(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “दौड़ता भूत”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 183 ☆
☆ कहानी- दौड़ता भूत☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
उनका गोला यहीं रखा था. कहां गया? काफी ढूंढा. इधर-उधर खुला हुआ था. उसे खींच खींचकर समेटा गया. तब पता चला कि वह ड्रम के पीछे पड़ा था.
पिंकी ने जैसे ही गोले को हाथ लगाना चाहा वह उछल पड़ी. बहुत जोर से चिल्लाई, “भूत! दौड़ता भूत.”
यह सुनते ही घर में हलचल हो गई. एक चूहा दौड़ता हुआ भागा. वह पिंकी के पैर पर चढ़ा. वह दोबारा चिल्लाई, “भूत !”
दादी पास ही खड़ी थी. उन्होंने कहा, “भूत नहीं चूहा है.”
” मगर वह देखिए. ऊन का गोला दौड़ रहा है.”
तब दादी बोली, “डरती क्यों हो? मैं पकड़ती हूं उसे, ” कहते हुए दादी लपकी.
ऊन का गोला तुरंत चल दिया. दादी झूकी थी. डर कर फिसल गई.
पिंकी ने दादी को उठाया. दादी कुछ संभली. तब तक राहुल आ गया था. वह दौड़ कर गोले के पास गया.
राहुल को पास आता देख कर गोला फिर उछला. राहुल डर गया, “लगता है गोले में मेंढक का भूत आ गया है.”
तब तक पापा अंदर आ चुके थे. उन्हों ने गोला पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. गोला झट से पीछे खिसक गया.
“अरे यह तो खीसकता हुआ भूत है,” कहते हुए पापा ने गोला पकड़ लिया.
अब उन्होंने काले धागे को पकड़कर बाहर खींचा, “यह देखो गोले में भूत!” कहते हुए पापा ने काला धागा बाहर खींच लिया.
सभी ने देखा कि पापा के हाथ में चूहे का बच्चा उल्टा लटका हुआ था.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “मछलियों को तैरना सिखला रहे हैं…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #241 ☆
☆ मछलियों को तैरना सिखला रहे हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “तुमसे हारी हर चतुराई…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 65 ☆ प्रेमचंद की खोज… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “भले इंसान का जीना है मुश्किल…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 69 ☆
भले इंसान का जीना है मुश्किल… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनमोल यादें।)
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 113 – जीवन यात्रा : 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
शिशु वत्स का अगला पड़ाव होता है स्कूल, पर इसके पहले, जन्म के 4-5 या आज के हिसाब से 3-4 साल तक उसमें एक और भी नैसर्गिकता होती है “उत्सुकता ” हर नई वस्तु चाहे वो किसी भी प्रकार की हो, स्थिर हो या चलित, श्वेत हो या धूमल, चींटी से लेकर हाथी तक और साईकल से लेकर ✈ तक, जो भी दिखेगा वो जरूर उसके बारे में पूछता रहेगा, पूछता रहेगा जब तक कि आप उसे जवाब नहीं दे देते. “ये क्या है, ये क्यों है याने what is this and why is this. बच्चों की यह उत्सुकता उनके नैसर्गिक विकास का ही अंग होती है पर अभिभावक हर वक्त उसके क्या और क्यों का जवाब नहीं दे पाते, कभी कभी जवाब मालुम भी नहीं होते तो बच्चों को कुछ भी समझाकर या डांटकर चुप करा देते हैं. पर होता ये बहुत गलत है क्योंकि ये उसकी प्रश्न करने की नैसर्गिक क्षमता को कमजोर बनाता है. प्रश्न का गलत उत्तर, पेरेंट्स पर अविश्वास करना सिखाता है जब आगे चलकर उसे सही उत्तर पता चलते हैं. जन्म और पोषण बहुत धैर्य, समझ, और सहनशीलता मांगते हैं, जितनी कम होती है, परिणाम भी वैसे ही मिलते हैं. नैसर्गिक प्रतिभा को दबाना सबसे बड़ा अपराध है जो माता पिता अनजाने में कर देते हैं. स्कूलिंग प्रारंभ होने के पहले के ये दो तीन साल बहुत महत्वपूर्ण होते हैं जिसे कोई भी पैरेंट गंभीरता से नहीं लेते, बच्चे उनके लिये उपलब्धि और मनोरंजन का साधन बन जाते हैं हालांकि “बच्चे को क्या बनाना है वाली” दूसरी हानिकारक सोच अभी आई नहीं है पर आती जरूर है.
