हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 17 – नाम की महिमा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “लघु कथा -संस्मरण -नाम की महिमा”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि कैसे धार्मिक स्थल पर तीर्थयात्रियों को श्रद्धा एवं अज्ञात भय से परेशान किया जाता है किन्तु, उनसे सुलझाने के लिए त्वरित कदम उठाना आवश्यक है।  ) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 17 ☆

 

☆ लघु कथा – संस्मरण – नाम की महिमा ☆

 

हमारे यहाँ हिंदू धर्म में आस्था का बहुत ही बड़ा महत्व है। इसका सबूत है कि यहां पेड़- पौधे, फूल-पत्तों, नदी-पर्वत, कोई गांव, कोई विशेष स्थान अपना अलग ही महत्व लिए हुए हैं। चारों धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग और ना जाने कितने धर्म स्थल अपने विशेष कारणों से प्रसिद्ध हुए हैं। जहाँ पर ना जाने हमारे 33 करोड़ देवी देवताओं का निवास (पूजन स्थल) माना गया है। ऐसी ही एक सच्ची घटना का उल्लेख कर रही हूँ।

बात उन दिनों की है जब हम सपरिवार श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करने पुरी उड़ीसा गए हुए थे। वहाँ पर उस समय स्पेशल दर्शन और सामान्य दर्शन का बोलबाला था। कहते हैं जहां आस्था है वहां विश्वास जुड़ा हुआ है। हम भी भक्ति से पूर्ण आस्था लिए श्री जगन्नाथ जी के  दर्शन किए। पुजारी जी ने बताया कि श्री जगन्नाथ जी के दर्शन के बाद यहाँ पर साक्षी गोपाल जाना पड़ता है। तभी यहां की यात्रा पूर्ण मानी जाती है। “मैं” यहीं तक हूं वहां पर आपको दूसरे पुजारी जी दर्शन करवाएंगे। यात्रा को पूरा करने हम भी वहां पहुंच गए। वहां पर पंडित तिलक धारियों का मजमा लगा हुआ था। सभी अपनी तरफ आने और दर्शन करा देने की बात कर रहे थे।

बात होने के बाद दर्शन के लिए जाने लगे तब पंडित जी ने अलग से दक्षिणा की बात की। लड़ाई करने लगा, बात बहुत बढ़ गई। गुस्से से हम भी परेशान और व्याकुल हो गए। दर्शन के बाद पंडित जी कहने लगे आपकी यात्रा अधूरी मानी गई, क्योंकि आपने अभी गोपाल को चढ़ावा नहीं किया, क्या सबूत होगा की आप यहां आए थे। और बहुत सारी बातों को लेकर कोसने लगा।

बात बहुत बढ़ जाने के बाद आगे आकर मैं कुछ शांत होने को कहकर समझाने की कोशिश करने लगी। पंडित जी से बोली की बताएं आपके साक्षी गोपाल भगवान कैसे सिद्ध करेंगे कि हम यहां आए थे। इस पर वह और क्रोधित हो गए। कहने लगे भगवान पर उंगली उठाते हो यह आपके कर्म के साथ ही जाएंगे और लेखा-जोखा होगा। उस समय मेरी बिटिया भी मेरे साथ थी, जिसका नाम ‘साक्षी’ है।

मैंने कहा पंडित जी से यह मेरी साक्षी है, मेरे जीते जी और मेरे मरने के बाद भी जब कभी भी बात होगी, जगन्नाथ जी और साक्षी गोपाल की, तब-तब ये कहेगी कि मम्मी-पापा के साथ मैं यहां आई थी। और यह ही मेरी साक्षी है। मुझे आपके साक्ष्य की जरूरत नहीं कि हम यहां आए हैं। पुजारी जी का गुस्सा जो आसमान पर था, लाल चेहरा एकदम शांत हो गया। हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। कहने लगा मैंने पैसों के लालच में एक सच्चे भक्तों को दर्शन के लिए परेशान किया। मुझे क्षमा करें। आज भी उस घटना कोई याद करके कहना पड़ता है कि नाम की महत्ता भी बहुत होती है। इसीलिए घर में नए शिशु के जन्म के बाद नामकरण के समय परिवार के सभी बड़े बुजुर्गों का मान रखते हुए नाम को भी सोच समझ कर रखना चाहिए, अच्छा होगा।

अपने संस्कारों को ध्यान में रखकर नामकरण होना चाहिए।

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #17 – कोशिश करने वालों की हार नहीं ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “कोशिश करने वालों की हार नहीं ” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 18 ☆

