हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – चुप्पियाँ – 4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  पुनर्पाठ – चुप्पियाँ-4

जो मैंने कहा नहीं,जो मैंने लिखा नहीं,

उसकी समीक्षाएँ

पढ़कर तुष्ट हूँ,

अपनी चुप्पी

बहुमुखी क्षमता पर

मंत्रमुग्ध हूँ…!

# घर में रहें। स्वस्थ रहें।
©  संजय भारद्वाज, पुणे

(1.9.18 रात्रि 11:37 बजे )

( कविता संग्रह *चुप्पियाँ* से।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 3 – नज़ीर हुसैन ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के चरित्र अभिनेता : नज़ीर हुसैन पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 3☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के चरित्र अभिनेता : नज़ीर हुसैन ☆ 

नज़ीर हुसैन भारतीय फ़िल्म उद्योग के एक नामी चरित्र अभिनेता, निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक थे, जिन्होंने 500 से अधिक हिंदी फ़िल्मों में काम किया था। उनका जन्म 15 मई 1922 को ब्रिटिश इंडिया के संयुक्त प्रांत में स्थित ग़ाज़ीपुर ज़िले के उसिया गाँव में एक रेल्वे ड्राइवर शाहबजद ख़ान के घर हुआ था। वे भोजपुरी फ़िल्मों के पितामह माने जाते हैं।

उनका लालन पालन लखनऊ में हुआ था, उन्होंने कुछ समय रेल्वे में फ़ायरमेन की नौकरी भी की थी फिर ब्रिटिश आर्मी में भर्ती होकर दूसरे विश्वयुद्ध में हिस्सा लेने सिंगापुर और मलेशिया में पदस्थ रहे जहाँ उन्हें जापानी फ़ौज ने बतौर युद्धबंदी गिरफ़्तारी में रखा था। वे सुभाष चंद्र बोस के प्रभाव से आज़ाद होकर इंडीयन नेशनल आर्मी में भर्ती  होकर रंगून होते हुए कलकत्ता पहुँच गए। कलकत्ता में स्वतंत्रता संग्राम के सक्रिय कार्यकर्ता होने से उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्जा हासिल हुआ था।

आज़ादी के उपरांत उन्हें बी एन सरकार के न्यू थिएटर में नौकरी मिल गई। उन्होंने विमल रॉय के सहायक के तौर पर काम करते हुए इंडीयन नेशनल आर्मी के अनुभवों से प्रेरित “पहला आदमी” फ़िल्म की न सिर्फ़ पटकथा लिखी अपितु उसमें काम भी किया। फ़िल्म के 1950 में प्रदर्शन के साथ ही नज़ीर हुसैन पर कामयाब कलाकार का ठप्पा लग गया और वे विमल रॉय की सभी फ़िल्मों के हिस्से बने।

दो बीघा ज़मीन, देवदास और नयादौर के बाद वे मुनीम जी फ़िल्म से देवानंद और एस डी बर्मन की टीम के हिस्से बन कर पेइंग गेस्ट से लेकर देवानंद की सभी फ़िल्मों में भूमिकाएँ अदा कीं। उन्होंने दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद और राजेंद्र कुमार से लेकर राजेश खन्ना तक सभी नायकों के साथ काम किया।

राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने नज़ीर हुसैन को बुलाकर भोजपुरी भाषा में फ़िल्म बनाने की सम्भावना तलाशने को कहा। उन्होंने “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ईवो” “हमार संसार” और “बलम परदेशिया” नामक फ़िल्मों का निर्माण करके भोजपुरी फ़िल्मों की शुरुआत की, वे भोजपुरी फ़िल्मों के पितामह कहे जाते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 42 – मंत्र ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “मंत्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 42 ☆

☆ मंत्र 

मन’ का अर्थ है मस्तिष्क का वह भाग जो सबसे ज्यादा तेजी से बदलता है और किसी भी एक बिंदु पर स्थिर नहीं रह सकता है और ‘त्र’ का अर्थ है स्थिर, तो मंत्र का अर्थ है मस्तिष्क के बदलने वाले विचारों को एक बिंदु पर स्थिर करना और मस्तिष्क को निर्देशित करके भगवान तक पहुँचना । मंत्र ब्रह्माण्डीय ध्वनियां हैं, जो अस्तित्व या भगवान के स्रोत की खोज में ऋषियों द्वारा ध्यान की उच्च अवस्थाओं में खोजे गए थे । आम तौर पर, ध्यान में शारीरिक स्तर से आगे जाना मुश्किल होता है, लेकिन ध्यान केंद्रित करने के निरंतर प्रयास के साथ, कोई भी मानसिक और बौद्धिक स्तर तक जा सकता है । किन्तु बहुत कम ऋषि अनंत या शाश्वत ध्वनि की आवाज़ सुनने में सक्षम होते हैं जो कि मस्तिष्क और बौद्धिक स्तर से भी परे है । ध्यान की स्थिति में, योगियों ने अनुभव किया कि शरीर के चक्र एक विशेष ध्वनि के जप पर उत्तेजित होते हैं । जब किसी विशेष आवृत्ति की आवाज को श्रव्य या मानसिक रूप से दोहराया जाता है तो कंपन की तरंगें ऊपर जाकर मानसिक केंद्र या चक्रों को सक्रिय करती हैं । इसलिए, योगियों ने चेतना की एक विशेष स्थिति बनाने के लिए उन प्राकृतिक ध्वनियों में कुछ ध्वनियों को जोड़ दिया ।

