Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 3 – Celestial Ganga☆

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Celestial Ganga”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 3

 

☆ Celestial Ganga ☆

 

Oh what a beauty!

Thought Shantanu, as he at Ganga glanced

Fell in love in first glimpse

And for her hands for marriage, he asked.

 

By Shantanu’s father already blessed

Ganga had nothing to fear

“Oh yes!” she smiled and replied,

“Provided you never question me dear!”

 

The king’s lawful queen she became

And soon, her first son was born

As he witnessed her go and drown him

Between his love and promise was Shantanu torn

 

Child after child thrown in river

King Shantanu felt that he had had a lot

When to drown the eighth child Ganga went

He felt that he could thus continue to suffer not

 

“O pretty queen, do stop your ghastly acts;

Pray leave this child,” he muttered

“Your promise is broken oh dear King!

I shall leave you now!” she uttered.

 

“The children killed by me were none

But Gods known as Vasus who were cursed

Seven of them could forsake life and misery

Though the eighth shall have to be nursed.”

 

Saying so, Ganga quickly disappeared

With Devratta safely cushioned under her arms

To be raised and trained as perfect warrior

Under the patronage of Parshurama!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 9 ♥ कम्प्यूटर पीडित ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “कम्प्यूटर पीडित”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 9 ☆ 

 

♥ कम्प्यूटर पीडित ♥

हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।

कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है – दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।

कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें  “सिंगल विंडो प्रणाली” बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को ओबलाइज कैसे करेगा? हुये ना बड़े बाबू कम्प्यूटर पीड़ित।

दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहाँ तो “एंटर” का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।

वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीड़ा भर नहीं देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूँ । जो पहली नौकरी मिली, आज तक उसी में लगा हुआ हूँ यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता “नौकरी डॉट कॉम” की मदद से, पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीड़ित युवाओं की तरह नहीं कि सगाई के समय किसी कंपनी में, शादी के समय किसी और में, एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में, ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही-सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूँ, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते-उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।

आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी, फिर बीटिंग करते हुए तलाक।

हॉं, हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीड़ाओं की चर्चा कर रहे थे, अब तो ”पेन ड्राइव” का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अर्थात कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, “सेलरॉन” से “पी-5” के कम्प्यूटर बदलते-बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर, डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदेशों के चलते मेरी कम्प्यूटर पीड़ित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहाँ इंटरनेट पर सब कुछ खुला-खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11 ☆ न्याय ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “न्याय ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11☆

 

☆ न्याय ☆

 

“तेरे पिता ने कहा था कि मेरे जीते जी बराबर बंटवारा कर ले तब तू ने कहा था ,’ नहीं बाबूजी ! अभी काहे की जल्दी है ?’ अब उन के मरते ही तू चाहता है की बंटवारा हो जाए ?” माँ ने पूछा तो रवि ने जवाब दिया ,” माँ ! उस समय मोहन खेत पर काम करता था.”

“और अब ?”

“उसे पिताजी की जगह नौकरी मिल गई . इसलिए बंटवारा होना ज्यादा जरुरी है ?”

“ठीक है ,” कहते हुए माँ ने मोहन को बुला लिया ,” आज बंटवारा कर लेते है.”

“जैसी आप की मर्जी माँ ?” मोहन ने कहा और वही बैठ गया .

“इस मकान के दो कमरे तेरे और दो कमरे इसके. ठीक है ?”

दोनों ने गर्दन हिला दी.

“अब  खेत का बंटवारा कर देती हूँ,” माँ ने कहा,” चूँकि मोहन को पिता की जगह  नौकरी मिली है, इसलिए पूरा पांच बीघा खेत रवि को देती हूँ.”

“यह तो अन्याय है मांजी ,” अचानक मोहन की पत्नि के मुंह से निकल, ” इन्हों ने मेहनत कर के पढाई की और इस लायक बने की नौकरी पा सके. इस की तुलना खेत से नहीं हो सकती है. यदि रवि जी पढ़ते तो ये नौकरी इन को मिलती.”