 

☆ कोशिश करने वालों की हार नहीं ☆

 

व्यक्ति द्वारा जीवन मे प्रतिपादित कर्म ही उसकी पहचान बनते हैं. अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित कर उस दिशा में बढ़ना आवश्यक है,अंततोगत्वा सफलता मिलना सुनिश्चित है. असफलता केवल इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि प्रयत्न पूरे मनोयोग से सही दिशा में नहीं किया गया है.प्रयासों में असफलता, सफलता के मार्ग का एक पड़ाव मात्र है. जो मार्ग में ही थककर, लौट जाते हैँ या राह बदल लेते है, व जीवन के संघर्ष में असफल होते हैं. उनका व्यक्तित्व पलायनवादी बन जाता है.प्रत्येक कार्य में उनकी असफलता दृष्टिगत होती है.सफल व्यक्ति सेवा करता है असफल व्यक्ति सेवा करवाता है। सफल व्यक्ति के पास समाधान होता है असफल व्यक्ति के पास समस्या। सफल व्यक्ति के पास एक कार्यक्रम होता है असफल व्यक्ति के पास एक बहाना। सफल व्यक्ति कहता है यह काम मैं करुँगा असफल व्यक्ति कहता है यह काम मेरा नहीं है।

सफल व्यक्ति समस्या में समाधान देखता है असफल व्यक्ति समाधान में समस्या ढ़ूँढ़ निकालता  है। सफल व्यक्ति कहता है यह काम कठिन है लेकिन संभव है असफल व्यक्ति कहता है यह काम असंभव है। सफल व्यक्ति समय का पूर्ण सदुपयोग करता है असफल व्यक्ति समय का व्यर्थ कामों में दुरुपयोग करता है। सफल व्यक्ति हर वस्तु सही स्थान पर रखता है असफल व्यक्ति हर वस्तु बेतरतीब रखता है। सफल व्यक्ति परिवार और समाज को धर्म एवं सेवा के कार्यो से जोड़ता है असफल व्यक्ति धर्म एवं सेवा कार्यो से स्वयं भी भागता है और परिवार, समाज को तोड़ता है । सफल व्यक्ति अपने परिवेश में सफाई रखता है असफल व्यक्ति अपने घर का कचरा भी दूसरों के घर के आगे फेंकता हैं। सफल व्यक्ति भोजन जूठा नहीं छोड़कर अन्नउपजाने वाले किसान के श्रम  का सम्मान करता है असफल व्यक्ति जूठा छोड़कर अन्न देवता का अपमान करने में शर्म अनुभव भी नहीं करता.

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करना आवश्यक है. सफलता के लिये क्या कमी रह गई, इसका आकलन कर  और सुधार कर जब तक  सफल न हो, नींद चैन को त्याग संघर्ष में निरत रहना पड़ता है, तब हम सफलता की जय जय कार के अधिकारी बन पाते हैं.मन का विश्वास रगों में साहस भरता है. कोशिश करने वालों की मेहनत कभी बेकार नहीं होती,  हार हो भी पर अंतिम परिणिति उनकी जीत ही होती है. सफलता संघर्ष से प्राप्त होती है इसीलिये उसे उपलब्धि माना जाता है और सफलता पर बधाई दी जाती है.

किसी कवि की ये पंक्तियां एक गोताखोर पर लिखी गई हैं,जो हमें प्रेरणा देती हैं कि यदि हम उत्साह पूर्वक जीवन मंथन करते हुये, दुनिया के अथाह सागर में गोते लगाते रहें तो एक दिन हमारे हाथो में भी सफलता के मोती अवश्य होंगे.

 

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है.

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में.

मुट्ठी उसकी खाली पर हर बार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #-16 – गारवा ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।  आज  प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता  – “गारवा। )

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 16 ☆ 

 

 ☆ गारवा   ☆

बहरला निसर्ग हा मंद धुंद  ही हवा।

तना मनास  झोंबतो आसमंत  गारवा। ।धृ।।

 

वृक्ष वल्ली उधळती गंध हा दश दिशा।

तारकाच उतरल्या  शोभिवंत.. ही नीशा।

चंद्र जाणतो कला  मनात प्रीत मारवा  ।।१।।

 

स्वप्न रंगी हा असा मन मयूर नाचला  ।

ह्रदय तार छेडताच प्रेमभाव जागला

धुंद  मधुर  नर्तना ताल पाहिजे  नवा ।।२।।

 

