हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

डॉ. गीता पुष्प शॉ

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में डॉ. गीता पुष्प शॉ जी द्वारा आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. सुभद्रा कुमारी चौहान

☆ कहाँ गए वे लोग # २३ ☆

☆ “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” ☆ डॉ. गीता पुष्प शॉ

मुझे ख़ुशी है कि मेरा जन्म जबलपुर, मध्य-प्रदेश में हुआ जहाँ मुझे बचपन से बड़े-बड़े साहित्यकारों के बीच रहने का, उन्हें देखने-सुनने का मौक़ा मिला. आज मैं अपनी मुंहबोली नानी सुभद्रा कुमारी चौहान को याद कर रही हूं जिन्होंने हिन्दी में सबसे अधिक पढ़ी और गाई जाने वाली कविता ‘झाँसी की रानी’ लिखी है.

मेरी मां स्कूल में पढ़ाती थीं और कहानियाँ भी लिखती थीं. उनकी साहित्य में रुचि थी. सुभद्रा कुमारी चौहान मेरी मां को अपनी बेटी की तरह मानती थीं. मेरी मां पद्मा बैनर्जी (बंगाली) और पिताजी माधवन पटरथ (मलयाली) का विवाह सुभद्रा जी ने ही करवाया था. उनका घर मेरी मां के मायके जैसा था. मैं भी बचपन में मां के साथ उनके घर जाती थी. मुझे गर्व है कि मैंने उन महान कवयित्री को देखा और उनकी गोद में खेली. उनके बाद भी उनकी अगली तीन पीढ़ियों और उस घर से मेरा प्यार भरा रिश्ता बना हुआ है. आज उन्हीं सुभद्रा जी को याद कर रही हूँ जैसा कि मैंने उन्हें जाना.

आरंभिक जीवन में

सुभद्रा जी का जन्म इलाहाबाद (प्रयाग) में 16 अगस्त 1904 में हुआ था. वे वहां क्रॉस्थवेट स्कूल में पढ़ती थीं. महादेवी वर्मा उनसे जूनियर थीं. सुखद संयोग है कि ये दोनों सहेलियां तभी से कविताएं लिखती थीं और आगे चलकर प्रसिद्ध साहित्यकार सिद्ध हुईं. सुभद्रा जी की पहली कविता जो उन्होंने नौ वर्ष की आयु में लिखी थी ‘सुभद्राकुंवरि’ के नाम से प्रयाग की पत्रिका ‘मर्यादा’ में छपी थी. यह कविता नीम के पेड़ के बारे में थी. बचपन से सुभद्रा जी निडर, साहसी और सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ थीं. इनका विवाह कम आयु में सन 1919 में खण्डवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान से हुआ जो पेशे से तो वकील थे पर उससे महत्वपूर्ण वे एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे जो इस कारण कई बार जेल गए.

उनकी भी साहित्य में रुचि थी और वे नाटककार थे. पति-पत्नी दोनों प्रगतिशील विचारधारा के संवाहक थे यह अच्छी बात थी. कहते हैं जब पहली बार सुभद्रा जी सास से मिलने खण्डवा गई तो उन्होंने घूंघट काढ़ने ‌ने से इंकार कर दिया था. इसमें उनके पति ने भी साथ दिया. सास बोलीं- “बिना घूंघट की दुल्हन देखकर लोग क्या कहेंगे?” इस पर लक्ष्मण सिंह ने कहा कि मैं भी इन्हें घूंघट निकालने के लिए नहीं कहूंगा क्योंकि मैं इस प्रथा का विरोधी हूँ. वे दोनों लौट आए, पर सुभद्रा जी ने आखिर घूंघट नहीं निकाला.

स्वतन्त्रता संग्राम में

उस समय देश में स्वतंत्रता के लिए गांधी जी के आव्हान पर सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था. सुभद्रा जी स्वयं राष्ट्र प्रेम की भावना से ओत-प्रोत थीं ऐसे में उन्हें अपने पति का पूरा सहयोग मिला जो स्वयं स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय थे. दोनों पति-पत्नी खादी पहनते थे. सुभद्रा जी न कोई ज़ेवर पहनतीं न कोई श्रृंगार करतीं. एकदम सीधी-सादी वेशभूषा में उन्हें देख कर गांधी जी उनसे पूछ बैठे थे- “क्या आप शादीशुदा हैं?” तब सुभद्रा जी ने कहा- “जी हाँ. ये साथ में मेरे पति हैं.” इस पर गांधी जी बोले-“अरे तो कम से कम  पाड़‌वाली साड़ी तो पहना करो.”

जबलपुर में सुभद्रा जी जेल जाने वाली अग्रणी महिला थीं जिन्होंने हंसी-खुशी सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया.  देश भक्ति के जज़्बे में पति-पत्नी कई बार जेल गये. कभी अलग-अलग तो कभी एक साथ. जब दोनों एक साथ जेल में रहते तो उनके परिचित या पड़ोसी उनके बच्चों की देखभाल करते या उनकी बड़ी बेटी सुधा छोटे भाई-बहनों को संभालतीं.

साहित्य के क्षेत्र में

सुभद्रा जी के लेखन की बात करें तो साहित्य के क्षेत्र में भी वे अग्रणी रहीं. उन्होंने वीर रस की जो कविताएं लिखी वैसी शायद ही किसी दूसरी कवयित्री ने लिखी हो. जन मानस में रची-बसी और उस समय लोक गाथाओं में चर्चित झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पर उनकी प्रसिद्ध कविता-

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,

बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी!…

यह कविता लिखकर उन्होंने परतंत्र भारत के लोगों में जागृति फैलाने काम किया कि जब एक अकेली झांसी की रानी अंग्रेजों से लोहा ले सकती है तो हम सब मिलकर क्यों नहीं! सुनते हैं ‘झांसी की रानी’ कविता जला दी गई थी.  बाद में याद कर के सुभद्रा जी उसे दुबारा लिखा.

