हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 43 ☆ करोना का रोना ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “ मेरी  रचना प्रक्रिया।  श्री विवेक जी ने  इस आलेख में अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तृत विमर्श किया है। आपकी रचना प्रक्रिया वास्तव में व्यावहारिक एवं अनुकरणीय है जो  एक सफल लेखक के लिए वर्तमान समय के मांग के अनुरूप भी है।  उनका यह लेख शिक्षाप्रद ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 43 ☆ 

☆ करोना का रोना 

हमारे पडोस में चीनू जी रहते थे, एक बार उनके घर में एक सांप घुस आया था. श्रीमती चीनू  ने सांप देखा और बदहवास जोर से चिल्लाईं. उनकी चीख सुनकर हम पडोसी उनके घर भागे. सांप गार्डेन से लगे कमरे में सरक कर आ गया था. त्वरित बुद्धि का प्रयोग कर मैंने उस कमरे के तीनो दरवाजे खींचकर बंद कर दिये. यह देखा कि किसी दरवाजे में कहीं कोई सेंध तो नही है. फिर गार्डेन की तरफ की खिड़की से देखते हुये सांप पर नजर रखने के काम पर चीनू जी को पहरे में लगा दिया.  चूंकि हमारी कालोनी ठेठ खेतों के बीच थी,इसलिये जब तब  घरों में सांप निकलते रहते थे. अतः एक मित्र के पास सांप पकड़ने वाले का नम्बर भी था, उन्होंने तुरंत फोन करके उसे बुला लिया. सांप पकड़ने वाले के आने में देर हो रही थी, तब तक मिसेज चीनू हम सब के लिये चाय बना लाईं. कुछ देर में  सांप पकड़ने वाला आ ही गया, और घंटे दो घंटे की मशक्कत के बाद सांप पकड़ लिया गया. सब लोगों ने चैन की सांस ली.

पत्नी जी को करोना के देश में घुस आने वाली वर्तमान समस्या सरल तरीके से समझाने के लिये मैं उन्हें बता रहा था कि चीनू जी के घर सांप घुस आने वाली घटना की सिमली थोड़े बृहद स्वरूप में की जा सकती है. जिस तरह हमने चीनू जी के  ड्राइंग रूम के सारे दरवाजे बंद कर दिये थे, जिससे सांप जहां है उसी  कमरे में ही सीमित रहे, वहां से बाहर न निकल सके, उसी तरह देश के जिन क्षेत्रो में करोना जा छिपा है, उन हिस्सों को सील किये जाने को ही कम्पलीट लॉकडाउन कहा जा सकता है. सांप पकड़ने वाले की तुलना करोना से निपटने वाली हमारी चिकित्सकीय टीम से की जा सकती है. हां थोड़ा अंतर यह है कि चीनू जी के घर पर घुसा सांप तो दिखता था यह करोना खुली आंखो दिखता नही है. बिटिया ने हस्तक्षेप किया अरे पापा आप भी कैसी सिमली कर रहे हैं, सांप तो जीव होता है, जबकि करोना कोई जीव नही विषाणु है,वायरस मतलब प्रोटीन के कवर में डी एन ए मात्र है. मैं बेटी के जूलाजिकल ज्ञान पर गर्व करता इससे पहले पत्नी ने हस्तक्षेप किया. अरे आप भी क्या बात कर रहे हैं, आस्तीन में छिपे सांप तो देश में डाक्टर्स और करोना वारियर्स पर पथराव कर रहे हैं, थूक रहे हैं. टी वी की गरमा गरम बहसों में करोना की चिंता कई रूपों में हो रही है. किसी प्रवक्ता की चिंता जनवादी है, तो किसी समूचे चैनल को ही राष्ट्रवादी चिंता है. किसी पार्टी को न्यायवादी चिंता सता रही है. तो किसी जमात की चिंता धर्मवादी चिंता है. अपने जैसे विश्ववादी, बुद्धिवादी चिंता कर के खुश हैं. नेता जी वोट वाली, प्रचारवादी प्रभुत्व वाली,पक्ष विपक्ष की निंदा वाली चिंता किये जा रहे हैं. चिकित्सकीय चिंता वैज्ञानिको की शोधात्मक चिंता है. प्रशासनिक चिंता ने धारा १४४ और कर्फ्यू के बीच लॉकडाउन की एक नई अलिखित धारा बना दी है. कोई बतलायेगा कि अपने देश में लोगों को उनके हित के लिये भी लाठी से क्यों हकालना पड़ता है ? एक पंडाल में दो, ढ़ाई हजार  लोगों के इकट्ठा होकर कोई धार्मिक समारोह करने से बेहतर नहीं है क्या कि एक देश में 135 करोड़ लोग करोना के खात्मे के मिशन से एकजुट होवें और बिना निराशा के  बंद रहकर नई जिंदगी के रास्ते खोलने में सरकार व समाज की मदद करें. सब कुछ विलोम हो गया है. सोशल डिस्टेंसिग के चलते पत्नी छै बाई छै के पलंग के एक छोर पर सो रही है तो पति दूसरे छोर पर. सारी दुनियां में एक साथ जीवन की चिंता के सम्मुख इकानामी की चिंता बहुत गौंण हो गई है. मैं तो रोज कमाने खाने वाले गरीब की दृष्टि से यह सोच रहा हूं कि छोटे कस्बे गांवों  जहाँ संक्रमण शून्य है, वहां का आंतरिक लॉक डाउन समाप्त किया जा सकता है,  हां वहां से अन्य नगरों को आवागमन शत प्रतिशत प्रतिबंधित रखा जावे. करोना के निवारण के बाद  सहयोग के विश्व विधान का सूत्रपात हो, क्योंकि करोना ने हमें बता दिया है कि बड़े बड़े परमाणु बम और सेनायें एक वायरस को रोक नही पातीं, उसे रोकने के लिये सामुदायिक समभाव परस्पर सद्भावना और उत्साह जरूरी होता है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 14 ☆ जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर सार्थक रचना “जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें …..।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 14 ☆

