हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 51 – नकल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “नकल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 51 ☆

☆ लघुकथा –  नकल ☆

 

परीक्षाहाल से गणित का प्रश्नपत्र हल कर बाहर निकले रवि ने चहकते हुए जवाब दिया, “निजी विद्यालय में पढ़ने का यही लाभ है कि छात्रहित में सब व्यवस्था हो जाती है.”

“अच्छा.” कहीं दिल में सोहन का ख्वाब टूट गया था.

“चल. अब, उत्तर मिला लेते है.”

“चल.”

प्रश्नोत्तर की कापी देखते ही रवि के होश के साथ-साथ उस के ख्वाब भी भाप बन कर उड़ चुके थे. वही सोहन की आँखों में मेहनत की चमक तैर रही थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२०/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 48 –एकांताची करतो सोबत. . . . ! ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण गझल  “एकांताची करतो सोबत . . . . !”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #48 ☆ 

☆ गझल – एकांताची करतो सोबत ☆ 

 

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदी किनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी .

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

दिनांक  16/2/2019

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 50 – बाल कविता – कष्ट हरो मजदूर के ……☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता के रूप में भावप्रवण रचना कष्ट हरो मजदूर के ……। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 50 ☆

☆ बाल कविता – कष्ट हरो मजदूर के …… ☆  

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

तेरी चांदनी के साथी

नींद खुले में आ जाती

सुबह विदाई में तेरे

मिलकर गाते परभाती,

ये मजूर ना मांगे तुझसे

लड्डू मोतीचूर के

चंदा मामां दूर के

कष्ट हरो मजदूर के।।

 

पंद्रह दिन तुम काम करो

तो पंद्रह दिन आराम करो

मामा जी इन श्रमिकों पर भी

थोड़ा कुछ तो ध्यान धरो,

भूखे पेट  न लगते अच्छे

सपने कोहिनूर के

चंदा मामा दूर के

कष्टहरो मजदूर के।।

 

सुना, आपके अड्डे हैं

जगह जगह पर गड्ढे हैं

फिर भी शुभ्र चांदनी जैसे

नरम मुलायम गद्दे हैं,

इतनी सुविधाओं में तुम

औ’ फूटे भाग मजूर के

चंदा मामा दूर के

दुक्ख हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 52 – गझल – ना इथे ना राहते आहे तिथे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक  अत्यंत भावप्रवण  गझल  “ना इथे ना राहते आहे तिथे।  सर्वव्याप्त अदृश्य ईश्वर का साथ और पृथ्वी  पर उसकी अपेक्षाओं  पर आधारित एक अप्रतिम रचना । सुश्री प्रभा जी द्वारा रचित संवेदनशील रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 52 ☆

☆ गझल – ना इथे ना राहते आहे तिथे ☆ 

 

सोसला  दुष्काळ हा, आता तरी,

पावसाच्या बरसु दे झरझर सरी

 

जातिधर्माचे कशाला दाखले

वाढते आहे विषमतेची दरी

 

तू किती नाकारल्या काळ्या मुली

भांडते रात्रंदिनी गोरी परी

 

कष्ट करणे टाळले वरचेवरी

देत आहे कोण भाजी भाकरी ?

 

ना इथे ना राहते आहे तिथे

भेटला मज विश्वव्यापी तो हरी

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 31 – बापू के संस्मरण-5 मैं तुझसे डर जाता हूं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मैं तुझसे डर जाता हूं”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 30 – बापू के संस्मरण – 5- मैं तुझसे डर जाता हूं☆ 

 

