हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 8 – लघुकथा – तरक़ीब ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी लघुकथा  “तरक़ीब  ”।  हमारे जीवन में  घटित  घटनाएँ कुछ सीख तो दे ही जाती हैं और कुछ तो तरक़ीब भी सीखा देती हैं।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 8 ☆

 

☆ लघुकथा – तरक़ीब ☆

 

रमेश जी अपने परिवार के साथ प्लेटफार्म पर बैठे थे। गाड़ी का इंतज़ार था। दोनों बच्चे प्लेटफार्म पर धमाचौकड़ी मचाये थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने ‘भूख लगी है’  की टेर लगानी शुरू कर दी। माँ ने टिफिन-बॉक्स खोला और बच्चों को देकर पति की तरफ भी पेपर-प्लेट बढ़ा दी।

रमेश जी के हलक़ तक निवाला पहुँचा होगा कि वे प्रकट हो गये—-तीन लड़कियाँ और दो लड़के, उम्र तीन चार से दस बारह साल के बीच। फटेहाल । करीब पांच फुट की दूरी पर जड़ हो गये। आँखें खाने पर, अपलक। जैसे आँखों की बर्छी भोजन को बेध रही हो।

निवाला रमेश जी के गले में अटक गया। मुँह फेरा तो वे मुँह के सामने आ गये। दृष्टि वैसे ही खाने पर जमी। रमेश जी के बच्चे भी उनकी नज़र देख कौतूहल में खाना भूल गये। रमेश जी गु़स्से में चिल्लाये, लेकिन बेकार। उनकी नज़र यथावत। झल्लाकर रमेश जी ने प्लेट उनकी तरफ ढकेल दी, चिल्लाये, ‘लो, तुम्हीं खा लो।’ वे प्लेट उठाकर पल में अंतर्ध्यान हो गये।

दिमाग़ ठंडा होने पर रमेश जी ने सोचा, यह तरक़ीब अच्छी है। न लड़ना झगड़ना, न चीख़ना चिल्लाना। बस खाना गले में उतरना मुश्किल कर दो । रमेश जी खीझ में हँस कर रह गये।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #12 – अंतर… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  बरहवीं कड़ी अंतर… ।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  आज पढ़िये अंतर… ।  वास्तव  में सम्बन्धों में दूरी एवं मर्यादा  का  स्थान, काल, समय, उम्र एवं जिम्मेवारी का कितना महत्व है  न । फिर उससे भी अधिक सम्बन्धों में  समर्पण की भावना। आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #12  ?

 

☆ अंतर… ☆

 

कितीक हळवे कितीक सुंदर,

अपुल्यामधले अंतर…

हे गाणं खूप जवळचं आहे… ह्यातील अपुल्यामधले अंतर हे दोन शब्द मनाचा ठाव घेतात… आणि एक प्रकारचं समाधान देऊन जातात…

मैत्रीला जपत असताना, त्या नात्याला फुलवत असताना, दोघांमधील मर्यादा लक्षात घेऊन त्या मर्यादांचा आदर ठेवणे, खरंच वाटतं तेवढं सोपं आहे का?

नक्कीच नाही ! पण स्थळ, काळ, वेळ, वय, जबाबदारी ह्याचं भान ठेवणंही तितकंच महत्वाचं आहे नाही !

हे अंतर जास्त असलं तरी एका हाकेत नष्ट होतं, खूप समजूतदार असतं, खोल असतं, अनेक क्षणांना एकत्रित गुंफलेलं असतं, मनाच्या एका कोपऱ्यात बंदिस्त असतं, ओंजळीत सुरक्षित असतं, बंद डोळ्यात बहरतं, शब्दांमध्ये अबोल असतं, स्वप्नांमध्ये जागं असतं, आठवणींचे झंकार छेडीत स्वरमय होऊन जातं, भरती ओहोटीच्या लाटेवर आरूढ होऊन किनारा शोधत असतं, नदीच्या पाण्याप्रमाणे प्रवाही असतं… !

हे अंतर म्हणजे प्रेमळ मन लागतं, आणि त्यातून निर्माण होणारे समर्पण, अवघ्या विचारधारेला ग्रासून टाकत हृदयस्थ होतं !

