हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 14 ☆ डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 14 ☆ 

 

 ☆ डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान☆

 

मेरे एक मित्र को पिछले दिनो ब्लडप्रेशर बढ़ने की शिकायत हुई, तो अपनी ठेठ भारतीय परम्परा के अनुरुप हम सभी कार्यलयीन मित्र उन्हें देखने उनके घर गये, स्वाभाविक था कि अपनी अंतरंगता बताने के लिये विशेषज्ञ एलोपेथिक डाक्टरो के इलाज पर भी प्रश्न चिन्ह लगाते हुये उन्हें और किसी डाक्टर से भी क्रास इक्जामिन करवाने की सलाह हमने दी, जैसा कि ऐसे मौको पर किया जाता है किसी मित्र ने जड़ी बूटियो से शर्तिया स्थाई इलाज की तो किसी ने होमियोपैथी अपनाने की चर्चा की। मुफ्त की सलाह के इस क्रम में एक जो विशेष सलाह थोड़ा हटकर थी वह एक अन्य मित्र के द्वारा, कुत्ता पालने की सलाह थी। बड़ा दम था इस तथ्य में कि रिसर्च के मुताबिक जिन घरों में कुत्ते पले होते हैं वहां तनाव जन्य बीमारियां कम होती हें, क्योकि आफिस आते जाते डागी को दुलारते हुये हम दिनभर की मानसिक थकान भूल जाते हैं, इस तरह ब्लड प्रैशर जैसी बीमारियों से, कुत्ता पालकर बचा जा सकता है। ये और बात है कि पड़ोसियो के घरो के सामने खड़ी कार के पहियो पर, बिजली के खम्भो के पास जब आपका कुत्ता पाटी या गीला करता है तो उसे देखकर पड़ोसियो का ब्लड प्रैशर बढ़ता है।

वैसे कुत्ते और हमारा साथ नया नहीं है, इतिहासज्ञ जानते हैं कि विभिन्न शैल चित्रों में भी आदमी और कुत्ते के चित्र एक समूह में मिलते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर की स्वर्ग यात्रा में एक कुत्ता भी उनका सहयात्री था यह कथानक भी यही रेखांकित करता है कि कुत्ते और आदमी का साथ बहुत पुराना है। कुत्ते अपनी घ्राण, व श्रवण शक्ति के चलते कम से कम इन मुद्दो पर इंसानो से बेहतर प्रमाणित हो चुके हैं। अपराधो के नियंत्रण में पुलिस के कुत्तों ने कई कीर्तीमान बनायें है। सरकस में अपने करतब दिखाकर कुत्ते बच्चों का मन मोह लेते है और अपने मास्टर के लिये आजीविका अर्जित करते हैं। संस्कृत के एक श्लोक में विद्यार्थियो को श्वान निद्रा जैसी नींद लेने की सलाह दी गई है। भाषा के संदर्भ में यह खोज का विषय है कि कुत्ते शब्द का गाली के रूप में प्रयोग आखिर कब और कैसे प्रारंभ हुआ क्योकि वफादारी के मामले में कुत्ता होना इंसान होने से बेहतर है। काका हाथरसी की अगले जन्म में विदेशी ब्रीड का पिल्ला बनने की हसरत भी महत्वपूर्ण थी क्योकि शहर के पाश इलाके में किसी बढ़िया बंगले में, किसी सुंदर युवती के साथ उसकी कार में घूमना उसके हाथों बढ़िया खाना नसीब होना इन पालतू डाग्स को ही नसीब हो सकता है। फालतू देशी कुत्तो को नही, जो स्ट्रीट डाग्स कहे जाते हैं। यूं तो स्लम डाग मिलेनियर, फिल्म को आस्कर मिल जाने के बाद से इन देशी कुत्तो का स्टेटस भी बढ़ा ही है।

पिछले दिनों मुझे एक डाग शो में जाने का अवसर मिला। अलशेसियन, पामेरियन, पग, डेल्मेशियन, बुलडाग, लैब्राडोर, जर्मन शेफार्ड, मिनिएचर वगैरह वगैरह ढ़ेरो ब्रीड के तरह तरह की प्रजातियो के कुत्तो से और उनके सुसंपन्न मालिकों से साक्षात्कार का सुअवसर मिला। ऐसे ऐसे कुत्ते मिले कि उन्हें कुत्ता कहने भी शर्म आये। और यदि कही कोई उन्हें कुत्ता कह दें तो शायद उनके मालिक बुरा मान जाये, बेहरत यही है कि हम उन्हें श्वान कहें। थोड़ा इज्जतदार शब्द लगता है। वैसे भी घर में पले हुये कुत्ते घर के बच्चो की ही तरह सबके चहेते बन जाते है, वे परिवार के सदस्य की ही तरह रहते, उठते बैठते हैं। उनके खाने पीने इलाज में गरीबी रेखा के आस पास रहने वाले औसत आदमी से ज्यादा ही खर्च होता है।