“मगर बहु ,यह तो एक माँ का न्याय है जो तुझे भी मानना पड़ेगा”, सास ने कहा .

इधर मोहन कभी माँ को, कभी रवि को और कभी अपनी पत्नी को निहार रहा था .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 11 – मित्रा…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मेरे विचार से हम मित्रता दिवस वर्ष में एक बार मनाते हैं किन्तु,  मित्रता वर्ष भर ही नहीं आजीवन निभाते हैं। श्री सुजित जी की यह कविता इतनी संवेदनशील और भावुक है कि पढ़ते हुए मित्रों के मिलन का सजीव चित्र नेत्रों के समक्ष अपने आप आ जाता है और नेत्र नम हो जाते हैं।  मुझे अनायास ही मेरी निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा –

सारे रिश्तों के मुफ्त मुखौटे मिलते हैं जिंदगी के बाजार में

बस अच्छी दोस्ती के रिश्ते का कोई मुखौटा ही नहीं होता।

निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “मित्रा…!”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #11 ☆ 

 

☆ मित्रा…! ☆ 

 

आज ब-याच वर्षानंतर तो घरी आला

दारावरची बेल वाजवली .

आणि बघता क्षणी आम्ही एकमेकांना

कडकडून मिठी मारली .

अगदी श्रीकृष्ण सुदाम्या सारखी

दोघांच्याही डोळ्यांत .. . .

शाळा सोडताना दाटून आलेलं पाणी

आज पुन्हा एकदा दाटून आलं.

आणि..आमच्या भेटीनं

आज माझ घर सुध्दा हळव झालं.

बालपणीच्या सा-याच आठवणीं

डोक्यात भोव-या सारख्या फिरू लागल्या.

अन् वयाच अंतर पुसून ,

चिंचेखाली धावू लागल्या.

शाळेत जाताना दोघांत मिळून

आमची एक पिशवी ठरलेली

अन् पिशवी मधली अर्धी भाकर

रोज दोघांत मिळून खाल्लेली..

मी जिंकाव.. म्हणून तो

कितीदा माझ्यासाठी हरलेला. . . . !

त्याच्यासाठी मी कितीदा

मी बेदम मार खाल्लेला.. . . !

त्याच्या इतका जवळचा मित्र

मला आजपर्यंत कुणीच भेटलाच नाही.

गाव सोडून आल्यापासून

आमची भेट काही झालीच नाही…..!

बराच वेळ एकमेकांशी

आमचं बरंच काही बोलणं झालेलं

तो निघतो म्हणताना त्याच्या डोळ्यांत

एकाएकी आसवांच गाव उभं राहिलेलं

तो म्हंटला..,

माय गेली परवा दिवशी .. . .

तेव्हापासून एकट एकट वाटत होतं

मनमोकळ रडायला कोणी

आपलं असं मिळत नव्हतं..

शाळेत असताना बाप गेला

तेव्हाही मित्रा

तुझ्यापाशीच रडलो होतो..!

खरंच सांगतो मित्रा

माय गेली तेव्हापासून

तुझाच पत्ता शोधत होतो..

मित्रा..,तुझ्या

खांद्यावरती डोकं ठेऊन

मला एकदा मनमोकळं रडू दे

जगण्यासाठी नवी जिद्द घेऊन

पुन्हां घराकडं जाऊदे..!

जगण्यासाठी नवी जिद्द घेऊन

पुन्हां घराकडं जाऊदे..!