☆ जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरें …..

सब कुछ तुरंत हो ये सोच बिना सोचे काम करने पर मजबूर करती है । जल्दी का काम शैतान का होता है इसी को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर सुखीराम जी पचास बसंत पूरे कर चुके हैं । उनके खाते में यदि कोई उपलब्धि है तो बस वो उम्मीद का टोकरा ;  जिसे सिर पर लादे सकारात्मक भाव से ये कहते हुए घूम रहे हैं कि जब घूरे के दिन फिरते हैं तो मेरे क्यों नहीं फिरेंगे ?

मजे की बात ये है कि ऐसे लोग बड़े भावुक होते हैं सो सुखीराम जी भी इनसे अलग कैसे हो सकते थे । भावुक लोगों के पास कुछ हो न हो रिश्तेदारों की फौज बड़ी  लम्बी होती है , जो समय-समय पर सलाह देने का कार्य करती है । जिस सलाह को बहुमत मिला समझो वो आचरण में लागू हो गयी । एक के पीछे एक चलने की परंपरा आदि काल से ही निर्बाध रूप से चलती चली जा रही है । कोई न कोई इसका अगुआ बन भेड़चाल का पालन अवश्य करता और कराता है । इस चाल का फायदा ये होता है कि चाल- चलन पर प्रश्न उठाने वाला कोई बचता ही नहीं ,सभी पंक्तिबद्ध होकर  चलते जाते हैं अनंत को खोजते हुए । इसका परिणाम क्या होगा इससे किसी को कोई लेना – देना नहीं रहता उन्हें तो बस पीछा करना रहता है ।

इनकी अगली विशेषता ये होती है कि बातें करने में इनका कोई सानी नहीं होता । हवाई किले बनाना तो इनके बाएँ हाथ का कार्य होता है । और इसका प्रयोग ताउम्र बाखूबी करते हैं । मददगार का ठप्पा लगाकर न जाने कितने लोगों की मदद स्वयं लेकर अपने आपको आगे बढ़ाते रहने की कला में तो मानो पी एच डी ही हासिल की होती है । प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि संसार के सबसे सुखी व्यक्ति का रिकार्ड इनके ही नाम होगा परन्तु शीघ्र ही कार्यव्यवहार सारी पोल पट्टी खोल कर रख देता है ।