मंत्र चेतना के विभिन्न क्षेत्रों को जगाने और चेतना के किसी विशेष क्षेत्र में ज्ञान और रचनात्मकता विकसित करने के लिए उपकरण हैं । प्रत्येक मंत्र में दो महत्वपूर्ण गुण होते हैं, वर्ण और अक्षर । वर्ण का अर्थ है ‘रंग’ और अक्षर का अर्थ है ‘पत्र’ या ‘रूप’ । एक बार जब मंत्र कहा जाता है तो यह शाश्वत आकाशिक अभिलेख का भाग बन जाता है, या हम कह सकते हैं कि यह ब्रह्मांड के महा या सुपर कारण शरीर में संग्रहीत हो जाते हैं । प्रत्येक मंत्र में छह भाग होते हैं :

पहला ‘ऋषि’ है, जिसने उस विशिष्ट मंत्र के माध्यम से आत्म-प्राप्ति प्राप्त की, और मंत्र को अन्य लोगों को दिया । गायत्री मंत्र के ऋषि विश्वामित्र हैं ।

दूसरा ‘छंद’ (पैमाना), मंत्र में उपयोग की जाने वाली शर्तों की संरचना है ।

मंत्र का तीसरा भाग ‘इष्ट देवता’ है ।

चौथा भाग ‘बीज’ है जो मंत्र का सार होता है ।

पाँचवां भाग उस मंत्र की अपनी ‘शक्ति’ या ऊर्जा होता है ।

और छठा भाग ‘किलका’ या ‘कील’ है, जो मंत्रों में छिपी चेतना को खोलता है ।

आशीष क्या आप गायत्री मंत्र की महानता जानते हो ?

गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं और वाल्मीकि रामायण में 24,000 श्लोक हैं । रामायण के प्रत्येक 1000 वे श्लोक का पहला अक्षर गायत्री मंत्र बनाता है, जो इस सम्मानित मंत्र को महाकाव्य का सार बना देता है । इसके अतरिक्त इस मंत्र में 24 अक्षर हैं । इस दुनिया में चलने योग्य और अचल वस्तुओं की 19 श्रेणियाँ हैं और यदि 5 तत्व जोड़े जाये तो संख्या 24 प्राप्त हो जाती है । राक्षस ‘त्रिपुरा’ दहन के समय, भगवान शिव ने इस गायत्री मंत्र को अपने रथ के शीर्ष पर एक धागे के रूप में लटका दिया था ।

त्रिपुरा कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने त्रिपुरा राक्षस का वध किया था । त्रिपुरा राक्षस ने एक लाख वर्ष तक तीर्थराज प्रयाग में भारी तपस्या की । स्वर्ग के राजा इंद्र सहित सभी देवता भयभीत हो उठे । तप भंग करने के लिए अप्सराओं को भेजा गया । अप्सराओं ने सभी प्रयत्न किए तप भंग करने के, पर त्रिपुरा उनके जाल में नहीं फंसा । उसके आत्मसंयम से प्रसन्न होकर ब्रह्म जी प्रगट हुए और उससे वरदान माँगने को कहा । उसने मनुष्य और देवता के हाथों न मारे जाने का वरदान प्राप्त किया । एक बार देवताओं ने षडयंत्र कर उसे कैलाश पर्वत पर विराजमान शिवजी के साथ युद्ध में लगा दिया । दोनों में भयंकर युद्ध हुआ । अंत में शिवजी ने ब्रह्माजी और विष्णुजी की सहायता से त्रिपुरा का वध किया । कार्तिक स्नान सर्दी के मौसम के लिए अपने शरीर को आध्यात्मिक रूप से तैयार करने के लिए ही होता है (जिसमें सूर्योदय से पूर्व स्नान करने का विधान है), आज ही के दिन समाप्त होता है ।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 34 – श्रीसमर्थांचे मनाचे श्लोक ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी स्वामी श्री समर्थ रामदास जी को समर्पित रचना   “श्रीसमर्थांचे मनाचे श्लोक”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 34 ☆

☆ श्रीसमर्थांचे मनाचे श्लोक ☆ 

(काव्यरचना:-अष्टाक्षरी छंद )

श्री समर्थ रामदास

चाफळक्षेत्री निवास

तेथे नित्य लाभतसे

श्रीरामाचा सहवास !!१!!