तेज नभी दाटता तने मनात नाचली ।

कधी कशी कळेना भ्रमर मुक्ती जाहली ।

रुंजी घालतो मना भ्रमर हा हवा हवा ।।३।।

 

वेचते अखंड मी  मुग्ध धुंद  क्षणफुलां।

क्षणोक्षणी सांधल्या अतूट रम्य शृंखला।

अर्पिली अशी मने सौख्य लाभले जीवा ।।४।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #14 – आइये पर्यावरण बचाएं ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

यह आलेख आदरणीय श्री संजय भारद्वाज जी ने पर्यावरण दिवस की दस्तक पर लिखा था किन्तु, यह आलेख उस पल तक सार्थक एवं सामायिक दर्ज होना चाहिए जब तक हम पर्यावरण को बचाने में सफल नहीं हो जाते.  अब तो यह आलेख प्रासंगिक भी है. अभी हाल ही में 16 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता सुश्री ग्रेटा थनबर्ग जी  ने  संयुक्त राष्ट्र के उच्चस्तरीय जलवायु सम्मेलन के दौरान अपने भाषण से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस सहित विश्व के बड़े नेताओं को झकझोर दिया.यदि अभी भी हम सचेत नहीं हुए और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयास नहीं किए गए तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.

 – हेमन्त बावनकर 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 14☆

 

☆ आइए पर्यावरण बचाएं ☆

 

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 17 – लघुकथा – दयालु लोग ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. अक्सर  समय एवं परिवेश बच्चों की विचारधारा को भी परिपक्व बना देता है. आज प्रस्तुत है  उनकी एक ऐसी ही लघुकथा  “दयालु लोग” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 17 ☆

 

☆ लघुकथा – दयालु लोग ☆

मिसेज़ लाल के घर महीना भर पहले नयी बाई लगी है, झाड़ू-पोंछा, बर्तन के लिए। बाई अच्छी है लेकिन दुबली-पतली, बीमार सी है। इसलिए कभी खुद आती है, कभी अपनी बारह-चौदह साल की बेटी गिन्नी को भेज देती है।

मिसेज़ लाल काम के मामले में काफी सख्त हैं, हर काम को बारीकी से देखती हैं। बड़ी सफाई-पसन्द हैं। लेकिन काम खत्म होने के बाद बाइयों के प्रति उदार हो जाती हैं। चाय पिला देती हैं और घर-परिवार के बारे में फुरसत से गप भी लगा लेती हैं।

बाई के काम पर लगने के कुछ दिन बाद ही मिसेज़ लाल की आठ साल की बेटी का जन्मदिन आया। जन्मदिन का आयोजन हुआ। मिसेज़ लाल बाई से बोलीं, ‘शाम को गिन्नी को भेज देना। वो भी डॉली के बर्थडे में शामिल हो लेगी।’

शाम को जन्मदिन मनाया गया, सब बच्चे आये, लेकिन गिन्नी नहीं आयी। दूसरे दिन मिसेज़ लाल ने बाई से शिकायत की, ‘कल गिन्नी नहीं आयी?’

बाई संकोच में हँसकर बोली, ‘हाँ, नहीं आ पायी।’

लेकिन मिसेज़ लाल के मन में नाराज़ी थी कि उनकी उदारता के बावजूद गिन्नी नहीं आयी थी। बोलीं, ‘वजह क्या थी? क्यों नहीं आयी?’

बाई सिर झुकाकर बोली, ‘कुछ नहीं, पगली है।’

मिसेज़ लाल अड़ गयीं, बोलीं, ‘आखिर कुछ वजह तो होगी। क्या कहती थी?’

बाई ज़मीन पर नज़रें टिकाकर बोली, ‘अरे क्या बतायें! कहती थी कि वहाँ जाएंगे तो कुछ न कुछ काम करना पड़ेगा। इसीलिए नहीं आयी।’

मिसेज़ लाल, कमर पर हाथ धरे, बाई का मुँह देखती रह गयीं।

परिहार

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #21 – ☆ मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच… ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच… सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  मित्रता स्वयं की स्वयं सेसुश्री आरुशी जी का विमर्श अत्यंत सहज किन्तु गंभीर है.  सुश्रीआरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

 साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #21

 

☆ मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच…☆

 