जब तक सुखीराम जी की इच्छापूर्ति होती रहती है तब तक इस धरती में उन्हें स्वर्ग नजर आता है जैसे ही  बाधा खड़ी हुई तो  नर्क का बेड़ागर्क करते हुए बड़ी खूबसूरती से बच निकलते हैं । इन्हें तो बस सुख की रोटी ही तोड़नी है बाकी लोग भाड़ में जाएँ या कहीं और इनसे कोई लेना देना नहीं रहता । स्वार्थसिद्धि का गुणगान गाते हुए सुखीराम जी जीवन के सुख अनवरत भोगते ही जा रहे हैं ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 44 – बलि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बलि । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 44 ☆

☆ लघुकथा –  बलि ☆

 

शहर से आई रीना अपनी ताई रामेश्वरी बाई की बातें सुन कर चिढ़ पड़ी, ‘‘ ताई जी ! आप भी किस की आलोचना करने लगी. कोई बकरे की बलि दे या हाथी की, हमें क्या करना है ? हम उन के वहां कौन से खाने जा रहे है. हम ठहरे शाकाहारी लोग.’’

‘‘ पर बिटिया जीव हत्या तो पाप है ना,’’ रामेश्वरी बाई अपनी बेटी के सिर से जूंए निकाल कर दोनों अंगूठे के नाख्ून के बीच मारते हुए बोली,‘‘ चाहे वह हाथी की बलि दो या बकरे की…..या फिर मुर्गे की.

“इस से क्या फर्क पड़ता है.’’

रीना को ताई की यह बात जमी नहीं. वह शहर से आई थी जहां कोई किसी से कोई मतलब नहीं रखता है. दूसरा, वह विज्ञान की छात्रा थी जानती थी कि जो जीव जन्म लेता है वह मरता है. वह आज मरे या कल, इस से क्या फर्क पड़ता है इसलिए उसे इस पर बहस करना फिजूल लग रहा था.

‘‘काहे फर्क नहीं पड़ता है बिटिया.’’ रामेश्वरी बाई अपने जूएं निकालने का कार्य करते हुए बोली,‘‘ कोई जीव हत्या करे और हम मूक दर्शक बन कर बैठे रहे. यह हम से नहीं होगा ?’’

यह सुन कर रीना को हंसी आ गई.

‘‘ताईजी, आप भी तो अब तक 22 जीवों की बलि दे चुकी है,’’ यह कहते हुए रीना ने मरी हुई, पानी में तैरती जूएं की कटोरी ताईजी के आगे कर के दिखाई‘‘ जीव चाहे मुर्गी हो जूंए, हत्या तो हत्या होती है.’’

यह सुन कर रामेश्वरी बाई आवाक रह गई. उन्हें कोई जवाब देते नहीं बना.

 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 42 – शब्द पक्षी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनकी एक अत्यंत भावप्रवण कविता   शब्द पक्षी…!।  यह सत्य है कि जब तक शब्द पक्षी कागज पर न उतर जाये तब तक साहित्यकार छटपटाता ही रहता है। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #42 ☆ 

☆ शब्द पक्षी…!  ☆ 

मेंदूतल्या घरट्यात जन्मलेली

शब्दांची पिल्ल

मला जराही स्वस्थ बसू देत नाही

चालू असतो सतत चिवचिवाट

कागदावर उतरण्याची त्यांची धडपड

मला सहन करावी लागते

जोपर्यंत घरट सोडून

शब्द अन् शब्द पानावर

मुक्त विहार करत नाहीत तोपर्यंत

आणि ..

तेच शब्द कागदावर मोकळा श्वास

घेत असतानाच पुन्हा

एखादा नवा शब्द पक्षी

माझ्या मेंदूतल्या घरट्यात

आपल्या शब्द पिल्लांना सोडुन

उडून जातो माझी

अस्वस्थता ,चलबिचल

हुरहुर अशीच कायम

टिकवून ठेवण्या साठी…!

 

…©सुजित कदम

मो.७२७६२८२६२६

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 43 – मन में थोड़ा धैर्य धरें….. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  उनकी एक  अतिसुन्दर समसामयिक रचना मन में थोड़ा धैर्य धरें…..। आज यही जीवन  की आवश्यकता भी है। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 43 ☆

☆ मन में थोड़ा धैर्य धरें….. ☆  

 

मोहभंग हो रहा स्वयं से

खुद ही खुद  से डरे डरे

खुश फहमी है लगी टूटने

रिश्तों  में   संशय  गहरे।।

 