 

समर्थांनी लिहिलेला

सर्व वाङ्मय सागर

दासबोध सर्वश्रुत

वेद शास्त्रांचा आधार !!२!!

 

वाङ्मय सागरातील

श्र्लोक मनाचे सुंदर

समर्थांनी केले होते

जन्मोत्सवाला सादर !!३!!

 

श्रीक्षेत्र चाफळ येथे

मध्यरात्री कल्याणास

सांगितले समर्थांनी

त्वरे लिहून घेण्यास !!४!!

 

प्रती करुनिया त्यांच्या

केल्या वाटप शिष्यांना

जाऊनीया घरोघरी

म्हणा मोठ्याने तयांना!!५!!

 

खणखणीत आवाज

ऐकुनिया बाया येती

धान्य भिक्षा घेऊनिया

सुपासुपाने वाढती !!६!!

 

प्रभावाने भारलेले

श्र्लोक मनाचे ऐकुनी

मरगळलेले जन

उभे राहिले ऊठुनी !!७!!

 

शक्ती संचार तयांना

झाला समर्थ कृपेने

झुंजावयाला शत्रूसी

धावू लागले त्वरेने !!८!!

 

मारुतीच्या मंदीरात

खणखणीत आवाज

येई मनाच्या श्लोकांचा

रोज होता तिन्हीसांज !!९!!

 

श्र्लोक दोनशें पाच तें

केली रचना तयांची

जो ईश सर्व गुणांचा

केली सुरुवात सांची !!१०!!

 

जयजय रघुवीर

असा घोष तो करुनी

सांगितले भिक्षा मागा

असे समर्थे करुनी !!११!!

 

!!जयजय रघुवीर समर्थ!!

©️®️उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक:-८-५-२०

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 45 ☆ सुकून की तलाश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  जीवन में सत्य की महत्ता को उजागर करता एकआलेख सुक़ून की तलाश।  यह सत्य है कि मनुष्य सारे जीवन सुकून की तलाश में दौड़ता रहता है और सारा जीवन इसी दौड़ में निकल जाता है।  जीवन में कई बाते हम अनुभव से सीखते हैं और जब हमें अनुभव होता है तो समय निकल चुका होता है।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 45 ☆

☆ सुक़ून की तलाश

‘चौराहे पर खड़ी ज़िंदगी/ नज़रें दौड़ाती है / कोई बोर्ड दिख जाए /जिस पर लिखा हो /सुक़ून… किलोमीटर।’ इंसान आजीवन दौड़ता रहता है ज़िंदगी में… सुक़ून की तलाश में, इधर-उधर भटकता रहता है और एक दिन खाली हाथ इस जहान से रुख़्सत हो जाता है। वास्तव में मानव की सोच ही ग़लत है और सोच ही जीने की दिशा निर्धारित करती है। ग़लत सोच, ग़लत राह, परिणाम- शून्य अर्थात् कभी न खत्म होने वाला सफ़र है, जिसकी मंज़िल नहीं है। वास्तव में मानव की दशा उस हिरण के समान है, जो कस्तूरी की गंध पाने के निमित्त, वन-वन की खाक़ छानता रहता है, जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित होती है। उसी प्रकार बाबरा मनुष्य सृष्टि-नियंता को पाने के लिए पूरे संसार में चक्कर लगाता रहता है, जबकि वह उसके अंतर्मन में बसता है…और माया के कारण वह मन के भीतर नहीं झांकता। सो! वह आजीवन हैरान- परेशान रहता है और लख चौरासी अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। कबीरजी का दोहा ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन मांहि/ /ऐसे घटि-घटि राम हैं/ दुनिया देखे नांही ‘ सांसारिक मानव पर ख़रा उतरता है। अक्सर हम किसी वस्तु को संभाल कर रख देने के पश्चात् भूल जाते हैं कि वह कहां रखी है और उसकी तलाश इधर-उधर करते रहते हैं, जबकि वह हमारे आसपास ही रखी होती है। इसी प्रकार मानव भी सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है, जबकि वह तो उसके भीतर निवास करता है। जब हमारा मन व चित्त एकाग्र हो जाता है; उस स्थिति में परमात्मा से हमारा तादात्म्य हो जाता है और हमें असीम शक्ति व शांति का अनुभव होता है। सारे दु:ख, चिंताएं व तनाव मिट जाते हैं और हम अलौकिक आनंद में विचरण करने लगते हैं… जहां ‘मैं और तुम’ का भाव शेष नहीं रहता और सुख-दु:ख समान प्रतीत होने लगते हैं। हम स्व-पर के बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं। यही है आत्मानंद अथवा हृदय का सुक़ून; जहां सभी नकारात्मक भावों का शमन हो जाता है और क्रोध व ईर्ष्या-भाव जाने कहां लुप्त जाते हैं।