© सुजित कदम

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 9 – कौन दूध इतना बरसाता है? ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। 

कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  कविता   “कौन दूध इतना बरसाता है?। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 9 ☆

 

☆ कौन दूध इतना बरसाता है? ☆  

 

सौ घर की बस्ती में

कुल चालीस गाय-भैंस

फिर इतना दूध कहाँ से

नित आ जाता है।

 

चार, पांच सौ के ही

लगभग आबादी है

प्रायः सब लोग

चाय पीने के आदि है

है सजी मिठाईयों से

दस-ग्यारह होटलें

वर्ष भर ही, पर्वोत्सव

घर,-घर में, शादी है।

नहीं, कहीं दूध की कमी

कभी भी पड़ती है,

सोचता हूँ, कौन

दूध इतना, बरसाता है

सौ घर की………….।

 

शहरों में सजी हुई

अनगिन दुकाने हैं

दूधिया मिष्ठान्नों की

कौन सी खदाने हैं

रंगबिरंगे रोशन

चमकदार आकर्षण

विष का सेवन करते

जाने-अनजाने हैं।

जाँचने-परखने को

कौन, कहाँ पैमाने

मिश्रित रसायनों से

जुड़ा हुआ, नाता है

सौ घर की……….।

 

नए-नए रोगों पर

नई-नई खोज है

शैशव पर भी,अभिनव

औषधि प्रयोग है

अपमिश्रण के युग में

शुद्धता रही कहाँ

विविध तनावों में

अवसादग्रस्त लोग हैं।

मॉलों बाजारों में

सुख-शांति ढूंढते

दर्शनीय हाट,

ठाट-बाट यूँ दिखाता है

सौ घर की बस्ती में….।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 11 – मुक्त ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  बेबाक  कविता मुक्त संवेदनशील होकर मात्र कुछ शब्दों को  छंदों बंधों में जोड़कर, उनकी तुकबंदी कर अथवा अतुकान्त गद्य में स्वांतः सुखाय कविता की रचना कर क्या वास्तव में सार्थक कविता की रचना हो सकती है? यह वाद का विषय हो सकता है।  मैं निःशब्द हूँ। सुश्री प्रभा जी द्वारा तथाकथित साहसी अभिनेत्री एवं  कवियित्री के संदर्भ से कविता के सांकेतिक जन्म का साहसी प्रयास पूर्णतः सार्थक रहा है। यह एक शाश्वत सत्य है कि – जिन कलाकारों और साहित्यकारों ने सामाजिक बंधनों को तोड़कर मुक्त अभिव्यक्ति का साहस किया है, उन्होने इतिहास ही रचा है। इस संदर्भ में मुझे प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन जी का वक्तव्य याद आ रहा है जिसमें उन्होने कहा था  कि  – “कोई भी कलाकार या साहित्यकार अपनी कला अथवा साहित्यिक अभिव्यक्ति का दस प्रतिशत ही अभिव्यक्त कर पाता हैं, शेष नब्बे प्रतिशत उनके साथ ही  दफन हो जाती है। इस बेबाक कालजयी रचना के लिए सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।  

आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 11 ☆

 

☆ मुक्त ☆

 

तो म्हणाला,

“मला नाही  आवडत कविता बिविता,शेरो शायरी…..”

 

ती नाही हिरमुसली,

तिनं बंद केला,मनाचा तो कप्पा!

ठरवलं मनाशी,

नाही लिहायची कविता  इथून पुढे…..

 

फक्त संसार  एके संसार……

भांडी कुंडी चा खेळ ही….

खेळलोय ना लहानपणी…..

बाहुला बाहुली चं लग्न ही लावलंय….

 

लग्न हेच  इतिकर्तव्य हेच बिंबवलं

गेलं लहानपणापासून…

 

मग ती “नाच गं घुमा” चा खेळ

खेळत राहिली…

पण नाही रमली.

कधीतरी वाचलं, विकत घेऊन,

मल्लिका अमर शेख चं,

“मला  उध्वस्त व्हायचंय”

 

दीपा साही चा,

*माया मेमसाब*

ही पाहून आली…

 

उमजला बाईपणाचा अर्थ…

आणि तिची सनातन दुःखंही…

 

तिच्या गर्भात गुदमरून गेलेली कविता  अचानक बाहेर  आली..