वैसी ही एक और कविता है-

वीरों का कैसा हो वसन्त

आ रही हिमाचल से पुकार

है उदधि गरजता बार-बार

प्राची पश्चिम भू नभ अपार

सब पूछ रहे हैं दिग् दिगन्त

वीरों का कैसा हो वसन्त

सहज सरल भाषा में लिखी ये कविताएं उस समय उन लोगों में जोश भर देती थीं जो लोग स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे थे. उन्होंने राष्ट्रप्रेम, भक्ति, प्रेम, वात्सल्य, प्रकृति सभी विषयों के साथ-साथ बच्चों के लिए कई भी कई कविताएं लिखी हैं. जिनमें से कुछ अभी भी स्कूलों की पाठ्‌य-पुस्तकों में शामिल हैं. सुभद्रा जी के दो काव्य संकलन प्रकाशित हुए थे, ‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’. ‘मुकुल’ पर उन्हें ‘सेकसरिया पुरस्कार’ पुरस्कार मिला था. उस समय कविता छपने पर प्राय: पारिश्रमिक नहीं मिलता था इस लिए सुभद्रा जी ने कहानियां लिखनी शुरु कीं. उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए – बिखरे मोती (1930), उन्मादिनी (1934)और सीधे सादे चित्र (1947).

सुभद्रा जी की आधिकतर कहानियां स्वतंत्रता पूर्व भारत के सामाजिक परिवेश का चित्रण करती हैं. मुझे उनकी कहानी ‘हींगवाला’ बहुत पसन्द है जो हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द दर्शाती है. सुभद्राजी प्रकृति प्रेमी थीं जैसा कि उनकी पहली रचना ‘नीम का पेड़’ थी. उनकी ‘कदम्ब का पेड़’ कविता भी बहुत प्रसिद्ध है. एक कहानी का शीर्षक भी ‘कदम्ब के फूल’ है. इस कहानी में एक सास (जैसा कि हमेशा सास प्रायः ऐसी ही होती हैं ) अपने बेटे से बहू की शिकायत करती है कि यह मिठाई मंगवा कर खाती है. पड़ोस का एक लड़‌का इसे बेसन के लड्डू दे जाता है. बात बढ़ जाती है. अन्त में रहस्य खुलता है कि वे बेसन के लड्डू नहीं, पूजा के लिए कदम्ब के फूल थे गोल-गोल, पीले लड्डुओं जैसे. सहज सरल भाषा सुभद्रा जी की कहानियों की विशेषता है जो इन्हें हृदयग्राही बनाती है.

घर परिवार में

सुभद्रा जी और उनके पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान दोनों कांग्रेसी और गांधीवादी थे. हमेशा खद्दर पहनते थे. जबलपुर राइट टाऊन में उनका बहुत बड़ा सा घर. सामने घुसते ही बड़ा आँगन और बगीचा फूल पौधों से भरा. एक शहतूत का पेड़ भी था जो मुझे बड़ा प्यारा लगता था. पति-पत्नी दोनों के सहज सरल स्वभाव और राष्ट्रीय विचारधारा के कारण उनके यहां हरदम मिलनेवालों का आना-जाना लगा रहता सभी उन्हें काका जी और काकी जी कहकर सम्बोधित करते यहाँ तक कि उनके बच्चे भी उन्हें काका-काकी कहकर संबोधित करते थे . सुभदा जी मेरी मुंहबोली नानी थीं, यह मैं पहले ही बता चुकी हूँ. उनके बच्चे मेरे मामा-मौसी.

उनकी पांच संतानें थीं. सबसे बड़ी बेटी सुधा का विवाह कथा सम्राट प्रेमचन्द के बेटे अमृत राय से हुआ था. सुधा मौसी को सब जीजी कहते थे. फिर तीन बेटे थे- अजय (बड़े), विजय (छोटे) और अशोक (मुन्ना). उनके बाद सबसे छोटी बेटी ममता जो मुझसे तीन-चार साल बड़ी थीं. उनके घर के नाम इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि सुभद्रा नानी ने कई बाल-कविताएं अपने बच्चों पर लिखी हैं. ये नाम देखकर आप पहचान जाएंगे जैसे यह कविता- ‘सभा का खेल’

सभा-सभा का खेल आज हम खेलेंगे जीजी आओ,

मैं गांधी जी, छोटे नेहरु, तुम सरोजिनी बन जाओ.

मेरा तो सब काम लंगोटी गमछे में चल जाएगा,

छोटे भी खद्दर का कुरता पेटी से ले आएगा.

लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए एक बहुत बढ़िया साड़ी,

वह तुम माँ से ही ले लेना, आज सभा होगी भारी

मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे, हम भाषण करने वाले

वे लाठियां चलाने वाले, हम घायल मरने वाले…

यह कविता सत्याग्रह आन्दोलन की स्थिति को दर्शाती है. बड़ों को देख बच्चे भी गुड्डे-गुड़ियों का खेल के छोड़‌कर देशभक्ति के नाटक, और सभा-सभा का खेल करने को प्रेरित होते थे. इस तरह की शायद ही कोई दूसरी कविता होगी.

बेटे अजय (बड़े) पर उन्होंने ‘ अजय की पाठशाला’ शीर्षक की कविता लिखी.

मां ने कहा दूध पी लो तो बोल उठे मां रुक जाओ

वहीं रहो पढ़ने बैठा हूं मेरे पास नहीं आओ

शाला का काम बहुत सा मां, उसको कर लेने दो

ग म भ झ लिखकर मां, पट्टी को भर लेने दो

अजय मामा वकील होने के साथ-साथ कई ऊंचे पदों पर थे.

विजय (छोटे) पर ‘नटखट विजय’ कविता लिखी-

कितना नटखट मेरा बेटा,

क्या लिखता है लेटा-लेटा,

अभी नहीं अक्षर पहचाना,

ग म भ का भेद न जाना,

फिर पट्टी पर शीश झुकाए,

क्या लिखता है ध्यान लगाए,

मैं लिखता हूँ बिटिया रानी,

मुझे पिला दो ठंडा पानी.

विजय(छोटे)मामा बड़े होकर प्रोफेसर बने. इनकी पत्नी जर्मन थीं. बाद में वे भी जर्मनी चले गये जहाँ उनकी मृत्यु हो गई.