हां ! इसके लिए आवश्यकता है…आत्मकेंद्रितता, आत्मचिंतन व आत्मावलोकन की…अर्थात् सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, उसे निरपेक्ष भाव से देखने की। परंतु जब हम अपने अंतर्मन में झांकते हैं, तो हमें अच्छे-बुरे व शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है और हम दुष्प्रवृत्तियों व नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करते हैं। उस स्थिति में न हम दु:ख से विचलित होते हैं; न ही सुख की स्थिति में फूलते हैं; अपितु राग-द्वेष से भी कोसों दूर रहते हैं। यह है अनहद नाद की स्थिति…जब हमारे कानों में केवल ‘ओंम’ अथवा ‘तू ही तू’ का अलौकिक स्वर सुनाई पड़ता है अर्थात् ब्रह्म ही सर्वस्व है… वह सत्य है, शिव है, सुंदर है और सबसे बड़ा हितैषी है। उस स्थिति में हम निष्काम कर्म करते हैं…निरपेक्ष भाव से जीते हैं और दु:ख, चिंता व अवसाद से मुक्त रहते हैं। यही है हृदय की मुक्तावस्था… जब अंतर्मन की भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं… मन और चित्त स्थिर हो जाता है …उस स्थिति में हमें सुक़ून की तलाश में बाहर घूमना नहीं पड़ता। उस मनोदशा को प्राप्त करने के लिए हमें किसी भी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आप स्वयं ही अपने सबसे बड़े संसाधन हैं। इसके लिए आपको केवल यह जानने की दरक़ार रहती है कि आप एकाग्रता से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं या व्यर्थ की बातों अर्थात् समस्याओं में उलझे रहते हैं। सो! आपको अपनी क्षमता व योग्यताओं को बढ़ाने की अत्यंत आवश्यकता होगी अर्थात् अधिकाधिक समय चिंतन- मनन में लगाना होगा और सृष्टि-नियंता के ध्यान में चित्त एकाग्र करना होगा। यही है… आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग।

यदि आप एकाग्र होकर शांत भाव से चिंतन-मनन नहीं कर सकते हैं, तो आपको अपनी वृत्तियों को बदलना होगा। यदि आप एकाग्र-चित्त होकर, शांत भाव से परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य भी नहीं जुटा पाते, तो उस स्थिति में आपके लिए मन:स्थिति को बदलना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आप दुनिया के लोगों की सोच नहीं बदल सकते, तो आपके लिए अपनी सोच को बदल लेना ही उचित, सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा। राह में बिखरे कांटों को चुनने की अपेक्षा जूता पहन लेना आसान व सुविधाजनक होता है। जब आप यह समझ लेते हैं, तो विषम परिस्थितियों में भी आपकी सोच सकारात्मक हो जाती है तथा आपको पथ-विचलित नहीं होने देती। सो ! जीवन से नकारात्मकता को निकाल बाहर फेंकने के पश्चात् पूरा संसार सत्यम् शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित दिखायी पड़ता है।

सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहिए, क्योंकि बुरी संगति के लोगों के साथ रहने से बेहतर है… एकांत में रहना। ज्ञानी, संतजन व सकारात्मक सोच के लोगों के लिए एकांत स्वर्ग तथा मूर्खों के लिए क़ैदखाना है। अज्ञानी व मूर्ख लोग आत्मकेंद्रित व कूपमंडूक होते हैं तथा अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं। ऐसे अहंनिष्ठ लोग पद-प्रतिष्ठा देखकर, ‘हैलो-हाय’ करने व संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमें ऐसे लोगों को कोटि शत्रुओं सम त्याग देना चाहिए…तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।

