हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 52 ☆ व्यंग्य – भाग्य से मिला मानुस तन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘भाग्य से मिला मानुस तन ’। यह सच है कि मानव जीवन भाग्य से मिलता है। किन्तु, जीवन मिलने  के आगे भी तो बहुत कुछ है……..। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 52 ☆

☆ व्यंग्य – भाग्य से मिला मानुस तन ☆

गोसाईं जी बहुत सही लिख गये हैं——‘बड़े भाग मानुस तन पावा,सुर दुरलभ सब ग्रंथनि गावा।’ यानी यह मनुष्य का चोला बड़े भाग्य से मिलता है और यह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।

मनुष्य-जन्म मिला तो रीढ़ सीधी हुई, आँखों के सामने संसार बड़ा हो गया और हाथों को चलने के काम से मुक्ति मिली। आदमी के स्वतंत्र हाथों ने दुनिया को बदल कर रख दिया।रीढ़ की अहमियत के बारे में आचार्य विश्वनाथ तिवारी की एक कविता है—–

         ‘रीढ़ न हो सीधी तो कैसे बनेगा आदमी,

          रीढ़ झुकी है तो हाथ बँथे हैं,

          हाथ बँथे हैं तो बँधी हैं आँखें,

          आँखें बँधी हैं तो बँधा है मस्तिष्क,

           मस्तिष्क बँधा है तो बँधी है आत्मा।’

यानी हाथ मुक्त हुए तो मस्तिष्क और आत्मा भी मुक्त हो गये। निःसंदेह यह मनुष्य-जन्म की बड़ी उपलब्धि है।

लेकिन शंका यह उठती है कि क्या मात्र मनुष्य-जन्म पाने से संसार-सागर में अपनी नैया पार हो जायेगी? विचार करने पर बहुत से प्रश्न और सन्देह कुलबुलाने लगते हैं।

ज़ाहिर है कि सिर्फ मनुष्य का जन्म लेने से काम नहीं चलेगा। जन्म लेते ही देखना होगा कि आप किस जाति में अवतरित हुए हैं।यदि ऊँची जाति में जन्म नहीं हुआ तो मनुष्य-जन्म अकारथ हो जायेगा। ऊँची जाति में अवतरित होते ही ज़िन्दगी की आधी मुश्किलें हल हो जाती हैं।यदि दुर्भाग्य से नीची जाति में जन्म हो गया तो पुराने दागों को छुड़ाते ही उम्र बीत जायेगी।न मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ने को मिलेंगी, न गाँव के सार्वजनिक कुएँ से पानी नसीब होगा।न घोड़ी पर बारात निकलेगी, न चढ़ी- पनहियाँ गाँव के दबंगों के घर के सामने से निकलना हो पायेगा।कभी कभी ताज्जुब होता है कि क्या ‘इनको’ और ‘उनको’ बनाने वाला भगवान एक ही है? एक ही होता तो हज़ारों साल तक इतना ज़ुल्म कैसे होने देता?सारे कानूनों और सरकारी वीर-घोषणाओं के बावजूद निचली जातियों का एक बड़ा तबका अभी भी अपने पुराने, गंदे धंधों में लिथड़ने के लिए अभिशप्त है जहाँ आगे अँधेरे के सिवा कुछ नहीं है।

दूसरे, मनुष्य-जन्म तभी सार्थक हो सकता है जब घर में इतना पैसा-कौड़ी हो कि पढ़-लिख कर मुकम्मल आदमी बना जा सके। अब शिक्षा इतनी मँहगी हो गयी है कि खर्च उठाने की कूवत न हुई तो मनुष्य-जन्म प्राप्त करने के बाद भी ‘साक्षात पशु, पुच्छ विषाण हीना’ बने रहने की नौबत आ सकती है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद कुछ बचे तो कुछ पैसा ‘रिश्वत फंड’ के लिए रखना ज़रूरी होगा अन्यथा काबिलियत के बाद भी नौकरी और रोज़गार पाने में अनेक ‘दैवी’ अड़चनें पैदा हो सकती हैं।

दर असल मनुष्य-जन्म को सार्थक बनाने के लिए कुछ ‘पावर’ होना ज़रूरी है, अन्यथा मनुष्य-जन्म बिरथा हो जाएगा। ‘पावर’  पालिटिक्स का हो सकता है या पैसे का या पद का। ये तीनों अन्योन्याश्रित हैं। पैसा पालिटिक्स में  घुसने की राह हमवार करता है। पैसे से पद और पद से पैसा प्राप्त होने का सुयोग बनता है। पालिटिक्स में सफलता मिल जाए तो पैसा और पद सब सुलभ हो जाता है। आजकल एक और पावर धर्म का है जो मनुष्य-जीवन को बड़ी ऊँचाइयाँ प्रदान करता है। धर्म का पावर सब पावर से बढ़ कर है। यह पावर मिल जाए तो लक्ष्मी अपने आप खिंची चली आती है। साथ ही राजनीतिज्ञ,थनकुबेर और बड़े पदाधिकारी सभी धर्म की शक्ति वालों के आगे नतमस्तक होते हैं। धर्म का चमत्कार देखना हो तो धार्मिक पावर वालों के जीवन पर दृष्टि डालें।

