हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 28 – बापू के संस्मरण-2 आटा पीसना तो अच्छा है ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – आटा पीसना तो अच्छा है”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 28 – बापू के संस्मरण – 2 आटा पीसना तो अच्छा है ☆ 

गांधीजी ने जब दक्षिण अफ्रीका में आश्रम खोला था, तब उनके पास जो कुछ भी अपना था, सब दे दिया था । स्वदेश लौटे तो कुछ भी साथ नहीं लाये, सबका वहीं ट्रस्ट बना दिया और ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि उसका उपयोग सार्वजनिक कार्य के लिए होता रहे।  भारत लौटने पर पैतृक सम्पत्ति का प्रश्न सामने आया, पोरबन्दर और राजकोट में उनके घर थे उनमें गांधी-वंश के दूसरे लोग रहते थे । उन सबको बुलाकर गांधीजी ने कहा, “पैतृक सम्पत्ति में मेरा जो कुछ भी हिस्सा है, उसे मैं आपके लिए छोड़ता हूँ” वह केवल कहकर ही नहीं रह गये, लिखा-पढ़ी करवाने के बाद अपने चारों पुत्रों के हस्ताक्षर भी उन कागजों पर करवा दिये इस प्रकार वे कानूनी हो गये । गांधीजी की एक बहन भी थीं उनका नाम रलियातबहन था, लेकिन सब उनको गोकीबहन कहकर पुकारते थे । उनके परिवार में कोई भी नहीं था ।  प्रश्न उठा कि उनका खर्च कैसे चले ? अपने निजी काम के लिए गांधीजी किसी से कुछ नहीं मांगते थे, फिर भी उन्होंने अपने पुराने मित्र डाँ प्राणजीवनदास मेहता से कहा कि वह गोकीबहन को दस रुपये मासिक भेज दिया करें।  भाग्य की विडम्बना देखिये! कुछ दिन बाद गोकीबहन की लड़की भी विधवा हो गई और माँ के साथ आकर रहने लगी । उस समय बहन ने गांधीजी को लिखा, “अब मेरा खर्च बढ़ गया है उसे पूरा करने के लिये हमें पड़ोसियों का अनाज पीसना पड़ता हैं” ।  गांधीजी ने उत्तर दिया,”आटा पीसना बहुत अच्छा है दोनों का स्वास्थ्य ठीक रहेगा हम भी आश्रम में आटा पीसते हैं ।  तुम्हारा जब जी चाहे, तुम दोनों आश्रम में आ सकती हो और जितनी जन-सेवा कर सको, उतना करने का तुम्हें अधिकार है जैसे हम रहते हैं,वैसे ही तुम भी रहोगी मैं घर पर कुछ नहीं भेज सकता और न अपने मित्रों से ही कह सकता हूँ”।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 25 ☆ कृष्णा के दोहे ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है   कृष्णा के दोहे इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 25 ☆

☆ कृष्णा के दोहे  ☆

 

चितवन

कान्हा से टकरा गई, वह अलबेली नार।

अधर पंखुरी से खिले, चितवन प्रीति – कटार।।

 

अनुवाद

बहु भाषाओं में हुआ, रामायण – अनुवाद

कभी अहिंदी क्षेत्र भी, करते नहीं विवाद।।

 

अनुबंध

अधर गुलाबी खिल उठे, साँस धौंकनी लाज।

अनुरागी अनुबंध की, पाती पढ़कर आज।।

 

चकोर

चाहत हुई चकोर – सी, चाँद तके दिन रैन

गीतों के गुंजार से, कंठ न पाता चैन।।

 

चाँदनी

रात अमावस जप रही, कृष्ण – कृष्ण अविराम।

पूरण मासी चाँदनी, भजती राधेश्याम।।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 4 ☆ व्यंग्य – स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  समसामयिक सार्थक व्यंग्य  “स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट।  दान महात्मय पर रचित  अकल्पनीय रचना । कोरोना का खौफ इस तरह बैठता जा रहा है कि स्वप्न  में  भी कोरोना और सामाजिक परिवेश के चित्र दिखाई देने लगे हैं। फिर स्वप्न को स्वप्न की ही दृष्टि से देखना चाहिए, जाति, धर्म और राजनीति की दृष्टि से  कदापि नहीं। श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 47 ☆ 