डाग शो में जाकर मुझे स्वदेशी मूवमेंट की भी बड़ी चिंता हुई। जिस तरह निखालिस देशी ज्वार और देशी भुट्टे, या गन्ने से, भारत में ही बनते हुये, यहीं बिकते हुये सरकार को खूब सा टैक्स देते हुये भी और पूरी की पूरी बोतल यही कंज्यूम होते हुये भी आज तक विदेशी शराब, विदेशी ही है,जिस तरह भारत के आम मुसलमान आज तक भी भारतीय नही हैं,या माने नही जाते हैं ठीक वैसे ही डाग शो में आये हुये सारे के सारे कुत्ते बाई बर्थ निखालिस हिन्दुस्तानी नागरिकता के धारक थे, पर स्वयं उनके मालिक ही उन्हें देशी कहलाने को तैयार नही थे, विदेशी ब्रीड का होने में जो गौरव है वह अभिजात्य होने का अलग ही अहं भाव जो पैदा करता है। एक जानकार ने बताया कि रामपुर हाउण्ड नामक देसी प्रजाति का कुत्ता भी डाग शो में प्रदर्शन के लिये पंजीकृत है, तो मेरे स्वदेसी प्रेम को किंचित शांति मिली, वैसे खैर मनाने की बात है कि स्वदेशी,दुत्कारे जाने वाले, टुकड़ो पर सड़को के किनारे पलने वाले ठेठ देशी कुत्तो के हित चिंतन के लिये भी मेनका गांधी टाइप के नेता बन गये हैं, पीपुल्स फार एनीमल, जैसी संस्थायें भी सक्रिय हैं। नगर निगम की आवारा पशुओ को पकड़ने वाली गाड़ी इन कुत्तो की नसबंदी पर काम कर रही है अतः हालात नियंत्रण में है, मतलब चिंता जनक नहीं है, विदेशी श्वान पालिये, ब्लड प्रैशर से दूर रहिये। श्वानों के डाग शो में हिस्सा लीजिये, और पेज थ्री में छपे अपने कुत्ते की तस्वीर की मित्रो मे खूब चर्चा कीजीये। पर आग्रह है कि अब विदेशी ब्रीड के कुत्तो को देशी माने न माने पर कम से कम देश में जन्में हुये आदमी को भले ही वह मुसलमान ही हो देसी मान ही लीजीये।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #16 ☆ साथी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “साथी  ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #16 ☆

 

☆ साथी  ☆

 

“चल भाई  ! महफ़िल जमाते है”  रमण ने कहा तो उस ने प्याला उठ लिया. आगे-आगे रमण और पीछे-पीछे वह चलने लगा.

कुछ ही देर में महफ़िल जम गई.  एक गिलास में वह कुछ बियर  डाल लेता. दूसरे प्याले में कुछ बियर  उंडेल  देता.

“अरे भाई  ! तू बेईमानी मत करना” कहते हुए रमण कागज में रखी सेव का थोड़ा सा भाग उस के सामने रख देता और थोडा सा अपने सामने रख लेता. फिर दोनों सेव  खाते हुए मस्ती से बियर  का मजा ले रहे थे.

तभी मोहन वहाँ आ पहुँचा ,” क्यों भाई, महफ़िल जम रही है ?”

“हाँ  यार, तू भी बैठ.”

“इस कुत्ते के साथ ?”