फोडला तिने टाहो….

स्वतःच्या  अस्तित्वाचा…

 

तेव्हा पासून,

ती होतेय व्यक्त…

 

अवती भवती च्या पसा-यातून…

केव्हा च झालीय मुक्त…..

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 3 ☆ भूल जाते हैं ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “भूल जाते हैं”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 3  

 

☆ भूल जाते हैं ☆

 

जो हुआ, सो हुआ, उसे वहीँ ख़त्म कर आते हैं

आओ हम-तुम मिलकर, रंजिश सब भूल जाते हैं

 

सफ़र तो अनमोल था; कुछ फूल, कुछ कांटे थे

चलो, हम खुशबुओं में फिर सारोबार हो जाते हैं

 

आओ पास बैठो, सीने से लिपट जाना चाहती हूँ

तुम्हारे साथ से मौसम के तेवर भी बदल जाते हैं

 

तुम ठुड्डी पकड़कर मेरा चेहरा ज़रा सा उठा लेना

इस ख़याल मात्र से दरख़्त भी गुनगुना जाते हैं

 

ज़िंदगी चंद लम्हों की, न जाने कब गुज़र जाए

अनमोल हैं वो पल जो साथ हैं, उन्हें जी जाते हैं

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 11 – घरौंदा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “घरौंदा ”। यह लघुकथा हमें परिवार ही नहीं पर्यावरण को भी सहेजने का सहज संदेश देती है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 11 ☆

 

☆ घरौंदा  ☆

 

गाँव कहते ही मन में बहुत ही अच्छी बातों का चित्रण हो आता है। बैलों की घंटी, मंदिर में पंडित जी का भजन-श्‍लोक, पनघट से पानी भरकर लाने वाली महिलाओं की टोली, नुक्कड़ पर चाय पकोड़े का छोटा सा टपरा और कई बातें । चारो तरफ हरियाली । ये बात अब और है कि अब गाँव भी ईट सीमेंट का हो गया । हरियाली और चौपाल जैसे खतम सी हो गई ।

बहरहाल गांव का चित्रण – सुन्दर छोटा सा एक गाँव। गाँव में मुखिया अपने परिवार सहित रहते थे । छोटे छोटे दो पुत्र और उनकी धर्मपत्नी । सभी उनका आदर सत्कार करते थे । मुखयानी तो पुरे गाँव को अपना सा प्रेम करती थी । हमेशा सेवा सत्कार में जुडी़ रहती थी । साफ सुथरा उनका घर और आँगन के बीच एक आम का वॄक्ष। जैसे-जैसे बच्‍चे बड़े हो रहे थे,  आम का पेड़ भी उनकी खुशियों पर दिन रात शमिल था। और हो भी क्यों न मुखिया जी थक हार कर आते और आम के पेड़ के नीचे ही खाट बिछा आराम करते और सब उसकी छांव में बैठे रहते । पेड़ पर बच्चों का झूला भी बंधा हुआ था। शाम को सभी आम के पेड़ के नीचे बातचीत करते और बच्चे खेलते नजर आते।

 