☆ व्यंग्य – स्वर्ग के द्वार पर करोना टेस्ट 

दानं वीरस्य भूषणम्.गुरूजी ने उन्हें जीवन मंत्र समझाया  था कि ये सारे करेंसी नोट तो यहीं रह जाते हैं, ऊपर तो केवल दान, दया,मदद की कोमल भावना के नोट ही चलते हैं.इस भाव को उन्होने जीवन में अपना लिया था और इस दृष्टि से निश्चित ही वे बड़े पुण्यात्मा थे.  उन्होने सबकी सदैव हर संभव मदद की थी. प्रधान मंत्री सहायता कोष की ढ़ेर सारी रसीदें उनके पास सुरक्षित हैं. १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध का मौका रहा हो, कहीं भूकम्प आया रहा हो या बाढ़ की विपत्ति से देश प्रभावित हुआ हो, अकाल पड़ा रहा हो या आगजनी की विपदा आई हो,उनसे जितना बन पड़ा मुक्त हृदय से उन्होने सहयोग किया. पहले चैक से राशि भेजते थे, फिर ड्राफ्ट का जमाना आया, सीधे खाते में राशि जमा करने का मौका आया और अब तो घर बैठे नेट बैंकिंग से या मोबाईल एप के जरिये ही मदद पहुंचाने की  सुविधायें दी जाने लगी हैं. कुछ निजी संस्थानो को उनके इस भामाशाही नेचर का ज्ञान जाने कैसे हो जाता है ? शायद वे सहायता कोष के डाटा बेस में सेंध लगा लेते हैं, क्योंकि उनके पास कोकिल कंठी युवा लडकियो के स्वर में उन संस्थाओ को भी दान देने की प्रार्थना के फोन आने लगते हैं. वे यथा संभव उन्हें भी निराश नही करते. मतलब उन्होने स्वयं की ऐसी दानी प्रोफाईल बना ली थी कि चित्रगुप्त जी को स्वर्ग में उनकी सीट आरक्षण में कहीं कोई अंदेशा न हो.

चीन से कोरोना क्या आया वैश्विक महामारी फैल गई, इससे पहले कि वे इस पेंडेमिक राहत कोष में किसी तरह का कोई दान धर्म कर पाते इस पावन धरा पर उनका जीवन काल पूरा हो गया. लाकडाउन के चलते सड़कें, गलियां,शहर सब वैसे ही वीरान थे, बिना ट्रेफिक में फंसे मिस्टर एम राज अर्थात यमराज आ धमके. उन्होंने प्रसन्न मन, धरा को त्याग वासांसी जीर्णानी यथा विहाय को ध्यान रख नश्वर शरीर त्याग गोलोक गमन किया.अपने दान धर्म पर उन्हें भरोसा था,  मन ही मन उन्होने सोचा चलो अब स्वर्ग में अप्सराओ के नृत्य, गंधर्वो का संगीत सुनने का समय आ गया है. लेकिन यह क्या जैसे ही वे स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे उनको द्वार पाल ने रोक लिया. उन्हें लगा यार गलती हो गई मैं दान की संभाल कर रखी रसीदें तो ला  ही नहीं पाया. उन्होने स्वयं को कोसा अरे कम से कम उनकी स्कैन कापी डिजिटल लाकर में डाल ली होतीं तो आज काम आतीं. फिर उन्हें ध्यान आया कि हां इनकम टैक्स रिटर्न में तो हर बार रसीदें लगाईं थी और एट्टी जी में उसकी छूट भी ली थी, मतलब सारे दान के डिटेल्स रिकवर करने के चांसेज हैं. वे द्वार पाल को कोने में ले जाकर अपने टैक्स रिटर्न्स निकलवाने के लिये पैन नम्बर बताना चाहते थे, जो उन्हें जगह जगह लिखते हुये मुखाग्र याद हो गया था. किन्तु वे ऐसा कुछ करते इससे पहले ही उन्होने देखा कि द्वार पर एक सुंदर नर्स और एक डाक्टर भी थे, जो लोगों के माथे पर पिस्तौल सा यंत्र ताने लोगों का तापमान ले रहे थे, नर्स गले से स्वाब, नाक से नेजल एस्पिरिट निकाल रही है, और सारी पुण्यात्माओ को बेवजह २१ दिनो के क्वेरेंटीन में स्वर्ग से बाहर बनाये गये टेंट के कैम्प में भेजा जा रहा था. उन्हें कुछ गुस्सा भी आया कैसे भगवान हैं जो चाइना के कोरोना से जीत नही पाये हैं. किंतु जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये का ध्यान कर उन्होने सब्र से काम लिया और सारे सेंपल देकर लाइन से क्वेरेंटीन कैंम्प की ओर बढ़ चले. वहां पहले से ही कुछ जमाती पलंग पर जमे दिखे, पूछा तो पता हुआ कि कब्रिस्तान फुल चल रहे थे इसलिये हूरों की वेटिंग के लिये कुछ इंटर रिलीजन एग्रीमेंट हुआ है जिसके चलते इस केम्प में सीट्स खाली होने से इन लोगों को यहां रखा गया था. वे पलंग पर लेट ही रहे थे कि एक कर्कश आवाज आई कब तक लेटे रहियेगा, उठिये चाय बनाइये, आज आपकी बारी है. गहरी तंद्रा टूट गई. पत्नी चाय बनाने का आदेश दे रही थी, रामदीन की छुट्टी कर दी थी उन्होंने और बारी बारी से पति पत्नी किचन का जिम्मा संभाल रहे थे. उन्होंने चाय का पानी चढ़ाते हुये तय किया आज पी एम केयर फंड में ग्यारह हजार डाल देंगे, आखिर परलोक भी तो सुधारना है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 48☆ शौकिनांचे शहर☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत भावप्रवण कविता  “शौकिनांचे शहर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 48 ☆