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #8 – पगली गलियाँ ☆ – श्री आशीष कुमार

 

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “स्मृतियाँ/Memories”में  उनकी स्मृतियाँ । आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति  पगली गलियाँ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #8 ☆

 

पगली गलियाँ

 

बचपन गुजर भी गया तो क्या हुआ ?
याद वो पगली गलियाँ अब भी आती हैं।

 

क्यों ना हो जाये फिर से वही पुराना धमाल
वही मौसम है, उत्साह है और वही साथी हैं।

 

कल जो काटा था पेड़ कारखाना बनाने के लिए
देखते हैं बेघर हुई चिड़िया अब कहाँ घर बनाती है|

 

गरीब जिसने एक टुकड़ा भी बाँट कर खाया
ईमानदारी उस के घर भूखे पेट सो जाती है |

 

बरसों से रोशन है शहीदों की चिता पर
सुना है इस जलते दिये में वो ही बाती है |

 

© आशीष कुमार  

 

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # 5 ☆ मोहक थेंब ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हमने  आपका  “साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती” शीर्षक से प्रारम्भ
किया है। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की  हायकू शैली में कविता “मोहक थेंब”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # -5 ☆ 

☆ मोहक थेंब ☆ 

 

मोहक थेंब

पाण्यावर सजला

मनी रुजला ..        १

 

हिरव्या रांनी

थेंबा थेंबा ची नक्षी

निसर्ग साक्षी ..       २

 

भिजती पाने

थेंबांची च साखळी

सुमन कळी ..          ३

 

इवलें थेंब

पानावर हालले

स्मित हासले ..       ४

 

उनाड वर्षा

छेडीताच थेंबांना

शांत राहिना ..        ५

 

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 7 ☆ अबला नहीं सबला ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “अबला नहीं सबला  ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 7 ☆

 

☆ अबला नहीं सबला ☆

 

मैं अबला नहीं

सबला हूँ

पर्वतों से टकराने

सागर की

गहराइयों को मापने

आकाश की

बुलंदियों को छूने

चक्रव्यूह को भेदने

शत्रुओं से लोहा मनवाने

सपनों को हक़ीक़त में

बदलने का

माद्दा रखती हूँ  मैं।

 

क्योंकि, पहचान चुकी हूँ

मैं अंतर्मन में छिपी

आलौकिक शक्तियों को

और वाकिफ़ हूँ मैं

जीवन में आने वाले

तूफ़ानों से

जान चुकी हूँ मैं

सशक्त, सक्षम, समर्थ हूं

अदम्य साहस है मुझमें

रेतीली, कंटीली

पथरीली राहों पर

अकेले बढ़ सकती हूँ  मैं।

 

अब मुझे मत समझना

अबला ‘औ ‘पराश्रिता

जानती हूं मैं

अपनी अस्मिता की

रक्षा करना

समानाधिकार

न मिलने पर

उन्हें छीनने का

दम भरना

सो! अब मुझे कमज़ोर

समझने की भूल

कदापि मत करना।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #5 ☆ भरोसा ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  भरोसा”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #5  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ भरोसा 

 

आज बहुत अरसे बाद मेरी मुलाकात संस्कृति से हुई, उसे देखकर ऐसा लगा जैसे उसके चेहरे की रौनक चली गई हो। हेलो, हाय सामान्य औपचारिकता के बाद हमसे रहा नहीं गया हमने पूछ ही लिया …

“क्या बात है संस्कृति सब ठीक है न, आज कल तुम पहले की तरह चहकती हुई नहीं दिखाई दे रही।”

“नहीं कोई बात नहीं सब ठीक है।”

“इतने बुझे शब्दों में तो तुमने कभी उत्तर नहीं दिया था, आज क्या हो गया? अच्छा संस्कृति मैं सामने ही रहती हूँ, चलो घर बैठकर बात करते हैं।”

“अब तुम नि:संकोच मुझे बताओ, मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

“अब कुछ नहीं हो सकता न ही कोई कुछ कर सकता है, गया हुआ समय वापस नहीं आ सकता।” इतना कहते ही संस्कृति फूट-फूटकर रोने लगी।

हमने कहा “रोओ मत, कहो मन की बात। अब बताओ.”