“हाँ  यार ! यही तो मेरा वफादार साथी है. जो हर समय मेरा साथ निभाता है.” कह कर रमण और उस का साथी दोनों बारी-बारी से बियर पीने लगे .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 14 – बहे विचारों की सरिता…… ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “बहे विचारों की सरिता……। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 14 ☆

 

☆ कविता – बहे विचारों की सरिता…… ☆  

 

सुखद कल्पनाओं में

मन के स्वप्न सुनहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम, तट पर ठहरे से।

 

दुनियावी बातों से

बार-बार ये मन भागे

जुड़ने के प्रयास में

रिश्तों के टूटे धागे,

हैं प्रवीण,

फिर भी जाने क्यूं

जुड़े ककहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम तट……………….।

 

रागी, भ्रमर भाव से सोचें

स्वतः  समर्पण  का

उथल-पुथल अंतर की

शंकाओं के तर्पण का,

पर है डर,

बाहर बैठे

मायावी पहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम तट पर………….।

 

जिसने आग लगाई उसे

पता नहीं पानी का

क्या होगा निष्कर्ष

अजूबी अकथ कहानी का,

भीतर में हलचल,

बाहर हैं

गूंगे- बहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम तट पर………….।

 

चाह तृप्ति की, अंतर में

चिंताओं को लादे

भारी मन से किये जा रहे

वादों पर वादे,

सुख की सांसें तभी मिले

निकलें

जब गहरे से

बहे विचारों की सरिता

हम तट पर ठहरे से।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

 

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 16 – लवंगलता– वृत्त ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी जीवन के अनुभव और सत्य को उजागर करती हुई कविता लवंगलता– वृत्त सुश्री प्रभा जी की प्रत्येक कविता  हमें जीवन के अनुभवों और गूढ़ रहस्यों से रूबरू कराती हैं. उनके सांकेतिक प्रतीक अद्भुत एवं हृदयस्पर्शी हैं.   इस जन्म का लेखा जोखा रखना है और इस जीवन का  सांकेतिक उत्सव  ह्रदय में है.   वास्तव में हम अपने जीवन में  अक्सर  घानी के बैल की भाँति  गृहस्थी -परिवार के एक ही पथ पर चलते रहते हैं .  जीवन में कई क्षण आते हैं जब हमें और कोई पथ सूझता ही नहीं है.  कई क्षण ऐसे भी आते हैं  जब हम वह नहीं पाते हैं जिसकी अपेक्षा करते हैं, हम फूल बोते हैं और कांटे उग आते हैं. जन्म मृत्यु का प्रश्न सदैव अनुत्तरित है और ऐसे कई प्रश्न हैं जिनका कोई उत्तर हमारे पास नहीं है.  फिर कभी वह क्षण भी आता है जब एक चिंगारी  हमें नवजीवन प्रदान करती  है. जैसे -जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे-वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ।  यह भी संभव है कि प्रत्येक पाठक कवि के विचारों की विभिन्न व्याख्या करे.   हृदय के उद्गार इतना सहज लिखने के लिए निश्चित ही सुश्री प्रभा जी के साहित्य की गूढ़ता को समझना आवश्यक है। यह  गूढ़ता एक सहज पहेली सी प्रतीत होती है। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 16 ☆

 

☆ लवंगलता– वृत्त  ☆

 

आयुष्याचा लेखाजोखा मांडायाचा आहे

या जन्माचा सौख्य सोहळा मनात भरुनी राहे

ओंजळ माझी रिक्त राहिली असे आजही वाटे

फुले वाहिली ज्या वाटेवर, तिथे उगवले काटे

 

त्या काट्यांनी बहरुन आल्या इथल्या मळक्या वाटा

रानामधल्या मूक फुलांचा उगाच का बोभाटा

काही केल्या या प्रश्नाचे उत्तर गवसत नाही

पराधीन हे जगणे मरणे, नसे कशाची ग्वाही

 

प्रत्येकाची नवी लढाई, नवा लढाऊ बाणा

माझे जगणे  मात्र  असे की, बैल चालवी घाणा

एकेजागी फिरत राहिले, मार्ग मिळाला नाही

सौख्य जरासे असे लाभले, दिशा मिळाल्या दाही

 

कधी  अचानक ठिणगी मधुनी पेटून उठे ज्वाला

पुन्हा नव्याने एक झळाळी येई आयुष्याला

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 5 – खुशियाँ मनाए शाम ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “खुशियाँ मनाए शाम”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 5☆

 

☆ खुशियाँ मनाए शाम

 

रात धीरे रंग चढ़े सजने लगी शाम,

थके-हारे जीव करने लगे आराम,

सपने देखें नींद में रोटी लगे महान,

स्वार्थी दिन के रंग अनेक खुशियाँ मनाए शाम।

 

सच का साथ सिर्फ मन की ही बात,

बेईमानी चाल चले घनी अँधेरी रात,

नींद गहरी हो रही मन मचता कुहराम,

स्वार्थी दिन के रंग अनेक खुशियाँ मनाए शाम।

 