स्कूल का आगमन भी बच्चों की नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया में अवरोध का काम ही करते हैं. आपको ये कथन आश्चर्यजनक लगेगा और इससे सहमत होने का तो सवाल ही नहीं होगा पर सच यही है. स्कूल नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया के अंग नहीं होते. पहली बात तो ये होती है कि बच्चे कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकल कर अनजान परिसर, अनजान वयस्कों याने शिक्षकगण और अनजान सहपाठियों के बीच में असुरक्षित महसूस करता है और यहीं से उसके बाल्य जीवन में प्रवेश करते हैं अनुशासन के साथ साथ डर और असुरक्षा. स्कूल समय की जरूरत हैं ये तो सब वयस्क जानते हैं पर जो नहीं जानता वो है वही बालक जिसे स्कूल जाना पड़ता है. शिक्षण में अतिक्रमित करती व्यवसायिकता ने स्कूल जाने की उम्र विभिन्न विद्यालयीन शब्दावली जैसे किंडर गार्डन, प्रि-स्कूल, नर्सरी के नाम पर घटा दी है जो बच्चों के नैसर्गिक विकास से प्रायोजित और योजनाबद्ध विकास की यात्रा कही जा सकती है. परंपरागत व्यवहारिकता और जमाने के हिसाब से ही आधुनिकता में लिपटी कैरियर प्रोग्रेसन की लालसा गलत है, ये सही नहीं है. पर ये निश्चित है स्कूल बच्चों से उत्सुकता और प्रश्न करने की आदत छीन लेते हैं क्योंकि यहां प्रश्न टीचर करते हैं जिनका उत्तर उसे समझना या फिर रटना पड़ता है. प्रश्न पूछने की ये झिझक और डर ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती और इस कारण ही लोग फ्रंट बैंचर बनने से बचने लगते हैं. दूसरा “रटना” याने समझ नहीं आये तो रट लो या फिर जैसा पहले वाले ने किया है उसी का अनुसरण करते रहो. समाज में इसीलिये भाई, भैया, बड़े भाई और ऑफिस में सीनियर्स का आँखबंद कर अनुसरण करना, स्कूल के जमाने से रोपित इस असुरक्षा से राहत महसूस कराने लगता है. ये जो दुनियां के बड़े बड़े वैज्ञानिक, खिलाड़ी, नेता, बने हैं वो सिर्फ इसलिए बन पाये कि स्कूल के अनुशासित और योजनाबद्ध कार्यक्रम को कभी भी अपने व्यक्तित्व ऊपर हावी नहीं होने दिया. जो सही लगा वही करने के लिये जोखिम की परवाह नहीं की और दुनियां से लड़ गये और वो किया जो वो चाहते थे. जिनको बाद में उसी दुनियां के उन्हीं लोगों ने सर पर बिठाया, पूजा की हद तक उनकी प्रशंसा की. वो इसलिए संभव हुआ कि उनमें असुरक्षा, भय की भावना नहीं संक्रमित हो पाई तब ही तो ज़िद और ज़ुनून उनकी शख्सियत का हिस्सा बने. वो रटना नहीं चाहते थे बल्कि वो समझ गये थे कि रटना, आंख बंद कर किसी का अनुसरण करना ये शब्द उनके लिये नहीं बने हैं. जि़द और ज़ुनून ही उनकी खासियत बनी और ये जुनून ही तेंदुलकर को कॉलेज की जगह क्रिकेट के मैदान की ओर और माही याने धोनी को रेल्वे की सुरक्षित नौकरी छोड़ने के निर्णय की ओर ले जा सका. इसके होने का प्रतिशत बहुत कम होता तो है पर यही वो लोग होते हैं जो लीक से हटकर चलने के उनके नैसर्गिक गुण से संपन्न होते हैं.
☆ हॉस्पिटलचं बील कसं ठरतं ? – लेखक : डॉ. सचिन लांडगे ☆ सुश्री सुनिता जोशी ☆
सध्या जळगाव मधल्या एका बँकर असलेल्या व्यक्तीची हॉस्पिटल बिलाविषयीची पोस्ट, आणि त्याला एका डॉक्टरांनी दिलेले उत्तर व्हायरल होतेय.