किस्सा-कोताह यह कि मनुष्य-जन्म की सार्थकता तभी है जब ऊपर दी हुई शर्तें भी पूरी हों, अन्यथा कोरा मनुष्य-जन्म साँसत में गुज़र सकता है।

फिलहाल खबर यह है कि हमारे देश में कई लोग अपने शरीर में रीढ़ की उपस्थिति से परेशान हैं। उनका कहना है कि पालिटिक्स और नौकरी में सफलता के लिए रीढ़ को बार बार झुकाना पड़ता है और मनुष्य के रूप में उन्हें जैसी रीढ़ मिली है उसमें पर्याप्त लचक नहीं है।इसलिए वे डाक्टरों से मिलकर संभावना तलाश कर रहे हैं कि उनकी रीढ़ अलग करके उन्हें केंचुए जैसा बना दिया जाए ताकि उनका जीवन सरल और सफल हो सके।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #50 ☆ सन्मति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # सन्मति ☆

यात्रा पर हूँ। एक भिक्षुक भजन गा रहा है, ‘रघुपति राघव राजाराम…..सबको सम्पत्ति दे भगवान।’

संभवतः यह उसका भाषाई अज्ञान है। अज्ञान से विज्ञान पर चलें। विज्ञान कहता है कि सजीवों में वातावरण के साथ अनुकूलन या तालमेल बिठाने की स्वाभाविक क्षमता होती है।

इस क्षमता के चलते स्थूल शरीर का भाव सूक्ष्म तक पहुँचता है। जो वाह्यजगत में उपजता है, उसका प्रतिबिंब अंतर्जगत में दिखता है।

आज वाह्यजगत भौतिकता को ‘त्वमेव माता, च पिता त्वमेव’ मानने की मुनादी कर चुका। संभव है कि इसके साथ मानसिक अनुकूलन बिठाने की जुगत में अंतर्जगत ने ‘सन्मति’ को ‘सम्पत्ति’ कर दिया हो।

क्या हम सब भी ‘सन्मति’ से ‘सम्पत्ति’ की यात्रा पर नहीं हैं? सन्मति के लोप और सम्पत्ति के लोभ का क्या कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बंध है? इनके अंतर्सम्बंधों की  पड़ताल शोधार्थियों को संभावनाओं के अगणित आयाम दे सकती हैं।

 

#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज

मंगलवार 30 मई 2017, प्रात: 8:35 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 36 – धम्मम शरणम गच्छामि ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना  ‘धम्मम शरणम गच्छामि । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 36 – विशाखा की नज़र से

☆  धम्मम शरणम गच्छामि  ☆

 

अगर यह कलयुग है तो

उसकी देहरी पर बैठी है मानवता

और यह है साँझ का वक्त

देहलीज के उस पार

धीरे – धीरे बढ़ रहा है अंधकार

हो न हो कलयुग का यही है मध्यकाल

अर्थ जिसका कि ,

अभी और गहराता जाएगा अंधकार

 

देहरी के इस ओर है धम्म का घर

जहां किशोरवय संततियां

एक – एक कक्ष में फैला रहीं है प्रकाश

अभी शेष है समय

चलो ! कलयुग को पीठ दिखा

हम लौट चले धर्म से धम्म की ओर

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 9 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 9/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 9 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

 

दीदार की तलब हो तो

नज़रें जमाये रखिये,

क्योंकि नक़ाब हो या नसीब, 

सरकता  तो  जरूर है…

 

If urge of her glimpse is there

Then keep an eye on it patiently

Coz whether it’s the  mask or

luck , it moves for sure…

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

चलो अब ख़ामोशियों 

की गिरफ़्त में चलते हैं…

बातें गर ज़्यादा हुईं तो 

जज़्बात खुल जायेंगे..!!

  

Let’s get arrested now in

the regime of silence …

If we kept talking anymore

Emotions may get revealed…!!

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

बादलों का गुनाह नहीं कि 

वो  बेमौसम  बरस  गए!! 

दिल  हलका  करने का 

हक  तो  सबको हैं ना!!

 

 It’s not the crime of clouds

If they rained unseasonably!

After all everyone is entitled 

To lighten burdened sorrows

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

काश नासमझी में ही

 बीत जाए ये ज़िन्दगी

समझदारी ने तो हमसे बहुत कुछ छीन लिया…

 

Wish  life could pass 

In  imprudence only

Wiseness alone 

did snatch a lot…

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 10 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपके दोहा सलिला

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 10 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆ 

कर अव्यक्त को व्यक्त हम, रचते नव ‘साहित्य’

भगवद-मूल्यों का भजन, बने भाव-आदित्य

.