☆ शौकिनांचे शहर ☆

कधी गाव होते नगर आज झाले

वहात्या नदीवर कहर आज झाले

 

इथे रोज जन्मास येतात रस्ते

किती वृक्ष येथे अमर आज झाले

 

इथे काल होती वने टेकड्याही

तिथे शौकिनांचे शहर आज झाले

 

कधी भ्रष्ट म्हणुनी तुरुंगात गेले

पुन्हा मुळपदावर हजर आज झाले

 

दुकानात मंदी मला हे कळेना

पुढारी कशाने गबर आज झाले

 

नको ना बखेडा जरी मी म्हणालो

तुझा हट्ट होता समर आज झाले

 

अशोकास मुक्ती कशाने मिळाली

तिचे मोकळे हे अधर आज झाले

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 3 – त्यावेळी ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है।

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण अप्रतिम कविता ‘त्यावेळी ’ । साथ ही इस कविता का वरिष्ठ मराठी एवं हिंदी साहित्यकार  श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ जी  द्वारा हिंदी अतिसुन्दर भावानुवाद उस समय’ भी आज के ही अंक में प्रकाशित कर रहे हैं ।

आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 3 ☆ 

☆ कविता – त्यावेळी   

 

त्यावेळी

वाटलं होतं

आपण

एकमेकांना

अगदी अनुरुप

जसं

दोन देह

एक मन

दोन श्वास

एक जीवन

पण

पुलाखालून

थोडं पाणी

वाहून गेलं

आणि लक्षात आलं

आपले

फुलण्याचे ऋतू वेगळे.

तसेच पानगळीचेही.