नींद तो है पर नींद नहीं,

सपने है बहुत अपना कोई साथ नहीं,

किसे कोसे किसे अपनाएँ दिखता कहीं न राम,

स्वार्थी दिन के रंग अनेक खुशियाँ मनाए शाम।

 

नींद से डर लगे साँस चैन की कहाँ मिले,

अब डर का सामना करना होगा,

चाहे अँधियारा खौफ साथ चले,

नींद के होश उड़ जाए ऐसा करूँ,

उम्मीद और विश्वास से करूँगा प्रयाण,

फिर अँधेरा भी रोशनी फैलाएगा,

न होगा डर न डर का कोई पैगाम,

स्वार्थी दिन के रंग अनेक खुशियाँ मनाए शाम।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 8 ☆ इबादत ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “इबादत”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 8 

☆ इबादत  

 

एक मुट्ठी धूल सी

मेरी हैसियत;

और एक मामूली तिनके सी

मेरी हस्ती!

 

ए ख़ुदा!

इबादत है तुझसे

कि बिछ जाने दे मुझे

उस धूल ही की तरह

तेरी राहों पर,

बिना किसी मंज़िल की

तमन्ना किये!

या फिर उड़ जाने दे मुझे

उस तिनके की तरह

हवाओं के साथ,

तब तक,

जब तक ख़त्म न हो जाएँ

मेरी सारी आरज़ू!

 

राख़ हो जाने दे

मेरा गुरूर,

मिट जाने दे

मेरा अहम्,

और दूर हो जाने दे

मेरा गुमान!

 

ए ख़ुदा!

मैं आना चाहती हूँ पास तेरे

एकदम खाली-खाली सी,

किसी कोरे कागज़ की तरह!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 5 ☆ काव्य – बुंदेली गीता ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”  शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।  अब आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की पुस्तक चर्चा  “काव्य – बुंदेली गीता ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 4☆ 

 

 ☆ काव्य – बुंदेली गीता  ☆

 

पुस्तक चर्चा

काव्य – बुंदेली गीता 

लेखक –  विनोद कुमार खरे

मूल्य –  251 रु

 

☆ काव्य  – बुंदेली गीता– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

☆ बुंदेली गीता ☆

भगवत गीता के संस्कृत श्लोक, हिंदी भाषा अनुवाद सहित बुंदेली काव्य 

 

भगवत गीता विश्व ग्रंथ है ।अनेक भाषाओं में अनेक लोगों ने इसका अनुवाद किया है।  प्रोफेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव ने हिंदी काव्य अनुवाद, अंग्रेजी अर्थ सहित किया है जो संस्कृत न समझने वाले युवाओं में बहुत लोकप्रिय हो रहा है । इसी क्रम में क्षेत्रीय भाषाओं को भी समय के साथ महत्व मिलता दिखता है।

बुंदेली भाषा में विनोद कुमार खरे जी का यह अनुवाद प्राप्त हुआ । सरल सुंदर प्रस्तुति के साथ हर श्लोक का बुंदेली अनुवाद और हिंदी भावार्थ प्रस्तुत करने हेतु खरे साहब को बहुत-बहुत बधाई। निश्चित ही बुंदेली में गीता का इस तरह प्रस्तुतीकरण बुंदेलखंड के दूरदराज भीतरी क्षेत्रों में भगवत गीता के शाश्वत संदेश को पहुंचाने में महत्वपूर्ण कार्य है । बुंदेलखंड की लोक भाषा में भगवत गीता का यह प्रस्तुतीकरण प्रशंसनीय है एवं यह बुंदेली साहित्य को और समृद्धि करेगा । सोलहवें अध्याय के पहले ही श्लोक में 26 वे गन धर्म बिंदुवार बताये गए हैं जो जीवन सूत्र हैं । जैसे भगवान में समर्पित आस्था, दान, दया, सत्य, अक्रोध, क्षमा, त्याग आदि शाश्वत भाव ही भगवान की कृपा पाने के मूल तत्व हैं ।

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 16 – घड़ी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “घड़ी”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से स्वाभिमान एवं  संयम का सन्देश देने का प्रयास किया है।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 16 ☆

 

☆ घड़ी ☆

 