तुम जानती हो मेरी पक्की दोस्त ख़ुशी को, उसकी नौकरी हमारे ही शहर दिल्ली में लगी। एक रात उसका फोन आया मैं आ रही हूँ, मेरी नौकरी लग गई है बैंक में। यह सुनते ही मैं ख़ुशी से पागल हो गई और कहा – अरे तुम ज़रूर आओ.

मैंने अपने हसबेंड को बताया, ख़ुशी आ रही है। इन्होने भी कहा कोई बात नहीं आने दो तुम्हें भी सहारा मिल जायेगा नए मेहमान आने में ज़्यादा समय नहीं है। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था बहुत बरसों के बाद दो दोस्त मन की बातें करेंगे।

ख़ुशी आई। हमने अपने हसबेंड से मिलवाया, ख़ुशी ने कहा हम आप लोगों की लाइफ को डिस्टर्ब नहीं करेंगे 15 दिनों में हमें घर मिल जायेगा, हम चले जायेंगे। हमने कहा कोई बात नहीं तुम यहां भी रह सकती हो।

एक सप्ताह बाद मेरी तबीयत ख़राब हुई मैं अस्पताल में भर्ती हो गई. डॉ. ने कहा बच्चे को खतरा है, डॉ  ने बहुत कोशिश की पर बच्चा खो दिया, पति ने गुस्से से कहा तुमने मेरे साथ बहुत ग़लत किया। मैं करीब 5 / 6 दिन भर्ती रही और यही सोचती रही बच्चा खोने में मेरी क्या गलती है?

अगले दिन घर पहुंची तो आराम करना ज़रूरी ही था, ख़ुशी मेरी बहुत सेवा करती रही, पर पतिदेव बहुत ही रुष्ट नजर आये। हमने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की पर कोई फर्क नहीं पड़ा। ख़ुशी ने कहा कोई बात नहीं सब ठीक हो जायेगा। इसी आशा से रोते–रोते सो गई जब आँख खुली तो कुछ आवाजें  सुनाई दी। मैं बाहर हॉल में गई तो देखा पतिदेव ख़ुशी के साथ हाथ में हाथ डाले बैठे थे। मैंने कहा ख़ुशी ये क्या?

ख़ुशी के पहले ही पतिदेव बोल पड़े, साली है आधी घरवाली का दर्जा है।

मैंने कहा, सुबह होते मुझे तुम दिखनी नहीं चाहिए।

अगले दिन सुबह मेरे होश ही उड़ गए जब देखा ख़ुशी तो नहीं गई पर पतिदेव ने कहा संस्कृति इस घर में तुम्हारी कोई जगह नहीं है। ख़ुशी ने मुझे वह ख़ुशी दी है जो आज तक तुमसे नहीं मिली।

ख़ुशी मैंने कभी नहीं सोचा था,  तुम मेरी हंसी–ख़ुशी, सुख–चैन सब कुछ छीन लोगी।

मैंने कहा “अरे इतना सब कुछ तुम अकेले झेलती रही और कहाँ रही अब तक?”

“यहीं दिल्ली में अलग रूम लेकर रह रही हूँ मेरा तलाक हो चुका है। उन दोनों ने शादी कर ली है मौज से रहते है।”

“जहां तक मुझे याद है, तुमने लव मैरिज की थी।”

“हां सही याद है।”

“मुझे बाद में पडौसी से पता चला जब मैं अस्पताल में थी तब ही ख़ुशी ने इन्हें अपने कब्जे में कर लिया था।”

“क्या कभी शोभित मिलने नहीं आये या कुछ बोला नहीं, कोई अफ़सोस?”

“अब तो उस शख्स के बारे में सोचना भी नहीं चाहती, सोचकर धोखे की बू आती है।”

“जब जो मेरा अपना था, उसने ही भरोसा तोड़ा तो दोस्त की क्या बिसात?”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प सातवे # 7 ☆ कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . !” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प सातवे  # 7 ☆

 

☆ कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . ! ☆

 

*जमाना बदललाय भाऊ* असं म्हणत प्रत्येक पिढीने सोयीस्कर रित्या  आपले रहाणीमान बदलले.  चुकांचे समर्थन करण्यासाठी नवे साधन मिळाले. सुनेने सासू ला आत्याबाई सोडून  आई म्हणायला सुरवात केली. मामंजीचे पप्पा झाले. पण नात्यातला संघर्ष होतच राहिला. जनरेशन गॅप तशीच राहिली. फक्त तिचे स्वरूप बदलले.