कितना जीवन, इतना जीवन

नहीं मानता फिर  भी ये  मन

खाली  समय  सोच की खेती

फसल कटे, पहले  का मंथन

खुशियों पर संक्रमण करे घन

अतिवृष्टि  कर घात करे।

मोह भंग हो रहा स्वयं से

खुद ही  खुद  से डरे  डरे।।

 

कल तक तो सब हरा भरा था

लगता  जीवन   खरा-खरा था

आयातित यह रक्त विषाणु

बना  शत्रु  है  वसुंधरा  का,

संवेदनिक  भावनाओं  को

समझेंगे  कब  ये   बहरे।

मोह भंग हो रहा स्वयं से

खुद ही खुद से डरे – डरे।।

 

फैली  दुनिया  में   लाचारी

ये सिलसिला  रहेगा  जारी

स्वविवेक का हाथ न थामा

रहे  यदि  हम  स्वेच्छाचारी,

कीमत  बड़ी चुकानी होगी

नहीं आज  यदि हम सुधरे।

मोहभंग  हो  रहा  स्वयं से

खुद  ही  खुद से  डरे – डरे।।

 

अकथ,अकल्पित हुई हवाएं

बेमौसम   मेंढक   टर्राये

तर्क – वितर्कों के मेले में

उम्मीदों के  दीप जलाएं,

खिले फूल महकेगा आंगन

मन  में  थोड़ा  धैर्य  धरें।

मोहभंग हो रहा स्वयं से

खुद ही खुद से डरे  डरे।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 45 – चार कणिका ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  “चार कणिका।  विभिन्न मनःस्थितियों पर आधारित  चारों  कणिकाएं अपने आप  में अद्भुत हैं और विभिन्न मनःस्थितियों की सहज विवेचना करती हैं । इन भावप्रवण  चारों कणिकाओं  की रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 45 ☆

चार कणिका ☆ 

– १ –

उन्हाचा चढलाच आहे पारा,

उलघाल तनामनाची,

एक छोटासा शिडकावा

हवा आहे,

थंडगार पाण्याचा!

 

– २ –

सुख असंच निसटून जातं

हातातून पा-यासारखं

शाश्वत, आजन्म पुरणारं

हवं आहे काहीतरी…..

 

– ३ –

मी तुझ्या प्रेमात

आकंठ बुडालेली असताना,

तुझा पारा चढलेला,

आणि तू सज्ज,

शब्दांची शस्त्र पाजळून,

युध्दासाठी….

 

– ४ –

तू किती सुंदर आणि नाजूक,

प्राजक्तफुलावरच्या

दवासारखी ,

मी उगाचच म्हणते का तुला

“बेगम पारा”

कधी कधी!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 24 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर हम आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास  कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का  द्वितीय  आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 24 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 2

महात्मा गांधी की भांति डाक्टर आम्बेडकर ने भी जनजागृति हेतु समाचार-पत्र प्रकाशन का सहारा लिया और कोल्हापुर के महाराजा शाहूजी से आर्थिक सहयोग प्राप्त कर एक पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन जनवरी 1920 में शुरू किया, बाद में इसे 1927 से ‘बहिष्कृत भारत’ के नाम से प्रकाशित किया जाने लगा।  फिर लम्बे समय तक डाक्टर आम्बेडकर ने विभिन्न सम्मेलनों, और शोधपरक लेखन के माध्यम से दलित वर्ग की समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया। 1927 आते आते उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गई और कार्यक्षेत्र का विस्तार भी हो गया। अपने आन्दोलनों के लिए उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित सत्याग्रह का मार्ग चुना और महाड़ के चवदार तालाब में दलितों के प्रवेश को लेकर सत्यागृह किया। सत्याग्रह के दौरान उन्होंने गांधीजी की तस्वीरें धरना प्रदर्शन स्थल पर लगवाई और प्रतीकात्मक तरीके से तालाब का जल अंजलि में लेकर पिया।  सत्याग्रह  को लेकर डाक्टर आम्बेडकर  के विचार गांधीजी से थोड़े भिन्न थे वे सत्याग्रह के तौर तरीके को लेकर गांधीजी जितने कठोर न थे और हर तरीके को अपनाकर सच्चाई उजागर करने में विश्वास रखते थे। दूसरी ओर महात्मा गांधी साधन की पवित्रता पर बहुत अधिक जोर देते और अहिंसा का रास्ता अपनाए रखने पर दृढ़ रहते।