मैत्री… स्वतःची स्वतःशीच…

हम्म, पचायला थोडं जड आहे पण अतिशय आवश्यक… ही मैत्री साधायचा प्रयत्न चालू आहे…

गेल्या काही महिन्यात घडलेल्या घडामोडी ह्या मैत्रीला कारणीभूत आहेत… नक्कीच…

वेळ प्रसंगी कुटुंबीय, ऑफिस कलीग, अनेक मित्र मैत्रिणी सपोर्ट करायला असतात… पण आडात नसेल तर पोहऱ्यात कुठून येणार…

असो…

आपण हल्ली खूप busy असतो, नाही का?? आधी शिक्षण, नोकरी, मग छोकरी, मग पोटची छोकरी, आई वडील, मित्र मैत्रिणी, घर दार, प्रत्येक ठिकाणी we want to prove ourselves and want to be at par with everybody else… at any cost …!

सगळं दुसऱ्यांसाठी, ह्या जगासाठी करत राहायचं, पण मग स्वतःसाठी कधी करणार… ?

वेळ कुठे आहे !

तुम्ही म्हणाल दुसऱ्यांसाठी म्हणजे नवरा बायको मुलं, आई वडील ह्यांच्यासाठीच तर करतोय, त्यात काय अयोग्य आहे… करायलाच पाहिजे… पण ह्या सगळ्या प्रोसेसमध्ये, मी माझ्यासाठी काही करतोय का??? का फक्त घरातील इतर मंडळी खुश झाली की मी खुश होणार आहे??? Is my happiness dependent on them??? ते नसतील तर मला आनंदी होता येणार नाही का ??? मग मी useless, hopeless होते का ???

स्पर्धा असणारच, ती असावीच त्याशिवाय आपण अंगभूत गुणांना ओळखुच शकणार नाही… असेल माझा हरी तर देईल खाटल्यावरी, असा विचारही घातकच… अन्न, वस्त्र, निवारा ह्यासाठी हात पाय हलवले पाहीजेतच… आज काल आम्ही एवढे busy आहोत की काय अन्न खातो, कधी खातो, ह्याचा हिशोब नाही… वस्त्र मात्र एकदम stylish परिधान करतो… बाहेरून सगळं चकाचक… पण निवारा… त्यासाठी रक्ताचं पाणी करतो आणि ते करत असताना ह्या निवाऱ्यात थांबायला वेळच नसतो… त्यामुळे आपण कोणत्या स्पर्धेत उतरायचं आहे, त्यासाठी कुठली जब्बाबदरी घ्यावी लागेल, काय तयारी करावी लागेल, ह्याचा अभ्यास आपण करतो का??? त्याचे pros n cons बघतो का ??? ह्यातून जे हाती लागणार आहे तेच उलतीमते आहे का??? कधी स्वतःचा स्वतःशी असा संवाद केलाय, झालाय … ही मैत्री कधी अनुभवली आहे का???

काल youtube वर एक व्हिडिओ पाहत होते… त्यात असा उल्लेख आहे की,

Your life is just a thought away…

बाबो, केवढा गहन अर्थ दडला आहे ह्या वाक्यात… लगेच तो विडिओ स्टॉप केला आणि विचार करू लागले… किती योग्य आणि खरं वाक्य आहे… आपल्या मनातील विचार सगळं ठरवत असतात…

उदाहरणार्थ…

आपण रस्त्यावरून जात आहोत, समोर एक व्यक्ती तिला आवडलेला ड्रेस घालून दुकानापाशी उभी आहे… आणि गम्मत म्हणजे आपल्याला नेमका तोच माणूस दिसतो आणि त्याचा ड्रेस अजिबात आवडत नाही… झालं… आपले विचार चक्र सुरू होते…

इ हा काय ड्रेस घातलाय, काय पण रंग आहे, त्याला अजिबात सूट होत नाहीत, त्याला एवढपण कळत नाही का, बरं त्याला नाही कळलं तर त्याच्या बायकोला कळत नाही का??? एक नाही, हजारो प्रश्न म्हणजेच विचार आपण काही ही कारण नसताना तयार करतो… ह्याचा त्या व्यक्तीवर काहीच फरक पडत नाही… आपण आपल्या अपेक्षांचं ओझं त्याच्यावर टाकायचा प्रयत्न करतो, पण मन अस्वस्थ कोणाचे होते???