सासुबाई  नऊवारी साडीतून पंजाबी ड्रेस मध्ये  आल्या.  मामंजी धोतरातून सुट बूट, सलवार कुडता  अशा पेहरावात  आले. नातवंडे मुलांच्या  इच्छेने वाढू लागली.  वडील धा-यांनी नातवंडांचे फक्त लाड करायचे  आणि वेळप्रसंगी  आजी आजोबांनी नातवंडांचा संभाळ करायचा एवढ्या परीघात नाती फिरू लागली.

मौज मजा,  ऐषोराम,  एकमेकांवर केलेला खर्च यात नात्याचा हिशोब होऊ लागला. रक्ताची नाती गरजेपोटी  उपयोगात  आणण्याचा नवा प्रघात सुरू झाला आणि ग्रामीण भागातील समाज पारावर  पिंपळपारावर खळबळ माजली. वृद्धाश्रम  आणि पाळणाघर यांना काळाची गरज आहे  अशी शहरी लोकांनी दिलेली मान्यता गावातील वृद्धांना घातक ठरू लागली.  गावातल्या गावात एकाच कुटुंबातील दोन पिढ्यांची दोन घरे झाली.  शेतातल घर  अर्थातच म्हाताऱ्याच्या वाट्याला आले.  आणि गावातील घर दुमजली होऊन दोन भाऊ स्वतंत्र दोन मजले करून वरती खाली राहू लागले.  शेती करण्यासाठी पगारी मजूर बोलावताना जुनी पिढी हळहळली पण त्याच वेळेस  आलेले  उत्पन्न वाटून घेताना  उगाचच कुरकुरली.

समाज पारावर देखील  अनेक बदल घडत आहेत. माणूस माणसापासून दूर जातो आहे.  आणि याला कारणीभूत ठरला आहे तो पैसा.  बदलत्या जमान्यात *माणूस  ओळखायला शिकले पाहिजे*  हेच वारंवार कानी पडते. हा माणूस  ओळखायच्या स्पर्धेत  आपण मात्र  कंपूगिरी करत  आहोत.  आपल्या  उपयोगी पडणारा तो आपला.  गरज सरो नी वैद्य मरो या  उक्ती प्रमाणे आपल्या माणसाची व्याख्या बदलते आहे.  बदलत्या काळात जात पात धर्म भेदभाव नष्ट होत  असले तरी  आर्थिक विषमता  हे मूळ माणसामाणसात प्रचंड दरी निर्माण करीत आहे. ही विघातक दरी जनरेशन गॅप पेक्षा ही विनाशकारी आहे.

आपण सर्व जण ज्या मार्गाने जात  आहोत त्या मार्गावर वाडवडिलांचे आशिर्वाद, संस्कार  अभावानेच आढळतात. पण महत्व कांक्षी विचारांना पुढे करून स्वार्थाला दिलेले  अवाजवी महत्त्व माणसाला  एखाद्या वळणावर तो एकटा  असल्याची जाणीव करून देत आहे.

माणूस किती शिकला? काय शिकला? यापेक्षा तो आर्थिक दृष्ट्या स्वावलंबी आहे का याची चर्चा माणसातला  आपलेपणा नष्ट करते. बसा जेवण करूनच जा असा  आग्रह करणारे  आज फालतू कारणे शोधून बाहेर हाॅटेलमध्ये स्नेहभोजनाचे जंगी बेत  आयोजित करतात यातून व्यवहार सांभाळत पुढे जायचे हा कानमंत्र  एकमेकांना देत ही कंपूगिरी समाजात  एकमेकांना धरून रहाते.