समय बीतता गया, मुखिया जी ने बड़े बेटे का विवाह तय किया। घर में रौनक बड गई। बड़ी बहु के आने से मुखियानी को समय मिलने में राहत हुई। चौपाल ज्यादा समय तक लगने लगी थीं। समय आनंद से बीत रहा था। तीन साल बाद दूसरे बेटे की शादी भी बड़ी धूमधाम से हुआ। बड़े बेटे को प्रथम पुत्र प्राप्ति हुई। सभी बहुत खुश थे। परिवार पूर्ण रूप से भरा-भरा हो गया था। सभी अपने-अपने कामों पर लगे रहते थे। दिनभर के काम के बाद सभी आम के पेड़ के नीचे बैठ जाते जहाँ और भी महिलाएँ बच्चों सहित आकर बैठ जाते थे। समय बीत रहा था।  कहते हैं जहां चार बरतन होती हैं वहाँ खटकने की आवाज आने लगती है। घर में दिन रात किट-किट होने लगी बहुओं में जरा भी ताल मेल नहीं जम रहा था। सास बिचारी परेशान दिन भर अपना समय आम के पेड़ के नीचे ही बिताने लगी। उसका अपना घरौंदा बन गया। अब मुखिया जी भी बाहर से आते और घर के अंदर जाने के बजाय वही दोनों आम के पेड़ के नीचे खाट डाल कर बैठ जाते। परन्तु खिट-पिट  बन्द नहीं हुई। दोनों भाइयों ने घर का बटवारा कर डाला। आँगन की बारी आई तो बीच में आम का पेड़ आ रहा था। गाँव के पंचो ने सलाह दिया कि दोनों दिवाल बना ले पेड़ नहीं काटने देगें। दोनों ने वैसा ही किया पर बात बनी नहीं। आम के सीजन में जब फल लगने लगे बड़ा भाई छोटे भाई के तरफ के फल ही गिरा देता रात के अंधेरे में छोटा भाई भी फल क्या टहनियाँ भी काट कर गिरा देता था। कभी पूरा पेड़ आम से लदा रहता आज बस ठूंठ की तरह दिखाई दे रहा है। बहाना मिल गया दोनों को पेड़ काटने का। पेड़ काट कर उसका बंटवारा कर लिया गया।

मुखिया की पत्नी ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसका देहांत हो गया। घर से मुखिया जी भी निकल कर कहीं चले गये। पूरा घर वीरान हो चुका। न चिड़ियों की चहचहाहट न बच्चों की नटखट टोली और न महिलाओं का समूह।

दोनों भाइयों को अपने घरौंदे देख बहुत दुख और पश्चाताप हुआ। पर समय निकल चुका था। परन्तु दोनों ने अपनी गलती मान पेड़ और पर्यावरण को बचाने का संकल्प ले अपनी गलती सुधारने का मौका लिया। और आज उसी क्षेत्र में आगे बढ रहे हैं। दोनों बहुओं को भी समझ में आ गया था कि परिवार और घरौंदा दोनों सुख शांति के लिए आवश्यक है। एक बार फ़िर से मुखिया का घर हरा भरा हो गया।

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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #11 – उच्छ्वास मोगऱ्याचा ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  एवं सार्थक कविता  “उच्छ्वास मोगऱ्याचा”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 11 ☆

? उच्छ्वास मोगऱ्याचा ?

 

उच्छ्वास मोगऱ्याचा तू हा लुटून घ्यावा

प्रीतीत गंध माझ्या त्याचाच हा पुरावा

 

मेंदी, हळद, सुपारी जातील सोडुनी मज

हातात फक्त माझ्या चेहरा तुझा दिसावा

 

आकाश चांदण्यांचे मागीतले कुठे मी

तारा बनून माझ्या तू सोबती असावा

 

मज ओढ सागराची भिजवून टाकते ही

होडीत मासळीवर बरसून मेघ जावा

 

ही लाट उसळते का मेध उसळतो हा

कोण्या मिठीत कोणी लागेच ना सुगावा

 

डोळ्यांमधील वादळ बोलून सर्व जाते

ओठांत शब्द नाही हा वाजतोय पावा

 

मत्सर कशास माझा करतात चांदण्या या

बहुतेक सोबतीला त्यांचा सखा नसावा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #8 – शुद्ध चमड़े का जूता  ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की आठवीं  कड़ी में उनकी  एक  व्यंग्य रचना   “शुद्ध चमड़े का जूता ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 8 ☆

 

☆ शुद्ध चमड़े का जूता ☆ 

 

भैया जी चिलम प्रेमी हैं, संगत में गंगू चिलम भरने एवं चिलम खींचने में ट्रेंड होता जा रहा है। भैया जी चिलम खींचकर अंट-संट बकने लगते हैं और पेन कागज हाथ लग जाए तो कालजयी व्यंग्य भी लिख देते हैं। ‘संगत गुनन अनेक फल’… सुट्टा खींचने के बाद गंगू भी साहित्यकार बनने की जुगत में रहता, पड़ोसियों के किस्से कहानी बता बताकर हँसता-हँसाता।