मन से मन सेतु बन, ‘भाषा’ गहती भाव

कहे कहानी ज़िंदगी, रचकर नये रचाव

.

भाव-सुमन शत गूँथते, पात्र शब्द कर डोर

पाठक पढ़-सुन रो-हँसे, मन में भाव अँजोर

.

किस सा कौन कहाँ-कहाँ, ‘किस्सा’-किस्सागोई

कहती-सुनती पीढ़ियाँ, फसल मूल्य की बोई

.

कहने-सुनने योग्य ही, कहे ‘कहानी’ बात

गुनने लायक कुछ कहीं, कह होती विख्यात

.

कथ्य प्रधान ‘कथा’ कहें, ज्ञानी-पंडित नित्य

किन्तु आचरण में नहीं, दीखते हैं सदकृत्य

 

व्यथा-कथाओं ने किया, निश-दिन ही आगाह

सावधान रहना ‘सलिल’, मत हो लापरवाह

 

‘गल्प’ गप्प मन को रुचे, प्रचुर कल्पना रम्य

मन-रंजन कर सफल हो, मन से मन तक गम्य

 

जब हो देना-पावना, नातों की सौगात

ताने-बाने तब बनें, मानव के ज़ज़्बात

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – प्यारी‌ कविता ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत भावप्रवण एवं परिकल्पनाओं से परिपूर्ण रचना  –  प्यारी‌ कविता।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  प्यारी‌ कविता ☆

 

मृगनयनी ‌से‌ नयनां कजरारे,

तेरी ‌मदभरी आंखों की‌‌ चितवन ।

तेरी ‌पायल की‌ रूनक झुनक,

अब मोह रही है मेरा‌ मन।

तेरे अधरो की‌ हल्की‌ लाली,

चिटकी गुलाब की कलियों ‌सी।

तेरी जुल्फों का‌ रंग देख,

भ्रम‌ होता काली ‌रातों की।

तेरा  मरमरी बदन  छूकर ,

मदमस्त हवा में होती है।

जिन राहों ‌से‌ गुजरती हो तुम,

अब वे राहें महका करती हैं।

तुम जिस महफ़िल‌ से गुजरती हो,

सबको दीवाना करती हों

पर तुम तो प्यारी कविता हो,

बस‌ प्यार‌  मुझी से करती‌ हो ।।1।।

तुम मेरे ‌सपनों की शहजादी,

मेरी‌ कल्पना से ‌सुंदर‌ हो ।

ना तुमको देख‌ सके‌ कोइ,

तुम मेरी स्मृतियों के ‌भीतर हो ।

मैंने तुमको इतना चाहा,

मजनूं फरहाद से  भी बढ़कर।

तुम मेरी जुबां से बोल पड़ी,

मेरे दिल की‌‌ चाहत बन कर।

तुम कल्पना मेरे मन की‌‌ हो ,

एहसास मेरे जीवन की‌ हो।

तुम ‌संगीतों का गीत‌ भी‌ हो ,

तुम‌ मेरे मन का मीत भी हो

तुम मेरी अभिलाषा हो,

मेरी जीवन परिभाषा हो ।

अब‌ मेरा अरमान हो तुम ,

मेरी पूजा और ध्यान हो तुम।

मैं शरीर तुम आत्मा हो ,

मेरे ख्यालों का दर्पण हो।

अब तो मैंने संकल्प लिया,

ये जीवन धन तुमको अर्पण हो

जब कभी भी तुमको याद किया,

तुम पास मेरे आ जाती हो ।

मेरे ‌सूने निराश मन को,

जीवन संगीत सुनाती हो

मैं राहें तकता रहता हूं,

अपने आंखों के ‌झरोखों से ।

तुम हिय में ‌मेरे‌ समाती हो,

शब्दों संग हौले हौले ‌से

जब याद तुम्हारी आती है,

कल्पना लोक में खोता हू

शब्दों  भावों के गहनों से,

मै  तेरा बदन पिरोता  हूं।

तुम जब‌ जब आती हो ख्यालों में,

तब मन में मेरे मचलती हो ।

शब्दों का प्यारा‌ रूप पकड़,

लेखनी से मेरी निकलती हो,

चलो आज  बता दें दुनिया को,

तुम मेरी प्यारी कविता हो मेरी प्यारी कविता हो।।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 13 ☆ दिवाने ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण कविता “दिवाने“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 13 ☆

☆ दिवाने

मी उलगडीत गेलो,कोड्यातले उखाणे

रीतेच राहिले परी,जीवनातले रकाने !!

 

लावूनी वर्ख लिलया,मी चमकविली पाने

किताब जिंदगीचे ,तरी राहिले पुराने !!