फरवरी 1928 को जब साइमन कमीशन भारत आया तो गांधीजी के आह्वान पर कांग्रेस ने जगह जगह कमीशन के विरोध मे प्रदर्शनों का आयोजन किया और आम जनता ने सभी जगहों पर साइमन गो बैक के नारे लगाए हड़ताल की व शहर को बंद रखा। इसके उलट डाक्टर आम्बेडकर ने कमीशन की मदद के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाई गई बम्बई विधान परिषद् की समिति की न केवल सदस्यता ग्रहण की वरन अक्टूबर 1928 को पूना में कमीशन के सामने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की ओर से  उपस्थित होकर अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में  एक स्मरण पत्र पेश किया, अछूतों के लिए संयुक्त निर्वाचन, मतदान का अधिकार  और सीटों पर  आरक्षण की मांग की।  उन्होंने कमीशन के सवालों का जबाब भी बड़ी चतुराई से दिया। गांधीजी के विपरीत आम्बेडकर अस्पृश्यता की समस्या का समाधान राजनीतिक सत्ता हासिल कर  चाहते थे। अभी  तक डाक्टर आम्बेडकर व गांधीजी की कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी और गांधीजी भी उन्हें ब्राह्मण समझते थे। लेकिन आम जनता को, डाक्टर आम्बेडकर का साइमन कमीशन को सहयोग देना, पसंद नहीं आया।

मार्च 1930 में डाक्टर आम्बेडकर ने नाशिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश को लेकर बड़ा सत्याग्रह किया। इस सत्याग्रह का तरीका गांधीमार्ग जैसा ही था और मंदिर के सभी दरवाजों की घेराबंदी की गई। इसी दौरान गांधीजी ने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया था। गांधीजी के अनुयायी घनश्याम दास बिड़ला ने डाक्टर आम्बेडकर से मिलकर उनसे अपना सत्याग्रह वापिस लेने की सलाह दी जिससे  सविनय अवज्ञा आन्दोलन मे सभी वर्ग व समाज की एकजुटता का प्रदर्शन हो सके व उसे बल मिले। लेकिन डाक्टर आम्बेडकर ने अपना सत्याग्रह वापस लेने से मना कर दिया। इसके फलस्वरूप नाशिक कांग्रेस ने भी डाक्टर आम्बेडकर का साथ नहीं दिया और  रुढ़िवादियों ने तो शुरू से ही इस सत्याग्रह का भारी विरोध किया फलस्वरूप उनका सत्याग्रह लंबा चला                    और  पांच वर्ष तक चले इस आन्दोलन को तब सफलता मिली जब  अछूतों को मंदिर में प्रवेश का क़ानून बना। यहाँ हमें गांधीजी  और डाक्टर आम्बेडकर के सत्याग्रह आन्दोलन के तरीकों में स्पष्ट अंतर नज़र आता है। गांधीजी जहाँ आन्दोलन के दौरान मध्यस्थता की गुंजाइश बनाए रखते थे और बातचीत का रास्ता खुला रखना चाहते थे वहीं दूसरी ओर आम्बेडकर कडा रुख रखते और मध्यस्थता तथा बातचीत से दो टूक इन्कार कर देते। डाक्टर आम्बेडकर ने उस वक्त गांधीजी के अनुयायी घनश्याम दास बिड़ला की बात न मानकर एक प्रकार से अंग्रेजों की ‘बाँटों और राज करो’ नीति को समर्थन ही दे दिया। एक ओर मुस्लिम समुदाय को अंग्रेज आज़ादी के आन्दोलन से दूर रखने के प्रयास कर रहे थे और महात्मा गांधी अंग्रेजों की इस कूटनीतिक चाल को ध्वस्त करने हेतु समझौतावादी रुख अख्तियार कर रहे थे। ऐसे में डाक्टर आम्बेडकर का सत्याग्रह कांग्रेस द्वारा संचालित सविनय अवज्ञा भंग आन्दोलन को और कमजोर कर रहा था। अंग्रेजों ने गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के मतभेदों को हवा देने के लिए साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित कर दी और दलित वर्ग के लिए संयुक्त निर्वाचन के साथ सीटों के आरक्षण की बात कही। इसी दौरान अक्टूबर 1930 में डाक्टर आम्बेडकर ने प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस मे भाग लेकर विधायिका और सरकारी नौकरियों में अछूत समुदाय के लिए आरक्षण के अलावा अपनी पुरानी मांग के विपरीत दलित वर्ग के लिए प्रथक निर्वाचन  की नई मांग रखी और इसके बाद उनका कद देश के राजनीतिक गलियारों में तेजी से बढ़ने लगा । ज्ञात हो कि कांग्रेस ने प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस मे भाग न लेने का निर्णय किया था।