भैया जी की घर में नहीं बनती और गंगू की भी घरवाली से नहीं पटती। दोनों साथ-साथ सुट्टा खींचते और हमेशा घर से भागने केे चक्कर में रहते। भैया जी हर बार पुस्तक मेला जाते हैं पर इस बार जाने का जुगाड़ नहीं बन रहा इसलिए दुखी हैं चिलम खींचकर भावुक होकर गाने लगे…….

“चलो चलिए

यमुना जी के पार

जहां पे मेला लगो”

गंगू सुनके नाचने लगा। गंगू को क्या मालुम कि यमुना किनारे बसी दिल्ली में मेला भी लगता है…….. हामी भर दी, कहन लगे चलो….. अभी ही चलो…… नहीं तो कल चलो। झूला भी झूल लेंगे और बरेली के बाजार वाली का नाच भी देख लेंगे। बरेली के बाजार वाली का झुमका गिरा तो ढूंढ के ला भी देंगे। भैया जी नशे में और गंगू भी नशे में….. हर बात पर हामी भरते।

भैया जी बड़े नामी-गिरामी लेखक हैं बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में फोटो सहित छपते रहे हैं, घर में इज्ज़त नहीं है क्योंकि घर का कोई काम-धाम नहीं करते। बात-बात में पत्नी से झगड़ते जरूर हैं। सुबह सुबह चाय नहीं मिलने पर पत्नी से उलझ गए। जब हार गए तो चड्डी बनियान और कुर्ता पेजामा थैले में धर के घर से निकल गये और गंगू के साथ दिल्ली की रेलगाड़ी में बैठ गए।

दिल्ली पहुंचे तो पेट कुलबुला के कूं-कूं करने लगा….. गर्मागर्म छोले भटूरे देखे तो लार टपक गई, तुरन्त दोनों ने पेट भर छोले भटूरे पेल कर खाये। नहा-धोकर मेट्रो में बैठ गए, मेट्रो से उतरे तो मेले के गेट के तरफ बढ़ने लगे तो रास्ते में तन्दुरस्त सुंदर गोरी महिला ने रोक लिया और दोनों की शर्ट में तिरंगा झंडा चिपका दिया बोली – इससे आपके अंदर देशभक्ति पैदा होगी। आगे बढ़ने लगे तो रंगदारी से रास्ता रोककर वसूली पर उतर आईं कहने लगी – पैसा नहीं दोगे तो अभी मीटू में फँसा दूंगी नहीं तो झंडा चोरी के इल्जाम में अंदर करा दूंगी। बेचारे भैया जी और गंगू डर के मारे कांपने लगे। थोड़ा दे-ले के आगे बढ़े तो टिकिट की लाइन में फटे जीन्स वाली लड़की ने ठग लिया कहने लगी – अंकल आप लाइन में काहे को लगते हो पैसे दे दो और उधर चैन से बैठो हम टिकिट लाकर वहीं दे देंगे। पैसा भी ले गई और लौटी भी नहीं…….

क्या करते फिर लाइन में लगे, टिकिट ली, जब तक गंगू बोर हो चुका था बार बार चिलम चढ़ाने की मांग करता रहा फिर झुंझलाते हुए बोला – भैया जी आप हमें झटका मार के मेला घुमाने के चक्कर में घसीट लाए, इधर झूला – ऊला कुछ दिख नहीं रहा है।