मानव अपने अंतर्मन में असंख्य अद्भुत शक्तियां समेटे है। परमात्मा ने हमें देखने, सुनने, सूंघने, स्पर्श, स्वाद, हंसने, प्रेम करने व महसूसने आदि की शक्तियां  प्रदान की हैं। इसलिए मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकारा गया है। सो! हमें इनका उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए… सदुपयोग अथवा आवश्यकतानुसार नि:स्वार्थ भाव से उनका प्रयोग करना चाहिए। यह हमें परिग्रह अथवा संग्रह- दोष से मुक्त रखता है, क्योंकि हमारे शब्द व मधुर वाणी, हमें पल भर में सबका प्रिय बना सकती है और शत्रु भी। इसलिए सोच-समझकर मधुर व कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग कीजिए,  क्योंकि शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। सो! हमें दूसरों के दु:ख की अनुभूति कर, उनके प्रति करुणा-भाव दर्शाना चाहिए। समय सबसे अनमोल धन है, उससे बढ़कर तोहफ़ा दुनिया में हो ही नहीं सकता… जो आप किसी को दे सकते हैं। धन-संपदा देने से अच्छा है कि आप उसके दु:ख को अनुभव कर, उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें तथा सबके प्रति स्नेह-सौहार्द भाव बनाए रखें।

स्वयं को पढ़ना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है… प्रयास अवश्य कीजिए। यह शांत मन से ही संभव है। खामोशियां बहुत कुछ कहती हैं। कान लगाकर सुनिए, क्योंकि भाषाओं का अनुवाद तो हो सकता है, भावनाओं का नहीं…हमें इन्हें समझना, सहेजना व संभालना होता है। मौन हमारी सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम भाषा है, जिसका लाभ दोनों पक्षों को होता है। यदि हमें स्वयं को समझना है, तो हमें खामोशियों को पढ़ना व सीखना होगा। शब्द खामोशी की भाषा का अनुवाद तो नहीं कर सकते। सो! आपको खामोशी के कारणों की तह तक जाना होगा। वैसे भी मानव को यही सीख दी जाती है कि ‘जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों, तभी मुंह खोलना चाहिए।’  मानव की खामोशी अथवा एकांत में ही हमारे शास्त्रों की रचना हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि अंतर्मुखी व्यक्ति जब बोलता है, तो उसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है… क्योंकि उसकी वाणी सार्थक होती है। परंतु जो व्यक्ति अधिक बोलता है, व्यर्थ की हांकता है तथा आत्म-प्रशंसा करता है… उसकी वाणी अथवा वचनों की ओर कोई ध्यान नहीं देता…उसकी न घर में अहमियत होती है, न ही बाहर के लोग उसकी ओर तवज्जो देते हैं। इसलिए अवसरानुकूल, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की दरक़ार है, क्योंकि जब आप सोच-समझ कर बोलेंगे, तो आपके शब्दों का अर्थ व सार्थकता अवश्य होगी। लोग आपकी महत्ता को स्वीकारेंगे, सराहना करेंगे और आपको चौराहे पर खड़े होकर सुक़ून की तलाश …कि• मी• के बोर्ड की तलाश नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि आप स्वयं तो सुक़ून से रहेंगे ही; आपके सानिध्य में रहने वालों को भी सुक़ून की प्राप्ति होगी।

वैसे भी क़ुदरत ने तो हमें केवल आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारे मस्तिष्क की उपज है। हम जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर,  प्रकृति से खिलवाड़ व उसका अतिरिक्त दोहन कर, स्वार्थांध होकर दु:खों को अपना जीवन-साथी बना लेते हैं और अपशब्दों व कटु वाणी द्वारा उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। हम जिस सुख व शांति की तलाश संसार में करते हैं, वह तो हमारे अंतर्मन में व्याप्त है। हम मरुस्थल में मृग-तृष्णाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते, हिरण की भांति अपने प्राण तक गंवा देते हैं और अंत में हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी हो जाती है। हम दूसरों के अस्तित्व को नकारते हुए, संसार में उपहास का पात्र बन जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव दूसरों पर ही नहीं, हम पर ही पड़ता है। सो! संस्कृति को, संस्कारों की जननी स्वीकार, जीवन-मूल्यों को अपनाइए, क्योंकि लोग तो दूसरों की उन्नति करते देख, उनकी टांग खींच कर, नीचा दिखाने में ही विश्वास रखते हैं। उनकी ज़िंदगी में तो सुक़ून होता ही नहीं और वे दूसरों को भी सुक़ून से नहीं जीने देते हैं। अंत में, मैं महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया ‘खुशी चाहिए।’ उनका उत्तर था पहले ‘मैं’ का त्याग करो, क्योंकि इसमें ‘अहं’ है। फिर ‘चाहना’ अर्थात् ‘चाहता हूं’ को हटा दो, यह ‘डिज़ायर’ है, इच्छा है। उसके पश्चात् शेष बचती है, ‘खुशी’…वह  तुम्हें मिल जाएगी। अहं का त्याग व इच्छाओं पर अंकुश लगाकर ही मानव खुशी को प्राप्त कर सकता है, जो क्षणिक सुख ही प्रदान नहीं करती, बल्कि शाश्वत सुखों की जननी है। हां! एक अन्य तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि इच्छा से परिवर्तन नहीं होता; निर्णय से कुछ होता है तथा निश्चय से सब कुछ बदल जाता है। अंतत: मानव अपनी मनचाही मंज़िल अथवा मुक़ाम पर पहुंच जाता है। इसलिए दृढ़-निश्चय व आत्मविश्वास को संजोकर रखिए; अहं का त्याग कर मन पर अंकुश लगाइए; सबसे स्नेह व सौहार्द रखिए तथा मौन के महत्व को समझते हुए समय व स्थान का ध्यान रखते हुए अवसरानुकूल सार्थक वाणी बोलिए अर्थात् आप तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों…क्योंकि यही है–सुक़ून पाने का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम मार्ग, जिसकी तलाश में मानव युग-युगांतर से भटक रहा है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 45 ☆ व्यवहार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आज के सामाजिक परिवेश में जीवन के कटु सत्य को उजागर करती एक लघुकथा  “व्यवहार। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 45 – साहित्य निकुंज ☆