आता आपण कुरवाळतो

स्वतंत्रपणे

पाखरांच्या स्मृती

आपल्या बहरानंतरच्या

आणि वाट पाहतो

नव्या बहराची

आपल्या पनगळीनंतरच्या.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उस समय ☆ श्री भगवान् वैद्य ‘प्रखर’

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

( श्री भगवान् वैद्य ‘ प्रखर ‘ जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी एवं मराठी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपका संक्षिप्त परिचय ही आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचायक है।

संक्षिप्त परिचय : 4 व्यंग्य संग्रह, 3 कहानी संग्रह, 2 कविता संग्रह, 2 लघुकथा संग्रह, मराठी से हिन्दी में 6 पुस्तकों तथा 30 कहानियाँ, कुछ लेख, कविताओं का अनुवाद प्रकाशित। हिन्दी की राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में विविध विधाओं की 1000 से अधिक रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी से छह नाटक तथा अनेक रचनाएँ प्रसारित
पुरस्कार-सम्मान : भारत सरकार द्वारा ‘हिंदीतर-भाषी हिन्दी लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार’, महाराष्ट्र राजी हिन्दी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा कहानी संग्रहों पर 2 बार ‘मूषी प्रेमचंद पुरस्कार’, काव्य-संग्रह के लिए ‘संत नामदेव पुरस्कार’ अनुवाद के लिए ‘मामा वारेरकर पुरस्कार’, डॉ राम मनोहर त्रिपाठी फ़ेलोशिप। किताबघर, नई दिल्ली द्वारा लघुकथा के लिए अखिल भारतीय ‘आर्य स्मृति साहित्य सम्मान 2018’

हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ जी  द्वारा सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  की एक भावप्रवण  अप्रतिम मराठी कविता त्यावेळी’ का  अतिसुन्दर हिंदी भावानुवाद ‘उस समय ’  जिसे हम आज के ही अंक में  ही प्रकाशित कर रहे हैं।

☆ उस समय  ☆

 

उस समय लगा था

हम दोनों

एक दूसरे के लिए ही है

जैसे दो देह

एक मन

दो सांस

एक जीवन

पर

पुल के नीचे से

कुछ पानी बह गया

तब ध्यान में आया

अपने खिलने के मौसम भिन्न भिन्न है

और पतझड़ के भी

 

अब हम स्वतंत्र होकर सहला रहे हैं

पंछियों की स्मृतियां

बहार गुजर जाने के बाद की

और बाट जोह रहे है

अपने पतझड़ के बाद आनेवाली

नयी बहार की

 

श्री भगवान् वैद्य ‘प्रखर’ 

30 गुरुछाया कॉलोनी, साईं नगर अमरावती – 444 607

मोबाइल 8971063051

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 46 – कविता – ममता के सागर से निकली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम कविता   “ममता के सागर से निकली।  अप्रतिम कविता , स्त्री के माँ  का स्वरुप  और अद्भुत शब्दशिल्प। इस सर्वोत्कृष्ट  कविता के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 46 ☆

☆ कविता   – ममता के सागर से निकली

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

कर सिंचित अपने तन से

किया नव सृष्टि का संचार

 

भावना की डोरी में बंधी

प्यार के सपने संजोए हुए

पाजेब चुनर सिंदूर चूड़ियां

धारण कर श्रंगार किए

दीप जलाती तुलसी चौरा

सुख शांति का लेकर भार

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

 

कोख रखा नव महीनों तक

समय बिताई पल छिन संवार

बिसरा गई सारे कष्टों को

शिशु दिया जब  जन्म साकार

बनकर ममता  की  जननी

जीवन मिला उसको एक बार

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

 

शब्दों में मां को उतारू कैसे

जीवन जहां से प्रारंभ हुआ

उन पर क्या मैं गीत लिखूं

उल्लासित  मन हुआ महुआ

रीति-रिवाजों को सिखलाती

मां का निर्मल छलकता प्यार

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

 

नवल इतिहास सजाने चली

मानवता की प्रतिमूरत है

देवो को भी वश में कर ले

मां में शक्ति समाहित हैं

भीगे हुए नयनों में भी समाए

मधुर मधुर सुर सरगम तार

 

ममता के सागर से निकली

लेकर जीवन अमृत धार

 

कर  सिंचित अपने तन से

किया नव सृष्टि का संचार

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #49 ☆ माँ का वात्सल्य ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  प्रस्तुत है मातृ दिवस पर एक समसामयिक विशेष रचना माँ का वात्सल्य ।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #49 ☆