अपनी छोटी बेटी को देखकर सुभद्रा नानी ने बचपन को याद करते हुए प्रसिद्ध कविता लिखी थी- ‘मेरा बचपन’

मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी,

नन्दन वन सी कूक उठी, यह छोटी सी कुटिया मेरी.

मां ओ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी,

कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी.

यह लम्बी कविता आज भी स्कूलों में पढ़ाई जाती है.

मैं तब तीन-चार बरस की थी. मैं और मेरी मां सुभद्रा नानी से मिलने के बाद जब अपने घर जाने लगते तो अशोक मामा (उर्फ मुन्ना, उनके तीसरे बेटे) मुझे कंधे पर बिठाकर छोड़‌ने चलते. रास्ते में दो पैसे की लइया खरीद देते थे, जो मैं उनके कंधे पर बैठी कुटुर-कुटुर खाती रहती. लाई के रामदाने झड़कर उनके सिर के घुंघराले बालों के बीच बिखर जाते तब मामा हंसकर कहते – “अरे गीता मेरे बाल क्यों खराब कर रही है?” यही अशोक मामा यानी मुन्ना मामा के बारे में कहा जाता था कि जब ये स्कूल से लौटते थे तो पहले अपना बस्ता पटक कर घर के बाहर लगे कदम्ब के पेड़ पर चढ़ जाते थे. कुछ देर उछल-कूद कर लेते तब घर में घुसते थे. इन्हीं अशोक मामा पर सुभद्रा नानी ने ‘कदम्ब का पेड़’ कविता लिखी थी.

यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे,

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे.

ले देती मां मुझे बांसुरी तुम  दो पैसे वाली,

किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली…

‘कदम्ब का पेड़’ कविता स्कूलों की पाठ्‌य-पुस्तकों में संकलित है और कई लोगों की जुबान पर चढ़ी है. अशोक चौहान मामा की शादी प्रेमचन्द की नतिनी मंजुला से हुई थी. उनका भी घर का नाम मुन्नी था. बड़ी प्यारी और खूब सुन्दर थीं हमारी मुन्नी मामी.

यही अशोक मामा बड़े होकर जबलपुर के रॉबर्टसन कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हो गए थे. मेरे बचपन में पिताजी का ट्रांसफर हो जाने के कारण मेरा जबलपुर छूट गया था. मैट्रिक के बाद जब मैं यहां होम साइंस कॉलेज होस्टल में रहकर पढ़ने आई तो अजय चौहान और अशोक चौहान मामा मेरे लोकल गार्जियन बने थे.

अशोक मामा बहुत गोरे, सुन्दर और ऊंचे पूरे दिखते थे. जब छुट्टी में मुझे घर ले जाने आते तो मेरे होस्टल की लड़‌कियां उन्हें झांक-झांक कर देखतीं. वे थे तो प्रोफेसर पर पैरों में तीन रुपये वाली टायर की चप्पल पहन लेते जैसी उस समय मजदूर पहना करते थे. यह उनका अपना ‘इश्टाइल’ था जो सबके लिए अचम्भे और आकर्षण का केन्द्र बन जाता था. वे गाते बहुत अच्छा थे. जब कबीर गाते तो सुनने वालों की आंखों से आंसू बहने लगते.

सुभद्रा नानी की सबसे छोटी बेटी हैं ममता. मेरी ममता मौसी. सुभद्रा नानी की संतानों में से बस एक यही बची हैं. सुभद्रा नानी की संतानों में से प्यार से मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देने वाले सभी हाथ कालचक्र की भेंट चढ़ गये. मुन्नी मामी (मंजुला चौहान) फोन पर बातें करती थीं, कोरोना काल में वे भी चल बसीं. अब ममता मौसी हैं जो अमेरिका में रहती हैं. मुझे वे बचपन से प्यार करती थीं. जब मैं होस्टल  से उनके घर आती थी, उस समय वे एम.ए. में पढ़ ही रही थीं, पर अपने पॉकेटमनी से मुझे फ्रॉक का कपड़ा खरीदकर देती थीं. मैं शाम को होस्टल लौटते समय कपड़ा लेकर जाती और मेरी प॔जाबी दोस्त सिंधु नाग रातोंरात होस्टल की मशीन पर फ्रॉक सी देती थी. मैं दूसरे दिन उसे पहनकर कॉलेज चली जाती और शान से सबको बताती कि मेरी ममता मौसी ने दी है. वे मेरी बचपन से दोस्त थीं.

इसी संदर्भ में बचपन की एक अविस्मरणीय घटना याद आती है. माँ जब उनके घर जातीं, सुभद्रा नानी से बातें करती तब मैं ममता मौसी के साथ खेला करती थी. एक बार हम उनके घर गये थे तभी सुभद्रा नानी बनारस से लौटीं. उन्होंने हम दोनों को एक-एक पिटारी खिलौनों की दी उसमें सुन्दर-सुन्दर लकड़ी के रंग-बिरंगे बर्तन, कड़ाही, करछुल, चूल्हा, तवा, चकला-बेलन रखे थे. मैं और ममता मौसी झट से अपने-अपने खिलौने लेकर खेलने बैठ गईं.

ममता मौसी ने चूल्हे पर तवा चढ़ाया और आँगन से शहतूत की पत्तियां तोड़कर चकले पर रखकर फटाफट झूठ-मूठ की रोटियां बेलने लगीं. उनकी देखा-देखी मैंने भी अपने चूल्हे पर तवा रखकर चकला निकाला, पर यह क्या मेरे वाले सेट में तो बेलन था ही नहीं. दुकान वाला शायद बेलन रखना भूल गया था. मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, हाथ-पैर पटकने लगी. अश्रुधारा बह निकली. अब भला मैं रोटी कैसे बेलूंगी? तब सुभद्रा नानी ने मुझे प्यार से गोदी में बिठाया और चौके की तरफ आवाज़ देकर बोली- ‘महाराजिन बेलन लाओ’. उनकी महाराजिन खूब मोटी थुलथुल थीं. छोटे बच्चे उन्हें चुपके से ताड़का कहकर भागते थे तो वे भी मारने दौड़तीं पर मोटापे के कारण दौड़ न पातीं. और वहीं खड़ी होकर हंसने लगतीं उन्हें खुद भी इस खेल में मज़ा आता था.