सरोज बहुत ही होनहार और तीव्र बुद्धि वाली लड़की थी। पिताजी किराने की दुकान पर काम करते थे। माँ सिलाई-बुनाई का काम कर घर का खर्च चलाती थी। घर में बूढ़े दादा-दादी भी थे। सरोज का एक भाई भी जो बिल्कुल इन बातों से अनजान छोटा था। खेल-कूद और पढ़ाई में सरोज बहुत ही होशियार थी।

किसी तरह पिताजी अपनी गृहस्थी चला रहे थे। पास पड़ोस में सरोज आती जाती थी। और किसी के घर का सामान लाकर दे देना, बदले में थोड़े से पैसे मिल जाते थे, जिससे स्कूल का कॉपी किताब खरीद लेती थी।

एक बार स्कूल के किसी कार्यक्रम के तहत उसे दूसरे गाँव जाना था उसमें सरोज को प्रोग्राम में हाथ की घड़ी पहननी थी। जो उसके लिए खरीद कर पहनना असंभव था क्योंकि पिताजी की कमाई से सिर्फ घर का खर्च चलता था।

सरोज मोहल्ले में एक आंटी के यहां जाती थी। उसका बहुत काम करती थी। शाम को रोटी भी बना आती थी।  उसे लगा कि शायद आंटी जी उसकी मदद कर देंगी क्योंकि उनके पास हाथ की घड़ी कई प्रकार की थी, बदल बदल कर पहनती थी।

यह सोच एक दिन पहले उनके पास गई और घड़ी मांगते हुए बोली आंटी-  “जी क्या मुझे एक दिन के लिए अपने हाथ की घड़ी देंगी? मेरे स्कूल का प्रोग्राम है।“ वह सोची मैं इनका काम करते रहती हूं तो शायद दे देंगी और मन ही मन कह रही थी मैं उनकी घड़ी को बहुत संभाल कर रखूंगी प्रोग्राम के तुरंत बाद आकर लौटा दूंगी। परंतु आंटी ने सीधे कड़क शब्दों में कहा “मैं यह घड़ी नहीं दूंगी क्योंकि रात में समय देखती हूँ।“सरोज तीव्र बुद्धि वाली थी उसको समझते देर न लगी की आंटी अपनी घड़ी नहीं देंगी। वह तुरंत ही बोली – “आंटी जी समय तो आप किसी भी घड़ी से देख सकती है। टाइम तो वह भी बताएगी।“ तुरंत ही जवाब सुनकर आंटी जी बौखला गई सोची नहीं थी कि सरोज कुछ इस प्रकार बोलेगी, और उन्हें आज समय और घड़ी की कीमत का पता चल गया।

सरोज उल्टे पाँव अपने घर लौट आई। और प्रोग्राम में नहीं गई। समय आने पर घड़ी ले लेंगे सोच कर मन में संतोष कर लिया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #16 – केशराचे गाल ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता “केशराचे गाल”।)

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 16☆

 

?  केशराचे गाल  ?

शुद्ध वाऱ्याच्या सोबती

खेळते हे रानफूल

शहराच्या  धुराड्यात

जाते कोमेजून मूल

 

लता कोवळ्या कानांची

रोज हरवते डूल

सांभाळते परंपरा

गंध देणारे हे कुल

 

अंगा-खांद्यावर पक्षी

करतात किलबिल

झाड रागावत नाही

नाही नाराजीचे बोल

 

गाव छोटसं हे माझं

घरामध्ये जुनी चूल

निखाऱ्यातली भाकर

मला वाटते हो ढाल

 

राजा सर्जाची ही जोडी

त्याची डौलदार चाल

फक्त पोळ्यालाच होते

त्यांच्या कष्टाचे हे मोल

 

किती अंब्याचा झाडाला

सूर्य लगडले गोल

काय सांगू मी महती

त्यांचे केशराचे गाल

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 13 – ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  तेरहवीं कड़ी में   उनके द्वारा  ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार ।  आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 13 ☆

 

☆ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार ☆ 

☆ रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है -आलोक पुराणिक

 

जय प्रकाश पाण्डेय  – 

किसी भ्रष्टाचारी के भ्रष्ट तरीकों को उजागर करने व्यंग्य लिखा गया, आहत करने वाले पंंच के साथ। भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचारियों ने पढ़ा पर व्यंग्य पढ़कर वे सुधरे नहीं, हां थोड़े शरमाए, सकुचाए और फिर चालू हो गए तब व्यंग्य भी पढ़ना छोड़ दिया, ऐसे में मेहनत से लिखा व्यंग्य बेकार हो गया क्या ?

