हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 48 ☆ ज़िंदगी…लम्हों की किताब ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी…लम्हों की किताब।  वास्तव में  ज़िन्दगी लम्हों की किताब ही है। एक एक लम्हा किताब के पन्नों की तरह गुज़रता है, फर्क सिर्फ इतना कि आप उसे पलट कर पढ़ नहीं सकते। आपके हाथों में सिर्फ अगले अगले लम्हे ही हैं। हाँ मन के पन्नों को पलटा कर कभी भी  खुद को पढ़ा जा सकता है। इस आलेख के कई महत्वपूर्ण कथन हमें विचार करने के लिए उद्वेलित करते हैं। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 48 ☆

☆ ज़िंदगी…लम्हों की किताब

लम्हों की किताब है जिंदगी/ सांसों व ख्यालों का हिसाब है ज़िंदगी/ कुछ ज़रुरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी/ बस इन्हीं सवालों का/ जवाब है जिंदगी।’ प्रश्न उठता है–ज़िंदगी क्या है? ज़िंदगी एक सवाल है; लम्हों की किताब है; सांसों व ख्यालों का हिसाब है; कुछ अधूरी व कुछ पूरी ख्वाहिशों का सवाल है। सच ही तो है, स्वयं को पढ़ना सबसे अधिक कठिन कार्य है। जब हम खुद के बारे में नहीं जानते; अनजान हैं खुद से… फिर ज़िंदगी को समझना कैसे संभव है? ‘जिंदगी लम्हों की सौग़ात है/ अनबूझ पहेली है/ किसी को बहुत लंबी लगती/ किसी को लगती सहेली है।’ ज़िंदगी सांसों का एक सिलसिला है। जब कुछ ख्वाहिशें पूरी हो जाती हैं, तो इंसान प्रसन्न हो जाता है; फूला नहीं समाता है– मानो उसकी ज़िंदगी में चिर-बसंत का आगमन हो जाता है और जो ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं; टीस बन जाती हैं; नासूर बन हर पल सालती हैं, तो ज़िंदगी अज़ाब बन जाती है। इस स्थिति के लिए दोषी कौन? शायद! हम…क्योंकि ख्वाहिशें हम ही मन में पालते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। एक के बाद दूसरी प्रकट हो जाती है और ये हमें चैन से नहीं बैठने देतीं। अक्सर हमारी जीवन-नौका भंवर में इस क़दर फंस जाती है कि हम चाह कर उस चक्रवात से बाहर नहीं निकल पाते। परंतु इसके लिए दोषी हम स्वयं हैं, इसीलिए उस ओर हमारी दृष्टि जाती ही नहीं और न ही हम यह जानते हैं कि हम कौन हैं? कहां से आए हैं और इस संसार में आने का हमारा प्रयोजन क्या है? संसार व समस्त प्राणी-जगत् नश्वर है और माया के कारण सत्य भासता है। यह सब जानते हुए भी हम आजीवन इस मायाजाल से मुक्त नहीं हो पाते।

सो! आइए, खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें; अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दे। ख्वाहिशों अथवा आकांक्षाओं को आवश्यकताओं तक सीमित कर दें, क्योंकि आवश्यकताओं की पूर्ति तो सहज रूप में संभव है; इच्छाओं की नहीं, क्योंकि वे तो सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं और उनका अंत कभी नहीं होता। जिस दिन हम इच्छा व आवश्यकता के गणित को समझ जाएंगे; ज़िंदगी आसान हो जाएगी। आवश्यकता के बिना तो ज़िंदगी की कल्पना ही बेमानी है, असंभव है। परमात्मा ने प्रचुर मात्रा में वायु, जल आदि प्राकृतिक संसाधन जुटाए हैं… भले ही मानव के बढ़ते लालच के कारण  हम इनका मूल्य चुकाने को विवश हैं। सो! इसमें दोष हमारी बढ़ती इच्छाओं का है। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाकर उन्हें सीमित कर; तनाव-रहित जीवन जीना श्रेयस्कर है।

ख्वाहिशें कभी पूरी नहीं होती और कई बार हम पहले ही घुटने टेक कर पराजय स्वीकार लेते हैं; उन्हें पूरा करने के निमित्त जी-जान से प्रयत्न भी नहीं करते और स्वयं को झोंक देते हैं– चिंता, तनाव, निराशा व अवसाद के गहन सागर में; जिसके चंगुल से बच निकलना असंभव होता है। वास्तव में ज़िंदगी सांसों का सिलसिला है। वैसे भी ‘जब तक सांस, तब तक आस’ रहती है और जिस दिन सांस थम जाती है, धरा का, सब धरा पर, धरा ही रह जाता है। मानव शरीर पंच-तत्वों से निर्मित है…सो! मानव अंत में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश में विलीन हो जाता है।