☆ व्यवहार ☆

मंजू कॉलेज और घर का सब काम करते हुए साथ में सास की सेवा भी तल्लीनता से कर रही थी पतिदेव भी प्रोफेसर है। पता नहीं क्यों वह मंजू में इंटरेस्ट नहीं लेते हैं।

 मंजू ने एक दिन पूछ लिया..” क्या बात है आखिर हमारे दो-दो बच्चे हो गए हैं सब की शादी हो गई है। अब बुढ़ापा हम दोनों का ही साथ में कटेगा आपको क्या हो गया है। आप हमसे बात क्यों नहीं करते।”

पतिदेव ने कहा..” देखो हमें पता है तुम्हारा मन मुझमें नहीं लगता तुम्हारा मन बाहर लगता है। इसलिए अब हमें  तुमसे कोई संबंध नहीं रखना।”

मंजू ने कहा ..”यह आपसे किसने कहा।”

“माताजी बता रही थी कि उन्होंने तुमको बात करते सुना है…।”

मंजू ने कहा.. “कॉलेज के लोगों से तो 10 तरह की बातें होती हैं अब उन्होंने क्या समझ लिया यह तो वही जाने।”

मंजू की आंखों में आंसू छलक पड़े कि जिस सास  के दुर्व्यवहार के बावजूद भी इतने बरसों से उसकी सेवा कर रही है।आज वही अंतिम समय में अपनी बहू को घर से निकालने पर तुली हुई है याने उसके व्यवहार में आज भी कोई परिवर्तन नहीं आया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 36 ☆ माटी से नाता रखें …… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  की एक समसामयिक कविता  “माटी से नाता रखें ……”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 36 ☆

☆ माटी से नाता रखें ..... ☆

माटी की इस देह का, करते क्यों अभिमान

माटी में ही जा मिले, माटी की संतान

 

माटी से ही उपजते, हीरा मोती,लोह

सोना,चांदी जवाहर, रख माटी से मोह

 

रखी साथ वन गमन में , जन्म भूमि की धूल

सिखलाया प्रभु राम ने, कभी न भूलें मूल

 

पावन माटी देश की, जिस पर हों कुर्बान

माटी के सम्मान का, रखें हमेशा ध्यान

 

माटी में ही खेल कर, गाए मन के गीत

माटी चन्दन माथ का, रख माटी से प्रीत

 

माटी में ही मिल गए, क्या राजा क्या रंक

माटी की पहचान कर, माटी माँ का अंक

 

माटी की खातिर हुए, कितने वीर शहीद

माटी की पहिचान को, सकता कौन खरीद

 

होना सबका एक दिन, माटी में ही अंत

पहुचाती सबको वहाँ, जहाँ अनंतानंत

 

जीवन में गर चाहिए, सुख समृद्धि “संतोष”

माटी से नाता रखें,  माटी जीवन कोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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मराठी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – बुद्ध पूर्णिमा विशेष – संबोधी तत्व ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

बुद्ध पूर्णिमा विशेष

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  बुद्ध पूर्णिमा के पर्व पर विशेष कविता  “संबोधी तत्व )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ बुद्ध पूर्णिमा विशेष – संबोधी तत्व ☆

शुद्ध वैशाख पौर्णिमा

गौतमास ज्ञान प्राप्ती.

भवदुःखे हरण्याला

पंचशील ध्येय व्याप्ती. . . !

 

शोधियले दुःख मूळ

बौद्ध धर्म स्थापियला

समानता, मानवता

करूणेत  साकारला. . . . !