 

जिंकीत सर्व गेलो,अगदी क्रमाक्रमाने

सर्वस्व हारलो मी, एकाच नकाराने!!

 

वाटीत सुखे गेलो, तुडवीत किती राने

नामाभिदान दिधले,त्यांनी मला दिलाने !!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 6 – पृथ्वीराज कपूर ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : पृथ्वीराज कपूरपर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 6 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : पृथ्वीराज कपूर ☆ 

पृथ्वीराज कपूर (3 नवंबर 1906 – 29 मई 1972) हिंदी सिनेमा जगत एवं भारतीय रंगमंच के प्रमुख स्तंभों में गिने जाते हैं। पृथ्वीराज ने बतौर अभिनेता मूक फ़िल्मो से अपना करियर शुरू किया। उन्हें भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के संस्थापक सदस्यों में से एक होने का भी गौरव हासिल है। पृथ्वीराज ने सन् 1944 में मुंबई में पृथ्वी थिएटर की स्थापना की, जो देश भर में घूम-घूमकर नाटकों का प्रदर्शन करता था। इन्हीं से कपूर ख़ानदान की भी शुरुआत भारतीय सिनेमा जगत में होती है।

ब्रिटिश भारत के खैबर पख्तूनख्वा, (वर्तमान पाकिस्तान) के पेशावर में एक गली में क़िस्सा ख्वानी बाज़ार था, जहाँ दोपहर से रात दस बजे तक गप्पों का लम्बा दौर चलता था जिसमें ज़ुबान के फ़नकार  और याददाश्त के धनी क़िस्साग़ो मौजूदा लोगों को रामायण-महाभारत, अरेबियन-नाइट, ब्रितानी-रानी और ईरानी-बादशाहों के साथ दिल्ली और लाहौर के क़िस्से मसाला लगाकर  सुनाया करते थे।

उस गली से थोड़ी दूर पर दो दोस्तों के मकान थे, एक घर लाला ग़ुलाम सरवार और दूसरा घर दीवान बशेस्वरनाथ सिंह कपूर का था। दोनों दोस्त फलों के बाग़ानों के मालिक और भरपूर परिवार के मुखिया थे। लाला ग़ुलाम सरवार के चार बच्चे थे, असलम खान, नासिर ख़ान, यूसुफ़ खान, एहसान खान।

पृथ्वीराज कपूर का जन्म 3 नवंबर 1906 को समुंद्री, समुंद्री तहसील, लायलपुर जिला, पंजाब के खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता, बागेश्वरनाथ कपूर, पेशावर शहर में भारतीय इंपीरियल पुलिस में एक पुलिस अधिकारी के रूप में कार्य करते थे जबकि उनके दादा केशवमल कपूर समुंद्री में एक तहसीलदार थे। बॉलीवुड के मशहूर निर्माता और अभिनेता अनिल कपूर के पिता सुरिंदर कपूर पृथ्वीराज कपूर के चचेरे भाई थे।

दीवान बशेस्वरनाथ सिंह कपूर के दो बच्‍चे त्रिलोक कपूर और पृथ्वीराज कपूर के अलावा पृथ्वीराज कपूर की जल्दी शादी हो जाने  से उनके बच्चे राज कपूर, शशि कपूर, शम्मी कपूर, उर्मिला कपूर और सिआल कपूर, सब हम उम्र थे। क़िस्सा वाली गली में क़िस्सा-कहानी सुनने जमे रहते थे, उनमें यूसुफ़ और राज सबसे आगे बैठते थे, एक आज़ाद भारत का अदाकारी सम्राट और दूसरा सबसे बड़ा क़िस्सागो “शो मेन” बनने वाला था।

पृथ्वीराज कपूर का जन्म 3 नवम्बर 1906 को समुंद्री, फैसलाबाद, पंजाब (ब्रिटिश भारत), अब पाकिस्तान का पंजाब में हुआ था। वे ख्याति नाम फ़िल्म अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, लेखक थे। जब वे 17 साल के तब उनका विवाह 19 वर्षीय  रामसरनी मेहरा (1923–1972)  से हुआ और राजकपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर उनके सुपुत्र थे। पृथ्वीराज कपूर को कला क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। 1972 में उनकी मृत्यु के पश्चात उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।

पृथ्वीराज ने पेशावर पाकिस्तान के एडवर्ड कालेज से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने एक साल तक कानून की शिक्षा भी प्राप्त की जिसके बाद उनका थियेटर की दुनिया में प्रवेश हुआ। 1928 में उनका मुंबई आगमन हुआ। कुछ एक मूक फ़िल्मों में काम करने के बाद उन्होंने भारत की पहली बोलनेवाली फ़िल्म आलम आरा में मुख्य भूमिका निभाई।