साबरमती-आश्रम में रसोईघर का दायित्व श्रीमती कस्तुरबा गांधी के ऊपर था । प्रतिदिन अनेक अतिथि गांधीजी सें मिलने के लिए आते थे बा बड़ी प्रसन्नता से सबका स्वागत-सत्कार करती थीं । त्रावनकोर का रहने वाला एक लड़का उनकी सहायता करता था एक दिन दोपहर का सारा काम निपटाने के बाद रसोईघर बन्द करके बा थोड़ा आराम करने के लिये अपने कमरे में चली गईं । गांधीजी मानो इसी क्षण की राह देख रहे थे बा के जाने के बाद उन्होंने उस लड़के को अपने पास बुलाया और बहुत धीमे स्वर में कहा, “अभी कुछ मेहमान आनेवाले हैं उनमें पंड़ित मोतीलाल नेहरु भी हैं उन सब के लिए खाना तैयार करना है बा सुबह से काम करते-करते थक गई हैं उन्हें आराम करने दे और अपनी मदद के लिए कुसुम को बुला ले और देख, जो चीज जहां से निकाले, उसे वहीं रख देना” ।

लड़का कुसुम बहन को बुला लाया और दोनो चुपचाप अतिथियों के लिए खाना बनाने की तैयारी करने लगे । काम करते-करते अचानक एक थाली लड़के के हाथ से नीचे गिर गई । उसकी आवाज से बा की आंख खुल गई सोचा रसोईघर में बिल्ली घुस आई है वह तुरन्त उठकर वहां पहुंची, लेकिन वहां तो और कुछ ही दृश्य था बड़े जोरों से खाना बनाने की तैयारियां चल रही थीं वह चकित भी हुईं और गुस्सा भी आया ऊंची आवाज में उन्होंने पूछा, “तुम दोनों ने यहां यह सब क्या धांधली मचा रखी हैं?”

लड़के ने बा को सब कहानी कह सुनाई इसपर वह बोलीं, “तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया?” लड़के ने तुरन्त उत्तर दिया, “तैयारी करने के बाद आपको जगानेवाले थे आप थक गई थीं, इसलिए शुरु में नहीं जगाया” । बा बोलीं, “पर तू भी तो थक गया था क्या तू सोचता है, तू ही काम कर सकता हैं,मैं नहीं कर सकती ?” और बा भी उनके साथ काम करने लगीं ।

शाम को जब सब अतिथि चले गये तब वह गांधीजी के पास गईं और उलाहना देते हुए बोलीं, “मुझे न जगाकर आपने इन बच्चों को यह काम क्यों सौंपा?” गांधीजी जानते थे कि बा को क्रोध आ रहा है इसलिए हंसते-हंसते उन्होंने उत्तर दिया, “क्या तू नहीं जानती कि तू गुस्सा होती है, तब मैं तुझसे ड़र जाता हूं?” बा बड़े जोर से हंस पड़ीं, मानो कहती हों –“आप और मुझसे डरते हैं!”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 1 – फलसफा जिंदगी का ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता फलसफा जिंदगी का

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ फलसफा जिंदगी का ☆

फलसफा जिंदगी का लिखने बैठा था,

कलम स्याही और कुछ खाली पन्ने रखे थे पास में ||

 

सोच रहा था आज फुर्सत में हूँ,

उकेर दूंगा अपनी जिंदगी इन पन्नों में जो रखे थे साथ में ||

 

कलम को स्याही में डुबोया ही था,

एक हवा का झोंका आया पन्ने उड़ने लगे जो रखे थे पास में ||

 

दवात से स्याही बाहर निकल गयी,

लिखे पन्नों पर स्याही बिखर गयी जो रखे थे पास में ||

 

हवा के झोंके ने मुझे झझकोर दिया,

झोंके से पन्ने इधर-उधरउड़ने लगे जो स्याही में रंगे थे ||

 

कागज सम्भालने को उठा ही था,

दूर तक उड़ कर चले गए कुछ पन्ने जो पास में रखे थे ||

 

उड़ते पन्ने कुछ मेरे चेहरे से टकराए,

चेहरे पर कुछ काले धब्बे लग गए लोग मुझ पर हंसने लगे थे ||

 

नजर उठी तो देखा लोग मुझे देख रहे थे,

लोगों ने मेरी जिंदगी स्याही भरे पन्नों में पढ़ ली जो बिखरे पड़े थे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 30 ☆ बँधी प्रीति की डोर ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता बँधी प्रीति की डोर  । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 30 ☆

☆ बँधी प्रीति की डोर  ☆

 

भीनी -भीनी खुश्बू ने भरमाया है.