हाँ, तो महराजिन रसोई से बेलन लेकर हाजिर हो गईं. सुभद्रा नानी ने मेरे हाथ में वह बड़ा-सा बेलन देकर कहा- “गीता बेटा लो, देखो यह अन्नपूर्णा का बेलन है. हमारी महाराजिन अन्नपूर्णा है. इसी बेलन से बेलकर हम सबको रोटियां बनाकर खिलाती है. यह संसार का सबसे अच्छा बेलन है. जाओ इससे रोटियां बेलो.” मैंने आंसू पोंछकर बेलन ले लिया और उस छोटे से चकले पर बड़ा सा बेलन रखकर रोटियां बेलने लगी. ममता मौसी कनखियों से मुझे देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं.

आज भी कभी-कभी रोटी बेलते हुए वह अन्नपूर्णा का बेलन याद आ जाता है. सोचती हूं कितनी महान थीं सुभद्रा नानी, उन्होंने एक साधारण सी खाना बनानेवाली स्त्री को ‘अन्नपूर्णा’ की संज्ञा दे डाली थी. स्वयं मालकिन होते हुए भी उसे ‘अन्नदात्री’ कहकर उसका मान बढ़ा दिया था. ऐसी उदारता तो सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी विभूतियां ही दर्शा सकती हैं.

और अन्त में…

सुभद्रा कुमारी चौहान उदार हृदया, सरलता की मूर्ती और ममतामई थीं. उनके कोमल ह्रदय में साहस और दृढ़ विश्वास भरा हुआ था. उन्होंने घर-बार संभालते हुए स्वतन्त्रता संग्राम में में भाग लिया. कई बार जेल गयीं. साहित्य रचा. जेल में भी वे कहानियां लिखती थीं. जेल की दीवारों पर कवितायें लिखती थीं. अपने राष्ट्रवादी पति का हर कदम पर साथ दिया. विवाहित स्त्रियाँ पति से अनेक सुविधाओं, ज़ेवर और धन-दौलत की अपेक्षा रखती हैं परन्तु उन्होंने ऐसी कोई कामना नहीं कीं. बिना शिकायत हंसते-हंसते पति के साथ जेल चली गईं. जेल में वे अकेली राजनैतिक महिला कैदी के रूप में थीं. जनता द्वारा जो फूलों के हार पहनाए गए थे, उनका तकिया बना कर जेल में सो गईं. उन्होंने स्वयं के बारे में लिखा भी है-

मैंने हंसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना.

बरसा करता है मेरे जीवन के पल-पल पर सोना.

एक जगह और लिखती हैं-

सुख भरे सुनहले बादल, रहते हैं मुझको घेरे.

विश्वास, प्रेम, साहस हैं, जीवन के साथी मेरे.

सुभद्रा जी को जीवन में कई मान-सम्मान मिले. साहित्य में दो बार ‘मुकुल’ और ‘बिखरे मोती’ किताब पर ‘सेकसरिया पुरस्कार’ मिला. भारत स्वतंत्र होने के बाद उत्तर प्रदेश की सरकार ने सुभद्रा जी को विधान परिषद् की सदस्या मनोनीत किया. दुर्भाग्यवश, एक मीटिंग से लौटते हुए सिवनी के पास कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई. संयोग की बात है यह दुर्घटना 15 फरवरी 1948 वसंत पंचमी (सरस्वती पूजा) के दिन हुई थी. सुभद्रा जी का जन्म नाग पंचमी (16 अगस्त 1904) में हुआ था. अर्थात् जन्म और निधन दोनों दिन पंचमी तिथि थी. मध्य प्रदेश के सिवनी के पास कलबोड़ी ग्राम में सुभद्रा कुमारी चौहान की समाधि है जहां लोग फूल चढ़ाने जाते हैं.

उनके निधन के अगले वर्ष ही 1949 में जबलपुर नगर निगम परिसर में सुभद्रा जी की आदम-कद प्रतिमा लगाई गई जिसका अनावरण उनकी सहेली प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने किया था. उनकी याद में भारत सरकार के डाक-तार विभाग ने 1976 में पच्चीस पैसे का डाक टिकट भी जारी किया था. 24 अप्रेल 2006 में उनकी राष्ट्र प्रेम की भावनाओं को सम्मान देने के लिए भारत में जल-सेना द्वारा तट-रक्षक जहाज़ का नाम ‘सुभद्रा’ रखा गया.

मात्र 43 वर्ष की अल्पायु में ही उनका निधन हो गया किन्तु इतनी कम अवधि में वे कई महत्वपूर्ण कार्य कर गईं. सुभद्रा कुमारी चौहान बीसवीं सदी की महानायिका, प्रखर लेखिका, कवयित्री, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेविका के रूप में सदा याद रखी जाएंगी. हिन्दी साहित्य के आकाश में सदा जगमग नक्षत्र की तरह चमकता रहेगा सुभद्राकुमारी चौहान का नाम. उनकी स्मृतियों को शत-शत प्रणाम.