☆  माँ का वात्सल्य   ☆

माँ तो सिर्फ माँ होती है

हो चाहे पशु-पक्षी की

पथ की ठोकर से बचाकर

रक्षा करती बालक की

हाथ थाम चलती शिशु का

पल-पल साथ निभाती है

थोड़ा-थोड़ा दे कर ज्ञान

जीवन कला सिखाती है।

 

विस्तृत नीले आकाश सी

धरती सी सहनशील होती

टटोल कर बालक के मन को

आँचल की घनी छाँव देती

पीड़ा हरती बालक की

खुशियों का हर पल देती

पिरो न सकें शब्दों में जिसे

माँ ऐसी अनमोल होती।

रचना माँ से सृष्टि की

माँ जननी है विश्व की

अद्भुत है वात्सल्य माँ का

माँ से तुलना नहीं किसी की

बेटी, बहन, पत्नी बनकर

चमकाती अपने चरित्र को

माँ बनकर सर्वस्व अपना

देती अपनी संतान को।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 2 ☆बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सकारात्मक सार्थक व्यंग्य “बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आप तक उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करते रहेंगे। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #2 ☆

☆ बहिष्कृत सेब और परितक्त्य केला संवाद

‘हेलो डियर एपल, तुम यहाँ कैसे?’ – कचरे के ढेर पर पड़े केले ने सेब से पूछा.

‘हुआ ये कि एक थे जानकी दादा, उन्होंने किलो भर ख़रीदा. थोड़ी दूर जाकर उनको पता चला कि विक्रेता असलम था तो वे मुझे यहाँ फेंक गये. कहते हैं मैं मुसलमां हो गया हूँ, और आप?’

‘अपन की भी वोई कहानी.’ – केले ने कहा – ‘आबिद भाई ने परचेस तो कर लिया था, मगर घर पहुँचने से पहले उन्हें किसी ने बताया कि वेंडर कैलास था, वो मुझे यहाँ पटक गये. बोला कि मैं हिन्दू हो गया हूँ.’

‘यार कुछ भी कहो, ठौर सही मिला है अपन को. आस-पास थोडा कचरा जरूर है मगर है जगह धर्म निरपेक्ष. सर्वसमावेशी. निरापद. शांत. निर्विवाद.’

‘सही कहा दोस्त, अब तो ये साले इंसान सेब, केले, अंगूर, अनार का भी धरम तय करने लगे. मेरा जन्म तो हिमाचल में दौलतरामजी के बगीचे में हुआ. इस लिहाज से तो मैं पैदाइशी हिन्दू हुआ.’

‘डेफिनेशन बाय बर्थ से चलें तो अपन भी मोमेडन ही हुवे. मेरा प्लेस ऑफ़ बर्थ जलगाँव के अहमद मियां का फार्म है.’

‘दोस्त, मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि हमारा धर्म उगानेवाले से तय होगा कि बेचनेवाले से? प्रकृति ने तो हमें भूख मिटाने के धर्म में दीक्षित करके भेजा था, इसमें हिन्दू-मुसलमान कहाँ से आ गया?’

‘पता नहीं यार, कोई वाट्सअप नाम की चीज़ है आदमियों की दुनिया में, शायद तक तो उसी से हुआ है. बहिष्कार की अपीलें चल रहीं हैं वहाँ. बहरहाल, ये बताओ कि वे अगर तुम्हें खा लेते और उसके बाद उनके नॉलेज में आता तब क्या होता?’

‘अंगुली गले में फंसा के उल्टी करते, फिर तीन बार कुल्ले करके शुद्धि कर लेते.’ ऊssssssक्क. उलटी की आवाज़ की मिमिक्री कर दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया. तभी शेष कचरे में से जोर जोर से हंसने आवाज आई. उन्होंने पूछा तुम कौन हो?

‘मैं अधर्म हूँ.’

‘तुम यहाँ क्या कर रहे हो और इतनी जोर-जोर से क्यों हंस रहे हो?’