‘आदमी की औक़ात, बस! एक मुट्ठी भर राख’ यही जीवन का शाश्वत सत्य है। मृत्यु अवश्यंभावी है; भले ही समय व स्थान निर्धारित नहीं है। इंसान इस जहान में खाली हाथ आया था और उसे सब कुछ यहीं छोड़, खाली हाथ लौट जाना है। परंतु फिर भी वह आखिरी सांस तक इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और अपनों की चिंता में लिप्त रहता है। वह अपने आत्मजों व प्रियजनों के लिए आजीवन उचित- अनुचित कार्यों को अंजाम देता है…उनकी खुशी के लिए, जबकि पापों का फल उसे अकेले ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय’ अर्थात् सुख-सुविधाओं का आनंद तो सभी लेते हैं, परंतु वे पाप के प्रतिभागी नहीं होते। आइए! हम इससे निजात पाने की चेष्टा करें और हर पल को अंतिम पल मानकर निष्काम कर्म करें। ‘पल में प्रलय हो जाएगी, मूरख करेगा कब?’ जी हां! कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है; केवल वर्तमान ही सत्य है। इसलिए जो भी करना है; आज ही नहीं, अभी करना बेहतर है। कबीर जी का यह संदेश उक्त भाव को अभिव्यक्त करता है। क़ुदरत ने तो हमें आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारी स्वयं की खोज है। इससे तात्पर्य है कि प्रकृति दयालु है; मां की भांति  हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। परंतु मानव स्वार्थी है; उसका अनावश्यक दोहन करता है;

जिसके कारण अपेक्षित संतुलन व सामाजिक- व्यवस्था बिगड़ जाती है तथा उसके कार्य-व्यवहार में अनावश्यक हस्तक्षेप करने का परिणाम है… सुनामी, अत्यधिक वर्षा, दुर्भिक्ष, अकाल, महामारी आदि… जिनका सामना आज पूरा विश्व कर रहा है। मुझे स्मरण हो रही हो रहा है… भगवान महाबीर द्वारा निर्दिष्ट–’जियो और जीने दो’ का सिद्धांत, जो अधिकार को त्याग कर्तव्य-पालन व संचय की प्रवृत्ति का त्याग करने का संदेश देता है। सृष्टि का नियम है कि ‘एक सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।’ सो! जीवन में ज़रूरतों की पूर्ति करो; व्यर्थ की ख्वाहिशें मत पनपने दो, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं होतीं और उनके जंज़ाल में फंसा मानव कभी भी मुक्त नहीं हो पाताता। इसलिए सदैव अपनी चादर देख कर पांव पसारने अर्थात् संतोष से जीने की सीख दी गयी है… यही अनमोल धन है अर्थात् जो मिला है, उसी में संतोष कीजिए, क्योंकि परमात्मा वही देता है, जो हमारे लिए आवश्यक व शुभ होता है। सो! ‘सपने देखिए! मगर खुली आंख से’…और उन्हें साकार करने की पूर्ण चेष्टा कीजिए; परंतु अपनी सीमाओं में रहते हुए, ताकि उससे दूसरों के अधिकारों का हनन न हो।

संसार अद्भुत स्थान है। आप दूसरे के दिल में, विचारों में, दुआओं में रहिए। परंतु यह तभी संभव है, जब आप किसी के लिए अच्छा करते हैं; उसका मंगल चाहते हैं; उसके प्रति मनोमालिन्य का दूषित भाव नहीं रखते। सो! ‘सब हमारे, हम सभी के’ –इस सिद्धांत को जीवन में अपना लीजिए…यही आत्मोन्नति का सोपान है। ‘कर भला, हो भला’ तथा ‘सबका मंगल होय’ अर्थात् इस संसार में हम जैसा करते हैं; वही लौटकर हमारे पास आता है। इसीलिए कहा गया है कि रूठे हुए को हंसाना; असहाय की सहायता करना; सुपात्र को दान देना आदि सब आपके पास ही प्रतिदान रूप में लौट कर आता है। वक्त सदा एक-सा नहीं रहता। ‘कौन जाने, किस घड़ी, वक्त का बदले मिज़ाज’ तथा ‘कल चमन था, आज एक सह़रा हुआ/ देखते ही देखते यह क्या हुआ’– यह हक़ीक़त है। पल-भर में रंक राजा व राजा रंक बन सकता है। क़ुदरत के खेल अजब हैं; न्यारे हैं; विचित्र हैं। सुनामी के सम्मुख बड़ी-बड़ी इमारतें ढह जाती हैं और वह सब बहा कर ले जाता है। उसी प्रकार घर में आग लगने पर कुछ भी शेष नहीं बचता। कोरोना जैसी महामारी का उदाहरण आप सबके समक्ष है। आप घर की चारदीवारी में क़ैद हैं… आपके पास धन-दौलत है; आप उसे खर्च नहीं कर सकते; अपनों की खोज-खबर नहीं ले सकते। कोरोना से पीड़ित व्यक्ति राजकीय संपत्ति बन जाता है। यदि बच गया, तो लौट आएगा,अन्यथा उसका विद्युत्-दाह भी सरकार द्वारा किया जाएगा। हां! आपको सूचना अवश्य दे दी जाएगी।