त्या निमित्ताने माझ्या एका जुन्या लेखातला काही अंश –
समाजात एकच गोष्ट वेगवेगळ्या दर्जाची मिळत असते.. पैसे देऊन आपल्याला जास्त दर्जाच्या सेवा घेता येतात.. चहा पाच रुपयाला पण मिळतो, आणि पाचशे रुपयाला पण मिळतो..! आपण आपल्या ‘शौक’नुसार आणि ‘खिशा’नुसार ठरवायचे की टपरीवरचा चहा प्यायचा की “ताज हॉटेल” मधला प्यायचा..
जसं ‘ताज’ला चहा पिऊन तुम्ही ओरड करू शकत नाहीत की आम्हाला लुटले म्हणून.. तसंच, ब्रीचकँडी किंवा फोर्टीस मध्ये जाऊन तुम्ही ओरड करू शकत नाही की आम्हाला लुटले म्हणून..
कुठल्याही ठिकाणी संभाव्य बिलाची साधारण पूर्वकल्पना देतात.. तुमच्या खिशाला परवडत नसेल तर जाऊ नका.. इतकं साधं गणित आहे..!
सरकारी हॉस्पिटलमध्ये अगदी पाच रुपयांचा केसपेपर काढला की गोरगरिबांचे कसलेही ऑपरेशन होते.. इतरही सेवाभावी संस्था आणि ट्रस्टची अनेक हॉस्पिटल अत्यल्प दरात उपचार देतात.. तिथेही आपण जाऊ शकतो..
पण लोकांना १. डॉक्टरही अनुभवी आणि बेस्ट पाहिजे असतो.. २. तो सहज आणि हवा तेंव्हा उपलब्धही पाहिजे असतो.. ३. हॉस्पिटलमध्ये एसी पासून गरम पाण्यापर्यंत आणि नर्सपासून स्वीपरपर्यंत सगळ्या सोयी अपटुडेट हव्या असतात.. ४. सगळ्या मशिनरी आणि तपासण्यांच्या सोयी एकत्र पाहिजे असतात.. ५. आणि बिल मात्र कमी पाहिजे असतं..!! नाहीतर डॉक्टर लुटारू..!! कसं जुळणार हे गणित.?
डॉक्टरांच्या अनुभवानुसार किंवा उपलब्ध सोयीसुविधां नुसार खाजगी हॉस्पिटलचे दर ही कमी अधिक होत असतात.. त्यात अमुक कोणी लुटतो किंवा कुणी समाजसेवा करतं अशातला भाग नसतो.. ज्या डॉक्टरला जिथंपर्यंत परवडतं तेवढं कमी तो करू शकतो..
दहा बेडच्या हॉस्पिटलसाठी नियमाने अकरा सिस्टर लागतात.. (एका वेळी तीन, आणि तीन शिफ्टच्या नऊ, साप्ताहिक सुट्टी आणि रजा यासाठी अतिरिक्त दोन), पण अकरा ऐवजी तीनच सिस्टर ठेवल्या, चार ऐवजी दोनच वॉर्डबॉय ठेवले, नॉर्मस् प्रमाणे सगळ्या मशिन्स न घेता फक्त अति गरजेच्या मशिनरी घेतल्या, आणि बाकीच्या सुविधा पण जेमतेमच ठेवल्या तर पेशंट बिल खूपच कमी ठेवता येतं.. याचा अर्थ असा नसतो की जास्त बिलिंग असणारे बाकीचे हॉस्पिटल्स पेशंटला लुटतात.. तिथं सुविधा आणि मशिनरी जास्त असतील म्हणून त्यांना तितक्या कमी पैशात उपचार किंवा ऑपरेशन करणे शक्य नसेल.. हाच त्याचा अर्थ असतो.. तुमच्या पेशंटला लागो अथवा न लागो, कुठल्याही दुर्घटनेसाठीची जी बॅकअप सिस्टीम असते, ती तर ready ठेवावीच लागते ना..!!
एक उदाहरण सांगतो, Defibrillator ही जीवरक्षक मशीन काही डॉक्टरच्या आयुष्यात एकदाही लागत नाही, पण प्रत्येक हॉस्पिटलमध्ये ते ठेवणं कम्पल्सरी आहे, आणि त्याची किंमत 2 ते 6 लाख रुपये आहे!! ते रोज चार्ज-डिस्चार्ज करणं अपेक्षित असतं आणि त्याची वॉरंटी दोन वर्षे असते..