पृथ्वीराज लायलपुर और पेशावर में थियेटर में अभिनय करते थे। वे अपनी चाची से क़र्ज़ लेकर 1928 बम्बई आकर इम्पीरीयल फ़िल्म कम्पनी में नौकरी करने लगे जहाँ उन्होंने “दो धारी तलवार” मूक फ़िल्म में एक्स्ट्रा की भूमिका की, जिससे प्रभावित होकर उन्हें 1929 में “सिनेमा गर्ल” में मुख्य भूमिका मिल गई। उन्होंने कुल 9 मूक फ़िल्मों में काम किया जिनमे शेर ए अरब और प्रिन्स विजय कुमार धसमिल थीं। फिर उन्हें पहली सवाक् फ़िल्म आलमआरा में काम करने का मौक़ा मिला।

आलमआरा (विश्व की रौशनी) 1931 में बनी हिन्दी भाषा और भारत की पहली सवाक (बोलती) फिल्म है। इस फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी हैं। ईरानी ने सिनेमा में ध्वनि के महत्व को समझते हुये, आलमआरा को और कई समकालीन सवाक फिल्मों से पहले पूरा किया। आलम आरा का प्रथम प्रदर्शन मुंबई (तब बंबई) के मैजेस्टिक सिनेमा में 14 मार्च 1931 को हुआ था। यह पहली भारतीय सवाक इतनी लोकप्रिय हुई कि “पुलिस को भीड़ पर नियंत्रण करने के लिए सहायता बुलानी पड़ी थी”। मास्टर विट्ठल, जुबैदा और पृथ्वीराज कपूर मुख्य कलाकार थे।

1937 में पृथ्वीराज की फ़िल्म विद्यापति आई जो एक  बंगाली बायोपिक फिल्म है, जिसे देबकी बोस ने न्यू थियेटर्स के लिए निर्देशित किया है।  इसमें विद्यापति के रूप में पहाड़ी सान्याल ने अभिनय किया। फ़िल्म में उनके साथ कानन देवी, पृथ्वीराज कपूर, छाया देवी, लीला देसाई, के. सी. डे  और केदार शर्मा थे। संगीत आर. सी. बोरल का था और गीत केदार शर्मा ने लिखे थे। देबकी बोस और काजी नजरूल इस्लाम ने कहानी, पटकथा और संवाद लिखे। कहानी मैथिली कवि और वैष्णव संत विद्यापति के बारे में है। फिल्म के गीत लोकप्रिय हो गए। इसने सिनेमाघरों में 1937 की बड़ी सफलता हासिल करने वाली भीड़ को सुनिश्चित किया।

उन दिनों की फिल्मों में नायिका-केंद्रित होने का चलन था और हालांकि इस फिल्म को विद्यापति कहा जाता था, लेकिन फिल्म की मुख्य कलाकार कानन देवी थीं। एक मजबूत स्क्रिप्ट के साथ फिल्म का मुख्य प्रदर्शन उनका मुख्य प्रदर्शन बन गया।

पृथ्वीराज कपूर के प्रदर्शन को फिल्मइंडिया के संपादक बाबूराव पटेल ने उच्च दर्जा दिया, जबकि “नवागंतुक” मोहम्मद इशाक की भी सराहना की। उन्होंने देबकी बोस के निर्देशन को “कला की बेहतरीन कविता” और बोस को “वास्तव में एक महान निर्देशक” कहा।

इस फिल्म का उपयोग गुरुदत्त ने अपनी फिल्म कागज़ के फूल (1959) में थिएटर युग की बालकनी में फ़िल्म के किरदार सुरेश को श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत किया, जहाँ विद्यापति को दर्शकों द्वारा देखा जा रहा है।

संगीत निर्देशक आर. सी. बोराल ने अपने संगीत निर्देशन में पियानो का उपयोग करके पश्चिमी प्रभाव में लाए।  यह प्रभाव लोकप्रिय होने के साथ-साथ क्लासिक धुनों में भी सफल रहा और गीतों को काफी सराहा गया। अनुराधा की भूमिका जिसे कानन देवी ने अधिनियमित किया था, उसे नाज़रुल इस्लाम ने बनाया था। उनके गीत “मोर अंगना में आयी आली” और के. सी डे के साथ उनके युगल गीतों ने उन्हें न्यू थियेटर्स में के. एल. सहगल के साथ शीर्ष महिला गायन स्टार बना दिया। केदार शर्मा ने अपने और देबकी बोस के बीच मतभेदों के बाद न्यू थियेटर्स को छोड़ दिया।

पृथ्वीराजकी 1941 में एक बहुत बेहतरीन फ़िल्म “सिकंदर” आई, जिसके निर्देशक सोहराब मोदी थे। इस फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर ने सिकंदर महान का किरदार निभाया है।