डाक्टर आम्बेडकर और गांधीजी की पहली मुलाक़ात 14 अगस्त 1931 को मुंबई में गांधीजी के निमंत्रण पर हुई। इस मुलाक़ात के ठीक एक महीने बाद द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस लन्दन में होने वाली थी और कांग्रेस ने इस कांफ्रेंस में गांधीजी को अपने प्रतिनिधि  के रूप में भेजने का निर्णय लिया था। गांधीजी ने डाक्टर आम्बेडकर से अनुरोध किया कि कांग्रेस के अनुसार छुआछूत एक सामाजिक और धार्मिक मसला है इसे राजनीति के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। डाक्टर आम्बेडकर इस बात से तो सहमत थे कि गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने छुआछूत मिटाने के लिए अभियान चलाया है पर उन्होंने इसे नाकाफी माना। गांधीजी का यह कथन कि ‘ अछूत वर्ग को हिन्दू समाज से अलग करने का सीधा अर्थ है – आत्महत्या करना। मैं राजनीति के स्तर पर अछूतों को हिन्दू समाज से पृथक करने के विरुद्ध हूँ’ भी आम्बेडकर का विश्वास और दिल  जीतने में सफल नहीं हो सका।  दलित वर्ग के लिए प्रथक निर्वाचन  की मांग पर भी दोनों में विस्तृत चर्चा तो हुई पर सहमति न बन सकी।

द्वितीय गोलमेज कांफ्रेस शुरू होने के पहले गांधीजी और कांग्रेस अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल को ध्वस्त करना चाहते थे। मुस्लिम लीग की पृथकतावादी मांगों की काट के रूप में गांधीजी यह दावा कर रहे थे कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों एवं दलितों की साथ सारे भारतीयों का  प्रतिनिधित्व करती है और इसीलिये उन्होंने मुसलमानों के लिए अंग्रेजों द्वारा तय पृथक निर्वाचन और विशेष संरक्षण को स्वीकार कर लिया था। दूसरी ओर अंग्रेज यह चाल चल रहे थे कि अछूतों को हिन्दू धर्म से पृथक कर दिया जाय जिससे कांग्रेस का जनाधार कम हो जाय। गांधीजी की आम्बेडकर से मुलाक़ात इसी भावना को लेकर थी। डाक्टर आम्बेडकर भी अंग्रेजों की कुटिल चाल को समझ रहे थे और वे दलित समुदाय को हिन्दुओं से अलग मानने से इन्कार कर रहे थे।

……….क्रमशः  – 3

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 21 ☆ लघुकथा – गले का हार ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और शिक्षाप्रद लघुकथा गले का हार।  कुछ बातें  हम अनुभव से ही सीख पाते हैं।  हम अभी भी बच्चों की छोटी छोटी समस्याओं के लिए नानी के नुस्खे ही आजमाते हैं।  श्रीमती कृष्णा जी ने  इस तथ्य को बड़ी ही सहजता से समझने का सफल प्रयास किया है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 21 ☆

☆ लघुकथा  – गले का हार ☆

 

मत दिखाओ मोबाइल पूरे समय आँखे दुखने लगेगी और दिमाग पर भी असर होगा……आभा ने अरु को मोबाइल में कार्टून फिल्में न दिखाने के लिये बेटी से कहा..पर बेटी ने उसे ही सुना दिया ..माँ फिर अरु नयी  नयी बातें कैसे सीखेगा?  विज्ञान, ज्ञान और जनरल बातें कैसे सीखेगा ..आभा ने उसे किसी भी काम को करके सीखने का सुझाव दिया पर बेटी ने बात अनसुनी कर दी.  जब भी अरु कुछ ऊधम मचाता  बेटी उसे मोबाइल पकड़ा देती. ठंड के दिन थे उन्हीं दिनो की बात है. एक रात बड़ी देर तक वह कार्टून देखते देखते सो गया तीन बजे रात को अरु बहुत जोर-जोर से रोने लगा. बेटी दामाद उसे चुप कराने लगे पर वह चुप न हुआ.

उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे क्या तकलीफ है? वे बड़े परेशान हो गये.  आभा ने अरु को उठाया और उसके दोनों कानों को अपने दोनों हाथ से कस कर दबा दिया. अरु को अच्छा लगा और वह आभा की गोद मे बैठ गया और हाथ न हटाने दिया.

सब समझ गये उसके कान में तकलीफ है. आभा ने गरम कपड़े से उसके दोनों कान को दबाये रखा. उतनी ही रात को डाक्टर को फोन किया और स्थिति बताई डाक्टर ने बीस से पच्चीस मिनट तक कानों को दबाये रखने और सुबह क्लीनिक लाने की सलाह दी. अरु आभा की ही गोद मे कुछ देर में आराम लगने पर सो गया. डाक्टर ने ठंड लगना और अधिक नींद आने पर बगैर गरम कपड़े ओढे सोने पर यह हुआ. उस दिन से आभा उसके साथ अधिक समय बिताने लगी. वही अब उसक गले का हार बन गया था. उस दिन के बाद से अरु नानी को हर बात बताता और क्या खेलना यह बताता और नानी नाती साथ साथ खेलते घूमते ….

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 35 ☆ दरवाज़े ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “दरवाज़े”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 35☆

☆  दरवाज़े ☆

कौन जाने

कितने दरवाज़े हैं

ज़िंदगी के इन रास्तों पर?

 

कहाँ खुलते हैं

यह तिस्लिमी दरवाज़े?

क्या यह किसी टूटे हुए किले की

दफनाई हुई दास्तानों को छुपाये बैठे हैं?

या फिर यह

किसी सुकून के रास्तों पर

ले जाने वाले खुशनुमा रास्ते हैं?

या फिर यह दरवाज़े

एक से दूसरे तक पहुंचाते हुए

बस उलझाकर रख देते हैं वक़्त को?

 

मन तो बहुत करता है

कि रुक जाऊँ पल दो पल को

और खोजूं इन रास्तों का मुकाम,

पर मैं इतना उलझ के रह जाती हूँ

सीढ़ियों पर ही

कि तह खोल ही नहीं पाती!

 

शायद तुम कभी आओ

और थामकर मेरी बाहें

ले चलो मुझे किसी एक दरवाज़े के भीतर

तो ए खुदा!

मैं पा लूंगी हर ख़ुशी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सामानांतर / संजय उवाच – वीडियो लिंक ☆ श्री संजय भारद्वाज

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

एक विनम्र निवेदन – आज के संजय दृष्टी  को आत्मसात करने के पूर्व आप सभी से एक विनम्र निवेदन।  कृपया आदरणीय श्री संजय भारद्वाज जी का संजय उवाच के अंतर्गत 12 अप्रैल 2020 का वीडियो लिंक अवश्य आत्मसात करें। )

☆  संजय उवाच # सत्संगी मित्रो!  ☆

रविवार 12.4.2020 का दिन इस माह के सत्संग और प्रबोधन के लिए नियत था। वर्तमान स्थितियों में प्रत्यक्ष सत्संग संभव नहीं था, अत: यूट्युब के माध्यम से सत्संग को अखंड रखने का प्रयास किया है। आशा है कि आप सब महानुभाव इससे जुड़ेंगे।

वीडियो लिंक >>>>>

संजय उवाच 12 अप्रैल 2020

विनम्र निवेदन है कि विषय प्रेरक लगे तो लाइक देने के साथ-साथ अन्य मित्रों के साथ साझा भी करें।

कृपया घर में रहें। स्वास्थ्य का ध्यान रखें। ईश्वर पर आस्था रखते हुए नियमित प्रार्थना करते रहें।

सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यंतु, माकश्चिदु:खभाग्भवेत्।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡

☆ संजय दृष्टि  – *समानांतर* ☆

…….???

…..???

…???

पढ़ सके?

फिर पढ़ो!

नहीं…,

सुनो मित्र,

साथ न सही

मेरे समानांतर चलो,

फिर मेरा लिखो पढ़ो..!

 

कृपया घर पर रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(दोपहर 3:10 बजे, 15.6.2016)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares