Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 1- Madhavi forgives Yayati ☆

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Madhavi forgives Yayati”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 1

 

☆ Madhavi forgives Yayati☆

 

The illustrious king once, Yayati

As I see you discarded and thrown

My heart goes out to thee

After all, you are my father own

 

For me, so difficult forgetting is

After all, you made me a prostitute

Blessed I was to be a mother of four kings

Traded I was for the heroes mute

 

Your own daughter, you presented to Sage Galva

Who offered me to three kings on earth

Sage Galva got his six hundred white horses

And I, to three kinds, gave birth

 

Further presented to Sage Vishwamitra

Another child I bore, another hurt I received

Returned back then to your Palace

After having borne sons four

 

You wished me to marry someone then

But after this misadventure how could i?

Into an ascetic I turned

Chanting hymns and chants in the forests nearby

 

Comprehending the futility of rage

To you, Yayati, forgiveness I impart

My sons shall give you a portion of their merits

And shall play, in my forgiveness, a special part

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 7 ♥ जा तुझे माफ किया! ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “जा तुझे माफ किया!”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 7 ☆ 

 

♥ जा तुझे माफ किया! ♥

 

जब उन्होने बिना साक्ष्य के आरोप लगाये तब भी वे सुर्खियो में थे, अब जब माफी मांग रहे हैं तब भी सुर्खियो में हैं. सुर्खियो में रहना उनकी मजबूरी है, क्योकि वे अच्छी तरह समझते हैं कि जो दिखता है वही बिकता है. माफी मांगने से भी उदारमना होने वाली विनम्र छबि बनती ही है. जो माफ करता है उसकी भी और जो माफी मांगता है उसकी भी. क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात. उत्पात मचाना छोटे का जन्म सिद्ध अधिकार होता है. बचपन से हमने यही संस्कार पाये हैं. छोटी बहन कितनी भी शैतानी करे, माँ मुझे ही घुड़कती थीं और उनके आँख दिखाते ही मुझे मनमसोस कर बहन को माफ कर देना पड़ता था.

वैसे राजनीति में ये फार्मूला थोड़ा नया है. जब वोट चाहिये हों तो अनाप शनाप कुछ भी वादे कर डालो मंच से, तालियां पिटेंगी, वोट मिलेंगें. और तो और घोषणा पत्र में तक कभी पूरी न की जा सकने वाली लिखित घोषणायें करने से भी राजनैतिक दल बाज नही आते. यह अपनी लाइन बड़ी करने वाली तरकीब है. वोटर के मन में अपने निशान के प्रति आकर्षण पैदा करने की दूसरी तरकीब होती है, सामने वाले की छबि खराब करना. इसके लिये बेबुनियाद आरोप भी लगाना पड़े तो “एवरी थिंग इज फेयर इन लव वार एण्ड राजनीति”.

जनता कनफ्यूज हो जाती है, कयास लगाती है कि बिना आग के धुंआ थोड़े ही उठता है,सोचती है कुछ न कुछ चक्कर तो होगा. आधे से ज्यादा लोग तो नादान समझकर सह लेते हैं या स्वयं भी उससे बढ़कर कोई आरोप लगाकर या मानहानि का मुकदमा दायर करने की धमकी देकर ही बदला ले लेते हैं. जो इतने संपन्न होते हैं कि अदालत में केस दाखिल कर सकते हैं वे जब तक मानहानि का मुकदमा दायर करते हैं तब तक वोट मिल चुके होते हैं. मतलब निकल जाता है. फिर यदि मानहानि का मुकदमा गले की हड्डी बन ही गया तो माफी मांगकर गोल्डन शेक हैण्ड करके फिर से सुर्खियां बटोरी जा सकती हैं.