कहानी 326 ई.पू. फिल्म सिकंदर महान के फारस और काबुल घाटी पर विजय के बाद  भारतीय अभियान से शुरू होती है, सिकंदर की सेना  झेलम में भारतीय सीमा तक पहुंचती है। वह अरस्तू का सम्मान करता है और फारसी रुखसाना से प्यार करता है। सोहराब मोदी भारतीय राजा पुरु (यूनानियों के लिए पोरस) की भूमिका में हैं। पुरु पड़ोसी राज्यों से एक सामान्य विदेशी दुश्मन के खिलाफ एकजुट होने का अनुरोध करता है। विश्वासघाती आम्भी राजा की भूमिका में के.एन.सिंग थे।

जब सिकंदर ने पोरस को हराया और उसे कैद किया, तो उसने पोरस से पूछा कि उसका इलाज कैसे किया जाएगा। पोरस ने उत्तर दिया: “जिस तरह एक राजा दूसरे राजा द्वारा व्यवहार किया जाता है”। सिकंदर उनके जवाब से प्रभावित हुए और उन्हें आज़ाद कर दिया। पृथ्वीराज  और सोहराब मोदी के लम्बे-लम्बे संवाद फ़िल्म की जान थे। बाद में एक फ़िल्म “सिकंदरे आज़म भी बनी थी जिसमें दारासिंह सिकंदर और पृथ्वीराज राजा पोरस बने थे।

पृथ्वीराज को थियेटर का बचपन से शौक़ था। बम्बई में सोहराब मोदी पारसी थियेटर से जुड़े थे। उनकी संवाद अदायगी और भूमिका निर्वाह में थियेटर की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पृथ्वीराज को भी थियेटर की ललक जागी तो उन्होंने बम्बई की एंडरसन थियेटर कम्पनी में शौक़िया जाना शुरू किया। उन्हें नियमित रूप से नाटकों में भूमिका मिलने लगी। एंडरसन थियेटर कम्पनी इंग्लिश-यूरोपियन थियेटर के शेक्सपियर के नाटकों  प्रभावित था। पृथ्वीराज नाटकों और फ़िल्मों के मंजे हुए कलाकार के रूप में उभरने लगे। पृथ्वीराज पर थियेटर का ऐसा रंग चढ़ा कि उन्होंने 1944 में बम्बई में पृथ्वी थियेटर स्थापित कर दिया हालाँकि वे 1942 से कालिदास का अभिज्ञान शकुन्तलम नाटक प्रस्तुति कर रहे थे।

पृथ्वीराज 1946 तक अपने भरे पूरे परिवार के एकमात्र कमाने वाले मुखिया थे। जब राजकपूर फ़िल्मों में काम करने लगे और आग फ़िल्म से निर्माता-निर्देशक के रूप में उभरने लग गए तो पृथ्वीराज पूरी तरह थियेटर को समर्पित हो गए।

उन्होंने आज़ादी की थीम पर पूरे देश में घूमकर नाटक मंचन करना शुरू कर दिया। उन्होंने दो सालों में 2662 नाटक मंचित किए। उनका एक बहुत प्रसिद्ध नाटक पठान था जो हिंदू मुस्लिम एकता ओर केंद्रित था, जिसे बम्बई में 600 बार मंचित किया। उनके थिएटर ग्रुप में 80 कलाकार थे। 1950 तक फ़िल्मे अधिक बनने लगीं और छोटे शहरों में भी टाक़ीज खुलने से घुमंतू थिएटर का ज़माना लदने लगा। उनके ग्रुप के अधिकांश कलाकार भी फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ गए तब उन्होंने भी 1951 से राजकपूर की फ़िल्म आवारा से फ़िल्मों में काम करना शुरू कर दिया। पृथ्वी थिएटर बम्बई में काम करता रहा। वे फ़िल्मों से जितना भी कमाते थियेटर में लगा देते थे।

उन्होंने 1960 में मुग़ल-ए-आज़म, 1963 में हरीशचंद्र तारामती, 1965 में सिकंदर-ए-आज़म और 1971 में कल आज और कल में काम किया था।

उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों नानक नाम जहाज़ है (1969) नानक दुखिया सब संसार (1970) और मेले मित्तरां दे (1972) में भी काम किया था।

उन्हें 1954 में साहित्य अकादमी अवार्ड, 1969 में पद्म भूषण पुरस्कार और 1971 में दादा साहिब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया  गया था। वे 9 सालों तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे थे।

वे उनकी पत्नी दोनों कैंसर से पीड़ित होकर आठ दिनों के अंतर से स्वर्ग सिधार गए, पृथ्वीराज की मृत्यु 29 मई 1972 को बम्बई में हुई थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – कविता ☆ स्वप्नात   आलं   झाड ☆ सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। कई पुरस्कारों/अलंकारों से पुरस्कृत/अलंकृत सुश्री मीनाक्षी सरदेसाई जी का जीवन परिचय उनके ही शब्दों में – “नियतकालिके, मासिके यामध्ये कथा, ललित, कविता, बालसाहित्य  प्रकाशित. आकाशवाणीमध्ये कथाकथन, नभोनाट्ये , बालनाट्ये सादर. मराठी प्रकाशित साहित्य – कथा संग्रह — ५, ललित — ७, कादंबरी – २. बालसाहित्य – कथा संग्रह – १६,  नाटिका – २, कादंबरी – ३, कविता संग्रह – २, अनुवाद- हिंदी चार पुस्तकांचे मराठी अनुवाद. पुरस्कार/सन्मान – राज्यपुरस्कारासह एकूण अकरा पुरस्कार.)