लॉक-डाउन में सब बंद है। जीवन थम-सा गया है। सब कुछ मालिक के हाथ है; उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल पाता…फिर यह भागदौड़ क्यों? अधिकाधिक धन कमाने के लिए अपनों से छल क्यों? दूसरों की भावनाओं को रौंद कर महल बनाने की इच्छा क्यों? सो! सदा प्रसन्न रहिए। ‘कुछ परेशानियों को हंस कर टाल दो, कुछ को वक्त पर टाल दो।’ समय सबसे बलवान् है; सबसे बड़ी शक्ति है; सबसे बड़ी नियामत है। जो ठीक होगा, वह तुम्हें अवश्य मिल जाएगा। चिंता मत करो। जिसे तुम अपना कहते हो; तुम्हें यहीं से मिला है और तुम्हें यहीं सब छोड़ कर जाना है। फिर चिंता और शोक क्यों?

रोते हुए को हंसाना सबसे बड़ी इबादत है; पूजा है; भक्ति है; जिससे प्रभु प्रसन्न होते हैं। सो! मुट्ठी खुली रखना सीखें, क्योंकि तुम्हें इस संसार से खाली हाथ लौटना है। अपने हाथों से गरीबों की मदद करें; उनके सुख में अपना सुख स्वीकारें, क्योंकि ‘क़द बढ़ा नहीं करते, एड़ियां उठाने से/ ऊंचाइयां तो मिलती है, सर को झुकाने से।’ विनम्रता मानव का सबसे बड़ा गुण है। इससे बाह्य धन-संपदा ही नहीं मिलती; आंतरिक सुख, शांति व आत्म-संतोष भी प्राप्त होता है और मानव की दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: अंत हो जाता है। वह संसार उसे अपनाव खुशहाल नज़र आता है। सो! ज़िंदगी उसे दु:खालय नहीं भासती; उत्सव प्रतीत होती है, जिस में रंजोग़म का स्थान नहीं; खुशियां ही खुशियां हैं; जो देने से, बांटने से विद्या रूपी दान की भांति बढ़ती चली जाती हैं। इसलिए कहा जाता है–’जिसे इस जहान में आंसुओं को पीना आ गया/ समझो! उसे जीना आ गया।’ सो! जो मिला है, उसे प्रभु-कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें, ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल, भविष्य जो अनिश्चित है; कभी आएगा नहीं…उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें… यही ज़िंदगी है और लम्हों की सौग़ात है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 2 ☆ इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण : आज सक्षम लोगों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण : आज सक्षम लोगों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना’।)

☆ किसलय की कलम से # 2 ☆

☆ इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण : आज सक्षम लोगों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना ☆

गरीब, जरूरतमंद, भिखारी अथवा कृपाकांक्षी होना अक्सर किसी का स्वभाव या प्रवृत्ति नहीं होती, अपितु यह किसी सामान्य इंसान का अंतिम रास्ता या परिस्थिति होती है। समाज भी इसे सम्मानजनक नहीं मानता। विश्व में कर्म को प्रधानता प्राप्त है, तब अकर्मण्यता आखिर क्यों सम्मानित होगी? भले ही वह विषम परिस्थितियों अथवा विवशता में अपनाई जाए, घर की दो सूखी रोटियाँ भली इसीलिए कहीं गई हैं। एक साधारण  बात है जो चीज मेहनत, बल, बुद्धि और समय खपाकर प्राप्त की जाती है, उसे यूँ ही खैरात में बाँटने का साहस एक सामान्य मानव नहीं कर पाता या जब वह किसी अकर्मण्य को किसी दूसरे के पसीने की कमाई लुटाते या उपभोग करते देखता है तो उसके हृदय में न चाहते हुए भी कसक होती ही है।