अशा कित्येक गोष्टी असतात ज्यापासून समाज अनभिज्ञ असतो.. पण त्या गोष्टी डॉक्टरांच्या खर्चात पडत असतात..
समजा, गर्भाशयाची पिशवी काढायच्या ऑपरेशनला सगळ्या सुविधा असलेल्या हॉस्पिटलला कमीतकमी वीस हजार लागत असतील उदाहरणार्थ.. पण तेच ऑपरेशन, एखाद्या अजिबात सोयी सुविधा उपलब्ध नसलेल्या, कसल्याच मशिनरी उपलब्ध नसणाऱ्या, कामगारवर्ग पण पुरेसा नसलेल्या, आणि ऑपरेशनसाठी लागणाऱ्या धाग्यांपासून ते अँटिबायोटिक पर्यंत सगळं non-branded वापरणाऱ्या एखाद्या हॉस्पिटलला तेच ऑपरेशन दहा हजारात देखील परवडते..!
आता समाज असं म्हणतो की, तिथं तर दहा हजारातच ऑपरेशन होतं, मग आमच्या इथले बाकीचे हॉस्पिटल्स किती लुटतात.!!
दोन हॉस्पिटल मधील बिलिंगच्या या तफावतीसाठी खूप गोष्टी कारणीभूत असतात.. त्याची कल्पना जनसामान्यांना येणं शक्य नाही.. मोक्याच्या ठिकाणी असलेला हॉस्पिटलचा प्लॉट, बिल्डिंग, मेंटेनन्स, वीज, पाणी, स्टाफ, सरकारी फी आणि टॅक्सेस यांपासून ते तिथल्या वैद्यकीय सुविधा, मशिनरी, आणि वापरत असलेल्या इतर गोष्टी त्यात समाविष्ट असतात.. यावर बिलिंग ठरते.. या गोष्टींची कॉस्ट कमी जास्त झाली की बिलिंगमध्ये पण तफावत दिसते.. (तरी यात डॉक्टरांची फिस आणि त्यांचा अनुभव याची कॉस्ट नाही धरली..)
म्हणून, माझ्या स्वतःच्या आईचे ऑपरेशन असेल तर मी ऑपरेशन कोणते आहे, त्यासाठी किमान कितपत सुविधा लागतात आणि डॉक्टर कोण आहे यावर हॉस्पिटल ठरवेल.. दहा हजाराकडेही जाणार नाही आणि कॉर्पोरेट हॉस्पिटलमध्ये जाऊन अडीच लाखही घालणार नाही..
हॉस्पिटल म्हणजे एक “स्मॉल स्केल इंडस्ट्री” असते.. जी चालवणं अत्यंत जिकरीचं असतं..
उदाहरणादाखल सांगतो, आमच्या इथल्या एका 50 बेडच्या अद्ययावत हॉस्पिटलचा मेंटेनन्स 26लाख महिना आहे.. पेशंट येवो अथवा न येवो, ‘बेड ऍक्युपन्सी’ कितीही राहो, मेंटेनन्स, बिलं, टॅक्सेस, भाडे आणि स्टाफ व ड्युटी डॉक्टरांच्या पगारापोटी महिन्याच्या तीस तारखेला 26 लाख तयार ठेवावे लागतात! त्या डॉक्टर मित्रानं मला सांगितलं, महिन्याच्या साधारण 22-26 तारखेपासून त्याचा प्रॉफिट सुरू होतो..
म्हणूनच “मेडिकलचं सगळं तर आम्हीच आणलंय, मग तरी हॉस्पिटलचं बिल इतकं कसं झालं?” असं म्हणणाऱ्यांना तर मला परत पहिलीपासून शाळेत पाठवावं वाटतं..
असो..
अजून एक, मला एकाने प्रश्न विचारला की, इथं हॉस्पिटलला माझे अपेंडीक्स चे ऑपरेशन झाले, मला 15000 खर्च आला, पण सरकारच्या MJPJAY योजनेत आमच्या शेजाऱ्याचे ऑपरेशन झाले, त्यात हॉस्पिटलला शासनाकडून 10,000/- च मिळतात असे ऐकलेय, मग मला पाच हजारांना लुटले का?
असं वाटणं साहजिक आहे.. पण
अशा योजनेत डॉक्टरनी ऑपरेशन करणे हे केवळ चालत्या गाडीत प्रवासी घेण्यासारखे आहे.. त्या ऑपरेशन च्या निमित्ताने हॉस्पिटलचे नाव ही होते आणि भविष्यात त्या पेशन्टचे इतरही ओळखीचे लोक तेथे ट्रीटमेंट ला येऊ शकतात..
