मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 47 –ओल. . . . ! ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता  “ओल. . . . !”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #47 ☆ 

☆ पत्रलेखन  – ओल. . . . !☆ 

 

प्रेम गुलाबाचे फूल

तुझ्या गाली फुललेले

एका  एका पाकळीत

आठवांनी नाहलेले. . . !

 

प्रेम कवितेचे घर

सुख दुःखाचे माहेर

कधी आसू,  कधी हासू

देई ओठांनी  आहेर. . . . !

 

प्रेम सागराची गाज

त्याला किनारी  आसरा

नको नदी  आसवांची

हवा चेहरा हासरा . . . . !

 

प्रेम गुलाबाचा काटा

काढी काट्यानेच काटा

तुझ्या डोळ्यात फुलल्या

जीवनाच्या ओल्या वाटा. . . . !

 

दव बिंदू पुरे एक

घेतो टिपूनीया प्रेम

ओल काळजाची माझ्या

माझ्या शब्दात सप्रेम. . . . . !

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

7/2/2019.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 49 – फिर नदी निर्मल बहेगी……☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना फिर नदी निर्मल बहेगी……। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 49 ☆

☆ फिर नदी निर्मल बहेगी…… ☆  

 

बाढ़ है ये

फिर नदी निर्मल बहेगी

बोझ आखिर क्यों

कहाँ तक ये सहेगी।

 

सिर उठाते ठूंठ,

हलचल है शवों में

अट्टहासी गूंज

प्रकुपित कलरवों में

मुंह छिपाए तट

विलोपित हो गए हैं

त्रस्त है मौसम

विषम इन अनुभवों में,

 

है उजागर

उम्र यूँ ढलती रहेगी।

बाढ़ है ये

फिर नदी निर्मल बहेगी।।

 

जीव जलचर

जो निराश्रित हो रहे हैं

घर, ठिकाने

स्वयं के सब खो रहे हैं

विकल बेसुध,

भोगते कलिमल किसी का

कौन सी भावी फसल

हम बो रहे है,

 

ये असीम करूण कथा

सदियां कहेगी।।

बाढ़ है ये

फिर नदी निर्मल बहेगी।।

 

क्या पता,

संग्रहित कब से जो पड़ा था

राह रोके

सलिल-लहरों के अड़ा था

वह कलुष कल्मष

समेटे बढ़ रही है

संग बरखा के,

इरादा सिर चढ़ा था,

 

लक्ष्य को पाने

सतत चलती रहेगी।

बाढ़ है ये

फिर नदी निर्मल बहेगी।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 30 – बापू के संस्मरण-4 प्रतिज्ञा वापस नहीं ली जाती ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – प्रतिज्ञा वापस नहीं ली जाती”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 29 – बापू के संस्मरण – 4- प्रतिज्ञा वापस नहीं ली जाती ☆ 

एक बार कस्तूरबा गांधी बहुत बीमार हो गईं । जल-चिकित्सा से उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ दूसरे उपचार किये गये उनमें भी सफलता नहीं मिली । अंत में गांधीजी ने उन्हें नमक और दाल छोड़ने की सलाह दी परन्तु इसके लिए बा तैयार नहीं हुईं । गांधीजी ने बहुत समझाया, पोथियों से प्रमाण पढ़कर सुनाये, लेकर सब व्यर्थ ।

बा बोलीं, “कोई आपसे कहे कि दाल और नमक छोड़ दो तो आप भी नहीं छोड़ेंगे” । गांधीजी ने तुरन्त प्रसन्न होकर कहा,”तुम गलत समझ रही हो मुझे कोई रोग हो और वैद्य किसी वस्तु को छोड़ने के लिये कहें तो तुरन्त छोड़ दूंगा और तुम कहती हो तो मैं अभी एक साल के लिए दाल और नमक दोनों छोड़ता हूं, तुम छोड़ो या न छोडो, ये अलग बात है” ।