धक्का-मुक्की के साथ आगे बढ़े तो गंगू को लघुशंका लग गई। पेजामे की जेब में हाथ डालकर गंगू कूंदा-फांदी करने लगा। एक प्रकाशक से पूछा – लघुशंका कहाँ करें तो झट उसने इशारे से सामने तरफ ऊंगली दिखा दी। वहां व्ही आई पी लिखा था घुसने लगे तो गार्ड ने रोक लिया कहने लगा – यहाँ सिर्फ व्ही आई पी ही लघुशंका कर सकते हैं। भैया जी को डर लग रहा था कि कहीं गंगू पैजामा न गीला कर दे। गंगू बोला – जे व्ही आई पी क्या होता है, व्ही आई पी क्या अलग तरह से व्ही आई पी लघुशंका करता है और क्या उसकी लघुशंका से सोना बनाया जाता है। गार्ड को धक्का मारकर गंगू अंदर घुस गया। गार्ड ने पुलिस बुला ली। पुलिस गंगू को पकड़ कर ले गई, भैया जी देखते रह गए।

उसी समय एक लेखक भैया जी का हाथ पकड़ कर घसीटने लगा कहने लगा – आप जरूर बड़े लेखक होंगे फलां पत्रिका में आपकी छपी थी इसलिए हमारी पुस्तक का फिरी में विमोचन करिये। पुस्तक का विमोचन नहीं करोगे तो हाथ पैर तुड़वा दिये जाएंगे लठैत भी साथ आये हैं, और सरेआम बेइज्जत कर देंगे सबके सामने बोल देंगे कि विमोचन करने के नाम पर दो हजार पहले से ले लिए और अब विमोचन में आनाकानी कर रहे हैं।

परेशानी बता के नहीं आती और जब आती है तो एक साथ बारात लेकर आती है। भीड़ की धक्का मुक्की, चारों तरफ चल रहे विमोचन की बाढ़ तथा लगातार मिल रहीं धमकियों से गला सूख रहा था प्यास बढ़ गई थी पानी का कहीं जुगाड़ नहीं दिख रहा था और गंगू की चिंता खाये जा रही थी।

अचानक मोबाइल बजा….. उधर से पत्नी चिल्ला रही थी “किचिन से पैसा चुरा कर कहां घूम रहे हो ?”

भैया जी बोले – “दिल्ली के मेले में विमोचन महोत्सव में बुलाया गया तो आ गये।“ दिल्ली का नाम सुनकर लाड़ भरी आवाज में पत्नी बोली – “मेरे लिए दिल्ली से क्या ला रहे हो?”

भैया जी बोले – “पुस्तक मेले में सिर्फ पुस्तकें मिलतीं हैं और पुस्तकों से तुम्हें चिढ़ है। इसलिए कनाटप्लेस से शुद्ध चमड़े का जूता ला रहा हूँ, पहनने के काम आयेगा और वक्त जरूरत में ओवरटाइम भी कर सकता है। तुम्हारा मुंह भी तो खूब चलता है।”

पत्नी बौखला गई बोली – “तुम नहीं सुधरोगे, फोन पर भी बदतमीजी करते हो, अपने आप को बड़ा लेखक कहते हो नारी सशक्तीकरण पर लेख लिखते हो। हाँ, तो सुनो आज रद्दी पेपर वाला आया था कह रहा था कि कई दिनों से कहीं से रद्दी नहीं मिली घर में खाने को एक दाना नहीं है दो दिन से भूखा हूँ तो मुझे उस पर दया आ गई, इसलिए तुम्हारी सभी अलमारियों की साहित्य की पूरी किताबें सस्ते में रद्दी वाले को तौलकर बेच दीं हैं और उन पैसों से ठंड में कुकरते टाॅमी के लिए कपड़े ले लिए हैं। ”

भैया जी का मोबाइल नीचे गिर गया, काटो तो खून नहीं….. फफक फफक कर रोने लगे और चक्कर खाकर गिर गए, लोग इकठ्ठे हो गए, किसी ने पानी का छींटा मारा, कोई ने जूते सुघांये…….. होश नहीं आया तो कई ने शराबी समझकर लातें मारी। पुलिस आयी और स्ट्रेचर में उठा कर ले गई।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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