मन दुखावले की नाती संपली. भुमिका बदलल्या. पात्रे बदलली. पैसा सोबत  असला की माणसांची गरज नाही. पैशाने माणूस विकत घेता येतो हा विचार करत  सर्व जीवन प्रवास चालू आहे.  संवाद माध्यमातून प्रबोधन करणारी पिढी समोरासमोर आली तरी  ओळख दाखवताना दहा वेळा विचार करून ओळख दाखवते अशी  सद्य परिस्थिती आहे.  नवीन पिढीला  आर्थिक दृष्ट्या स्वयंपूर्ण करून देताना  आपण आपल्याच लेकरांना चार भिंतीची ओळख करून देतो पण त्या भिंतीवर  असणाऱ्या छप्पराचे ,  त्या चार कोनाचे कौटुंबिक महत्त्व सांगायला विसरतो.

नव्या वाटेने चालताना  जुन्या आठवणींना उजाळा देणारे प्रसंग घडतात. तेव्हा  आपली माणसे  आपल्या सोबत  असावीत.  नव्या जमान्यात वावरताना  आपण कुठे चाललो आहोत याचा विचार करण्याची वेळ आली आहे.  आपला जीवनप्रवास ह्रदयापासून ह्रदयापर्यत व्हायला हवा  इतके जरी  आपण ठरवले तरी मला वाटत  आपण माणसांना घेऊन, माणसासोबत  आपला जीवन प्रवास सुरू ठेऊ. होय ह्रदयापासून ह्रदयापर्यत.

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 5 ☆ अमीर बनाने का साफ्टवेयर ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “अमीर बनाने का साफ्टवेयर ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 5 ☆ 

 

☆ अमीर बनाने का साफ्टवेयर ☆

 

युग इंटरनेट का है।सब कुछ वर्चुएल है. चांद और मंगल पर भी लोग प्लाट खरीद और बेच रहे है. धरती पर तो अपने नाम दो गज जमीन नहीं है, गगन चुम्बी इमारतों में, किसी मंजिल के किसी दडबे नुमा फ्लैट में रहना महानगरीय विवशता है, पर कम्प्यूटर के माध्यम से अंतरजाल के जरिये दूसरी दुनियाँ की राकेट यात्राओं के लिये अग्रिम बुकिंग हो रही है, इस वर्चुएल दुनियां में इन दिनों मैं बिलगेट्स से भी बडा रईस हूँ.

हर सुबह जब मैं अपना ई मेल एकाउण्ट, लागइन करता हूं, तो इनबाक्स बताता है कि कुछ नये पत्र आये है. मैं उत्साह पूर्वक माउस क्लिक करता हूँ, मुझे आशा होती है कि कुछ संपादकों के स्वीकृति पत्र होगें, और जल्दी ही में एक ख्याति लब्ध व्यंग्यकार बन जाऊंगा, पत्र पत्रिकायें मुझ से भी अवसर विशेष के लिये रचनाओं की मांग करेंगे. मेरी मृत्यु पर भी जाने अनजाने लोग शोक सभायें करेंगे, शासन, मेरा एकाध लेख, स्कूलों की किसी पाठ्यपुस्तक में ठूंस कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेगा, हो सकता है मेरे नाम पर कोई व्यंग्य अलंकरण बगैरह भी स्थापित हो जावे. आखिर यही सब तो होता है ना, पिछले सुप्रिसद्व व्यंग्य धर्मियों के साथ।

पर मेरी आशा निराशा में बदल जाती है, क्योंकि मेल बाक्स में साहित्यिक डाक नहीं, वरन अनजाने लोगो की ढेर सी ऐसी डाक होती है, जिससे में वर्चुएली कुछ और रईस बन जाता हं.