मेरे मन की सांकल को खटकाया है

 

छेड़ा अपना राग समय ने अलबेला

जीवन की उलझन को फिर उलझाया है.

 

बँधी प्रीती की डोर, खो गई मैं देखो

प्रीतम ने ऐसा बादल बरसाया है.

 

पानी का बुलबुला एक जीवन अपना

क़ूर समय से पार न कोई पाया है.

 

मौन है जिन्दगी भटकती राहों में

देर हो गयी अब न कोई आया है।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 38 ☆ मशाल ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “ मशाल ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 38 ☆

☆ मशाल   ☆

रेगिस्तान सी तन्हाई है मुझमें-

बहुत चली हूँ नंगे पाँव

तपती हुई बालू पर,

बहुत खोजा है मेरे बेचैन दिल ने

पानी की तरह ख़ुशी को

जो किसी मृगतृष्णा की तरह

मेरी उँगलियों से फिसलती रही,

बहुत सहा है मैंने

उबलती हुई हवाओं को

जो मेरे बदन पर वार करती रहीं

और छालों से ढक दिया…

 

हाँ,

रेगिस्तान सी तन्हाई है मुझमें,

पर मुझमें एक अलाव की लौ भी है-

और यह लौ

सीने पर लाख ज़ख्म होने पर भी

मुझे बुझने नहीं देती

और शायद इसीलिए मैं रुदाली नहीं बनी,

मैं बन गयी एक मशाल

जो राहगीरों को रौशनी दिखाती है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 18 ☆ कविता – बेरिकेड्स ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “बेरिकेड्स”।  अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 18

☆  बेरिकेड्स ☆

जिंदगी की सड़क पर

खड़े हैं कई बेरिकेड्स

दोनों ओर खड़े हैं तजुर्बेकार

वरिष्ठ पहरेदार

करने सीमित नियति

सीमित जीवन की गति

 

कभी कभी तोड़ देती हैं

जिंदगी की गाडियाँ

बेरिकेड्स और सिगनल्स

भावावेश या उन्माद में

कभी कभी कोई उछाल देता है

संवेदनहीनता के पत्थर

भीड़तंत्र में से

बिगाड़ देता है अहिंसक माहौल

तब होता है – शक्तिप्रयोग

नियम मानने वाले से

मनवाने वाला बड़ा होता है

अक्सर प्रशासक विजयी होता है

 

आखिर क्यों खड़े कर दिये हमने

इतने सारे बेरिकेड्स

जाति, धर्म, संप्रदाय संवाद के

ऊंच, नीच और वाद के

कुछ बेरिकेड्स खड़े किए थे

अपने मन में हमने

कुछ खड़े कर दिये

तुमने और हितसाधकों नें

घृणा और कट्टरता के

अक्सर

हम बन जाते हैं मोहरा

कटवाते रह जाते हैं चालान

आजीवन नकारात्मकता के

 

काश!

तुम हटा पाते

वे सारे बेरिकेड्स

तो देख सकते

बेरिकेड्स के उस पार

वसुधैव कुटुंबकम पर आधारित

एक वैश्विक ग्राम

मानवता-सौहार्द-प्रेम

एक सकारात्मक जीवन

एक नया सवेरा

एक नया सूर्योदय।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ऊँचाई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ ऊँचाई ☆

 

बहुमंजिला इमारत की

सबसे ऊँची मंजिल पर

खड़ा रहता है एक घर,

गर्मियों में इस घर की छत

देर रात तक तपती है,

ठंड में सर्द पड़ी छत

दोपहर तक ठिठुरती है,

ज़िंदगी हर बात की कीमत

ज़रूरत से ज्यादा वसूलती है,

छत बनाने वालों को ऊँचाई

अनायास नहीं मिलती है..!

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रात्रि 3:29 बजे, 20 मई 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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