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता स्वप्नात   आलं   झाड। हम भविष्य में भी आपकी सुन्दर रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।

 

☆ स्वप्नात   आलं   झाड ☆

 

एकदा   स्वप्नात  आलं   झाड

बोलू    लागलं    फाडफाड.

फांद्यांचे    हिरवे     हात

हलवत     होतं     जोरजोरात..

 

“आम्ही   सुध्दा     तुमच्या सारखी

ह्या    धरतीची    मुलं    आहोत.

तुमचा    छळ    आणि   जुलूम

मुकेपणाने    सोसतो    आहोत

आमचं    जीवन   आणि   मरण

तुमच्या    हातात   घेतलत   तुम्ही

तुमच्यासाठी    करतो    त्याग

तो     तुम्हाला   कळत   नाही.

रस्ते    रुंद    हवेत   म्हणून

तिथून    आम्हाला    उखडता

घरात    अंधार      येतो   सांगून

सरळ    फांद्या    छाटून    टाकता.

करू    नका    आमची    पूजा ,

उगिचच     करता    गाजावाजा

तुमचे    सण,     तुमचे   उत्सव

आम्ही    भोगत    असतो    सजा

आमचा    बहर,   आमचं    वैभव

तुम्ही    करता    बेचिराख

न  हलण्याचा,   न  बोलण्याचा

आम्हाला    आहे   ना   शाप.

जंगलात   आहे    आमचं   राज्य

तिथे   तरी    येऊ    नका

प्राणी,  पक्षी   आमचे    मित्र

त्यांना    बेघर   करू    नका.”

 

© मीनाक्षी सरदेसाई

‘अनुबंध’, कृष्णा हास्पिटलजवळ, पत्रकार नगर, सांगली.४१६४१६.

मोबाईल  नंबर   9561582372

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 45 – तंत्र, शिव और शक्ति ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “तंत्र, शिव और शक्ति । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 45 ☆

☆ तंत्र, शिव और शक्ति 

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि तंत्रवाद में सभी दृश्य वस्तुएँ या रूप या अवधारणाएँ भगवान शिव और शक्ति के संयोजन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। हमारा जीवन शिव और शक्ति के बीच अलगाव के कारण ही है । शक्ति हमेशा व्यक्तिगत और ब्रह्मांड के विकास को पूरा करने के लिए शिव के साथ एकजुट होने का प्रयत्न करती है । जब शक्ति भगवान शिव के साथ मिलती है तो वैश्विक खेल समाप्त होता है और विश्राम का समय आ जाता है । आप इससे ऐसे सोच सकते हैं कि शिव एक अपरिवर्तिनीय चेतना या स्थितिज ऊर्जा है और शक्ति सक्रिय चेतना या गतिज ऊर्जा है ।

चेतना के गुणों की अंतः क्रिया से सीमित आयाम प्रकट होते हैं, और यह सीमित अभिव्यक्ति आयाम उन गुणों को प्राप्त करते हैं जिन्हें यह नाद, बिंदू और कला से ग्रहण करते हैं। शुद्ध अव्यक्त ऊर्जा के तीन गुण नाद, कला और बिंदू हैं । जबकि प्रकट ऊर्जा के तीन गुण सत्त्व, राजास और तामस हैं, स्पष्ट रूप से नाद कंपन है, बिंदू एक नाभि या केंद्र है और कला एक किरण या बल है जो नाभिक या बिंदू से उत्पन्न होता है ।

प्रत्येक नाद या कंपन में चार आवृत्तियाँ हैं जिनके विषय में मैंने कई बार बताया है, वे परा या ब्रह्मांडीय, पश्यन्ती या आकाशीय, मध्यमा या सूक्ष्म और विखारी या सकल या स्थूल हैं । क्या आप जानते हैं कि हमारे शरीर की हर कोशिका का नाभिक वही बिंदू है । इसमें गुणसूत्र होते हैं जो पूरी स्मृति और प्रजातियों की विकासवादी क्षमता को सांकेतिक शब्दों में बदलते (encode) हैं । यह बिंदू वास्तव में पदार्थ, ऊर्जा और चेतना के बीच एक कड़ी है ।