*****

(लेखिका – डॉ. गीता पुष्प शॉ जी से अनुमति लेकर यह संस्मरण ई-अभिव्यक्ति में प्रकाशनार्थ साभार लिया गया।)

© डॉ. गीता पुष्प शॉ

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 201 – “वार्ताओं के कथन मे…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत वार्ताओं के कथन मे...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 201 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “वार्ताओं के कथन मे...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

यह चतुर्थी का इकहरा

चन्द्रमा

 

भौंह की एक रेख सा

सर्पिल नुकीला

है दशहरी आम सा

गंदुमी पीला

 

आसमां में कहीं

गहरे दूरतक

रूपसी को ज्यों

हुई हो यक्ष्मा

 

दैन्य के अपरूप की

कोई प्रतीक्षा

प्रकृति के अवसाद की

कोई परीक्षा

 

फेफड़ों में हाँफता

सा पल रहा हो

थका जर्जर और

निश्चल अस्थमा

 

दिख रहा सादा

धनुष की वक्रता

मध्य में अवसाद

वाली उग्रता

 

और अनुपम

वार्ताओं के कथन मे

दिखे जैसे वक्र उंगली

मध्यमा

 

लटकता है सधा सा

नेपथ्य में

दिखाई देता

सभी के कथ्य में

 

कौन सा शब्दार्थ

लेकर चल रहा है

पोंछता  अपनी

निरंतर मधुरिमा

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

06-9-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 188 ☆ # “तुम मुस्कुराओ तो” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता तुम मुस्कुराओ तो

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 188 ☆

☆ # “तुम मुस्कुराओ तो ” # ☆

तुम मुस्कुराओ तो

फूल खिलते हैं

तुम रूठ जाओ तो

दिल दहलते हैं

 

तुमको छूकर जब

पुरवाई चलती है

हर कली फूल

बनने को मचलती है

भंवरों के सीने मे

आग जलती है

बागों में सुगंधित

तूफान चलते हैं  

तुम मुस्कुराओ तो

फूल खिलते हैं

 

झूमते आवारा

बादलों की मनमानी है

कहीं पर सूखा तो

कहीं पर घनघोर पानी है

महल लबालब है

गरीबों की दूभर जिंदगानी है

मेघ भी हमेशा

निर्धन को ही क्यों छलते हैं?

तुम मुस्कुराओ तो

फूल खिलते हैं

 

अब तो आ जाओ

वर्ना रूठ जायेगी वर्षा रानी

बादल नहीं बरसेंगे

नहीं बरसेगा वर्षा का पानी

तन मन नहीं भीगेंगे तो

अधूरी होगी प्रेम कहानी

प्रेम की फुहारों में

भीगे अंग नव अंकुरों में ढलते हैं

तुम मुस्कुराओ तो

फूल खिलते हैं  

तुम रूठ जाओ तो

दिल दहलते हैं /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – सफर जिंदगी का… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता सफर जिंदगी का…।)

☆ कविता – सफर जिंदगी का… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

सफर जिंदगी का, वहां से यहां तक,

 कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

 सांसों की धड़कन, धड़कन से सांसें,

 डगर पूछती है, ये सांसें कहां तक,

 रिश्ते थे हल्के, जब लेकर चले थे,

 वजन में थे हल्के, पर गहरे बहुत थे,

 लेकर चलेंगे, चलेंगे जहां तक,

 कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

 नजर देखती है, सब अपनी नजर में,

 मगर मन अकेला, वहां से वहां तक,

 कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

 ऊपर बैठा, वो बाज़ीगर,

 डोर हाथ में सबकी लेकर,

 कहां नचाए, कहां घुमाए,

 कोई न जाने, कब तक कहां तक,

 कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

 सफ़र जिंदगी का, वहां से यहां तक,

 कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

 यहां से कहां तक,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 252 ☆ व्यंग्य – कंछेदी का स्कूल ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य – कंछेदी का स्कूल। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 252 ☆

☆ व्यंग्य ☆ कंछेदी का स्कूल 

कंछेदी अपने क्षत-विक्षत स्कूटर पर मेरे घर के कई चक्कर लगा चुके हैं। ‘कुछ करो मासाब। हमें तो चैन नहीं है और आप आराम से बैठे हैं। कुछ हमारी मदद करो।’

कंछेदी कई धंधे कर चुके हैं। दस बारह भैंसों की एक डेरी है, शहर में गोबर के भी पैसे खड़े कर लेते हैं। इसके अलावा ज़मीन की खरीद- फरोख़्त का धंधा करते हैं। सड़कों पुलियों के ठेके भी लेते हैं। सीमेंट की जगह रेत मिलाकर वहाँ से भी मिर्च-मसाले का इंतज़ाम कर लेते हैं।

फिलहाल कंछेदी अंगरेजी स्कूलों पर रीझे हैं। उनके हिसाब से अंगरेजी स्कूल खोलना आजकल मुनाफे का धंधा है। अपने घर के दो कमरों में स्कूल चलाना चाहते हैं, लेकिन अंगरेजी के ज्ञान से शून्य होने के कारण दुखी हैं। मेरे पीछे पड़े हैं— ‘कुछ मदद करो मासाब। हम अंगरेजी पढ़े होते तो अब तक कहीं से कहीं पहुँच गए होते।’

अंगरेजी स्कूलों के नाम पर कंछेदी की लार टपकती है। जब भी बैठते हैं, घंटों गाना गाते रहते हैं कि किस स्कूल ने मारुति खरीद ली, किसके पास चार गाड़ियाँ हैं, किसने दो साल में अपनी बिल्डिंग बना ली।

मैं कहता हूँ, ‘तुमने भी तो दूध में पानी और सीमेंट में रेतक मिलाकर खूब पैसा पीटा है, कंछेदी। कंजूसी के मारे यह टुटहा स्कूटर लिये फिरते हो। कम से कम इस पर रंग रोगन ही करा लो।’

कंछेदी मुस्करा कर कहते हैं, ‘कहाँ मासाब! कमाई होती तो ऐसे फिरते? दिन भर दौड़ते हैं तब दो-चार रुपये मिलते हैं। स्कूटर पर रंग कराने के लिए हजार बारह-सौ कहांँ से लायें? आप तो मसखरी करते हो।’

कंछेदी बौराये से चक्कर लगा रहे हैं। अंगरेजी स्कूल उनकी आँखों में दिन-रात डोलता  है। ‘मासाब, एक बढ़िया सा नाम सोच दो स्कूल के लिए। ऐसा कि बच्चों के बाप पढ़ें तो एकदम खिंचे चले आयें। फस क्लास नाम। आपई के ऊपर सब कुछ है।’

दो-चार चक्कर के बाद मैंने कहा, ‘कहाँ चक्कर में पड़े हो। स्कूल का नाम रखो के.सी. इंग्लिश स्कूल। के.सी. माने कंछेदी। इस तरह स्कूल तो चलेगा ही, तुम अमर हो जाओगे। एक तीर से दो शिकार। जब तक स्कूल चलेगा, कंछेदी अमर रहेंगे।’