आलोक पुराणिक  –

साहित्य, लेखन, कविता, व्यंग्य, शेर ये पढ़कर कोई भ्रष्टाचारी सदाचारी नहीं हो जाता। हां भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है। अगर कार्टून-व्यंग्य से भ्रष्टाचार खत्म हो रहा होता श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय आर के लक्ष्मण के दशकों के रचनाकर्म का परिणाम भ्रष्टाचार की कमी के तौर पर देखने में आना चाहिए था। परसाईजी की व्यंग्य-कथा इंसपेक्टर मातादीन चांद पर के बाद पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। रचनाकार की अपनी भूमिका है, वह उसे निभानी चाहिए। रचनाकर्म से नकारात्मक के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य को भी देखा जाना चाहिए।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

देखने में आया है कि नाई जब दाढ़ी बनाता है तो बातचीत में पंच और महापंच फेंकता चलता है पर नाई का उस्तरा बिना फिसले दाढ़ी को सफरचट्ट कर सौंदर्य ला देता है पर आज व्यंग्यकार नाई के चरित्र से सीख लेने में परहेज कर रहे हैं बनावटी पंच और नकली मसालों की खिचड़ी परस रहे हैं ऐसा क्यों हो रहा है  ?

आलोक पुराणिक –

सबके पास हजामत के अपने अंदाज हैं। आप परसाईजी को पढ़ें, तो पायेंगे कि परसाईजी को लेकर कनफ्यूजन था कि इन्हे क्या मानें, कुछ अलग ही नया रच रहे थे। पुराने जब कहते हैं कि नये व्यंग्यकार बनावटी पंचों और नकली मसालों की खिचड़ी परोस रहे हैं, तो हमेशा इस बयान के पीछे सदाशयता और ईमानदारी नहीं होती। मैं ऐसे कई वरिष्ठों को जानता हूं जो अपने झोला-उठावकों की सपाटबयानी को सहजता बताते हैं और गैर-झोला-उठावकों पर सपाटबयानी का आऱोप ठेल देते हैं। क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि कौन सी बात कह कौन रहा है।  अगर कोई नकली पंच दे रहा है और फिर भी उसे लगातार छपने का मौका मिल रहा है, तो फिर मानिये कि पाठक ही बेवकूफ है। पाठक का स्तर उन्नत कीजिये। बनावटी पंच, नकली मसाले बहुत सब्जेक्टिव सी बातें है। बेहतर यह होना चाहिए कि जिस व्यंग्य को मैं खराब बताऊं, उस विषय़ पर मैं अपना काम पेश करुं और फिर ये दावा ना  ठेलूं कि अगर आपको समझ नहीं आ रहा है, तो आपको सरोकार समझ नहीं आते। लेखन की असमर्थता को सरोकार के आवरण में ना छिपाया जाये, जैसे नपुंसक दावा करे कि उसने तो परिवार नियोजन को अपना लिया है। ठीक है परिवार नियोजन बहुत अच्छी बात है, पर असमर्थताओं को लफ्फाजी के कवच दिये जाते हैं, तो पाठक उसे पहचान लेते हैं। फिर पाठकों को गरियाइए कि वो तो बहुत ही घटिया हो गया। यह सिलसिला  अंतहीन है। पाठक अपना लक्ष्य तलाश लेता है और वह ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरों में फर्क कर लेता है। वह सैकड़ों उपन्यासों की भीड़ में राग दरबारी को वह स्थान दे देता है, जिसका हकदार राग दरबारी होता है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