मनुष्य का वीर्य, जो सृजन के लिए ज़िम्मेदार है वास्तव में इस बिंदू और शुक्राणुजनों का संयोजन है। निषेचित अंडा एक सचेत जीवित ऊतक है । जब शुक्राणु अंडाशय में प्रवेश करता है, तो यह चेतना की एक सूक्ष्म गतिशील जगह बनाता है। उस जगह को आकश रहित आकाश कहा जाता है, जो चेतना का बिंदू है और बिना साँस के हिलता और धड़कता रहता है। उर्वरित अंडाशय में, जीव-व्यक्तिगत चेतना, ब्रह्म-सार्वभौमिक चेतना से अलग होती है। नाद-ध्वनिहीन ध्वनि, बिंदू-स्पंदनात्मक चेतना, और कला-झिल्लीदार संरचना, सभी युग्मनज (zygote) में उपस्थित होते हैं । यह गर्भ में बढ़ने वाला एक मृत ऊतक नहीं होता । एक कोशिका का दो, चार, और सोलह कोशिकाओं में विभाजन प्राण वायु द्वारा पूर्ण किया जाता है । इस प्रकार, शरीर का आकार प्राण वायु द्वारा ही निर्धारित होता है । कफ प्रत्येक कोशिका को पोषित करने में सहायता करता है और पित्त युग्मनज के मूल में अपरिपक्व कोशिका को परिपक्व कोशिका में परिवर्तित करता है । उर्वरित अंडाशय का यह कोश विभाजन भ्रूण को विकास की ओर ले जाता है ।

शक्ति त्रिगुणात्मक होती है, और ये इच्छा शक्ति – इच्छा की शक्ति, क्रिया शक्ति – कार्य की शक्ति, और ज्ञान शक्ति – ज्ञान की शक्ति है । ज्ञान शक्ति सात्विक होती है, क्रिया राजस्विक एवं इच्छा शक्ति तामसिक होती है । ज्ञान शक्ति शरीर का वात दोष, क्रिया पित्त दोष और इच्छा कफ दोष का सूक्ष्म रूप है । सामान्य मनुष्यों के लिए सरल शब्दों में ज्ञान शक्ति स्वयं या आत्मा और बुद्धि का मिश्रित रूप है, क्रिया शक्ति आत्मा और चित्त का मिश्रित रूप है और इच्छा शक्ति आत्मा और मन का मिश्रित रूप है ।

तंत्रवाद के शब्दों में बिंदू शिव है, कला शक्ति है (तीन मुख्य कला : क्रिया, ज्ञान और इच्छा) और नाद शिव और शक्ति का युग्मन है ।

सृजन के तीन बिन्दु सूर्य बिंदू, चंद्र बिंदू और अग्नि बिंदू हैं । अगर हम सूर्य बिंदू से अग्नि बिंदू को मिलाते हैं, तो मिलाने वाली रेखा को क्रिया शक्ति, जो की तीनों शक्तियों में सबसे बड़ी है कहा जायेगा । चंद्र बिंदु और अग्नि बिंदु को मिलाने वाली रेखा तामस प्रकृति की इच्छा शक्ति है और सूर्य बिंदु और चंद्र बिंदु को मिलाने वाली रेखा में ज्ञान शक्ति है जिसकी सात्विक प्रकृति है ।

क्रिया शक्ति रेखा वर्णमाला के साथ शुरू होने वाले संस्कृत के 16 स्वर हैं । यह भी स्पष्ट है कि क्रिया शक्ति का अर्थ भौतिक कार्यों से है जिसे संस्कृत के स्वरों द्वारा प्रकृति में नामित किया गया है जैसा कि चक्रों के विषय में बताते समय मैंने पहले ही बताया था । इच्छा शक्ति रेखा के 16 व्यंजन हैं जो ‘थ’ से शुरू होते हैं एवं ज्ञान शक्ति के 16 व्यंजन हैं जो ‘क’ से शुरू होते हैं ।  संस्कृत वर्णमाला के शेष तीन अक्षर ‘ह’, ‘ल’ और ‘क्ष’ इस त्रिभुज के शिखर हैं । अब इन तीन शक्तियों से उत्पन्न ध्वनि को समझें ।

आत्मा के प्राण वायु के माध्यम से कार्य करते हुए इच्छा शक्ति के आवेग से मूलाधार चक्र में परा नामक ध्वनि शक्ति उत्पन्न होती है, जो अन्य चक्रों के माध्यम से अपने आरोही आंदोलन में अन्य विशेषताओं और नामों (पश्यन्ती और मध्यमा) से जाती है, और जब मुँह से प्रकट होती है तो बोलने वाले अक्षरों के रूप में विखारी का रूप ले लेती है जो चक्रों में ध्वनि के सकल या स्थूल पहलू हैं । जब तीन गुण सत्त्व, राजस और तामस संतुलन (साम्य) की स्थिति में होते हैं, तो उस अवस्था को परा कहा जाता है । पश्यन्ती वह अवस्था है जब तीनों गुण असमान हो जाते हैं । अब कुछ और अवधारणाएं स्पष्ट हुई?”

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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