कंछेदी प्रसन्न हो गये। बोले, ‘ठीक कहते हो मासाब। के.सी. इंग्लिश स्कूल ही ठीक रहेगा। बढ़िया बात सोची आपने।’

के.सी. इंग्लिश स्कूल का बोर्ड लग गया। कंछेदी ने घर के दो कमरों में छोटी-छोटी मेज़ें और बेंचें लगा दीं। ब्लैकबोर्ड लगवा दिये। बच्चों के दो-तीन चित्र लाकर टाँग दिये। एक कमरे में मेज़-कुर्सी रखकर अपना ऑफिस बना दिया। जोर से गठियाई अंटी में से कंछेदी कुछ पैसा निकाल रहे हैं। पैसे का जाना करकता है। कभी-कभी आह भरकर कहते हैं, ‘बहुत पैसा लग रहा है मासाब।’ लेकिन निराश नहीं हैं। लाभ की उम्मीद है। धंधे में पैसा तो लगाना ही पड़ता है।

एक दिन कंछेदी आये, बोले, ‘मासाब, परसों थोड़ा समय निकालो। दो मास्टरनियों और एक हेड मास्टर का चुनाव करना है। उनसे अंगरेजी में सवाल करना पड़ेंगे। कौन करेगा? दुबे जी को भी बुला लिया है। आप दोनों को ही सँभालना है।’

मैंने पूछा, ‘उन्हें तनख्वाह क्या दोगे?’

कंछेदी बोले, ‘पाँच पाँच हजार देंगे। हेड मास्टर को छः हजार दे देंगे।’

मैंने कहा, ‘पाँच हजार में कौन तुम्हारे यहाँ मगजमारी करेगा?’

कंछेदी बोले, ‘ऐसी बात नहीं है मासाब। मैंने दूसरे स्कूलों में भी पता लगा लिया है। अभी पाँच हजार से ज्यादा नहीं दे सकते। फिर मुनाफा होगा तब सोचेंगे। अभी तो गाँठ का ही जा रहा है।’

नियत दिन मैं स्कूल पहुँचा। कंछेदी बढ़िया धुले कपड़े पहने, खिले घूम रहे थे। दफ्तर के दरवाज़े पर एक चपरासी बैठा दिया था। मेज़ पर मेज़पोश था और उस पर कलमदान, कुछ कागज़ और पेपरवेट। जंका-मंका पूरा था।

मैंने कंछेदी से कहा, ‘तुमने कमरों में पंखे नहीं लगवाये। गर्मी में बच्चों को भूनना है क्या?’

कंछेदी दुखी हो गये— ‘फिर वही बात मासाब। आपसे कहा न कि कुछ मुनाफा होने दो। अब तो मुनाफे का पैसा ही स्कूल में लगेगा। जेब से बहुत पैसा चला गया।’

इंटरव्यू के लिए आठ महिलाएँ और तीन पुरुष थे। उनमें से दो रिटायर्ड शिक्षक थे। कंछेदी हम दोनों के बगल में, टाँग पर टाँग धरे, ठप्पे से बैठे थे।

उम्मीदवार आते, हम उनके प्रमाण- पत्र देखते, फिर सवाल पूछते। जब हम सवाल पूछने लगते तब कंछेदी भौंहें सिकोड़कर प्रमाण- पत्र उलटने पलटने लगते। जब उम्मीदवार से हमारे सवाल-जवाब चलते तो कंछेदी जानकार की तरह बार-बार सिर हिलाते।

कोई सुन्दर महिला-उम्मीदवार कमरे में घुसती तो कंछेदी की आँखें चमकने लगतीं और उनके ओंठ फैल जाते। वे मुग्ध भाव से बैठे उसे देखते रहते। जब वह इंटरव्यू देकर बाहर चली जाती तो कंछेदी बड़ी उम्मीद से हमसे कहते, ‘ये ठीक है।’ हम उनसे असहमति जताते तो वे आह भरकर कहते, ‘जैसा आप ठीक समझें।’

कंछेदी का काम हो गया। दो शिक्षिकाएँ नियुक्त हो गयीं। एक रिटायर्ड शिक्षक को हेड मास्टर बना दिया।

कंछेदी बीच-बीच में मिलकर स्कूल की प्रगति की रिपोर्ट देते रहते। स्कूल की प्रगति उत्साहवर्धक थी। पंद्रह बीस बच्चे आ गये थे, और आने की उम्मीद थी।

कंछेदी अपनी योजनाएँ भी बताते रहते। कहते, ‘अगले साल से हम किताबें स्कूल में ही बेचेंगे। यूनीफॉर्म भी हम खुद ही देंगे। टाई बैज भी। अब मासाब, धंधा किया है तो मुनाफे के सब रास्ते निकालने पड़ेंगे। दिमाग लगाना पड़ेगा। आपका आशीर्वाद रहा तो साल दो साल में स्कूल मुनाफे की हालत में आ जाएगा।

कंछेदी का स्कूल दिन-दूनी रात- चौगुनी तरक्की कर रहा है। भीड़ दिखायी पड़ने लगी है। रिक्शों के झुंड भी दिखाई पड़ने लगे हैं। कंछेदी स्कूल की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में रखे हैं।

कंछेदी पूरे जोश में हैं। धंधा फायदे का साबित हुआ है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि वे जल्दी ही एक मारुति कार खरीदने में समर्थ हो जाएँगे। कहते हैं, ‘मासाब, बस चार छः महीने की बात और है। फिर एक दिन आपके दरवाजे पर एक बढ़िया मारुति कार रुकेगी और उसमें से उतरकर आपका सेवक कंछेदीलाल आपका आशीर्वाद लेने आएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 251 – शिवोऽहम्… (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 251 ☆ शिवोऽहम्… (2) ?