दरवाजे पर आए भिखारियों और राह चलते माँगने वालों को हम सभी ने दुत्कारते और मना करते देखा है। आखिर इस मानसिकता के पृष्ठभाग में क्या छुपा है? इसमें सच्चाई यही है कि अधिकतर ये भिखारी या जरूरत का आडंबर ओढ़े लोग अपनी दिन भर की कमाई को उदरपोषण और बचत करने के बजाय दारुखोरी, जुए और अन्य व्यसनों में ज्यादा उड़ा देते हैं। इनमें ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें वास्तव में दान या सहयोग का सुपात्र कहा जाये। एक और सच्चाई है कि यह जानते हुए कि याचक हमारी दया का पात्र है फिर भी हम अपनी मेहनत की कमाई देने का मन नहीं बना पाते। दान, परोपकार व सहयोग की भावना तब बलवती होती है, जब सामने वाली की मुसीबतें, लाचारी, असलियत और अवस्था प्रदाता की अंतरात्मा को द्रवित करती है। इस भावना के वशीभूत होकर जब इंसान परपीड़ा, परोपकार, दान या सहयोग करता है तब ही वह परमानंद पाता है जो आत्मसंतुष्टि तो देता ही है, अतुलनीय भी होता है। मानव को प्राप्त हुए इस परमानंद के लिए याचक और दानदाता दोनों के मन साफ होना आवश्यक है। याचक की लालची प्रवृत्ति के पता चलने पर दाता जहाँ ठगे जाने का अनुभव करता है, वहीं सुपात्र याचक भी कभी-कभी दाता द्वारा अनिच्छा पूर्वक दिए दान से दुखी भी होते हैं। आदिकाल के हरिश्चंद्र, मोरध्वज या दानवीर कर्ण की दानवीरता से कौन परिचित नहीं है। परमार्थ हमारे संस्कारों तथा भारतीयता के मूल में है। सभी चाहते हैं कि उनकी संतान संस्कारवान बने और सुकृति हो, पर आज के बदलते परिवेश और एकल पारिवारिक जीवनशैली ने हमारी परंपराओं, रिश्तों और सद्भावना की दुर्गति बना दी है। कहते हैं कि आग राख  के अंदर विद्यमान रहती है। हमारे संस्कार बाह्याडंबर और चकाचौंध में भले ही सिमट जाएँ लेकिन अनुकूल वातावरण में वे पुनर्जीवित हो जाते हैं।

हम आज का ही उदाहरण लें, कोविड-19 महामारी से सारा विश्व ग्रसित और भयाक्रांत है, हर आदमी घर में ही दुबके रहना चाहता है, लेकिन हमारा मन घर तक सीमित भला कैसे रहेगा? मन तो घर-परिवार से आगे देश-दुनिया के बारे में भी सोचता रहता है। हम ठीक हैं, क्या और सभी ठीक हैं? पड़ोसी कैसा है? रिश्तेदार कैसे हैं? आसपास की आँखों देखी, रेडियो, टेलीविजन, प्रिंट मीडिया, अंतरजाल आदि पर पढ़ी-लिखी-सुनी बातों पर ये मन चिंतन तो करेगा ही।

इन दिनों प्रायः सभी ने यह देखा है कि एक बहुत बड़ा ऐसा तबका है जो दिहाड़ी पर निर्भर है या किसी कारणवश उसके पास खाद्यान्न का अभाव है। अनेक माध्यमों से बहुतायत में हम तक ये खबरें पहुँच रही हैं कि मुसीबत के इन क्षणों में इस तबके के लोगों को भूखे सोने तक की नौबत आ गई है। आज पत्थर दिल इंसान का भी दिल पिघल रहा है। उद्योगपति, धनाढ्य, उच्चवर्ग, मध्यमवर्ग, यहाँ तक कि उदारमना निम्नवर्ग भी इन दिनों “किसी को भूखा नहीं सोने देंगे” वाक्य को चरितार्थ करने में यथायोग्य सहायक बन रहा है। सरकार के सकारात्मक कार्यों की सराहना आज हर कोई कर रहा है लेकिन उससे कहीं अधिक जनसामान्य और निजी तौर पर किए जा रहे प्रयास भी प्रणम्य हैं। एक बड़े अंतराल के बाद ये परोपकारिता के दुर्लभ दृश्य दिखाई पड़ रहे हैं। आज मोहल्ला, गाँवों, कस्बों और शहरों के कोने-कोने में व्यक्तिगत रूप से, समूहों व संस्थाओं के माध्यम से जरूरतमंदों को दिल खोलकर भोजन व खाद्य सामग्री पहुँचाई जा रही है। व्यक्तिगत, समूहों व संस्थाओं के सदस्य अपनी जान जोखिम में डालकर चौबीसों घंटे मदद हेतु तत्पर हैं। उनका सेवाभाव देखते ही बनता है। इसी तरह सहयोगकर्ताओं की अंतहीन सहायता युगों बाद दिखाई दे रही है। इन सहयोगियों, दानदाताओं और इस पुण्य कार्य में कर्त्तव्यस्थ व्यक्तियों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु शब्द कम पड़ रहे हैं। मेरा मानना है कि इन लोगों को देखकर जहाँ अन्य लोग भी प्रेरित हो रहे हैं, वहीं अनजाने में ही सही ये परहित के संस्कार हम अपनी संतानों में डाल रहे हैं। शायद अगली पीढ़ी और आने वाला समय ज्यादा सहृदय और सदाचारी हो।

आज हमें जरूरतमंदों के प्रति जो सेवाभाव देखने मिल रहा है। आवारा जानवरों, बंदरों, कुत्ते-बिल्लियों को तक लोग भोजन दे रहे हैं, ऐसा पूर्व में कभी नहीं दिखा। कोविड-19 महामारी का सबसे बड़ा खतरा है ही, बावजूद इसके आज सक्षम और परोपकारियों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण भी बन रहा है। लगभग 500 वर्ष पूर्व तुलसीदास जी द्वारा लिखा सूत्र-