 

जग रहाटी जाणता

लोभ, तृष्णा, आकलन

मुळ शोधूनी दुःखाचे

केले त्याचे निर्दालन . . . !

 

जन्म मृत्यू  समुत्पाद

सांगितले सारामृत.

वैरभाव विसरोनी

दिले जगा बोधामृत.. . !

 

बुद्ध करूणा सागर

बुद्ध  असे  भूतदया.

सा-या नैतिक तत्वांची

अंतरात बुद्धगया . . . !

 

बोधीवृक्ष संबोधीने

आर्य सत्य साक्षात्कार .

असामान्य गुणवत्ता

ध्यान मार्गी चमत्कार. . . . !

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 29 ☆ लघुकथा – एक सवाल मजदूर का ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “एक सवाल मजदूर का”। मजदूर का ही नहीं हम सब का भी एक सवाल है कि जिन  मजदूरों को गाड़ियों में भर भर कर जैसे भी भेजा है उनमें से कितने वापिस आएंगे ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 29 ☆

☆ लघुकथा – एक सवाल मजदूर का

 

बाबा मजदूर क्या होता है?

मजदूर बहुत मेहनतकश इंसान होता है बेटवा!

अच्छा! मजदूर  काम क्या करता है?

बडी-  बडी इमारतें बनाता है, पुल बनाता है, मेहनत – मजूरी के जितने काम होते हैं सब करत है वह.

और वह रहता कहाँ है?

ऐसी ही झोपडिया में, जैसे हम रहत हैं, हम मजदूर ही तो हैं .

बाबा तुमने भी शहरों में बडी- बडी बिल्डिंग बनाई हैं?

हाँ, अरे पूरे देश में घूमे हैं काम खातिर. जहाँ सेठ ले गए, चले गए मुंबई,कलकत्ता बहुत जगह.

तो तुमने अपने लिए बडा – सा घर क्यों नहीं बनाया बाबा,  कित्ती छोटी झोपडी है हमार, शुरु हुई कि खत्म  – बेटा मासूमियत से पर थोडी नाराजगी के साथ बोला.

गंगू के पास मानों शब्द ही नहीं थे, कैसे समझाता बेटे को कि मजदूर दूसरों के घर बनाता है लेकिन उसके पैरों तले जमीन नहीं होती. टी.वी.पर आती मजदूरों के दर- ब- दर भटकने की दर्दनाक खबरें उसका कलेजा छलनी कर रहीं थीं. कोरोना से जुडे अनेक सवालों पर चर्चाएं चल रही थी पर गंगू के मन में तो एक ही सवाल चल रहा था –  मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम नहीं चलता लेकिन कोई भी उन्हें एक टुकडा जमीन और दो रोटी चैन से खाने को क्यों नहीं देता?

मजदूर यह सवाल कभी पूछ सकता है  क्या?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 17 ☆ दो गज दूरी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय समसामयिक रचना “दो गज दूरी।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 17 ☆

☆ दो गज दूरी

एक तो रिश्तों में वैसे ही दूरियाँ बढ़ रहीं थीं  दूसरा ये भी ऐलान कर दिया कि दो गज दूरी बहुत जरूरी ।  आजकल सभी विशेषकर युवा पर्सनल स्पेस को ज्यादा महत्व देते हैं इसलिए  ऑन लाइन रिश्तों का चलन बढ़ गया है । इसकी सबसे बड़ी खूबी ;  इसमें नखरे कम झेलने पड़ते हैं । जब तक मन मिले तब तक फ्रेंड बनाओ अन्यथा अनफ्रेंड करो । ऐसा फ्रेंड किस काम का जो आपकी पोस्ट को बिना पढ़े लाइक न करता हो ।

दोस्ती होती ही तभी है;  जब आप एक दूसरे को लाइक करते हो । कहते हैं  न, सूरज अपने साथ  एक नया दिन लेकर आता है , तो ऐसे ही एक दिन सुबह – सुबह सात समंदर  पार से  कोरोना जी  भी आ धमके । जब कोई आता है तो पूरे घर की दिनचर्या बदल जाती है ; खासकर मध्यमवर्गीय परिवार की क्योंकि वे लोग दिखावे की दौड़ में खुद को शामिल कर लेते हैं । ऐसे समय में हम लोग अच्छा – अच्छा बना कर खाते और खिलाते हैं । ऐसा ही कुछ इस समय भी हो रहा है । दिन भर रामायण व महाभारत के पात्रों की चर्चा व चिंतन अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों की जीवन शैली में शामिल हो कर महक- चहक रहा है । अपनी संस्कृति से  जुड़े होने की घोषणा हम तभी करते हैं जब मेहमान घर पर हो, तो बस ये अवसर आया विदेशी मेहमान हमारे साथ – साथ रहने की इच्छा लिए आ धमका और हम देखते ही रह गए ;  क्या करते । इसकी नियत पर शक तो शुरू से ही था ,  जो दिनों दिन पुख्ता भी होता जा रहा है  पर हम तो अतिथि देवो भव की परंपरा के पोषक हैं तो स्वागत सत्कार कर रहे हैं ।