लोग कहने लगे हैं कि आज के माहौल में पुरस्कार और सम्मान “सब धान बाईस पसेरी” बन से गए हैं, संकलन की संख्या हवा हवाई हो रही है ऐसे में किसी व्यंग्य के सशक्त पात्र को कभी-कभी पुरस्कार दिया जाना चाहिये, ऐसा आप मानते हैं हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है। कि इतने संकलन पर इतनी सीनियरटी मान ली जायेगी। आपको यहां ऐसे मिलेंगे जो अपने लगातार खारिज होते जाने को, अपनी अपठनीयता को अपनी निधि मानते हैं। उनकी बातों का आशय़ होता कि ज्यादा पढ़ा जाना कोई क्राइटेरिया नहीं है। इस हिसाब से तो अग्रवाल स्वीट्स का हलवाई सबसे बड़ा व्यंग्यकार है जिसके व्यंग्य का कोई  भी पाठक नहीं है। कई लेखक कुछ इस तरह की बात करते हैं , इसी तरह से लिखा गया व्यंग्य, उनके हिसाब से ही लिखा गया व्यंग्य व्यंग्य है, बाकी सब कूड़ा है। ऐसा मानने का हक भी है सबको बस किसी और से ऐसा मनवाने के लिए तुल जाना सिर्फ बेवकूफी ही है। पुरस्कार किसे दिया जाये किसे नहीं, यह पुरस्कार देनेवाले तय करेंगे। किसी पुरस्कार से विरोध हो, तो खुद खड़ा कर लें कोई पुरस्कार और अपने हिसाब के व्यंग्यकार को दे दें। यह सारी बहस बहुत ही सब्जेक्टिव और अर्थहीन है एक हद।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

आप खुशमिजाज हैं, इस कारण व्यंग्य लिखते हैं या भावुक होने के कारण ?

आलोक पुराणिक –

व्यंग्यकार या कोई भी रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है। बिना भावुक हुए रचनात्मकता नहीं आती। खुशमिजाजी व्यंग्य से नहीं आती, वह दूसरी वजहों से आती है। खुशमिजाजी से पैदा हुआ हास्य व्यंग्य में इस्तेमाल हो जाये, वह अलग बात है। व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी। हास्य मिश्रित व्यंग्य को ज्यादा स्पेस मिल जाता है।

जय प्रकाश पाण्डेय –

वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में आ रहे शब्दों की जादूगरी से ऐसा लगता है कि शब्दों पर संकट उत्पन्न हो गया है ऐसा कुछ आप भी महसूस करते हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

शब्दों पर संकट हमेशा से है और कभी नहीं है। तीस सालों से मैं यह बहस देख रहा हूं कि संकट है, शब्दों पर संकट है। कोई संकट नहीं है, अभिव्यक्ति के ज्यादा माध्यम हैं। ज्यादा तरीकों से अपनी बात कही जा सकती है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

हजारों व्यंग्य लिखने से भ्रष्ट नौकरशाही, नेता, दलाल, मंत्री पर कोई असर नहीं पड़ता। फेसबुक में इन दिनों “व्यंग्य की जुगलबंदी” ने तहलका मचा रखा है इस में आ रही रचनाओं से पाठकों की संख्या में ईजाफा हो रहा है ऐसा आप भी महसूस करते हैं क्या?

अनूप शुक्ल ने व्यंग्य की जुगलबंदी के जरिये बढ़िया प्रयोग किये हैं। एक ही विषय पर तरह-तरह की वैरायटी वाले लेख मिल रहे हैं। एक तरह से सीखने के मौके मिल रहे हैं। एक ही विषय पर सीनियर कैसे लिखते हैं, जूनियर कैसे लिखते हैं, सब सामने रख दिया जाता है। बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी। इसका असर खास तौर पर उन लेखों की शक्ल में देखा जा सकता है, जो एकदम नये लेखकों-लेखिकाओं ने लिखे हैं और चौंकानेवाली रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है उन लेखों में। यह नवाचार  इंटरनेट के युग में आसान हो गया।

हम प्राचीन काल की अपेक्षा आज नारदजी से अधिक चतुर, ज्ञानवान, विवेकवान और साधनसम्पन्न हो गए हैं फिर भी अधिकांश व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में नारदजी को ले आते हैं इसके पीछे क्या राजनीति है ?

आलोक पुराणिक –

नारदजी उतना नहीं आ रहे इन दिनों। नारदजी का खास स्थान भारतीय मानस में, तो उनसे जोड़कर कुछ पेश करना और पाठक तक पहुंचना आसान हो जाता है। पर अब नये पाठकों को नारद के संदर्भो का अता-पता भी नहीं है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

व्यंग्य विधा के संवर्धन एवं सृजन में फेसबुकिया व्यंगकारों की भविष्य में सार्थक भूमिका हो सकती है क्या ?

आलोक पुराणिक –

फेसबुक या असली  की बुक, काम में दम होगा, तो पहुंचेगा आगे। फेसबुक से कई रचनाकार मुख्य धारा में गये हैं। मंच है यह सबको सहज उपलब्ध। मठाधीशों के झोले उठाये बगैर आप काम पेश करें और फिर उस काम को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है। फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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