परहित सरिस धरम नहिं भाई

परपीड़ा सम नहिं अधमाई

आज वास्तव में हमारे समाज के लोगों ने इसे चरितार्थ किया है। ऐसे वृहद स्तर व लंबी अवधि तक जरूरतमंदों को भोजन व खाद्यान्न आपूर्ति का ऐसा दृश्य मानवता की मिसाल ही कहा जाएगा। वक्त निकल जाएगा, महामारी चली जाएगी, पर काफी लंबे समय तक ये क्षण, ये बातें, ये परोपकार की कहानियाँ बार-बार दोहराई जाती रहेंगी।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 48 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 48 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

दस्यु

कोरोना ने ले लिया, क्रूर दस्यु का रुप।

दहशत पूरे विश्व में, फैली काल- स्व्रूप।

 

भूकंप

उस भीषण भूकंप से, सहमा है गुजरात।

भयाक्रांत है आज भी, जब चलती है बात।।

 

कुटिया

सब कुटिया में बंद हैं, नहीं चैन- आराम।

रोजी-रोटी छिन गई, हर पल-छिन संग्राम।

 

चौपाल

गाँवों की चौपाल का, रहा अनूठा रंग।

हिलमिल गाते झूमते, जन-गण-मन रसरंग।।

 

नवतपा

आग उगलता नवतपा,  लू ने लिया लपेट।

कोरोना को अब यही, देगा मृत्यु-चपेट।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 39 ☆ वापिस अपने घर चले…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  एक भावप्रवण रचना “वापिस अपने घर चले…. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 39 ☆

☆ वापिस अपने घर चले .... ☆

मजदूरों पर दे रहे, नेता रोज बयान

सुनते सुनते पक गए, मजदूरों के कान

 

पाँवों में छाले पड़े, गया हाथ से काम

वापिस अपने घर चले, लेकर दर्द तमाम

 

रोटी छूटी हाथ से, छूटा सकल जहान

भूख गरीबी चीख कर, चल दी देकर जान

 

मजदूरों की आत्मा, करती आज सवाल

किया किसी ने कुछ नहीं, उनके जीवन काल

 

कहते आह गरीब की, छोड़े बहुत प्रभाव

संभव हो तो कीजिये, उनका दूर अभाव

 

खाने के लाले पड़े, जीना हुआ मुहाल

रोजी रोटी भी गई, हुए तंग बदहाल

 

संकट नहीं दरिद्र सा, नहीं दरिद्र सी पीर

आखिर कोई कहाँ तक, मन में रक्खे धीर

 

श्रमजीवी लाचार हैं,  बेबस  हैं मजदूर

उनके हित कुछ कीजिये, साहिब आज जरूर

 

देखे अब जाते नहीं, इनके यह हालात

करना गर कुछ कीजिये, छोड़ हवाई बात

 

ऐसीं  नीति बनाइये, मिले  हाथ को काम

सब के हिय “संतोष”हो, कहीं न हों बे-काम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – हळवे कुटुंब. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “हळवे कुटुंब. . . ! ,

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ हळवे कुटुंब. . . ! ☆  

 

वासे घराचे सांगती

धर संस्काराची कास.

सुख, दुःख , राग लोभ

चार भिंती, चातुर्मास.. . !   1

 

चार कोपरे घराचे

माया ममतेची आस

जन्म दाते मायबाप

कुटुंबाचा दैवी श्वास.. . !  2

 

गेलो माणूस वाचत

आला घराला  आकार

मित्र आणि गुरूजन

झाले कुटुंब साकार .. . !  3

 

बंधू भगिनी प्रेमात

कुटुंबाचे बालपण

जसा जाई काळ तसे

घरा येई घरपण. . . !  4

 

आज्जी आजोबांची साथ

जणू कुटुंब  आरोग्य

नात्या नात्यातून होते

त्याची देखभाल योग्य .. . ! 5

 

आप्त स्वकियांची ये जा

होई कुटुंब संवादी

दिली  वास्तू पुरूषाने

त्यांची  गुणदोष यादी. . . . ! 6

 

अन्नपूर्णा गृहिणीचा

आहे  कुटुंब आरसा

आई,  पत्नी,  आणि मुले

माझा जीवन वारसा.. . ! 7

 

कुटंबाने दिले बळ

पावसाला झेलायला

संकटांनी शिकविले

जीवनास तोलायला.. . ! 8

 

कुटुंबाने वेळोवेळी

दिला मदतीचा हात

उजेडाच्या गावी नेले

केली सौख्य बरसात. . . . ! 9

 

किती किती  आठवणी

चारभिंती पोपड्यात

सुख दुःख समारंभ

कुटुंबाच्या काळजात.. . ! 10

 

कुलदैवताची कृपा

शब्द सुता करी वास

अशा सृजन  विश्वात

नको दुःखाचा  आभास. . . . ! 11

 

असे हळवे कुटुंब

यशश्रीने सालंकृत

यशवंत भाग्यश्रीची

कृपा छाया  आलंकृत.. . .! 12

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 32 ☆ लघुकथा – दूरदर्शिता ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक  “ बोधपरक लघुकथा – दूरदर्शिता ”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 32☆

☆  बोधपरक लघुकथा – दूरदर्शिता 

पानी से लबालब भरे एक तालाब में दो मछलियां रहती  थीं – दूरदर्शी और नुक्ताचीनी  , दोनों अच्छी दोस्त थीं पर स्वभाव में एक दूसरे के विपरीत. दूरदर्शी गंभीर स्वभाव की थी और हर काम सोच- समझकर किया करती थी. नुक्ताचीनी आलसी थी और हर बात को हँसकर हवा में उडा देती थी. उसका कहना था जो होगा देखा जाएगा. दूरदर्शी बहुत कोशिश करती थी उसे समझाने की, सही रास्ते पर लाने की लेकिन वह तो अपनी मर्जी की मालिक थी.

एक दिन दूरदर्शी तालाब की दीवार से सटी आराम कर रही थी तभी उसने दो मनुष्यों को आपस में बात करते सुना —‘ इस तालाब में बहुत मछलियां होंगी कल सबेरे आकर जाल डालेंगे, खूब कमाई होगी ‘. दूरदर्शी ने जल्दी से जाकर अन्य  मछलियों को सारी बात बताई और बोली हम सबको दूसरे तालाब में चले जाना चाहिए, नहीं तो जाल में फँस जाएंगे. यह सुनकर नुक्ताचीनी हँसकर बोली – अरे ये तो ऐसे ही डराती रहती है, जरूरी नहीं है कि कल वो आदमी जाल लेकर आ ही जाएं,कल की कल देखेंगे और यह कहकर वह तेजी से  गहरे पानी में चली गई.  दूरदर्शी क्या करती,वह चुप रही और सुबह होने का इंतजार करने लगी.

सुबह तालाब में ऊपर आकर उसने नजर दौडाई, देखा,  दो आदमी जाल लिए चले आ रहे थे. वे तालाब में जाल डालने की तैयारी करने लगे.वह  तेजी से अपनी सखियों से बोली – जल्दी से सब निकल चलो यहाँ से,  मछुआरे आ गए हैं. नुक्ताचीनी ने अब भी उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया. मछुआरों ने जाल डाला और नुक्ताचीनी उसमें फँस गई. वह बेबस निगाहों से अपनी सखियों की ओर देख रही थी पर अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत ?

दूरदर्शी  मछली अपनी दूरदर्शिता से दूसरे  तालाब  में अन्य सखियों के साथ जीवन का आनंद उठा रही थी. सच ही है दूरदर्शिता जीवन में बहुत से संकटों से हमें बचा लेती है.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 51 ☆ व्यंग्य – मानहानि का मुकदमा यानी फेसवाश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  मानहानि के मुकदमों के अंजाम पर आधारित एक अतिसुन्दरव्यंग्य  “मानहानि का मुकदमा यानी फेसवाश ।   श्री विवेक जी ने उस मानहानि का भी जिक्र किया है जो पारिवारिक होती हैं और कदाचित वैसे ही रफा दफा हो जाती हैं जैसी ….. .  श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 51 ☆ 

☆ व्यंग्य – मानहानि का मुकदमा यानी फेसवाश 

 व्यंग के हर पंच पर किसी न किसी की मानहानि ही की जाती है, ये और बात है कि सामने वाला उसका नोटिस लेता है या नही, और व्यंगकार को मानहानि का नोटिस भेजता है या नही. व्यंगकार अपनी बात का सार्वजनिककरण इनडायरेक्ट टेंस में कुछ इस तरह करता है कि सामने वाला टेंशन में तो होता है पर मुस्करा कर टालने के सिवाय उसके पास दूसरा चारा नहीं होता.लेकिन जब बात सीधी टक्ककर की ही हो जाये तो मानहानि का मुकदमा बड़े काम आता है. सार्वजनिक जीवन में स्वयं को बहुचर्चित व अति लोकप्रिय होने का भ्रम पाले हुये किसी शख्सियत को जब कोई सीधे ही मुंह पर कालिख मल जाये तो तुरंत डैमेज कंट्रोल में, बतौर फेसवाश  मानहानि का मुकदमा किया जाता है. जब  समय के साथ मुकदमें की पेशी दर पेशी, मुंह की कालिख कुछ कम हो जाये, लोग मामला भूल जायें तो आउट आफ कोर्ट माफी वगैरह के साथ मामला सैट राइट हो ही जाता है. लेकिन यह तय है कि रातो रात शोहरत पाने के रामबाण नुस्खों में से एक है मानहानि के मुकदमें में किसी पक्ष का हिस्सा बन सकना.  मैं भी बड़े दिनो से लगा हुआ हूं कि कोई तो मुझे मानहानि का नोटिस भेजे और अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपते व्यंगो में बतौर लेखक मेरा नाम  अंदर के पन्ने से उठकर कवर पेज पर बाक्स न्यूज में  पढ़ा जाये. पर  मेरी तमाम कोशिशो के बाद भी मेरी पत्नी के सिवाय कोई अब तक मुझसे खफा ही नही हुआ. और पत्नी से तो मैं सारे मुकदमें पहले ही हारा हुआ हूं. पुराने समय में साले सालियो की तमाम सावधानियो के बाद भी जीजा और फूफा  वगैरह की मानहानि हर वैवाहिक आयोजन का एक अनिवार्य हिस्सा होता था. मामला घरेलू होने के कारण मानहानि के मुकदमें के बदले रूठने, और मनाने का सिलसिला चलता था. किसकी शादी में कौन से जीजा कैसे रूठे और कैसे माने थे यह चर्चा का विषय रहता था.

लोक जीवन में देख लेने की धमकी,धौंस जमाकर निकल लेना आदि  मानहानि के मुकदमें से बचने के सरल उपाय हैं. सामान्यतः जब यह लगभग तय हो कि मानहानि के मुकदमें में सामने वाला कोर्ट ही नही आयेगा तो उसे देख लेने की धमकी देकर छोड़ दिया जाता है. देख लेने की धमकी से बेवजह उलझ रहे दोनो पक्ष अपनी अपनी इज्जत समेट कर पतली गली से निकल लेने का एक रास्ता पा जाते हैं.  देख लेने की धमकी कुछ कुछ लोक अदालत के समझौते सा व्यवहार करती है. इसी तरह जब खुद की औकात ही किसी अपने की औकात पर टिकी हो जैसे आपका कोई नातेदार थानेदार हो, बड़ा अफसर हो या मंत्री वंत्री हो, विपक्ष का कद्दावर नेता हो तो भले ही आपका स्वयं  का  कुछ मान न हो पर आप अपना सम्मान अपने  उस  महान रिश्तेदार के मान से जोड़ सकते हैं और सड़क पर गलत ड्राइविंग या गलत पार्किंग करते पाये जाने पर, बिना रिजर्वेशन आक्यूपाइड अनआथराइज्ड बर्थ पर लेटे लेटे, किसी शो रूम में मोलभाव करते हुये  बेझिझक अपनी रिलेशन शिप को जताते हुये, धौंस जमाने के यत्न कर सकते हैं. धौंस जम गई और आपका काम निकल गया तो बढ़िया. वरना आप जो हैं वह तो हैं ही.  तुलसी बाबा बहुत पहले चित्रकूट के घाट पर गहन चिंतन मनन के बाद लिख गये हैं ” लाभ हानि जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ “. तुलसी की एक एक चौपाई की व्याख्या में, बड़े बड़े शोध ग्रंथ लिखे जा चुके हैं. कथित विद्वानो ने  डाक्टरेट की उपाधियां लेकर  यश अर्जित किया है, और इस लायक हुये हैं कि उनकी मानहानि हो सके, वरना तो देश के करोड़ो लोगो का मान है ही कहाँ कि उनकी मानहानि हो . तो जब आपकी भी धौंस न चले, देख लेने की धमकी काम न आवे तो बेशक आप विधाता को अपने मान के अपमान के लिये दोषी ठहरा कर स्वयं खुश रह सकते हैं.  तुलसी की चौपाई का स्पष्ट अर्थ है कि यश और अपयश विधि के हाथो में है, फिर भी जाने क्यो लोग मान अपमान की गांठें बाधें अपने जीवन को कठिन बना लेते हैं. देश की अदालत में वैसे ही बहुत सारे केस हैं सुनवाई को. ए सी लगे कमरो के बाद भी कोर्ट को गर्मी की छुट्टियां भी मनानी पड़ती है,  इसलिये हमारी विनम्र गुजारिश है कि कम से कम मान हानि के मुकदमें दर्ज करने पर रोक लगा दी जाये अध्ययन किया जाये कि क्या इसकी जगह अपनी ऐंठ में जी रहे नेता धमकी, धौंस, बयान वगैरह से काम चला सकते हैं ?