ह्यापुढे जाऊन आपण ही गोष्ट आपल्या मित्र मैत्रिणींना पण अगदी हिरीहीरीने सांगतो… तुम्ही कितीही नाही म्हटलं तरी आपल्याला हे करत असताना एक प्रकारचा आनंद मिळतो …कारण तो माणूस किती तुच्छ आहे हे आपण prove केलेलं असतं… आणि आपली अपेक्षा तो माणूस पूर्ण करू शकत नाही ह्याची खंत झाकायची असते… पण पुन्हा तीच अस्वस्थता… म्हणजे पुन्हा स्ट्रेस…

अजून एक उदाहरण घेऊ या…

आपण एखादा चित्रपट पाहून आलो, खूप आवडला असेल तर त्याची वाहह वा करतो, त्यातील गाणी, अभिनय, फोटोग्राफी, ह्याचा विचार करू लागतो… मित्र मैत्रिणींना सांगतो… एक प्रकारचा आनंद मिलतो… कारण त्या चित्रपटाविषयी आपल्या अपेक्षा पूर्ण झालेल्या असतात… पुन्हा स्ट्रेस…. पौसिटीव्ही स्ट्रेस…

म्हणूनच मला पटलं, my life is just a reminder thought away… स्वतःची स्वतःशी असलेली मैत्री…

आजू बाजूला घडणाऱ्या गोष्टी आपल्याला प्रभावित करत असतात… आणि त्यात आपण वाहून जातो… कुठवर वाहून जायचं, it’s just a thought away… त्या क्षणी येणारा विचार तुम्हाला त्या प्रवाहातुन वाचवू शकतो नाही तर तुमचा जीवही घेऊ शकतो…

विचार चक्र चालू राहणं हे नैसर्गिक आहे… पण कुठला विचार कधी करावा, का करावा, किती करावा… हा लूप आपणच तयार करतो, तो योग्य वेळी योग्य ठिकाणी तोडता आला पाहिजे.. ह्याचा अभ्यास करणं गरजेचं आहे… त्यासाठी स्वतःची स्वतःशी मैत्री होणं आवश्यक आहे… सोप्प नाहीये, त्यासाठी खूप awareness लागतो… पण केलं तर नक्की जमेल, ह्याची खात्री आहे… पण ही मैत्री खरंच चिरकाल राहील…

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से ☆ जगह भर जाती है ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना जगह भर जाती है .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 2 – विशाखा की नज़र से

 

☆ जगह भर जाती है  ☆

 

मुठ्ठी में रेत उठाओ

चुल्लू पानी का बनाओ

समुद्र से नदी बनाओ

उल्टा चाहे क्रम चलाओ

रीती जगह नही रहती

जगह भर जाती है ….

 

आँखों से आँसू बहे

पत्ते चाहे जितने झरे

आँखों में फिर पानी

पेड़ों में हरियाली

जगह भर जाती है ….

 

गर्म हवा ऊपर उठी

ठंड़ी हवा दौड़ पड़ी

निर्वात की वजह नही

रूखी हो या नमी

जगह भर जाती है ….

 

एक शख्स जगता रहा

इधर -उधर दौड़ता रहा

देह छुटी आत्मा मुक्त

उसकी निशानी ना चिन्ह कहीं

कुछ ही समय की बात है

यादें , यादों के साथ है

रिक्त जगह नहीँ रहती

जगह भर जाती है …….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य- पितृ पक्ष विशेष – कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ पितर चले गये ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा 16 वर्ष पूर्व लिखी गई लघुकथा “पितर चले गये ” आज भी सामयिक लगती  है.)

 

☆ लघुकथा – पितर चले गये  

 

कौआ सुबह सुबह एक छत से दूसरी छत पर कांव कांव करता हुआ उड़ उड़ कर बैठ रहा था किंतु उसे आज कुछ भी खाने को नहीं मिल रहा था ।

कल ही पितृ मोक्ष अमावस्या के साथ पितृ पक्ष समाप्त हो गए । इन पन्द्रह दिनों में कौओं को भरपेट हलुआ पूड़ी एवम तरह तरह के पकवान खाने को मिले थे । इसी आस में आज भी कौआ इस छत से उस छत पर भटक रहा था ।

थक हार कर वह एक छत की मुंडेर पर बैठ गया । उसे महसूस हो गया था कि पितर चले गए हैं ।अतः वह पुनः कचरे के ढेर में अपना भोजन तलाशने उड़ गया ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 10 – अहंकार दहन ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   अहंकार दहन।)

Amazon Link – Purn Vinashak

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 ☆

 

☆ अहंकार दहन 

 