अशा योजनांच्या ऑपरेशन च्या वेळी डॉक्टर औषधे आणि इतर साहित्य जरा कमी रेटचे वापरून (sub-standard म्हणत नाही मी) आपला”लागत खर्च” (investment cost) कमी करतात.. पण म्हणून सरसकट सगळ्यांसाठीच तसं करणं शक्य नसते..
गाडी चाललीच आहे तर एखादा प्रवासी फुकट नेणे किंवा कमी तिकिटात नेणे, हे जमू शकते.. पण सगळेच प्रवासी कमी तिकिटात नेणे जसे शक्य नसते, त्याप्रमाणेच एखादया योजनेतले ऑपरेशन्स कमीत करणे किंवा एखादे ओळखीतल्याचे किंवा गरीबाचे ऑपरेशन कमीत करणे डॉक्टरला जमते.. पण म्हणून सगळेच तसे करा म्हणत असतील तर ते शक्य नाही.. म्हणून अशा वेळी बाकीच्यांनी ‘लुटले’ वगैरे असं म्हणणं संयुक्तिक नाही.. एखाद्या खरेच गरीब असलेल्या पेशंटचे उपचार बरेच डॉक्टर maintenance cost च्या ही खाली, फक्त इन्व्हेस्टमेंट कॉस्ट विचारात घेऊन करत असतात, पण म्हणून सगळ्यांनाच डॉक्टरनी असं करावं असं जर समाजाचं म्हणणं असेल तर ते योग्य नाही..
एखादा बिल कमी करायला आला आणि तो खूपच गरीब वाटला तर डॉक्टर त्याचे काही बिल कमी करतात, याचा अर्थ त्यांनी ते आधीच वाढवून लावलेले नसते.. ते त्यांच्या नफ्यातून किंवा मेंटेनन्स कॉस्ट मधून पैसे कमी करत असतात.. पण सरसकट तसं करणं शक्य नाही, आणि आधीच पेशंट्स कमी असलेल्या हॉस्पिटलना तर ते शक्यच नाही..
बहुतेक सर्व डॉक्टर रोज काहीना काही रुग्ण फ्री तपासतात, किंवा पैसे नसतील तर ‘राहू दे राहू दे’ म्हणतात.. मला सांगा, समाजातला कुठला अन्य व्यावसायिक किंवा व्यापारी तुमची ओळखपाळख नसताना त्यांची फीस तुम्हाला ‘राहू दे, राहू दे’ म्हणतो बरं..?
माझ्या पाहण्यातले कितीतरी डॉक्टर्स फक्त औषधांच्या खर्चावर ऑपरेशन करून देतात, प्रसंगी औषधे सुध्दा आपल्या जवळची मोफत वापरतात.. खूपच गरीब असलेल्या पेशंटला स्वतःचे पैसे आणि क्रेडिट वापरून पुण्यामुंबईत ट्रीटमेंटची सोय करून देणारेही बरेच आहेत..
वैद्यकीय क्षेत्र हे असे एकमेव क्षेत्र आहे, ज्यात डॉक्टरला समाजसेवा करण्यासाठी घरदार सोडण्याची किंवा वेगळं काही करण्याची गरज नसते..
त्यांनी स्वतःचा व्यवसाय जरी सचोटीने केला तरी ती समाजसेवाच असते..
अजून एक कायम गाऱ्हाणं ऐकू येतं, डॉक्टर जुन्या ठिकाणी होते तर बिल एवढं एवढं यायचं, नवीन बिल्डिंगमध्ये गेले तर लगेच त्यांनी लुटणं सुरू केलं, लगेच त्यांनी त्यांचं बिलिंग वाढवलं..
मला एक सांगा, नवीन प्लॉट किंवा बिल्डिंग डॉक्टरला कुणी भेट म्हणून दिलीय का हो? बरं बिल्डिंगचं जाऊ द्या, नविन ठिकाणी गेल्यावर त्याचं वीज बिल वाढलंय, नवीन मशिनरी घेतल्यात, सुविधा वाढविल्यात, स्टाफ वाढवलाय.. ह्या सगळ्यामुळं त्याचा मेंटेनन्स पण खूपच वाढलाय..