गलत झूठे आरोप लगाने के लिये किसी वेबसाइट से मोटे मोटे दस्तावेज डाउनलोड किये जा सकते हैं जिनमें क्या लिखा है आरोप लगाने वाले  को भी नही मालूम होता. पर प्रेस कांफ्रेन्स करके टी वी कैमरे के सामने हवा में लहराकर आरोप लगाया जाता है. पत्रकार और जनता सब आरोप ढ़ूंढ़ते रह जाते है, चुनाव निकल जाते हैं. यदि किसी की व्यक्तिगत चारित्रिक कोई कमजोरी हाथ लग जाये तो फिर क्या है, कई साफ्टवेयर हैं जो हू बहू आरोपी की आवाज में जो चाहें वह बोलने वाली सीडी बना सकते हैं. जब फारेंसिक जांच में सीडी की सत्यता प्रमाणित न हो सके तो माफी मांगने वाला फार्मूला इस्तेमाल किया ही जा सकता है. आई एम सारी सर कहकर मुस्कराते हुये पूरी बेशर्मी से कहा जा सकता है,  क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #9 ☆ चाँटा ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  बाल लघुकथा  “चाँटा”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #9 ☆

 

☆ चाँटा ☆

 

रोज की तरह प्रार्थना हुई. छात्र पंक्तिबद्ध जाने लगे,‘‘ ठहरो !’’ तभी बाहर से आते हुए प्रधानाध्यापक की आवाज गूँजी.

“आज सभी छात्रों के नाखून, कपड़े व बालों की साफ सफाई देखी जाएगी.”

वे दो दिन पहले इस की चेतावनी दे चुके थे. सभी कक्षाध्यापक अपनी अपनी कक्षा के छात्रों के नाखून, कपड़े व बाल देखने लगे.

“क्यों रे! तेरे बाल कैसे हो रहे हैं. ” मोहन सर चिल्ला कर बोले, “देख तेरे बुश्शर्ट की कॉलर”.  उन्होंने उस छात्र की गंदी कालर पकड़ कर कहा, “ये कितनी गंदी हो रही है.”

छात्र उद्दंड था. तपाक से बोला, “सर ! पहले अपने बुश्शर्ट की कॉलर देख लीजिए. वह कितनी गंदी हो रही है.” उस का जवाब सुन कर सभी छात्र हँसने लगे. तभी प्रधानाध्यापक ने चिल्ला कर कहा, “चुप. ये क्या तमाशा लगा रखा है.’’ फिर वे उद्दंड छात्र की ओर देख कर बोले,  “तू यहाँ रूक.” फिर अन्य छात्रों को तेज आवाज में कहा, “बाकी सब अपनी अपनी कक्षा में चल दो.”

सभी छात्र चुपचाप चले गए. इधर उद्दंड छात्र घबरा रहा था. अब उसे चाँटे लगना तय है.

मगर, मोहन सर, बहुत शर्मिंदा थे. छात्र ने सभी के सामने उन्हें जोरदार शब्दों का चाँटा जो मार दिया था.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 9 – सांगावा…. ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  साहित्य में नित नए प्रयोग हमें सदैव प्रेरित करते हैं। गद्य में प्रयोग आसानी से किए जा सकते हैं किन्तु, कविता में बंध-छंद के साथ बंधित होकर प्रयोग दुष्कर होते हैं, ऐसे में  यदि युवा कवि कुछ नवीन प्रयोग करते हैं उनका सदैव स्वागत है। प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना   “ सांगावा….”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #9 ☆ 

 

☆ सांगावा…. ☆ 

 

किती खोलवर             जीवनाचा  वार

संकटांचा भार              काळजात .. . . !

 

शब्दांनीच सुरू              शब्दांनी शेवट

चालू वटवट                  दिनरात.. . . . !

 

चार शब्द कधी              देतात आधार

वास्तवाचा वार              होऊनीया.. . . !

 

प्रेमामधे होई                 संवाद हा सुरू

अनुभव गुरू                 जीवनाचा.

 

नात्यांमधे शब्द              पावसाळी मेघ

नशिबाने रेघ                  मारलेली. . . . . !

 

एखादी कविता               मावेना शब्दात

सांगावा काव्यात             सांगवेना . . . !