राहु और केतु राहु हिन्दू ज्योतिष के अनुसार असुर स्वरभानु का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है । इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है । वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है । दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त (24 मिनट) की अवधि होती है जो अशुभ मानी जाती है । समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं । सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया । इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया । परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था । यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है । इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है । ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से, उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं ।

केतु भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर नोड को दिया गया नाम है । केतु एक रूप में स्वरभानु नामक असुर के सिर का धड़ है । यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था । यह एक छाया ग्रह है । माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है । कुछ मनुष्यों के लिये यह ग्रह ख्याति दिलाने में अत्यंत सहायक रहता है । केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उलटी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । चुकी ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद केतु (अथवा राहू) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं । तथ्य यह है कि ग्रहण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा इन बिंदुओं में से एक पर सांप द्वारा सूर्य और चंद्रमा की निगलने की समझ को जन्म देता है । प्राचीन तमिल ज्योतिषीय लिपियों में, केतु को इंद्र के अवतार के रूप में माना जाता था । असुरो के साथ युद्ध के दौरान, इंद्र पराजित हो गया और एक निष्क्रिय रूप और एक सूक्ष्म राज्य केतु के रूप में ले लिया । केतु के रूप में इंद्र अपनी पिछली गलतियों, और असफलताओं को अनुभव करने के बाद भगवान शिव की आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो गया ।

दरअसल रावण ने सभी नौ ग्रहों के देवताओं का अपहरण कर लिया था और उन्हें लंका में ले आया था, लेकिन जल्द ही भगवान ब्रह्मा लंका आये और रावण से सभी ग्रहों को मुक्त करने का अनुरोध किया ताकि ब्रह्मांड में जीवन का चक्र प्रभावित न हो । रावण ने उन्हें एक शर्त पर मुक्त किया कि रावण प्रत्येक ग्रह की एक प्रतिलिपि बनायीं, और उन्हें बनाने के बाद उसने सभी ग्रहों के देवताओं को अपने ग्रहों की शक्तियो के सार को प्रत्येक प्रतिलिपि में प्रविष्ट करने का आदेश दिया,एक-एक करके मुख्य ग्रह के अनुसार । इसलिए सूर्य ने रावण द्वारा बनाए गए सूर्य की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों के सार को डाला, चंद्रमा ने रावण द्वारा बनाए गए चंद्रमा की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों को सम्मिलित किया आदि आदि अन्य ग्रहो ने भी किया । इसके बाद रावण ने सभी नौ ग्रहो को मुक्त कर दिया ।

तब रावण ने लंका का अपना निजी राशि चक्र बनाया जिससे लंका के प्रत्येक हिस्से पर एक ही तरह का प्रभाव पड़े और सभी प्रतिलिपि ग्रहों को रावण द्वारा परिभाषित गति के साथ आगे बढ़ने का आदेश दिया गया, इसका अर्थ है कि लंका में कभी भी कोई नुकसान या खतरा नहीं होगा किसी भी परिस्थिति में । भगवान हनुमान, रावण की शक्ति और बुद्धि से आश्चर्यचकित थे । फिर उन्होंने अपने मस्तिष्क में सोचा कि लंका को यदि कोई नुकसान पहुँचाना है, तो इन प्रतिलिपि ग्रहों को किसी भी तरह से मुक्त करना होगा । रावण भी भगवान हनुमान को लगभग एक मिनट तक देखता रहा, आखिर में उन्होंने भगवान हनुमान से कहा, “तो तुम हो वो शरारती वानर जिसने मेरे सबसे खूबसूरत बगीचे को नष्ट कर दिया और मेरे बेटे अक्षय कुमार को भी मार डाला, क्या तुम सजा के लिए तैयार हो?”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 7 ☆ अब कहाँ है रास्ता? ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘अब कहाँ है रास्ता?’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 8 

☆ अब कहाँ है रास्ता?

अमन के नाम पर झगड़े होते हैं
खून -खराबे, आगजनी, मारकाट होती है
इन्सा का इन्सा से नहीँ रहा वास्ता
अब कहाँ है रास्ता?

 

दिन में गलबाँहें डालते हैं दोस्त जो
पीठ में खंज़र वे ही चुभाते हैं
दोस्तों का दोस्तों से मिट गया है राब्ता
अब कहाँ है रास्ता?

 

आज़ाद देश में नारी पर होता अत्याचार है
मासूम सी कलियों को ये ही कुचलते हैं
नारी के जीवन की करूण है दास्ताँ
अब कहाँ है रास्ता?

 

© सौ. सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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