मुझे लगता है कि दोहरे चरित्र और मल्टिपल चेहरे की ही तरह ई मेल के इस जमाने में भी हम डाक के मामले में दोहरी व्यवस्था के दायरे में है. अपने विजिटिंग कार्ड पर, पत्र पत्रिका के मुख पृष्ठ पर, वेब एड्रेस और ई मेल एड्रेस लिखना, स्टेटस सिंबल मात्र बना हुआ है. जिन संपादको को मैं ई मेल के जरिये फटाफट लेख भेजता हूँ, उनसे तो उत्तर नहीं मिलते, हाँ जिन्हें हार्ड प्रिंट कापी मैं डाक से भेजता हूँ, वे जरूर फटाफट छप जाते हैं, मतलब साफ है, या तो साफ्टवेयर, फान्टस मिस मैच होता है, या मेल एकाउंट खोला ही नहीं जाता क्योंकि पिछली पीढी के लोगो ने पत्रिका का चेहरा सामयिक और चमकदार बनाने के लिये ई मेल एकाउण्ट क्रियेट करके उसे मुख पृष्ठ पर चस्पा तो कर लिया है, पर वे एकाउण्ट आपरेट नहीं हो रहे. वेब साईट्स अपडेट ही नहीं की जाती, हार्ड कापी में ही इतनी डाक मिल जाती है कि साफ्ट कापी खोलने की आवश्यकता ही नहीं पडती।ई सामग्री अनावरित, अपठित वर्चुएल रूप में ही रह जाती है.

सरकारी दफ्तरों में पेपर लैस आफिस की अवधारणा के चलते इन दिनों प्रत्येक जानकारी ई मेल पर, साथ ही सी.डी.पर और त्वरित सुविधा हेतु हार्ड कापी पर भी बुलाते है. समय के साथ चलना फैशन है.

यदि मेरे जैसा कोई अधिकारी कभी गलती से, ई मेल पर कोई संदेश अपने मातहतो को प्रेषित कर, यह सोचता है कि नवीनतम तकनीक का प्रयोग कर सस्ते में, शीध्रता से, कार्य कर लिया गया है, तो उसे अपनी गलती का आभास तब होता है, जब प्रत्येक मातहत को फोन पर अलग से सूचना देनी पडती है, कि वे कृपया अपना ई मेल एकाउण्ट खोलकर देखें एवं कार्यवाही करें.

ई वर्किग का सत्य मेरे सम्मुख तब उजागर हुआ, जब मेरे एक मातहत से प्राप्त सी.डी. मैने अपने कम्प्यूटर पर चढाकर पढनी चाही. वह पूर्णतया ब्लैंक थी. पिछले अफसर के कोप भाजन से बचने के लिये, कम्प्यूटर पर जानकारी न बनने पर भी, वे लगातार कई महीनों से ब्लैंक सी.डी. जमा कर देते थे. और अब तक कभी पकडे नहीं गये थे. कभी किसी बाबू ने कोई पूछताछ करने की कोशिश की तो सी.डी. न खुलने का, साफ्टवेयर न होने या सी. डी. करप्ट हो जाने का, वायरस होने वगैरह का स्मार्ट बहाना कर वे उसे टालू मिक्चर पिला देते थे. ई गर्वनेंस का सत्य उद्घाटित करना हो तो पांच-दस सरकारी विभागों की वेब साईटस पर सर्फिग कीजिये. नो अपडेट… महीनों से सब कुछ यथावत संरक्षित मिलेगा अपनी विरासत से लगाव का उत्कृष्ट उदाहरण होती हैं ये साइट्स.

सरकारी वर्क कल्चर में आज भी ई वर्किग, युवा बडे साहब के दिमाग का फितूर माना जाता है.  अनेक बडे साहबों ने पारदर्शिता एवं शीघ्रता के नारे के साथ, पुरूस्कार पाने का एक साधन बनाकर, प्रारंभ करवाया। हौवा खडा हुआ विभाग का वेब पेज बना. पर साहब विशेष के स्थानांतरण के साथ ही ऐसी वेब साईट्स का हश्र हम समझ सकते हैं.

कुछ समझदार साहबों ने आम कर्मचारी की ई अज्ञानता का संज्ञान लेकर विभाग के विशिष्ट साफ्टवेयर, विशेष प्रशिक्षण, एवं कम्प्यूटर की दुनियाँ में तेजी से होते बदलाव तथा कीमतों में कमी के चलते, कमाई के ऐसे कीर्तिमान बनाये, जिन पर कोई अंगुली भी नहीं उठा सकता।मसला ई गर्वनेंस का जो है।बौद्विक साफ्टवेयर कहाँ, कितने का डेवेलेप हो यह केवल बडे, युवा साहब ही जानते है.