‘वो जो असलीवाला धर्म है ना वो मुझे बार बार कचरे में डाल जाता हैं. मैं बजरिये भक्तों के धर्म को ही जार जार करने निकल पड़ता हूँ. देखो इस विपत्तिकाल में भी लोग मुझे कम एक दूसरे को ज्यादा निपटा रहे हैं. अपन की चाँदी है तो क्यों नहीं हंसे?….अभी यहाँ हूँ, कुछ देर में वाट्सअप पर रहूँगा, फिर चीखते चैनलों में, फेक न्यूज में, डॉक्टर्ड वीडिओ में, फिर पढ़े-लिखे दिमागों में, हाथ के पत्थरों में, जलते टायरों में, आंसू गैस के गोलों में, रबर की बुलेटों में, फिर…..फिर….’, फिर चुप्पी मार गया अधर्म.

‘माय डियर बनाना, अब हम क्या करेंगे?’

‘चेरिटी करेंगे. जस्ट वेट. पुलिस की नज़र बचाकर आती ही होंगी पन्नी बीननेवाली औरतें, हम उनके खाने के काम आयेंगे.’

‘वो किस धरम की हैं?’

‘जो लोग कचरे में से बीन कर पेट भरते हैं वे धरम-करम के फेर में नहीं पड़ते. समझो कि वे भूख के धरम की हैं. नाक चढ़ाना उनके चोंचले हैं जिनके हाथ में थर्टी थाउजंड का स्मार्ट फ़ोन और दो जीबी डाटा डेली खरीदने का दम है.’

‘तब तो हम हमेशा ही पन्नी बीननेवालियों के काम आया करेंगे.’ – सेब ने खुश होकर कहा.

‘नहीं दोस्त, नहीं हो पायेगा, इंसान की फितरत तुम जानते नहीं. प्लान्स ये हैं कि साईन बोर्ड पर ही लिखवा दें – कैलास हिन्दू केला भंडार, असलम मोमेडन फ्रूट स्टोर्स जैसा कुछ. खाये-पिये अघाये लोगों की फितरतें हैं – ये यहाँ से नहीं खरीदो, वो वहाँ से नहीं खरीदो.’ – केले ने समझाया.

सेब सोच रहा है इससे तो ईडन गार्डन में ही अच्छा था. काश वहीं लटका रह जाता. न तो आदिम आदम को धरम से कोई मतलब रहा था, न हव्वा को. मानव सभ्यता रिवाईंड हो जाये तो मजा आ जाये.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 7 ☆ मायका ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  मातृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण विशेष कविता  “मायका”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 7 ☆

☆  मायका ☆

 

मैं फूल तुम्हारे आँगन की, महक सजाए रखना,

जाती हूँ ससुराल, मेरी याद सीने से लगाये रखना।

 

नहीं चाहिए भईया, पैसों का कुछ हिस्सा,

नहीं चाहिए पापा, दान दहेज़ कुछ ऐसा,

नहीं चाहिए माँ, ये साड़ी गहने तुम जैसा,

नहीं चाहिए सखी सहेली, खेल खिलोनों का बड़ा सा बक्सा,

मैं फूल तुम्हारे आँगन की, महक सजाए रखना,

जाती हूँ ससुराल, मेरी याद सीने से लगाये रखना।

 

माँ जब दूर हुई तुमसे, यादों का बक्सा खोला था,

आँसू झर-झर निकले थे, जबकि नया किसी ने कुछ बोला था,

पापा की प्यारी थी, उनके घर में राजकुमारी थी,

भईया साथ खेली थी, उनकी सखी सहेली थी,

ससुराल में मौन यूँ ही खड़ी थी, किसी से कुछ नहीं बोली थी,

मैं फूल तुम्हारे आँगन की, महक सजाए रखना,

जाती हूँ ससुराल, मेरी याद सीने से लगाये रखना।

 

पराई क्यों हूँ, सवाल गूँज रहा था,

हर लम्हा मायके का, अपने आप में समेट रहा था,

याद आते हैं वो दिन, जब कच्ची, पक्की, जली रोटी बेली थी,

खूब चिढ़ाया भईया ने, उनके साथ नया बोली थी,

पापा मंद-मंद मुस्कुराये थे, चूमी मेरी हथेली थी,

माँ की डांट भी अलबेली थी,

मैं फूल तुम्हारे आँगन की, महक सजाए रखना,

जाती हूँ ससुराल, मेरी याद सीने से लगाये रखना।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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