 

 

© सुजित कदम

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 9 – सरोजिनी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में   उनका आलेख सरोजिनी।  यह आलेख पढ़ कर मुझे भी लगा कि बात तो सही है। हमारी उम्र गुजर जाती है  किन्तु, हम तय नहीं कर पाते कि ऐसे कौन से  व्यक्ति  हमें जीवन में मिले जिन्हें हम गुरु कह सकें या मान सकें। सुश्री प्रभा जी ने इस विषय पर  अत्यंत सहजता से बता दिया कि हमें शिक्षा तो किसी से भी मिल सकती है।  कई बार हम अपने अनुभवों से भी सीखते हैं। किन्तु, जिन्हें हम गुरु मानते हैं वे  हमारे हृदय पर अमिट होते हैं, अविस्मरणीय होते हैं। 

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 9 ☆

 

☆ सरोजिनी ☆

 

मी सहज  विचार करायला लागले की गुरू म्हणावं असं आपल्याला आयुष्यात कोण भेटलं?

गेली अनेक वर्षे मी लिहितेय अगदी शाळेत असल्यापासून,लेखन, संपादन यात मला कुणीही गुरू भेटला नाही, ते घडत गेलं…..

पण आयुष्याच्या शाळेत कसं जगावं, हे मी माझ्या मैत्रीणीच्या आईकडून शिकले….विशेषतः कामवाली बद्दलचा त्यांचा दृष्टिकोन, त्या म्हणायच्या कामवाली च्या फार मागे लागू नये, तिला करायचं तेवढंच ती करते, त्यांच्याकडे हीरा नावाची बाई कामाला होती,ती फारच कामचुकार होती, मैत्रीणीची मोठी बहिण  लग्न झालेली, ती माहेरी आली तेव्हा हिराला बोलली, “आई.

बोलत नाही म्हणून तू काहीच करत नाही,आम्ही काय चिंचोके मोजतो का?”

मैत्रीणीच्या आईचं नाव सरोजिनी गायकवाड, त्या स्वतः खुप नीट नेटक्या आणि कष्टाळू होत्या! तरूणपणी त्या शिस्तप्रिय पण प्रेमळ आई होत्या!

त्यांच्यातला एक गुण मला खुप आवडायचा, आपल्यामुळे इतरांना त्रास होऊ नये, मीही ती दक्षता नेहमी घेत असते, शेवटपर्यंत त्या निरपेक्ष जगल्या! दुस-याला त्रास न देता आणि स्वतःला त्रास न करून घेता!

आम्ही शिरूर मध्ये असताना माझी आई आणि इतर दोन सरोजिनी शिरूर मध्ये होत्या, मी त्यांच्यावर “तीन सरोजिनी” असा लेख ही लिहिला होता,या तीन सरोजिनी आज नाहीत, त्यांची आयुष्य मला बरंच काही शिकवून गेली!

सरोजिनी म्हणजे कमळ ! या तिन्ही सरोजिनींचे जन्म स्वातंत्र्यपूर्व काळातले, त्या काळात “सरोजिनी नायडू” या स्वातंत्र्यलढ्यातील थोर कार्यकर्तीचा प्रभाव असल्यामुळे सरोजिनी हे नाव ठेवलं जात असावं!

 

तीन सरोजिनी पाहिल्या मी

माझ्या अवती भवती,

एक माझी मम्मी दुसरी

मैत्रीणीची आई आणि

तिस-या होत्या काकी,

तिन्ही करारी, खंबीर ,प्रभावी ललना

आठवणीतील त्या प्रतिमांना हीच मानवंदना !

(सरोजिनी जगताप, सरोजिनी गायकवाड, सरोजिनी पवार )

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार #1 ☆ अकेला ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “अकेला”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार #1

 

☆ अकेला ☆

 

उस गुज़रे ज़माने में,

गर्मियों की दोपहरी में,

राहों पर चलते हुए दो मुसाफ़िर

अक्सर एक ही बरगद की ठंडी छाँव में

कुछ पल को रुक जाते थे,

कुछ बातें कर लिया करते थे,

साथ लाई रोटियाँ और अचार

मिल-बांटकर खा लिया करते थे

और फिर तनिक सुस्ताकर,

निकल पड़ते थे

अपने-अपने रास्तों पर

अपनी-अपनी मंजिलों की खोज में!

 

उन पलों को

जब वो साथ बैठे थे,

बड़ा ही खूबसूरत मानते थे

और इन्हीं मीठी यादों के सहारे

ज़िंदगी काट लिया करते थे!