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 20 ☆ स्पेसवासी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “स्पेसवासी।  इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी ने सिद्ध कर दिया कि शब्दों के खेल से कुछ भी रचा जा सकता है और यह आलेख शब्दों के खेल का ही कमाल है। इस शब्दशिल्प के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 20 ☆

☆ स्पेसवासी

अरे भई  किस स्पेस की बात कर रहे हैं, आजकल तो स्पेस ही स्पेस है,  दयाशंकर जी ने कहा।

सो तो है,  राघव जी ने कहा।

दोनों बचपन के दोस्त हमेशा ही व्यंग्य के माध्यम से ज्वलन्त मुद्दों पर बातचीत करते- रहते थे।

0पहले स्पेस में जाकर बसने की प्लानिंग थी, पर  एक ही झटके में धरती पर सबको पर्सनल स्पेस मिल गया, राघव जी ने कहा ।

हाँ भाई, अब तो स्पेस के बिना कोई कार्य ही नहीं होता। मास्क लगा कर, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए इसे मेंटेन कीजिए, दयाशंकर जी ने मुस्कुराते हुए कहा।

सो तो है, बहुत  दिनों से युवा पीढ़ी इसी स्पेस को लेकर जद्दोजहद कर रही थी, ऐसा मालुम होता है कि ईश्वर ने इनकी सुन ली, अब तो घर में रहकर चैन से इसके मजे लूटते रहो, बाहर निकलने पर खातिरदारी होती है, राघव जी ने कहा।

हँसते हुए दयाशंकर जी ने कहा  आखिरकार किसी न किसी तरह चीनी कृपा से हम स्पेशवासी हो ही गये।

बिल्कुल जब पूरे घर, यहाँ तक कि सारे त्योहारों पर चीनी सामान का राज था; तो ऐसे दिन तो देखने ही पड़ेंगे, राघव जी ने कहा।

हाँ भई, जब विदेशी मदद से स्पेस में पहुँचने की चाह हो तो ऐसा ही होता है। इसे कहते हैं लेना एक न  देना दो ।

अब तो इसी के साथ जीना सीखना होगा,दयाशंकर जी ने कहा।

एक दूसरे ही ओर देखकर, फीकी मुस्कान बिखेरते हुए दोनों अपनी – अपनी राह पर चल दिए।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 50 – काँच की दीवार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “काँच की दीवार । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 50 ☆

☆ लघुकथा –  काँच की दीवार  ☆

 

“लड़कियों को छूट देना, मन चाही जगह जाने देना, ज्यादा रोका टोकी नहीं करना, अच्छे कालेज में पढ़ाना, मनचाहा मोबाइल देना – इन्ही सब वजह से लड़कियां बिगड़ जाती है. मैंने तुझे कहा था की मोना को ज्यादा लाड़ प्यार मत कर. बिगड़ जाएगी. यह उसी का नतीजा है कि तेरी लड़की ने भाग कर दूसरी जाति के लड़के से शादी कर ली. एक मेरी लड़की टीना को देख….,” मोहन अपने छोटे भाई के जले पर नमक छिटक रहे थे.

तभी मोहन जी के लडके ने आ कर कहा, “पापाजी ! मामाजी का फोन है. कह रहे है कि टीना ने ही मोना की शादी का बंदोबस्त किया था.”

मोहन जी को लगा कि अभी-अभी वे जिन शब्दों से अपने स्वाभिमान रूपी कांच की दीवार खड़ी कर रहे थे उसे उन की लड़की मोना के व्यवहार रूपी पत्थर से चकनाचूर हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०४/०८/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 29 ☆ चक्र के दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “चक्र के दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 29 ☆

☆ चक्र के दोहे  ☆

 

कोरोना के चक्र में, फँसा सकल संसार।

मानव के दुष्कृत्य से, विपदा अपरंपार।।

 

हर कोई भयभीत है, मान रहा अब हार।

कार कोठियां रह गईं, धन सारा बेकार।

 

चमत्कार विज्ञान के, हुए सभी निर्मूल।

जान बूझकर ये मनुज, करता जाए भूल।।

 

बड़े-बड़े योद्धा डरे, कोरोना को देख।

पर मानव सुधरे नहीं, लिखे प्रलय का लेख।।

 

धन-दौलत की चाह में, करे प्रकृति को क्रुद्ध।

दोहन अतिशय ये करें, करता नियम विरुद्ध।।

 

मुश्किल में अब जान है ,घर में ही सब कैद।

बलशाली भी डर गए,डरे चिकित्सक वैद।।

 

अभी समय है चेत जा, तज दे तू अज्ञान।

काँधा देने के लिए, मिलें नहीं इंसान।।

 

भौतिक सुख सुविधा नहीं, अपने भव की सोच।

फास्टफूड ही कर रहा , लगी सोच में मोच।।

 

शाकाहारी भोज में , मिलता है आनन्द।

चाइनीज भोजन करे, सबकी मति है मन्द।।

 

योग, सैर अपनाइये, तन-मन रहे निरोग।

संस्कृति अपनी ही भली, कहते आए लोग।।

 

श्रम करने से ही सदा , तन का अच्छा हाल।

आलस मोटा कर रहा, बने स्वयं  का काल।।

 

व्यसनों में है आदमी, झूठा चाहे चैन।

मन भी बस में है नहीं, भाग रहा दिन रैन।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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