इक्कीसवीं सदी चल रही है,  हर युग की अपनी कोई न कोई विशेष उपलब्धि रही है । जब इतिहास लिखा जायेगा तो कलियुग की सबसे बड़ी उपलब्धि  तकनीकी को ही माना जायेगा । इसकी  सहायता से सब कार्य ऑन लाइन होने लगे हैं  ।  लाइन लगाने में तो वैसे भी हम लोग बड़े उस्ताद हैं ; इसका अभ्यास नोटबन्दी के दौरान खूब किया है । अब ये भी सही है कि हर पल कुछ न कुछ नया करते रहना चाहिए । सो हर कार्य शुरू हो गए नए बदलावों के साथ ।  लॉक डाउन में अर्थव्यवस्था भले ही डाउन हुई हो पर घरेलू हिंसा अप ग्रेड हो रही है । अरे भई  जहाँ  चार बर्तन होंगे तो आवाज तो उठेगी ही । मामला भी ऑन लाइन ही सुलझाया जा रहा है ।   बड़ा आंनद आयेगा जब  वीडियो अदालत होगी,  ऐसे में बहसबाजी का दौर तब तक चलेगा जब तक सर्वर डाउन न हो जाये । कुछ भी कहें इक्कीसवीं सदी की बीमारी भी दो हाथ आगे निकली । चमगादड़ से आयी या प्रयोग शाला से ये तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं किंतु कहाँ- कहाँ मानवता के दुश्मन पनप रहे हैं इतना जरूर बताती जा रही है । कोई इसे कोरोना मैडम कहता है तो कोई कोरोना सर जी कह कर इसको सम्मानित कर रहा है । अरे भाई हम लोग सनातन धर्म को मानते हैं जहाँ हर प्राणी में ईश्वर का वास  देखा जाता है ।  सो सम्मान तो बनता है । अब ये बात अलग है कि ये वायरस है जिसे ज्यादा प्यार पाकर बहक जाने की आदत है । सबको जल्दी ही पोजटिव करता है । और द्विगुणित होकर बढ़ते हुए चलना इसका स्वभाव है । अब इसे कौन बताए कि हम लोग हम दो हमारे दो से भी दूर होकर हम दो हमारे एक पर विश्वास करते हैं । तुम्हारी दाल यहाँ नहीं गलने वाली । हमारे यहाँ तो जैसा अन्न वैसा मन ही सिखाया गया है अतः हम लोग चमगादड़ों से नाता नहीं जोड़ते । कुछ लोग भटके हुए प्राणी अवश्य हैं ; जो  भोजन और भजन को छोड़कर माँसाहार की ओर भटकते हैं ; वे भले ही तुम्हारी सेवा करें पर जैसे ही समझेंगे कि तुम्हारी सोच सही नहीं है । तुमसे खराब वाइव्स आ रही है तुम्हें रफा दफा कर देंगे ।

जब दिमाग ठंडा हो तो लोग आराम से कार्य करते हैं वैसे ही कारोना जी को भी ठंडेपन से ज्यादा ही मोह है ये साँस की नली की गली को ही ब्लॉक कर देता है । ब्लॉक करना तो इसकी  पुरानी आदत है । गर्मी पाते ही रूठ जाता है । सारे देशभक्त इसे भागने हेतु दिन -रात एक कर रहे हैं पर ये भी पूरी शिद्दत से गद्दारों को ढूंढ कर उनको उकसाता है ; कहता है मेरा साथ दो खुद भी जन्नत नशी बनों औरों को भी बनाओ । अनपढ़ लोग इसकी बातों में आ रहे हैं ; तो कुछ दूर से ही  इसके समर्थन में अपनी राजनैतिक रोटी सेंक रहे हैं ।

जिस दिन से इंटरनेट शुरू हुआ ऑन लाइन सम्बंधो पर तो सभी ने वर्क शुरू किया । इस दौरान बहुत से फेसबुकिया रिश्तेदार भी बने ।  सारे  कार्य इसी से शुरू हो गए,  ऐसा लगने लगा मानो हम सब अंतरिक्ष में जाकर ही दम लेंगे पर ये अतिथि है कि जाने का नाम ही नहीं ले रहा । ये जाए तो हम सब की जीवनरूपी रेल पुनः पटरी पर दौड़ें ।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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