 

शायद

इस एयर-कंडीशनर के युग में

दरख्तों के नीचे बैठने का सुकून

तो मिल ही नहीं सकता,

हर कोई

अपने-अपने हिस्से की ठंडी

अपने-अपने एयर-कंडीशनर से लेता है,

न कोई दर्द बांटता है, न ख़ुशी,

बस यही एक विचार

मन में मकाँ बना लेता है

कि कैसे मंजिलों को पाया जाए

और इसी डर के मारे

वो रह जाता है

अकेला भी और बेचारा भी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #9 – सेल्फी संन्याशी  ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  एवं सार्थक कविता  “सेल्फी संन्याशी ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #  9 ☆

? सेल्फी संन्याशी ?

 

खरं सांगतो, मला सेल्फी काढायला

बिल्कूल आवडात नाही

कारण… तो टिपतो

माझ्या चेहर्‍यावर आणलेले

ते खोटे खोटे भाव

आणि मुखवट्यावर थापलेला

मेकअपचा थर

माझ्या आत वाहणारे रक्ताचे झरे

रक्तमांसाची हृदयात होणारी धडधड

त्याला कधी टिपताच आली नाही

कितीही क्लोजअप घेतला तरी

भावनांचे हिंदोळे, प्रतिभांचे कंगोरे

काही काहीच दिसत नाही त्याला

मग अशा सेल्फीचा काय फायदा

नद्या, दर्‍या, सागरात,

कड्यावर उभंं राहून

आपल्या धाडसाचंं

सेल्फिसाठी प्रदर्शन मांडणार्‍या तरुणांचाही

मला खूप राग येतो

चुकून पाय घसरून खाली पडल्यास

स्वतःच्या देहाचा

आणि आई-बापाच्या स्वप्नांचा

क्षणात चुराडा होईल

याची जाण सेल्फी काढना

तरुणांना असायला हवी

नाही तर त्यांनीही माझ्या सारखं

’सेल्फी संन्याशी’ व्हायला हरकत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #6 – बेनाम होने का सुख ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  छठवीं  कड़ी में उनकी  एक सार्थक कविता  “बेनाम होने का सुख ”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #6 ☆

 

☆ बेनाम होने का सुख ☆

 

देखते ही देखते

ये  क्या हो गया ,

जब तुम घर में थे

घर के मुन्ना लाल थे ,

 

देखते ही देखते

ये क्या हो गया

राह में तुम्हें राहगीर

भी कह दिया गया

आफिस पहुँचे तो

कर्मचारी बन गए।

 

देखते ही  देखते

ये क्या हो गया

बस में सवार हुए

तो यात्री बन गए

प्रेम जैसे ही  किया

प्रेमी का खिताब मिला।

 

देखते देखते ये क्या हुआ

जब खेत खलिहान पहुँचे

सबने किसान का दर्जा दिया

बेटे के स्कूल दाखिले में

अचानक पिता बना दिया

 

देखते देखते ये क्या हुआ

पत्नी ने धीरे से पति कह दिया

मंदिर में घंटा बजाते हुए

पुजारी ने भक्त  कह दिया

 

देखते देखते इतना सब हुआ

बेनाम होने का भी सुख मिला

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कवितायें ☆ दो कवितायें 1. आसमां 2. जमीन ☆ सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

 

(आज प्रस्तुत हैं सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ जी  को  दो कवितायें  ‘आसमां ‘ और ‘जमीन’ ।)

 

एक 

? आसमां ?

 

बहती पवन  का यह शोर

खींच ले गया मुझे उस ओर

बीते हुए पल, बीते हुए क्षण

बीती हुई यादें,बीते हुए वादे

मानों कल की ही हो बात

वो हँसी-ठट्ठे,वो अठ्खेलियाँ

वो खेल-खिलौने,वो सखी-सहेलियाँ

ना थी आज की चिन्ता,

ना था कल का डर

जीते थे,जीते थे केवल उसी पल

छोटे-छोटे पलों में ही

छुपी थीं बड़ी-बड़ी खुशियाँ

दुःख-दर्द,कलह-क्लेश का

ना था कुछ एहसास

समय ने ली करवट

हुआ दूर वो सपना

ज़िंदगी की हकीकत से

हुआ जब सामना

लगा उड़ता हुआ कोई परिंदा

गिरा हो आकर ज़मीन पर धड़ाम

बनाना था पंखों को सक्षम

बनाने थे अभी कई मुकाम

नापने थे अभी कई नये आसमां !