यह सुनकर बा बहुत दुखी हुईं बोलीं, “आपका स्वभाव जानते हुए भी मेरे मुंह से यह बात निकल गई अब मैं दाल और नमक नहीं खांऊगी आप प्रतिज्ञा वापस ले लें” गांधीजी ने कहा, “तुम दाल और नमक छोड़ दोगी, यह बहुत अच्छा होगा उससे तुम्हें लाभ ही होगा, लेकिन की हुई प्रतिज्ञा वापिस नहीं ली जाती । किसी भी निमित्त से संयम पालन करने पर लाभ ही होता है मुझे भी लाभ ही होगा इसलिए तुम मेरी चिन्ता मत करो” । गांधीजी अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 50 ☆ व्यंग्य – आत्मनिर्भरता यानी सेल्फी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  ऑनलाइन बहस पर आधारित  एक अतिसुन्दर सेल्फी पर आधारित व्यंग्य  “ऑनलाइन बहस का मौसम।   श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 51 ☆ 

☆ व्यंग्य – ऑनलाइन बहस का मौसम

 लाकडाउन ने और कुछ दिया हो या न दिया हो पर घड़ी की सुई के साथ, नम्बरो और भौतिकता के इर्द गिर्द रुपयों के लिये भागमभाग करती जिंदगी को मजबूरी में ही सही पर खुद से मिलने के मौके जरूर दिये हैं. खुली जेल की नजरबंदी के मजे लेने की सोच जिसके पास है, उसने सारी परेशानियों के साथ, बिना कामवाली बाई के भी, काम करते हुये मेरी तरह जिंदगी के मजे भी लिये हैं. लोग सुबह तब काम पर निकल जाते थे जब बच्चे सो रहे होते थे, और तब थके हारे लौटते थे जब बच्चे सो चुके होते थे, मतलब वे बच्चो को लेटे हुये ही बढ़ता देख रहे थे. ऐसे सभी लोगों को भी अपनी जमीन, अपना गांव याद आ गया. लाकडाउन से परिवार के साथ समय बिताने का, खुद से खुद को मिलने का मौका मिला.

इस कोरोना काल का साहित्यकारो ने भरपूर रचनात्मक उपयोग किया. सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा कर लोगो ने नये यूट्यूब चैनल्स बनाये, इंस्टाग्राम और फेसबुक एकाउन्ट बनाये. युवाओ ने टिकटाक बनाये.  जो पहले से फेसबुक पर थे उन्होनें फेसबुक की मित्र मण्डली की छटनी कर डाली. इतना सब तो पहले लाकडाउन तक ही कर डाला गया. पर कहा जाता है न कि मनुष्य का दिमाग ऐसा सुपर कम्प्यूटर है जिसकी पूरी क्षमता का दोहन ही हम कभी नही कर पाते. जब सरकार को कोरोना से बचने का और कोई उपाय नही सूझा तो लाकडाउन दो लागू कर दिया गया. बुद्धिजीवी लोगो की बुद्धि बिना गोष्ठियों के अखल बखल होने लगी. जब तक गर्मागरम बहस न हो, देश के लोगों का खाना अच्छी तरह नही पचता. यही कारण है कि शाम होते ही सारे खबरिया चैनल अपने पर्दे पर बे सिर पैर की बहसों के आयोजन करते हैं. कथित विशेषज्ञ बातो के लात जूतो से एक दूसरे की लानत मलानत पर उतर आते हैं. भले ही बहस का कोई परिणाम नही निकलता पर सारे देश को भरोसा हो जाता है कि हमारा लोकतंत्र जिंदा है और हमारी अभिव्यक्ति की संवैधानिक आजादी पूरी तरह बरकरार है.

जिन लोगों को किसी व्यस्तता के चलते टीवी पर यह बहस सुलभ नही हो पाती उनके लिये देश में चाय और पान के टपरे हैं. जहां लोकल दैनिक से लेकर साप्ताहिक अखबार और सांध्य समाचार के पन्ने उपलब्ध होते हैं. यहां अपनी अपनी रुचि के अनुरूप लोग पसंदीदा खबर पर किसी भी जाने अनजाने उपस्थित अन्य चाय पीते व्यक्ति से टाइमपास बहस शुरू कर सकता है. इस तरह बहस से सारे देश का हाजमा हमेशा दुरुस्त बना रहता है. बुद्धिजीवियो को ऐसी प्रायोजित बहसो में मजा नही आता, उन्हें अपना खाना पचाने के लिये मौलिक बहसों की जरूरत होती है. इस वजह से वे काफी हाउस में एकत्रित होकर मुद्दे तलाशते हुये फिल्टर काफी पीते हैं. लगे हाथ चुगली, चाटुकारिता आदि भी हो जाती है, और अकादमी पुरस्कारो की साठ गांठ भी चलती रहती है.

एक और वर्ग होता है जिसे खाना पचाऊ बहस के लिये रात का समय ही मिल पाता है, यह वर्ग चखना के साथ स्वादानुसार पैग तैयार कर मित्र मण्डली से बहस करता है और लोकतंत्र को अपना समर्थन देते हुये मदहोश सुखद स्वप्न संसार में खो जाता है.

लाकडाउन ने चाय पान की गुमटियां गुम कर रखी थी,काफी हाउस और बार बन्द थे, इसलिये स्वाभाविक रूप से बिना बहस लोग अखल बखल थे. लोगों का हाजमा खराब हो रहा था. ऐसे समय में काम आये मोबाईल के वे मीटिंग एप जिनके जरिये हम ग्रुप्स में जुड़ सकते हैं, सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक संस्थाओ ने प्लेटफार्म दिये, ग्रुप एडमिन्स ने आनलाईन बहस के मुद्दे ढ़ूंढ़ लिये और लोग नियत समय पर आनलाईन कविता पाठ, व्यंग्यपाठ, देश की एकता, लाकडाउन हो या न हो, यदि मोदी की जगह कोरोना काल में राहुल प्रधानमंत्री होते तो, जैसे अनेकानेक विषयो पर आनलाईन बहस में जुटे हुये हैं. सबका हाजमा ठीक हो रहा है.अपनी बस यही गुजारिश है कि सरकार खाने के लिये आटा और उसे पचाने के लिये आनलाईन डाटा देती रहे, फिर कोई चिंता नही है, लाकडाउन तीन, चार, पांच चलता रहे जनता धीरे धीरे कोरोना के साथ जीना सीख ही लेगी.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 28☆ माँ शारदे ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  वीणावादिनी माँ सरस्वती वंदना की काव्याभिव्यक्ति  माँ शारदे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 28 ☆

☆ माँ शारदे ☆

विनती  माँ तुमसे मैं करती

सबकी पीड़ा पल में हरती

 

श्वेत वस्त्र धारिणी माँ शारदे

कमल के आसन  विराजती

 

बुध्दि, शुध्दि  विकार त्यागी

एकाग्रता को तुम ही संवारती

 

ज्योति प़काश दे तम को विखेरती

माँ वीणावादिनी स्वर को संवारती

 

तेरी शरण माँ निखार शब्द उर के

अभ्यास ज्ञान  लय को निखारती

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 37 ☆ एक शमां हरदम जलती है ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “एक शमां हरदम जलती है ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 37 ☆

☆ एक शमां हरदम जलती है  ☆

 

जब कोई डर सताए,

जब कोई दिल दुखाये,

जब बहाव थम सा जाए,

जब पाँव के नीचे शूल ही शूल चुभ रहे हों,

जब लगे कि ख्वाब पूरी तरह टूट गए हों,

और कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा हो,

जब हर साथी साथ छोड़ दे-

तब याद रखना

कि तुम्हारी खुद की रूह के भीतर भी

एक शमां है

जो हरदम जलती रहती है!

 

आँखें बंद कर

दो क्षण को बैठ जाना

और ध्यान देना कुछ लम्हों के लिए

उस शमां पर…

 

उसे देखना सुलगते हुए,

सुनना उसकी बातें

जो तुमको आगे बढ़ने की

प्रेरणा दे रही होंगी,

महसूस करना

उसकी उष्णता

जो तुममें नई स्फूर्ति भर रही होगी…

 

सुनो,

अकेलापन एक मिथ्या है-

तुम अकेले कभी नहीं होते!

अपनी रूह की सुनोगे

तो मुस्कुराते हुए हरदम बढ़ते ही रहोगे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 51 ☆ कविता – ईद ऐसी दोबारा न हो ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की भाईचारे एवं  सौहार्द के पर्व ईद-उल-फितर के अवसर पर रचित एकअतिसुन्दर कविता “ईद ऐसी दोबारा न हो।  श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर कविता  के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 51 ☆ 

☆ कविता  – ईद ऐसी दोबारा न हो 

 

घर ही मस्जिद बन गई

सजदे में हैं लोग

माफी मांगें खुदा से

रब रोको यह रोग

 

मस्जिद में है बेबसी

लाचारी का बोझ

समझे बिना कुरान को

न अब फतवे थोप

 

मोमिन गलती हम करें

रब को कभी न कोस

अल्ला कभी न चाहते

बम गोले और तोप

 

मस्जिद रहीं पुकार हैं

बिन बोले ही बोल

गुनो सुनो समझो सदा

सुधरो खुद को तोल

 

ईद न ऐसी हो कभी

फिर दोबारा चांद

गले लगा मिल सकें

न,बेबस हैं इंसान

 

धर्म सभी पहुंचे वहीं

धरती तो है गोल

सभी साथ हिलमिल रहें

न कड़वाहट घोल

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 48 – लघुकथा – सुधारस ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम लघुकथा  “ सुधारस  ।  जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार मानव  के चरित्र के भी दो पहलू होते हैं । व्यक्ति की पहचान तो समय पर ही होती है। ऐसे कई तथ्यों को लेकर आई  हैं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी वास्तव हम किसी के प्रति जैसी धारणा बना लें हमें वह वैसा ही दिखने लगता  है।  रिश्तों पर लिखी गई एक सार्थक एवं अतिसंवेदनशील सफल लघुकथा।  इस सर्वोत्कृष्ट  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 48 ☆

☆ लघुकथा  – सुधारस

ट्रिन – ट्रिन फोन की घंटी बजी। हेलो बिना सुने ही  सामने से  रोती हुई आवाज़ “सुधीर, तुम्हारे बड़े भैया को  दिल का दौरा पड़ा है। उन्हें लेकर हम अस्पताल जा रहे हैं। दया कर कुछ रुपए का इंतजाम कर देना।”

“मैं सब लौटा दूंगी घर को गिरवी रख कर। मेरी बात पर विश्वास करना, भगवान के लिए” और फोन बंद हो गया।

सुधीर उस समय बाथरूम में स्नान कर रहा था। जल्दी-जल्दी ऑफिस जाना था। इसलिए अपनी धर्मपत्नी को आवाज लगा कर बोला…” मेरा टिफिन तैयार कर देना सुधा, आज लेट हो गया हूं खाना नहीं खाऊगां।”

सुधा भी कुछ नहीं बोली। “अभी लीजिए” कह कर डिब्बा जल्दी पकड़ा। सुधीर के जाने के बाद जल्दी जल्दी तैयार हो जरूरी समान रख, अस्पताल के लिए निकल पड़ी।

जेठानी जी ने देखा कि देवरानी सुधा सिढ़ियों से चली आ रही है। वह जोर जोर से रोने लगी। उसने समझा आज फिर कुछ लड़ाई हो गई है सुधीर और सुधा के बीच हम लोगों को लेकर। तभी तो सुधीर नहीं आया। पर उसका अंदाज गलत निकला।

सुधा ने गले लगा कर कहा “दीदी यह कुछ रुपए और सारा इंतजाम करके मैं आई हूं। जेठजी को कुछ नहीं होगा। फोन मैंने ही उठाई थी। बस आप डॉक्टर को ऑपरेशन के लिए हां बोल दीजिए।”

कागजी कार्यवाही और चेकअप के बाद इलाज तत्काल शुरू हो गया। सुधा के जेठ जी खतरे से बाहर हो गए। तब तक शाम हो चली। सुधा ने कहा” दीदी अब मैं घर जा रही हूं आप चिंता ना करना। मैं फिर आऊंगी।”

ऑफिस से निकलते समय सुधीर का पड़ोसी, जो कि उनके भैया को अस्पताल पहुंचा कर आया था मिल गया। उसने बताया कि “भैया का ऑपरेशन सफल हो गया और अब खतरे से बाहर हैं।” इतना सुनते ही सुधीर परेशान सा हो गया और भागते हुए गाड़ी चलाकर ऑफिस से अस्पताल की ओर निकल पड़ा। अस्पताल के जाते तब उसने रास्ते में सोचा कि पता नहीं भाभी ने मुझे खबर क्यों नहीं दिया! क्या मैं इतना पराया हो गया ? हाँफते हुए वह सीढियां चढ अस्पताल पहुंचा। भाभी के सामने पहुंचा।

भाभी रोते हुए मुस्कुरा कर बोली “सुधा इतनी भी खराब नहीं है। जितना हमने सोच लिया था।” सुधीर को कुछ समझ नहीं आया। भाभी ने सब कहानी बताई। सारा पैसों का इंतजाम और अस्पताल की पूरी देख रेख सुधा ने किया है और यह भी कह कर गई कि ‘अब हम सब अस्पताल से घर जाकर, एक साथ रहेंगे।’ ऐसा बोल गई है। आज सुधीर भाभी से बोल रहा था “सच में मैं हार गया, सचमुच सुधा रस से” और मुस्कुरा उठा।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 50 ☆ बेघर होती मुले ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत मार्मिक, ह्रदयस्पर्शी एवं भावप्रवण कविता  “बेघर होती मुले।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 50 ☆

☆ बेघर होती मुले☆

 

आकाशाची चादर त्यावर नक्षत्रांची फुले

पांघरलेली ज्यांनी ती तर बेघर होती मुले

 

सूर्याच्या या किरणांचे तर पडले होते सडे

अनवाणी हे पाय करपले गेले त्यांना तडे

 

कचऱ्यामधल्या अन्नासाठी तेही आले पुढे

त्यांच्या आधी त्या अन्नाला झोंबत होते किडे

 

बिकट जरी ही दैना माझी विकतो आहे फुगे

रस्त्यावरती भाऊबंद नि फुटपाथांवर सगे

 

वस्त्रांच्या या चिंध्यालाही भाग्य लाभले नवे

फॕशन म्हणूनच असले कपडे घालुन  फिरती थवे

 

अनाथ बेघर मरून पडता पाहुन जाती पुढे

महापालिका गाडीतुन मग नेते अमुचे  मढे

 

परके करती राज्य तुम्हावर तुम्ही ठोकळे बघे

निर्भर भारत होण्यासाठी बहु लागतील युगे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 5 – राजवर्खी पाखरा ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘राजवर्खी पाखरा।आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 5 ☆ 

☆ राजवर्खी पाखरा 

झाडाझाडांचा झडला

सारा पानोरा पानोरा

फांदी फांदी प्रतिक्षेत

कधी फुलेला फुलोरा

 

पाने परदेशी झाली

झाड भकास उदास

कसे सांतवावे त्याला

धुके निराश निराश

 

पाने परदेशी झाली

परी पाखरू उडेना

निळ्या नभी निरखते

निळ्या स्वप्नांचा खजिना

 

पाखराच्या डोळाभर

स्वप्नं निळे साकारले

दूर कुणा पारध्याचे

डोळे कसे लकाकले.

 

राजवर्खी पाखरा तू

जाई जाई बा उडून

तुझे तूच जप आता

लाख मोलाचे रे प्राण

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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