणूस परका समजला जातो…! हीच दुर्दैवाची गोष्ट आहे आणि मग ज्याच्या बद्दल आपल्या मनात अशी जिव्हाळ्याची सुरक्षिततेची भावना निर्माण होते तो प्रियकर किंवा प्रेयसी असा अर्थ लावून  मोकळे होतो आणि पुढचे मनोरे बांधायला सुरुवात करतो आणि नकळत ते ढासाळले की ….. ! अनेक विकृतींचा यातूनच जन्म होतो….।

खरी गरज आहे या चौकोनातून बाहेर पडून ताईची मैत्रीणी ताई अन् दादाचा मित्र दादा असू शकतो हे वास्तविक संस्कार  मनावर बिंबवण्याची…अन्यथा कुठलाही कायदा ही परिस्थितीत बदलण्यासाठी असमर्थ ठरतील यात वादच नाही.

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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