अस्तु, जब से मैने एक नग ब्लाग बनाकर अपना ई मेल पता सार्वजनिक किया है, मैं दिन पर दिन अमीर होता जा रहा हूं, वर्चुएल रूप में ही सही. गरीबी उन्मूलन का यह सरल, सुगम ई रास्ता मैं सार्वजनिक करना चाहता हूँ.  इन दिनों मुझे प्रतिदिन ऐसी मेल मिल रही है. जिनमे मुझे लकी विनर, घोषित किया जाता है. या दक्षिण अफ्रीका के किसी एड्वोकेट से कोई मेल मिलता है, जिसक अनुसार मेरे पूर्वजों में से कोई ब्लड रिलेशन, एअर क्रेश में सपरिवार मारे गये होते  मेरी संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार यह पढकर मुझे गहन दुख होना चाहिये, जो होने को ही था, कि तभी मैने मेल की अगली लाइन पढी.  मेल के अनुसार अब उनकी अकूत संपत्ति का एकमात्र स्वामी मैं हूँ, और एडवोकेट साहब ने बेहद खुफिया जांच के बाद मेरा पता लगाकर, अपने कर्तव्य पालन हेतु मुझे मेल किया है. और अब लीगल. कार्यवाहियों हेतु मुझ से कुछ डालर चाहते हैं.

मैं दक्षिण अफ्रीका के उस समर्पित कर्तव्य निष्ठ एड्वोकेट की प्रशंसा करता हुआ अपने गांव के उस फटीचर वकील की बुराई करने लगा, जो  गाँव के ही पोस्ट आफिस में जमा मेरे ही पैसे, पास बुक गुम हो जाने के कारण, मुझे ही नहीं दिलवा पा रहा है. यह राशि मिले तो मैं अफ्रीका के वकील को उसके वांछित डालर देकर उस बेहिसाब संपत्ति का स्वामी बनूं, जिसकी सूचना मुझे ई मेल से दी गई है. इस  पत्र के बाद लगातार कभी दीवाली, ईद, क्रिसमस, न्यूईयर आदि फेस्टिवल आफर में, कभी किसी लाटरी में, तो कभी किसी अन्य बहाने मुझे करोडों डालर मिल रहे हैं, पर उन्हें प्राप्त करने के लिये जरूरी यही होता है कि मैं उनके एकाउंट में कुछ डालर की प्रोसेसिंग फीस जमा करूँ.  मैं गरीब देश का गरीब लेखक, वह नहीं कर पाता और गरीब ही रह जाता हूँ तो इस तरह, नोशनल रूप से मैं इन दिनों बिल गेट्स से भी अमीर हूँ अपने एक अदद, फ्री, ई मेल एड्रेस के जरिये.

जब मैंने ई मेलाचार के इस पक्ष को समझने का प्रयत्न किया तो ज्ञात हुआ कि ई मेल एड्र्सेस, खरीदे बेचे जाते हैं, कोई है जो मेरा ई मेल एड्र्स भी बेच रहा है।स्वयं तो उसे बेचकर अमीर बन रहा है, और मुझे मुर्गा बनाने के लिये, अमीर बनाने का प्रलोभन दिया जा रहा है।अरबों की आबादी वाली दुनियां में 2-4 लोग भी मुर्गा बन जाये तो, ऐसे मेल करने वालों को तो, बेड बटर का जुगाड हो ही जायेगा ना, हो ही जाता है.

अब मुझे पूर्वजों के अनुभवों से बनाई गई कहावतों पर संशय होने लगा है. कौन कहता है कि ’’लकडी की हांडी बार-बार नहीं चढती ’’ ? कम से कम अमीर बनाने के ये मेल तो यही प्रमणित कर रहे है, अब मैं यह भी समझने लगा हूं कि मैं स्वयं को ही बेवकूफ नहीं समझता.  मेरी पत्नी, सहित वे सब लोग भी जो मुझे इस तरह के मेल कर रहे है, मुझे विशुद्व बेवकूफ ही मानते हैं, वे मानते हैं कि मै उनके झांसे में आकर उन्हें उनके बांधित ’ डालर ’ भेज दूंगा. पर मैं इतना भी बेवकूफ नहीं हूँ मैंने वर्चुएल रईसी का यह फार्मूला निकाल लिया है, और बिना एक डालर भी भेजे, मैं अपनी बर्चुएल संपत्ति  एकत्रित करता जा रहा हूँ, तो आप भी अपना एक ई मेल एकांउट बना डालिये ! बिल्कुल फ्री, उसे सार्वजनिक कर डालिये. और फिर देखिये कैसे फटाफट आप रईस बन जाते है. वर्चुएल रईस.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #7 ☆ फिर वही ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “फिर वही”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #7 ☆