शिवोऽहम् के संदर्भ में आज निर्वाण षटकम् के दूसरे श्लोक पर विचार करेंगे।

न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः

न वा सप्तधातुः न वा पंचकोशः।

न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पंचप्राणों में से कोई हूँ। न मैं सप्त धातुओं में से कोई हूँ, न ही पंचकोशों में से कोई। न मैं वाणी, हाथ, अथवा पैर हूँ, न मैं जननेंद्रिय या मलद्वार हूँ। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ।

जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के इस अद्भुत आत्मपरिचय को यथासंभव समझने का प्रयास जारी रखेंगे।

वैदिक दर्शन में प्राण को ही प्रज्ञा भी कहा गया। शाखायन आरण्यक का उद्घोष है,

यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः

अर्थात जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।

प्राण, वायु के माध्यम से शरीर में संचरित होता है। संचरण करने वाली वायु पाँच स्थानों पर मुख्यत: स्थित होती है। इन्हें पंचवायु कहा गया है। पंचवायु में प्राण, अपान, समान, व्यान, और उदान समाविष्ट हैं।

स्थूल रूप से समझें तो प्राणवायु का स्थान नासिका का अग्रभाग माना गया है। यह सामने की ओर गति करने वाली है। प्राणवायु देह तथा प्राण की अधिष्ठात्री है। अपान का अर्थ है नीचे जाने वाली। अपान वायु गुदा भाग में होती है। मूत्र, मल, शुक्र आदि को शरीर के निचले भाग की ओर ले जाना इसका कार्य होता है। समान वायु संतुलन बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसका स्थान आमाशय बताया गया है। भोजन का समुचित पाचन इसका दायित्व है। व्यान वायु शरीर में सर्वत्र विचरण करती है। इसका स्थान हृदय माना गया है। रक्त के संचार में इसकी विशेष भूमिका होती है। उदान का अर्थ ऊपर ले जाने वाली वायु है। अपने उर्ध्वगामी स्वभाव के कारण यह कंठ, उर, और नाभि में स्थित होती है। वाकशक्ति मूलरूप से इस पर निर्भर है।

इसी तरह त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि एवं मज्जा, शरीर की सप्तधातुएँ हैं। इनमें से किसी एक के अभाव में मानवशरीर की रचना दुष्कर है। शरीर में इनका संतुलन बिगड़ने पर अनेक प्रकार के विकार जन्म लेते हैं।

अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय, शरीर के पंचकोश हैं। हर कोश का नामकरण ही उसे परिभाषित करने में सक्षम है। विभिन्न कोशों द्वारा चेतन, अवचेतन एवं अचेतन की अनुभूति होती है।

जगद्गुरु उपरोक्त श्लोक के माध्यम से अस्तित्व का विस्तार प्राण, पंचवायु, सप्तधातु, पंचकोश से आगे ले जाते हैं। तीसरी पंक्ति में वर्णित वाणी, हाथ, पैर, जननेंद्रिय अथवा गुदा तक, स्थूल या सूक्ष्म तक आत्मस्वरूप को सीमित रखना भी हाथी के जितने भाग को स्पर्श किया, उतना भर मानना है।

विवेचन करें तो मनुष्य को ज्ञात सारे आयामों से आगे हैं शिव। शिव का एक अर्थ कल्याण होता है। चिदानंदरूप शिव होना मनुष्यता की पराकाष्ठा है। इस पराकाष्ठा को प्राप्त करना, हर जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 198 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 198 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 198) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 198 ?

☆☆☆☆☆

तूफ़ां के से हालात हैं
ना किसी सफर में रहो…
पंछियों से है गुज़ारिश
रहो सिर्फ अपने शज़र में

☆☆

There’re stormy conditions
Don’t set sail for any voyage
Pleading with the avian-world
To keep nestled in their trees

☆☆☆☆☆

ईद का चाँद बन बस रहो
अपने ही घरवालों के संग
ये उनकी खुशकिस्मती है
कि बस हो उनकी नज़र में…

☆☆

Even in, once in a blue moon
Don’t step out be with family
It’s a blissful fortune only
That you’re before their eyes

☆☆☆☆☆

माना बंजारों की तरह
घूमते ही रहे डगर-डगर…
वक़्त का तक़ाज़ा है अब
रहो सिर्फ अपने ही शहर में …

☆☆

Agreed like gypsies you’ve
Been wandering endlessly
It’s the need of hour that
You stay in your own town…

☆☆☆☆☆

तुमने कितनी खाक़ छानी
हर गली हर चौबारे की
थोड़े दिन की तो बात है
बस रहो सिर्फ अपने घर में…
☆☆
Much did you wander around
Every nook and every corner
It’s a matter of few days only
Keep staying in your house…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 198 ☆ बुन्देली मुक्तिका : बखत बदल गओ… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है बुन्देली मुक्तिका : बखत बदल गओ…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 198 ☆

बुन्देली मुक्तिका : बखत बदल गओ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।

सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।

*

लतियाउत तें कल लों जिनखों

बे नेतन सें हात जुरा रए।।

*

पाँव कबर मां लटकाए हैं

कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।

*

पान तमाखू गुटका खा खें

भरी जवानी गाल झुरा रए।।

*

झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें

सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-४-२०१७

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – पंजाब के हिंदी लेखन की स्थिति… (अंतिम कड़ी) ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – पंजाब के हिंदी लेखन की स्थिति… (अंतिम कड़ी) ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

आज अपनी जालंधर की यादों को विराम देने का दिन है। हालांकि मैंने जालंधर के बहाने चंडीगढ़ ही नहीं, हरियाणा के कुछ अच्छे और दिल के करीब रहे  उच्चाधिकारियों को भी याद किया और पंजाब, हरियाणा के लेखकों को भी। मैं छह माह के आसपास बीमार रहा, जब दोबारा से अपना नियमित स्तम्भ शुरू किया तब पता नहीं कैसे, मैं यादों की पगडंडियों पर निकल गया और खुशी की बात यह कि आप पाठक भी मेरे साथ साथ यह यात्रा करते रहे पर अब मुझे लगा कि एक बार विराम ले लेना चाहिए । हालांकि मैं यह श्रृंखला इतनी लम्बी न लिख पाता लेकिन बड़े भाई डाॅ चंद्र त्रिखा और मित्र डाॅ विनोद शाही को यह श्रृंखला इतनी अच्छी लगी कि वे दोनों बराबर मुझे उकसाते रहे कि अब लिख ही डालो, जो जो ओर जैसे जैसे याद आ रहा है और मैं लिखता चला गया और आप प्यार से पढ़ते चले गये । यह मेरे लिए बड़ी खुशी की बात थी और रहेगी कि मेरी यादों में आपने इतनी दिलचस्पी ली ।

अब इसे संपन्न करने से पहले यह सोच रहा हूँ कि आखिर जालंधर या पंजाब में अब कौन कौन से नये लोग हिंदी में लिख रहे हैं! मैंने अपने मित्रों से भी पूछा, उनके मन को भी टटोला और मुझे कोई नाम नहीं सुझाया गया ! बहुत दुख हुआ इससे । फिर मैंंने अपने अंदर झांका और मुझे चार नाम ऐसे लगे जिनका जिक्र कर सकता हूँ । सबसे पहले निधि शर्मा हैं, जो जनसंचार की यानी मास काॅम की प्राध्यापिका है वे परिचय के इन कुछ सालों में ही डाॅ निधि शर्मा बन गयीं हैं । ‌निधि शर्मा में सीखने और समझने की ललक है, जो उसे पंजाब के नये रचनाकारों में उल्लेखनीय बनाती है। निधि के आलेख अनेक पत्र पत्रिकाओं में आते रहते हैं। कभी कभार कविताएँ भी लिखती हैं । इस तरह यह हमारे पंजाब के नये रचनाकारों में उल्लेखनीय कही जा सकती है। मूल रूप से हिमाचल से आईं निधि शर्मा आजकल होशियारपुर में रहती हैं और प्राध्यापकी जालंधर में करती हैं । हाल फिलहाल निधि को पंजाब कला साहित्य अकादमी से सम्मान भी मिला है ।

 दूसरा नाम जो सूझा, वह है डाॅ अनिल पांडेय का , जो फगवाड़ा की लवली प्रोफैशनल यूनिवर्सिटी में हिंदी प्राध्यापक हैं और ‘बिम्ब-प्रतिबिंब’ प्रकाशन के साथ साथ ‘रचनावली’ नाम से पत्रिका भी निकाल रहे हैं । बड़ी बड़ी योजनाओं के सपने देखने की आदत है अनिल पांडेय को चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय से आये और फिलहाल फगवाड़ा को कर्मक्षेत्र बनाये हुए हैं । आलोचना में भी दखल रखते हैं।

डाॅ शिवानी कोहली आनंद भी पंजाब के नये रचनाकारों में अपनी जगह बना रही है, खासतौर पर काव्य लेखन व अनुवाद क्षेत्र में । पंजाब के मुकेरियां की लड़की आजकल नोएडा, दिल्ली रहती है और अपना भविष्य तलाश रही है। कभी अनुवाद तो कभी संपादन तो कभी काव्य लेखन में !

इसी प्रकार उपेंद्र यादव भी पंजाब के भविष्य के रचनकार हैं‌, जिनका एक काव्य संग्रह ‘तेरे होने से’ मुझे भेजा। वे अमृतसर रहते हैं और रेलवे में काम करते हैं। इस तरह मैंने कुछ नये लेखक खोजने की कोशिश की है ।

हरियाणा में ऐसे ही उत्साही लेखकों ब्रह्म दत्त शर्मा, पंकज शर्मा, अजय सिंह राणा , विजय और राधेश्याम भारती ने मुझे हवा देकर हरियाणा लेखक मंच का अध्यक्ष बना दिया । ये सभी खूब लिखते हैं और वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़ते ही नहीं, सीखने को भी तत्पर रहते हैं । इनके साथ ही अरूण कहरबा भी बहुत सक्रिय हैं। वैसे तो हरियाणा में अनेक युवा लेखक सक्रिय हैं और यह खुशी की बात है । उपन्यास ‘तेरा नाम इश्क’ के बाद अजय सिंह राणा का कथा संग्रह ‘मक्कड़जाल’ खूब चर्चित हो रहा है । पंकज शर्मा और विजय लघुकथा में सक्रिय हैं। ब्रह्म दत्त शर्मा का कथा संग्रह ‘पीठासीन अधिकारी’ भी चर्चित रहा और अब इनका नया उपन्यास भी चर्चा में है। प्रो अलका शर्मा और अश्विनी शांडिल्य ने हाल ही में एक संकलन स़पादित कर ध्यान आकर्षित किया है। प्रो अलका शर्मा भी इन्हीं दिनों डाॅ अलका शर्मा बनी हैं और इनका एकल काव्य संकलन भी है ।

तो मित्रो! आज यह यादों में जालंधर को विराम! यह कहते हुए :

तुम ही तुम हो एक मुसाफिर

यह गुमान मत रखना

अपने पांव तले कभी

आसमान मत रखना!

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #247 – 132 – “इस जहान में जीना है तुम्हें तब तक…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल इस जहान में जीना है तुम्हें तब तक…” ।)

? ग़ज़ल # 132 – “इस जहान में जीना है तुम्हें तब तक…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी जब  तलक आबाद रहती है, 

जीव में एक ललक शादाब रहती है।

*

दिल  हमारा  ख़ाली कब रह पाता है,

तू  नहीं  होता  तेरी  याद रहती है।

*

आशिक़ किसी दम तन्हा कहाँ रह पाता, 

माशूक़ से मिलने की फ़रियाद रहती है।

*

खंडहर में  कबूतर  फड़फड़ाते हर दम,

कोई  आरज़ू दिल ए बरबाद  रहती है।

*

खूब जोड़ो धन दौलत माल ओ असबाब,

फिर वह सब मौत की ज़ायदाद रहती है।

*

इस  जहान में  जीना है तुम्हें तब तक,

साँस  तेरी जब तलक निर्बाध  रहती है।

*

कसमसाती आतिश की आह दबी कुचली,

बस एक तमन्ना-ए-वस्ल नाशाद रहती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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