 

दो 

? जमीन  ?

 

भूले हुए पंछी,

    भटके हुए परिंदो,

फिर लौट आओ,

    अपने बसेरों की ओर!

नई उड़ान,नये मुक़ाम,

     पाना तो है बहुत ख़ूब!

पर रुक कर साँस लेने,

     ज़िंदा रहने को,

धरती पर टिके रहना भी है ज़रूरी!

 

भूले हुए पंछी,

    भटके हुए परिंदो,

फिर लौट आओ,

    अपने बसेरों की ओर……!           

 

© बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सहायक आचार्या, हिन्दी विभाग, कालिन्दी महाविद्यालय, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #9 – बहू की नौकरी ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  नौवीं कड़ी में प्रस्तुत है “बहू की नौकरी ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 9 ☆

 

☆ बहू की नौकरी ☆

 

विवाह के बाद बहू को नौकरी करना चाहिये या नही यह वर्तमान युवा पीढ़ी की एक बड़ी समस्या है. बहू नौकरी करेगी या नहीं, निश्चित ही यह बहू को स्वयं ही तय करना चाहिये. प्रश्न है,विचारणीय मुद्दे क्या हों ? इन दिनो समाज में लड़कियों की शिक्षा का एक पूरी तरह गलत उद्देश्य धनोपार्जन ही लगाया जाने लगा है, विवाह के बाद यदि घर की सुढ़ृड़ आर्थिक स्थिति के चलते ससुराल के लोग बहू को नौकरी न करने की सलाह देते हैं तो स्वयं बहू और उसके परिवार के लोग इसे दकियानूसी मानते है व बहू की आत्मनिर्भरता पर कुठाराघात समझते हैं, यह सोच पूरी तरह सही नही है.

शिक्षा का उद्देश्य केवल अर्थोपार्जन नही होता. शिक्षा संस्कार देती है. विशेष रूप से लड़कियो की शिक्षा से समूची आगामी पीढ़ी संस्कारवान बनती है. बहू की शिक्षा उसे आत्मनिर्भरता की क्षमता देती है, पर इसका उपयोग उसे तभी करना चाहिये जब परिवार को उसकी जरूरत हो. अन्यथा बहुओ की नौकरी से स्वयं वे ही प्रकृति प्रदत्त अपने प्रेम, वात्सल्य, नारी सुलभ गुणो से समझौते कर व्यर्थ ही थोड़ा सा अर्थोपार्जन करती हैं. साथ ही इस तरह अनजाने में ही वे किसी एक पुरुष की नौकरी पर कब्जा कर उसे नौकरी से वंचित कर देती हैं. इसके समाज में दीर्घगामी दुष्परिणाम हो रहे हैं, रोजगार की समस्या उनमें से एक है दम्पतियो की नौकरी से परिवारो का बिखराव, पति पत्नी में ईगो क्लैश, विवाहेतर संबंध जैसी कठिनाईयां पनप रही हैं. नौकरी के साथ साथ पत्नी पर घर की ज्यादातर जिम्मेवारी, जो एक गृहणी की होती है, वह भी महिला को उठानी ही पड़ती है इससे परिवार में तनाव, बच्चो पर पूरा ध्यान न दे पाने की समस्या, दोहरी मेहनत से स्त्री की सेहत पर बुरा असर आदि मुश्किलो से नई पीढ़ी गुजर रही है. अतः बहुओ की नौकरी के मामले में मायके व ससुराल दोनो पक्षों के बड़े बुजुर्गो को व पति को सही सलाह देना चाहिये व किसी तरह की जोर जबरदस्ती नही की जानी चाहिये पर निर्णय स्वयं बहू को बहुत सोच समझ कर लेना चाहिये.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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