 

☆ फिर वही  ☆

 

रात के १२ बजे थे.  गाड़ी बस स्टैंड पर रुकी.

मेरे साथ वह भी बस से उतरा, ” मेडम ! आप को कहाँ जाना है ?”

यह सुन कर मुझे गुस्सा आ गया,”उन के पास” मैंने गुस्से में पुलिस वाले की तरफ इशारा कर दिया.

बस स्टैंड पर पुलिस वाला खड़ा था.

मैं उधर चली गई औए वह खिसक लिया.

फिर पुलिस वाले की मदद से मैं अपने रिश्तेदार के घर पहुँची.

जैसे ही दरवाजा खटखटाया, वैसे ही वह महाशय मेरे सामने थे, जिन्हें मैंने  गुंडा समझ लिया था. उन्हें देख कर मेरी तो बोलती ही बंद हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 7 – आकार…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। अब आप श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “आकार…!”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #6☆ 

 

☆ आकार…!☆ 

 

कुभाराचं ते मातीची भांडी घडविणारं चाक मला कायमच जवळच वाटत गेलं.   फिरत्या चाकावर मातीला हवा तसा आकार देताना त्याचा हात चुकत नाही पण त्याच्या आयुष्याचा आकार  मात्र नेहमीच चुकत गेला. हे अस का होतं? परंपरागत व्यवसाय स्विकारताना त्याच्या  आयुष्याचं मातेरं का व्हावं?

त्याचं  आख्खं आयुष्य गेलं ह्या फिरत्या चाकावर मातीला हवा तसा आकार देण्यात पण हे चाक कधी त्या कुंभाराला  हवं तसं फिरलंच नाही. आणि परिस्थितीला हवा तसा आकार त्याला  कधी देताच आला नाही.

या कुंभाराची लेकरं लहान असताना, त्यांची कित्येक स्वप्न त्याने, नाईलाजास्तव, प्रापंचिक  अडचणींच्या,

पायवाटेवर  चिखलात तुडवताना मी पाहिली आहेत.  तो कुंभार मी कवी. तो निर्मिती करत गेला आणि त्याची तुटपुंजी कमाई पहाताना मी हळवा होत गेलो.

आणि त्या कुंभाराच्या सुखस्वप्नांच्या चिखलाची त्यांच्या साठीच नव नवी हवी तशी  विविध आकाराची भांडी तो बनवत गेला. त्याचं जगण त्याच्या स्वप्नांना आकार  देत गेलं .

तो कुंभार  आता थकलाय. इतकी वर्षे संभाळून ठेवलेल्या परिस्थितीचा घडा आता, हळूहळू पाझरू लागलाय.त्याच्या  पायाखालचा चिखलही आता पहील्या पेक्षा कमी झालाय कारण आता…

त्याच्या लेकरांनी आपआपल्या स्वप्नांचा चिखल

आपआपल्या पायाखाली तुडवायला सुरवात केलीय

पुन्हा नव्याने परिस्थितीला, त्यांना हवा तसा आकार देण्यासाठी….!

हे वास्तव मला जाणवलं. ते मनात रेंगाळत  असतानाच माझ्याही मनात  एका कवितेने  आकार घेतला. .

तोपर्यंत तो कुंभार त्याचा जीवनप्रवास साकार झाला होता. मातीच्या भांडयान कलेचा आधार घेतला होता. त्याची मुलही मातीची भांडी बनवतात. वापरण्यासाठी नाही तर सिरॅमिक पॉट शोभिवंत फुलदाणी म्हणून. . . . !

 

© सुजित कदम, पुणे 

 

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