मग ही वाढीव मेंटेनन्स कॉस्ट त्यानं बिलिंग मधून नाही घ्यायची तर कुठून घ्यायची बरं.? काय अपेक्षा आहे लोकांची? कुठून ऍडजस्ट करावा त्यानं हा वाढीव खर्च? कुक्कुटपालन वगैरेचा जोडधंदा त्यानं हॉस्पिटलला चालू करावा की काय.!! (इतर कुठला व्यावसायिक त्याच्या व्यवसायातील इन्व्हेस्टमेंट कॉस्ट आणि मेंटेनन्स कॉस्ट ग्राहकांकडून घेत नाही सांगा बरं!!)
लोकांच्या ह्या मानसिकतेमुळं नवीन ठिकाणी शिफ्ट झाल्यावर कितीतरी डॉक्टरांची प्रॅक्टिस कमी झालीये.. म्हणून, कितीतरी जण नवीन जागेत गेल्यावर वर्ष दोन वर्षे तरी ह्या भीतीपोटी बिलिंग वाढवत नाहीत, प्रसंगी तोटा सहन करतात..
माझे एक नातेवाईक मला म्हणाले, अरे त्या XYZ डॉक्टरनं मला तपासायला हात सुद्धा लावला नाही, माझे रिपोर्ट बघितले आणि गोळ्या लिहून दिल्या, आणि तपासणी फी शंभर रुपये घेतली..
मी त्यांना म्हणालो,
ह्या शंभर रुपयात त्यांच्या ओपीडीचे भाडे, किंवा बांधकाम खर्च असतो, वीज पाणी एसी आणि विविध प्रकारच्या परवानग्या, रिसेप्शनिस्टचा पगार असा इतरही खर्च त्यात असतो..
आणि महत्वाचं म्हणजे त्यांच्या पेनाच्या शाईत एक विशिष्ट प्रकारची माती मिसळावी लागते..
मग ते आश्चर्याने म्हणाले, कसली माती..?
मी म्हणालो- दोन मिनिटात तुम्ही सांगितलेल्या लक्षणांवरून तुमचा आजार ओळखून त्यावर तुमच्या वय वजन आणि रिपोर्टनुसार योग्य ते औषध लिहून देण्यासाठी जे शिक्षण आणि अनुभव लागतो, तो मिळविण्यासाठी त्यांनी जी आपल्या आयुष्याची माती केली आहे, ती माती मिसळावी लागते, तिची किंमत असते ती..!!
असो..
लोकांना वाटतं डॉक्टर खोऱ्याने ओढतात.. पण खोरे असण्याचे दिवस आता गेलेत.. प्रत्येक स्पेशालिटीत शंभरात दहाबारा जणच् चांगलं कमवित असतात, आणि समाजाच्या डोळ्यासमोर तेच येतात.. आणि मग जनरलाईझ्ड स्टेटमेंट होते की डॉक्टर लोक खोऱ्याने ओढतात म्हणून.. खरंतर निम्म्याहून अधिक जण हॉस्पिटलचा मेंटेनन्स आणि इन्कम याची सांगड घालायला झगडत असतात..
खरंतर महाविद्यालयीन मुलांच्या हॉस्पिटलला शैक्षणिक सहली काढायला हव्यात..
१. तिथलं कामकाज कसं चालतं, २.ट्रीटमेंट कशी असते, ३.डॉक्टर आणि स्टाफवर कसले ताण असतात, ४.तिथं मशिन्स कोणत्या कोणत्या असतात, ५.बिलिंग कसं असतं, ६.सगळी सिस्टीम कशी चालते.. हे पाहायला लावावं वाटतं..
… आणि निबंधाचे विषय पण “डॉक्टरसोबतचा एक दिवस” , “आयसीयु ड्युटीची एक रात्र” किंवा “मी डिलिव्हरीला मदत केली तेंव्हा..” अशा प्रकारचे असायला हवेत..
तरच जनता वैद्यक साक्षर होईल..
मित्रांनो, डॉक्टरांवर विश्वास ठेवा, त्यांना समजून घ्या.. तुम्ही ‘ग्राहक’ बनला, तर डाॅक्टर ‘दुकानदार’ बनतील.. तुम्ही “माणूस” समजून डॉक्टरांशी बोला, मग डाॅक्टर अवश्य “देवमाणूस” बनतील..!!
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पास, अधर अंगार करो…।)
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “मित्र मेरे मत रूलाओ…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।